30 मार्च 2009

आफरीन खान की दो कवितायें


ज़िन्दगी और मौत
---------------------------------------
ज़िन्दगी और मौत मे फक़त
एक पल का फासला होता है
हर सांस आखिरी हो सकती है
इन्सां कुछ भी नही कर सकता है
हर बात का वक्त मुकर्रर होता है
हर काम अपने वक्त पर होता है
इंसान क्या कुछ नही सोचता है
न जाने कितने ख़्वाब सजाता है
नादां नही जानता कि होता वही है
जो उसकी तक़दीर में लिखा होता है
मौत ऐसा एक तूफान है जो संग
अपने सब कुछ बहा ले जाता है
ज़िन्दगी कफ़न मे मुँह छुपाती है
हरसू एक सन्नाटा पसर जाता है
------------------------------------
वक्त
--------------------------------------
वक्त से बढ़कर इस जहाँ में
कुछ भी नहीं होता है,
हर रिश्ता, हर मुहब्बत,
हर शय वक्त के हाथो की
कठपुतली होती है।
वक्त अच्छा होता है तो
हर चीज़ मुकम्मल होती है,
सारे रिश्ते, अपने परायें
सब साथ होते है।
हर सुख में हर दुख में
वो कितने करीब होते है,
लगता है जैसे ये नाते
हरदम यूंही साथ निभाएगें,
हर खुशी में, हर ग़म मे
हमारा हौंसला ये बढ़ाएंगे।
और एक रोज़ जब वक्त का
मिजाज़ बदलता है
आसमान की बुलन्दियों से वो
जमीन पर ला पटकता है,
सारे दोस्त अहबाब बदल जाते है,
जो कभी दो ज़िस्म एक जान थे
वो यार बदल जाते है।
जो मुहब्बतो का सौदा करते है
दुनियाँ के बाजार मे सिर्फ
घाटा ही उठाते है,
इस कीमती माल के बदले
आँसू और आहें ही कमाते है।
वक्त के हाथों तन्हाई का
इनाम पाकर बीते हुए वक्त की
यादों को सम्भालते सहेजते हुए
आने वाले वक्त के इन्तेज़ार में
ज़िन्दगी का बचा हुआ
वक्त गुज़ारते चले जाते है।
----------------------------------
आफरीन खांन
राजनीति विज्ञान विभाग
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-२२१००५

Email- khan_vns@yahoo.com

26 मार्च 2009

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - जानने की जंग का पहला पड़ाव - सूचना का अधिकार

लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को यह जानने का हक है कि सरकार अपने अधिकार का किस तरह इस्तेमाल कर रही है जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं होगा वहाँ लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। लोकतंत्र में सूचना के अधिकार का अपना विशिष्ट महत्व है, क्योंकि इससे सरकार और जनता के बीच सीधा रिश्ता तय होगा इस अधिकार के पास हो जाने से यह भी सुनिश्चित होगा कि जबावदेही किसके प्रति कैसी होनी चाहिये। वास्तव में देखा जाये तो इस कानून से लोकतंत्र की असली पहचान की भूमिका भी तय होगी। हमारे यहाँ सूचना के अधिकार की लड़ाई जमीनी है। यानी सूचना पाने की जद्दोजहद गरीब लोगों के बीच से निकला हुआ मसला है। वास्तव में देखा जाये तो यह कानून जीने के हक से भी जुड़ा है क्योंकि भ्रष्टाचार ने आम लोगों का हक मार दिया है।
वर्तमान की बात करें तो भारत में नौकरशाही संस्कृति की वजह से गोपनीयता की चादर फैली हुई है। ये कुलीन लोग जनता से दूरी बनाये हुए हैं और एक कृत्रिम आवरण ने सच्चाई पर पर्दा डाल रखा है। सरकारी गोपनीयता कानून 1923 का हवाला देकर अब भी औपनिवेशिक काल के कानून को वैधानिक बनाए रखा गया है और देखा जाए तो यही गोपनीयता कानून सूचना के अधिकार के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा था। (आज के करीब 84 वर्ष पहले 1923 में बना सरकारी गोपनीयता कानून यानी आफिसियल सीक्रेट्स एक्ट की धाराएं पांच और छह) वास्तव में देखा जाए तो इस कानून के बनाने की कहानी अंग्रेजी सरकार ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद से ही शुरू कर दी थी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद पहली बार 1889 में यह कानून बना था। बाद में 1904 में इसे और सख्त बना दिया गया। इस कानून की धारा 1.5 और 6 के प्रावधानों का फायदा उठाकर ही अभी तक सरकारी अधिकारी सूचनाओं को गोपनीय बनाये रखते थे परन्तु संसद के दोनों सदनों ने सूचना के अधिकार सम्बन्धी विधेयक (11.12 मई 2005) को धारा 15.और 6 गोपनीयता कानून 1923) संशोधित कर दिया गया है।
यहाँ प्रश्न उठते हैं कि इस सूचना के अधिकार से क्या भ्रष्टाचार में अंकुश लग जाएगा ? क्या अब निर्वाचित जन प्रतिनिधि की जनता के प्रति जबावदेही बढ़ेगी ? क्या सरकारी अधिकारियों की मनमानी रूकेगी ? क्या नीतियां बनाने और उनके क्रियान्वयन में जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी और अंतत क्या हमारा लोकतंत्र पहले के मुकाबले ज्यादा पारदर्शी हो सकेगा ? निश्चित रूप से यह सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सूचना के अधिकार के साथ कुछ खतरे हो सकते हैं ? और सरकार के लिए यह दुधारी तलवार भी है किन्तु सरकार ने इसके दुरूपयोग रोकने के लिए, पुख्ता इंतजाम भी किए हैं। सुरक्षा मामलों की जानकारी और खुफिया एजेंसियों को इसके दायरे से बाहर रखकर एक संतुलन कायम करने की कोशिश की गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना में ताकत होती है और आज लगभग हर स्तर का अधिकारी सूचनाएं छिपाकर मननमानी करता है। गलत तरह से पैसा कमाता है। साथ ही अधिकारों पर कब्जा जमाता है और शक्तियों का दुरूपयोग करता है। अतः सूचना के अधिकार का मुख्य उद्देश्य सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार पर नकेल डालकर कार्य कुशलता को बेहतर करना है। इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि ‘‘इससे देश में लोकतंत्र की नींव मजबूत होगी और गवर्नेस में सुधार आएगा। (संसद में सूचना के अधिकार विधेयक पर प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह के वक्तव्य का मुख्य अंश 11ए 12 मई 2005)
12 अक्टूबर सन् 2005 ई. से लागू सूचना का अधिकार लगभग बारह वर्षों से आन्दोलन का रूप अख्तियार कर रहा था। यहाँ इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि सूचना के अधिकार के लिए भारत में जिस तरह से आन्दोलन चलाए गए, वैसा दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में दिखाई नहीं पड़ता। इस आन्दोलन को अरूणाराय और उनके साथियों ने अपने संघर्ष को ‘जीने और जानने की जंग’ कहा था। (सहारा समय-जानने की जंग का पहला पड़ाव 4 जून 2005 पृ. 22.23)। सूचना के अधिकार के तहत हालांकि दंड का प्रावधान रखा गया है परन्तु इस पर अमल होगा यह सभी कुछ हर तक मात्र एक स्वप्न की तरह है जब तक यह कानून केवल कुछ नियमों उपनियमों के रूप में कुछ पृष्ठों की शक्ल के रूप में ही सीमित रहेगा। यह अधिकार जहाँ एक ओर नागरिकों और सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करेगा वहीं इस विधेयक में कुछ ऐसे चोर दरवाजे नौकरशाहों और सरकारी अफसरों के बीच पनप सकते हैं। जिन्हें स्पष्ट करना कठिन हो सकता है। ‘मसलन, विधेयक में ऐसे करीब दर्जनों क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है। जिन क्षेत्रों की सूचनाएं कोई नागरिक नहीं मांग सकता। जैसे वे सूचनाएं जिनके सार्वजनिक होने से भारत की प्रभुता, अखण्डता, सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों और विदेशों से सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। अब सवाल उठता है कि इसका निर्धारण कैसे होगा कि अमुख सूचना देश की एकता-अखण्डता ..... के लिए गोपनीय रखी जाएगी ? स्पष्ट है सरकारी अधिकारी ही इसे निर्धारित करेंगे और एक बार फिर हमारा लोकतंत्र ठगा जायेगा क्योंकि प्रतिबंध क्षेत्र में आने वाली सूची, दूसरे क्षेत्रों न्यायालयीय मामले, संसद और विधान मंडलों के विदेशी अधिकार से जुड़ी चीजें, मंत्रिमंडल की बैठकों के दस्तावेज-जैसे अनेक मुद्दे है जिनसे सम्बन्धित सूचनाएं हर हाल में गोपनीय रखी जाएगी। बात यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि सूचनाओं से वंचित रखने वाले अधिकारी के विरूद्ध अपील की प्रक्रिया भी थोड़ी जटिल है निचली से ऊपरी अदालत ने न्याय मांगने के लिए मुकदमों का सिलसिला कहीं ऐसा न कर दे कि व्यक्ति मुकदमों के बोझ से दब जाये और इन मामलों में ही हमारी अदालतें उलझ जाएं।
सबसे महत्वपूर्ण बात आज यह है कि हम 21वीं सदी में प्रवेश कर गये हैं और भूमण्डलीकरण में बाजार एवं पैसा महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन कर रहा है और ऐसे में निजी क्षेत्र का योगदान कम करके नहीं आँका जा सकता है। निजी कम्पनियों फर्मों और उद्यमों की भूमिका लगातार बढ़ रही है तब हर क्षेत्र का जबाव देह बनाना और उसमें पारदर्शिता लाने की अहमियत और ज्यादा हो जाती है। शायद यह काम सेवी के नियमों और तमाम कम्पनी कानूनों के जरिये संभव नहीं है। अगर संभव होता है तो आये दिन घोटाले और हवालाकांड न होते। इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि ‘‘हमारे देश में एक छोटी सी जानकारी न देने की लापरवाही के चलते भोपाल गैस त्रासदी हुई थी। अगर एंडरसन की कम्पनी में भोपाल की बस्तियों में रहने वाले लोगों को उस जहरीली गैस से बचने के उपायों की समुचित जानकारी मुहैया करा दी होती तो हजारों लोग मौत के मुँह में जाने से बच गये होते। निजी क्षेत्र को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखना भी सरकार की नीति एवं नियति को स्पष्ट नहीं करता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से सूचना के अधिकार का दावा
वर्तमान में करीब तीस से अधिक देशों को सूचना का अधिकार प्राप्त है लेकिन सूचना का अधिकार देने वाला पहला देश स्वीडन है। स्वीडन के नागरिकों को यह अधिकार 1766 में मिल गया था। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसकी शुरूआत पहले प्रेस आयोग 1952 से हुई। सरकार ने इस आयोग से कहा कि वह प्रेस की आजादी सम्बन्धी जरूरी प्रावधानों पर सुझाव दे। आयोग ने कहा कि पारदर्शिता जरूरी है न कि सूचना का अधिकार। इसी दौरान सरकारी गोपनीयता कानून 1967 में संशोधत सम्बन्धी प्रस्ताव आये। प्रस्ताव खारिज कर दिया गया और कानून को सख्त बना दिया गया। सत्ता परिवर्तन के बाद जनता पार्टी ने सन् 1977 में अपने घोषणापत्र में सूचना का अधिकार प्रदान करने का वायदा किया वायदे पर अमल करते हुये कैबिनेट सचिव की अगुवाई में एक टास्क फोर्स गठित किया गया। परन्तु इसमें भी कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला। इसी समय दूसरा प्रेस आयोग 1978 में बना। इसकी कुछ सिफारिशें ही बन सकीं जो सरकार को मान्य नहीं हो सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1981.82 और सन् 1986 ई. में कुछ फैसले सुनाए। इसके तहत आम आदमी को सूचना का अधिकार दिए जाने की बात कही गई। सन् 1989 ई. में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सूचना का अधिकार कानून बनाने के लिए पहली बार सार्थक प्रयास करने की शुरूआत की। सक्षम अधिकारियों की एक टीम स्कैंडिनेयाई देशों में भेजी गयी ताकि वहाँ मौजूद सूचना के अधिकार सम्बन्धी कानूनों का गहन अध्ययन दिया जा सके। परन्तु इस यात्रा का भी कोई सन्तोषजनक हल नहीं निकला। सन् 1990 में न्यायाधीश सरकारिया की अध्यक्षता में 1990 में प्रेस परिषद ने कुछ सिफारिशें की परन्तु सरकार की उदासीनता से इसमें सफलता नहीं मिली। सन् 1996 ई. के लोकसभा के चुनाव में लगभग सभी पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्रों में कानून बनाने का वायदा किया और सन् 1997 ई. में दो विधेयक भी लाये गये। एक विधेयक एच0 डी0 सौरी का था और दूसरा न्यायाधीश सावंत के नेतृत्व में गठित टारक फोर्स का, लेकिन दोनों विधेयकों पर गौर नहीं फरमाया गया। इसके बाद देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें आई। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी बनी। कानून भी पास हुआ लेकिन यू0 पी0 ए0 सरकार की उसमें खामियां दिखीं और उसने दोबारा विधेयक का मसौदा तैयार कराया। इस मसौदे का प्रतिफल संसद के दोनों सदनों में करीब 60 वर्ष बाद ही सही हमारी सरकार ने 11.12 मई 2005 को विधेयक पास कराया और 12 अक्टूबर 2005 से यह तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान सहित कई राज्यों में कानून के रूप में कार्य कर रहा है।
सूचना के अधिकार की लड़ाई
जन्म मध्य राजस्थान - व्यावर शहर (चांग गेट)
- राजनीतिक सभा, आंदोलन, हड़ताल, जलापूर्ति
- 13 अक्टूबर 2005
सूचना का अधिकार अधिनियम सर्वप्रथम मांग व्यावरवासियों ने की
जनप्रतिक्रिया - ‘‘न्यूनतम मजदूरी की मांग’’
- अप्रैल 1996 में आंदोलन प्रारंभ
स्वशासन की दिशा में पहला कदम -
1996 में स्थानीय स्वशासी निकायों के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराने के लिए पंचायती राज अधिनियम में संशोधन किया जाए।
खर्चे सम्बन्धी बिल और शासन के समस्त क्षेत्रों को सूचना का अधिकार देने हेतु अधिनियम की मांग।।
क्रियान्वयन -
राजस्थान का कानून पहला कानून दंड का प्रावधान नही है।
दोषी अधिकारियों के खिलाफ लोक सेवा आचरण विनियम के तहत कार्यवाही।
सूचना के प्रयोक्ता को पारदर्शिता तथा जबावदेही का समान मानक अपनाने के लिए बाध्य करता है।
आंदोलन तथा सूचना का अधिकार -
महाराष्ट्र में अन्ना हजारे द्वारा राज्य स्तरीय सर्वोत्तम अधिनियम पारित हुआ।
‘परिवर्तन’ नामक संस्था ‘‘मधु भादुड़ी’’ ने दिल्ली जलबोर्ड द्वारा संशोधन से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए आवेदन किया है।
1991 के बाद चलाए गए आंदोलन
‘नेशनल कैम्पेन फार पीपुल्स राइट टू इन्फोर्मेशन’ का श्रेय - श्रीमती अरूणाराय।
भ्रष्टाचार निवारण हेतु गठित संस्था ‘परिवर्तन’ के अध्यक्ष ‘‘अरविंद केजरीवाल’’ को रेमन मैगसे से पुरस्कार, 2006 ।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और हमारी कोशिश होनी चाहिये कि हम सकारात्मक पहलू की ओर अधिक ध्यान दें। वर्तमान में हर तरफ तकनीक का जोर है। जिस समाज के पास जितनी ज्यादा सूचनायें होगी सरकार भी सामुदायिक जरूरतों को लेकर उतनी ही ज्यादा सकारात्मक और स्पष्ट नजरिया रखेगी। निसंदेह सरकारी सूचना राष्ट्रीय स्रोत होती है। कोई सरकार या सरकारी अधिकारी अपने लाभ के लिये सूचनाएं तैयार नहीं करते। सूचनाएं या जानकारियां अधिकारियों के अपने कर्तव्यों के निर्वहन के काम आती हैं। इसी के जरिये संस्थाएं जनता के हित में अपनी सेवाएं देती है। इस तरह सरकार और अधिकारीगण जनता की सूचना देने वाले न्यासी होते हैं। संसदीय लोकतंत्र में सूचनाएं सरकार के जरिए संसद और सांसदों के पास पहुँचती हैं। इसके बाद उन्हें जनता तक पहुँचाया जाता है। जनता अपने प्रतिनिधियों के जरिये सूचनाएं हासिल कर सकती है।
-------------------------------------
सम्पर्क:
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
-------------------------------------
लेखक परिचय –

युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

24 मार्च 2009

आकांक्षा यादव की लघुकथा - काला आखर

बचपन से लिखी गयी कविताओं को काव्य-संग्रह रूप में छपवाने का मालती का बहुत मन था। इस विषय में उसने कई प्रकाशकों से संपर्क भी किया, किन्तु निराशा ही मिली। मालती कालेज में हिन्दी की प्रवक्ता के साथ-साथ अच्छी कवयित्री भी थी। काफी प्रयास के पश्चात एक प्रकाशक ने मालती के काव्य-संग्रह का प्रकाशन कर ही दिया। मालती के कार्यरत कालेज के प्रेक्षागार में ही इस काव्य-संग्रह के विमोचन की तैयारी भी प्रकाशक ने अपनी ओर से कर दी।
आज कालेज के अनेक सहकर्मी सुबह से मालती को उसके प्रथम काव्य-संग्रह के प्रकाशन और मंत्री जी द्वारा प्रस्तावित विमोचन की बधाई दे रहे थे। मालती का मन नहीं था कि इस काव्य-संग्रह का विमोचन मंत्री जी करें। इसकी बजाय वह विमोचन किसी वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा चाहती थी, ताकि साहित्य जगत में उसके प्रवेश को गम्भीरता से लिया जाय और इस संग्रह के बारे में चर्चा हो सके। किन्तु प्रकाशक ने उसे समझाया कि इस काव्य-संग्रह का मंत्री जी द्वारा विमोचन होने पर पुस्तकों की बिक्री अधिक होगी। लाइब्रेरी तथा सरकारी संस्थानों में मंत्री जी किताबों को सीधे लगवा भी सकते हैं। आगे इससे फायदा ही फायदा होगा।

देर शाम तक मंत्री जी अपने व्यस्त समय में से कुछ समय निकाल कर कालेज के प्रेक्षागार में तीन घण्टे देरी से पहुँचे। मंत्री जी के पहुँचते ही हलचल आरम्भ हुई और मीडिया के लोगों ने लैश चमकाने शुरू कर दिये। संचालक महोदय मंत्री जी की तारीफों के पुल बांधते जाते, जिससे वे और भी प्रसन्न नजर आते। अन्ततः मंत्री जी ने मालती की पुस्तक का विमोचन किया। विमोचन के पश्चात मालती ने उपस्थित दर्शकों की तालियों के साथ अपनी प्रथम प्रकाशित काव्य-संग्रह की प्रतियाँ अन्य विशिष्टजनों को भी उत्साह के साथ भेंट की। अपने इस पहले काव्य- संग्रह के प्रकाशन से मालती बहुत खुश थी।

मंत्री जी ने पुस्तक का विमोचन करने के बाद उसे मेज पर ही रख दिया और उपस्थित जनों को सम्बोधित करते हुये लम्बा भाषण दे डाला। मालती सोच रही थी कि अब मंत्री जी उसे विमोचन की बधाईयाँ देंगे, पर मंत्री जी तो अपनी ही रौ में बहते हुए स्वयं का स्तुतिगान करने लगे। सम्बोधन के पश्चात मंत्री जी सबका अभिवादन स्वीकार करते हुये बाहर निकल गये। मंत्री जी और उनके स्टाफ ने विमोचित पुस्तक को साथ ले जाने की जहमत भी नहीं उठाई। मालती उस प्रेक्षागार में अब अकेली रह गयी थी। उसने चारों ओर देखा तो जिस जोश से उसने खद्दरधारी लोगों को पुस्तकें भेंट की थी, उनमें से तमाम पुस्तकें कुर्सियों पर पड़ी हुई थी और कई तो जमीन पर बिखरी हुई थी। वह एक बार उन पुस्तकों को देखती और दूसरे क्षण उसके कानों में प्रकाशक के शब्द गूँजते कि मंत्री जी द्वारा विमोचन होने पर पुस्तकों की बिक्री अधिक होगी।
--------------------------------
प्रवक्ता,
राजकीय बालिका इण्टर कालेज

नरवल, कानपुर (उ0प्र0) – 209401
-----------------------------------
जीवन-परिचय
नाम- आकांक्षा यादव

जन्म - 30 जुलाई 1982, सैदपुर, गाजीपुर (उ0 प्र0)

शिक्षा- एम0 ए0 (संस्कृत)

विधा- कविता, लेख व लघु कथा

प्रकाशन- देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं मसलन- साहित्य अमृत, कादम्बिनी, युगतेवर, अहा जिन्दगी, इण्डिया न्यूज, रायसिना, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, अमर उजाला कांपैक्ट, आज, गोलकोण्डा दर्पण, युद्धरत आम आदमी, अरावली उद्घोष, मूक वक्ता, सबके दावेदार, प्रगतिशील आकल्प, शोध दिशा, कुरूक्षेत्र संदेश, साहित्य क्रांति, साहित्य परिवार, साहित्य परिक्रमा, साहित्य जनमंच, सामान्यजन संदेश, राष्ट्रधर्म, सेवा चेतना, समकालीन अभिव्यक्ति, सरस्वती सुमन, शब्द, लोक गंगा, रचना कर्म, नवोदित स्वर, आकंठ, प्रयास, पथ की कलम, नागरिक उत्तर प्रदेश, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा, मेरी संगिनी, वुमेन आन टाप, बाल साहित्य समीक्षा, वात्सल्य जगत, पंखुड़ी, लोकयज्ञ, कथाचक्र, नारायणीयम्, मयूराक्षी, चांस, गुतगू, मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद पत्रिका, हिन्दी प्रचार वाणी, गुर्जर राष्ट्रवीणा, साहित्यकार कल्याण परिषद, खरी कसौटी, विविधा, दहलीज, विश्व स्नेह समाज, जूनियर्स न्यूज, खबरी, कविता श्री, सीप, शिवम्, अदबी माला, कल्पान्त, अहल्या, सामथ्र्य, जर्जर कश्ती, प्रियंत टाइम्स, लोक मर्यादा, मारूति ज्योति, फुल टेंशन, बड़ा बाजार, सच का साया, सच्ची आकांक्षा, दि मारल, हेलो कानपुर, कमाल कानपुर इत्यादि में रचनाओं का प्रकाशन। विभिन्न प्रतिष्ठित काव्य संकलनों में कविताओं का प्रकाशन। विभिन्न वेब पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, स्वर्गविभा, कथाव्यथा, युगमानस, कलायन इत्यादि पर रचनाओं का नियमित प्रकाशन।

सम्पादन- ’’क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा’’ पुस्तक में सम्पादन सहयोग।

सम्मान-

साहित्य गौरव, काव्य मर्मज्ञ, साहित्य श्री, साहित्य मनीषी, शब्द माधुरी, भारत गौरव, साहित्य सेवा सम्मान,
देवभूमि साहित्य रत्न इत्यादि सम्मानों से अलंकृत। राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा "भारती ज्योति’’ एवं भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘‘

रुचियाँ- रचनात्मक अध्ययन व लेखन। नारी विमर्श, बाल विमर्श व सामाजिक समस्याओं सम्बन्धी विषय में विशेष रूचि।

सम्प्रति/सम्पर्क-

प्रवक्ता, राजकीय बालिका इण्टर कालेज, नरवल, कानपुर (उ0 प्र0)- 209401
kk_akanksha@yahoo.com
www.shabdshikhar.blogspot.com

23 मार्च 2009

सीताराम गुप्ता की लघुकथा - पुनरावर्तन

लोग रिहायशी इलाक़े में शराब की दुकान के विरुद्ध मरने-मारने पर उतारू हो गए। प्रशासन के ख़िलाफ नारेबाज़ी शुरू हुई। लोगों ने रास्ते जाम कर दिए और दुकान के सामने धरने पर बैठ गए। कई दिनों तक ये सब चलता रहा। लोगों की दृढ़ता के सामने प्रशासन को झुकना पड़ा। रिहायशी इलाक़े से शराब की दुकान हटा दी गई और उसे रिहायशी इलाक़े से दूर एक ऐसी मार्केट में खोल दिया गया जहाँ बरसों से दुकानें ख़ाली पड़ी हुई थीं। पूरी मार्केट में इक्का-दुक्का दुकानें ही चल रही थीं बाक़ी सब बंद पड़ी थीं। आसपास के इलाक़ों में बने फ्लैट और मकान भी लगभग ख़ाली पड़े थे क्योंकि यहाँ रहने के लिए न तो मूलभूत सुविधाएँ ही उपलब्ध थीं और न कंस्ट्रक्शन की क्वालिटी ही अच्छी थी।

सारे दिन धूल उड़ती थी मार्केट और पूरे इलाक़े में। चारों तरफ गंदगी के ढेर लगे थे और पूरे इलाक़े में बदबू का साम्राज्य व्याप्त था। शराब की दुकान खुलने से दिन में तो कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ा लेकिन शाम के समय मार्केट की रौनक़ बढ़ने लगी। इलाक़े में भीड़-भाड़ तो थी नहीं इसलिए गलियों में और सड़कों पर गाड़ियाँ खड़ी करने में कोई दिक्क़त नहीं होती थी। जहाँ मर्ज़ी गाड़ी खड़ी करो, सामान लाओ और वापस गाड़ी में आकर आराम से भोग लगाओ।

इस सुविधा के कारण दूर-दूर से लोग यहाँ आने लगे। मार्केट में तथा आसपास के मकानों व फ्लैटों के बाहर अस्थायी दुकानें लगने लगीं। किसी बंद दुकान के शटर के बाहर नमकीन के पैकेटों की लड़ियाँ लटकी हुई हैं तो कहीं कोल्ड-ड्रिंक, सोडा और मिनरल-वाटर की बोतलें सजी हैं। एक कोने में अपेक्षाकृत थोड़ी खुली जगह पर एक चिकन कार्नर चालू हो गया। शराब की बिक्री बढ़ने के साथ-साथ दुकानों की तादाद में भी इज़ाफा होने लगा और शराब की करामात से काम-धंधा भी बढ़ने लगा। जब ये बात बंद दुकानों के मालिकों के कानों में पड़ी तो वे भी हालात का जायज़ा लेने पहुँच गए। काम-धंधा ठीक-ठाक देखकर कुछ लोगों ने बरसों से बंद पड़ी अपनी दुकानों के शटर उठा दिए। जो लोग किसी कारण से स्वयं दुकानें चलाने में असमर्थ थे उन्होंने अपनी दुकानें किराए पर चढ़ा दीं।

धीरे-धीरे न केवल मार्केट की सारी दुकानें चालू हो गईं बल्कि आस-पास के फ्लैटों में भी ढेर सारी दुकानें खुल गईं। जो दुकानदार दूर से आते थे उन्होंने भी आस-पास ही फ्लैट या मकान ख़रीद लिए। मकानों और दुकानों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं। इलाक़े की रौनक़ बढ़ने लगी। नागरिक सुविधाओं में भी कुछ सुधार होने से लोग यहाँ आकर बसने लगे। धीरे-धीरे पूरा इलाक़ा एक बेहतरीन रिहायशी इलाके में तब्दील हो गया। शराब की दुकान और मार्केट अब इस रिहायशी इलाक़े के बिलकुल बीच में हो गई थी। शराब की दुकान और रिहायशी इलाक़े के बीच में शरीफ शहरियों के माथों पर बल पड़ने लगे। शराब की दुकान हटाने के लिए लोग एक बार फिर प्रशासन के ख़िलाफ प्रदर्शन व नारेबाज़ी कर रहे थे और शराब की दुकान के सामने धरने पर बैठ गए थे। प्रशासन एक बार फिर उचित स्थान की तलाश में जुट गया था।
------------------------------------
ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
फोन नं. 011-27313954/27313679
Email : srgupta54@yahoo.com

सीताराम गुप्ता की लघुकथा - पुनरावर्तन

लोग रिहायशी इलाक़े में शराब की दुकान के विरुद्ध मरने-मारने पर उतारू हो गए। प्रशासन के ख़िलाफ नारेबाज़ी शुरू हुई। लोगों ने रास्ते जाम कर दिए और दुकान के सामने धरने पर बैठ गए। कई दिनों तक ये सब चलता रहा। लोगों की दृढ़ता के सामने प्रशासन को झुकना पड़ा। रिहायशी इलाक़े से शराब की दुकान हटा दी गई और उसे रिहायशी इलाक़े से दूर एक ऐसी मार्केट में खोल दिया गया जहाँ बरसों से दुकानें ख़ाली पड़ी हुई थीं। पूरी मार्केट में इक्का-दुक्का दुकानें ही चल रही थीं बाक़ी सब बंद पड़ी थीं। आसपास के इलाक़ों में बने फ्लैट और मकान भी लगभग ख़ाली पड़े थे क्योंकि यहाँ रहने के लिए न तो मूलभूत सुविधाएँ ही उपलब्ध थीं और न कंस्ट्रक्शन की क्वालिटी ही अच्छी थी।

सारे दिन धूल उड़ती थी मार्केट और पूरे इलाक़े में। चारों तरफ गंदगी के ढेर लगे थे और पूरे इलाक़े में बदबू का साम्राज्य व्याप्त था। शराब की दुकान खुलने से दिन में तो कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ा लेकिन शाम के समय मार्केट की रौनक़ बढ़ने लगी। इलाक़े में भीड़-भाड़ तो थी नहीं इसलिए गलियों में और सड़कों पर गाड़ियाँ खड़ी करने में कोई दिक्क़त नहीं होती थी। जहाँ मर्ज़ी गाड़ी खड़ी करो, सामान लाओ और वापस गाड़ी में आकर आराम से भोग लगाओ।

इस सुविधा के कारण दूर-दूर से लोग यहाँ आने लगे। मार्केट में तथा आसपास के मकानों व फ्लैटों के बाहर अस्थायी दुकानें लगने लगीं। किसी बंद दुकान के शटर के बाहर नमकीन के पैकेटों की लड़ियाँ लटकी हुई हैं तो कहीं कोल्ड-ड्रिंक, सोडा और मिनरल-वाटर की बोतलें सजी हैं। एक कोने में अपेक्षाकृत थोड़ी खुली जगह पर एक चिकन कार्नर चालू हो गया। शराब की बिक्री बढ़ने के साथ-साथ दुकानों की तादाद में भी इज़ाफा होने लगा और शराब की करामात से काम-धंधा भी बढ़ने लगा। जब ये बात बंद दुकानों के मालिकों के कानों में पड़ी तो वे भी हालात का जायज़ा लेने पहुँच गए। काम-धंधा ठीक-ठाक देखकर कुछ लोगों ने बरसों से बंद पड़ी अपनी दुकानों के शटर उठा दिए। जो लोग किसी कारण से स्वयं दुकानें चलाने में असमर्थ थे उन्होंने अपनी दुकानें किराए पर चढ़ा दीं।

धीरे-धीरे न केवल मार्केट की सारी दुकानें चालू हो गईं बल्कि आस-पास के फ्लैटों में भी ढेर सारी दुकानें खुल गईं। जो दुकानदार दूर से आते थे उन्होंने भी आस-पास ही फ्लैट या मकान ख़रीद लिए। मकानों और दुकानों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं। इलाक़े की रौनक़ बढ़ने लगी। नागरिक सुविधाओं में भी कुछ सुधार होने से लोग यहाँ आकर बसने लगे। धीरे-धीरे पूरा इलाक़ा एक बेहतरीन रिहायशी इलाके में तब्दील हो गया। शराब की दुकान और मार्केट अब इस रिहायशी इलाक़े के बिलकुल बीच में हो गई थी। शराब की दुकान और रिहायशी इलाक़े के बीच में शरीफ शहरियों के माथों पर बल पड़ने लगे। शराब की दुकान हटाने के लिए लोग एक बार फिर प्रशासन के ख़िलाफ प्रदर्शन व नारेबाज़ी कर रहे थे और शराब की दुकान के सामने धरने पर बैठ गए थे। प्रशासन एक बार फिर उचित स्थान की तलाश में जुट गया था।
------------------------------------
ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
फोन नं. 011-27313954/27313679
Email : srgupta54@yahoo.com

20 मार्च 2009

विरेन भाटिया की कविता - नन्हीं परी

एक छोटी सी परी, हर रात अपने बाबा को तलाशती, बाबा कहानी सुनायेंगे
और कल खिलोने और टोफफी लेन का वादा देके जायेंगे
हर रोज़ उसकी अम्मा, उसके उठने से पहले उसके सिरहाने एक टोफफी, रखती थी
बाबा आए थे छोड़ के गए तेरे लिए, काम पर चले गए आब कहती थी
सालू गुज़र गए नन्ही परी बाबा को बस तस्वीर मैं ही देख पाती थी
उस नन्हीं पर को अपने बाबा की यद् बहुत सताती थी
अम्मा से बहुत पूछती की कब मिलूंगी बाबा से ओ माँ
कभी प्यार से कभी दांत से समझती थी माँ
बाबा चले गए छोड़ के ये जग, नहीं बता पाती थी माँ
हर बार नया झूट नया बहाना बना देती थी उसकी माँ
नन्ही परी हुई बड़ी, पूछा दोस्तो ने की तुम्हारे बाबा हैं कहाँ
माँ से कुछ न पूछा परी ऊपर देखा और कह दिया दोस्तो को, वो हैं वहाँ
नन्ही परी बाबा की जल्दी ही हो गई थी सायानी
करती बातें आइसे जैसे हो वो अपनी अम्मा की नानी
ख़ुद को अम्मा को संभाला नन्ही परी ने और रखा ख्याल
पर कभी न पूछा उसने आमा से वो सवाल
वो नन्हीं परी पराये घर को शोभित कर रही हैं
अपनी आमा और बाबा का नाम वहाँ भी रोशन कर रही हैं
अम्मा अभी भी अपने पुराने गहर मैं बाबा की यादो को गले लगाती हीं
और अपनी नन्ही परी को याद कर रोने लगती हैं


--------------------------

Biren Bhatia
h4 iit bombay
09833240586

कृष्ण कुमार यादव के काव्य संग्रह "अभिलाषा" की समीक्षा


समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)
कवि- कृष्ण कुमार यादव
e-mail - kkyadav.y@rediffmail.com
----------------------------------------
प्रकाशक-
शैवाल प्रकाशन,
दाऊदपुर, गोरखपुर
पृष्ठ- 144,
मूल्य- 160 रुपये


व्यक्तिगत सम्बन्धों की कविता में सामाजिक सहानुभूति का मानस-संस्पर्श
--------------------------------------------------

मनुष्य को अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के साथ ही जीवन के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हो रही अनुभूतियों का आत्मीकरण तथा उनका उपयुक्त शब्दों में भाव तथा चिन्तन के स्तर पर अभिव्यक्तीकरण ही वर्तमान कविता का आधार है। जगत के नाना रूपों और व्यापारों में जब मनीषी को नैसर्गिक सौन्दर्य के दर्शन होते हैं तथा जब मनोकांक्षाओं के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में एकात्मकता का अनुभव होता है, तभी यह सामंजस्य सजीवता के साथ समकालीन सृजन का साक्षी बन पाता है। युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलंबनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयत्न किया है। अभिलाषा का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुजित हुआ है। परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है। इन उद्वेलनों में जीवन सौन्दर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं।

संकलन की पहली कविता है- माँ के ममत्व भरे भाव की नितान्त स्नेहिल अभिव्यक्ति। जिसमें ममता की अनुभूति का पवित्र भाव-वात्सल्य, प्यार और दुलार के विविध रूपों में कथन की मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ कथ्य को सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न बनाया है। शब्द जो अभिधात्मक शैली में कुछ कह रहे हैं वह बहुत स्पष्ट अर्थान्विति के परिचायक हैं, परन्तु भावात्मकता का केन्द्र बिन्दु व्यंजना की अंतश्चेतना संभूत व आत्मीयता का मानवी मनोविज्ञान बनकर उभरा है। गोद में बच्चे को लेकर शुभ की आकांक्षी माँ बुरी नजर से बचाने के लिये काजल का टीका लगाती है, बाँह में ताबीज बाँधती है, स्कूल जा रहे बच्चे की भूख-प्यास स्वयं में अनुभव करती है, पड़ोसी बच्चों से लड़कर आये बच्चे को आँचल में छिपाती है, दूल्हा बने बच्चे को भाव में देखती है, कल्पना के संसार में शहनाईयों की गूँज सुनती है, बहू को सौंपती हुई माँ भावुक हो उठती है। नाजों से पाले अपने लाड़ले को जीवन धन सौंपती हुई माँ के अश्रु, करूणा विगलित स्नेह और अनुराग के मोती बनकर लुढ़क पड़ते हैं। कवि का माँ के प्रति भाव अभ्यर्थना और अभ्यर्चना बनकर कविता का शाश्वत शब्द सौन्दर्य बन जाता है।

कृष्ण कुमार यादव का संवेदनशील मन अनुमान और प्रत्यक्ष की जीवन स्मृतियों का जागृत भाव लोक है, जहाँ माँ अनेक रूपों में प्रकट होती है। कभी पत्र में उत्कीर्ण होकर, तो कभी यादों के झरोखों से झांकती हुई बचपन से आज तक की उपलब्धियों के बीच एक सफल पुत्र को आशीर्वाद देती हुई। किसी निराश्रिता, अभाव ग्रस्त, क्षुधित माँ और सन्तति की काया को भी कवि की लेखनी का स्पर्श मिला है, जहाँ मजबूरी में छिपी निरीहता को भूखी कामुक निगाहों के स्वार्थी संसार के बीच अर्धअनावृत आँचल से दूध पिलाती मानवी को अमानवीय नजरों का सामना करना पड़ रहा है। माँ के विविध रूपों को भावों के अनेक स्तरों पर अंकित होते देखना और कविता को शब्द देना आदर्श और यथार्थ की अनुभूतियों का दिल में उतरने वाला शब्द बोध है।

नारी का प्रेयसी रूप सुकोमल अनुभूतियों से होकर जब भाव भरे ह्नदय के नेह-नीर में रूपायित होता है तब स्पर्श का सुमधुर कंकड़ किस प्रकार तरंगायित कर देता है, ज्योत्सना स्नान प्रेम की सुविस्तारित रति-रजनी के आगोश में बैठे खामोश अंर्तमिलन के क्षणों को इन पंक्तियों में देखें-रात का पहर/जब मैं झील किनारे/ बैठा होता हूँ/चाँद झील में उतर कर/नहा रहा होता है/कुछ देर बाद/चाँद के साथ/एक और चेहरा/मिल जाता है/वह शायद तुम्हारा है/पता नहीं क्यों/ बार-बार होता है ऐसा/मैं नहीं समझ पाता/सामने तुम नहा रही हो या चाँद/आखिरकार झील में/एक कंकड़ फेंककर/खामोशी से मैं/ वहाँ से चला आता हूँ।

तलाश, तुम्हें जीता हूँ, तुम्हारी खामोशी, बेवफा, प्रेयसी, तितलियाँ, प्रेम, कुँवारी किरणें, शीर्षक कवितायें जिन वैयक्तिक भावनाओं की मांसल अभिव्यक्तियों को अंगडाइयों में उमंग से भरकर दिल के झरोखों से झाँकती संयोग और वियोग की रसात्मकता का इजहार करती हैं, वह गहरी सांसों के बीच उठती गिरती जन्म-जन्म से प्यासी प्रीति पयस्विनी के तट पर बैठे युगल की ह्नदयस्पन्दों में सुनी जाने वाली शरीर की खुशबू और छुअन का स्मृति-स्फीत संसार है। इनमें आंगिक चेष्टाओं और ऐन्द्रिक आस्वादनों की सौन्दर्यमयी कल्पना का कलात्मक प्रणयन ह्नदयवान रसज्ञों के लिये रसायन बन सकता है। प्रेयसी उपखण्ड की इन कविताओं में सुकोमल वृत्तियों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हो सकती हैं- सूरज के किरणों की/पहली छुअन/ थोड़ी अल्हड़-सी/ शर्मायी हुई, सकुचाई हुई/ कमरे में कदम रखती है/वही किरण अपने तेज व अनुराग से/वज्र पत्थर को भी/पिघला जाती है/शाम होते ही ढलने लगती हैं किरणें/जैसे कि अपना सारा निचोड़/ उन्होंने धरती को दे दिया हो/ठीक ऐसे ही तुम हो।

जीवन प्रभात से प्रारम्भ होकर विकास, वयस्कता, प्रौढ़ता और वार्धक्य की अवस्थाओं को लांघती कविता की गम्भीर ध्वनि मादकता के उन्माद को जीवन सत्य का दर्शन कराने में सक्षम भी हो जाती है। नारी के स्त्रीत्व को मातृत्व और प्रेयसी रूपों से आगे बढ़ाता हुआ कवि, शोषण, उत्पीड़न, अनाचार, अन्याय के पर्याय बन चुके संदेश से दलित व अबला जीवन से भी साक्षात्कार कराता है, जहाँ महीयसी की महिमा, खंड-खंड हो रही भोग्या बनकर देह बन जाती है। स्त्री विमर्श की इन कविताओं में सामाजिक और वैयक्तिक विचारणा की अनेक संभावनाओं से साक्षात्कार करता कवि भाव और विचार में पूज्या पर हो रहे अनन्त अत्याचारों का पर्दाफाश करता है। बहू को जलाना, हवस का शिकार होना तथा श्वोश् बन कर सड़क के किनारे अधनंगी, पागल और बेचारी बनी बेचारगी क्या कुछ नहीं कह जाती, जो इन कविताओं में बेटी और बहू के रूप में कर्तव्यों की गठरी लादे जीवन की डगर पर अर्थहीन कदमों से जीने को विवश हो जाती है। स्त्री विमर्श का यथार्थ, दलित चेतना की सोच इन कविताओं में वर्तमान का सत्य बन कर उभरी हैं।

ईश्वर की कल्पना मनुष्य को जब मिली होगी, उसे आशा का आस्थावन विश्वास भी मिला होगा। कृष्ण कुमार यादव ने भी ईश्वर के भाव रूप को सर्वात्मा का विकास माना है। उनका मानना है कि धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर घरौदों का निर्माण न तो उस अनन्त की आराधना है, और न ही इनमें उसका निवास है। कवि ने ईश्वर के लिए लिखा है-मैं किसी मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौन्दर्य में हूँ, कर्तव्य में हूँ /परोपकार में हूँ, अहिंसा में हूँ, हर जीव में हूँ/अपने अन्दर झांको, मैं तुममें भी हूँ/फिर क्यों लड़ते हो तुम/बाहर कहीं ढूढते हुए मुझे। कवि ईश्वर की खोज करता है अनेक प्रतीकों में, अनेक आस्थाओं में और अपने अन्दर भी। वह भिखमंगों के ईश्वर को भी देखता है और भक्तों को भिखमंगा होते भी देखता है, बच्चों के भगवान से मिलता है और स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से डरते-डराते मन के अंधेरों में भटकते इन्सानों की भावनाओं में भी खोजता है।

बालश्रम, बालशोषण और बाल मनोविज्ञान को अभिलाषा की कविताओं में जिन शीर्षकों में अभिव्यक्त किया गया है, उनमें प्रमुख हैं-अखबार की कतरनें, जामुन का पेड़, बच्चे की निगाह, वो अपने, आत्मा, बच्चा और मनुष्य तथा बचपन। इन रचनाओं में बाल मन की जिज्ञासा, आक्रोश, आतंक, मासूमियत, प्रकृति, पर्यावरण आदि का मनुष्य के साथ, पेड़-पौधों के साथ व जीव-जन्तुओं के साथ निकट सम्बन्ध आत्मीयता की कल्पना को साकार करते हुए, अतीत और वर्तमान की स्थितियों से तुलना करते हुए, आगे आने वाले कल की तस्वीर के साथ व्यक्त किया गया है। बहुधा जीवन और कर्तव्य बोध से अनुप्राणित इस खण्ड की कविताओं में कवि ने बच्चे की निगाह में बूढ़े चाचा को भीख का कटोरा लिए हुए भी दिखाया है और हुड़दंग मचाते जामुन के पेड़ तथा मिट्टी की सोधी गंध में मौज-मस्ती करते भी स्मृति के कोटरों में छिपी अतीत की तस्वीर से निकालकर प्रस्तुत करते पाया है। बच्चों के निश्छल मन पर छल की छाया का स्वार्थी प्रपंच किस प्रकार हावी होता है और झूठे प्रलोभन व अहंकार के वशीभूत हुए लोग उन्हें भय का भूत दिखाते हैं और जीवन भर के लिये कुरीतियों का गुलाम बना देते हैं, यह भी इन कविताओं में दृष्टव्य हुआ है।

मन के एकांत में जीवन की गहन चेतना के गम्भीर स्वर समाहित होते हैं। जब मनुष्य आत्मदर्शी होकर प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करता है, तब संसार के हलचल भरे माहौल से अलग, उसे मखमली घास और पेड़ों के हरित संसार में रची-बसी अलौकिक सुन्दरता का दर्शन होता है और चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई देती है। वह मन की खिड़की खोल कर देखता है तभी उसे अपने अस्तित्व के दर्शन होते हैं। अकेलेपन का अहसास कराती नीरवता, मानव जीवन की हकीकत, बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक का सफर अनेक आशाओं और निराशाओं का अंधेरा और उजाला नजर आने लगता है अकेलेपन में। इस प्रकार की कविताएं भी इस संकलन की विशेषता हैं।

वर्तमान समय की ग्राम्य और नगर जीवन स्थितियों में पनप रही आपा-धापी का टिक-टिक-टिक शीर्षक से कार्यालयी दिनचर्या, अधिकारी और कर्मचारी की जीवन दशायें, फाइलें, सुविधा शुल्क तथा फर्ज अदायगी शीर्षकों में निजी अनुभव और दैनिक क्रियाकलापों का स्वानुभूत प्रस्तुत किया गया है। प्रकृति के साथ भी कवि का साक्षात्कार हुआ है-पचमढ़ी, बादल, नया जीवन तथा प्रकृति के नियम शीर्षकों में। इनमें मनुष्य के भाव लोक को आनुभूतिक उद्दीपन प्रदान करती प्रकृति और पर्यावरण की सुखद स्मृतियों को प्रकृतस्थ होकर जीवन के साथ-साथ जिया गया है।

नैतिकता और जीवन मूल्य कवि के संस्कारों में रचे बसे लगते हैं। उसे अंगुलिमाल के रूप में अत्याचारी व अनाचारी का दुश्चरित्र-चित्र भी याद आता और बुद्ध तथा गाँधी का जगत में आदर्श निष्पादन तथा क्षमा, दया, सहानुभूति का मानव धर्म को अनुप्राणित करता चारित्रिक आदर्श भी नहीं भूलता। वर्तमान समय में मनुष्य की सद्वृत्तियों को छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड और झूठ ने कितना ढक लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन मानव मूल्यों के अवमूल्यन को कवि ने शब्दों में कविता का रूप दिया है।

कृष्ण कुमार यादव ने अभिलाषा में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी। मनुष्य इस संसार में सामाजिकता की सीमाओं में अकेला नहीं रहता। उसके साथ समाज रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए कवि ने अपनी भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। रूढ़ि और मौलिकता के प्रश्नों से ऊपर उठकर जब हम इन कविताओं को देखते हैं तो लगता है कि सहज मन की सहज अनुभूतियों को कवि ने सहज रूप से सामयिक-साहित्यिक सन्दर्भों से युग-बोध भी प्रदान करने का प्रयास किया है। दायित्व-बोध और कवि कर्म में पांडित्य प्रदर्शन का कोई भाव नहीं है, फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि विचार को भाव के ऊपर विजय मिली है। कविता समकालीन लेखन और सृजन के समसामयिक बोध की परिणति है सो ‘‘अभिलाषा’’ की रचनाएँ भी इस तथ्य से अछूती नहीं हैं।

भाषा और शब्द भी आज के लेखन में अपनी पहचान बदल रहे हैं। वह श्वोश् हो गया है, वे और उन का स्थान भी तद्भव रूपों ने ले लिया है। श्री यादव ने भी अनेक शब्दों के व्याकरणीय रूपों का आधुनिकीकरण किया है।

वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से आभासित होता है कि श्री कृष्ण कुमार यादव को विपुल साहित्यिक ऊर्जा सम्पन्न कवि ह्नदय प्राप्त है, जिससे वह हिन्दी भाषा के वांगमय को स्मृति प्रदान करेंगे।
----------------------------------------
समीक्षक-
डा0 राम स्वरूप त्रिपाठी
पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष,
डी0ए0वी0 कालेज, कानपुर

18 मार्च 2009

डा. वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - पर्यावरण और स्वयंसेवी संस्थाओं की प्रासंगिकता एवं उपादेयता

विश्व बैंक की पहल पर सरकार के अलावा समाज की भलाई के काम में लगी संस्थाएं जो सामान्य जनता के लोगों से ही बनी होती हैं स्वयंसेवी संस्थाएं कहलाती है। इनका कार्य सरकार एवं जनता के बीच तालमेल बैठाकर विकास करना होता है अर्थात् ये स्वयंसेवी संस्थाएं सरकारों से तालमेल बिठाकर उनकी योजनाओं को आम जनता तक पहुँचाती हैं और इसके साथ ही जनता की प्रतिक्रियाएं आकांक्षाएं और अपेक्षाओं को सरकार के पास तक ले जाती हैं। वास्तव में देखा जाये तो ये स्वयंसेवी संस्थाएं सरकार एवं आम जनता के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। इन संस्थाओं मं समाज के ऐसे व्यक्ति जुड़े होते हैं जो निस्वार्थ सेवाभावी, त्यागी और निष्ठावान होने के साथ-साथ उनका अन्तिम लक्ष्य समाज अथवा देश की सेवा वृत्त से जुड़ा होता है। विनोबा भावे जिसे सज्जन शक्ति कहा करते थे। विनोबा भावे जी ने गाँधी जी के समय में ‘भंगी मुक्ति’ से लेकर चर्खा और खादी संघों की स्थापना कर इन्हें निष्ठापूर्वक चलाया। लेकिन सेवा और राहत के इन कामों में लगे रहने के बावजूद इन समाजसेवियों को यह एहसास तो होता ही था कि अपने समाज के दलितों, गरीबों की सेवा करके परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता है। तब इन्हीं स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़े कुछ लोगों ने समाज के विकास का जिम्मा उठाया था क्योंकि यह भारत का नवनिर्माण का दौर था और हमारे यहाँ विकास के नाम पर सरकारें भी तरह-तरह के उपक्रम करने में लगी थीं। गैर-सरकारी लोगों के इन स्वयंसेवकों ने खुद कृषि, शिक्षा, साक्षरता आदि को लेकर महत्वपूर्ण संस्थाए खड़ी कीं थीं और नेकनियती एवं ईमानदारी से जुड़कर कार्य करते रहे और देखते-देखते अपने कार्यों एवं विकास के बल पर इनकी स्वतंत्र पहचान बननी शुरू हो गयी। इसी दौर में ये गैर-सरकारी समूह समाज को बदलने के लिए संघर्षरत जुझारू समूहों में तब्दील होते गये यही दौर था कि जब देश में नर्मदा बचाओं आन्दोलन, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, संघर्ष वाहिनी या ऐसे ही अनेक समूह उभरे जिन्होंने विकास के साथ-साथ अपनी निजी जिन्दगी में भी सादगी, शुचिता और संयम के सिद्धांतों का कड़ाई से पालन करते रहे।
इन स्वयंसेवी संस्थाओं में सामान्य शिक्षा स्तर के लोगों के समूह से लेकर उच्च शिक्षित एवं अपने क्षेत्र विशेष में दक्ष तथा तकनीकी (डाक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर, विधिवेत्ता, आर्कीटेक्ट आदि) सभ्रांन्त लोग इन संस्थाओं से जुड़े रहते हैं। ये संस्थायें केन्द्र तथा राज्य सरकारों से मान्यता प्राप्त (रजि.) होती हैं। कुछ नहीं भी। साथ ही उनके नियमों से प्रतिबंधित भी होती हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि जब हम ‘अराजकीय संस्थाओं की बात करते हैं तब हमारा आशय उन संस्थाओं से नहीं है जो निजी तौर पर बनती हैं अथवा बनी होती हैं और जिनको कोई धन लाभ कमाने का लालच है। हमारा स्पष्ट आशय ऐसी संस्थाओं से है जो निजी (गैर-सरकारी) तो हैं, पर स्वयंसेवी भी है (Private of Voluntary organisation) और जिनका ध्येय जनता के कष्ट दूर करना तथा देश के विकास में सहायक होना होता है।’ स्पष्ट है कि ये गैर-सरकारी संस्थाएं अपनी पहचान बनाने में सफल हो गयी हैं और इनके कार्य क्षेत्र भी आज विविध हो गये हैं। अपने कार्यों की विस्तृत रूपरेखा बनाकर ये गैर-सरकारी संघटन छोटे बड़े आफिस के रूप में अपने को स्थापित करती हैं और धनराशि एकत्रित करने का उनका आधार कुछ समाज के दानी लोगों के साथ-साथ कुछ विदेशी संस्थाएं भी सहायता देती हैं। सरकार से मिली जिम्मेदारियां एवं मदद के द्वारा ये संस्थाएं अपने कार्यों को करती हैं धन की कमी होने पर ये संस्थायें किसी भी गैर-सरकारी स्रोतों से धन एकत्रित करती हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि समाज में इनकी साफ-सुथरी छवि होती है और लोग जानते है कि वास्तव में ये संस्थाएं समाज की भलाई ही करती हैं।
वर्तमान में भारत सहित विश्व में अनेक गैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्थाएं अपना कार्य ईमानदारी से कर रही हैं। कनाडा, फ्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी एवं संयुक्तराष्ट्र अमेरिका में अनेक ऐसी संस्थाएं कार्य कर रही हैं जिनका कार्य केवल समाज कल्याण से सम्बन्धित है। पिछले 50 वर्षों में एन.जी.ओ. संस्थाओं की बढ़ती संख्या के प्रमुख कारण इस अवधि में बढ़ती भीषण और भयानक घटनाओं तथा दुर्घटनाओं के घटने से व्यथित जनसमुदाय को सुविधायें प्रदान करना है। इसके साथ ही आर्थिक गरीबी तथा अशिक्षा के कारण कई देशों के लोगों पर होने वाले गलत व्यवहार ने भी कई स्वयंसेवी संस्थाओं को जन्म दिया है इन गैर-सरकारी संगठनों की उत्पत्ति के पीछे शायद यह इतिहास भी छिपा हुआ है कि सरकार या प्रशासन से यदि तत्काल उचित न्याय नहीं मिल पाता है तो ये स्वयं सेवी समूह ही मदद दे सकते हैं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में जब हम स्वयंसेवी संस्थाओं की बात करते हैं तो विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा यहाँ पर इनकी संख्या बहुत कम है। इसके पीछे सरकार की नीतियां एवं विश्वास की कमी ही स्पष्ट दिखती है। जब बात पर्यावरण से सम्बन्धित और सरकारी संगठनों की होती है तो स्थितियां काफी निराशा जनक प्रतीत होती है।
केन्द्रीय पर्यावरण विभाग में (सम्पूर्ण भारत में) 1984 तक केवल 187 संस्थाएं ही (रजि.) मिलती हैं परन्तु वर्तमान में इनकी संख्या अधिक हो गई है। इस समय लगभग 600 से अधिक गैर-सरकारी संगठन पर्यावरण से सम्बन्धित विविध मुद्दों पर अपने-अपने तरीके से कार्य कर रही हैं इतना तो निश्चित है कि ‘‘पर्यावरण’’ के क्षेत्र में चाहे संरक्षण की बात हो चाहे सुधार की, चाहे प्रदूषण कम करने की बात हो अथवा रोकने और नियंत्रण करने की, यह बात अनुभव के आधार पर सराहनीय कही जा सकती है कि ये स्वयंसेवी संस्थाएं निम्न क्षेत्र में अधिक सफल हुई हैं -
1. समाज और सरकार के मध्य तालमेल बिठाना।
2. पर्यावरण शिक्षा, चेतना एवं जन जागृति के कार्य।
3. समाज की समस्याओं को सरकारों तक पहुँचाना और उनको सही कार्य करने को बाध्य करना।
4. समाजहित में कानून की सहायता करना।
(पर्यावरण शिक्षा - डा. एम. के गोयल, पृ. 332)
कार्यक्षेत्र
पर्यावरण जागरूकता से सम्बन्धित इन स्वयंसेवी संगठनों ने कुछ ऐसे कार्य किये हैं जो सरकारें भी नहीं कर पायी हैं। ये संगठन समझा रहे हैं कि पर्यावरण प्रदूषण के पीछे कारण एवं चुनौतियां क्या हैं साथ ही इसे कैसे नियंत्रण में लाया जा सकता है ? अपने बेबाक कार्यों एवं स्पष्ट नीतियों के कारण ये स्वयंसेवी संस्थाएं आज लोगों का विश्वास अर्जित कर दिनोंदिन प्रगति के उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर हो रहीं हैं और इस दिशा में दक्षिण भारत के शत-प्रतिशत शिक्षित राज्य केरल ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। केरल शास्त्र साहित्य परिषद ने पर्यावरण से सम्बन्धित राज्य भर में 30 इकाइयों एवं 5 हजार से अधिक सदस्यों की मदद से पर्यावरण प्रदूषण एवं संरक्षण को लेकर नुक्कड़ नाटकों, पत्र-पत्रिकाओं का व्यापक प्रचार भाषणों, गीतों तथा सांस्कृतिक एवं लोक कलाओं का सहारा लेकर अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। गुजरात राज्य का ‘पर्यावरण शिक्षा केन्द्र, अहमदाबाद’ एक ऐसा गैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्थान है जिसका कार्य क्षेत्र पर्यावरण शिक्षा के प्रति चेतना फैलाकर लोगों को जागरूक कर रहा है। और देश के उत्तरी क्षेत्र में समस्त पर्यावरण शिक्षा सम्बन्धी उत्तरदायित्वों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन कर रहा है। राजस्थान में सेवा केन्द्र उदयपुर ऐसा ही एक गैर-सरकारी संगठन है जो महिला विकास, समाज कल्याण एवं पर्यावरण साक्षरता की दिशा में अग्रणी भूमिका निभा रहा है और राज्य तथा केन्द्र सरकार को जोड़ने में इसकी महत्वपूर्ण कोशिश रहती है।
भारतीय एवं वैश्विक परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवी संस्थाओं की प्रासंगिकता
उ. प्र. के हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण सम्बन्धी लोक शिक्षण का कार्य भी अति सराहनीय माना जाता है। विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन को जन्म देने वाली संस्था दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल का गठन विकास से अनवरत संघर्ष की कहानी के तहत हुआ। पहाड़ों में बढ़ती बेरोजगारी और लगातार मैदानी इलाकों की ओर पलायन से चिंतित होकर चमोली (उ. प्र.) के कुछ युवकों ने साठ के दशक में एकत्र होकर एक श्रम सहकारी समिति का, वन ठेकेदारों तथा मजदूरों के शोषण पर रोक लगाने के लिए गठन किया। इसी के तहत 1964 ई. में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ का गठन किया गया। इसका गठन-वनाधारित ग्राम उद्योग चलाने के लिए किया गया था। लेकिन सरकारी विभाग ने इसे कच्चा माल देने में बहुत आना-कानी की थी। धनी ठेकेदारों द्वारा सरकार की मिली भगत से वनों का बेहिसाब शोषण हुआ। इस पर व्यापक विमर्श हेतु चंडी प्रसाद भट्ट जो एक बस कम्पनी में क्लर्क थे लोगों के बीच जाकर वनों की लकड़ी की उपयोगिता एवं जड़ी बूटियों की कीमत बताकर जनजागरण शुरू किया। इस संघ ने अपने लोगों के साथ सहजीवन के प्रयोग छोड़ सहमरण के प्रयोग की तैयारी शुरू की। वन विभाग के कर्मचारियों ने जैसे ही हल काटने वाली अंगू की लकड़ी से छेड़छाड़ की एवं हल्की लकड़ी खेल के समान के लिए बेचना शुरू किया। फिर क्या था विश्नोई समाज की तरह पेड़ों का कटान रूकवाने के लिए लोग पेड़ों में लिपटने लगे और इस तरह से चिपको आन्दोलन अस्तित्व में आया। यही नहीं इसकी मातृ संस्था दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल ने जगह-जगह पर्यावरण विकास शिविर आयोजित करके समाज सेवकों, छात्रों और गांव के लोगों में पर्यावरण संरक्षण एवं वन संवर्धन का काम अपने हाथ में लेकर महत्वपूर्ण कार्य किये। कुमांऊ क्षेत्र की पर्यावरण पर अग्रणी संस्था ‘लोक चेतना मंच’ ने भी जनसमूह में जाकर अति महत्वपूर्ण कार्य किये।
उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी के माध्यम से उत्तराखण्ड में श्री सुन्दर लाल बहुगुणा ने पर्यावरण सम्बन्धी विचार तथा जागरूकता के लिए कई बार पद यात्राएं की हैं। इन पद यात्राओं के माध्यम से बहुगुणा साहब ने रास्तों, गाँवों एवं शहरों में लोगों को भाषणों के द्वारा जन जागृति उत्पन्न की। इसी तरह से ‘गंगोत्री ग्राम स्वराज्य संघ’, उत्तर काशी की भूमिका पर्यावरण के संरक्षण में इस हद तक प्रभावी रही कि आखिर सरकार को ठेकेदारी प्रथा को रोकना पड़ा। वन उत्पादों के उचित आंकलन हेतु उ. प्र. वन विकास निगम का गठन किया गया। जिसमें स्थानीय निवासियों के हितों की बात को वरीयता का आश्वासन किया गया था।
सैंरधी घाटी पन बिजली परियोजना के खिलाफ ‘केरल शास्त्र साहित्य परिषद’ द्वारा संचालित आन्दोलन, मिट्टी बचाओ अभियान, भूपाल पटनम व इंचपपल्ली बांधों के खिलाफ चले अभियानों का पर्यावरण के प्रति अच्छी समझ विकसित कर गया और इन आन्दोलनों के होने से एक ऐसा वातावरण बना कि अब पहले जैसी कोई गलती निकट भविष्य में नहीं हो सकती है। इसके साथ ही नीतियों के बनाते समय पारदर्शिता का होना अनिवार्य है।
केरल में कई समूह स्वयंसेवकों एवं वनवासियों के साथ पर्यावरणीय विकास के लिए प्रयासरत हैं। इन लोगों ने पर्यावरण को दृष्टिगत रखते हुए इस क्षेत्र को तीन भागों में बाँट रखा है। एक क्षेत्र उत्तर केरल के अलतपपडि वनवासी क्षेत्र में जमीन के इस्तेमाल की समस्या का है, द्वितीय कणि वनवासियों के वनों का और तीसरा सरकंडो के कारीगरों की आवश्यकताओं और समस्याओं का है। लोगों को पुस्तकों, प्रदर्शनियों और स्लाइडों के द्वारा समझाया जा रहा है कि वनवासी समुदायों, सरकंडा कारीगरों और आस-पास की खेती उत्पादकता को एक दूसरे से अलग कर देने के कारण ही वर्तमान संकट पैदा हो रहा है। अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आ रही हैं जो पर्यावरण के अनुकूल खेती की पद्धतियां विकसित करने की दृष्टि से देशी अनाज सब्जियां और पेड़ों की देशी किस्में इकट्ठी करने पर बल दे रही हैं।
कर्नाटक में चिपको आन्दोलन की तरह अप्पिकों संगठन पर्यावरण जागरूकता के लिए वही कार्य कर रहा है जो चिपको ने उत्तराखण्ड के लिए किया। इसकी स्थापना 1983 ई. में की गयी। 8 सितम्बर, 1983 को कर्नाटक के सिरसी जिले के सालकणी जंगल में वन विभाग के कर्मचारी पेड़ काट रहे थे। ‘युवक मंडली’ के लोगों को जब यह मालूम हुआ तो वे 160 स्त्री-पुरूष और बच्चे पेड़ों से चिपक गये और काटने वालों को हटने से मजबूर कर दिया। वास्तव में देखा जाये तो ‘अप्पिको ने सचमुच जनता के रोष को एक आकार दिया, उनकी निराशा को आशा में बदला क्योंकि उस समय लोग समझ नहीं पा रहे थे कि अपने पेड़ों को कैसे बचाएं, पर अप्पिको ने उनमें आशा का संचार कर दिया।’ श्री पंडुरंग हेगड़े अप्पिको के मूल प्रवर्तक हैं। अर्थात् अप्पिको का मूल उद्देश्य वन संरक्षण और संवर्धन में लोगों की शक्ति का उपयोग करना और वन संसाधनों का कम से कम उपयोग करना सिखाता है।
केरल में ‘शांति घाटी आन्दोलन’ जल विद्युत परियोजना की स्थापना के विरोध में जनचेतना आन्दोलन था क्योंकि इससे जैव विविधता को क्षति हो रही थी। इसलिए शासन ने वहाँ आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर पुनः उष्ण कटिबन्धीय वनों के क्षेत्र में जैव विविधता को समृद्ध बनाने हेतु संरक्षित किया है।
पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से और मानव उपयोगिता के आधार पर नर्मदा बचाओ आन्दोलन भी गैर-सरकारी संगठनों में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। इसमे मेघा पाटेकर अपने सहयोगी अरून्धती राय एवं बाबा आमटे के साथ, यह आन्दोलन जैव विविधता और आदिवासियों के संरक्षण हेतु संचालित कर रहे हैं। इसी तरह से पर्यावरण एवं पुनर्वास की समस्या को लेकर कुछ गैर-सरकारी संगठन टेहरी बाँध (उ. प्र.) नर्मदा सागर भगीरथी नदी और सरदार सरोवर (नर्मदा नदी पर) पर बनने वाले बाँधांे के सन्दर्भ में अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। और सरकार को ये संगठन यह समझाने में सफल भी हुए हैं कि बाँध निर्माण के पूर्व अधिकृत एवं सक्षम पर्यावरण विशेषज्ञ समिति की तकनीकी राय ली जायेगी जिससे आम लोगों को अन्य पर्यावरणीय विकृतियों का सामना न करना पड़े। ये संस्थाएं अब अन्य बाँधों पर भी अपनी पैनी नजर रख रही हैं जिसमें बिहार मंे कोयल कारो बाँध तथा बस्तर (म. प्र.) में गोदावरी और इन्द्रावती नदियों पर ईयमपल्ली और भोपाल पट्नम बाँध साथ ही महाराष्ट्र की गंध चिरोली परियोजना के तहत लगभग 2 लाख एकड़ भूमि जलमग्न हो जाने का भय तथा 50 हजार लोगों का बेघर होना, महान पर्यावरण विद्बाबा साहब आम्टे समर्थित स्वयंसेवी संस्था का कार्य क्षेत्र बन गया है।
गैर-सरकारी संगठनों में वर्तमान में पर्यावरण को लेकर जो चिंता जताई जा रही है उसमें बम्बई बचाओ आन्दोलन प्रमुख है क्योंकि जिस तरह से बम्बई की जनसंख्या बढ़ रही है और इस बढ़ती जनसंख्या से शहर के लोगों को जो पर्यावरणीय समस्याएं आ सकती हैं उसको लेकर यह समिति महाराष्ट्र सरकार पर लगातार दबाव डालती रही है कि बम्बई शहर की आबादी 80 लाख से अधिक नहीं होनी चाहिए। बम्बई बचाओ समिति या आन्दोलन ने अपने सुझाव के माध्यम से यह कहा है कि सरकार छोटे-छोटे कस्बे बनाकर भी इस समस्या से बच सकती है।
पर्यावरण को लेकर सबसे अधिक दायित्व शिक्षा के माध्यम से पूरा किया जा सकता है और इस दिशा में शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे है। गैर-सरकारी संस्थाओं के माध्यम से शिक्षक-शिक्षा के माध्यम से इस दिशा में प्रयासरत हैं। शहरी स्कूलों और कालेजों में भी कई संगठन सक्रिय कार्य कर रहे हैं। अहमदाबाद की संस्था ‘विकसित’ ने कुछ हाईस्कूल और कालेजों के छात्रों को एकत्र करके उन्हें पर्यावरण के बारे में तथ्य एकत्रित करने और उनको विश्लेषण करने का काम सौंपा। छात्रों ने अहमदाबाद की साबरमती में फैले प्रदूषण का अध्ययन भी किया। बम्बई के सोसायटी फार क्लीन एनवायरमेण्ट ने भी अनेक स्कूलों के लिए एक कार्यक्रम बनाया है जिसमें व्याख्यान, यात्राएं और प्रत्यक्ष कार्य करने की योजनाएं हैं जो पर्यावरण को लेकर लोगों को जागरूक करने को निरन्तर प्रयासरत हैं। इसी तरह से दिल्ली में अनेक गैर-सरकारी संस्थाएं पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण को लेकर कार्य कर रही हैं। उसमें ‘अंकुर’ एवं कल्प वृक्ष प्रमुख हैं। ‘अंकुर’ के माध्यम से स्कूलों में पर्यावरण सम्बन्धी पाठ्यक्रम शुरू कर दिए गये हैं। ‘कल्प वृक्ष - स्कूलों, कालेजों में ‘नेचर क्लब’ बनाकर जन जागरण का अलख जगाए हुए हैं। हिन्दू कालेज ‘नेचर क्लब’ और कल्प वृक्ष ने मिलकर सन् 1982 में नर्मदा नदी घाटी पर अपना अध्ययन किया था। इस संस्था के साझी रिपोर्ट पर देश का ध्यान नर्मदा घाटी में बन रहे भीमकाय बाँधों की समस्या की ओर खींचने में बड़ी मदद की थी।
सन् 1980 ई. में स्थापित ‘सेंटर फार साइंस एंड एनवायरमेंट’ पर्यावरण की शिक्षा को बढ़ावा देने वाली एक प्रमुख गैर-सरकारी संगठन है जो माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करती है। इस संस्था के द्वारा शिक्षकों को पर्यावरण शिक्षा प्रशिक्षण हेतु पर्यावरणिक शिक्षक कार्यशाला पारिस्थितिकी पद् चिन्ह् परियोजना पर्यावरण पर्यटन इसके प्रमुख बिन्दु हैं। जल बिहार एवं जंगल जो छात्र एवं शिक्षक दोनों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी हुयी हैं। संस्था अपनी पुस्तक के माध्यम से पर्यावरण पर्यटन को विशेष प्रोत्साहन प्रदान कर रही है। इसी तरह से ‘पर्यावरण अनुसंधान और शिक्षा केन्द्र’ नामक संस्था का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों की तरह ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करती है जो पर्यावरण शिक्षा के व्यवहारिक पहलू पर अधिक ध्यान देती है। इस संस्था का प्रमुख आकर्षण ‘नर्सरी प्रोजेक्ट’ है जिसके माध्यम से विद्यालयों में छात्रों द्वारा छोटे नर्सरी (रोपण क्यारी) की स्थापना तथा उसकी देखभाल कराती है। इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य छात्रों को जिम्मेदार तथा सक्षम नागरिक बनाना है ताकि वह पारिस्थितिकीय संतुलित विश्व के बारे में अपने वैचारिक स्तर पर स्वतंत्र सोच का निर्माण कर सकें।
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा अनुशंसित संस्था ‘पर्यावरण शिक्षा केन्द्र’ की स्थापना सन् 1984 ई. में की गई। इसके अन्र्तगत पाँच क्षेत्रीय शाखाएं स्थापित की (बंगलौर, अहमदाबाद, गुहावटी, पुणे, लखनऊ) गयीं। इस संस्था के माध्यम से बच्चों, युवाओं, नीति नियंताओं तथा आम लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की जाती है। इसके द्वारा चलाए गए प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं - स्कूलों, कालेजों के माध्यम से राष्ट्रीय पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम की स्थापना कर देश के प्रत्येक जिलों में सौ इको क्लबों की स्थापना करना साथ ही यह संस्था पर्यावरण शिक्षा से सम्बन्धित विश्व संस्था ग्लोब को भी सहायता करती है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि ग्लोब विश्व की पर्यावरण शिक्षा से सम्बन्धित शोध संस्था मानी जाती है जिसमें लगभग 5 हजार से अधिक स्कूल चलते हैं और इसमें भारत के लगभग सौ स्कूल शामिल हैं।
पर्यावरण संरक्षण हेतु डब्ल्यु डब्ल्यु एफ इंडिया प्रोजेक्ट शिक्षकों तथा छात्रों में जागरूकता पैदा कर रही है। इसके अपने प्रत्येक राज्यों में कार्यालय हैं और इसके प्रोजेक्ट भारत के अरूणांचल प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिमी बंगाल, गोवा, हिमांचल प्रदेश, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश मंे चल रहे हैं। यह प्रोजेक्ट ग्रामीण व जनजातीय क्षेत्रों में विशेष रूप से संचालित हैं इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार है - माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों में पर्यावरण की सुरक्षा हेतु शिक्षित करना। साथ ही नेचर क्लब आफ इण्डिया मूवमेंट को मजबूती प्रदान करना। यही नहीं इसके माध्यम से प्रोजेक्ट पाठ्यक्रमों के अलावा आस-पास के वातावरण से भी छात्रों को शिक्षित करने का दायित्व उठा रहा है। इस प्रोजेक्ट के तहत पर्यावरण शिक्षा को शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं के माध्यम से व्यावहारिक दुनिया यानी प्रकृति से साक्षात साक्षात्कार कराना है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरण से सम्बन्धित स्वयंसेवी संस्थाओं ने न केवल भारत में ही वरन् भारत की परिधि से बाहर जाकर भी काम किया है जो एक देश से दूसरे देशों तक अपने कार्यों को सम्पन्न कर रही हैं। ऐसी संस्थाओं का उपयोग राष्ट्रसंघ तथा विश्व स्तर की सरकारी एजेन्सियाँ बड़े विश्वास के साथ करती हैं सूखा, आकाल, बाढ़, महामारी का प्रकोप तथा प्राकृतिक दुर्घटनाओं के समय भोजन, बच्चों को दूध, दवाइयाँ, कपड़े और अन्य प्रकार की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी यह संस्थाएं उठा लेती हैं। कितना कठिन भी कार्य क्यों न हो ये स्वयंसेवी संस्थाएं अपने स्वयंसेवकों के साथ बड़ी ईमानदारी से उसका निर्वहन करते हुए सफलतापूर्वक कार्य निपटा देती हैं। पर्यावरण ही नहीं अन्य मामलों में भी निश्चय ही इन स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण एवं अग्रणी है।
----------------------------------------
सम्पर्कः
वरिष्ठ प्रवक्ता: हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001
----------------------------
लेखक परिचय –

युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

17 मार्च 2009

डा0 लखन लाल पाल की लघुकथा - जीन्स

गाँव के अथाई मुहल्ला में शोर बढ़त जा रओ तो। मुहल्ला में एकई चरचा हती। या चरचा कछू खट्टी....कछू चटपटापन लयें ती। बातन में सुगबुगाहट....लुगाइयन के बीच कानाफूसी...मुखिया लम्बरदारन की चढ़ी त्योरियाँ माहौल खें रोचक बना रईं तीं। लम्बरदारन के तेबर कछू लोगन खें पहुँचाउत ते, या यूँ कहें कि लम्बरदार कौ रौबीलौ अंदाज उनकी मान्यतन (मान्यताओं) कौ पोसन कर रओ तो। यौ अन्दाज ऊ लोगन द्वारा पूरी तरां से समर्थित हतो। फिर दूसरे लोगन से परम्पराओं और मान्यताओं के हनन खें ई लोग कैसें बरदाश्त कर सकत ते। इन्हईं की दया पै जियन बाले लोग इन्हईं पै चड्डी गाँठें, यौ उन्हें कैसे स्वीकार हो जाती। जर्जर दिवाल की रक्षा कौ भार इन्हईं के मजबूत कंधन पै जो है। लोग अपनौ काम-धाम छोड़खें लम्बरदारन की बातन कौ आनन्द लेन लगे। लम्बरदार बड़बड़ानों-‘‘ई ससुरी बदजात ने संसकिरती मिटा दई....गाँव मुहल्ला बरबाद कर रई...लाज खा गई...शरम काहे की...या नीच धनकुरिया मोरे दरबज्जे के सामें सें जीन्स पहर खें निकरन लगी। मौड़ी जीन्स पहरहैं, ता यौ धरम बचहै कि रसातल में जैहै? खाबे खों दाने नहिंयाँ जीन्स पहर खें कूल्हे मटकाउट फिरत।’’
लोगन के कानन में शहद सी घुर गई। लम्बरदार कौ वफादार नौकर उतईं बैठो ओखे पाँउन खें दबा रओ तो और ओखी बातन के रस कौ पान करत जा रओ तो। आनन्द की अधिकता में ऊ अपनी मुंडी हिला रओ तो। लम्बरदार कौ उत्साह दुगुनो....तिगुनो....चैगुनो बढ़त जा रओ तो। नौकर कौ आनन्द ऊ गुणात्मक हो गओ। मुखरित वातावरन में लाली तिर गई। नौकर ने ऊ लालिमा खें आत्मसात करखें चिरौरी करी-‘‘मालिक! या बात एक देर और कहाव....ई धनकुरिया खें अपनी सोनाली बिटिया सें अच्छौ जीन्स घोरई फबत?... अपनी सोनाली बिटिया जीन्स पहर खें निकल जात...ता लगत काऊ लम्बरदार की बिटिया जा रई है।’’
लम्बरदार ने नौकर खें लाल आंखिन से देखो, नौकर सकपकानों। ओने महसूस करो, स्यात ओपै कौन्हऊ बड़ी भूल हो गई।

--------------------------------
mobile - 9236480075

16 मार्च 2009

आफरीन खांन की दो ग़ज़ल


वो भी क्या दिन थे
----------------------
वो भी क्या दिन थे जब, राते छोटी और दिन लम्बे होते थे।
यारों के जमघटे में खुद हँसते, औरों को हँसाया करते थे॥
न फिक्र-ए-मआश1 थी, न ज़िन्दगी की उलझनें थी।
खुली आँखों से खूबसूरत सपने सजाया करते थे॥
सतरंगी माहौल में मुस्कुराहटों के ह़जारों फूल खिलते थे।
दोस्तों के खुलूस से हरसू2 उजाले से रहा करते थे॥
वक्त की गर्द ने हर शय को धुंधला के रख दिया।
वो चेहरें कही खो गए जो कभी नुमायां हुआ करते थे॥
जब भी गुजरते हैं हम इन जानी पहचानी सी राहों से।
खुद से पूछते हैं क्या हम इन्ही राहों में जिया करते थें॥
-----------------------------
1 रोज़ी रोटी की फिक्र 2 हर ओर
-----------------------------
जाने क्यूं
-----------------------------
जाने क्यूं मुझको खुशी रास नहीं आती है,
जब भी मुस्कुराती हूँ आँखे छलक जाती हैं।
यूं तो ऐसा भी कोई ग़म नही है जिन्दगी मे,
फिर क्यूं मुझसे खुशियाँ मुँह छुपाएं फिरती है।
चाहा था के भर लेंगे आस्मान को बाँहों में,
मयस्सर थी जो जमीं वो भी छूटी जाती हैं।
अब तो महफिल में भी तन्हाईयों के साये है,
सारी आवाज़े मुझ तक आते आते खो जाती है।
मुमकिन नही है दिल से अब उसकों भुला देना
साथ हर सांस के उसकी ही खुश्बू आती है।
---------------------------------------
आफरीन खांन
राजनीति विज्ञान विभाग
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005
Email- khan_vns@yahoo.com

15 मार्च 2009

कवि कुलवंत सिंह की कुछ ग़ज़ल

1.

दावत बुला के धोखे से है काट सर दिया
हैवां का जी भरा न तो फिर ढा क़हर दिया

दुनिया की कोई हस्ती शिकन इक न दे सकी
अपनों ने उसको घोंप छुरा टुकड़े कर दिया

कण-कण बिखर गया जो किया वार पीठ पर
खुद को रहा समेट कहाँ तोड़ धर दिया

अंडों को खाता साँप ये हैं उसकी आदतें
बच्चे को नर ने खा सच को मात कर दिया

इंसां गिरा है इतना रहा झूठ सच बना
पैसा बना ईमान वही घर में भर दिया

होली जला के रिश्तों की नंगा है नाचता
बन कंस खेल बदतर वह खेल फिर दिया


2.

शैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया ।
कातिल था वही उसने मेरा कत्ल कराया ॥

दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने,
हर घर में दिखा मुझको तो दुख दर्द का साया ।

किसको मैं सुनाऊँ ये तो मुश्किल है फसाना
दुश्मन था वही मैने जिसे भाई बनाया ।

मैं कांप रहा हूँ कि वो किस फन से डसेगा,
फिर आज है उसने मुझसे प्यार जताया ।

आकाश में उड़ता था मैं परवाज़ थी ऊँची,
पर नोंच मुझे उसने जमीं पर है गिराया ।

गीतों में मेरे जिसने कभी खुद को था देखा,
आवाज मेरी सुन के भी अनजान बताया ।

कांधे पे चढ़ा के उसे मंजिल थी दिखाई,
मंजिल पे पहुँच उसने मुझे मार गिराया ।

----------------------------------

शैदाई= चाहने वाला, पर = पंख, परवाज = उड़ान

3.

बंदा था मैं खुदा का, आदिम मुझे बनाया ।
इंसानियत ने मेरी मुजरिम मुझे बनाया ।

माँगी सदा दुआ है, दुश्मन को भी खुशी दे,
हैवानियत दिखा के ज़ालिम मुझे बनाया ।

दिल में जिसे बसाया , की प्यार से ही सेवा,
झाँका जो उसके अंदर, खादिम मुझे बनाया ।

है शर्मनाक हरकत अपनों से की जो उसने,
कैसे बयां करूँ मैं, नादिम मुझे बनाया ।

रब ने मुझे सिखाया सबको गले लगाना,
सच को सदा जिताऊँ हातिम मुझे बनाया ।

4.
दीन दुनिया धर्म का अंतर मिटा दे ।
जोत इंसानी मोहब्बत की जला दे ।


ऐ खुदा बस इतना तूँ मुझ पर रहम कर,
दिल में लोगों के मुझे थोड़ा बसा दे ।


उर में छायी है उदासी आज गहरी,
मुझको इक कोरान की आयत सुना दे।

जब भी झाँकू अपने अंदर तुमको पाऊँ,
बाँट लूँ दुख दीन का जज़्बा जगा दे ।

रोशनी से तेरी दमके जग ये सारा,
नूर में इसके नहा खुद को भुला दे ।

5.
भरम पाला था मैंने प्यार दो तो प्यार मिलता है ।
यहाँ मतलब के सब मारे न सच्चा यार मिलता है ।


लुटा दो जां भले अपनी न छोड़ें खून पी लेंगे,
जिसे देखो छुपा के हाथ में तलवार मिलता है ।

बहा लो देखकर आँसू न जग में पोंछता कोई,
दिखा दो अश्क दुनिया को तो बस धिक्कार मिलता है ।

नहीं मैं चाहता दुनिया मुझे अब थोड़ा जीने दो,
मिटाकर खुद को देखो तो भी बस अंगार मिलता है ।


मैं पागल हूँ जो दुनिया में सभी को अपना कहता हूँ,
खफ़ा यह मुझसे हैं उनका मुझे दीदार मिलता है ।


मुखौटा देख लो पहना यहाँ हर आदमी नकली
डराना दूसरे को हो सदा तैयार मिलता है ।
----------------------------------
कवि कुलवंत सिंह
Kavi Kulwant singh
participate in kavi sammelans
quiz master science quiz in Hindi
scientific Officer SES, MPD, BARC, Mumbai-400085
022-25595378 (O)
09819173477

14 मार्च 2009

डा. वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - वेदों में वृक्ष संस्कृति (पर्यावरण) की अवधारणा

भारतीय संस्कृति को अरण्य (वृक्षों) की संस्कृति भी कहा जाता है क्योंकि भारतीय संस्कृति और सभ्यता वनों से ही आरम्भ हुई। भारतीय ऋषि-मुनियों, दार्शनिकों, संतों तथा मनस्वियों ने लोकमंगल के लिए चिंतन-मनन किया। अरण्य (वनों) में ही हमारे विपुल वाङ्मय, वेद-वेदांगों, उपनिषदों आदि की रचना हुई। अरण्य में लिखे जाने के कारण ग्रन्थ विशेष आरण्यक कहलाए। प्रकृति के विविध स्वरूप को समझते हुए वृक्षायुर्वेद की रचना की गई। भारतीय संस्कृति में वृक्षों की जितनी महिमा-गरिमा का उल्लेख किया गया है, सम्भवतः और किसी देश की संस्कृति में देखने को नहीं मिलता है। सदियों से ही ऋषि-मुनियों ने वृक्षों में देवत्व एवं दिव्यत्व का एहसास किया। वृक्षों में विराट विश्व एवं प्रकृति की विराटता का कोमल एहसास है। प्रत्येक पेड़-पौधों वनस्पति व वृक्ष में प्रकृति की एक अनुपम शक्ति और रहस्य छुपा हुआ है। जिसका आख्यान वेदों, उपनिषदों, पुराणों, शास्त्रों, लोक विश्वासों व परम्पराओं में अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है। इन वृक्षों के शुभ-अशुभ परिणामों को लेकर काफी अध्ययन भी किये गये, कौन से वृक्ष हमारे लिए स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है ? कौन से वृक्ष केवल सौन्दर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है ? कौन से वृक्ष हवन की दृष्टि से पवित्र
हैं ? इन सभी सत्यों एवं तथ्यों की जानकारी हमारे वैदिक ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।
भारतीय संस्कृति में वृक्ष मानव के लिए स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में माने जाते हैं। आयुर्वेद में इनकी विशेषता का उल्लेख मिलता है और इन पौधों के गुण-धर्म के आधार पर इनका औषधि रूप में एवं पर्यावरण के लिए उपयोग किया जाता है। वनस्पतियों का यही गुण-धर्म एवं उनका सदुपयोगिता उन्हें देवत्व का स्थान प्रदान करती है। वृक्षों को देवता के समान मानकर उनकी उपासना, अभ्यर्थना की परम्पराएँ हमारी धरोहर रहीं है। वेदों में वृक्षों को पृथ्वी की संतति कहकर इन्हें अत्यधिक महत्व एवं सम्मान प्रदान किया गया है - सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा गया है - भूर्जज्ञ उत्तान पदो .......... (ऋग्वेद् 10/72/4) अर्थात हमारी पृथ्वी वृक्ष से उत्पन्न हुई है। यह भी माना गया है कि बृह्मा ने जल में बीज बोया और वनस्पति उपजी ये मान्यताएं सृष्टि में वृक्षों के प्रथम आगमन की सूचनाएं ही नहीं देती, बल्कि इन्हें आदिशक्ति से भी जोड़ती हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वाधाहमहमौषधम् (9/16) अर्थात् मैं ही औषधि हूँ तथा वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) हूँ - अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां (10/26) वृहदारण्यक उपनिषद (3/9/28) में वृक्ष का दृष्टांत देकर पुरूष का वर्णन किया गया है क्योंकि पुरूष का स्वरूप वृक्ष के समान है। दोनों में पर्याप्त समानताएं हैं। आयुर्वेदाचार्यों की दृष्टि में देखें तो विश्व में ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जो औषधि के गुणों से युक्त न हो। यहाँ पर वृक्षों को देवतुल्य मानकर इन्हें व्यर्थ रूप से काटने पर नैतिक प्रतिबन्ध लगाया गया है। इसलिए श्वेताश्वतरोपनिषद में वृक्षों को साक्षात बृह्म के सदृश्य बताया गया है - वृक्ष इवस्तब्धों दिवि तिष्ठात्येकः। पद्य पुराण में भगवान विष्णु को अश्व रूप, वट को रूद्र रूप और पलाश को ब्रह्म रूप बताया गया है - अश्वत्थ रूपी भगवान विष्णुरेव न संशयः। रूद्ररूपी वटस्तदूत पालाशो ब्रह्मरूप धृक। महाभारत एवं रामायण में वृक्षों के प्रति मनोरम कल्पना की गई है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है - सर्वकाम फलाः वृक्षा। धार्मिक मान्यता है कि जिस घर में तुलसी की नित्य पूजा होती है, वहाँ पर यमदूत कभी नहीं पधारते हैं - तुलसी यस्य भवनै तत्यहं परिपूज्यते। तद्गृहं नीवर्सन्ति कदाचित यमकिंकरा। वाराह पुराण में उल्लेख किया गया है कि जो पीपल, नीम या बरगद का एक, अनार या नारंगी के दो, आम के पाँच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी भी नारकीय पीड़ा को नहीं भोगता है और न ही नरक-यात्रा करता है।
अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दशपुष्पजातीः।
द्वे द्वे तथा दाऽममातुलंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।
महाभारत में वृक्षों को देवताओं के समान माना गया है और इसका पूजन सामग्री के रूप में भी प्रयोग की जाती है। महाभारत के एक पर्व में कहा गया है कि पर्ण और फलों से समन्वित कोई भी सुन्दर वृक्ष इतना सजीव एवं जीवंत हो उठता है कि वह पूजनीय हो जाता है -
एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत् पर्णफलान्वितः।
चैत्यो भवति निज्र्ञातिरर्चनीयः सुपूजितः।।(आ. 151/33)
समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का उद्भव होना एवं देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना वृक्षों की महत्ता को अवगत कराते हैं पृथ्वी सूक्त में लिखा है कि वन तथा वृक्ष वर्षा लाते हैं, मिट्टी को बहाने से बचाते हैं साथ ही बाढ़ तथा सूखे को रोकते हैं तथा दूषित गैसों को स्वयं पी जाते हैं। यही कारण है कि पुरातन काल में वृक्षों का देवता के समान पूजन किया जाता था। हमारे ऋषि-मुनि एवं पुरखे इसलिये कोई भी कार्य करने से पूर्व प्रकृति को पूजना नहीं भूलते थे -
अश्वत्थो वटवृक्ष चन्दन तरुर्मन्दार कल्पौद्रुमौ।
जम्बू-निम्ब-कदम्ब आम्र सरला वृक्षाश्च से क्षीरिणः।।
शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो तीर्थ स्थानों में वृक्षों को देवताओं का निवास स्थान माना है। वट, पीपल, आँवला, बेल, कदली, पदम वृक्ष तथा परिजात को देव वृक्ष माना गया है। भारतीय संस्कृति से धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का अत्यधिक महत्व है। पीपल (अश्वत्थ) को शुचिद्रुम, विप्र, यांत्रिक, मंगल्य, सस्थ आदि नामों से जाना जाता है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल प्रारब्ध जन्य कर्मों से निवृत्ति कारक माना गया है। पीपल को अखण्ड सुहाग से भी सम्बन्धित किया गया है। लोक परम्परा के अनुसार संतान की इच्छुक स्त्रियाँ उसकी पूजा अभ्यर्थना करती हैं। मान्यता है कि पीपल की परिक्रमा करने से जन्म-जन्मांतरों के पाप-ताप मिट जाते हैं। चित्त निर्मल होता है। अश्वत्थ की महिमा वेदों-पुराणों में जगह-जगह देखने को मिलती है। तुलसी को वायु शोधन एवं पवित्रता के लिए हर आँगन में लगाने की प्रथा है क्योंकि तुलसी को सर्वाधिक आक्सीजन प्रदायक पौधा माना जाता है। इसका पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसके पास हानिकारक जीवाणु-विषाणु या कीड़े-मकोड़े नहीं पनपते। यह घातक कृमि और कीटों को नष्ट करती है। भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामवाण औषधि है। भारतीय संस्कृति में बिल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया है। इसकी पत्तियों को शिवलिंग पर चढ़ाने का विधान है। परन्तु वावन पुराण में बिल्व पत्र को लक्ष्मी से उद्भव मानते हैं। इसमें लक्ष्मी का वास भी माना जाता है। इसे अथर्ववेद में महान ‘वै भद्रो बिल्वो महान भद्र उदुम्बरः।’ अर्थात् औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण इसकी तुलना उपकारी पुरूष से की गई है। वामन पुराण में कदम्ब का जन्म कामदेव के माध्यम से किया गया है। कदम को भगवान विष्णु, लक्ष्मी एवं यशोदा नंदन कृष्ण से भी जोड़ा गया है - ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों में प्रयुक्त किया जाता है। इसके साथ ही अशोक, चम्पा अरिष्ट, पुन्ताग, प्रियंगू, शिरीश, उदूम्बर तथा पारिजात को शुभ माना गया है। इनमें देवताओं का निवास स्थान अथवा देवत्व शक्ति मानी गयी है। इन वृक्षों के सानिध्य से मनुष्य में तेज, ओज तथा वार्यवान होने की सम्भावना सुनिश्चित है। वाराह-मिहिर, कश्यप संहिता तथा विश्वकर्मा-प्रकाश आदि बहुमूल्य ग्रन्थों में लिखा है बाग लगाना हो तो सर्वप्रथम इन प्रमुख वृक्षों को लगाना चाहिए -
अशोक चम्पकारिष्ट पुन्नागाश्च प्रियंगव।
शिरीषो दुम्बराः श्रेष्ठाः पारिजातक मेव च।।
एवे वृक्षाः शुभा ज्ञेयाः प्रथमं तांश्च रोपयेत्।।
इसी तरह से भगवान विष्णु को बाल रूप में वट पत्रशायी कहा गया है। स्त्रियाँ वट सावित्री की पूजा ज्येष्ठ अमावस्या को करती है। वे अपने पति के दीर्घायुष्य एवं मंगल कामना के लिए व्रत रखकर वट वृक्ष की परिक्रमा करती हैं। नीम की पूजा का भी प्रचलन है। नीम के पेड़ का प्रेत बाधा के लिए उपयोग किया जाता है। कुछ आदिवासी एवं अन्य जातियाँ इसमें देवी का वास तथा नाग पूजा के रूप में पूजती हैं।
भारतीय परम्पराओं के अलावा बौद्ध और जैन साहित्य में वन-यात्राओं एवं वृक्ष महोत्सवों का सुन्दर वर्णन मिलता है। बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में वृक्षों को सम्मान एवं अदब की दृष्टि से देखा गया है। भगवान बुद्ध को पीपल के नीचे बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। तभी से उसे बोधिवृक्ष कहा जाता है। बोधिवृक्ष की पूजा के दृश्य का बोधगया, साँची, मथुरा, अमरावती आदि स्थानों से प्राप्त शुगकला में सुन्दर अंकन हुआ है। साँची के तोरण में वृक्षों का अलंकरण अत्यन्त मनोहारी है। इसमें शाल, अशोक, चंपा एवं पलाश वृक्षों का सजीव एवं अनुपम वर्णन मिलता है। वन-उपवन शोभा और समृद्धि के आगम थे। ये वैरागियों के लिये मुक्ति पाने के साधन, वानप्रस्थ जीवन के आधार पर सन्यासी, तपस्वी, योगी और भिक्षुओं के लिए शरण स्थल थे। बोधिचर्यावनार (8/40-43) में वनों और वृक्षों के सम्बन्ध में कहा गया है कि वृक्ष सदैव देते रहने की प्रवृत्ति रखते हैं। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को गृहों में वास करने की अपेक्षा वृक्षों के नीचे वास करने का आदेश दिया था। प्राचीन काल में वन-उपवन में एकत्र होकर वृक्ष महोत्व और बसंतोत्सव मनाने की परम्परायें थी। ‘‘ग्रीक परम्परा में एडोडिनाअरिस, ओरिसस, डिमीटर जन्य या वनस्पति के देवता माने गए हैं। डायनिसस मदिरा और अंगूरलता का देवता था। एकेसियन आर्टेमिस देवता का आवास ओक वृक्ष के कोटर में माना जाता था।’’ भारत के इन्द्र महोत्सव जो हरियाली एवं धरती के शस्य श्यामला तथा विश्वव्यापी प्रजनन और पृथ्वी की कोख में से पनपने वाली वनस्पतियों की दृष्टि से मनाया जाता है यही इन्द्र महोत्सव की तुलना यूरोप के स्मे-पोल उत्सव से की जाती है जो कनाडा और अमरीका में अत्यन्त लोकप्रिय है। पूर्वी अफ्रीका के बानिका नामक कबीले में पेड़ काटना मातृहंता जैसा जघन्य पाप माना जाता है। वहीं केन्द्रीय आस्ट्रेलिया के डीटी कबीले के लोग पेड़ों को अपने पूर्वजों का रूपान्तरण मानते हैं। फिलीपीन द्वीपवासी भी उन पर अपने पूर्वजों की आत्मा का वास मानते हुए उन्हें पुरोहित की आज्ञा से ही काटते हैं। विश्व के कई देशों में कबीले में रहने वाले लोग फल देने वाले वृक्षों की देखभाल एक परिवार के सदस्य के रूप में करते हैं, यहाँ तक कि उन वृक्षों के आसपास आग जलाना, शोर मचाना वर्जित माना जाता है जिससे कि वे भयभीत न हों।
वास्तविकता यह है कि पेड़-पौधों की पूजा, अर्चना, वंदना एवं प्रार्थना के पीछे कर्मकाण्ड नहीं अपितु इनके पीछे कई मानवोपयोगी वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। जो किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य एवं आयुर्वेद की दृष्टि में उपयोगी तथा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से धार्मिक आस्था के रूप में योगदान देते हैं। जहाँ पीपल का वृक्ष सर्वाधिक आक्सीजन देता है वहीं आयुर्वेद अर्थात् चिकित्सकीय दृष्टि से इस वृक्ष की छाल से उत्तम टेनिन की प्राप्ति होती है जो जीवाणु रोधक होती है। इसके फल गुणकारी होते हैं, इससे चर्मरोग एवं फेफड़ों के रोग दूर होते हैं। आयुर्वेद के मतानुसार तुलसी, चरपरी, कटु, अग्नि दीपक हृदय के लिए हितकारी, गर्मी दाह तथा पित्त नाशक और कुष्ठ, मूत्रकृच्छ, रक्ताविकार, पसली की पीड़ा कफ तथा वात नाशक है तुलसी का प्रयोग विभिन्न प्रकार के रोग ज्वर, मन्दाग्नि, उदर शूल, कप-खाँसी आदि को दूर करने में सहायक होती है। वट वृक्ष को हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन तीर्थंकर ऋषभ देव को वट वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः जैन धर्म में इसे केवली वृक्ष कहा जाता है। वट वृक्ष भीषण गर्मी में राहत प्रदान करता है तथा इसकी टहनियों के द्वारा पृथ्वी की श्वसन क्रिया उचित ढंग से संचालित होती है। इसकी रस्सी जैसी टहनियाँ चर्मरोग, आँख रोग, मधुमेह के लिये उपयोगी होती हैं। वेदों एवं उपनिषदों में वन से उपवन तक की यात्रा एक अत्यन्त ही रोचक विषय है। जो स्वास्थ्य-सम्बर्द्धन में औषधीय प्रयोग करने की महत्वपूर्ण विधियों के रूप में प्रयोग की जाती है। ‘‘कंदमूल फलों के अलावा औषधि उपयोग में आने वाले गुलाब, मालवी, तुलसी, चमेली, चंपा, जूही, माधवी, बकुल, कदम्ब, केतकी, अशोक, बंधूक, हारसिंगार, कमल, पलाश, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, जटामांसी, नागकेशर, लवंग, प्रियंगु, दाडिम, तिल, गेंदा, इंगदी,, अलसी, करौंदा, कायफल, गुंजा, गधविरोजा, गुड़हल, शालपर्णी, तेमरू, पद्याख, पाषाण भेदी, दाऊहलदी, वट आदि किसी न किसी रूप में दवा के काम आते हैं आयुर्वेद की चिकित्सा इन्हीं पर आधारित है।’’
आयुर्वेद की चिकित्सा के साथ-साथ वृक्ष प्रदूषण रोकने में भी सहायक होते हैं। प्रदूषण रोकने के लिए अश्वत्थ (पीपल), नीम, अशोक, तुलसी आदि वृक्षों को लगाया जाता है इसमें धूम, धूल आदि सोखने की असीमित शक्ति होती है। पीपल 4.15, अशोक 4.56, आम्रलता 2.24, आम्रवृक्ष 4.05, गुल्म (बेर, छोटी इलायची), 1.44, इमली 2.08, कदम्ब 4.56, वट 3.59, धुआँ तथा धूल सोखने की शक्ति रखते हैं। अभी हुए एक शोध सर्वे अध्ययन के अनुसार ‘‘प्रत्येक दिन वायु में 5.1 टन सल्फर डाई आक्साइड 206.3 टन हाइड्रो कार्बन, 0.03 टन नाइट्रोजन तथा 1.07 टन एसिड मिश्रित होता है। वास्तव में देखा जाए तो गैसों को अवशोषित करने के लिए उपर्युक्त पेड़-पौधों का आरोपण करें तो काफी हद तक प्रदूषण की रोकथाम एवं इसको नियंत्रित किया जा सकता है। वेदों में श्रेष्ठ ऋग्वेद् में इस तथ्य को भलीभाँति समझाया गया है। ऋषि प्रदूषण रहित वायु को औषधि के समान दीर्घ जीवनदायक तथा अमृत स्वरूप मानते हैं। तथा उसका अपने सम्बन्धियों के समान उल्लेख भी करते हैं। विष्णु धर्मसूत्र, स्कंद पुराण एवं याज्ञवल्क्य स्मृति में वृक्ष के काटने को अपराध माना गया है और इसके लिए दंड का विधान बनाया गया। इसके पीछे चाहे जो कारण एवं कर्मकाण्ड रहे हों परन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि वेदों एवं पुराणों के सृजनकर्ता प्राच्य ऋषि इस तथ्य को बारीकी से समझते थे। अतः उन्होंने मनुष्य की परा प्रकृति एवं अपरा प्रकृति के सूक्ष्म एवं स्थूल सम्बन्धों पर व्यापक चिंतन करके प्रकृति के विकास क्रम को पूर्ण करके इसके स्तरों पर आरोहरण करने का निर्देश दिया है। प्राच्य ऋषियों का उद्देश्य बाह्य प्रकृति से अंतः प्रकृति में प्रवेश कर तथा उसे पार कर आनंद पाना था। इसी वजह से भारतीय अरण्य संस्कृति इतनी समृद्धि और सम्पन्न रही है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि वृक्षों को सम्मान एवं पूजन अर्चन तथा वंदन तथा संरक्षण के पीछे पर्यावरण को सुरक्षित रखना था। वर्तमान में प्रकृति और पर्यावरण को बचाने, इसे फिर से संरक्षित, सुरक्षित और समृद्ध करने के लिए हमें इसके प्रति फिर से भावात्मक सम्बन्ध स्थापित करने होंगे। इसके साथ ही भारतीय वैदिक कालीन संस्कृति की प्राचीन मान्यताओं को सामयिक परिप्रेक्ष्य में कसौटी से कसकर फिर से हमें ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ का उद्घोष करना होगा। संस्कृति संवेदना से पनपती है और हमारे अंदर वृक्षों के प्रति जब तक गहरी संवेदना संप्रेषित नहीं होती तब तक पर्यावरण का शोषण एवं दोहन होता रहेगा। इसके लिए आवश्यकता है एक सर्वोपरि अखण्डित अनुशासन की। जिस तरह सूर्य, चन्द्रमा, आकाश अपनी-अपनी सीमाओं में आबद्ध होकर नियमबद्ध तरीके से परिचालित हैं। इसी को मूलमंत्र मानकर पर्यावरण के अपार क्षरण को रोका जा सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का प्रतिपालन करते हुए एवं भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र -
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भागभवेत्।।
की आज के पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज के ग्लोबल वार्मिंग के युग में इतनी महत्वपूर्ण हो गई है।

------------------------------------
सम्पर्क –
वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र.
-------------------------------------
लेखक परिचय –
युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

13 मार्च 2009

धर्मेन्द्र त्रिपाठी की कविता - तुम्हारी याद


कभी खुशबु सी आती है ....
तो महक उठतीं हैं यादें ....
छा जाती है सुनहरी सी .....
वो एक अक्स उभरता है ....
ये दिल मशरूफ रहता है उस लम्हे मैं ....
अभी है वो पास ....
जैसे कह रहा है कुछ ख़ास .....
जो कभी कहा था उसने ....
बस एक एहसास ही है बाकी .....
जो हर रोज रहता है ....
है चेहरे पर मेरे ख़ुशी ....
वही जो तब तुम्हारे चेहरे पर भी थी .....
है हर वो पल भी इस लम्हे ....
जो तब जिया था तुम्हारे साथ ....
क्या करूँ आती है अब अक्सर तुम्हारी याद .....

सीताराम गुप्ता की लघुकथा - पगड़ी

भाई ईश्वरदयाल ने फोन पर फूफाजी के निधन की सूचना दी, ''भाई अशोक! पिताजी नहीं रहे। कल तेरहवीं है। अंतिम दिनों में पिताजी तुझे बहुत याद करते रहे। उन्होंने कई बार कहा कि अशोक से मिलने की बहुत इच्छा है अशोक को बुला दो पर तेरा फोन नंबर ही नहीं मिल पाया। आज मुश्किल से किसी तरह मिल पाया है तेरा नंबर। खैर! जैसी प्रभु की इच्छा। अच्छा, हमारी बुआ के लड़के जयप्रकाश को तो जानते ही हो उसका नंबर भी नहीं मिल पा रहा है। यदि तेरे पास कहीं लिखा हो तो ज़रा देखना।’’

मैंने डायरी में देखकर जयप्रकाश का पता और फोन नंबर भाई ईश्वरदयाल को लिखवा दिया। फूफाजी मुझसे बहुत स्नेह रखते थे। अंतिम समय में फूफाजी से न मिल पाने का दुख हुआ लेकिन इससे भी ज़्यादा दुख इस बात का हुआ कि भाइयों ने मुझे बुलाया क्यों नहीं। बुआजी का घर बमुश्किल पन्द्रह-सोलह किलोमीटर की दूरी पर होगा हमारे घर से। फिर बुआजी के पाँच बेटे और तीन बेटियाँ हैं। आना-जाना भी लगा ही रहता है। जब फूफाजी की मुझसे मिलने की इतनी इच्छा थी और हमारा फोन नंबर उन्हें मिल नहीं रहा था तो क्या कोई भाई आ के नहीं बुला ले जा सकता था मुझे?

हम सपरिवार तेरहवीं पर पहुँचे। बड़ा बेटा होने के नाते भाई ईश्वरदयाल को पगड़ी बाँधी गई। रस्म पगड़ी के बाद धीरे-धीरे सभी आगंतुक चले गए। हम भी चलने की तैयारी कर ही रहे थे कि भाई ईश्वरदयाल ने अपने सभी भाइयों को संबोधित करते हुए कहा, ''देखो एक ये अशोक है जिसके पास तुम्हारे रिश्तेदारों के पते और फोन नंबर भी हैं और एक तुम हो कि अपने मामा के परिवार का नंबर भी तुम्हारे पास नहीं। शर्म आनी चाहिए तुम्हें।’’ मैं भाई ईश्वरदयाल के सर पर रखी पगड़ी को देख रहा था जो शायद ठीक से नहीं बंधने के कारण सरककर काफी नीचे आ चुकी थी और जो मेरे देखते-देखते एक झटके के साथ खुलकर नीचे गिर पड़ी। भाई ईश्वरदयाल ने उपेक्षा से पगड़ी को उठाकर कोने में पड़े मैले-कुचैले कपड़ों के ढेर के ऊपर फेंक दिया।
---------------------------------

सीताराम गुप्ता
ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
फोन नं. 011-27313954/27313679
Email :
srgupta54@yahoo.co.in

12 मार्च 2009

कवि कुलवंत सिंह की पाँच ग़ज़ल

1.

-----------------------------------------

इतना भी ज़ब्त मत कर आँसू न सूख जाएँ
दिल में छुपा न ग़म हर आँसू न सूख जाएँ

कोई नहीं जो समझे दुनिया में तुमको अपना
रब को बसा ले अंदर आँसू न सूख जाएँ

अहसास मर न जाएँ, हैवान बन न जाऊँ
दो अश्क हैं समंदर आँसू न सूख जाएँ

मंजर है खूब भारी अपनों ने विष पिलाया
देवों से गुफ़्तगू कर आँसू न सूख जाएँ

कैसे जहाँ बचे यह आँसू की है न कीमत
दुनिया बचा ले रोकर आँसू न सूख जाएँ

2


-----------------------------------------

खेल कुर्सी का है यार यह,
शव पड़ा बीच बाज़ार यह ।

कैसे जीतेगी भुट्टो भला,
देते हैं पहले ही मार यह ।

नाम लेते हैं आतंक का,
रखते हैं खुद ही तलवार यह ।

रात दिन हैं सियासत करें,
करते बस वोट से प्यार यह ।

भूल कर भी न करना यकीं,
खुद के भी हैं नहीं यार यह ।

दल बदलना हो इनको कभी,
रहते हर पल हैं तैयार यह ।

देख लें घास चारा भी गर,
खूब टपकाते हैं लार यह ।

पेट इनका हो कितना भरा,
सेब खाने को बीमार यह ।

अब करें काम हम अपने सब,
छोड़ बातें हैं बेकार यह ।

3.

-----------------------------------------

चुभा काँटा चमन का फूल माली ने जला डाला
बना हैवान पौधा खींच जड़ से ही सुखा डाला

चला मैं राह सच की हर बशर मेरा बना दुश्मन
जो रहता था सदा दिल में जहर उसने पिला डाला

बड़ी हसरत से उल्फ़त का दिया हमने जलाया था
उसे काफ़िर हवा ने एक झटके में बुझा डाला

सताया डर कि दौलत बँट न जाए पैसे वालों को
थे खुश हम खा के रूखी छीन उसको भी सता डाला

उजाड़े घर हैं कितने उसने पा ताकत को शैतां से
बसाने घर कुँवर का अपनी बेटी को गला डाला


4.

-----------------------------------------

जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं
बोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नहीं

ऐसा नहीं आँखे मेरी नम हुई न हों
आँचल नहीं था पास फिर रोया नहीं

साया उठा अपनों का मेरे सर से जब
सपनों की दुनिया में कभी खोया नहीं

चाहत है दुनिया में सभी कुछ पाने की
पायेगा तूँ वह कैसे जो बोया नहीं

इंसा है रखता साफ तन हर दिन नहा
बीतें हैं बरसों मन कभी धोया नहीं


5.

-----------------------------------------

तप कर गमों की आग में कुंदन बने हैं हम
खुशबू उड़ा रहा दिल चंदन सने हैं हम

रब का पयाम ले कर अंबर पे छा गए
बिखरा रहे खुशी जग बादल घने हैं हम

सच की पकड़ के बाँह ही चलते रहे सदा
कितने बने रकीब हैं फ़िर भी तने हैं हम

छुप कर करो न घात रे बाली नहीं हूँ मैं
हमला करो कि अस्त्र बिना सामने हैं हम

खोये किसी की याद में मदहोश है किया
छेड़ो न साज़ दिल के हुए अनमने हैं हम


------------------------------------

कवि कुलवंत सिंह
Kavi Kulwant singh
participate in kavi sammelans
quiz master science quiz in Hindi
scientific Officer SES, MPD, BARC,
Mumbai-400085
022-25595378 (O)
09819173477

10 मार्च 2009

दीपक चौरसिया की बापू पर दो कवितायें

1

--------------------------------------

फिर बापू भी खुश होते

--------------------------------------

और हम बहुत खुश हैं
की अब फिर से
वो सब हिन्दोस्तान की अमानत हैं,
एक ऐनक,
एक घडी,
और कुछ भूला बिसरा सामान.
हमें प्यार है,
हमें प्यार है इन सामानों से
क्योंकि,
ये बापू की दिनचर्या का हिस्सा थे.
पर ऐसा करने से पहले,
दिल में बैठे बापू से
एक मशविरा जो कर लेते
तो बापू भी खुश होते.

ये वो ऐनक है जिससे,
बापू सब साफ़ देखते थे.
पर हम नहीं देख सकते साफ़ इससे भी
इससे हमें दिखेंगे
मगर दिखेंगे हिन्दू, दिखेंगे मुसलमान,
दिखेंगे सवर्ण, दिखेंगे हरिजान,
दिखेगी औरत, दिखेगा मर्द,
दिखेगा अमीर, दिखेगा गरीब,
दिखेगा देशी और विदेशी.
मगर शायद बापू इसी ऐनक से
इंसान देखते थे
और बापू के आदर्शों कि बोली
इक पैसा भी लगा पाते,
तो बापू भी खुश होते.

हम ले आये वो घड़ी
जिसमे समय देखते थे बापू,
शायद अभी भी दिखें उसमें
बारह, तीन छः और नौ,
हम देखते हैं सिर्फ आंकडे
पर क्या
बापू यही देखते थे?
या .......
वो देखते थे बचा समय
बुरे समय का,
और कितना है समय
आने में अच्छा समय.
वो चाहते थे बताना
चलना साथ समय के,
पर जो हम बापू के उपदेशों की घडियां
इक पैसे में भी पा लेते,
तो बापू भी खुश होते.

जिसने दीनों की खातिर,
इक पट ओढ़
बिता दिया जीवन,
उसके सामानों की गठरी
हम नौ करोड़ में ले आये,
और हम बहुत खुश हैं.
जो उस नौ करोड़ से मिल जाती रोटी,
बापू के दीनों, प्यारों को
तो बापू भी खुश होते,
जो बापू के सामानों से ज्यादा
करते बापू से प्यार,
सच्चाई की राह स्वीकार
तो बापू भी खुश होते
अभी हम हैं
फिर बापू भी खुश होते

------------------------------



---------------------------

बोली कब लगनी है?

--------------------------------

बापू तेरी सच्चाई की बोली कब लगनी है,
घड़ियाँ, ऐनक सब बिक गए,
कह तो दे इक बार तू मुझसे
कब प्यार की बोली लगनी है.
बापू तेरी सच्चाई की.....

उम्मीद मुझे है सस्ते में,
मैं ये सब पा जाऊंगा,
शायद नीलामी के दिन मैं,
भीड़ बड़ी न पाऊंगा.
बापू तेरे आदर्शों की बोली कब लगनी है.

है खण्ड-खण्ड अखण्ड राष्ट्र अब,
अखण्ड हुए दुश्मन सारे,
अब लकुटी भी तेरी ए साधू,
हिंसा का हथियार बनी.
बापू तेरे उपदेशों की बोली कब लगनी है..

------------------------------------

दीपक चौरसिया 'मशाल'
स्कूल ऑफ़ फार्मेसी
९७, लिस्बर्न रोडबेलफास्ट
(युनाईटेड किंगडम) BT9 7BL

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - रंगों का पर्व होली: कला के विविध आयाम

बसंत का मौसम जब अपने पूरे यौवन पर आ जाता है तब चारो ओर फागुन की मस्ती और इन्द्र धनुषी रंगों की बयार बहने लगती है।हर त्यौहार का अपना रंग अपना महत्व है लेकिन फागुन का मौसम जब आता है अपने साथ रंग गुलाल की फुहार,, भंग की तरंग और हर तरफ मौज मस्ती की बयार लेकर आता है। इसका आन्नद ही कुछ और होता है क्योंकि होली में चैतरफा रंगों की फुहार होती है। यानी लाल-पीले-हरे-गुलाबी रंगों का त्यौहार के साथ-साथ भावनाओं के समन्वय एवं मन के मिलन का उत्सव होने के साथ ही फुल टाइम मौज मस्ती, उल्लास एवं उमंग का उत्सव माना जाता है। इस रंगों के पर्व में जहाँ एक ओर साठ वर्ष की उम्र का व्यक्ति अपने को जवान नजर आता है वहीं बच्चे भी इस पर्व की मस्ती के आलम में अपने को जवान महसूस करने लगते हैं। अर्थात् रंगों का यह पर्व अपने अन्दर अनेक विविधताओं को समाहित किये हुए है। आखिर इस पर्व की विविधताएं एवं मान्यतायें क्या हैं इसके लिए हमें अपने देश के विविध प्रान्तों की ओर चलना होगा।
रंगों का यह पर्व अपने आप में देखने में एक लगता है परन्तु इसे पूरे भारत में मनाने/अपनाये जाने के विविध पहलू हैं। वास्तव में अवलोकन किया जाय तो सच्चे अर्थों में यह रंग पर्व अनेकता में एकता की वास्तविक मिसाल सामने रखता है। इस पर्व के मनाये जाने/खेले जाने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे कि नाम से रंग के रूप मे यह पर्व रंगों के द्वारा मनाया जाता है पर कहीं-कही यह गुलाल के साथ, कहीं यह फूलों के रूप में मनाया जाता है तो कही पत्थरों से, कहीं-कही इस पर्व में लट्ठ चलते हैं तो कही से कोड़े के साथ इसका आगाज किया जाता है तो कहीं आटे, कीचड़ से, कहीं-कहीं दूध, दही मट्ठे और कढ़ी से भी खेलने का रिवाज परम्परागत रूप से आज भी चल रहा है।
महाराष्ट्र एवं गुजरात में होली (रंगपर्व) के दिन आम स्थान एवं सड़कों के बीच एक निश्चित ऊँचाई में दूध-मक्खन की मटकी को किसी आधार में बाँध देते हैं। यहाँ के लोगों में ऐसी मान्यताएं एवं विश्वास है कि भगवान कृष्ण (माखन चोर) आकर इसे खांयेगें और अपने ग्वालों को भी खिलांएगे। इसी समय उमंग एवं विश्वास के साथ सभी लोग ‘गोविन्दा आल्हा रे’ जरा मटकी संभाल ब्रजबाला ’ का सामूहिक गायन करते हैं। ‘रंग पंचमी’ के नाम से ग्रामीण इलाकों (महाराष्ट्र) में इसे मनाया जाता है। रंगों के इस पर्व को पंजाब में ‘होली मोहल्ला’ कहते हैं जिसे सिख समुदाय के एक पंथ के लोग रंग पर्व के अगले दिन अपने प्राचीन हथियारों के साथ स्वांग रचने का भव्य आयोजन करते हैं। वहीं हरियाणा में भी इस रंगपर्व को बड़े उत्साह के साथ मनाता है। घर में परिवार के सदस्यों के साथ भाभी अपने देवर को साड़ी के फंदे बनाकर मारने/पीटने का नाटक करती हैं वहीं दूसरी ओर चैराहे एवं सड़कों पर दूध-मक्खन से भरी हांडी (मटकी) को दो आधारों के बीच बांधकर पुरूष वर्ग पिरामिड के आकार में बनकर उसे तोड़ने का उपक्रम करते हैं। यहाँ की स्थानीय भाषा में इसे ‘धुलुडी होली’ भी कहते हैं। पं0 बंगाल में इस पर्व के दिन श्री कृष्ण और राधा की मूर्ति को सभी लोग एक झूले में रखकर उनके चारों ओर झूमते हैं इसके साथ ही रंगों का आपस में आदान-प्रदान कर बैंड बाजे के साथ होली पर्व मनाते हैं। यहाँ इसे ‘दोल यात्रा’ के नाम से जाना जाता है। महत्वपूर्ण यह है कि बंगाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने होली के नये रूप ’बसंत उत्सव’ से परिचित कराया। वर्तमान में शांति निकेतन विश्वभारती विश्वविद्यालय में होली को बसंत उत्सव के रूप में मनाते हैं। राजस्थान (बाड़मेर) में पहले फूलों एवं पत्थरों से होली खेली जाती थी। वर्तमान में मांडवा में लोग सिर्फ अबीर-गुलाल से इस रंग पर्व को मनातें हैं और रंगों का प्रयोग नहें करते हैं। दक्षिण भारत में भी इस रंगपर्व को लोग उत्साह से मनाते हैं। साथ ही एक दूसरे के घर पर जाकर शुभकामनाएं देते -लेते हैं। दक्षिण भारत में इस रंग पर्व को ‘कामुस पुत्ररू’ कहते हैं। मणिपुर में होली को ‘योगंस’ कहते हैं। चांदनी रात में लोग ढोल बजाकर लोकगीत गाते हैं। यहाँ के लोग अपनी परम्परागत/पारंपरिक सफेद और पीली पगड़ी बांधकर यहाँ के प्रसिद्ध लोकनृत्य ‘थाबल’ पर थिरकते हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस पर्व को लोग यहां छह दिन तक मनातें हैं। और अन्तिम दिन इसे श्रीकृष्ण मन्दिर में धूम से मनाकर समाप्त करते हैं। उड़ीसा प्रान्त में श्रीकृष्ण की इस पर्व में पूजा न कर भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को लोग झूलें में रखकर झुलाते हैं।
भारतीयों में यह रंगों का उत्सव सभी राज्यों में किसी न किसी रूप में दिल की उमंग एवं मस्ती का सम्पूर्ण उत्सव माना जाता है परन्तु यदि उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश की बात न हो तो यह रंग पर्व अधूरा रह जाता है। उत्तर प्रदेश में इस रंग पर्व के मनाये जाने का अंदाज ही अलग है। मथुरा एवं बरसाने की होली तो अब अंतर्राष्ट्रीय हो गयी है। यहां (बरसाना) में महिलाएं पुरूषों को लट्ठमारकर एवं आपस में रंग डालकर होली मनाती हैं। इसलिए यहां की होली को ‘लट्ठ मार’ होली कहते हैं। बिहार, म0 प्र0 राज्यों में लोग होलिका दहन के अगले दिन शाम के समय सामूहिक रूप से बैंड बाजे एवं ढोल के साथ निकलते हैं और अपने इष्ट मित्रों से मिलकर इसे मनाते हैं। कीचड़ एवं रासायनिक रंगों का प्रयोग करके कुछ विकृत मानसिकता के लोग इस रंग पर्व की महत्वता को कम कर रहे हैं। परन्तु कुछ भी हो इस दिन का वातावरण बड़ा धांसू रहता है और कहीं फाग का गायन होता है तो कहीं लोग लोकगीत गाते हैं। कहीं रास का गायन होता है तो कहीं पर रसिया का नाच-नाचकर लोग अपनी खुसी का इजहार करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश के लोग भले ही अलग-अलग रहन-सहन, तौर-तरीकों में रहते हों, इसके साथ ही उनकी परम्पराओं एवं मान्यताओं में कितना ही ‘मध्यान्तर’ क्यों न हो पर इस रंगपर्व के माध्यम से यह तात्कालिक सन्देश तो जरूर लोगों के जेहन में रहता है, कि इस रंग पर्व में भाईचारा मौजस्ती, उमंग, उल्लाह निहित रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि-
भूल-चूक हो माफ कि भैय्या, ऐसा उड़े गुलाल।
भ्रष्टाचार, आतंकवाद, वैमनस्य जले होली में, देश बने खुशहाल।।
सम्पर्क:
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------
लेखक परिचय –

युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

09 मार्च 2009

डा0 अलका पुरवार की कहानी - बस अब और नहीं .....

‘‘चैप्टर मस्ट बी क्लोज्ड’’, कहने के साथ ही प्रणय ने बात खत्म करनी चाही। वाक्य छोटा था पर प्रिया की आशाओं और अरमानों पर तो जैसे तुषारापात ही कर गया, फिर भी उसने हिम्मत करके कहा, क्या आज की शाम तुम मेरे नाम कर सकते हो, बस आखिरी शाम .....’’ ? ‘‘ठीक है’’, प्रणय ने कुछ अनमने भाव से कहा।
शाम आने से पहले प्रिया सारे दिन सोचती रही लेकिन शायद स्त्री संकोच उसे प्रणय कर दबाव डालने से रोकता रहा। यूँ दिल तो बहुत चाह रहा था प्रणय से उस वाक्य को वापस लेने के आग्रह करने का फिर यह सोचकर कि प्रेम दबाव का नहीं बल्कि स्वाभाविकता और सहजता का नाम है, उसने अपनी भावनाओं के ज्वार को दबाना ही ठीक समझा। हालांकि उसके अन्तस से आवाज आ रही थी विद्रोह की; प्रणय को खरी-खोटी सुनाने की लेकिन अपनी इच्छाओं को परे धकेल कर वह शाम का इन्तजार करने लगी।
अन्ततः प्रिया ने अपनी सारी भावनाओं, इच्छाओं व आशाओं का गला घोंटते हुये प्रणय को दोस्त रूप में मिलने का निर्णय किया, जिसमें वह प्रेयसी के रूप में अपना अधिकार जमाने नहीं बल्कि एक सहपाठिनी के रूप में अधिकार जताने वाली थी। सुपर मार्केट की ‘बुक-वार्म’ दुकान में निगाहें दौड़ाते, उसने सामने से आते हुये प्रणय को देखकर हाथ हिलाया। प्रणय कितने दबाव में है बल्कि कुछ सहमा सा भी, इसका अंदाज उसके चेहरे से ही लगा लिया था प्रिया ने। लेकिन रेस्तरां में प्रिया को उसी पुराने उन्मुक्त व अल्हड़ मूड में देखकर प्रणय थोड़ी ही देर में काफी सहज हो चुका था। सुबह के तनाव का हल्का सा चिन्ह भी उसे प्रिया के चेहरे पर नहीं दिखाई दे रहा था और उधर प्रिया, वह अपनी जिन्दगी की इस सबसे ‘खास’ शाम को शायद पूरी तरह जी लेना चाहती थी इसलिये बिना वक्त बरबाद किये उसने पूछा, ‘‘क्या खिलाने जा रहे हो आज ?’’ प्रणय ने उत्साहित होकर कहा, ‘‘पूरी साल एक भी ट्रीट न देने के कारण बैच में तुमने मुझे कंजूस की जो उपाधि दी थी, आज मैं उस लेबिल को हटाना चाहता हूँ इसलिये तुम आज जी भरकर आर्डर करना।’’ ‘‘अच्छा’’ कहते हुये वह खिलखिला कर हँस पड़ी। ‘‘तो ठीक है, पनीर कटलेट, बेजीटेबिल बर्गर, मटन चाॅप और हाँ कसाटा मँगाना मत भूलना।’’
‘‘हाँ, वो सुबह तुम क्या कह रही थी ?’’ प्रणय ने जैसे अनिच्छा से पूछा। ‘‘मैं ...... कुछ खास नहीं ..............’’, प्रिया ने जानबूझकर बात अधूरी छोड़ी लेकिन प्रणय ने भी मानो बात टालने की गरज से प्रिया द्वारा खरीदे उपन्यास को उठाया और उपन्यास का शीर्षक नो रूम फार लोनलीनेस देखकर एक गहरी साँस छोड़ी। प्रिया ने कनखियों से उसे तनाव मुक्त होते देखकर अपने दिल पर बोझ सा महसूस किया। शायद उपन्यास के शीर्षक ने उसे प्रिया के अकेलेपन का अहसास न होने दिया या उसने जरूरत ही न समझी। आज भी उस शाम की याद जेहन में आते ही प्रिया बहुत अकेलापन महसूस करती है। ठगे जाने का एक अहसास जिसे वह कभी किसी को नहीं बता पाई लेकिन साथ में एक सुकून भी था कि प्रणय ने अगर प्रेम का रिश्ता नहीं निभा पाया तो क्या, उसने स्वयं दोस्ती का फर्ज बखूबी निभाया।
घर लौटते समय अँधेरा घिरने को था लेकिन बाहर के अंधेरे से गहरा था उसके मन का अंधेरा। कमरे में पहुँचकर निढाल होकर वह बिस्तर पर गिर पड़ी। सब कुछ खत्म हो चुका था, जिन्दगी बेमायने हो चुकी थी। उसकी दुनिया में प्यार की शमा जलने से पहले ही बुझ चुकी थी। आँखों से अविरल गिरते आँसुओं के बीच कब वह अतीत के ख्यालों में डूब गई उसे पता ही न चला।
अभी दो महीने पहले की ही तो बात थी जब पहली दफा उसने ‘प्यार’ शब्द को जाना था और आज यह शब्द अपना अर्थ खो चुका था। उसे अच्छी तरह याद है वह दिन जब पहली बार प्रणय ने उसका ‘प्यार’ शब्द से परिचय कराया था। उस दिन भी बहुत रोई थी वह, शायद खुशी की अधिकता से या अपनी विवशता के पूर्वाभास से। विश्वास नहीं हो रहा था उसे अपने ऊपर, बार-बार शीशे में निहारते हुये उसे अपने चेहरे पर गर्व-मिश्रित संतोष की रेखा चमकती दिख जाती थी क्योंकि यह प्रणय-निवेदन उसे मिला था उसके सबसे प्रिय दोस्त एवं पूरे बैच की जान, हँसमुख, वाचाल, स्मार्ट या यूँ कहें कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व की तरफ से। जिसकी वह कुछ हद तक प्रशंसक भी रही है। आज फिर वह रो रही है। क्या प्यार पाने और खोने दोनों ही स्थितियों में स्त्री को सिर्फ रोना ही है ? आखिर क्यों ? क्या प्यारे करने या न करने का एकाधिकार सिर्फ पुरुष के ही पास है ? क्यों इतना कमजोर एवं असहाय हो गई है वह ? अपनी सहेलियों के बीच ‘बोल्ड’ व उन्मुक्त रूप में प्रसिद्ध वह व्यक्तिगत जिन्दगी में इतनी कमजोर होगी, उसने कभी कल्पना भी न की थी।
यूँ प्रणय और उसके बीच सत्र के शुरूआत से ही छोटी-छोटी चिटों व ग्रीटिंग्स का आदान-प्रदान होता रहा था जिसमें एक दूसरे को ‘बेवकूफ’ साबित करना ही जैसे दोनों का एकमात्र उद्देश्य था। साथ ही सबके सामने परस्पर चिढ़ाना, मजाक बनाना तथा खिंचाई करना, रोज का आवश्यक कार्य था लेकिन प्रिया ने इस वाक्युद्ध को कभी भी दोस्ती से ज्यादा कुछ न समझा। इसी दौरान प्रणय का चयन बिजनेस मैनेजमेंट कोर्स के लिये हो गया। चयन की खुशी में आयोजित पार्टी वाली सुबह दिये एक ग्रीटिंग में जब प्रिया ने प्रणय का मित्रता से हटकर कुछ अलग संदेश देखा तो उसे सहसा विश्वास न हुआ। उसने इसे भी प्रणय के मजाक का एक हिस्सा समझा। सारे दिन असमंजस में रहने के बाद जब शाम को वह अपने धड़कते दिल को मुश्किल से सँभाले हुये पार्टी में पहुँची तो सहपाठियों द्वारा लगातार टोकने पर भी वह हमेशा की तरह सहज न हो पाई थी। प्यार का प्रथम अहसास इतना शक्तिशाली होगा कि वह इतनी भीड़ में भी जैसे एकदम अकेली हो जायेगी, उसने कभी सोचा भी न था। उसकी आँखे कुछ नहीं देख पा रही थी, सिवाये प्रणय के और वह ग्रीटिंग में लिखी पंक्तियों का अर्थ प्रणय की आँखों में ढूँढ़ रही थी। जबकि प्रणय था हमेशा की तरह चंचल, वाचाल व उन्मुक्त, कहीं कोई दबाव या तनाव का चिन्ह प्रिया को उसके चेहरे या व्यवहार में नही मिला और यही बात उसे अन्दर ही अन्दर सशंकित भी कर रही थी।
काउन्सलिंग के लिये शहर छोड़ने से पहले प्रणय ने उसे वह पत्र भी अन्ततः दे ही दिया जिसमें स्वभावानुसार उसने स्पष्ट रूप से मन की बातों का खुलासा करते हुये प्यार का इजहार भी किया था। उस लम्बे भावुक पत्र में पहली बार प्रणय ने गंभीरता से हर घटना व हर अनुभव का जिक्र विस्तार से किया था कि किस तरह प्रथम दिन के आकर्षण से शुरू हुआ यह सफर घनिष्ठ दोस्ती से होता हुआ आज प्यार के मुकाम तक आ पहुँचा था और अन्त में अधिकारपूर्वक उसने तीन-चार साल इन्तजार करने को कहा था। ‘इन्तजार’ यही तो वह कार्य था जो उसके लिये लगभग असंभव था कारण मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी संतान थी वह। यही क्या कम था कि काॅलेज की पढ़ाई के बाद उसे इस प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला लेने दिया गया वरना तो शायद उसे भी अब तक ससुराल पहुँचा दिया गया होता। शायद इसमें भी उसके दुर्भाग्य का साथ था, जो उसे आज प्यार के अहसास का अमूल्य तोहफा दे गया था। एक तो सामथ्र्य से ज्यादा दहेज की माँग, दूसरे साधारण रूप रंग की वजह से कितने ही परिवारों द्वारा उसे अस्वीकृत किया गया था। इसके अलावा पैरों के नीचे कोई आर्थिक या व्यवसायिक आधार न होने पर भी परिवार के निरन्तर प्रयासों के बीच किसी तरह से वह अपना कोर्स पूरा कर पा रही थी। इन जटिल परिस्थितियों में प्रणय के ‘इंतजार’ का आग्रह उसके लिये असंभव था हालांकि यह प्रणय-निवेदन उसके लिये रेगिस्तान की बारिश की तरह अमूल्य एवं अप्रत्याशित था। प्रणय ने लौटकर जबाव माँगा था और वह चला गया। इसी बीच प्रिया, वह तो जैसे बाबली हुई जा रही थी; उसकी तो जैसे दुनिया ही बदल गई थी। एक बार सिर्फ एक बार उसके कान प्रणय से प्रत्यक्ष प्यार का इजहार सुनना चाहते थे कि हाँ, वह भी किसी का प्यार है, वह भी किसी की जरूरत है, यह दुनिया उसके अरमानों की भी है, कोई उसे भी चाहता है। कितना खूबसूरत है यह अहसास उसे अब समझ आ रहा था। कई जगह उसके रिश्ते को ठुकराए जाने के बाद वह जिस अग्नि में जल रही थी आज जैसे उस तप्त हृदय को बर्फ सी शीतलता महसूस हो रही थी। आत्मसंतुष्टि का भाव वास्तव में उसे आत्ममुग्धता की ओर लिये जा रहा था जहाँ एक नई दुनियाँ बाँहें फैलाकर उसका इन्तजार कर रही थी। उसे लगा जैसे उसे भी बहुत कुछ कहना है प्रणय से। वे अनुभूतियाँ जिन्हें वह अब महसूस कर रही थी लेकिन कैसे कहे, उसका मीत तो उससे बहुत दूर था। कई दफा आशंका ग्रस्त उसका हृदय रोना ही शुरू कर देता था कि हे भगवान क्या होगा ? क्या यह सच है ? क्या यह संभव है मेरे साथ ? आखिरकार उसकी आशंका उसकी इच्छाओं पर भारी पड़ी और भगवान ने उसका साथ छोड़ दिया। जब प्रणय वापिस लौटा तो प्रिया के द्वारा उस पत्र का जिक्र होने पर उसने यह छोटा सा वाक्य कि, ‘प्रिया आई थिंक, चैप्टर मस्ट बी क्लोज्ड’, कहकर अपनी तरफ से शुरू हुये प्यार को अपनी तरफ से ही खत्म कर दिया। वाह री, पितृसत्तात्मक सत्ता! स्त्री की भावनाओं, प्रतिक्रियाओं, विचारों और राय की कोई आवश्यकता नहीं।
आज वह किस दोराहे पर खड़ी हो गई है। इससे तो अच्छा होता यह प्रेम का इजहार ही न हुआ होता कम से कम जिन्दगी के मायने यूँ तो न बदले होते। सहज जिन्दगी अब कितनी असहज हो गई थी, वही कालेज, वही मित्र-मंडली सब कुछ वही था लेकिन उसके लिये सब कुछ बेरौनक हो गया था। प्रणय के मुताबिक इस प्यार का अहसास उसे कालेज में प्रवेश के प्रथम दिन के साथ हुआ जिसे उसने हर रोज जिया था। बेचारी प्रिया, पहले तो उसे इसका आभास ही न हुआ और जब हुआ तो ‘चैप्टर’ बंद करने के फरमान के साथ। ‘क्या स्त्री की नियति सिर्फ पुरुष की मर्जी पर है ? प्यार करना या न करना इसके सर्वाधिकार सिर्फ पुरुषों के साथ ही सुरक्षित हैं ? क्या प्यार का ‘चैप्टर’ खोलना और बंद करना उन्हीं की इच्छा पर निर्भर है ?’ जितना विद्रोह था उसके मन में उतनी ही आहत भी थी वह। शायद ‘सहना’ ही नारी की नियति है। सहिष्णुता जो स्त्री का सबसे बड़ा गुण है आज उसे कमजोर बना रहा था। आखिर किसने दिया पुरुष को यह अधिकार कि जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण ‘चैप्टर’ उसकी मर्जी के मुताबिक खुले और बंद हो ? सोचते-सोचते कब उसकी आँख लग गई पता ही न चला। जब आँख खुली तो देखा रात खामोशी का आँचल ओढ़कर अपने पथ पर अडिगता से बढ़ती जा रही थी। सितारों के साथ चारों ओर सन्नाटा-खामोशी सी छा गयी थी। वह सोच रही थी यह खामोश, उदास समां कितना अपना सा लगता है ठीक उसकी जिन्दगी की तरह-दर्द, उदासी, खामोशी और वीरानियों से भरा। इंसान भावनाओं से क्यों हार जाता है ...... ? किसलिये टूट जाता है ?
‘नहीं यह मेरी नियति नहीं हो सकती, मैं इतनी कमजोर नहीं जो जिन्दगी के इस नाजुक क्षण में अपने को यूँ बिखरने दूँ’, अन्तर्मन से उठी इस हल्की प्रतिरोधात्मक आवाज को उसने सुनने का प्रयास किया। ‘आखिर कब तक पुरुष-प्रधान इस समाज में स्त्री खुद की बागडोर उनके हाथों में सौंपकर शोषित होती रहेगी ? कभी दहेज की माँग पूरी न होने पर रिश्ता ठुकराए जाने के रूप में और कभी मानसिक व भावनात्मक रूप से कमजोर बनाकर, कब तक .....? नहीं, कम से कम मुझे तो नहीं शिकार होना है इस व्यवस्था का।’ दृढ़-निश्चय के साथ उसने सिर को झटका दिया। ‘भावनाओं को परे ढकेलना ही होगा उसे आज, अभी, इस वक्त, वरना कल तो देर हो जायेगी।’ सोचते हुये उसने सुदूर आसमान में फिर से ताका तो वही अँधेरा अब निश्छल चाँदनी में तब्दील हो चुका था। रात की बोझिलता व नीरवता अब एक खास स्निग्धता व कोमलता में बदल चुकी थी। यह प्रकृति का व्यक्ति के साथ अद्भुत संयोजन था या उसके बदले विचारों का प्रभाव। कुछ तो था जो उसे अब महसूस हो रहा था। ठीक उसके सामने का चमचमाता हुआ ध्रुव तारा-अटल, स्थिर। उसके चेहरे पर खुद-व-खुद हल्की मुस्कराहट तैर गयी और उसने अपने बोझिल दिल को बोझमुक्त, तनावमुक्त होते महसूस किया। एक विशिष्ट शान्ति के साथ वह सोने चली गई।
-----------------------------------------
विभागाध्यक्ष अंग्रेजी
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई (जालौन)