23 मई 2009

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य-संग्रह 'राग-संवेदन' की कविता - 'जीवन्त'


कवि डॉ० महेन्द्र भटनागर का जीवन परिचय यहाँ देखें

(9) जीवन्त
.
दर्द समेटे बैठा हूँ!
रे, कितना-कितना
दुःख समेटे बैठा हूँ!
बरसों-बरसों का दुख-दर्द
समेटे बैठा हूँ!
.
रातों-रातों जागा,
दिन-दिन भर जागा,
सारे जीवन जागा!
तन पर भूरी-भूरी गर्द
लपेटे बैठा हूँ!
.
दलदल-दलदल
पाँव धँसे हैं,
गर्दन पर, टख़नों पर
नाग कसे हैं,
काले-काले ज़हरीले
नाग कसे हैं!
.
शैया पर
आग बिछाए बैठा हूँ!
धायँ-धायँ!
दहकाए बैठा हूँ!
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डा. महेंद्र भटनागर,
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22 मई 2009

डॉओ अनिल चड्डा की कविता - 'उपेक्षा'

दो शब्दों की
बात तो थी
वो भी
न कही गई तुमसे
तुम्हारी
यही उपेक्षा
न सही गई मुझसे
फिर भी
जाने क्यों
मैं अपने-तुम्हारे बीच
एक मौन तरंग सी
लहराती हुई पाता हूँ
और कहीं पर
तुम्हे
अपने करीब पाता हूँ
ये मौन ही तो है
जिसने
हमको बाँध कर
रखा है अब तक -
मौन भावनाएँ,
मौन नयन,
मौन शब्द -
इशारों-इशारों में
बहुत कुछ कह जाते हैं
शायद कहीं
मेरे-तुम्हारे अंदर
अभी भी
कुछ बचा है
जो आपस में
जुड़ा है
इसलिये तुम
कुछ न कहो
तो
मुझे दुःख होता है
पर मेरा मन
तुम्हारी उपेक्षा पा
चुपचाप रोता है
कि
शायद मेरा मौन
तुम्हे भी
कभी समझ आ जाये
और हम
और करीब आ जायें
और ये
मौन की दीवार टूट जाये
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21 मई 2009

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य-संग्रह 'राग-संवेदन' की कविता - 'चिर-वंचित'


(8) चिर-वंचित
.
जीवन - भर
रहा अकेला,
अनदेखा —
सतत उपेक्षित
घोर तिरस्कृत!
.
जीवन - भर
अपने बलबूते
झंझावातों का रेला
झेला !
जीवन - भर
जस-का-तस
ठहरा रहा झमेला !
.
जीवन - भर
असह्य दुख - दर्द सहा,
नहीं किसी से
भूल
शब्द एक कहा!
अभिशापों तापों
दहा - दहा!
.
रिसते घावों को
सहलाने वाला
कोई नहीं मिला —
पल - भर
नहीं थमी
सर -सर
वृष्टि - शिला!
.
एकाकी
फाँकी धूल
अभावों में —
घर में :
नगरों-गाँवों में!
यहाँ - वहाँ
जानें कहाँ - कहाँ!
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20 मई 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की कविता - "कौन सुने"


कौन सुने ह्रदय की बात !
सूना दिन, है काली रात !!

क्षोम भरी पाती लिखता हूँ,
बार-बार फिर खुद पढ़ता हूँ,
यूँ ही हो जाती प्रभात !

अधरों पर मुस्कान नहीं है,
अँखियों में उल्लास नहीं है,
कैसी तुमने दी सौगात !

घन-घन-घन घनघोर घटा है,
पर मेरा मन सबसे कटा है,
बेकाबू हो गये हालात !

नभ के तारे बने सखा हैं,
उन्हें ही मेरा हाल दिखा है,
बाकी सबने की है घात !

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डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य-संग्रह राग-संवेदन की कविता - "अपेक्षा"

(7) अपेक्षा
.
कोई तो हमें चाहे
गाहे-ब-गाहे!
.
निपट सूनी
अकेली ज़िन्दगी में,
गहरे कूप में बरबस
ढकेली ज़िन्दगी में,
निष्ठुर घात-वार-प्रहार
झेली ज़िन्दगी में,
.
कोई तो हमें चाहे,
सराहे!
.
किसी की तो मिले
शुभकामना
सद्भावना!
.
अभिशाप झुलसे लोक में
सर्वत्र छाये शोक में
हमदर्द हो
कोई
कभी तो!
.
तीव्र विद्युन्मय
दमित वातावरण में
बेतहाशा गूँजती जब
मर्मवेधी
चीख-आह-कराह,
अतिदाह में जलती
विध्वंसित ज़िन्दगी
आबद्व कारागाह!
.
ऐसे तबाही के क्षणों में
चाह जगती है कि
कोई तो हमें चाहे
भले,
गाहे-ब-गाहे!
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डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - भ्रष्टाचार का मनोविज्ञान

भ्रष्टाचार का मनोविज्ञान
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डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
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लेखक परिचय
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
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आजादी मिलने के बाद से भारत में जब पूंजी निवेश एवं नियोजन प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जिससे प्रशासन में नौकरशाही, व्यापार एवं प्रबधन एन0 जी0 ओ0 तथा नेताओं में ऐसे वर्ग का विकास हुआ जिसमें पैसों के लेन-देन(रिश्वत खोरी) की संभावना एवं संख्या बढ़ने लगी । वर्तमान की बात करें तो आज देश सर्वत्र भ्रष्टाचार के जाल से आच्छादित अर्थात् भ्रष्टाचार देश की व्यवस्थों की रग-रग में बस गया है। व्यवस्था के अन्दर बैठे लोगों तथा व्यवस्था के बाहर बैठे लोगों ने इसे स्वीकार सा कर लिया है। राष्ट्रीय आचरण के रोम-रोम में व्याप्त, एक साधारण चपरासी से लेकर प्रथम श्रेणी के आफीसर, कर्मचारी, बाबू, क्लर्क, व्यवसायी नेता, मन्त्री आफिस के बाहर एजेन्ट, राजस्व विभाग के बाहर दुकादार या फिर थानों का बंधा हप्ता अर्थात् भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है। जैसे तुलसी बाबा ने अपने राम की व्याप्त हर चर-अचर; सजीव-निर्जीव आदि में बताई है वैसे ही हमारे यहाँ भ्रष्टाचार ने वह स्थान ग्रहण कर लिया है। पहले तो भ्रष्टाचारियों को पकड़े जाने का भय होता था अब पकड़े नहीं जाने पर अफसोस जताते हैं। पकड़े गये तो हीरो। और यदि पकड़े गए नेता यदि जेल गए तो मंत्री। अर्थात् आज भ्रष्टाचार ने सामाजिक सुचिता को शून्य पर ला खड़ा कर दिया हैं। ऐसी स्थिति में ईमानदार और सत्यवादी व्यक्ति कैसे जी पा रहे हैं, यह एक चमत्कार है मिरेकल है ।वर्तमान भारतीय समाज में भ्रष्टाचार अपने विकराल रूप में इस तरह फैल चुका है कि लगभग हर तीसरा व्यक्ति पैसा कमाने को ही महत्वपूर्ण मानता है उसके लिए साधन की पवित्रता कोई खाश मायने नहीं रखती क्योंकि हमारे देश में भ्रष्टाचार अब सामाजिक आंतकवाद का रूप ले चुका है।
भारत विश्व के उन समृद्धतम देशों में एक है जो अपने प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों की दृष्टि से समृद्धि है फिर भी देश की गिनती विश्व के भ्रष्टतम देशों में होती है। हर वर्ष एक से बढकर एक घोटाले विश्व में भारत की छवि को निरन्तर धूमिल करते रहते हैं। सरकारें भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाने में अक्षम साबित हो रही हैं।इसके साथ ही यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि शुरू में जब मामला प्रकाश में आता है तो उसे खूब प्रचारित-प्रसारित किया जाता है लेकिन उसके बाद या तो वे मामले जाँच के ठंडे बस्ते में चले जाते हैं या वर्षों न्यायालय में लंबित हो जाते है। एक निश्चित समय के अन्दर भ्रष्टाचारी को कानून के शिंकजे में न कस पाना दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे दुःखद दूसरा विषय है कि अभियोजन की अनुमति लेने में ही लंबा समय व्यतीत हो जाता है: इसमें तीसरा संकट तब उत्पन्न हो जाता है जब अभियुक्त राजनेता , बड़ा अधिकारी या उंचे रसूख वाला है तो उस पर मुकदमा चलाने की अनुमति लेने में अदालतों को वर्षों लग जाते हैं। अध्ययन एवं सर्वेक्षण यही बयान करते है कि अल्पमत की सरकारें भी ऐसा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती क्योंकि उन्हें हमेशा गिरने का भय सताता रहता है इसलिए ऐसे कठोर कदम उठाने में वे परहेज करती हैं जो उनकी पार्टी गठबन्धन के विरूद्ध जाए ! आज देश में भ्रष्टाचार फैलने की सबसे प्रमुख वजह अधिकारियों (नौकरशाहों) का स्थानांतरण और निलंबन/ऊंचे और जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारी इनसे बचने के लिए अपने नेताओं, मंत्रियों की बात मानने के लिए बाध्य होते हैं। यदि अधिकारी झुकते नही तो औरैया का इंजीनियर हत्याकाण्ड हो जाता है और झुक गये तो उत्तरोत्तर भ्रष्टाचार की वैतरणी में उतरते चले जाते है। भरतीय राजनीति में यह चैकानें वाली बात है कि देश में 800 से अधिक सांसदों की संपति का ब्यौरा एक हजार करोड़ रूपये से भी अधिक है। औसत रूप में इसे मूल्यांकित किया जाए तो यह एक करोड़ से भी अधिक प्रति सांसद का पड़ता हैः हम एक प्रश्न यहाँ करना चाहते हैं कि इन भद्र पुरूषों से पूछा जाए कि आखिर कहाँ से आया इतना पैसा इनके पास? और अभी तक इसकी जाँच क्यों नहीं हो पाई? और भारतीय जनमानस में इसे कितने लोगों के द्वारा कितनी गम्भीरता से लिया जा रहा है?
भ्रष्टाचार रूपी इस महामारी का अन्त कैसे हो इस पर आज शिद्दत के साथ चिंतन एवं मनन की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार का उन्मूलन करना हम सब का सर्वोपरि कर्तव्य होना चाहिए और इसके लिए हमारी दृष्टि आज की नव-युवा पीढी़, शिक्षाविदों और शिक्षार्थियों पर अधिक जाती है। वर्तमान यही लोग है जो भ्रष्टाचार रूपी दुराचार को मिटाने में सक्षम, समर्थ और सशक्त हैं और इसके साथ ही जनसामान्य के लिए आवश्यक है कि वे भ्रष्टाचार के विरोध में एक जबरदस्त लोक मत उत्पन्न करें ,इसके साथ ही न्यायिक व्यवस्था में सक्रियता के साथ-साथ लोकपाल व्यवस्था को लागू किया जाए और भ्रष्टाचारियों को कड़ा दण्ड देने की व्यवस्था होनी चाहिए। चुनाव प्रक्रिया में मूलभूत परिवर्तन किए जाएं जिससे उम्मीदवारों को अधिक राशि व्यय न करनी पड़े । सूचना के अधिकार को प्रभावी बनाए जाए। राजनीति में भ्रष्टाचार दूर करने का एकमात्र रास्ता जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन प्रमुख है। सरकारी प्रशासकों एवं मंत्री (नेताओं) जी लोगों के लिए एक निश्चित आचार संहिता का निर्माण सुनिश्चित होने के साथ-साथ इसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। यहाँ एक बात हम स्पष्ट करना चाहेगें कि जब तक भ्रष्टाचार की समस्या को आम लोगों की मानसिकता से नहीं जोड़ेगें तब तक इस विशाल दानव से निजात नहीं पाई जा सकती हैं। अर्थात् वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भ्रष्टाचार के इस मनोविज्ञान को एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में अपनाए जाने की आज शिद्दत के साथ आवश्यकता है।
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सम्पर्क-
वरिष्ठ प्रवक्ता,
हिन्दी विभाग
डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0 प्र0-285001

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य-संग्रह राग-संवेदन की कविता - "नहीं"

लेखक - डा0 महेन्द्र भटनागर का जीवन परिचय यहाँ देखें
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(6) नहीं
लाखों लोगों के बीच
अपरिचित अजनबी
भला,
कोई कैसे रहे!
उमड़ती भीड़ में
अकेलेपन का दंश
भला,
कोई कैसे सहे!
असंख्य आवाज़ों के
शोर में
किसी से अपनी बात
भला,
कोई कैसे कहे!

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19 मई 2009

डा0 अशोक गौतम का व्यंग्य - अब कहां जाएं आरके सर!!

मैं ठहरा सकाम कर्मभोगी! इसलिए निष्काम कर्म का स्यापा न कभी मैंने किया, न मुझसे होने वाला, तो नहीं होने वाला! चिकने घड़े पर जितना पानी डालना है डालते रहिए। मैं तो हराम की चटखारे ले ले खाने में विश्वास करता हूं, और भगवान की दया से मिल भी रहा है।
जिस तरह मैं निष्काम कर्म योग पर विश्वास नहीं करता उसी तरह मैं इस बात पर भी विश्वास नहीं करता कि मृत्यु और जीवन पर अभी भी भगवान का हक है। वह जब चाहे इस लोक में हमें भेज दें, जब चाहे इस लोक से उठा लें। कि जीव न अपनी मर्जी से यहां आ सकता है,न यहां से जा सकता है। पर मित्रो! आज की डेट में यहां न भगवान के हाथ में किसी को इस दुनिया में लाना बचा है न इस दुनिया से ले जाना। बेचारे कहीं के! इसलिए न तो मैंने कभी गीता पढ़ने की जरूरत महसूस की और न कभी बेकार में पड़ोस की एक ने मां बनना नहीं चाहा ,तो नहीं चाहा। भगवान बार-बार वहां जीव भेजते रहे और उसने अपने पास उसे फटकने भी नहीं दिया।
मुहल्ले के सज्जन को भगवान ने एक समागम में वरदान दिया,‘अस्सी साल तक जिओ!’ वह बेचारा हफ्ते बाद मंहगाई के लात-घूंसों से मर गया। भगवान ने एक समागम में दूसरे सज्जन को वरदान दिया,‘ जब तक मुंह में तीसरी बार दांत नहीं आ जाते तब तक संसार के सुख भोगो!’ वह बेचारा पांचवें रोज दवाई खाकर मर गया। भगवान ने तीसरे सज्जन को विश्वास दिया,‘ अब प्रेमिका के साथ सौ साल तक ऐश करो।’ वह उसी प्रेमिका के कारण महीने बाद सुसाइड कर गया। अब आप ही कहिए आना-जाना किसके हाथ में है?
वह एक गाड फादर की तलाश में था और वे गाड सन की तलाश में। दोनों को दोनों मिले कर-कर लंबे हाथ! उनके चार लड़कियां थी। पहली हुई तो सबने कहा,‘लक्ष्मी घर आई।’ पुत्र के इंतजार में दूसरी हुई तो घरवालों ने कहा,‘ देवी आई।’ पुत्र के इंतजार में तीसरी हुई तो बाप ने लंबी सांस भर कहा,‘ कन्या आई।’ पुत्र रत्न के चक्कर में चौथी हुई तो मां ने कहा,‘ मनहूस हुई।’
पर उन्हें तो हर हाल में मोक्ष चाहिए था,अपना नहीं तो धर्म का भी चलेगा। कारण, मोक्ष के लिए पुत्र अति आवश्यक होता है। ठीक वैसे ही जैसे स्वर्ग जाने के लिए हरिद्वार का पंडा। जब तक आत्मीय जन आत्मा के लाख न चाहते हुए भी आत्मा को पंडे की उंगली नहीं पकड़ा लेते, कमबख्त आत्मा को स्वर्ग का अति सूधो मार्ग दिखता ही नहीं। आह रे आत्मा! वाह रे आत्मियो!!
उसके गाड फादर की तेरहवीं चल रही थी, ठीक किसी बाक्स आफिस फिल्म की तरह कि थोड़ी दूर सामने मुझे अपरिचित खड़े दिखे। वे न इलाके के लगे न दूर-पार की रिश्तेदारी के। इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, वे मुझसे पूछे,‘ ये किसकी तेरहवीं चल रही है?’
‘ स्वर्गीय आरके की। मेरी तो नहीं लग रही है न?’
‘ये आरके का ही घर है क्या?’
‘था! अब सब उनके गाड सन एसके का है।’ तेरहवीं में व्यस्त उनका गाड सन गुस्से में बोला।
‘ उन्हें सच्ची को तेरह दिन हो गए?’
‘ नहीं, पंडितों से खारिश करवाने को जी कर रहा था, बस इसलिए लगे हैं।’ कहते उनका गाड सन और लाल-पीला हुआ।
‘पर आप कौन?’ मैंने अनमने से पूछा।
‘मैं यमलोक से आया था, यहीं आकर पता चला कि वे... सोचा उन्हें भी साथ लेता चलूं। चक्कर बच जाएगा। अब तो अति हो गई यार!’ यमदूत ने कहा तो गाड सन के मन में तरह-तरह की शंकाएं जगने लगीं।
‘तो क्या अभी उनका समय पूरा नहीं हुआ था?’
‘नहीं, अभी हमारे हिसाब से उनके चार साल और बाकी हैं।’ यह सुन गाड सन को काटो तो खून नहीं। बंदा लौट कर आ गया तो? गया न सारा किया-कराया पानी में। अचानक यमदूत के मोबाइल की घंटी बजी,‘ हां, मैं बोल रहा हूं।’
‘जी सर!’
‘ बीके का घर मिल गया न! आते-आते साथ वाले मुहल्ले के जीके को भी देख लेना। अभी-अभी अखबार से ही पता चला कि सरकार के राजस्व में वृद्धि करने के चक्कर में वह ज्यादा शराब पीकर रात को नाली में गिर गया था।’
‘जी सर!’
‘और हां! वह आरके भी मिल गया।’
‘कहां सर?’
‘लुधियाने। अपनी लड़की के यहां।’
‘ आप वहां क्या करने आए थे सर?’
‘ आफ सीजन के चक्कर में अगली सर्दियों के लिए गर्म कपड़े लेने आ गया था। तुम भी यहीं आ जाओ। फिर रेल से इकट्ठे चल पड़ेंगे।’
‘ ओके सर!...... ठीक है दोस्तो! फिर मिलेंगे,’ कह वह चला गया, मुसकराता हुआ। मैं भी उसके पीछे- पीछे।
वे तीनों जीवों को लेकर रेल में बैठ गए।
‘यार आरके, एक बात बता?’
‘कहो यमराज!’
‘ समय से पहले क्यों मर गए यार? हमारी प्राब्लम भी समझा करो।’
‘ और करता भी क्या! एक बेटी की शादी, दूसरी बेटी की शादी, तीसरी बेटी की शादी, चौथी बेटी की शादी! चौथी बेटी के ससुराल वालों ने दहेज के लिए इतना ज्यादा मुंह खोला कि... मेरे से भरा नहीं गया और मैंने तंग आकर .....’
‘तुम्हें पता है तुम्हारी इस जल्दबाजी के कारण हमें कितनी असुविधा होती है? तुम लोग तो समय से पहले मर समस्याओं से छुटकारा पा लेते हो पर पंगा हमें दे देते हो। समय से पहले मरना हो तो खुद चले आया करो यार!’ यमराज जरूरत से ज्यादा गंभीर लगे।
‘सोचा, बेटी के ससुराल वालों को एक बार फिर मनाने की कोशिश कर लूं। बस, इसी चक्कर में देर हो गई। मर के आना तो आपके ही पास है साहब, और जाना कहां?’ कह आरके के जीव ने अंगूरों का लिफाफा यमराज की ओर बढ़ाया।
‘ तो क्या मान गए वो?’
‘ जो महाराज मान जाएं वे ससुराल वाले कहां!’
‘तो?? शुक्र है यार मैं इस झंझट से दूर हूं।’
‘जितना हो सकता था, मना लिया।’ कह आरके रूआंसा हो गया।
‘तो हार मान ली?’यमराज ने चार जहरीले अंगूर मुंह में डाले।

‘नहीं।’
‘ तो और कोशिश कर लो। अभी तुम्हारे चार साल बाकी हैं। अभी चल पड़े तो तुम्हें चार साल तक तो हम पूछ नहीं पाएंगे, एम्स के मरीजों की तरह बाहर पड़े रहना पड़ेगा।’
‘तो ढूंढ क्यों रहे थे?’ आरके का जीव चैड़ा हुआ।
‘यार मीडिया परेशान करके रख देता है न!’
‘पर अब यहां रहकर करूंगा क्या?’
‘बेटी के ससुराल वालों को देने के लिए कुछ और कमा लो। कानून का दरवाजा खटखटा लो। शायद उसका घर बस जाए।
‘दरवाजा हो तो खटखटाएं महाराज! यहां तो दरवाजा खुद दरवाजा ढूढ रहा है।’
‘यमदूत!’
‘जी सर!’
‘संसद का नंबर मिलाओ। उनसे कहो कि अगर देश में ऐसी ही कानून व्यवस्था रखनी है तो हम एक यमलोक यहीं बना लेते हैं। वैसे भी डीजल -पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं। यमलोक का बजट हिल गया है। जाओ आरके, यमलोक की सड़कों पर पड़े रहने से बेहतर है अपने घर में रहो। समस्याओं से लड़ो। लड़कर अमरत्व प्राप्त करो।’ कह यमराज ने आर के का जीव अगले रेलवे स्टेशन पर उतार दिया।
.........सर! अब कहां जाएं आरके सर!!

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डा0 अशोक गौतम
द्वारा -संतोष गौतम, निर्माण शाखा,
डा0 वाय0 एस0 परमार विश्वविद्यालय,
नौणी, सोलन-173230 हि.प्र.

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव की पर्यावरण सम्बन्धी पुस्तक का आलेख - ताप प्रदूषण

लेखक - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का परिचय यहाँ देखें
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अध्याय 8 - ताप प्रदूषण अथवा रेडियोधर्मी प्रदूषण का अर्थ एवं रोकने के उपाय
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ताप प्रदूषण अत्यधिक गर्मी उत्पन्न होने से पैदा होता है अर्थात जब वातावरण की सामान्य ताप अवस्था में बढ़ोत्तरी होती है तब इसे तापीय प्रदूषण कहा जाता है। जीव शास्त्रियों की मानें तो 420 सेल्सियस से उच्च तापमान पर मनुष्य की आन्तरिक क्रियायें (Metabolism Rate) शिथिल होने लगती हैं। ऐसी परिस्थितियों में उनको नियन्त्रित करने के लिये शरीर में से हीट स्ट्रोक प्रोट्रीन (Heat Stroke Protein) में तेजी से वृद्धि हो जाती है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसी अवस्था में पशु, पादप तो उच्च तापमान से प्रभावित होते ही हैं मिट्टी भी ताप की अधिकता से अपनी मूल प्रकृति को खो देती है और वह अनुउपजाऊ हो जाती है।
ताप प्रदूषण सामान्यतः दो इकाइयों में बाँटा जा सकता है

(1) औद्योगिक इकाइयों विशेषकर ताप बिजलीघरों द्वारा नदियों में छोड़े जाने वाले गर्म पानी के कारण-जिसमें बहुत अधिक ताप वाले पानी को निकाला जाता है और उसे उसी स्थान या स्रोत में मिला दिया जाता है जहाँ विद्युत गृह के संयत्र को चलाने और उसे ठंडा करने के लिये जल लिया जाता है यह प्रक्रिया काफी खतरनाक होती है

(2) औद्योगिक इकाइयों द्वारा भाप व गर्म गैसें वायुमंडल में छोड़ने के कारण-जिसकी चिमनी से निकली राख अधिक ताप के कारण भी हानिकारक है क्योंकि जिस स्थान पर यह गिरती है वहाँ के पेड़ पौधे और फसलें नष्ट हो जाते हैं। ज्वालामुखी एवं परमाणु तथा अनुवर्ती की वजह से भी तापीय प्रदूषण उत्पन्न होता है जो वातावरण के साथ-साथ मानव एवं जीवधारियों के लिये अनेक तरह की कठिनाइयों को जन्म देता है।

भौतिकता एवं उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की प्रक्रिया में प्रकृति पर विजय पाने के साथ ही जीवन को सुखी सम्पन्न बनाने के मानवीय प्रयासों हेतु मानव ने पृथ्वी को अणु, परमाणु, हाइड्रोजन के परीक्षणों, नाभिकीय संस्थानों के रेडियोधर्मी अवशिष्ट पदार्थों, रेडियो आइसोटोपों आदि के माध्यम से मानवता को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है क्योंकि ये रेडियो एक्टिव पदार्थ जब प्रयोग किये जाते हैं तो तात्कालिक हानियाँ तो होती हैं इसके अलावा भी दूरगामी परिणाम भी इससे होते हैं। मनुष्यों में इससे अनेक तरह के घातक रोगों-अपंगता, बांझपन, त्वचा रोग, कैंसर आदि हो जाते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी में हुये परमाणु बम विस्फोट इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। तापीय प्रदूषण जीवधारियों एवं वनस्पति और भूमि की उर्वरा शक्ति को भी नष्ट कर देता है।

विभिन्न देशों में परमाणु रियेक्टरों की संख्या एवं विद्युत उत्पादन
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देश-----रियेक्टरों की संख्या----कुल शक्ति में परमाणु शक्ति का प्रतिशत

सं0राज्य अमेरिका---119----13.5
सोवियत संघ----85----9.0
फ्रांस----64----58.70
बिट्रेन----42----17.50
जापान----41----22.90
पं. जर्मनी----26----23.20
कनाडा----23----11.60
स्वीडन----12----40.60
भारत----10----2.6
अर्जेण्टाइना----3----10.0
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विश्व----525----13.0


स्रोत – डा0 आर0 एस0 चौरसिया-इनवायरमेंट एजूकेशन, पृ. 227

तापीय प्रदूषण रोकने के उपाय
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कुछ तापीय प्रदूषक प्रकृति प्रदत्त होते हैं उन्हें रोकना मानव के वश की बात नहीं (ज्वालामुखी) है फिर भी उससे सचेत तो हुआ जा सकता है तापीय प्रदूषण को रोकने हेतु निम्न उपाय किये जा सकते हैं -

1. संयन्त्रों द्वारा निकलने वाले उच्च ताप वाले जल के फब्बारों को अधिक क्षेत्र में फैलने दिया जाये जब सामान्य ताप हो जाये तब उसे पुनः स्रोत में मिलाया जाये।

2. इससे निकलने वाली राख का प्रयोग ईंट बनाने में अधिक से अधिक किया जाना चाहिये।

3. समुद्र के भीतर भूमिगत परमाणु परीक्षणों पर सभी देशों में प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिये।

4. परमाणु संयन्त्रों से रिसाव न हो ऐसे उपाय किये जाने चाहिये।

5. कैंसर आदि के उपचार में प्रयुक्त होने वाले रेडियोधर्मी पदार्थों का उपयोग पूरी सावधानीपूर्वक सुरक्षित रूप से किया जाना चाहिये।

6. मानवता की रक्षा हेतु सभी देशों को मिलकर यू. एन. ओ. के माध्यम से युद्ध पर प्रतिबन्ध लगाने की बात होनी चाहिये।
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सम्पर्कः
वरिष्ठ प्रवक्ता: हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001

18 मई 2009

डा0 महेन्द्र भटनागर के काव्य-संग्रह राग-संवेदन की कविता - निरंतरता


प्रसिद्ध साहित्यकार डा0 महेन्द्र भटनागर के काव्य-संग्रह ‘‘राग-संवेदन’’ का प्रकाशन यहाँ नियमित रूप से किया जा रहा है। सभी कविताओं के प्रकाशन के पश्चात यह पुस्तक शब्दकार पर ई-पुस्तक के रूप में देखी जा सकेगी।

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लेखक - डा0 महेन्द्र भटनागर का जीवन परिचय यहाँ देखें
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निरन्तरता
हो विरत ...
एकान्त में,
जब शान्त मन से
भुक्त जीवन का
सहज करने विचारण --
झाँकता हूँ
आत्मगत
अपने विलुप्त अतीत में --
चित्रावली धुँधली
उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम
संगत-असंगत
तारतम्य-विहीन!
औचक फिर
स्वतः मुड़
लौट आता हूँ
उपस्थित काल में!
जीवन जगत जंजाल में!
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डा. महेंद्रभटनागर,
सर्जना-भवन,
110 बलवन्तनगर, गांधी रोड,
ग्वालियर — 474002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908
मो.: 09893409793
E-Mail :
drmahendra02@gmail.com
E-mail :
drmahendrabh@rediffmail.com
Blog :
www.professormahendrabhatnagar.blogspot.com

17 मई 2009

स्व0 आदर्श 'प्रहरी' जी की कविता - बदल गया सम्पूर्ण कथानक

ये पंक्तियाँ उरई (जालौन) के दयानंद वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय के राजनीति विज्ञान के रीडर डॉ० आदित्य कुमार द्वारा भेजी गईं हैं। इन्हें उनके बड़े भाई स्व० श्री आदर्श 'प्रहरी' जी ने सन 1977 में लिखा था। ये चंदपंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं।

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जाने क्या हो गया अचानक,
बदल गया सम्पूर्ण कथानक।
जो वैभव में पले-पुसे थे,
अब तो लगता जैसे याचक।
भाग्य बदलते उनके देखे,
जो कि कभी थे भाग्यविधायक।
बड़ा हो गया है शायद अब,
परिवर्तन का नन्हा बालक।

पुस्तक समीक्षा - ठनी साँप नौरा में

पुस्तक - ठनी साँप-नौरा में
सम्पादक एवं लेखक-श्यामबहादुर श्रीवास्तव
समीक्षक-डा0 अवधेश चंसौलिया

बुन्देली काव्य संकलन ’ठनी साँप-नौरा में’ बुन्देली समय एवं समाज का जीवन्त दस्तावेज है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसमें बुन्देली क्षेत्र और समाज का स्वच्छ प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। बुन्देली अंचल में कश्मीर जैसा सौन्दर्य नहीं है, सुकोमलता नहीं है लेकिन जो खुरदुरा सौन्दर्य है, अनगढ़ सौन्दर्य है, उसकी अपनी विशिष्टता है, उसका अपना अनूठापन है। बुन्देली की अक्खड़ता में अल्हड़ता का एक अलग सौन्दर्य है।
फटेहाल रहकर भी मस्त रहना, बुन्देली लोगों से सीखा जा सकता है। कद-काठी और शक्ति में विन्ध्यांचल के पहाड़ों जैसे ’सौ दण्डी एक बुन्देलखण्डी’। छत्रसाल ने मुगलों को, रानी लक्ष्मीबाई ने अंगे्रजों को नाकों चने चबवा दिये। विषम परिस्थितियों ने इन्हें और मजबूत बना दिया। संकलन के कवि ने बुन्देलन की वीरता का चित्र कुछ इसी तरह सींचा है -
‘‘जा धरती रनधीरन की बल वीरन की जननी सुखदाई।
देखी सुनी नहिं और कहँ नित ओजमयी महिमा जग छाई।।
छत्तरसाल महीपत की कविराजन ने विरुदावलि गाई।
झाँसी की रानी यहीं उपजी जननी कृत कृत्य भई जब जाई।’’
बुन्देलखण्ड विकास की दृष्टि से आज भी पिछड़ा हुआ है। यहाँ अशिक्षा, गरीबी और रूढ़ियों का साम्राज्य है जो सामथ्र्यवान हैं वे शोषक हैं। ’चटई और रोटी’ कविता में डा0 चुन्नीलाल ने खेतिहर मजदूर की व्यथा का बहुत कारुणिक दृश्य उपस्थित किया है। उसके पास स्वयं की एक मैड़ भी नहीं है, दिन भर की मजूरी में मात्र तीन सेर ज्वार मिलती है उससे इतने बड़े घर का खर्चा कैसे चले? सरकार भी भूमिहीनों को खेत देने की झूठी विज्ञापनबाजी करती रहती है, पर देती कुछ नहीं है। इसी तरह का यथार्थ ’हरविलास प्रजापति की रचना ’साँपन से खतरा अभऊँ नई टलौ’ में दृष्टिगत होता है। उनकी दृष्टि में विकास का नारा खोखला और झूठा है क्योंकि-
‘‘चारउ लगाँ कछार में चैधरियन के खेत।
समता आ गइ देश में कोरी गप्पे देत।।’’
बुन्देलखण्ड में अपसंस्कृति का जोर बढ़ रहा है, राजनीति गुण्डों की भरमार हो गई है, वे समाज में मनमानी कर रहे हैं, लोगों का जीना दूभर हो गया है। मकसूद आलम ठीक ही कहते हैं-’’गुण्डन को भव राज इतै अब का कहें भइया। बेई बने महाराज इतै अब का कहे भइया।।’’ नवल किशोर स्वर्णकार की काव्य रचना ’’भलमंसई अब कितउँ न सूझै’’ में भी अपसंस्कृति को खूब कोसा गया है। समाज में तो अब बुराइयों का भण्डार है, पर अच्छाइयाँ लुप्तप्राय है। सांप तो बहुत हैं पर नेवलां में आर-पार की लड़ाई हो रही है। लेकिन यह लड़ाई लम्बी चलेगी। क्योंकि सांप एक तो संख्या में बहुत है, दूसरे उनके पास तरह-तरह के जहरीले जहर भी हैं और नेवलों के पास बचाव की मुद्रा ही है, फिर भी नेवला ने हार नहीं मानी है, संघर्ष कर रहे हैं स्वच्छ समाज के लिए। ’‘बड़ो मच्छ छोटे को खा रओ, ठनी सांप नौरा में’’ इस संघर्ष में नेवला की जीत होगी तो समाज में खुशहाली होगी, प्रेम होगा, सौहार्द होगा, समानता होगी और अमन चैन होगा। इसलिए मनमोहन लाल पाण्डेय ’’संग देव नौरन को’’ का आह्वान कर रहे हैं।
आज समाज में ईष्र्या-द्वेष, छीना-झपटी, मार-धाड़, अत्याचार-अनाचार और भ्रष्टाचार का जोर है। इनसे निजात पाने के लिए लोगों को नेवला बनना पड़ेगा। निर्बल को लोग जीने नहीं दे रहे हैं, बुरे वक्त में कोई साथ देने वाला नहीं है, रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं, चारों ओर आतंक है, डाकुओं और नेताओं तथा पुलिस में आपस में खूब पट रही है और जनता इससे तंग है। यह है आज के बुन्देलखण्ड की झांकी। ’’बिन्नू गईं ससुरारै’’ कैसे होय ब्याव बिन्नू को’’ कवितायें पारिवारिकता से पूरित है। इनमें परिवार के खट्टे मीठे अनुभवों की दुनिया है। दोहे, गजलें और कुण्डलियों एवं नवीन विधा हाइकू बुन्देली जनजीवन की विविधताओं को संजोये अपनी बात अलग ढंग से और प्रभावी रूप में करते दिखाई देते हैं। डा0 भगवत भट्ट एवं श्याम बहादुर श्रीवास्तव ’श्याम’ के हाइकू बुन्देली नेह, बुन्देली तीज-त्यौहार, ककरीली-पथरीली गन्ध और अनमनेपन की हुरदंगी अपनी सहजता के साथ समाहित किये हैं। इनमें बुन्देली की मिठास का स्वाद है, वह अवर्णनीय और अनिर्वचनीय है। भट्ट जी के हाइकू-’’दिया बार ले। लरका रोय रओ। बाय पार ले।।’’, ’’टेसू-झिंझियाँ, सजी है मामुलिया, खेलें विटियाँ’’ इसी तरह श्याम जी के हाइकू-’भांग-धतूरो, पेल के पिबन दो, होरी है होरी’’, ’’जीजा जू आये, पनारे में पटकौ, होरी है होरी’’ आदि में बुन्देली जीवन की मस्ती भरी जिन्दगी के चित्र हमें भाव विभोर कर देते हैं।
भाषा या बोली हमारे बिचारो के आदान-प्रदान का एक सशक्त माध्यम है। उसके बिना समाज गूंगा है। मानक भाषा के रूप में हिन्दी इस राष्ट्र की राजभाषा, राष्ट्रभाषा और सम्पर्क भाषा है लेकिन जब हम घर में, गांव में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तो हमें क्षेत्रीय बोलियों का आश्रय लेना पड़ता है। इन क्षेत्रीय बोलियों में अनेक का अपना समृद्ध व्याकरण और साहित्य है। उनमें ब्रज, अवधी, बुन्देली, बधेली, निमाड़ी और मालवी को सम्मिलित किया जा सकता है। बुन्देली में समृद्ध साहित्य भरा पड़ा है। ईसुरी की फागें, जगनिक का आल्हखण्ड आदि ग्रन्थ श्रेष्ठतम साहित्य श्रेणी में आते हैं। लेकिन आज के ग्लैमरस और अत्याधुनिक युग में अंग्रेजी की चकाचैंध में हम मानक भाषा हिन्दी को तो भूल ही गये हैं साथ ही क्षेत्रीय बोलियों के प्रति हममे वितृष्णा का भाव, उपेक्षा का भाव जाग्रत हो गया है। यदि भूल से कोई बुन्देली, ब्रज या अन्य क्षेत्रीय बोलियों का प्रयोग कर बैठता है तो भूल का अहसास होने पर वह शर्मिन्दा हो जाता है या अन्य लोग उसकी खिल्ली उड़ाकर शर्मिन्दा कर देते हैं।
श्री श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ’श्याम’ द्वारा बुन्देली भाषा में काव्य संकलन का प्रकाशन उनकी भाषा-बोली के प्रति जिजीविषा को दर्शाता है। यह दृढ़ निश्चय ही आने वाले समय में साहित्य संसार को बुन्देली भाषा के अन्य रोचक साहित्य से समृद्ध करेगा।
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डा0 अवधेश चंसौलिया
सहायक प्रध्यापक हिन्दीशासकीय के0आर0जी0 स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय ग्वालियर (म0प्र0)

15 मई 2009

डा0अनिल चड्डा की कविता - मेरे बिन तुम कहाँ हो


मैं हूँ
तो तुम हो
मुझसे ही तो
सारा जहाँ है
मैं न रहूँ
तो मेरे लिये
तुम्हारा
या
किसी और का भी
वजूद ही कहाँ है
इसीलिये तो कहता हूँ
मेरे बिना
न रहें खुशियाँ
न रहें ग़म
न रहो तुम
न रहें हम
पर मेरे बाद
तुम्हारे लिये तो
मेरा असतित्व रहेगा ही-
बेशक ख्यालों में ही-
मुझे मेरी
अच्छाईयों-बुराईयों के कारण
याद तो करोगे ही
और शायद सोचोगे
कि काश मैं होता
जिससे तुम
मन की बात कह पाते
पर तब
मैं नहीं होऊँगा
तुम्हारे असतित्व की
सम्पूर्णता के लिये
इसलिये
स्वीकार कर लो
कि मैं हूँ तो
तुम हो
मेरे बिन
तुम्हारा या किसी और का
वजूद ही कहाँ है !
वजूद ही कहाँ है !!
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डा0अनिल चड्डा
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12 मई 2009

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव का "बाल श्रम" पर आलेख

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लेखक - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का परिचय यहाँ देखें
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बाल श्रम की संकल्पना,अवरोधक तत्व,संवैधानिक प्रावधान एवं निराकरण के उपाय
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आजादी के बाद से भारत में पिछले लगभग छः दशकों के निरंतर योजना, कल्याणकारी कार्यक्रमों, विधि निर्माण और प्रशासनिक कार्यों के उपरान्त भी हमारे यहाँ अधिकांश बच्चे दुःख और कष्ट में रह रहे हैं। इन्हें अपने भोजन के लिये मजदूरी करनी पड़ती है। भारतीय उपमहाद्वीप में 19वीं शताब्दी में औद्योगीकरण के मध्य बालश्रम में विस्तृत एवं विभिन्न स्वरूपों का विस्तार हुआ। शोध एवं सर्वेक्षणों के अनुसार वर्तमान में विश्व के कुल बाल श्रमिकों में से 50 प्रतिशत से अधिक भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान एवं श्रीलंका में आज भी दीनहीन एवं अभाव में अपना जीवनयापन कर रहें हैं। बालश्रम की समस्या,सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक होने के साथ मनोवैज्ञानिक भी हैं।
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर बालश्रमिक किसे कहते हैं ? विश्व की प्रमुख संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु का श्रमिक बाल श्रमिक है। वहीं अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 15 वर्ष या उससे कम आयु का श्रमिक बाल श्रमिक है। अमेरिका कानून के अनुसार 12 वर्ष या कम आयु तथा इंग्लैण्ड एवं अन्य यूरोपीय देशों में 13 वर्ष या कम आयु के श्रमिकों को बाल श्रमिकों की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संविधान इस मुद्दे पर प्रारम्भ से ही अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखता है। यहाँ 5 से 14 वर्ष के बीच के बालक/बालिका जो वैतनिक श्रम करते हैं या श्रम द्वारा पारिवारिक फर्ज चुकाते हैं, बाल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सामंती काल में बालश्रम को सामाजिक बुराई के रूप में नहीं देखा गया। परन्तु सन 1853 में इंग्लैण्ड में चार्टिस्ट आंदोलन के समय सर्वप्रथम बालश्रम की अमानवीय एवं शोषणकारी प्रक्रिया की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट किया। उसी समय विक्टर ह्यूगो, आस्कर बाइल्ड आदि साहित्यकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से बालश्रम जैसें संवेदनशील विषय को गम्भीरता प्रदान की। बालश्रम की इस गंम्भीर प्रवृत्ति को समाजशास्त्रियों ने चार भागों में बांटा हैः-
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बालश्रम की संकल्पना
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(1) नवपुरातनवादी सिद्धान्तः-
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इस सिद्धान्त के अन्तर्गत बच्चों को उपयोग व निवेश की सामग्री मानकर उनके श्रम का उपयोग आय बढ़ाने हेतु किया जाता है। यहां बच्चों को पढ़ाने का खर्च बचाकर श्रम कराने पर विशेष जोर दिया जाता है। अतः ज्यादा बच्चों का बालश्रम से अभिन्न सम्बन्ध है। इस सिद्धान्त को मानने वाले टी. अख्तर, ह्यूज एच. जी. लिविस, एम. टी. फेन, डी. सी. काल्डवेल आदि हैं।
(2) सामाजीकरण का सिद्धान्तः-
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इसके तहत बाल श्रम का इस्तेमाल पारिवारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाता है। कृषि, घरेलू उद्योग आदि इसके अन्तर्गत आते हैं। जी. रोजर्स, स्टैन्डिंग जी. मेयर आदि इसके नियामक हैं।
(3) श्रम बाजार के विखंडन का सिद्धान्तः-
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अविकसित देशों में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था ने श्रम बाजार को दो हिस्सों में बांटा है। बड़ा किसान एवं छोटा किसान अथवा दस्तकार। बाजार की यह टूटन मालिक-श्रमिक सम्बन्धों का आधार है। इसके मानने वाले सी.केट, डी.एम. गोर्डन तथा एडवडर्स आदि हैं।
(4) माक्र्सवादी सिद्धान्तः-
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माक्र्स ने कहा था कि बाल श्रम पूंजीवादी व्यवस्थ का अभिन्न अंग है। नयी तकनीक सस्ते व अकुशल मजदूरों की मांग करती है और बेरोजगारी के कारण बच्चे भी औद्योगिक श्रमिकों के संचित दल का हिस्सा बन जाते हैं।
बाल श्रमिक के अवरोधक तत्व:
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राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना द्वारा 1979 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल बाल श्रमिकों में से 10 से 20 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं। विश्व में बालकों की स्थिति सम्बन्धी यूनिसेफ की रिपोर्ट (1979) के अनुसार भारत में 15 वर्ष से कम आयु के बालकों मं 17 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं।भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा 1996 में किये गये एक अध्ययन एवं सर्वेक्षण के अनुसार देश मे 4.4 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। राष्ट्रीय न्यायिक सर्वेक्षण ने भारत में वर्तमान में करीब 1.4 करोड़ बाल श्रमिक होने का अनुमान लगाया है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि भारत में 25 करोड़ बाल श्रमिक हैं, जिसमें 12 करोड़ बच्चे पूरा वक्त काम करते हैं। विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10 से 14 करोड़ के बीच बाल श्रमिक हैं। सेंटर फार कन्सर्न आफ चाइल्ड लेवर के अनुसार हमारे देश में लगभग 10 करोड़ बाल श्रमिक हैं।
भारतीय सामाजिक संगठन द्वारा बाल श्रम पर तैयार रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि करीब 80 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों का या तो शोषण हो रहा है अथवा उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है। यह प्रणाली भारत में वर्षों से अमल में है। इस प्रकार बालश्रम हमारे देश में एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देने का जरिया बन गया है। नये शोध सर्वेक्षणों की मानें तो पचास लाख बंधुआ मजदूर के रूप में बच्चे काम कर रहे हैं। हालांकि भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी में जीवन-यापन करता है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वर्ग की बात करें तो टीकाकरण एवं शिक्षा का असर उनके बच्चों तक नहीं पहुँच पाता है। बाल-श्रम समाज के लिए आर्थिक रूप से ही नहीं कमजोर बना रहा है। बल्कि यह शारीरिक तथा नैतिक रूप से समाज को पतन की ओर ले जाने वाला भी सिद्ध है।
बाल श्रमिकों की सहभागिता तथा परिवार की आय के बीच सम्बधो की व्याख्या करें तो इसमें पाया गया कि परिवार में जीवन-यापन करने लायक आय न होने पर बच्चे काम पर जाते हैं। शोध सर्वेक्षण के अध्ययन से पता चलता है कि गरीब परिवारों में महिलाएं घर का काम बच्चों पर छोड़कर काम पर निकल जाती हैं। इन परिवारों की महिलाओं के पास काम के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता है। चाहे उसकी आमदनी बहुत कम ही क्यों न हो। इसके फलस्वरूप गृहकार्य में उनके बच्चों का सीपीडब्ल्यू उच्च रहता है। गरीबी और बालश्रम में अंतःसम्बन्ध हैं और ये परस्पर प्रभावित करते हैं। भारत में बच्चों के शोषण के लिये सांस्कृतिक एवं परम्परागत कारक भी जिम्मेवार हैं। परम्परागत रूप से उच्च जाति के बच्चों के जीवन की शुरुआत विद्यालय से होती है; वहीं निम्नजाति के बच्चे अपने परिवार की आदत के अनुरूप जीवन की शुरुआत काम से करते हैं। निम्नजाति के परिवार गरीबी रेखा के नीचे न रहते हुए भी अपने बच्चों को विभिन्न प्रकार के देशों, शिल्पों की जानकारी हेतु विभिन्न जगहों पर भेजते हैं। आज भी भारत के कई गांवों में विद्यालय नहीं हैं अथवा दूरस्थ स्थानों पर हैं। माता-पिता अपने बच्चों को दूसरे गांवों में पढ़ने हेतु नहीं भेजना चाहते हैं। ऐसे मामलों मे बच्चो के पढ़ाई छोड़ने की दर अधिक हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि 6-14 साल के आयुवर्ग के बच्चों में आधा से थोड़ा कम विद्यालय जा पाते हैं। पढ़ाई छोड़ने तथा बालश्रम के बीच सीधा सम्बन्ध है। एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बाल श्रम के लिये हमारी जाति या वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था , जिसमे प्रायः निम्नजाति या वर्ग में जन्म लेने वाले बच्चों की मजदूरी विरासत में मिलती है, भी बालश्रम के लिए जिम्मेदार है।
संवैधानिक और सरकारी प्रयासः
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भारतीय संविधान में बालश्रमिकों के रोकथाम के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15, राज्यों की महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिये विशिष्ट प्रावधान करने की शक्ति देता है। वहीं अनुच्छेद 24 के तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों एवं अन्य जोखिमपूर्ण कार्यों नियोजन का प्रतिरोध किया गया है। अनुच्छेद 39 (ई.एफ.) मे आर्थिक आवश्यकताओं की वजह से किसी व्यक्ति से उसकी क्षमताओं से परे काम करवाने का प्रतिरोध किया गया है इसके साथ ही शैशवों तथा बालकों को शोषण से संरक्षित करने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 45 में बालकों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का निर्देश राज्य सरकारे को दिया गया है। अन्य महत्वपूर्ण प्रावधानों के तहत फैक्ट्री एक्ट 1948 के अनुसार किसी भी फैक्ट्री मे 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोजगार के बारे में निषेधात्मक व्यवस्थायें निर्देशित की गयी हैं। खान एक्ट 1952, खानों में काम करने के लिये न्यूनतम आयु 15 वर्ष निर्धारित करता है। ये तीनों एक्ट बच्चों के चाय, काफी और रबर के बागानां में सायं 6 बजे के बाद काम को निषेधित करते हैं और उनकी सुरक्षा और उत्थान की विकास (व्यवस्था) करते हैं।
अनुबंधित श्रमिक (विनियमितीकरण और उन्मूलन) अधिनियम 1975, अनुबंधित श्रमिकों, जिसमे बच्चे भी शामिल हैं, की कार्यदशायें, मजदूरी का भुगतान, कल्याणकारी सुविधाओं को निर्धारित करता है। बाल श्रमिक (निवारण एवं नियमितीकरण) अधिनियम 1986 के तहत बच्चों के कुछ व्यवसायों में प्रवेश पर रोक लगाता है और कुछ अन्य व्यवसाय प्रकारों की दशाओं का नियमितीकरण करता है। सन 1987 की राष्ट्रीय बाल श्रम नीति के अन्तर्गत बाल श्रमिकों को शोषण से बचाने और उनकी शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन तथा सामान्य विकास पर जोर देने की व्यवस्था की गयी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद (15) (3), 21, 24, 32, 29 (ड़), 39 (च) तथा 45 में बालश्रमिकों के महत्वपूर्ण निम्नलिखित प्रावधान दिए गयें हैं-
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1. राज्य बच्चों के सामाजिक एवं वैधानिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए हस्तक्षेप करेगा तथा समय-समय पर विशेष प्रावधान बनाएगा।
2. प्रत्येक बच्चे के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा सुनिश्चित करेगा।
3. 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाना या संकट पूर्ण काय में नहीं लगाया जायेगा।
4. राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा और वे आर्थिक आवश्यकताओं के कारण ऐसे पेशे में नहीं जाएंगे जिनसे उनकी उम्र और शक्ति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
5. राज्य बाल श्रमिकों हेतु न्यूनतम मजदूरी, कार्य का समय तथा स्थिति के लिए प्रावधान बनाएगा और इन्हें निर्धारित करेगा।
6. राज्य अपनी नीति का प्रयोग बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति निर्धारित करने के लिए करेगा।
7. राज्य 14 वर्ष तक के बालकों को निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करेगा। बाल श्रम की समस्या के निदान हेतु समय-समय पर कई प्रावधान पारित किए गए हैं। वे इस प्रकार हैं-
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(क) बाल श्रमिक बंधक अधिनियम, 1933
(ख) बाल भर्ती अधिनियम, 1938
(ग) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948
(घ) कारखाना अधिनियम, 1951
(ड़) वृक्षारोपण श्रमिक अधिनियम, 1951
(च) खदान अधिनियम, 1958
(छ) मर्चेन्ट शिपिंग अधिनियम, 1958
(ज) मोटर वाहन मजदूर अधिनियम, 1961
(झ) बीडी़ और सिगरेट मजदूर (रोजगार स्थिति) अधिनियम, 1966
(ट) बाल श्रम (प्रतिबंध-एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986।
इन प्रावधानों से बाल श्रमिकों की कार्य स्थिति,उम्र, कार्य समय, मजदूरी तय किए जाते हैं। बाल श्रम (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986 अधिक प्रभावी है।
भारत सरकार ने सन् 1987 में राष्ट्रीय बाल श्रम नीति की घोषणा की। इसमे बाल श्रम से प्रभावित क्षेत्रों मं आय की वृद्धि तथा रोजगार हेतु विकास परियोजनाओं को चालू रखने पर जोर दिया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रमिकों की सुरक्षा एवं बाल श्रम निर्मूलन हेतु प्रयास चल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन् 1979 को बाल वर्ष घोषित किया तथा विश्व समुदाय का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया। सन् 1889 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस विषय पर सम्मेलन आयोजित किया तथा स्पष्ट किया कि बाल श्रमिकों के सुरक्षा की नितांत आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अभी तक बाल श्रम पर 18 सम्मेलन आयोजित किये है तथा 16 संस्तुतियां प्रस्तुत की हैं। जहां तक बाल-श्रम उन्मूलन का प्रश्न है, भारत हमेशा से इसके निदान हेतु प्रयत्नशील रहा है।
स्रकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर हुए अध्ययनों एवं शोध-सर्वेक्षणों के आधार पर देखें तो बालश्रमिको की तश्वीर स्पष्ट होती प्रतीत होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा 1999-2000 में कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार, देश में संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों में श्रमिकों की संख्या 39.7 करोड़ थी। इनमें से 2.8 करोड़ संगठित क्षेत्र में तथा 36.9 करोड़, यानी कुल रोजगार का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में लगे हैं। असंगठित क्षेत्र मे 1.7 करोड़ निर्माण क्षेत्र में तथा 4.1 करोड़ विनिर्माण गतिविधियों में संलग्न हैं। इसके अलावा परिवहन और संचार सेवाओं में से प्रत्येक क्षेत्र में 3.7 करोड़ लोग लगे हुए हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में श्रमिकों की संख्या अनुमानतः 40.2 करोड़ है, जिनमें से 31.3 करोड़ प्रमुख श्रमिक हैं और 8.9 करोड़ सीमान्त श्रमिक।
बाल-श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम, 1986 में जोखिम वाले व्यवसायो में बच्चों के काम करने की मनाही के अलावा, कुछ अन्य क्षेत्रों में भी उनको काम देने से सम्बन्धित नियम बनाए गए हैं। अधिनियम में 13 व्यवसायों और 57 प्रक्रियाओं में बाल श्रमिकों को काम पर लगाने की मनाही है। 1987 में बाल श्रम के बारे में एक राष्ट्रीय नीति भी बनायी गयी। दीर्घावधि सफलता के लिए बच्चों के विकास और उनकी शिक्षा के महत्व को समझते हुए, सरकार ने दो विशेष कार्ययोजनाएं प्रारम्भ की हैं। ये हैं- (1) राष्ट्रीय बाल-श्रम परियोजना और (2) बाल श्रमिकों के लाभ और कल्याण के लिए अनुदान सहायता योजना। भारत में 13 राज्यों के 100 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाएं चल रही हैं, जिनमें 2.11 श्रमजीवी बच्चों को फायदा पहुंचेगा। अब तक लगभग 1.70 लाख बच्चों को औपचारिक शिक्षा की मुख्य धारा में लाया जा चुका है। सर्वशिक्षा अभियान के साथ बाल श्रम उन्मूलन के प्रयासों को गति देना इसका एक महत्वपूर्ण आधार है। देश के 5-14 वर्ष तक की आयु के हर बच्चे के लिए प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है। पूर्व केन्द्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा के अनुसार दिल्ली में 2004 के अंत तक तथा पूरे देश में 2007 तक बालश्रम का उन्मूलन कर दिया जायेगा। उन्हीं की जुबानी देश में करीब 1.04 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक के रूप में कार्य कर रहे हैं। बालश्रम के निवारणार्थ सरकार ने ‘राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाओं’ की शुरुआत वर्ष 1988 मे की थी। मौजूदा समय में भारत के 100 से अधिक जिलों में यह परियोजना काम कर रही है, जिसके तहत चल रहे 4002 विशेष स्कूलों के माध्यम से दो लाख से अधिक बाल श्रमिकों को पुनर्वासित किया गया है। 10वीं पंचवर्षीय योजना में करीब 250 बाल श्रम परियोजनाएं शुरु होने की सम्भावना है। जहां 9वीं पंचवर्षीय योजना में इस योजना के लिए 249 करोड़ रूपये निर्धारित किए गये थे, वहीं 10वीं पंचवर्षीय योजना के लिए यह राशि बढ़ाकर 602 रुपये कर दी गयी है। इतनी योजना एवं परियोजनाओं के चलने के बाद भी आज बालश्रमिकों के रूप में, घर की सफाई, चाय की दुकानों पसरट्टों,बीड़ी,चूड़ी,कालीन उद्योग, विभिन्न कारखानों में काम करते बच्चे, करद्यों एवं कपड़ा उद्योग, गावों में बाल मजदूर अथवा बंधुआ मजदूरी के रूप में काम करते बच्चे, रेलवे स्टेशनों के पास झुग्गी , झोपड़ी में निवास करते एवं होटलों तथा अन्य प्रतिष्ठानों में इनकी (भविष्य के नवनिर्माता) संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है: जो विश्व सहित भारत के लिए एक गम्भीर चुनौती का रूप् अख्तियार करता जा रहा है।
निष्कषर्ता यह कहा जा सकता है कि बालश्रम की समस्या सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक अधिक प्रतीत होती है। हम एवं हमारा बाहृय रूप् से इस मुद्दे को कितना ही गम्भीर रूप से इसका विरोध क्यों ही न करता हो परन्तु आन्तरिक रूप से हम एक तरह से लाचार नजर आते है। जो वस्तुएं दैनिक जीवन में हम प्रयोग करते है उनकी श्रमशक्ति के पीछे हमने कभी सिदद्त के साथ सोया है कि इसमें किसका हाथ (श्रम) हैं। यदि उन वस्तुओं (प्रोडक्टस) को हम प्रयोग करना बंद कर दें जिसमें हमारे भविष्य के मानव निर्माताओं का श्रम जुड़ा हुआ है, तो मनोवैज्ञानिक रूप से इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। परन्तु इसके लिए हमें मानसिक रूप से परिपक्व होने में लगता हे कि सदियों का सफर तय करना होगा ?
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सम्पर्क
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग
डी0वी0(पी0जी0) उरई जालौन उ0प्र0-285001

11 मई 2009

योगेन्द्र मणि कौशिक का व्यंग्य - चुनाव के पहले और चुनाव के बाद

अखबार में एक विज्ञापन पर हमारी नजर पडी हम चौंके। बडा अजीब सा विज्ञापन था लिखा था
- ‘चुनाव के पहले और चुनाव के बाद’स्थाई ताकत और मजबूती के लिऐ मिले या लिखे ‘खानदानी हकीम तख्ता सिंह’ साथ में पूरा पता और फोन नम्बर भी दिये थे।विज्ञापन पढकर हमें लगा कि जरुर इन हकीम साहब से मिलना ही चाहिऐ। आखिर हकीम साहब का भला चुनाव में मजबूती और ताकत से क्या लेना देना ..?भला ऐसी कौनसी जडी बूटी हो सकती है जिससे चुनाव में ताकत आ जाऐगी।
हमसे अपने कदम नहीं रोके गये और पहुच गये हकीम साहब के शफाखाने पर
......।वहाँ हमने देखा कि कुछ नेता टाइप लोग लम्बा कुर्ता पहिने पहले से ही अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे।हमनें भी वहाँ बैठे एक श्रीमान जी को अपना नाम लिखाया और अपनी बारी के इंतजर में बैठ गये।
हमने देखा कि वहाँ पहले से मौजूद लोग एक
-एक करके अपनी बारी आने पर अंदर जाते और हकीम साहब के पास से हाथों में कुछ पुडिया का पैकेट लेकर प्रसन्न मुद्रा में सीना फुलाकर बाहर निकलते मानो कि चुनाव के सबसे बडे पहलवान वे ही हॊं और उनके सामने सभी चींटी के बराबर ही हैं।
हम इतमिनान से उनके चेहरों को पढ़ रहे थे। जब भी कोई व्यक्ति अन्दर जाता तो मुँह लटकाऐ
,ढ़ीला -ढ़ाला सा अनदर जाता था लेकिन बाहर निकलते समय अजीब सा आत्मवि्श्वास और चेहरे पर नई चमक लिऐ हुऐ ही बाहर निकल रहा था।ऐसा लगता था जैसे चुना आयोग से नियुक्ति पत्र ही मिल गया हो।
हमारी बारी आई तो हमने जैसे ही हकीम साहब के कक्ष में
प्रवेश किया तो सामने भैय्या जी को देख कर हम चौकें और न चाहते हुऐ भी मुँह से निकल ही गया-अरे भैय्या जी आप और यहाँ.....हकीम तख्ता सिंह..... आखिर माजरा क्या है.........? वे तुरन्त हमारे मुँह पर हा्थ रखते हुऐ बोले -धीरे बोलिऐ कोई सुन लेगा तो सब करा धरा चौपट हो जाऐगा.......!मैने उन्हें आश्वस्त किया कि अब बाहर कोई नहीं है मैं आजका आपका अन्तिम फौकट का ग्राहक हूँ।आखिर ये माजरा क्याहै.....? आप अचानक भैय्या जी से हकीम तख्ता सिंह कैसे बन गये......?नेताओं में ताकत और मजबूती की दवा का नुस्खा आखिर आपको कहाँ से मिल गया.....?
भैय्या जी बडे ही सहज भाव में बोले
-नुस्खा-वुस्खा कुछ नहीं है बस यूँ ही पापी पेट का सवाल है......
बस..।हम कुछ समझ नहीं पा रहे थे। हमने वहाँ रखे कुछ पारादर्शी डिब्बों की तरफ इशारा करते हुऐ उनसे पूछा- इन डब्बों में रंग बिरंगा पाउडर जो भरा है ,यह सब क्या है.....?वे सर खुजलाते हुऐ बोले - आप भी क्यों पीछे पडे हैं भला .....इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो लोगों के स्वास्थ पर बुरा असर दिखाऐ ।हकीकत तो ये है कि समाचार पत्रों में रोजाना आरहा था कि अमुक नेता कमजोर है .फलां उम्मीदवार कमजोर है ,प्रधान मन्त्री तक कमजोर माने जा रहें हैं इसलिऐ मैंने सोचा क्यों न ऐसी इजाद की जाऐ जिससे कोई भी इस चुनाव में अपने आपको कमजोर महसूस नहीं करे, बस ....।यही सोच कर कुछ दवा मैनें बनाई है। इन पारदर्शी डब्बों में भ्रष्टाचार, झूंठ, मक्कारी और बेहयाईपन का सत्व हमने इकट्ठा किया है जिसके सेवन से ईमानदार से ईमानदार नेता में भी नेतागिरी के वास्तविक गुण आजाते हैं। जिससे वह बिना शर्म्रोहया के चुनाव लड सकता है। चुनाव जीतने के बाद पता नहीं उसे शायद उन्हीं लोगों के साथ मिलकर सरकार में बैठना पड जाऐ जिनको आज वह जी खोल कर गालियां दे रहा है। आखिर ये लोग कुर्सी के लिऐ ही तो यह सब कर रहे हैं \यदि इनमें नैतिकता का अंश बाकी रह जायेगा तो फिर भला सरकार कैसे बनाऐगें।
भैय्या जी की बात भी सही है। तभी तो कल तक किसके किसीके साथ कैसे सम्बन्ध थे वे सब इतिहास की बाते हो गई है। और आज फिर एक नई समीकरण बन रही है। चुनाव के बाद की क्या समीकरण होगी वह तो चुनाव के बाद ही पता लगेगा कि कौन किसको गले लगाता है और कौन अपने चुनावी वादों पर कायम रह पाता है
....यह तो वक्त ही बतायेगा....?

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योगेन्द्र मणि कौशिक

आलोक चतुर्वेदी की रिपोर्ट : पुस्तक विमोचन- (बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव)

युवा प्रशासक एवं साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव के व्यक्तित्व-कृतित्व को सहेजती पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव‘‘ का लोकार्पण ब्रह्मानन्द डिग्री कालेज के प्रेक्षागार में आयोजित एक भव्य समारोह में किया गया। उमेश प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का सम्पादन दुर्गा चरण मिश्र ने किया है। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित सुविख्यात साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर ने कहा कि अल्पायु में ही कृष्ण कुमार यादव ने प्रशासन के साथ-साथ जिस तरह साहित्य में भी ऊंचाईयों को छुआ है, वह समाज और विशेषकर युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है। वे एक साहित्य साधक एवं सशक्त रचनाधर्मी के रूप में भी अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। ऐसे युवा व्यक्तित्व पर इतनी कम उम्र मे पुस्तक का प्रकाशन स्वागत योग्य है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए आभार ज्ञापन करते हुए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति उ0प्र0 के संयोजक पं0 बद्री नारायण तिवारी ने कृष्ण कुमार यादव की रचनाधर्मिता को सराहा और कहा कि ‘क्लब कल्चर‘ एवं अपसंस्कृति के इस दौर में उनकी हिन्दी-साहित्य के प्रति अटूट निष्ठा व समर्पण शुभ एवं स्वागत योग्य है।

इस अवसर पर कृष्ण कुमार यादव की साहित्यिक सेवाओं का सम्मान करते हुए विभिन्न संस्थाओं द्वारा उनका अभिनंदन एवं सम्मान किया गया। इन संस्थाओं में भारतीय बाल कल्याण संस्थान, मानस संगम, साहित्य संगम, उत्कर्ष अकादमी, मानस मण्डल, विकासिका, वीरांगना, मेधाश्रम, सेवा स्तम्भ, पं0 प्रताप नारायण मिश्र स्मारक समिति एवं एकेडमिक रिसर्च सोसाइटी प्रमुख हैं।

कार्यक्रम में कृष्ण कुमार यादव के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर विद्वानजनों ने प्रकाश डाला। डा0 सूर्य प्रसाद शुक्ल ने कहा कि श्री यादव भाव, विचार और संवेदना के कवि हैं। उनके भाव बोध में विभिन्न तन्तु परस्पर इस प्रकार संगुम्फित हैं कि इन्सानी जज्बातों की, जिन्दगी के सत्यों की पहचान हर पंक्ति-पंक्ति और शब्द-शब्द में अर्थ से भरी हुई अनुभूति की अभिव्यक्ति से अनुप्राणित हो उठी है। वरेण्य साहित्यकार डा0 यतीन्द्र तिवारी ने कहा कि आज के संक्रमणशील समाज में जब बाजार हमें नियमित कर रहा हो और वैश्विक बाजार हावी हो रहा हो ऐसे में कृष्ण कुमार जी की कहानियाँ प्रेम, सम्वेदना, मर्यादा का अहसास करा कर अपनी सांस्कृतिक चेतना के निकट ला देती है। डा0 राम कृष्ण शर्मा ने कहा कि श्री यादव की सेवा आत्मज्ञापन के लिए नहीं बल्कि जन-जन के आत्मस्वरूप के सत्यापन के लिए। भारतीय बाल कल्याण संस्थान के अध्यक्ष श्री रामनाथ महेन्द्र ने श्री यादव को बाल साहित्य का चितेरा बताया। प्रसिद्व बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि श्री यादव ने साहित्य के आदिस्रोत और प्राथमिक महत्व के बाल साहित्य के प्रति लेखन निष्ठा दिखाई है। समाजसेवी राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि श्री यादव में जो असीम उत्साह, ऊर्जा, सक्रियता और आकर्षक व्यक्तित्व का चुम्बकत्व गुण है उसे देखकर मन उल्लसित हो उठता है। अर्मापुर पी0जी0 कालेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष डा0 गायत्री सिंह ने श्री यादव के कृतित्व को अनुकरणीय बताया तो बी0एन0डी0 कालेज के प्राचार्य डा0 विवेक द्विवेदी ने श्री यादव के व्यक्तित्व को युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत माना। शम्भू नाथ टण्डन ने एक युवा प्रशासक और साहित्यकार पर जारी इस पुस्तक में व्यक्त विचारों के प्रसार की बात कही।

कार्यक्रम में अपने कृतित्व पर जारी पुस्तक से अभिभूत कृष्ण कुमार यादव ने आज के दिन को अपने जीवन का स्वर्णिम पल बताया। उन्होंने कहा कि साहित्य साधक की भूमिका इसलिए भी बढ़ जाती है कि संगीत, नृत्य, शिल्प, चित्रकला, स्थापत्य इत्यादि रचनात्मक व्यापारों का संयोजन भी साहित्य में उसे करना होता है। उन्होने कहा कि पद तो जीवन में आते जाते हैं, मनुष्य का व्यक्तित्व ही उसकी विराटता का परिचायक है।

स्वागत पुस्तक के सम्पादक श्री दुर्गा चरण मिश्र एवं संचालन उत्कर्ष अकादमी के निदेशक प्रदीप दीक्षित ने किया। कार्यक्रम के अन्त में दुर्गा चरण मिश्र द्वारा उमेश प्रकाशन, इलाहाबाद की ओर से सभी को स्मृति चिन्ह भेंट किया गया। कार्यक्रम में श्रीमती आकांक्षा यादव, डा0 गीता चैहान, सत्यकाम पहारिया, कमलेश द्विवेदी, मनोज सेगर, डा0 प्रभा दीक्षित, डा0 बी0एन0 सिंह, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पवन तिवारी सहित तमाम साहित्यकार, बुद्विजीवी, पत्रकारगण एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।

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आलोक चतुर्वेदी
उमेश प्रकाशन
100, लूकरगंज, इलाहाबाद

10 मई 2009

हिमांशु पाण्डेय की कविता - चतुर सियार (बाल कहानी का काव्यांतर)

लोहे के विशाल पिंजरे में एक सिंह हत्यारा
किसी तरह था बन्द हो गया चला न कोई चारा
वह छटपटा रहा था बाहर किसी तरह आ जाता
उस खूँखार जानवर पर, पर कौन दया दिखलाता ॥१॥

भीख माँग कर लौट रहा था पंडित सीधा सादा
बहुत थका था घर जाने का उसका रहा इरादा
कंधे पर झोली लटकाये लिये हाथ में माला
राह पकड़ कर चला जा रहा था पंडित भोलाभाला ॥२॥

उसे देख कर पिंजड़े वाला सिंह लगा घिघियाने
हाथ जोड़कर रो-रो कर पंडित को लगा बुलाने
बोला, "आप दयालु विप्र हैं, हम हैं दुखिया प्राणी
कई दिनों से तड़प रहा हूँ मिला न दाना-पानी ॥३॥

द्वार खोलकर मुझको बाहर कर दो मेरे भइया
खूब फले फूलेंगे तेरे बेटे बाबू-भइया
हे ब्राह्मण देवता कसम खाता हूँ तेरे आगे
धर्मात्मा हैं आप हम सभी पशु तो बड़े अभागे ॥४॥

कभीं नहीं नुकसान तुम्हारा होने दूँगा बाबू
सबसे तुम्हें बचाउंगा जो दुष्ट जन्तु बेकाबू "
पंडित बोला, "मैं कैसे विश्वास करूँ बतलाओ
मैं चलता जंगल का राजा मुझे नहीं भरमाओ" ॥५॥

सिंह दीनता की ब्राह्मण से लगा बोलने भाषा
"ब्राह्मण ही निर्दयी हुआ तो फिर किससे है आशा
प्राण हमारे संकट में है बाबा दया दिखाओ
हाथ जोड़ प्रार्थना कर रहा द्वार खोल कर जाओ"॥६॥

विप्र देवता पिघल गये रो रहा मृगों का राजा
खोल दिया धीरे से जा कर पिंजरे का दरवाजा
सिंह झपट कर बाहर निकला लिया बड़ी अँगड़ाई
अपने मुँह में लिया पकड़ पंडित की तुरत कलाई ॥७॥

"यह तुम क्या कर रहे"? विप्र को हुई बहुत हैरानी
कहा सिंह ने, "पंडित तेरी होगी खत्म कहानी"
"विप्र, तुम्हें भागने न दूँगा" सिंह गरज कर बोला
"तुम्हें चबाकर पेट भरुँगा फेंको माला झोला" ॥८॥

"चलो किसी से भी पूछो क्या काम भला यह तेरा
मुझ गरीब को छोड़ो मेरा जोगी वाला फेरा "
कहा सिंह ने, "क्या पूछेगा, क्यों गढ़ रहा बहाने ?
सबसे पहले पेट भरें हम, भला-बुरा क्या जानें ॥९॥

किन्तु किसी से लेना ही हो तुमको कहीं गवाही
तो चल अभीं पूछ लो जल्दी, नहीं करुंगा नाहीं "
दोनों चले राह में पीपल पेड़ मिला लहराता
कहा विप्र ने "रुको इसी को हूँ सब कथा सुनाता"॥१०॥

पीपल धुनने लगा माथ सुन उसकी करुण कहानी
कहा "सिंह कर रहा ठीक यह जग की चाल पुरानी
सभी स्वार्थी, मुझको देखो देता लकड़ी छाया
पर इस दुनिया वालों ने मेरी डालें कटवाया" ॥११॥

आगे बढ़ा मिली गैया उसको सब कथा सुनाई
दर्द सुना ब्राह्मण का गइया को आ गयी रुलाई
बोली "दुहते दूध पीटते देते हमें न चारा
सभी स्वार्थी, सिंह कह रहा जो वह सच है सारा"॥१२॥

कहा सिंह ने गरज, " सुन लिया, बात सही है मेरी
अभी समाप्त किये देता हूँ जीवनलीला तेरी"
गुजर रहा था एक स्यार ब्राह्मण ने उसे पुकारा
बोला "सच-सच निर्णय कर दो भइया तुम्हीं हमारा ॥१३॥

पिंजरे में था बंद सिंह हमने दरवाजा खोला
मुझको ही यह खाना चाहे," स्यार डपट कर बोला-
"पिंजरे में हो सिंह ? तुम्हारी सारी बातें झूठी
मेरे जंगल के राजा की करनी बड़ी अनूठी" ॥१४॥

कैसे पिंजरे बीच फँसा जा लगा सिंह दिखलाने
"क्या सिटकिनी बंद थी पंडित?" स्यार लगा चिल्लाने
करके बंद दिखाओ, कैसे मानूँ बात तुम्हारी ?
किया बंद सिटकिनी अँगुलियाँ काँप रही थी सारी ॥१५॥

"देखो स्यार", सिंह बोला, "अब खोलो द्वार हमारा"
बोला स्यार, "भगो पंडित, हो गया बन्द हत्यारा"
जो न यहाँ विश्वास योग्य उनके न बनो विश्वासी
बहुत सिधाई भी बन जाती कभीं गले की फाँसी ॥१६॥

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हिमांशु पाण्डेय

सकलडीहा, चन्दौली (उ०प्र०)

07 मई 2009

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव की पुस्तक - पर्यावरण : वर्तमान और भविष्य (7)

लेखक - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का परिचय यहाँ देखें
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अध्याय 7 - ध्वनि प्रदूषण का अर्थ, स्रोत एवं इसके नियन्त्रण के उपाय
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प्रकृति से मानव को कुछ चीजें उपहार में मिली है, झरनों की कल-कल की आवाज, चिड़ियों की चहचहाहट कोयल की मधुर कूक जहाँ हृदय को शांति प्रदान करती है। वहीं संगीत की सुमधुर स्वर साधना जहाँ मानव में अनेक असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने के साथ उसमें उमंग, उत्साह तथा कार्यक्षमता बढ़ाने के साथ ही आनन्द की अखण्ड बढ़ोत्तरी करते हैं। वास्तव में यदि देखा जाये तो ध्वनि का रिश्ता मानव की प्रकृति में प्रारम्भ से ही रहा है। पशु-पक्षी, कीट-पतंगें, पेड़-पौधे, वर्षा, नदियां, झरने बादल आदि सब किसी न किसी प्रकार की आवाज से जुड़े होते हैं। हमारी दिनचर्या के साथ आज इन आवाजों का सम्बंध घनिष्ट रूप से जुड़ गया है जैसे एलार्म की आवाज जानवरों की आवाज, सड़कों पर यातायात बाइक, कार, ट्रक एवं अन्य वाहनों का आना जाना। और इसके साथ घर पर मनोरंजन के साधन (रेडियो, टी.वी., टेपरिकार्डर, डेस्क, कम्प्यूटर) आदि हैं। यही आवाजें जब सामान्य आवाजों से तेज हो जाती हैं तो वह हमें चुभने लगती हैं अर्थात् ‘अवांछित ध्वनि को शोर कहा जाता है। संजय तिवारी के अनुसार ‘मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी जब भी कोई कार्य करता है अथवा किसी प्रकार की कोई अभिव्यक्ति करता है तो उससे वायुमण्डल पर दबाव पड़ता है और वायु तरंगे उत्पन्न हो जाती हैं जिससे आवाज आती है यही आवाज ध्वनि कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘ध्वनि प्रदूषण मानव के लिए असहनीयता एवं अनाराम की उस दशा को व्यक्त करता है जो विभिन्न स्रोतों से निकले शोर द्वारा उत्पन्न होती हैं।’ ध्वनि अंग्रेजी भाषा के NOISE एवं लैटिन भाषा के Nau Sea से बना है जिसका अर्थ होता है कम्पन करना। अर्थात् ध्वनि कम्पन से ही उत्पन्न होती है। यही ध्वनि जब अपनी उच्च सघनता के कारण शोरगुल में परिवर्तित हो जाती है। तो वह मानव में चिड़चिड़ापन, बोलने में व्यवधान, सुनने में हानिकारक तथा कार्य कुशलता में ह्स उत्पन्न करती है। यही ध्वनि प्रदूषण कहलाता है - डा. वी. राय के शब्दों में कहें तो अनिच्छापूर्ण ध्वनि जो मानवीय सुविधा तथा गतिशीलता में हस्तक्षेप करती है अथवा प्रभावित करती है, ध्वनि प्रदूषण है।’ रोथम हैरी के अनुसार किसी भी स्त्रोत से निकलने वाली ध्वनि प्रदूषक बन जाती है जब वह असहाय हो जाती है। वहीं साइमन्स का मानना है कि ‘बिना मूल्य की अथवा अनुपयोगी ध्वनि, ध्वनि प्रदूषण है।’
वास्तव में ध्वनि एक सतत चलने वाली सामान्य प्रक्रिया का प्रतिफलन है। ध्वनि कम्पनों से उत्पन्न होती है और यही कम्पित वायु हमारे कर्णेन्द्रियों से होती हुई जब मस्तिष्क तक पहुँचती है तब हमें इसका एहसास होता है। कम्पनांक द्वारा यह ध्वनि सेकेण्डों में मापी जाती है। साधारण रूप में मनुष्य के कान 20 से 20,000 कम्पन प्रति सेकेण्ड तक की ध्वनि को स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं। इस तरह से 20 से 20,000 कम्पन प्रति सेकेण्ड तक की ध्वनि श्रव्य ध्वनि कहलाती है। उम्र के साथ-साथ भव्यता की सीमा घटती-बढ़ती रहती है। वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है। बीस वर्ष की आयु वाले युवक के लिए यह सीमा 20,000/सेकेण्ड है। वहीं पैंतीस वर्ष की आयु में 16000/सेकेण्ड तथा 47 वर्ष की आयु में 13,000/सेकेण्ड ही रह जाती है। जो ध्वनि बीस हजार प्रति सेकेण्ड से अधिक आवृत्ति वाली होती है वह हमें सुनाई नहीं देती है। पराश्रव्य ध्वनि कहलाती है। मनुष्य के अलावा और कई प्राणी (जीवधारी) हैं जो इसे सुन सकते है - जैसे बिल्ली, कुत्ता, चमगादड़ आदि।
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ध्वनि प्रदूषण के स्रोत
प्राकृतिक स्रोत
मानव द्वारा उत्पादित
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प्राकृतिक स्रोत
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बादल की गरज
भूकम्प
बिजली की गड़गड़ाहट
उल्कापात
ज्वालामुखी का फटना
भूस्खलन भवनों का गिरना
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मानव द्वारा उत्पादित
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परिवहन द्वारा
कारखाने और उद्योग
मशीन साइरन, जनरेटर्स
मनोरंजन के साधन
घरेलू उपकरण
सैनिक अभ्यास की वस्तुएँ
पूजा स्थल के उपकरण
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वर्तमान में औद्योगीकरण एवं शहरी संस्कृति के कारण शोर (ध्वनि) की समस्या दावानल आग की तरह अपना नित्यप्रति विस्तार करती चली जा रही है। इस ध्वनि से उत्पन्न होने वाले कम्पनों ने मानव की श्रवण शक्ति के अलावा अन्य मानसिक तथा शारीरिक विकार उत्पन्न कर दिए हैं। वैज्ञानिक निष्कर्षों से ऐसे परिणाम सामने आये हैं कि अधिक ध्वनि से हृदय एवं मस्तिष्क कमजोर हो जाते हैं इसकी अधिकता से व्यक्ति बहरा तथा गूंगेपन का शिकार भी हो जाता है। यही नहीं अधिक समय तक इसके प्रभाव में रहने पर व्यक्ति का रक्तताप, पाचन तंत्र कमजोर होने के साथ उसमें अनेक तरह की बीमारियाँ मोटापा, गंजापन, स्मृति क्षमता का हृस कार्य क्षमता में कमी मानसिक अस्थिरता कुण्ठा, तनाव, भय, पागलपन, आदि रोग हो जाते हैं। वहीं दूसरी ओर अधिक ध्वनि के कारण हमारी वनस्पतियाँ, इमारतों और प्राकृतिक सम्पदाओं पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिक खोजों के अनुसार यदि व्यक्ति 85 डेसीबल से अधिक ध्वनि में लगातार रहता है तो उसके बहरा होने का खतरा बढ़ जाता है। वहीं 120 डेसीबल से अधिक ध्वनि से व्यक्ति को चक्कर आ सकते हैं और 180 डेसीबल से अधिक की ध्वनि में अधिक समय तक रहने पर उसकी मृत्यु हो सकती है।
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प्रमुख ध्वनि स्रोत, स्तर एवं मानवीय अनुक्रिया
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190 से अधिक - ज्वालामुखी विस्फोट - मृत्यु तक हो सकती है
180 से अधिक - राकेट इंजन - असहनीय -
170 से अधिक - बम्बार्डिंग - अति पीड़ादायक
160 से अधिक - बंदूक का दागना - कानों के पर्दे फट जाते हैं
150 से अधिक - जेट प्लेन का उतरना - कानों के पर्दे के लिए घातक
140 से अधिक - जेट इंजन, अंतरिक्ष यान - शरीर में थकान, पीड़ाजनक
130 से अधिक - उड़ान भरता जेट- कानों में दर्द का प्रारम्भ
120 तक - हवाई जहाज का जेट/गाड़ियों के हार्न, लाउड स्पीकर
110 तक - फैक्ट्रियों का बायलर/स्टीम रेल इंजन - थरथराहट/घबराहट
100 तक - बस स्टैंड, हवाई अड्डा, रेलवे स्टेशन, व्यस्त चैराहा, औद्योगिक क्षेत्र - चिल्लाने पर भी अस्पष्ट सुनाई देना
90 तक - भारी ट्रक, जोर से चिल्लाने की ध्वनि, दीपावली के पटाखे, मोटर साइकिल/बस स्टैण्ड - प्रबल शोर से श्रवणता घटना, अत्याधिक झुंझलाहट एवं नाराजगीकारक
80 तक - राष्ट्रीय मार्ग का यातायात/डीजल ट्रक, बस/प्रिटिंग प्रेस/नगर के व्यस्त चैराहे और कार्यालय - खिजलाहट, असुविधा उत्पन्न करती है
70 तक - स्वचालित वाहन (15 मी. दूरी तक) या टेलीविजन - टेलीफोन करने में बाधक
60 - 65 - कार्यालय में एयरकण्डीशनर (6 मी. दूर) कार, काफी हाउस, हल्का यातायात व्यस्त घनी बस्तियाँ - शोर, प्रदूषण मानवीय सहनीय क्षमता से कुछ अधिक
50 - 55 - वार्तालाप या टाइपराइटर/मकान में एयर कंडीशनर, सामान्य कार्यालय - शांति, सुविधाजनक
40 - 45 - सामान्य बातचीत/उपनगरीय क्षेत्र में शयन कक्ष, एयर कंडीशनर, रेडियो संगीत - मधुर, मानकों के अनुसार
30 - 35 - शांत गली का मकान, अति धीमा रेडियो, घड़ी की टिक-टिक, औसत घर, धीमी बातचीत - मनुष्य के लिये आदर्श
20 -15 - फुसफुसाहट (कानफूसी) वृक्षों से गुजरती हवा - अति शांत
10 -15 - श्वसन/पत्तियों की खड़खड़ - सुनने की क्षमता में वृद्धि
0 -5 - हृदय की धड़कन या गर्भस्थ शिशु की क्रियायें - छाती एवं पेट पर कान लगाने पर ही प्रयत्न करने पर ही सुनी जा सकती है

(स्रोत – डा0 एन. एम. अवस्थी - पर्यावरण एक अध्ययन, पृ. 243-244)
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ध्वनि प्रदूषण नियन्त्रण के उपाय
पर्यावरण के सामने आज ध्वनि प्रदूषण एक गम्भीर चुनौती बनी हुयी है। यह एक ऐसा मीठा जहर है जिसका प्रभाव धीरे-धीरे मानव शरीर में घुलता जा रहा है और इसके असर से मानव धीमें-धीमें मृत्यु के आगोश में पहुँचता चला जा रहा है। दैनिक जीवन में जिन उपकरणों के सहारे दिनचर्या चलती एवं समाप्त होती है उनमें पूरी तरह कटौती तो सम्भव नहीं है परन्तु इस पर कुछ हद तक नियंत्रण पाने का प्रयास तो मानव को अनवरत करते ही रहना होगा। समय-समय पर सरकार के द्वारा ध्वनि प्रदूषण से सम्बन्धित नियम बनाये गये परन्तु वे काफी नहीं हैं। ध्वनि प्रदूषण मानव की एक शाश्वत समस्या है अतः इस पर गम्भीरतापूर्वक मनन करते हुये इसके नियंत्रण के लिये निम्न व्यापक उपाय किये जा सकते हैं-
1. शोर का ध्वनि स्रोत पर नियंत्रण आवश्यक किया जाना चाहिये।
2. जिन उपकरणों एवं यन्त्रों द्वारा शोर फैलता हो उन्हें नयी तकनीकी विधि या सड़कों पर तकनीक का प्रयोग करके शोर रोकना होगा।
3. शोर की एक निश्चित (अभिशंषित) सीमा का पालन करवाया जाना सुनिश्चित किया जाये।
4. ध्वनि प्रदूषण के प्रति धार्मिक गुरूओं एवं शिक्षकों की मदद से प्रचार प्रसार करवाया जाना चाहिये।
5. हरित पट्टी का निर्माण ध्वनि स्रोतों के आसपास कराया जाना अनिवार्य किया जाना चाहिये।
6. कठोर शासकीय नियम बनाये जायें एवं उन्हें कड़ाई के साथ पालन करवाया जाये।
7. सरकार द्वारा हर उत्सव त्योहार या व्यक्तिगत पार्टी पर ध्वनि की सीमा सुनिश्चित एवं अभिशंषित की जानी चाहिये और जिसके तहत कोई भी अपना कार्य सार्वजनिक स्थानों पर कर सकने का अधिकार रखे।

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सम्पर्कः
वरिष्ठ प्रवक्ता: हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001

डॉ0 अनिलचड्डा की कविता - हमेशा के लिये !

कौन
सूली पर
लटकना चाहता है
सच की खातिर
झूठ बोल कर
अपनी जगह
दूसरे को
लटका देना चाहता है
सूली पर
हर कोई
आजकल तो
सभी का है
यही व्यवहार
संज्ञा दे दी जाती है
सच बोलने वाले को
मूर्ख की
और
बाकियों को
कहा जाता है
दुनियादार
दुनिया में
बस चलता है
यही व्यापार
इसीलिये तो
सच बैठ जाता है
एक अंधेरे कोने में
मुँह छुपा कर
जाने कब
चढ़ना पड़ जाये
सलीब पर
झूठ की खातिर
और
चुरा ले ये संसार
सच से मुँह
हमेशा के लिये !
हमेशा के लिये !!
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डा0अनिल चड्डा
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http://anubhutiyan.blogspot.com

05 मई 2009

सीताराम गुप्ता का व्यंग्य - अथ श्वान पुराणम्

हमारी कालोनी में कई संभ्रांत परिवार रहते हैं। उनमें से अधिकांश के पास जैकी, रोशी अथवा टाइगर अवश्य होता है। वास्तव में जिन परिवारों में एक जैकी, रोकी अथवा टाइगर होता है वही संभ्रांत परिवारों की श्रेणी में आते हैं। संभ्रांतता का प्रतीक है जैकी अर्थात् एक अदद कुत्ता। ऐसे संभ्रांत परिवार या परिवार का कोई सदस्य या नौकर जब भी घर से बाहर कदम रखता है अपने प्रिय जैकी अथवा रोकी को साथ ले जाना नहीं भूलता। जिस प्रकार गाड़ी चलाने वाले के लिए मोटर ड्राइविंग लाइसेंस, कार्यालय में काम करने वाले के लिए आइडेंटिटी कार्ड अथवा परीक्षा में बैठने वाले के लिए रोल नंबर की जरूरत होती हैA एक संभ्रांत पुरुष अथवा महिला को अपनी सही पहचान बनाए रखने के लिए रोकी अथवा जैकी को साथ रखना अनिवार्य है।
सुबह दूध की लाइन में लगते समय जैकी की जंजीर हाथ में हो अथवा रोकी का साथ हो तो दूध की ख़रीदारी का मजा ही और है। लोगों पर आपका और आपके जैकी या टाइगर का इतना रौब पड़ता है कि आपको देखकर लोग काई की तरह हट जाते हैं और आप लाइन में जहाँ चाहें आराम से खड़े हो सकते हैं। इसमें आप दोनों के रौब के साथ-साथ कुत्ते के भय का प्रभाव ज्यादा काम करता है। दुकानदार भी प्रायः ऐसे संभ्रांत ग्राहकों को जल्दी निपटाने का प्रयास करते हैं क्योंकि दुकान के सामने पहुँचकर ही इनके श्वान महाशय को लघुशंका अथवा दीर्घशंका की हाजत होती है।
वैसे तो हमारे यहाँ लोग आपस में बहुत कम मिलते-जुलते हैं क्योंकि उपर वाला नीचे वाले को नहीं जानता तथा दाएँ वाला बाएँ वाले को नहीं पहचानता लेकिन वो लोग जिनके हाथों में अपने-अपने जैकियों की जंजीरें बंधी होती हैं घंटो सड़कों के किनारे खड़े अपने-अपने जैकियों की कुलीन नस्लों की विशेषताओं पर प्रकाश डालते रहते हैं। श्वानों की विभिन्न नस्लों और प्रजातियों के साथ-साथ बदलते मौसम में इनकी देखभाल और उपयुक्त आहार पर भी विशद चर्चा इन सेमिनारों में की जाती है। देश के नागरिकों को एक सूत्रा में बाँध्ने में सहायक है श्वान की ये विभिन्न प्रजातियाँ।
जितने खूबसूरत या ख़तरनाक कुत्ते उतने ही खूबसूरत या ख़तरनाक इनकी प्रजातियों और कुत्तों के नाम भी। कुछ नस्लों के नामों पर ग़ौर फरमाइये: ग्रेट डेन, डैश हाउण्ड, बेसेंट हाउण्ड, डाल्मेशियन, अल्सेशियन, सेंट बर्नार्ड, लेब्राडोर रेटरिवर, डाबरमैन, बुलमास्टिपफ, इंग्लिश कोकर स्पैनियल, जर्मन शेपर्ड, आयरिश वुल्पफ, प्रैंफच बुलडाग, बाक्सर, न्यू पफाउण्डलैंड, शिवावा, पिकनीस, बीगल्स, पि़फटमी, स्पिट्श, चोचो, लासा एप्सो, चीहुआहुआ तथा और न जाने कितनी प्रजातियाँ और नस्लें। ग्रेटडेन या बुलडाग नाम से भय लगता है। उपर से ‘टाइगर’ नाम रखकर रही-सही कसर भी पूरी कर दी। पामेरियन नस्ल की ख़ूबसूरत मादा का नाम रोशी रख दिया जाए तो नस्ल के साथ नाम में भी नशाकत और नप़फासत का अहसास होता है।
अब सिलेब्रिटीस और उनके डाग्स के बारे में भी थोड़ी चर्चा हो जाए। पिछले दिनों पैरिस हिल्टन सबसे ख़राब सिलेब्रिटी कुत्ता मालकिन चुनी गईं जबकि सबसे अच्छी सिलेब्रिटी कुत्ता मालकिन का खिताब मिला ब्रिटिश सिंगर शास स्टोन को। जर, जोरू और जमीन पर जंग छिड़ते तो देखा है पर पिछले दिनों ब्रिटनी स्पीअर और पेरिस हिल्टन के बीच अपने-अपने कुत्तों को लेकर जंग छिड़ गई। ब्रिटनी स्पीअर ने कहा कि उसके ‘बिट-बिट’, ‘लेसी-लू’ और ‘लकी’ नामक तीन चीहुआहुआ वुफत्ते पेरिस हिल्टन के टिंकरबैल से श्यादा क्यूट हैं। मुझे कुत्तों के बारे में इतनी अध्कि जानकारी होते हुए भी ये नहीं बता पाया कि टिंकरबैल कुत्ते का नाम है या प्रजाति।
एक बार एक ख़ूबसूरत बला के हाथ में एक पिल्ले की शंजीर देखकर मैंने कुत्तों सम्बन्धी अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के लिए कहा, ‘‘आपका ‘पामेरियन’ तो बड़ा खूबसूरत है!’’ अपनी ख़ूबसूरती की ग़ाश गिराते हुए नाक-भौं सिकोड़कर उसने कहा, ‘‘पामेरियन! नो-नो, इट’श नोट पामेरियन बट अमेरिकन प्राइड’’ और मोनिका लेविंस्की की तरह अकड़ती हुई चली गई पर मेरी सिट्टी-पिटटी गुम हो गई। मुझे पता चल गया कि कुत्तों के मामले में मैं कितना अनाड़ी और अल्पज्ञानी हूँ। ‘अमेरिकन प्राइड’ प्रजाति का नाम सुन कर मुझे अमेरिका वेफ प्राइड अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के कुत्ते ‘स्पाट’ की याद आ गई। कितना शहीन था ‘स्पाट’! व्हाइट हाउस की ओर से शारी एक विज्ञप्ति में बताया गया कि ‘स्पाट’ की असामयिक मृत्यु से पूरा बुश परिवार दुखी है। ‘स्पाट’ बुश सीनियर के कार्यकाल के दौरान व्हाइट हाउस में पैदा हुआ था। वह इंग्लिश स्प्रिंगर स्पाइनल प्रजाति का कुत्ता पंद्रह वर्ष का था। अब बुश के पास केवल दो पालतू कुत्ते रह गए हैं। उम्मीद है ‘स्पाट’ की कमी को पूरा करने के लिए कोई न कुत्ता अवश्य ही व्हाइट हाउस में जन्म लेगा अन्यथा व्हाइट हाउस के बाहर भी अच्छी प्रजाति के वफादार कुत्तों की कमी नहीं।
वे लोग जिनके यहाँ ‘जैकी’ या ‘रोशी’ नामक प्राणी मौजूद होता है बड़े प्रगतिशील विचारों के होते हैं। प्रेम-व्रेम के मामले में अपने बच्चों की चायस में दख़लंदाशी नहीं करते लेकिन क्या मजाल कि उनका ‘जैकी’ किसी देसी कुतिया की तरफ आँख उठाकर भी देख ले, उनकी ‘रोशी’ किसी लोकल कुत्ते के साथ मुँह काला करके घर में घुस आए। ख़ुद सारी सर्दियों खों-खों करते फरेंगे, लालइमली के मटमैले मफलर से टपकती नाक को रगड़-रगड़ कर बंदर-सी लाल कर लेंगे लेकिन डाक्टर के पास जाने का नाम नहीं लेंगे पर क्या मजाल कि अपने ‘जैकी’ या ‘रोशी’ को हिचकी भी आ जाए। छींक आना तो दूर की बात है। जरा सी सर्दी हुई नहीं कि जैकी का शाम के बाद घर से बाहर निकलना बंद। ‘जैकी’ या ‘रोशी’ को सीने से लगाए सारी रात रशाई में गुशार देंगे। जैकी या रोशी चाहे जितना भी कुनमुनाएँ उनकी पकड़ ढ़ीली नहीं होती। फ्रायड महोदय के अनुसार विपरीत लिंग के मानव और श्वान के बीच यह पकड़ अपेक्षाकृत अध्कि दृढ़ होती है। केसा अद्भुत प्रेम है मानव का श्वान के प्रति। काश! गलियों में घूमने वाले असंख्य आवारा कुत्तों के नसीब में भी ये सब होता।
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सीताराम गुप्ता
ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
फोन नं. 011-27313954

डा0 जयजयराम आनन्द की कविता - अम्मा बापू का ऋण


अम्मा ने हाथ धरा सर पर
बापू ने चलना सिखलाया
घर से बाहर पाँव हिलाए
भूलभुलैयों ने भरमाया
अपनों को तो जहाँ कहीं भी
बिन पेंदी का लोटा पाया
अम्मा ने ध्यान दिया मुझ पर
बापू जी ने गुर रटवाया
क्रूर काल के हाथों ने जब
जीवन पथ का साथी छीना
दुःख -दरदों के षड्यंत्रों ने
पलपल कासुख चुनचुन बीना
अम्मा ने भार लिया सर पर
बापू ने धीरज बंधवाया
जाते जाते छोड़ गये वे
अजर अमर पद चिन्ह अनूठे
महामंत्र गीता पुराण के
लगते उनके सम्मुख झूठे
मेरा दिल अम्मा के दिल- सा
तन मेरा बापू प्रतिछाया
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डा0 जयजयराम आनन्द
भोपाल

डॉ0 अनिल चड्ढा की ग़ज़ल

मुश्किल जीना अब होता जा रहा है,
सांस भी घुट-घुट के हमको आ रहा है ।


जानवर को मिल जाता है ऐशो-आराम,
इंसा कूड़े से भी चुन कर खा रहा है ।

बस गईं चारों तरफ घनी बस्तियाँ,
तन्हा खुद को हर शख्स पा रहा है ।

साफ गोई तो उसे मंजूर न थी,
पाठ मुझको झूठ का सिखला रहा है ।

एहसानात चंद क्या उसने कर दिये,
बेवजह वो जुल्म मुझपर ढा रहा है ।

उदासी पहले ही कुछ कम न थी,
गीत दर्द के कोई क्यों गा रहा है ।

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डा0अनिल चड्डा
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ब्लाग -
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01 मई 2009

शब्दकार के दो माह और आपका आभार

आप सब सुधी पाठकों और रचनाकारों के सहयोग से शब्दकार ब्लाग को संचालित करते हुए दो माह हो गये हैं। यद्यपि समय के हिसाब से बहुत ही उपलब्धि वाला काल इसलिए नहीं कहा जायेगा क्योंकि दो माह बहुत बड़ी समयावधि नहीं होती है।
01 मार्च 2009 से ब्लाग पर रचनाओं को पोस्ट करना प्रारम्भ किया था। इस दौरान कई आलेख, कवितायें, कहानियाँ आदि प्रकाशन हेतु प्राप्त होतीं रहीं। दो पुस्तकों का भी नियमित रूप से प्रकाशन किया जा रहा है। दो माह की अल्पावधि में इतना कुछ बहुत उल्लासित तो नहीं करता पर निराश भी नहीं करता।


दो माह की इस अवधि में कई तरह से प्रचार का प्रयास किया। कुछ लोगों को टिप्पणी के माध्यम से शब्दकार का प्रचार करना बुरा लगा तो कुछ लोगों ने ई-मेल के द्वारा भी इसके प्रचार को गलत बताया। हो सकता है कि हमारे द्वारा शब्दकार के प्रचार के ये तरीके गलत हों पर किसी ने सही तरीका भी तो नहीं बताया। गलत को गलत बताना तो आसान है पर उसका सही स्वरूप क्या है इसको बताने के लिए खुद में भी शक्ति चाहिए, आत्मविश्वास चाहिए।


इन सबके बाद भी हमारा हमेशा से यही मानना रहा है कि कोई भी कुछ भी पेट से सीख कर नहीं आता। इस तरह के ब्लाग का संचालन कैसे करना है सम्भव है कि हमें मालूम न हो पर हमारी यही कमी हमें कुछ तो सिखा रही है। जीवन इसी सीखने-सिखाने का नाम है।


आप सबके सहयोग के बाद भी और अधिक सहयोग की आवश्यकता है। आप सुधी लेखक, रचनाकार अपनी रचनाओं को शब्दकार में प्रकाशनार्थ भेजकर सहयोग कर सकते हैं। रचनाओं में कहानी, कविता, आलेख, ग़ज़ल, लघुकथा, संस्मरण, पुस्तक आदि के साथ-साथ प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाओं को भी प्रकाशनार्थ प्रेषित कर सकते हैं।

अपनी रचनाओं को ई-मेल shabdkar@gmail।com पर भेज सकते हैं। आप सबके सहयोग का इंतजार रहेगा। आपका सहयोग हमें और शब्दकार को प्रोत्साहित करेगा। धन्यवाद...