30 जून 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की ग़ज़ल - मेहमान उनको हमने बना लिया !


दोस्ताना क्या हमने दिखा दिया,
दुश्मन अपना उन्हें बना लिया !

तरस क्या खायें उस पर हम,
खुद को तमाशा जिसने बना लिया !

आईना तो झूठ कहता नहीं,
अक्स ही झूठा उसने बना लिया !

दर्द को और काँटे चुभाना नहीं,
दिल में घर उसने अपना बना लिया !

शाम को फिर मुलाकात हो न हो,
मेहमान उनको हमने बना लिया !

-- डा0अनिल चड्डा
http://anilchadah.blogspot.com
http://anubhutiyan।blogspot.com
-----------------

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यज्ञों का महत्व एवं उपयोगिता


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यज्ञों का महत्व एवं उपयोगिता
-------------------------------------------------
डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
------------------------------------------------
भारतीय जनमानस में ऐतिहासिक एवं पौराणिककाल से यज्ञों का अपना विशिष्ट उपयोग एवं महत्व रहा है। हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति में यज्ञसें का हर समय उपयोग किया जाता था अर्थात् हमारी संस्कृति अतीत में यज्ञमय प्रतीत होती है। पौराणिक ब्राह्यण ग्रन्थों में तो यज्ञ का सम्पूर्ण साम्राज्य ही दिखता प्रतीत होता है। यही कारण है कि शतपथ ब्राह्यण में स्पष्ट रूप से लिखित है "यज्ञोवैश्रेष्ठतमं कर्म" अर्थात् समस्त कर्मों में से यज्ञ श्रेष्ठ कर्म है। जहाँ एक ओर ब्राह्यण ग्रन्थ यज्ञ की इतनी विशेषताएं एवं महिमा समझते है जिनका मानना है कि वह ब्रह्या को ही यज्ञ स्वरूप् बताते है। हमारे जगत में जो कुछ सामान्यरूप् से दिखता है वह यज्ञों का ही प्रत्यक्ष रूप् अवलोकित होता है वहीं दूसरे शब्दों में कहें तो यज्ञ ही प्रजापति हे, वहीं दूसरी तरफ यज्ञ शब्द परमात्मा की उपासना और मनुष्य की त्याग भावना का साक्षत प्रतीक बन गया है क्योंकि इनका सर्वांगपूर्ण विवेचन वंदों तथा ग्रहसूत्रों की सहायता से भी प्राप्त होता है।
भारतीय जीवन में यज्ञों द्वारा ही मनुष्य समाज और विभिन्न समूहों की उत्पत्ति हुई, इसके साथ ही यज्ञों द्वारा मनुष्य केवल अपने ही जीवन के अभिप्राय के ही पूर्ति नही करता वरन् सम्पूर्ण जनमानस में अनेक रूपों का समन्वय करता हुआ उसकी एकता संरक्षण एवं सुरक्षा साक्षात्कार करता है। शतपत ब्राह्यण में यज्ञ को प्रजापति माना गया है "एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः" अर्थात यह प्रजापति ही यज्ञ है संसार में जड़ जगत में जो भी यज्ञ हो रहे है , सूर्य उसका केन्द्र है अर्थात् जो यह वह यही सूर्य है इसी महायज्ञ का चित्र मानव इस वसुन्धरा पर बनाता है। वास्तव में देखा जाये तो वसुन्धरा की वेदी पर यज्ञ हो मुख्य केन्द्र बिन्दु है क्योंकि अग्नि देवताओं में प्रथम है और सूर्य अन्तिम। इसे विस्तारित रूप् से परिभाषित करें तो यह कहा जा सकता है कि वेदसें में जो अग्नि दिखती है उसे ही हावि के रूप् में जाना जाता है! वास्तव में देखा जाए तो यज्ञ केवल पदार्थों को ही शुद्ध नहीं करता बल्कि इन पदार्थों , पर्यावरण तथा सकल जगत को शुद्ध करता हुआ मनुष्य मात्र का कल्याण करता है। यज्ञों के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से दो तरह के लाभ दिखाई देते है। प्रथम के तहत यज्ञ कत्र्ता को सृष्टि नियम का ज्ञान साक्षात एवं समान रूप से होता प्रतीत होता है। दूसरे के तहत सृष्टि नियम में यह यज्ञ परोक्ष रूप् से मदद करते है। जिस तरह से सूर्य अपने बल से इस संसार की दुर्गन्धि को दूर करता है , और जल को पवित्र करता है। उसी तरह से मानव द्वारा किए गये अग्निहोत्र भी दोनो काम करते है।
भूमण्डलीकरण एवं ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में आज यज्ञों का महत्व इसलिए अधिक बढ़ गया है क्योंकि यज्ञों के द्वारा दी गई आहुति वायु के माध्यम से सूर्य की ओर अर्थात् ऊपर (वायुमण्डल) की ओर जाती है। यह सामग्री ऊपर जाकर सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में फैल जाती है। अन्तरिक्ष में फैले प्रदूषण को यह समाप्त कर सूर्य के प्रभाव से मेघमण्डल के साथ वह छवि नीचे उतरती है और सभी मानव , प्शु,पक्षियों एवं पर्यावरण को तृप्त कर पवित्र बनाती है उसकी यह आहुति हवा (वायु) के साथ देश-देशान्तर को शुद्ध करती हुई अपनी अपहिश दुर्गधि आदि के दोषों को निर्धारित करती हुई सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख प्रदान करती है। इसमे कोई दो राय नहीं (कर्मकाण्ड एवं पुजा पाठ को छोड़कर देखें तो) यज्ञ के द्वारा पृथ्वी के पदार्थ एवं अन्तरिक्ष शुद्ध होता है साथ ही सूर्य की किरणें भी पवित्र होती हैं। वास्तव में देखे तो यज्ञ इन पदार्थों को ही शुद्ध नहीं करता बल्कि मनुष्य सहित समूह सम्पूर्ण प्राणी जगत का मानसिक रूप से सबलकर कल्याण भी करते हैं।
---------------------------------
सम्पर्क-
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग
डी0 वी0 महाविद्यालय , उरई (जालौन) उ0 प्र0 -285001
-----------------------------------------

28 जून 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की ग़ज़ल - बनाएँ क्यों उन्हे सनम !


यूँ ही तो चुप नहीं हैं हम,
कोई तो होगा हमको ग़म ।

जमाने की हवा ऐसी,
नहीं करता कोई शरम ।

तू वक्त की ज़ुबाँ समझ,
कभी न रोक तू कदम ।

नमक ज़ख्मों पे जो छिड़कें,
दिखाएँ क्यों उन्हे ज़ख्म ।


जो दिल की बात न जाने,
बनाएँ क्यों उन्हे सनम ।

-- डा0अनिल चड्डा
http://anilchadah.blogspot.com
http://anubhutiyan.blogspot.com

25 जून 2009

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह राग-संवेदन की कविता - "अतिचार"


डॉ० महेन्द्र भटनागर का जीवन परिचय

डॉ० महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह - राग-संवेदन की कविता


(10) अतिचार
.
अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधों का विश्वास —
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
.
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्व उपासना
कठिन सिद्व साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और —
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल —
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
.
जब भूकम्प वासना का
‘तीव्रानुराग’ का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख़्ता-पुख़्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!
--------------------------
डा. महेंद्रभटनागर,
सर्जना-भवन,
110 बलवन्तनगर, गांधी रोड,
ग्वालियर — 474002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908
मो.: 09893409793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
E-mail : drmahendrabh@rediffmail.com
Blog : www.professormahendrabhatnagar.blogspot.com

डा0 देवदास टेम्भरे से दलित-विमर्श पर डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव की बातचीत

दलित साहित्यकार दलित साहित्य की विकास यात्रा में सामाजिक परिवर्तन की चेतना को नये सिरे से परिभाषित कर रहे हैं
डा0 देवदास टेम्भरे

---------------------------------
वीरकुंवर सिंह वि0 वि0, आरा बिहार के सम्मानित अभिषद् (सिंडिकेट) सदस्य एवं एस0 पी0 जैन कालेज सासाराम स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा0 देवदास टेम्भरे, जो एक मानवतावादी एवं दलित चेतना एवं चिंतन के व्याख्याता हैं। डा0 देवदास जी अपने लेखन में सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध कुछ कर गुजरने की चाह रखते हैं। आपके दलित लेखन एवं चिंतन से सम्बन्धित अनेक शोध आलेख देश की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर की सेमिनारों में दलित सम्बन्धी शोध पत्रों के माध्यम से आपने दलित समस्याओं को शिद्दत के साथ उठाया है और दलित जीवन से सम्बन्धित ढेर सारे सुलगते प्रश्नों और उनके सम्भाव्य समाधानों को प्रस्तुत करने का निश्चल प्रयास भी किया है ..... आपसे ‘दलित चिंतनः परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य’ विषय पर बातचीत के कुछ अंश।
------------------------------------
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब आपकी दृष्टि में दलित कौन हैं?
डा0 देवदास टेम्भरे - ‘दलित’ शब्द प्राचीन है किन्तु आज एक आन्दोलन है। भारत में ‘दलित’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग महात्मा ज्योतिषा फुले ने किया था। बाबा साहब डा0 भीमराव आम्बेडकर बहुत दिनों तक दलित की जगह ‘अछूत’ शब्द का ही इस्तेमाल किया करते थे। किन्तु आज दलित किसे कहा जाए और दलित कौन है परिभाषित करना थोड़ा मुश्किल काम जरूर है।
मेरी दृष्टि में दलित वे लोग हैं जो जात-पात, छुआछूत उच्च-नीच की भावना से ग्रसित है वे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिवेश में शोषित हैं। अर्थात् वे लोग जो सवर्णों द्वारा कुचले हों, मर्दित हों, जिसका मानवीय धरातल पर दलन किया गया हो, जिसे समाज में रौंदा गया हो, उसे दबाया गया हो उसे मान-सम्मान, धन-दौलत, काम-मजदूरी आदि में पनपने न दिया गया हो, उसे पल-पल अपमानित, लांछित, उपेक्षित किया गया हो, वह दलित है।
अतः दलित कौन है? दलित किसको कहना चाहिये? आदि प्रश्न हमारे मस्तिष्क पटल पर उभरकर सामने आते हैं तब ‘दलित’ शब्द को हम अपनी सुविधानुसार संकुचित एवं व्यापक दायरे से व्याख्यायित कर देते हैं। संकुचित अर्थ में ‘दलित’ वे लोग हैं जो भंगी, चमार, मांग, महार, डोम, अन्त्यज्ञ, चाण्डाल आदि जो बहिष्कृत जातियाँ हैं इन्हें उच्च वर्ग के लोग नीच समझते हैं। इन जातियों के लोग भी परम्परागत उच्च वर्ण के लोगों से स्वयं अपने आपको नीचा (तुच्छ) समझती हैं। व्यापक अर्थ में - वे लोग आते है जो खेत-मजदूर, बंधुआ-मजदूर, भूमिहीन, गरीब, बेरोजगार, महिलाएँ एवं अनाथ बच्चे ये सब किसी जाति या धर्म से सम्बद्ध हों दलित ही कहे जायेंगे। किन्तु आज के परिवेश में ये लोग वास्तविक यथार्थ से दूर हैं। क्योंकि ये सब सहानुभूति की संवेदना के पात्र होते हैं। इसके साथ जाति सूचक अपमानित करने की प्रवृत्ति नहीं होती। अतः ‘दलित’ शब्द उन लोगों के लिए रूढ़ होता गया जिन्हें पहले कभी ‘अछूत’ फिर ‘हरिजन’ (गाँधी जी के अनुसार) कहा गया। इस प्रकार डा0 अम्बेडकर ने अंग्रेजी भाषा में डिप्प्रेंस्ड एवं मराठी भाषा में बहिष्कृत तथा अस्पृश्य कहा आज वही हिन्दी में दलित है।

..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - क्या आज के दलित साहित्य के माध्यम से दलित अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है। उसकी इस वर्तमान स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है? दलितों की वास्तविक संस्कृति क्या है? आपकी दृष्टि में दलितों के पूर्वज कौन थे?
डा0 देवदास टेम्भरे - आज अलग दलित साहित्य की मांग जिस मानसिकता से उठ रही है, उसे समझने की कोशिश साहित्यकारों को करनी चाहिये। वस्तुतः ये मेरी दृष्टि से एक अलग साहित्य की मांग नहीं है, अपितु सामाजिक प्रतिष्ठा की मांग है। इसलिए दलित साहित्यकार दलित साहित्य के माध्यम से अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है, तो इसमें गलत क्या है।
दलित साहित्य की वर्तमान स्थिति के मूल में वर्ण-व्यवस्था, जाति-भेद और मानवीय शोषण की अहम भूमिका रही है। प्राचीन वर्ण-व्यवस्था से लेकर आज की वर्ग-व्यवस्था तक यदि दलित मानव इन यातना शिविरों का शिकार न हुआ होता तो दलित साहित्य आज जिस रूप में समृद्ध एवं प्रभावशाली बन पड़ा है, वह कभी नहीं बन पाता। हमें तो इन आततायियों का धन्यवाद (साहसपूर्ण) ही करना चाहिये कि ये मानव-मानव का शोषण यदि न करते तो दलित साहित्य का सृजन जो आज है इतना समृद्ध एवं विशाल है, नहीं हो पाता। मैं यह दाबे के साथ कह सकता हूँ कि दलित साहित्य वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाति और मानवीय शोषण के विरूद्ध एक साहित्यिक जनान्दोलन है। जिसके मूल में (प्रेरणा-स्रोत) क्रांतिवीर महात्मा ज्योतिषा फुले एवं क्रांतिदर्शी डा0 भीमराव अम्बेडकर ही हैं।
भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास जिस रूप में आगे बढ़ रहा था उसमें दलितों की संस्कृति एवं समाज भिन्न था। उस जमाने में दलितों को पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं थी, तो वे अपने बारे में साहित्य सृजन कैसे करते? शिक्षा और संस्कृति पर अत्यधिक बल देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - हिन्दुओं के अधःपतन का कारण शिक्षा और संस्कृत को एक वर्ण तक सीमित रखना ही है।’’ अतः इस स्थिति के लिए मनुवादी संस्कृति ही उत्तरदायी है। इसलिए दलित साहित्य के रूप में वही साहित्य मिलता है, जो दलितों के बारे में गैर-दलितों ने लिखा है। वास्तविकताओं को स्वानुभूति के अपेक्षाकृत सहानुभूति के साथ व्यक्त करना अलग बात है। क्योंकि उसमें प्रामाणिकता नहीं होती, अपितु स्वानुभूति की पुनर्रचना से उपजे साहित्य में होती है। अतः दलित साहित्य के प्रेरणा-स्रोत हमारे पूर्वज महात्मा ज्योतिषा फुले एवं डा0 अम्बेडकर जी हैं।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - आपकी दृष्टि में दलित साहित्य की सीमा क्या है? अर्थात् दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए?
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित साहित्य के भव्य भवन का शिलान्यास यद्यपि डा0 अम्बेडकर से पूर्व महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिषा फुले के साहित्य ‘गुलाम गिरी’ एवं ‘सतसार इशारा’ से हो चुका था। तथापि इस भवन को सुदृढ़ समृद्ध एवं गगनचुम्बी बनाने का कार्य डा0 अम्बेडकर के जीवन-संघर्षों के यथोचित प्रयास से ही सम्भव हो सका है।
दलित साहित्य के इस विशाल भवन की नींव में आत्मकथा या जीवनी लेखन मील का पत्थर साबित हुई। कदाचित डा0 अम्बेडकर की आत्मकथा ‘मी कसा झालो’ (मैं कैसे बना) आधुनिक काल में दलित साहित्य आन्दोलन की प्रथम रचना कही जा सकती है। इसके बाद दलित साहित्य की गूंज हीरा डोम की ‘अछूत की शिकायत’ 1914 में भी देखी जा सकती है।
निःसन्देह दलित साहित्य की उपलब्धि का भण्डार विपुल मात्रा में साहित्य की हर विधा में परिलक्षित होता है। दलित चेतना कर्म की विकास यात्रा आज जिस गति और त्वरा के साथ विकासमान है, इससे पुराने मनुवादी सामाजिक ढाँचे के साहित्यकारों को नये रास्ते तलाशने होंगे। सुप्रसिद्ध कहानीकार स्व. कमलेश्वर ने अपनी बेबाक टिप्पणी करते हुए कहा था कि 21 वीं सदी में दलित साहित्य एक बड़ी शक्ति बनकर उभरेगा। दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा0 सुमनाक्षर ने 21 वीं सदी को दलित साहित्य की सदी कहा है।
अतः 20 वीं सदी भारत में दलित चेतना (मुक्ति चेतना) की सदी रही, अब 21 वीं सदी दलित-साहित्य की ही होगी। क्योंकि दलित साहित्य जमीन से जुड़े शोषित, पीड़ित, मर्दित, उपेक्षित, लांक्षित, पद-दलित जिन्दा एवं असहाय लोगों का साहित्य है। इसके लेखन की कोई सीमा नहीं है। यह एमिल जोला, गोर्की, एच. जी. वेल्स, हेनरी मिलर, जार्ज आर्वेल की टक्कर का साहित्य है और यही साहित्य शाश्वत एवं सत्य है।
दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि में निषेध, नकार एवं विद्रोह की भावना निहित है। क्योंकि इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि में महात्मा ज्योतिषा फुले एवं डा0 अम्बेडकर के द्वारा प्रतिपादित क्रांति-दर्शन के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं पर विचार करना अत्यावश्यक है। क्योंकि फुले-अम्बेडकर दर्शन ही दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि है।
दलित-साहित्य दलित जीवन की विपदाओं का वास्तविक चित्रण है। दरिद्रता, गंदी-बस्तियां, भूख, पीड़ा, वेदना, अंधकारमय वर्तमान आदि का यथार्थ वर्णन दलित काव्य की वैचारिका है। दलित साहित्य संघर्ष को कार्यान्वित नहीं करती, फिर भी उसका गहरा सम्बन्ध परिवर्तनशीलता एवं संघर्षशीलता से ही है। दलित साहित्य का वैचारिक आधार पूर्व परम्पराओं को नकारकर नई परम्परा विकसित करना है। अतः दलित साहित्य ने अपनी वैचारिकता से यह सिद्ध कर दिया है।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब (टेम्भरे जी) दलित साहित्य की सामाजिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित साहित्य की सामाजिक पाश्र्वभूमि में समाज, सत्ता और संस्कृति की विचारोत्तेजक बहस यह बताती है कि हमारा सामाजिक अध्ययन अनुसंधान और चिंतन ‘समरथ को नहि दोष गुसाई’ के साहित्यिक दलालों पर टिका है। इनकी बगुला दृष्टि प्रवचनार्थ शास्त्र आधारित होती है, समाज-सापेक्ष नहीं। प्राचीन काल से आज तक की वर्ग-व्यवस्था तक ‘ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’ के आधार पर समाज को एक दम गायब कर वैदिक मनुवादियों ने सोपानिक और काल्पनिक चतुर्यण्र्य का शास्त्रीय समर्थन किया है। किन्तु दूसरी ओर कुछ ऐसे भी समाज शास्त्रीय चिंतक थे जिनके चिंतन के केन्द्र में शास्त्र नहीं, समाज था। सचमुच समाज शास्त्रीय अध्ययन अनुसंधान और चिंतन मूल रूप से नकलची प्रवचन कत्र्ताओं का समाजशास्त्र था। जहाँ से बहुसंख्यक, श्रमिक, उत्पादक, वर्ग, दलित, शोषित, पीड़ित एवं पिछड़ी, लिथड़ी और खिचड़ी जातियों की सामाजिक अनुभूतियों को गायब कर दिया गया। इन्हें समाज से एकदम अलग कर दिया गया। तब डा0 आम्बेडकर की चिंतन-प्रेरणा ने दलित-चिंतकों में एक चेतना जागृत हुई और विभिन्न राज्यों में समाजशास्त्रीय अध्ययन-अनुसंधान और चिंतन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया।
दलित साहित्य की सामाजिक पृष्ठभूमि विद्रोह, शोषण और विषमता के विरूद्ध उठ खड़े होने में है। वहाँ उसका नकार ‘मुझ पर जो जबरन लादा गया है’ वह उत्तम फेंक देने के लिये है - को दर्शाता है और इसी दृष्टि से दलित साहित्य की परिकल्पना करने की नितान्त जरूरत है। दलित साहित्य की समाज शास्त्रीय परिकल्पना के संबंध में मैं यह कहना चाहूँगा कि दलित समस्या आर्थिक नहीं धार्मिक और सामाजिक है। अतः भारत में सिर्फ डा0 अम्बेडकर ही प्रथम गैर-ब्राह्मण और गैर-द्विज समाजशास्त्री थे, जिन्होंने दलित समस्या को मूल रूप से ठीक से समझा था। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को एक वाहियात (बकवास) व्यवस्था माना था और इस बात पर विशेष बल दिया था कि वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन ही जाति भेद का उन्मूलन है।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - कुछ आलोचकों का मानना है कि दलित चिंतकों को इतिहास एवं साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया है, जो उनको मिलना चाहिये- (जैसे-रैदास, कबीर, बाबा साहब, जगजीवन राम) अर्थात् इन चिंतकों के साथ उपेक्षा की गई। इस बात पर अपनी टिप्पणी कीजिये?
डा0 देवदास टेम्भरे - इस फैशनपरस्ती आधुनिकता में लोकतांत्रिक विचारों, मूल्यों और समानता के अधिकारों के बावजूद जातिवाद (अर्थात् ब्राह्मणवादी समाज का) अपरिहार्य अंग बन गया है। एक बात मुझे समझ में नहीं आती कि दलितों को ही अपनी प्रतिभा के प्रामाणिक सबूत समय-समय पर क्यों देना पड़ता है। यह निर्विवाद सत्य है कि कुछ तथाकथित मनुवादी लेखकों एवं साहित्यकारों के द्वारा रैदास, कबीर, बाबा साहब आम्बेडकर एवं जगजीवन राम आदि बहुआयामी व्यक्तित्व को इतिहास एवं साहित्य में वह स्थान नहीं मिल सका, जो उनको प्राप्त था।
संत शिरोमणि रैदास (रविदास) जी अनपढ़ों से शिक्षितों तक की जरूरत बने। वे एक स्वायत्त व्यक्ति थे तो एक सामाजिक प्रवाह के प्रवक्ता भी। हिन्दी हृदय क्षेत्र से उनकी वाणी और विचारधारा दूर-दूर तक पल्लवित हुई। कबीर एवं रैदास जी ने अपनी विचारधारा से ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ को जोड़ते हुए वेदों एवं शास्त्रों को चुनौती तक दे डाली थी। रैदास जी को तो कहना पड़ा कि ‘‘चारों वेद करो खण्डौति, गुरू रविदास करो दण्डौति’’।
अंग्रेज कवि मैक्समूलर ने तो ‘वेदों को गड़ेरियों का गीत’ तक कह डाला था।
जिस भक्ति साधना के माध्यम से कबीर, रैदास जी दलित वर्गों को शामिल कर रहे थे आज के परिप्रेक्ष्य में डा0 आम्बेडकर एवं कुछ हद तक बाबू जगजीवन राम की दृष्टि से देखने की जरूरत है। अतः संत कबीर, रैदास की चिंतन-शक्ति एक जलाशय ही नहीं, बहता हुआ नीर है और उस प्रवाहमान नीर के महात्मा फुले, डा0 आम्बेडकर एवं बाबू जगजीवन राम एक स्रोत (झरना) हैं।
कबीर एवं रैदास के 600 सौ वर्षों से अधिक समय से क्या इस देश का अपने आपको सवर्ण समझने वाला साहित्यकार चमार, महार, भंगी, बाल्मीकि, पासी आदि जाति के लोगों को उनकी दयनीय मानसिकता से मुक्ति दिला सका? गाँधी जी द्वारा दिया गया ‘हरिजन’ शब्द अपनी सारी गरिमा खोकर ‘अछूत’ का पयार्यवाची मात्र बनकर नहीं रह गया? अतः रैदास, कबीरदास, बाबा साहब अम्बेडकर एवं जगजीवन राम अपने जीवन काल में कितने सार्वजनिक थे और आज की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक व्यवस्था में उनका क्या स्थान है यह किसी से छुपा नहीं है। आज हैरानी इस बात की है कि ‘‘जो कर्म द्विजों के लिए धर्म है, वही कर्म इन दलित चिंतकों के लिए पाप कैसे हो गया ?’’
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - भारत में (संसार) यह कहा जाता है कि यहाँ जाति व्यवस्था एक अभिशाप है और प्रगति में बाधक है क्योंकि यहाँ ऊपर से लेकर नीचे तक (चार्तुवण्र्य व्यवस्था) हर जाति अपने से नीचे एक और जाति खोज लेती है। इस मत से आप कितना सहमत हैं और क्यों?
डा0 देवदास टेम्भरे - भारत में जाति का श्रेणीकरण इतना अधिक है कि दलितों में महादलित कौन है? यही जाति-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) का दुष्चक्र है। जाति व्यवस्था के इतने वर्गीकरण हैं कि हर एक जाति अपने से नीचे और एक जाति खोज लेती है, जिससे वह अपनी जाति को बड़ा समझती है? अब प्रश्न यह उठता है कि महारों में कौन महार? चमारों में कौन चमार, दुसाधों में कौन दुसाध। राजपूतों में कौन राजपूत, ब्राह्मणों में कौन ब्राह्मण-कनौजिया या सरयूपारिज। जाति-व्यवस्था की यही आधारभूत खूबी है। जातिवादी व्यवस्था में दलितों को लोकतंत्र में जगह तो मिली, कुछ अधिकार भी मिले, किन्तु जाति-व्यवस्था एक सामाजिक अभिशाप है यह देश की, समाज की, मानवता की प्रगति में बाधक है। इससे स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की भावना को ठेस पहुँचती है। आज की व्यवस्था में साहित्य, समाज और राजनीति में जहर बन गई ‘जाति’ के सवाल पर डा0 आम्बेडकर के चिंतन को अलग करके नहीं समझा जा सकता ? उन्होंने लाहौर के जाति-पांत-तोड़क मण्डल’ के 1936 के सम्मेलन के लिए अपने अध्यक्षीय भाषण के लिए ‘जाति भेद का उच्छेद’ नामक भाषण लिखा था, जो नहीं पढ़ा गया क्योंकि वह सम्मेलन गाँधी जी की सहमति से रद्द कर दिया गया था। अतः स्पष्ट है कि इस देश से जब तक वर्ण-व्यवस्था कायम रहेगी, तब तक जाति भेद एवं अस्पृश्यता बनी रहेगी।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब (टेम्भरे) दलित साहित्य के निहितार्थ क्या हैं?
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित साहित्य के निहितार्थ का मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन एवं समकालीन समाज की संरचना का है। जिसका आधार स्तम्भ ‘शिक्षित बनो’ संगठित हो और संघर्ष करो’ के मूल मंत्र के साथ समता, स्वतंत्रता एवं समानता वाले बहुजन हिताय के निहितार्थ में ही दलित साहित्य का सृजन सम्भव हो सका है।
दलित साहित्य के निहितार्थ-दलित समाज जो सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से आज तक अभिशप्त है, उसे जागृत करके पुरानी परिपाटी को जो दलितों के मार्ग में बाधक है, उन्हें ध्वंस करने, प्रोत्साहित करना, भाग्य-भगवान एवं भय पर भरोसा न कर अपने दम पर आगे बढ़ना है, इसके लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने को प्रोत्साहित करना है। जन्म-मरण, ढोंग-ढकोसला, अंधविश्वास को नकारना ही दलित साहित्य के निहितार्थ हैं।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - दलित साहित्य में दलित चिंतन से सम्बन्धित मुक्ति का प्रश्न आज अपना विशिष्ट स्थान रखता है? यह दलित मुक्ति का प्रश्न क्या है?
डा0 देवदास टेम्भरे - जैसा कि भारत के प्रायः सभी लोग यह जानते हैं कि गाँधी जी अंग्रेजी दासता के विरूद्ध भारत-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे और डा0 अम्बेडकर दलित मुक्ति की। डा0 अम्बेडकर की दृष्टि में दलितों की मुक्ति का प्रश्न मानवीय अधिकारों का प्रश्न था, जिनसे वे सदियों से वंचित थे। अतः जब भारतीय हिन्दुओं को अंग्रेजी की दासता स्वीकार नहीं थी तो दलितों को हिन्दुओं की दासता कैसे स्वीकार हो सकती थी? यह सच है कि अंग्रेजी सत्ता से सभी भारतीय मुक्त होना चाहते थे, तो हिन्दुओं की सत्ता से दलित। इसी विचारधारा से दलित साहित्य में दलित चिंतन से सम्बन्धित दलित-मुक्ति का प्रश्न आज भी अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है क्योंकि दलित साहित्य आन्दोलन दलित मुक्ति आन्दोलन के अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन का साहित्यिक रूप है। अतः दलित साहित्य ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’ के सूत्र पर आधारित है। दलित वर्ग जब तक इन सूत्रों पर अमल नहीं करेगा, आत्म-सम्मानपूर्ण मुक्ति नहीं पा सकता। वैचारिक विकृतियों के कारण मानव द्वारा प्रताड़ित प्रभ्रमित एवं अधिकार वंचित मानव की मुक्ति के लिए आदिकाल से प्रज्ञाशील मानवतावादियों का संघर्ष अनवरत चलता रहा है। चार्वाक, बृहस्पति, बुद्ध, सरहपा, संत कबीर, रैदास, महात्मा फुले एवं डा0 अम्बेडकर की परम्परा आज भी गतिमान है और यही दलित मुक्ति की परम्परा दलित साहित्य की आधार शिला है।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - क्या आप यह समझते हैं कि वर्तमान में सामाजिक क्रांति के लिए दलित साहित्य की आवश्यकता है? परम्परा की इस प्रासंगिकता पर अपने विचार व्यक्त कीजिए?
डा0 देवदास टेम्भरे - आधुनिक भारत के इतिहास में सामाजिक क्रांति के सूर्य ‘राष्ट्रपिता’ ज्योतिवा फुले एवं उनके मानस शिष्य ‘भारत रत्न’ बाबा साहब डा0 आम्बेडकर के जीवन एवं जीवन-दर्शन के वैचारिक धरातल पर भारत की विभिन्न भाषाओं में सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध दलित साहित्य का सृजन हुआ। यह सत्य है कि महाराष्ट्र मे सामाजिक सुधार आन्दोलनों से ही दलित साहित्य विकसित हुआ जबकि हिन्दी में ऐसा कोई बड़ा परिवर्तनकारी आन्दोलन नहीं हुआ। साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं है, अपितु सामाजिक क्रांति के लिए युवाओं में वह जोश, उत्साह भरने का भी काम करता है जो शक्ति गोला, बारूद और बन्दूक में नहीं वह साहित्य से ही मिलती है।
हिन्दी के साहित्यकारों की एक लम्बी परम्परा साहित्य सृजन की है। जैसे प्रेमचन्द, निराला, नार्गाजुन आदि के साहित्य में वर्ग-भेद और वर्ग-संघर्ष की झलक तो यत्र-तत्र मिल जाती है, किन्तु ज्योतिषा फुले की ‘गुलाम गिरी’ और ‘सत्सार इशारा’ वाली वह सामाजिक संघर्ष चेतना नहीं मिलती है, जिसको बाद में बाबा साहब डा0 अम्बेडकर एवं पेरियार ई. वी. रामा स्वामी ने बहुत हद तक पल्लवित किया।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब वर्तमान में दलित साहित्य का समाज पर कितना असर पड़ रहा है कुछ उदाहरण एवं अनुभवों की हमारे साथ शेयर कीजिये?
डा0 देवदास टेम्भरे - आज दलित वर्गो में ‘जय राम’ के स्थान पर‘जय भीम’ एवं राष्ट्रपिता गांधी जी की जगह राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिवा फुले कहने का जो प्रचलन बड़े तेजी से एवं सम्मानपूर्ण बढ़ता जा रहा है, इसके मूल में दलित साहित्य ही तो हैं। आज दलित समाज जितना शिक्षित, जागरूक और विकसित हो सका है, उसका श्रेय न तो हिन्दू संगठनों को जाता है, न कांग्रेस को और न बामपंथियों को जाता है।, जाता है, तो यदि इसका श्रेय किसी को सिर्फ महात्मा ज्योतिवा फुले एवं बाबा साहब डा0 अम्बेडकर को ही।
दलित साहित्य का समाज पर जो गहरा प्रभाव आज परिलक्षित हो रहा है उसके कई कारण हैं। दलित-चेतना और उसके साहित्य को क्यों जन्म लेना पड़ा - इसके ऐतिहासिक कारणों को खंगालना होगा। दलित साहित्य एकाएक उठ खड़े ज्वार-भाटे का परिणाम नहीं है। यह तो सदियों से निषेध और नकार की पीड़ा का साहित्य है। अतः दलित साहित्य दलित जीवन की विषम परिस्थितियों से जूझते और टूटते मानव को आत्मबल और सम्बल प्रदान करने का साहित्य है।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - आज का दलित लेखन सवर्ण-एवं गैर सवर्ण के बीच टकराहट के दौर से गुजर रहा है। अर्थात् साहित्य में खेमें बाजी शुरू हो गई है। इसका प्रतिफल क्या हो सकता है।
डा0 देवदास टेम्भरे - पहले के तरह आज भी दलित लेखन की वही स्थिति है, जो समाज में दलित और सवर्णों की सामाजिक संरचना और भौतिक परिवेश में है। इसलिए अगर हिन्दी साहित्य में किसी दलित लेखक को वह स्थान नहीं मिल सका, जो उसे प्राप्त होना चाहिये था, दुःखद भले ही लगता है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं। साहित्य के क्षेत्र में सवर्ण लेखकों के वर्चस्व और दलित लेखकों के वर्चस्व और दलित लेखकों के लेखन से यही साबित होता है कि साहित्य में भी खेमेबाजी चर्मोत्कर्ष पर है। खेमेबाजी का ताजा उदाहरण ‘रंगभूमि’ कृति-दहन के समय हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव और भारतीय दलित साहित्य के अध्यक्ष डा0 सोहनपाल सुमनाक्षर के बीच का द्वन्द है। ऐसी अनेक खेमेबाजी हिन्दी साहित्य में देखने को मिलती है। जैसे - आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने कबीर को ‘गंवार’ कहा। प्रख्यात लेखक अज्ञेय ने’’ निराला इज डेड ’की उदघोषणा 1946 में ही की थी। रामविलास शर्मा ने यशपाल को साड़ी जंफरवादी लेखक तक कह डाला। खुशवत सिंह ने प्रेमचन्द्र के गोदान को ‘फालतू’ कह दिया। और तो और समालोचक डा0 नामवर सिंह जी ने कवि पंथ के चैथाई काव्य को ‘कूड़ा’ कह दिया।
साहित्य में इस तरह खेमेबाजी ठीक नहीं है। साहित्यिक खेमेबाजी विचार गोष्ठी या सेमिनारों में होना चाहिये जिससे दलित लेखन सवर्ण एवं गैर सवर्ण लेखन के बीच की टकराहट को आम सहमति से दूर किया जा सकता है।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - जैसा कि मुद्राराक्षस जी का कहना है कि ‘गैर दलित लेखकें को ऐसी कौन- सी जरूरत पड़ गई दलित लेखन में टाँग अड़ाने की।’ अर्थात् दलित साहित्य के लेखन में सवर्ण लेखकों का कोई सरोकार भी है या सिर्फ छपास रोग के लिये वे इस क्षेत्र में भी दो-दो हाथ करना चाहते हैं इस पर आप कहाँ तक सहमत हैं और क्यों ?
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित-लेखन और सवर्ण रचना संसार’ शीर्षक से अपने लेख में मुद्रा राक्षस जी ने यह साफ कर दिया है कि ‘सवर्ण बु़द्धजीवी की समूची करूणा में कहाँ सुराख रह जाता है और कहाँ वह अन्ततः करूणा से अधिक सामन्ती उदारता बन जाती है, यह सिर्फ दलित ही जान सकता है। आगे उन्होंने कहा है कि लोहे (जंजीर) का स्वाद उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है, लगाम के स्वाद की पहचान जितनी कसैली और घाव करने वाली घोड़े को होती है, घोड़े के सवार को नहीं। ’दलित लेखन का सच यही है, और दलित लेखन का यथार्थ भी।
गैर दलित लेखक दलित साहित्य को साहित्य मानते ही नहीं। इसका एक मात्र कारण यही हो सकता है कि गैर दलित लेखकों को दलित लेखन में अपेक्षित सफलता नहीं मिली। क्योंकि उनके पास दलित जीवन की नकार, वेदना और यातना भरे दर्द नहीं होते उनका लेखन मात्र सहानुभूतिपूर्ण होता है अनुभूतिपूर्ण नहीं। इसीलिये सवर्ण लेखकों को इस बात की खीझ होती है कि उन्हें दलित लेखन में असमर्थ क्यों माना जा रहा है। दलित लेखन वास्तविकता से दलित लेखक ही कर सकता है, सवर्ण लेखक नहीं। इस बात से उन्हें बेहद अफसोस है। यह बात नहीं कि दलितों के सम्बन्ध में सवर्ण लेखकों ने भी कलम न चलाई हो। लेकिन उनकी कलम में वह धार नहीं है जो एक दलित लेखक की कलम में होती है।
निःसंन्देह दलित साहित्य लेखन में सवर्ण साहित्यकारों का सरोकार भोगे हुए अतीत का नहीं है, अपितु अनुकम्पा से ऊपजी सहानुभूति है। ऐसा साहित्य यथा स्थितिवादी होता है, सुधारवादी नहीं। अतः गैर दलितों का रचना कर्म सतही माक्र्सवादी, जनवादी और प्रगतिशीलता से भले ही लबालब हो, किन्तु वह शत-प्रतिशत मनुवादी (बाह्मणवादी) ही होता है। जैसे-पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ मृत मनुष्यानंद (बुधुवा की बेटी) उपन्यास को डा. भवदेव पाण्डेय ने दलित चेतना का प्रथम सूर्योदय कहा है (वर्तमान साहित्य-अक्टू, 1999) रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ, भगवती चरण वर्मा का उपन्यास ‘भूले बिसरे चित्र’, भैरव प्रसाद गुप्त का सत्ती मैया का चैरा’ राम दरश मिश्र का ‘सुखता हुआ तालाब’ जगदीश चन्द्र का ‘धरती धन न अपना’, अमृत लाल नागर का ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, गिरिराज किशोर का ‘परिशिष्ट’, मधुकर सिंह का ‘जँगली सुअर’, श्रवण कुमार गोस्वामी का ‘चक्रव्यूह’ आदि रचनाएँ सवर्णवादी मानसिकता से ग्रसित हैं। इसमें दलित सहानुभूति का हौवा खड़ा कर दलितों की यथास्थितिवाद को बनाये रखा गया है।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - दलित साहित्य का स्वरूप (समीक्षा का) क्या है स्पष्ट कीजिये?
डा0 देवदास टेम्भरे - किसी भी साहित्य का स्वरूप सर्जक की प्रेरणा, प्रवृत्ति, आन्तरिक आवश्यकता से अनुभूत जीवन-संदर्भ, अभिप्रेत पाठक-वर्ग तथा उसके द्धारा अपनाई गई विद्या के ताने-बाने से निर्मित होता है। अपनी घुटन को व्यक्त करना, दलित वर्गों पर आज तक जो अन्याय हुआ, को वाणी देना; वेदना और विद्रोह के साथ प्रतिकार करना दलित साहित्य के मुख्य प्रयोजन हैं। साहित्य लेखन के प्रगतिशील आन्दोलन के कर्णधारों ने यदि अमीरी-गरीबी, शोषक-शोषित, अंधेरे-उजाले और विकास की विद्रूपताओं को शब्द देने के साथ-साथ जाति प्रथा, सवर्ण-अवर्ण और पुरोहित वर्ग द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ तेजाबी अभिव्यक्ति दी होती तो आज न केवल साहित्य बल्कि कहना चाहिये कि समाज का स्वरूप कुछ और भी होता।
..
डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - आप दलित लेखन कब से और क्यों कर रहे हैं आप अपने व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में प्रकाश डालिए। जीवन के दग्ध अनुभवों को विस्तार से बताएं। नये दलित लेखकों/चिंतकों को क्या संदेश देना चाहते हैं।
डा0 देवदास टेम्भरे - मनुष्य के विकास में उसके परिवार तथा पारिवारिक वातावरण का विशेष महत्व होता है। शैशव के दिनों की मुझे जब कभी याद आती हैं तो निश्चय ही हृदय कांप उठता है। शैशवास्था में ही पितृविहीन होने के कारण जीवन के बीहड़ अरण्य में न जाने कितनी बार मेरी मंजिल ने मेरा साथ छोड़ा होगा। परन्तु मेरे कुछ शुभ चिंतक मुझे समय-समय पर मार्गदर्शन कराते रहे। जिससे मुझे साहस मिलता गया, मुझमें आत्म शक्ति का क्रमशः विकास होता गया, जिसका वरदान मुझे एक महाविद्यालय के प्राध्यापक के लेबिल के रूप में मिला।
मेरा जन्म गाँव के एक दीन-हीन दलित (महार) परिवार में हुआ। जिन्दगी भर आत्मनिर्भर होकर गाँव से लगभग 20-25 मील दूर मामूली शहर में विश्वविद्यालयी शिक्षा। पारिवारिक स्नेह से अनभिज्ञ तथा जन्म से ही दुःखद वातावरण में रहने के कारण दुःख ने मेरे साथ छाया की तरह दोस्ती की। मैंने भी उसका सम्मान किया।
मेरी अब तक कोई किताब या रचना प्रकाशित नहीं हो सकी। इसमें मेरी लापरवाही ही कहना चाहिये। हाँ समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरे लेख (दलित-साहित्य से सम्बद्ध) अवश्य छपते रहे हैं। तथा दलित साहित्य से सम्बद्ध कुछेक राष्ट्रीय सेमिनारों में मेरी उपस्थिति अवश्य रही है।
दलित लेखन की तरफ मेरा रूझान मेरे डी. लिट् शोध से सम्बंधित है, जिसकी प्रेरणा मुझे पटना के जाने माने साहित्यकार एवं विद्वान डा0 कुमार विमल से मिली जिनके दिशा-निर्देश ने मुझे दलित लेखन की ओर प्रवृत्त किया।
वर्तमान में दलित लेखन में एक नई पीढ़ी नए सवालों के साथ दलित साहित्य को समृद्ध कर रही है। वे दलित साहित्य के साथ साहित्य में दलित आन्दोलन को भी प्रेरित कर रही है। साहित्य, समाज और राजनीति में दलितों के जो नये-नये समीकरण बन रहे हैं उससे राजनीति तो प्रभावित हो ही रही है साथ ही साथ दलित-साहित्यकार दलित साहित्य की विकास यात्रा में सामाजिक परिवर्तन की चेतना को नये सिरे से परिभाषित भी कर रहे हैं। मुझे आशा ही नहीं, प्रत्युत् विश्वास है कि नवोदित दलित साहित्यकार दलित-साहित्य-चेतना की समृद्धि के लिए कटिबद्ध होंगे। दलित साहित्य लेखन तब तक अबाधगति से जारी रहेगा जब तक भारत में दलित और सवर्ण का भेद कायम है। अतः दलित-साहित्य लेखन की सम्भावनाएँ एवं आने वाला समय काफी उज़्ज़वल है। दलित रचनाकार खूब लिखें, लिखने से ज्यादा पढ़ें और उससे भी ज्यादा चिंतन करें जिससे दलित साहित्य लेखन में गहराई, परिपक्वता आयेगी और दलित साहित्य को नये आयाम दे सकने में कारगर हो सकेंगे।

24 जून 2009

कुंवर दिनेश से डॉ0 अशोक गौतम की बातचीत


साक्षातकार
अलग पहचान वाला कवि: ‘कुँवर दिनेश’
-------------------------------------
इन दिनों कुँवर दिनेश हिमाचल प्रदेश के जाने-माने कवियों में चर्चित हस्ताक्षर हैं। ये लेखक, संपादक, समीक्षक, गीतकार एक साथ हैं। हिन्दी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान अधिकार से लिखते हैं। अंग्रेजी पत्रिका ’लिटक्रिट इंडिया’ व दुभाषिया पत्र ’हायफन’ का सम्पादन कर रहे हैं। अंग्रेजी में इनके दस कविता संग्रह व चार आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी में इनके तीन कविता संग्रह - ‘पुटभेद’, ‘कुहरा धनुष’ और ‘उदयाचल’ प्रकाशित हुए हैं। साथ ही देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएं, आलेख व समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं। समय समय पर इनका काव्य पाठ का प्रसारण दूरदर्शन से भी होता रहता है। दूरदर्शन शिमला के कार्यक्रम ‘इनसे मिलिए’ में इनसे साक्षात्कार का सीधा प्रसारण हो चुका है।
अंग्रेजी काव्य के लिए इन्हें हिमाचल प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार - 2002 से सम्मानित किया जा चुका है तथा हिन्दी काव्य पुटभेद के लिए ये आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान - 2004 से विभूषित हैं।
कुँवर दिनेश व्यवसाय से अंग्रेजी भाषा एवम् साहित्य के प्रवक्ता हैं। सम्प्रति शिमला के उत्कृष्ट शिक्षा केन्द्र, राजकीय महाविद्यालय, संजौली में कार्यरत हैं।
---------------------------------------------------
अशोक गौतम: कुँवर जी, आपने लिखना कब और कैसे शुरू किया? कविता के प्रति आप कैसे आकृष्ट हुए?
कुँवर दिनेश: मैंने लगभग तेरह वर्ष की आयु में लिखना शुरू किया था, जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था। अपनी बात कहने की, अपने विचारों व अपनी भावनाओं को दूसरों से साझा करने की इच्छा पहले से ही मेरे भीतर थी, जिसकी अभिव्यक्ति लेखन में, विशेषकर कविता के रूप में हुई।
असल में बालपन से ही कविता मेरे हृदय को छूती थी। तब भी कम से कम शब्दों में अधिक कहना - कविता की यह विशेषता मुझे अत्यधिक भाती थी। अपनी बात को अलग ढंग से कहना, कविता की सुंदर शब्दावली, लयात्मकता एवम् भाषिक कलात्मकता ने मुझे आकृष्ट किया और अनायास ही मैं कविता के प्रभाव क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ। शुरू में पाठ्यक्रम के रहस्यवादी, रोमानी व भक्ति तथा रीतिकालीन कवियों ने मुझे बेहद प्रभावित किया जिससे कविता को पढ़ने व लिखने में मेरी अभिरुचि बढ़ी और मेरी आरंभिक कविताओं की शब्दावली व शैली पर भी उनका विषेश प्रभाव रहा।
..
अशोक गौतम: आपने शुरू की कविताएं किसे सुनाईं? आपकी प्रथम प्रेरणा व प्रथम श्रोता कौन रहे? क्या आपके परिवार में कविता का माहौल था?
कुँवर दिनेश: मैं शुरू में अपनी कविताएं दूसरों को सुनाने में अधिक साहस नहीं जुटा पाता था। परिवार में भी कविता का माहौल नहीं था, न ही कविता के लिए प्रोत्साहन था क्योंकि कविता आजीविका का पर्याय नहीं बन पाती। किन्तु मुझे कविता लिखने में एक विशेष आत्मिक सुख एवम् संतुष्टि मिलती थी जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। स्कूल में अपने हिन्दी व उर्दू के अध्यापक को मैंने अपनी कुछ कविताएं सुनाईं जिन्होंने उन्हें सराहा और लिखते रहने के लिए मुझे प्रेरित व प्रोत्साहित किया। धीरे धीरे स्थानीय साहित्यिक संस्थाओं व साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित काव्य-गोष्ठियों में भी मैंने काव्य पाठ करना आरम्भ किया जिससे प्रदेश एवम् देश के अन्य भागों के प्रतिष्ठित कवियों से संपर्क होने लगा। मुझे याद है, मैं अभी दसवीं कक्षा में था जब मैंने एक संस्था के बैनर में देश के बहुचर्चित मंचीय कवि अशोक चक्रधर की अध्यक्षता में काव्य पाठ किया था।
..
अशोक गौतम: कविताओं का प्रकाशन कब और कैसे कराया?
कुँवर दिनेश: साहित्यिक गोष्ठियों में प्रतिभागिता से मेरी सृजनशीलता को स्फूर्ति मिली व मैं कविता लिखता रहा। किन्तु आधुनिक कविता के तेवर देखकर रोमानियत व परंपरा से सनी अपनी कविताओं को अस्वीकृति के भय से मैंने प्रकाशित नहीं कराया। हालांकि मैं अंग्रेजी में भी कविताएं लिखता रहा जो मेरी चैदह वर्ष की आयु से ही देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे इण्डियन एक्सप्रैस, सन, फैमिना, राष्ट्रीय सहारा, पोइट, इत्यादि में प्रकाशित होने लगीं थीं। इन कविताओं में कुछ हिन्दी कविताओं का अनुवाद भी था। अंगे्रेजी कविताओं को स्वीकृति मिलती देख मैंने पहले अंग्रेजी में कुछ काव्य-संग्रह प्रकाशित कराए ; तदनन्तर हिन्दी में 'पुटभेद' शीर्षक से प्रथम संग्रह प्रकाशित कराया जिसमें किशोरावस्था से युवावस्था तक की कविताओं का चयन किया गया था। लगभग पंद्रह वर्षों की समयावधि में लिखीं इन कविताओं की भाषिक एवम् कलात्मक विविधता को एक संग्रह में प्रस्तुत करना बहुत कठिन था; अतः मैंने इन्हें इनके विषय, शैली एवम् स्तर के आधार पर तीन भागों में व्यवस्थित किया ।
..
अशोक गौतम: क्या आप अपनी कविताओं का संशोधन/परिशोधन करते हैं? आपकी काव्य-रचना प्रक्रिया किस प्रकार की है?
कुँवर दिनेश: हाँ, मैं अपनी कविताओं को कई बार संशोधित/परिशोधित करता हूं। वांछित पर्याय प्रस्तुत करने के लिए मैं शब्दों के चुनाव एवम् संयोजन पर विशेष ध्यान देता हूं। कई बार तो कोई-कोई कविता तो महीनों तक पूरी नहीं हो पाती है। मैं कविता के स्वतः प्रस्फुटन पर निर्भर/आश्रित रहता हूं। मैं मानता हूं कि कविता 'सुखदा स्वयं आगता’ ही ठीक है।
..
अशोक गौतम: कविता के विषय कैसे चुनते हैं?
कुँवर दिनेश: जो भी विषय मुझे प्रभावित करता है, अत्यधिक चिन्तित करता है और भीतर तक झकझोर देता है, वही मेरा काव्य विषय हो जाता है और अक्सर यह सहज रूप से होता है। मैं काव्य विषय के लिए अधिक संघर्श नहीं करता। किन्तु कुछ स्थायी भाव व सरोकार हैं जिन पर मेरे काव्य विशय अनिवार्य रूप से केंद्रित रहते हैं, जिनमें प्रमुख हैं - प्रकृति, मानवता, प्रेम और सत्य।
..
अशोक गौतम: अपनी काव्य भाषा, शैली व शिल्प पर आप क्या कहना चाहेंगे?
कुँवर दिनेश: मैं नहीं जानता अपनी काव्य भाषा, शैली व शिल्प के विषय में क्या कहूं। यह काम आलोचकों का है और उन्हीं पर छोड़ देना बेहतर भी होगा। हाँ, इतना अवश्य कहूंगा कि आज के काव्य लेखन में कविताई के बजाय किसी न किसी विचारधारा विशेष प्रभाव अधिक है। मेरी कविता विचारधारात्मक नहीं है। जैसे कि मैंने पहले कहा, मैं कविता के सहज प्रस्फुटन पर अवलंबित रहता हूं। अतः जब, जैसे, जिस प्रकार कोई भाव प्रस्फुटित होता है वैसी ही कविता बन जाती है। मेरा आयास मात्र शब्दों के चयन एवम् संयोजन में रहता है। कुछ समीक्षक/आलोचक मुझे 'शब्द शिल्प का कवि’ कहते हैं तो कुछ मुझे रोमानी कहते हैं, तो कुछ आज के काव्य परिदृश्य में 'निश्चित परकोटे न बनाने वाला’ व 'किसी साँचे में न ढलने वाला’ , एक 'अलग पहचान वाला कवि’ कहते हैं। विभिन्न समीक्षकों ने मेरी कविताओं को निश्चिततः मौलिक, प्रयोगात्मक, कलात्मक वैविध्य से पूर्ण एवम् अर्थांतर-बोध की कविताएं कहा है, जिससे कहीं मैं भी सहमत हूं।
..
अशोक गौतम: वर्तमान काव्य परिदृश्य में स्वयं को किस प्रकार देखते हैं? मुख्य काव्यधारा से आप स्वयं को कैसे जोड़ते हैं?
कुँवर दिनेश: मेरी कविताएं न तो पूर्णतया रोमानी खाके में फिट होती हैं और न ही आज की अकविता के प्रचलन का साथ देती हैं। जैसा कि आज की कविता में आधुनिकतावाद के नाम पर परंपरा का विरोध, मूल्यहीनता, अपठनीयता, शुष्कता एवम् अग्राह्यता है, मेरी कविताएं आज की कविता से कुछ हटकर हैं, और परंपरा एवम् आधुनिकता, आदर्श एवम् यथार्थ तथा रोमानी एवम् नवरोमानी के मध्यमार्ग पर समन्वय व सामंजस्य प्रस्तुत करती हैं। इनमें पर्यावरण, प्रकृति एवम् मानव-जगत् के अनिवार्य अंतर्सम्बन्धों की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। मत्र्य जगत् में मानव-अस्तित्व की समस्या, वर्तमान समाज की विरूपता/विद्रूपता व मानवीय सम्बन्धों के बदलते स्वरूप मुझे भी चिन्तित करते हैं, किन्तु मेरी अभिव्यक्ति अन्य कवियों से भिन्न है व किसी विचारधारात्मक प्रभाव से अस्पृष्ट है।
जहां तक प्रश्न है कविता की मुख्यधारा का, मैं नहीं समझता आज कोई मुख्यधारा है। कविता के क्षेत्र में भी खेमेबाज़ी है, धड़ेबाज़ी है व राजनीति है। जो कवि किसी खेमे में नहीं, वह अलग-थलग है वैयक्तिकता के कोटर में पड़ा है।
..
अशोक गौतम: भारतीय काव्य शास्त्र के अलंकार एवम् रस विधान के आधार पर वर्तमान कविता पर आप क्या टिप्पणी करना चाहेंगे?
कुँवर दिनेश: अलंकार एवम् रसविधान के निकष पर वर्तमान कविता खरी नहीं उतरती। यत्र-तत्र अलंकारों के कुछ प्रयोग मिल भी जाएं, परन्तु रस की या तो शून्यता है या फिर बहुत से दोष विद्यमान हैं। यही कारण है की आज की कविता में न तो आनंद है, न हृदयग्राह्यता, न संदेष, न प्रेरणा। बहुत सी कविताएं अपठनीय व दुर्बोध हैं। आज की कविता बिम्ब-प्रधान है, गद्यात्मक है व अतिशय बौद्धिकता से पूर्ण है तथा इसका मुहावरा दुरूह, शुष्क एवम् भावशून्य है।
..
अशोक गौतम: आपकी कविताओं में मिथकों का काफी प्रयोग हुआ है ; इनकी आधुनिक प्रासंगिकता पर थोड़ा प्रकाश डालें।
कुँवर दिनेश: जी हाँ, मैंने अपनी कविताओं में कुछ कालजयी तथा जीवनोपयोगी वैदिक एवम् पौराणिक मिथकों का प्रयोग अवश्य किया है, जो वर्तमान युग की जटिलताओं, समस्याओं व परिस्थितियों से जूझने के लिए नए विकल्प सुझाते हैं, परम्परा को आधुनिकता से जोड़कर जीवन-यापन के नए संदर्भ प्रस्तुत करते हैं तथा आज के युग में दुर्बोध से सुबोध, अनिर्णय से निर्णय व अविश्वास से विश्वास की ओर ले जाने का कार्य करते हैं।
..
अशोक गौतम: आपकी कविताओं में नगरीय संवेदना किस प्रकार मुखरित हुई है?
कुँवर दिनेश: बढ़ते शहरीकरण एवम् भूमण्डलीकरण से हमारे समाज में सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं जो अक्सर चिंतित करते हैं। अत्यधिक भौतिकततावाद, मूल्यह्रास, स्वार्थपरता, उपयोगितावाद, यांत्रिकता, एकाकीपन एवम् अन्तरद्वन्द्व भरी नगरीय संवेदना के प्रमुख घटक हैं जो विविध बिम्बों एवम् रूपकों में मेरी कविता में अभिव्यक्त हुए हैं। काव्य में बढ़ती बौद्धिकता एवम् वैचारिकता भी नगरीय जीवन शैली की परिचायक हैं।
..
अशोक गौतम: कुँवर जी, आप हिन्दी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं। दो अलग भाषाओं के प्रयोग में आपका अनुभव अथवा अनुभूति किस प्रकार की है?
कुँवर दिनेश: मैं अंग्रेजी व हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखता हूं और सहजतः लिखता हूं। भाषा का प्रयोग विचारों, मनोभावों व भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है। मैं किसी भाव या विचार को जिस भाषा की शब्दावली व मुहावरे में सहजता से और सुंदर ढंग से प्रस्तुत कर सकता हूं, उसी भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लेता हूं। प्रत्येक भाषा के सृजनात्मक प्रयोग में एक अलग कलात्मक परितोष का अनुभव तथा विशेष आनंद एवम् संतोष की अनुभूति होती है।
---------------------------------
डा0 अशोक गौतम
गौतम निवास,
अप्पर सेरी रोड, गलानग,
सोलन-173212 हि.प्र.

23 जून 2009

डॉ0 अनिल चड्डा का बाल गीत - मेरे नाना

डॉ० अनिल चड्डा का जीवन परिचय
-----------------------------------

मेरे नाना, मेरे नाना,
जब मैं तुम से कहता हूँ कि,
अच्छी सी तुम टाफी लाना,
कहते हो क्यों ना, ना, ना, ना !
रोज सुबह जब उठता हूँ तो,
दाँत माँजने को हो बुलाते,
प्यार से फिर तुम गोद में ले कर,
मुझको हो तुम दूध पिलाते,
ना-नुकर जब करता हूँ,
लाली-पाप हो मुझे दिखाते,
वैसे ग़र मैं माँगू टाफी,
करते हो तुम ना, ना, ना, ना ,
ऐसा क्यों करते हो नाना !
सुनो ऐ मेरे प्यारे बच्चे,
तुम हो अभी अक्ल के कच्चे,
ढेर-ढेर सी टाफी खा कर,
दाँत तुम्हारे होंगें कच्चे,
ग़र टाफी ज्यादा खाओगे,
मोती-से दाँत सड़ाओगे,
चबा-चबा कर फिर ये बोलो,
खाना कैसे खाओगे?
तभी तो कहता मैं हूँ तुमको,
कम से कम टाफी तुम खाना,
नुक्सान नहीं दाँतों को पहुँचाना,
नाना की तुम बात को मानो,
टाफी तुम ज्यादा न खाना,
टाफी तुम्हे तभी मिलेगी,
बोलो जब तुम हाँ, हाँ, नाना ।
-------------
डा0अनिल चड्डा
http://anilchadah.blogspot.com

http://anubhutiyan.blogspot.com

डॉ0 योगेन्द्र मणि का व्यंग्य - नारी बिल पर आरी


एक जमाना था कि महिलाऐ चार दीवारी में कैद हो कर रह जाती थी । हालाँकि हमारे देश में नारियां सदैव से ही पूजनीय रही है। आप कहेंगे कि पूजनीय तो हमारे सभी देवी-देवता हैं लेकिन हम हमेशा उन्हें मन्दिर की चार दीवारी में ही कैद करके रखते हैं।आपकी बात भी सही है ,नारी भी तो देवी का दर्जा प्राप्त है .....?फिर भी पुरुष के आगे नारी की एक नहीं चलती है। और भला चले भी क्यों......चल गई तो हम पुरुष क्या करेगें ..?

लेकिन आज उसी पुरुष प्रधानता पर ग्रहण लगने का खतरा देख कुछ लोगों का पेट दुखने लगा है। तभी तो संसद में महिला आरक्षण बिल आज तक पास नहीं हो सका। जब भी कोई कोशिश हुई तो तुरन्त ही कोई भी दल या नेता टांग अडाने के लिऐ तैयार ही मिल जाता है और महिला आरक्षण हर बार खट्टे अंगूर की तरह बन कर ही रह जाता है।

अब तो हमारे देश की प्रथम नागरिक महिला,लोकसभा की अध्यक्ष महिला, इसके साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से सरकार की नकेल भी एक महिला के हाथों में है जो पर्दे के पीछे से ही सही आखिर सरकार में सबसे मजबूत हस्ति है। ऐसे में पुरुषों को महिला आरक्षण का सपना देख कर ही भरी गरमी में भी पसीने छूटने लगते हैं । तभी तो महिला आरक्षण बिल का नाम आते ही शरद यादव ने सुकरात की तरह जहर पीने तक धमकी दे डाली ।

उन्होंने सोच था कि पुरुषों की जमात उनके सुर में सुर मिलाते हुऐ उनके पीछे आ खडी होगी लेकिन जब उन्होंने पीछे मुडकर देखा तो मैदान ही खाली पडा था । कोई भी उनके शहीदी कार्यक्रम में शामिल होने के लिऐ तैयार ही नहीं हुआ। आखिर सभी को दोबारा भी महिलाओं से वोट लेने हैं।अब बेचारे यादव साहब भी क्या करते शुद्ध नेता की तरह फौरन ही बयान से पलट गये कि मेरा मतलब यह नहीं वह था....... महिलाओं को ऐसे नहीं वैसे आरक्षण देना चाहिऐ.......?आखिर नेता जो ठहरे वैसे भी आजकल सभी जानते है कि ये कब क्या कहकर मुकर जाऐं कुछ पता नहीं.........?अब कहते हैं कि महिलाओं को भी जाति के हिसाब से बाटा जाऐ.... समुदायों में बांटा जाऐ तब हो आरक्षण.......!

अब इन नेताओं को न जाने भगवान कब सद बुद्धी देगा.... जब भी समाज जाति- समुदाय भूलना चाहती है तभी ये लोग उन्हें अहसास कराने के लिऐ तुरन्त प्रकट हो जाते हैं ताकि जनता याद रहे कि वह किस जाति और समाज या समुदाय से है । नेता जी को चिन्ता रहती है कि यदि आम आदमी को यह समझ में आ जाऐगी कि वह भारतीय है तो इनका तो सारा खेल ही खराब हो जाऐगा ।

वैसे भी इनकी आदत है कि हमेशा कुछ न कुछ तो मामला लटका ही रहना चाहिऐ ताकि नेता जी की दुकानदारी चलती रहे और कुछ कहने के लिऐ भी मसाला मिलता रहे....।यदि सारी समस्याऐ एक बर में हल होने लगी तो भला बाद में नेता जी क्या करेगें.......?इसलिऐ जरूरी है समस्या जहाँ की तहाँ बनी रहे ताकि उन्हें भी कुछ काम मिलता रहे ।क्योंकि किसी को सुकरात बनना है तो किसी को गाँधी बनना है....अब कौन क्या बन पाऐगा यह तो वक्त ही बताऐगा फिलहाल तो यदि कोई सही मायने में कुछ प्रतिशत इन्सान ही बन जाऐ तो वही काफी होगा.......!

डॉ0 योगेन्द्र मणि

14 जून 2009

डॉ0 योगेन्द्र मणि का व्यंग्य - सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण

-अजी सुनते हो.......! सुबह-सुबह चाय के कप से भी पहले श्रीमती जी की मधुर वाणी हमारे कानों में पडते ही हम समझ जाते हैं कि आज जरूर कोई नई रामायण में महाभारत होने होने वाली है। आप सोचते होगें कि अजीब प्राणी है । भला रामायण में महाभारत की क्या तुक है। दोनों का एक दूसरे के साथ भला क्या तालमेल....?लेकिन बन्धु ऐसा ही होता है शादी-शुदा जिन्दगी में सब कुछ संभव है।जब मेरे जैसे भले जीव के साथ हमारी श्रीमती जी का निर्वाह संभव हो सकता है तो समझ लीजिऐ कि रामायण में महाभारत भी हो सकती है। श्रीमती की वाणी से वैसे ही हमारे कान ही क्या रौंगटे तक खडे हो जाते हैं।
हम तपाक से बोले -‘-बेगम तुम्हें तो मालूम ही है कि हम जब भी सुनते हैं तो केवल तुम्हारी ही सुनते हैं वर्ना किसी की क्या मजाल कि हमें कूछ भी सुना सके.........?’
--सुनोगे क्यॊं नहीं भला......? हजार बार सुनना पडेगा..... अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते.......!
--भागवान हम तो पहले ही तु्म्हारे समने हथियार डाले खडे हैं फिर भला किस बात का झगडा......?
-झगडा कर भी कैसे सकते हैं आप......?
-क्यों झगडा करने पर क्या सरकार ने टेक्स लगा दिया है या फिर संविधन में कोई संशोधन लागू हो गय है जिससे मर्दों की बोलती बन्द हो गई है...?
-ये पढिये अखबार... सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने कहा है कि यदि शांति चहते हो तो धर्म पत्नी की बात माननी होगी....!
-इसमें भला नई बात क्या हुई......? हर कोई समझदार पुरुष जानता है कि गृह शान्ती के लिऐ गृहमंत्राणी को प्रसन्न रखन जरूरी है । समझदार मर्द की बस यही तो एक मात्र मजबूरी है । और पत्नी है कि पुरुष की समझदरी को कमजोरी समझकर भुनाने लगती है .।शादी के समय पंडित जी भी बेचारे पुरुष को सात बचनों में इस तरह बांध देते हैं कि यदि पुरुष को वे वचन याद रह जाऐं तो आधा तो बेचारा वैसे ही घुट-घुट कर बीमार हो जाऐ । आजादी से सांसे लेने पर भी बेचारे के पहरे लग जाते है।इसीलिऐ हमारे जैसे बुद्धीमान लोग ऐसी दुर्घटनाओं को याद ही नहीं रखते। शायद इसीलिऐ अभी तक श्रीमती के साथ रहते हुऐ भी सभी बीमरियों से मुक्त हैं और शत-प्रतिशत स्वस्थ्य हैं ।अब आप ही बताऐं कि भला सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को सरे आम ऐसी नाजुक बाते कहने कि क्या जरूरत थी....? उन्हें मालूम होना चहिऐ कि आजकल ऐसी खबरें महिलओं तक जल्दी पहुंचती है ।क्योंकि साक्षारता का प्रतिशत भी तो काफी बढ गया है। वसे भी सुप्रीमो को भल किसी कोर्ट के संरक्षण की क्या जरुरत ......संरक्षण तो हम जैसे निरीह प्राणियों को चाहिऐ........?अब आगे -आगे देखिये होता है ,
न्याय उनका हो गया रोता है क्या ॥डॉ.योगेन्द्र मणि

डॉ0 अनिल चड्डा के दोहे

आज भावना देश में, बिके कोड़ियों मोल,
द्वेष मिले हर वेश में, चाहे जितना तोल !

मर जायेगा खोज के, अपना नाही कोय,
पेट भरन को आपना, नोचेंगें सब तोय !

सुन ले प्यासे की कुआँ, ऐसी नाही रीत,
पानी का भी मोल है, सीख सके तो सीख !

चौराहे पर मैं खड़ा , सोचुँ कित को जाऊँ,
पकड़ूँ जिसका हाथ भी, असत ही मैं पाऊँ !

जीने की क्या बात है, चाहे जिस तरह जी,
विष पर भ्रष्टाचार का, अमृत मान और पी !

------------------------------------

अपनी-अपनी सोच है, अपने-अपने मूल्य,
पाप-पुण्य कुछ भी नहीं, अंत में सब कुछ शून्य !

अपना-अपना भाग है, अपने-अपने करम,
धर्म के ठेकेदार भी, करते देखे अधर्म !

करके पूजा-पाठ ही, जीवन दें बिताये,
ईश्वर की इसी सृष्टि को, दे मान नहीं पाये !

अपने-अपने स्वार्थ को, जीते सारे लोग,
छुरा पीठ में घोंपना, सबके मन का रोग !

जीना है तो सीख ले, तू भी करना घात,
वरना तू हर मोड़ पर, पायेगा बस मात !

----------------------------------
डा0अनिल चड्डा

http://anilchadah.blogspot.com
http://anubhutiyan.blogspot.com

11 जून 2009

शब्दकार का प्रकाशन होता रहेगा, कृपया रचनाएँ भेजें

प्रिय साथियो,
नमस्कार
इधर कुछ दिनों से शब्दकार का प्रकाशन ठप्प हो गया है। इसके पीछे दो-तीन कारण मुख्य रहे हैं। एक तो हम अपनी व्यस्तता से परेशान रहे। ज्यादातर तो घर से बाहर ही रहना पड़ा। इस कारण से शब्दकार की सामग्री साथ न होने से प्रकाशन का कार्य रुक सा गया है।
इसके अतिरिक्त एक दूसरा कारण रचनाओं का नियमित रूप से न मिल पाना भी रहा है। रचनायें लगातार प्राप्त न होने से भी शब्दकार के प्रकाशन में समस्या आ रही है।
इस सबके कारण एकबारगी लगा कि शब्दकार के संचालन का कार्य कुछ दिनों स्थगित ही रखा जाये। कुछ साथियों की रचनायें निरन्तर नियमित रूप से प्राप्त हो रहीं हैं। निश्चय ही उन्हें शब्दकार के प्रकाशन न होने पर कुछ संदेह हो रहा होगा। उनका संदेह इस बात के लिए तो सत्य हो सकता है कि शब्दकार का प्रकाशन समय से नहीं हो रहा है पर वे इस से निश्चिन्त रहें कि शब्दकार का संचालन बन्द हो जायेगा।
शब्दकार स्वयं अपने शौक और आपके सहयोग से प्रारम्भ किया है। हो सकता है कि शब्दकार का प्रकाशन कुछ समय के लिए और टले किन्तु प्रकाशन होगा और होता रहेगा। इसके बन्द होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। (कुछ साथियों ने अपनी मेल के द्वारा ऐसी शंका जताई है।)
एक विचार शब्दकार के नियमित प्रकाशन से इतर साप्ताहिक करने का है। हमारी भागदौड़ अभी बराबर रहनी है। इस कारण से पुनः प्रकाशन सम्बन्धी समस्या आने की सम्भावना है। यदि सब ठीक-ठाक रहा तो अगले रविवार 14 जून से शब्दकार का प्रकाशन साप्ताहिक रूप में किया जायेगा।
आशा है कि आप सबका सहयोग पहले की भाँति प्राप्त होता रहेगा।


आपकी रचनाओं का भी इन्तजार है।