31 अगस्त 2009

" निबंध प्रतियोगिता सूचना " हिन्दी दिवस पर लिखें निबंध और जीतें ५०० के इनाम

हिन्दी साहित्य मंच हिन्दी साहित्य को बढ़ावा देने हतु नियमित अन्तराल पर कविता प्रतियोगिता का आयोजन करता रहा है । हिन्दी साहित्य मंच इस बार हिन्दी दिवस को ध्यान में रखते हुए एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है । निबंध प्रतियोगिता का विषय है - " हिन्दी साहित्य का बचाव कैसे ? " । निबंध ५०० से अधिक शब्दों का नहीं होना चाहिए । हिन्दी फाण्ट यूनिकोड या क्रूर्तिदेव में ही होना चाहिए अन्यथा स्वीकार नहीं किया जायेगा । निबंध प्रतियोगिता हेतु आप अपनी प्रविष्टियां इस अंतरजाल पते पर भेंजें- hindisahityamanch@gmail.com. प्रतियोगिता की अन्तिम तिथि है १३ सितंबर निर्धारित है । इसके बाद की प्रविष्टियां नहीं स्वीकार होगी । प्रतिभागी अपना स्थायी पता और संपर्क सूत्र अवश्य ही दें । विजताओं की घोषणा १४ सितंबर की शाम को की जायेगी । विजेता को एक प्रशस्ति पत्र और ५००, ३०० और २०० का इनाम दिया जायेगा । संचालक ( हिन्दी साहित्य मंच )

कविता - एड्स


एड्स रोग दुखदाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ

1. पति-पत्नि कौ प्रेम अनौखौ, दूजौ साथी कबहुँ न सोचैं
यौ रोग बड़ौ हरजाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ
एड़स रोग दुखदाई .....................................

2. संक्रमित सुई से बचखैं रहनै, हमखें एड्स घरै नई ल्यानै।
घर-घर देव बताई, जागौ रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ
एड़स रोग दुखदाई .....................................

3. खून खरीदौ जाँचो परखो, ई में आलस तनक न करियो
दूर एड्स की माई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ,
एड़स रोग दुखदाई .....................................

4. देर करैं कौ मौका नइयाँ, स्याने बनौ छाँड़ लरकइयाँ
‘पाल’ कहै समझाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ

एड्स रोग दुखदाई, जागो रे मेरे भाई
यौ जीवन सोने सौ

28 अगस्त 2009

कहानी - तसल्ली

भादों का महीना, महीने का आखिरी पखवारा। आसमान एकदम साफ एवं बेदाग दिख रहा था। आकाश के तारे अमावस्या के वैभव को पुनः प्राप्त करने के इरादे से टिमटिमा रहे थे। किन्तु चन्द्रमा के तीन चैथाई भाग की चमक उनके इरादों को धूमिल कर रहा था। प्रति रात्रि उसके बढ़ते यौवन से वे अपना पुरुषार्थ खोते जा रहे थे किन्तु तारे अपने कर्म से विरत नहीं हो रहे थे। उन्हें सफलता का रहस्य मालूम है। कर्मरत रहने पर उन्हें सफलताभरी अमावस्या जरूर प्राप्त होगी। चन्द्रमा पूर्णिमा की मंजिल के करीब ही था। नदी किनारे बैठी चकोरी अपने पे्रमी के सौन्दर्य पर मुग्ध हो रही थी, साथ ही सौतन कुमुदनी से ईष्र्या भाव लिये चन्द्रमा को एकटक देख रही थी। किसानों को उसका वैभव फूटी आँख भी न सुहाता था। भाद्रपद मास का श्रृगार तो रिमझिम-रिमझिम फुहार है। बादलों के साम्राज्य के आगे चन्द्रमा की क्या बिसात? लेकिन अब तो घोड़ों के मरने से गधों का राज्य आ गया है।
सुहना अपने बाड़े में चारपाई डाले चन्द्रमा को देख रहा था। चन्द्रमा की शीतल किरणें उसे दग्ध रही थी वैसे ही, घटई-बढ़ई विरहिनि दुखदाई।’ दिन में तो बादल आकाश में छा जाते थे। लेकिन रात में न जाने कहाँ गायब हो जाते थे? दिन में बादलों को देखकर वह कितना खुश होता किन्तु रात में उनको न पाकर उसकी पीड़ा उमड़ पड़ती थी। कृष्ण जन्माष्टमी की रात कुछ रिमझिम पानी बरसा था पर अष्टमी के बाद धरती पर एक बूंद भी न गिरी। वर्षा की आस में सुहना कभी गोटें गाता तो कभी ठुमरी। अब लगता है गोटें और ठुमरी भी घायल होकर उसके हृदय में कहीं छिपकर बैठ गयी हैं।
सुहना का बाड़ा उसके रिहायसी घर से करीब एक फर्लांग दूर था। अपने हाथों बनाये हुये घर में वह करीब पांच साल से नहीं लेटा है। जब से बहू आई तब से उसने वह घर पूरी तरह से छोड़ ही दिया था। केवल सुबह शाम खाना खाने जाता था। भला अपने परिश्रम से बनाये हुये घर का मोह इतनी आसानी से कैसे छूट सकता है।
सुहना की पत्नी गोरी बाई ने बाड़े का ट्टटर खोला। ट्टटर के खुलने की आवाज से सुहना की दृष्टि उस तरफ गयी। उसने गोरी बाई को देखा। चन्द्रमा के प्रकाश में उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा था। सुहना ने लेटे ही लेट कहा‘ ‘कौन?’ गोरीबाई ने ट्टटर को बाँधते हुये कहा- ‘मैं हूँ।’ टट्टर को अच्छी तरह बाँध देना। छूटे हुये जानवर बाड़े में घुस आते हैं और भैंसों की सानी खा जाते हैं, भैसों को भी मारते हैं। कल भूरी भैंस खूँटा उखाड़कर भाग खड़ी हुई थी।
गोरीबाई ने गगरी को उठाया और वहीं पर हैण्डपम्प में उसे धोया। पानी भरकर गगरी सुहना की चारपाई के नीचे रख दी। लुटिया भर कर सुहना को पकड़ा दी। गगरी को ढक्कन से ढक दिया। गोरीबाई पानी देकर नीचे बैठने लगी तो सुहना उसे डपटते हुये बोला- ‘नीचे न बैठ, कीड़ा मकोड़ा काट लेगा तो आफत हो जायेगी।’
‘ऐसे नहीं काटते हैं।’ इतना कहते हुये वह वहीं पड़ी हुई ईट पर बैठ गयी।
हाँ, तुझे बताकर आयेगा कि मैं तुझे काटता हूँ। चारपाई पर बैठने में शर्म लगती है क्या?’
‘बादल तो दिखते नही हैं?’ गोरीबाई अनसुनी करके बोली।
‘तेरी ये बहुत बुरी आदत है, किसी की बात ही नहीं मानती है। कोई कुछ कह रहा है’?
बरबस गोरीबाई को चारपाई पर बैठना पड़ा। सुहना चारपाई के एक तरफ खिसक गया।
‘ज्वार की पत्तियां सूखकर बत्ती बनती जा रही हैं, अब तो खेतों की तरफ देखा नही जाता है।’ गोरीबाई ने एक गहरी सांस ली।
क्या किया जाये? अपने बस की तो बात है नहीं।’ सुहना के मुख से पके फोड़े जैसी कराह निकली।
‘ढिल्लन सुबह कह रहा था किसी प्रदेश में फसलें नष्ट हो जाने से किसानों ने आत्म हत्या कर ली है। कहता था ये बातें अखबार में छपी हैं।’ गोरीबाई ने अपने पुत्र द्वारा दी जानकारी सुहना को बताई।
‘खूब मर जायें, मैं क्या कर दूँ। साल हारी, जनम नहीं हारा। इस वर्ष न सही अगली साल फसल अच्छी होगी।’ सुहना तल्ख स्वर में बोला।
‘जिन्दगी संग्राम है, लड़ना तो पड़ेगा ही। आत्महत्या का क्या औचित्य है?’
‘तू क्या चाहती है, मैं भी आत्म हत्या कर लूँ?’ सुहना उबल पड़ा।
‘मुंह से कभी सीधी बात नहीं निकलती है। जिन्दगी गुजर गयी ऐसे ही उल्टी बाते सुनते-सुनते।’ गोरीबाई खीझ गयी।
‘तुझे कहने के लिये और बातें नहीं आती है क्या? सुहना बिगड़कर बोला- ‘मुझे दिखाई नहीं देता है क्या कि बादलों का नामोनिशान नहीं है। पानी कहाँ से बरसेगा।’
‘समुन्दर सूख गया क्या? कहते हैं समुन्दर का पानी ही बादल बनकर आता है।’
गोरीबाई ने नरमी के साथ अपने थोड़े बहुत ज्ञान का परिचय दिया।
‘हाँ समुन्दर सूख गये हैं। पकी फसल जब खड़ी होती है तब समुन्दर उमड़ाने लगता है- खूब वारिश होती है। पिछले वर्ष नहीं देखा था?
गोरीबाई सोच रही थी कि ईश्वर ने सारी मर्द जाति को उल्टा बनाया है क्या? इनसे सीधे बात करो तो उल्टे बोलेगें, बादलों की बात करें तो वह भी उल्टा है- बेमौसम बरसात कर देता है, किसानों को मारे डालता है।
‘कुँवर ब्लाक से लौट आये या नहीं’। सुहना के स्वर में व्यंग्य के साथ तल्खी भी थी।
‘आ जायेगा, अभी रात के नौ ही तो बजे हैं।’ गोरीबाई ने लापरवाही से बताया।
‘मैने सौ बार रोक दिया है कि पानी बरस नहीं रहा है, खाद बीज लेकर क्या करेगा? लेकिन वह सुनता ही कहाँ है? दोस्तो के साथ गया होगा तो पीकर भी आयेगा। उसकी कोई दर नहीं है।
‘वो पीता कहाँ है? आप तो लड़के को लगाये रहते हो।’ गोरीबाई ने झूठा गुस्सा प्रकट किया।
‘तू मुझे बौरया मत, मैं सब जानता हूँ।’ सुहना चेतावनी भरे लहजे में बोला- ‘तू छिपाती रह, एक दिन यह लड़का पुरखों की जायदाद दारु में उड़ा देगा।’
‘उसे दिखाई नहीं देता है क्या, वह भी अपना अच्छा बुरा समझता है।’ गोरीबाई हार नहीं मान रही थी।
उसे दिखाई देता है या नहीं किन्तु तुझे बिल्कुल दिखाई नहीं देता।’ सुहना चारपाई से उठ बैठा- ‘उसे समझा देना, मुझे पिये हुये मिल गया तो एक लट्ठ में सीधा कर दूँगा। अगर तू बीच में आई तो तुझे भी नहीं छोड़ूँगा।
गोरीबाई चुप हो गयी। वह कैसे समझाये कि लड़का बराबरी का है। कुछ कर बैठे तो हम कहाँ जायेगें। इसे कुछ समझ में ही नहीं आता है।
गोरीबाई ने सुहना को पीने को पानी दिया। उसने पानी पीकर लुटिया गोरीबाई को थमा दी और कहा- ‘घर जा, बहू अकेली है।’
गोरीबाई खड़ी हो गयी और जहाँ भैंसे बंधी थी, वहाँ पहुँच गयी। नांदों की सानी को उल्टा पल्टा कर भैसों की पीठ पर हाथ फिराकर पुचकारने लगी। भैंसें भी आत्मीयता पाकर उसे सूँघने लगीं। भूरी भैंस ने सिर उठाया और गोरीबाई के शरीर से रगड़ने लगी। उसने भैंस की गर्दन पर हाथ फिराया और घर को लौट गयी। सुहना ट्टटर तक उसके साथ आया। गोरीबाई के निकल जाने पर उसने ट्टटर अच्छी तरह से बाँध दिया।
मुरगा ने बाँग देकर सुबह चार बजे का ऐलान किया। गोरीबाई ने बिस्तर छोड़ दिया। हाथ मुँह धोया और दूध दुहने वाले बर्तन उठाकर बाड़े में पहुँच गयी। सुहना ने जागकर टट्टर खोल दिया था। गोरीबाई ने अट्टालिका से भूसा निकाला और जानवरों के लिये भूसे की सानी बनाई। सुहना ने जानवरों की नादों में सानी डाल दी। भैसे उठकर सानी खाने लगी। गोरीबाई ने भैंसों का गोबर उठाकर एक तरफ इकट्ठा डालकर उस स्थान की सफाई कर दी। सुहना भैसें, दुहने लगा। अब सुबह के छैः बज चुके थे। ढिल्लन भी बाड़े में आ गया था।
ढ़िल्लन, सुहना एवं गोरीबाई का इकलौता पुत्र हैं उसकी शिक्षा इण्टरमीडिएट तक है। वह आधुनिक तरीके से खेती करने में अपने पिता के साथ हाथ बँटाता है। कृषि यंत्र भी उसके आधुनिक है फिर भी प्राकृतिक प्रकोप तथा पानी का उचित प्रबन्ध न होने के कारण पैदावार उतनी नहीं हो पाती है, जितनी होनी चाहिये। यद्यपि गाँव में टी0वी0, रेडियो, सी0डी0 प्लेयर आदि मनोरंजन एवं ज्ञान बढ़ाने वाले साधन हैं। किन्तु बिजली कम आने से टी0वी0 का कार्यक्रम लोग कम देख पाते हैं। ये लोग फिल्मों के हीरो-हीरोइन, क्रिकेट खिलाड़ी एवं टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा के बारे में अच्छी जानकारी रखते हैं। कोई न कोई खिलाड़ी उनका आदर्श भी है। प्रत्येक मुहल्ले की अपनी अलग-अलग क्रिकेट टीम है। ढ़िल्लन अपनी क्रिकेट टीम का कप्तान है। उसकी बैटिंग एवं बालिंग दोनों अच्छी है। इसके साथ ही वे अपनी ग्राम संस्कृति को अपनाये हुये हैं। पाप सिंगरों को भी ये विशेष महत्व देते हैं।
सुहना ने ढ़िल्लन को देख लिया था। उसने पूछा- ‘खाद, बीज ब्लाक में आ गये या नहीं।’
‘अभी नहीं आये हैं, शायद अगले हफ्ते तक आ जायेगें।’ ढिल्लन ने संक्षिप्त एवं धीमे स्वर में जवाब दिया।
बाड़े के गेट से बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। सुहना ने बच्चे को देखा और दौड़कर उसके पास पहुंच गया। वह तीन वर्षीय सुहना का पोता छोटू था। उसके पैर में काँटा चुभा हुआ था। सुहना ने उसके पैर का काँटा निकाला और गोद में उठा लिया। छोटू की नाक बह आई थी, सुहना ने अपने सिर के अंगोछे से नाक पौंछी और बाड़े में बिछी हुई चारपाई पर खड़ा कर दिया। सुहना गोरीबाई की तरफ मुँह करके बोला- ‘बहू लाहर कमा रही है क्या, छोटू को ऐसे ही छोड़ दिया?
‘वो काम कर रही होगी, तभी यह निकल आया होगा।’ गोरीबाई ने उपले पाथते हुये कहा।
सुहना छोटू से बहुत प्यार करता था। वह उसे कंधे पर बिठाये पूरे गाँव में घुमाता था। किन्तु बहू और बेटे से कभी सीधे मुँह बात नहीं करता था। यह बात नहीं थी कि वह उन्हें प्यार नहीं करता था। सामने प्यार जताने पर लड़का बिगड़ सकता है। शायद यह उसका दर्शन था।
अब तक जानवर सानी खा चुके थे। सुहना ने जानवरों को प्यासा जानकर ढिल्लन से अपने स्वभानुरूप कहा- चल रे! हैण्डपम्प चला दे, मैं भैसों को पानी पिला दूँ।
ढिल्लन तो अपने पिता के स्वभाव से पूर्ण परिचित था ही। उसके मित्रों ने उससे कई बार कहा- ‘यार तुम्हारा नन्ना तुमसे हमेशा खुन्नश क्यों खाये रहता है?’’ इस पर ढिल्लन कहता यदि नन्ना इतने कड़क न हों तो मैं और बिगड़ जाऊँ। मित्रों को भी यह बात अब समझ में आने लगी थी।
ढिल्लन हैण्डपम्प चलाने लगा। सुहना एक-एक बाल्टी उठाकर जानवरों के आगे रख देता। एक घण्टे के कठिन परिश्रम से भैंसें पानी पीकर तृप्त हो गयीं। बचा हुआ पानी सुहना ने भैंसों की पीठ पर डाल दिया।
ढिल्लन भी अब नहा लेना चाहता था। वह पानी की बाल्टी भरकर बाथरूम में ले गया। उसने कपड़े उतार कर वहीं चारपाई पर रख दिये। नहाकर वह घर चला गया।
दस पन्द्रह लड़के सुहना के बाड़े में आये। सभी ने सुहना से राम-राम की। सुहना ने कड़क कर पूछा- ‘‘कैसे?’’
‘नन्ना हम सबने विचार किया है कि देवताओं के स्थान पर कीर्तन बैठा दी जाये तो पानी जरूर बरसेगा।’ उनमें से एक लड़के ने अपनी कार्य योजना सुनाई।
‘हां-हां, तेरा बाप भी भूत-भुतनियों को अण्डा मुर्गा देते -देते पचासा पार नहीं कर पाया और मर गया। अब उसकी जिम्मेदारी तू निभाने लगा है।’ सुहना ने व्यंग्य किया।
लड़कों को इन बातों का बुरा नहीं लगा। क्योंकि वे सुहना के विचारों से परिचित थे। वे तो यह सोचकर ही आये थे कि सुहना नन्ना के पास जायेगें तो भोग तो सुनने पड़ेगे। किन्तु दान देने में पीछे नहीं हटेंगें।
‘नन्ना देवता सच्चे हैं हमारी प्रार्थना जरूर सुनेगें।’ उनमें से दूसरा बोला।
‘काहे को चक्कर में पड़े हो रे! पथरा पूजने से कही पानी बरसता है। इतना दमखम हैं तो सरकार से कहो कि यहाँ की जर्जर नहर लाइनों को ठीक करवायें और टेल तक पानी पहुंचायें, तभी कल्याण होगा बरना पुरखा मर गये पत्थर पूजते-पूजते तुम भी मर जाओगे।’
‘आज तो नहर का जीर्णोद्वार हो नहीं पायेगा नन्ना! इसलिये आप हमें चन्दा दे दो, हम देवताओं की पूजा एवं कन्या भोज करके पानी बरसायेगें।
‘सुन’ सुहना अपनी पत्नी गोरीबाई की तरफ मुखातिब होते हुये बोला‘ ‘इन्हें चन्दा दे देना। ये ससुरा कन्या भोज करें या मुरगा दारू?’
‘भैया, थोड़ी देर बाद घर आ जाना तब तक मैं पहुंच रही हूँ।’
लड़के चले गये।
सुहना जितना कड़क था, गोरीबाई उतनी ही दयालु। गरीबों की लड़कियों की शादी में प्रत्येक साल गल्ला और पैसों से उनकी सहायता करती थी। दो गरीब लड़कियों के पुण्य विवाह भी उसने किये थे। सुहना गोरीबाई के इन कामों का विरोध नहीं करता था। हां मुंह से तो कुछ न कुछ बकता रहता था।
लड़कों के चले जाने पर गोरीबाई सुहना से बोली- ‘तुम, किसी से सीधे मुंह बात क्यों नहीं करते हो?’
‘तू क्या जाने?’ सुहना उसे समझाते हुये बोला- ‘इतना कड़क न होता तो ये तेरी सौ बीघा जमीन है न, जाने कौन छीन लेता। देखा नहीं लेागों ने कितने प्रयत्न किये। खेत किसान का सर्वस्व होता है। खेत नहीं है तो किसान काहे का, वह तो मजदूर है मजदूर। खेतों में क्या पैदा होता है, क्या नहीं, किसान को इसका कोई मलाल नहीं है, उसे तो उन खेतों की मिट्टी से प्यार हैं वह तो उसकी खुशबू सूँघने का आदी है।’
‘ये बात तो तुम्हारी ठीक है पर तुम देवी-देवताओं को भी नहीं छोड़ते हो। अगला जन्म सुधर जायेगा इसलिये तो देवताओं की प्रार्थना की जाती है।’ गोरीबाई पूर्ण आस्था से सुहना को समझाने लगी।
अगला जन्म होता है या पिछला जन्म होता है। इसका मुझे ज्ञान नहीं है। मैं तो इसी मिट्टी में जीना चाहता हूँ और इसी में मरना चाहता हूँ। तू अगला जन्म सुधार ले, मैं तुझे रोकता नहीं हूँ, और न कभी रोका है।’ सुहना अब अच्छे मूड में दिख रहा था। वह गोरीबाई के नजदीक आता हुआ बोला- ‘मेरे सामने लोग बातें नहीं करते हैं क्योंकि वे हवा में उड़ते हैं और मैं जमीन में चलता हूँ। हवा में उड़ना सबको अच्छा लगता है। किन्तु खुरदरी जमीन में चलना हर एक के वश की बात नहीं है।’
गोरीबाई हँस पड़ी। उसने आखिरी उपला बनाकर एक तरफ रखा और बोली- ‘‘आप नहीं सुधरेगें।’
‘‘हमारे बाप मर गये हमें सुधारते-सुधारते, हम नहीं सुधरे। अब मुझे कौन सुधारेगा।’’ इतना कहकर सुहना हँस पड़ा।
गोरीबाई ने हैण्डपम्प चलाया हाथ धोये और घर की तरफ चल पड़ी।
भादों का महीना गुजर चुका था, क्वार के महीने ने अपने तीन कदम आगे बढ़ा लिये थे। कीर्तन भण्डारा एक देवता के स्थान पर पूर्ण होता- दूसरे स्थान पर शुरू हो जाता- फिर तीसरे स्थान पर लोग निराश होते जा रहे थे। यह निराशा उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी।
किसानों की यह निराशा बादलों को सहन न हो सकी। मुई खाल की श्वांस से सार को भस्म करने वाली आह से आकाश में घने काले बादल छाने लगे। भयानक गर्जना और बिजली की कड़क से किसानों के हृदय आनन्द से भर गये। पहले बूँदा-बाँदी हुई फिर झर-झर कर झड़ी लग गयी। खूब बरसा हुई। खेत तालाब बन गये। पूरे गाँव में रौनक लौट आई। लोगों के होठों से अनायस गीत निकलने लगे। सुहना की घायल गोटें और ठुमरी अंगड़ाई लेकर मचल-मचल कर होठों पर थिरक उठी।
पन्द्रह दिन बाद खेत जुताई के योग्य हो गये। ट्रैक्टर, हल बैल जुताई के लिये खेतों पर पहुँचने लगे। ढिल्लन भी अपना ट्रैक्टर लेकर खेत पर पहुँच गया। उसने तीन दिन में अपने सारे खेत जोत डाले। जो हल से जोत रहे थे उनके खेत अभी जुताई के लिये रह गये थे।
लोग ब्लाक जाकर खाद बीज खरीद रहे थे। दो दिन बाद बुबाई जो करनी थी।
विजयादशमी के तीन दिन बाद तक सभी के खेतों की बुबाई हो गयी थी। केवल गेहूँ बोने वाले ही कुछ खेत रह गये थे। गेहूँ की बुबाई का समय अभी आया नहीं था।
क्वार मास की पूर्णिमा उन लोगों के लिये विशेष महत्वपूर्ण थी। इस दिन झिंझिया और टेसू के विवाह का कार्यक्रम होता है। जनश्रुति के अनुसार झिंझिया (नायिका) और टेसू (नायक) का विवाह इसी पूर्णिमा के दिन होना था किन्तु किसी कारणवश उनका विवाह नहीं हो सका। जनपद हमीरपुर में झिंझिया का खेल एवं जनपद जालौन में टेसू का खेल खेला जाता है। जनपद जालौन में छोटे-छोटे बच्चे टेसू का पुतला बनाकर द्वार-द्वार टेसू के गीत गा-गाकर पैसे एवं अनाज मांगते हैं। जबकि हमीरपुर में पूर्णिमा के चार दिन पहले से स्वांगों की रिहर्सल होती है। लोग प्रसन्नता से चन्दा देते हैं। जनरेटरों की व्यवस्था की जाती है। गाँव की अधिकांश गलियों में रोशनी की व्यवस्था जनरेटर चलाकर राडों से की जाती है। स्त्री-पुरुष और बच्चे अपने घर के दरवाजे के पास बने हुये चबूतरों में बैठ जाते हैं। और स्वांगों का आनन्द लेते हैं। स्वांग करने वाले सभी पुरुष गाँव के ही होते हैं। स्त्रियों की उसमें भागीदारी नहीं होती है। इस दिन वे अपनी कला की पराकाष्ठा पर पहुँच जाते हैं।
क्वार की पूर्णिमा, उजला-उजला चन्द्रमा आज लोगों को बहुत मोहक लग रहा है। लोग खीर पूड़ी का आनन्द ले रहे थे। यद्यपि गांव में बिजली की व्यवस्था थी किन्तु बिजली कब आये और कब चली जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिये दो जनरेटर चल रहे थें जगह-जगह लकड़ी के खम्भों में लगाये गये राड दूधिया रोशनी से वातावरण को जगमगा रहे थे। रात्रि भोजन के उपरान्त गाँव के सभी लोग अपने-अपने स्थान लेकर बैठ गये थे। बच्चे अपना स्वांग निकाल रहे थे। बच्चों के स्वांगों से लोग हँस रहे थे। कुछ पुरुष महिलाओं वाली साड़ी पहनकर महिलाओं का किरदार निभा रहे थे। कोई गाँव के चार-पाँच आवारा कुत्तों को एक रस्सी से बांधकर खाना बदोस लोगों की असल भूमिका निभा रहे थे। पछइया लुहार की भूमिका तो हू ब हू राजस्थानी बोली बोलकर निभा रहे थे। राम लक्ष्मण की झांकी एवं कृष्ण-गोपिकाओं के संवाद बोलकर लोगों को आध्यात्मिक आनन्द प्रदान करा रहे थे। ये लोग नुक्कड़-नुक्कड़ जाकर अपने रटे-रटाये डायलाग बोलते थे। कुछ लोग हटकर भी बोल देते थे जिसका उत्तर उन्हें अपनी प्रत्युत्पन्नमति से ही देना पड़ता था।
एक स्वांग के पीछे बच्चों की भीड़ थी। बच्चे बहुत शोर कर रहे थे। पहले ही नुक्कड़ पर वह स्वांग शुरू हुआ। वहाँ काफी बड़ा आँगन था। आमने सामने मकान बने हुये थे। द्वार-द्वार पर चबूतरे थे। इस मैदान को सेठ वाला मैदान कहा जाता है। रतन सेठ का घर उसी आँगन के कोने में था। सेठ बहुत ही मृदुभाषी था। उसकी दुकान खूब चलती थी। कभी-कभी उसका मधुर संभाषण अतिक्रमण भी करने लगता था। इसी सम्भाषण की दम पर अपना वह माल दुगुना करता रहता था। इस स्वांग का टाइटिल था ‘घुल्ला की बैठक’। इस स्वांग में ढिल्लन व उसके साथी अभिनय कर रहे थे। कुछ जनाना धोती तो कुछ मरदाना धोती पहने हुये थे।
ढिल्लन इस स्वांग का मुख्य पात्र था। उसने पुरुष वाली धोती कमर में लपेट ली थी। शेष पूरा शरीर नंगा था। धोती को कमर के चारों तरफ से खोंसे हुये था। वह घुल्ला का अभिनय कर रहा था। देवता उसके सिर से बोल रहा था। पंडा बना हुआ लड़का हाथ में गोबर का सूखा कंडा लिये हुये था। एक स्थान पर बैठकर पंडा ने कंडे में कैरोसिन आयल डाल दिया और माचिस की जलती हुई तीली से कंडे में आग लगा दी। तेल लौ के साथ जलने लगा। युवाओं ने भजन गाने शुरू कर दिये।
ढिल्लन अब अंगड़ाई लेने लगा। वह मुँह से पुच्च पुच्च की आवाज निकालने लगा। बीच-बीच में हू-हू भी करता जा रहा था।
कंडा में कैरोसिन आयल का पुनः छिड़काव कर दिया। कंडा लौ के साथ तेजी से जलने लगा। इस बार ढिल्लन बड़ी जोर से उछला, कूदा। मंह से दिल दहला देने वाली आवाज निकाली। पंडा ने घुल्ला को शांत करने के उद्देश्य से उसके सिर पर अंगौछा बाँध दिया।
-‘‘महाराज! कौन हो आप?’ पंडा ने पुनः तेल की आहुति देते हुये पूछा।
-‘ढिल्लन।’
शांत वातावरण अचानक ठहाकों से गूँज उठा। पंडा ने धीरे से उसे कुहनी मारी- ‘‘महाराज’’ ढिल्लन तो घुल्ला का नाम है। आप देव हैं, दानव हैं, भूत है या ..........?
ढिल्लन बड़ी जोर से उछला और मुँह से भयानक आवाज निकाली- ‘‘गोटीराम मैं हुकरादेव हूँ, जो कूछ पूछना हो जल्दी पूछो, घुल्ला कमजोर है, ज्यादा सवारी सहन नहीं कर सकता है।’’
-‘‘महाराज घुल्ला की चिन्ता न करो, खूब भैंस का दूध पीता है। पूरा पट्ठा है।’’ पंडा ने नीबू काटते हुये कहा।
-‘‘गोटीराम! मैं सब जानता हूँ। देवता से कुछ छिपा नहीं है। यह जितना दूध पीता है उतनी ही दारू पीता हैं। शरीर खोखला करता जा रहा है।’’ इतना कहकर घुल्ला ने बड़ी तेजी से हुर...र..र... र... करते हुये सिर हिलाया।
-‘महाराज फरियादी खड़े हैं, अभी चले नहीं जाना।’ पंडा ने ढिल्लन के चेहरे को देखा और उसके हाथ में दो फुट लम्बी लोहे की जंजीर पकड़ा दी।
उन्हीं में से एक लड़का हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अर्ज करता हुआ बोला-
-‘‘महाराज! मैं रतन सेठ हूँ। कई वर्षों से लड़का ढूँढ़ रहा हूँ। मुझे बेटी के लिये लड़का नहीं मिल पा रहा है।
-‘‘सेठ! तेरी बेटी कितने साल की है। घुल्ला ने जोश में आकर आग की लौ को मुँह में भरते हुये पूछा।
-‘महाराज’ मेरी बेटी अट्ठाइस साल की हो गयी है।’ सेठ बना लड़का विनम्रता से बोला।
-हूँ- ऽऽऽ..।’ घुल्ला ने दहाड़ मारी- ‘‘सेठ तेरी लड़की को तीस साल का वर चाहिये। अब तीस साल का वर मिलना तो मुश्किल है।’’ घुल्ला ने बड़ी तेजी से जंजीर अपनी पीठ पर दे मारी और आकाश की तरफ सिर करके बोला- ‘‘गोटीराम, तू तीस साल के वर के चक्कर में मत पड़। अपनी लड़की के लिये पन्द्रह-पन्द्रह साल के दो लड़के ढूढ ले।’’ समझ ले, देवता कभी झूठ नहीं बोला है।’’
‘बोलो हुकरा देव की जय।’ पंडा ने नारा लगाया। पूरा वातावरण हुकरादेव की जय से गूँज उठा। सभी दर्शक प्रसन्नता से झूम उठें। वह लड़का एक तरफ हट गया। और किसी की फरियाद हो तो थान पर जल्दी आ जाये। हमारे हुकरा देव पूरी कर देगें। पंडा ने हाँक लगाई।
महिला भेष में एक लड़का ढिल्लन के सामने आया। वह ढिल्लन का मित्र ही था। सामने आकर बोला- ‘‘महाराज आप तो अन्तर्यामी हो, सब जानते हों, आजकल पानी मुश्किल से बरस रहा है। घोर कलयुग आ गया है। गाँव में बहुत पाप बढ़ता जा रहा है।’
घुल्ला ने अंगड़ाइ ली। जंजीर पर हाथ फिराते हुये वह बोला- ‘‘जब तक तेरे जैसी छिनार गाँव में रहेगी तब तक पाप नहीं बढ़ेगा तो क्या पुण्य बढ़ेगा।’’ घुल्ला की इस बात पर पूरा दरबार ठहाकों से गूंज उठा।
-‘‘महाराज! उपाय बता दो?’’ वह लड़का बड़े स्टाइल में घूँघट काढ़ कर बोला।
‘सुन! तुझे एक बकरा, एक बोतल शुद्ध महुआ की दारु देनी पड़ेगी। इसके पश्चात चार रातें घुल्ला के यहाँ बितानी होगी तभी तेरा व गाँव का पाप दूर होगा।’ घुल्ला जोर से जंजीर लहराते हुये बोला- ‘बोल मंजूर है।’
-‘‘महाराज मंजूर है। आप बहुत सच्चे हो। आपने मेरे मन की मुराद पूरी कर दी।’’ उसकी बातों को सुनकर सभी हँस रहे थे साथ ही स्वांग की तारीफ करते जा रहे थे।
साड़ी पहने वह लड़का हट गया।
अब तीसरा लड़का घुल्ला के सामने आया। वह भी साड़ी पहने हुये था। वह कभी मुँह खोल लेता था, कभी घूंघट काढ़ लेता था। वह अन्दर ही अन्दर शरमा भी रहा था। वह घुल्ला के पैर पकड़ते हुये बोला- ‘‘महाराज मैं ढिल्लन के घर से हूँ।’’ मैदान में बैठी हुई महिलाएँ खिलखिलाकर हँस पड़ी।
-‘‘ये तो घर की बात थी। घर पर चाहे जब पूछ लेती।’’ इस बार घुल्ला शांत नजर आ रहा था। वह मन ही मन सोचने लगा कि न जाने अब ये क्या पूछेंगे?
-‘‘महाराज घर में फरियाद पूरी हो जाती तो मैं यहां क्यों आती।’’ ढिल्लन की पत्नी बना वह लड़का बड़ी मायूसी से बोल रहा था।
-‘‘महाराज मेरा पति मुझसे प्यार नहीं करता है। इधर उधर ज्यादा मुँह मारता है। आप तो अन्तर्यामी हैं। ऐसी ताबीज बना दो कि ये किसी की तरफ देखें तक न।’’ ठहाकों से पुनः वातावरण गूँज उठा।
-‘‘ठीक है, मैं ताबीज बनाये दे रहा हूँ, तू उसकी कमर से बाँध देना। एक छोर तू पकड़े रहना, वह कहीं नहीं भाग पायेगा।’ इतना कहकर एक ताबीज राख में लपेटकर उसके हाथ में रख दी।
अब घुल्ला ने चारों तरफ देखा और हुर-र र करते हुये कहा -‘देव प्रस्थान करना चाहता है। अब घुल्ला पस्त हो गया है।’
‘नहीं महाराज! एक फरियाद गाँव की तरफ से है।’ पंडा बना युवक सामने आ गया। हाथ जोड़कर बोला- ‘महाराज! हमारे यहाँ पानी का कोई साधन नहीं है। अगर पानी की व्यवस्था हो जाये तो अच्छा रहेगा।’
अबकी बार घुल्ला ने अपनी पीठ पर कसकर जंजीर दे मारी। घुल्ला के मुख से पीड़ा भरी कराह निकली, किन्तु वह उस पीड़ा को जब्त कर गया। जंजीर लहराते हुये वह बोला- ‘‘यह फरियाद तो बहुत कर्री है। फिर भी मैं सुझाव देता हूं कि सब गाँव वालों को मिलकर नालों में, खेतों में, डैम बनाने होगें। जैसे रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह ने नदी की संसद बनाई थी। बरसात का पानी इकट्ठा कर लो, उसे बरबाद मत होने दो। जहाँ सरकारी डैम बन रहे हों, वहाँ सरकार के कार्यां में मदद करो। निश्चित रूप से पानी की समस्या दूर हो जायेगी। युवाओं को आगे आना होगा। घुल्ला ने पुनः एक जोरदार चीख अपने मुँह से निकाली- ‘‘बोलो, अगर सभी गाँव वाले तैयार हों तो हुकरा देव भी पीछे नहीं रहेगा।’’
हुकरा देव की इस बात पर पूरे वातावरण में एक स्वर गूँज उठा- ‘‘हम सब तैयार हैं।’’
इतना सुनकर घुल्ला उछला और पीछे जाकर धच्च से धरती पर जा गिरा। पंडा ने उसके शरीर पर राख मल दी।
पुनः गगन भेदी नारा गूँजा ‘हुकरा देव की जय।’
घुल्ला वाला स्वांग अगले नुक्कड़ की तरफ बढ़ गया।
गाँव के इस कार्यक्रम का संचालन चैधरी रामधन जी कर रहे थे। एक स्वांग के निकल जाने के बाद तैयार खड़े दूसरे स्वांग को वह इजाजत दे देता था ताकि नुक्कड़ों पर ज्यादा भीड़ न हो और एक-एक कार्यक्रम गाँव वाले आराम से देख सकें।
घुल्ला के स्वांग के बाद दूसरा स्वांग था शिक्षा का। यह भी अजीब नजारा। करीब सत्तर वर्ष के सात बुड्ढे स्टूडेन्ट वाली यूनिफार्म पहने हुये थे। उनका टीचर सोलह साल का एक लड़का था। वह अपने साथ एक छड़ी, रजिस्टर तथा पेन लिये हुये था। सभी बूढ़े अपने-अपने चश्मे पहने हुये थे। ये चश्मे उन्हें आँखों के आप्रेशन के बाद सरकार से मुफ्त मिले थे। अपने जमाने के ये झिंझिया के अच्छे कलाकार रहे थे। वे सभी पाटी और खड़िया लिये हुये थे।
वह लड़का जो टीचर का स्वांग कर रहा था। साथ में लाई हुई कुर्सी पर बैठ गया। उसने अपना रजिस्टर खोला और हाजिरी लेने लगा। बुद्धा-यस सर.... लटोरा-यश सर... कढ़ोरा- यस सर.... घसीटा-यस सर। सभी बुड्ढे उछल-उछल कर यश सर कहते और बैठ जाते। सभी दर्शक उन बुड्ढ़ों के स्वांग पर हँस रहे थे। उनके वे नाम वास्तविक नहीं थे।
टीचर अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। और छड़ी लहराते हुये बोला
-‘बुद्धा तू कल क्यों नहीं आया?’ बुद्धा खड़ा हो गया और बड़ी मासूमियत से बोला-‘साब कल मम्मी को लड़का हुआ था इसलिये मैं स्कूल नहीं आ पाया।’’
-हू।’ टीचर ने हुंकार भरी और बैठने का संकेत किया।
‘मास्टर साब।’
‘क्या है? टीचर उखड़ पड़ा- ‘तू बैठा नहीं।’
‘साब हम पाँच भाई हो गये।’ बुद्धा लजाते हुये बोला।
‘क्यों तेरे मम्मी पापा ने परिवार नियोजन नहीं अपनाया। ‘टीचर ने बुद्धा को बड़े प्यार से कहा।
पूरा माहौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
‘साब मम्मी से कह दूँगा कि हमारे मास्टर साब कह रहे थे कि परिवार नियोजन अपना लो।‘ अब बुद्धा अपने स्थान पर बैठ गया।
बूढ़े की ऐसी बातों पर वृद्ध महिलाएं फुसफुसाई- ‘देखो बुढ़रा को शरम भी नहीं आ रही है।’’
टीचर क्लास में घूमता हुआ घसीटा के पास पहुँचा उसकी पीठ पर जोर से छड़ी मार दी और कड़क स्वर में पूछने लगा- घसीटे तू कहाँ जाता है, आये दिन अपसेन्ट बना रहता है।’
-‘मास्टर साब, मैं सरकारी अस्पताल में चैक करवाने गया था।’
-‘क्या बीमारी है तुझे?’ टीचर ने डपटा।
-‘साब खून की जाँच करवाने गया था कि कहीं मुझे एड्स तो नहीं है।’ घसीटा शरमाते हुये हिल रहा था।
मैदान में ठहाके गूँज रहे थे।
टीचर ने अपने हैट को ठीक किया और बोला- ‘क्या बताया डा0 ने?
‘साब मेरी रिपोर्ट ठीक है’।
‘बहुत अच्छा, बैठ जा।’ टीचर ने घसीटा को बैठने का हुक्म दिया।
टीचर इधर-उधर देखने लगा। उसकी नजर कढ़ोरा पर केन्द्रित हो गयी।
‘कढ़ोरे?’ टीचर ने दहाड़ लगाई- ‘एड्स काहे से फैलता है।’?
कढ़ोरा खड़ा हो गया और उंगलियों से गिनता हुआ बोला- ‘साब डा0 की संक्रमित सुई से और ..... और संक्रमित माँ से उसके होने वाले बच्चे को ............... और .............. और..............?
-‘अरे बोल, चुप क्यों हो गया? मास्टर ने फटकार लगाई।
-‘साब बाकी लटोरा से पूछ लो, मुझे शरम आती है।’ कढ़ोरा बच्चों की तरह हँस पड़ा।
‘तू ही बता, शरमा मत।’ टीचर उसके नजदीक आकर बोला।
‘साब असुरक्षित यौन सम्बन्ध से भी एड्स फैलता है।’
‘वैरी गुड कढ़ोरा।’ टीचर ने शाबासी दी।
अब लटोरा खड़ा हो गया। टीचर का ध्यान उसकी तरफ हो गया।
मास्टर साब, घसीटा को एड्स हो जायेगा।’
‘-क्यों?’ टीचर की आँखें सिकुड़ी।
‘इसे साब कुछ ज्ञान नहीं है।’
लटोरा की बात सुनकर घसीटा खड़ा हो गया। वह तपाक से बोला- ‘साब इसे ही फैलेगा, मुझे नहीं, देखो मेरी जेब में कण्डोम है।’ इतना कहकर बहुत सारे कण्डोम दर्शक दीर्घा की तरफ उछाल दिये।
स्त्रियां थोड़ा शरमा रही थी। फिर भी हँस रही थी।’
इसी तरह अनेक स्वांग निकलते गये। सुबह चार बजे इन स्वांगों का कार्यक्रम समाप्त हुआ। लोग अपने-अपने घरों में सोने चले गये।
सुबह स्वांगों की खूब चर्चा हो रही थी। लोग एक दूसरे को स्वांग बता रहे थे कि किस तरह से किसने अभिनय किया है। लोग कह रहे थे स्वांगों की ज्यादा रिहर्सल भी न हो पायी थी फिर भी अच्छे जम गये थे।
एक माह के अन्तराल में खेत हरे-भरे दिखने लगे थे। किसान खेतों को देख आनन्द से झूम उठते थे। लहलहाती फसल ने उनके सारे दुख-दर्द दूर कर दिये थे। कुछ आवारा किस्म के लोगों को इस झूमती-इठलाती फसलों में कोई आकर्षण नहीं दिखाई दे रहा था। उनका आकर्षण दारु थी जिसे पीकर गाँव में उपद्रव कर देते थे। अधिकतर लोग इन दारुबाजों से त्रस्त थे।
जब मनुष्य को आनन्द प्राप्त होता है तो समय कब गुजर जाता इसका पता हीं नहीं चलता है। यही हाल किसानों का था। चैत्र मास कब आ गया, यह तो उन्हें फसलों के पक जाने पर भान हुआ। लोगों ने हँसिया-खुरपी तैयार किये। खेतों की कटाई शुरु हो गयी। चैतुआ चैत्र मास के गीत मधुर स्वर में गाते। वे गीत बसन्त की बयार में घुलकर कानों में मधु सा उड़ेल रहे थें। लोग सुबह ही खेतों को निकल जाते और देर रात तक घर लौटते। कपड़े मैले हो गये थे किन्तु उन्हें इसकी परवाह नहीं थी।
सुहना नन्ना के पास ट्रैक्टर और थ्रेसर थे। कुछ अन्य किसानों के पास भी ये कृषि यंत्र थे। किन्तु अधिकांश किसान बैलों द्वारा खेती करते थे। ट्रैक्टर वालों का अनाज जल्दी घर आ गया।
कुछ किसानों ने भाड़ा देकर लाक की मड़ाई करवा ली थी। अन्य किसानों ने डीजल के भाव को देखकर अपने हाथ सिकोड़ लिये थे और बैलों से ही मड़ाई करने का फैसला कर लिया था। थ्रेसर वाले को पहले डीजल देना पड़ता था, बाद में मड़ाई का भाड़ा भी। ग्राम समाज की पड़ी हुई जमीन पर खलिहान बनाकर खेतों से लाक उठाकर यहाँ रख रहे थे ताकि बैलों से मड़ाई कर सकें। किसान सपरिवार खलिहानों में कार्य करने लगे।
दोपहर का समय था। पछुवा हवा लू बनकर शरीर को झुलसा रही थी। तभी लोगों ने देखा खलिहान से ध्आँ का गाढ़ा गुबार आकाश की ओर उड़ने लगा। देखते-देखते उस धुएं से आग की भयंकर लपटें उठने लगीं। लाक के साथ वहां खड़े, हुये पेड़ चट्-चट् की आवाज के साथ जलने लगे।
पूरे गाँव में हड़कम्प मच गया। लोग गगरी बाल्टी लेकर आग बुझाने पहुँचे तब तक पूरे खलिहानों को आग ने अपनी चपेट में ले लिया था। भीषण गर्मी और आग की लपटें लोगों को अपने पास फटकने भी नहीं दे रही थी। लोग बकरे की बलि दे रहे थे। महिलायें दही से भरे हुये बर्तन आग में फैंक रहे थे। उनका विश्वास था बलि और दही से देवी शांत हो जाती है। हवा और प्रचण्डता के साथ बहने लगी।
अब लपटें अपने क्षेत्र का विस्तार करते हुये खपरैल वाले घरों पर हावी होने लगी। एक से दूसरे में ......... दूसरे से ...........। लोग असहाय से हो गये। फायर बिग्रेड को फोन से सूचना दे दी गयी थी।
फिर भी लोग आग पर काबू पाने का असफल प्रयास करते रहे। तालाब सूख चुके थे। हैण्डपम्पों का सहारा लिया किन्तु सब व्यर्थ। पूरा गाँव राख में तब्दील हो चुका था। दिन में आग लगी थी अतः जानें तो नहीं गयी पर घरों में कुछ न बचा। घर के बर्तन पिघलकर बह गये थे।
फायर बिग्रेड आ चुकी थी लेकिन उसको करने को कुछ नहीं बचा था। सब जलकर खाक हो चुका था। दमकल वाले अब खाक की आग को बुझाने में लगे हुये थे।
लोग गश खाकर गिर रहे थे। महिलाएँ पछाड़े खा रही थी। साल भर की कमाई दो घण्टे में स्वाहा। लोग पागलों की तरह जमीन में पड़े चिल्ला रहे थे। शायद सचमुच ही वे पागल हो गये थे।
आस-पास के गाँव वालों ने उनकी खूब मदद की। दस-पन्द्रह दिनों के खाने का इन्तजाम भी उन्होने कर दिया था। सरकार की तरफ से कोटेदारों ने गल्ला बाँटा था।
सरकार की तरफ से अग्निपीड़ितों को सहायतार्थ धनराशि वितरण के निर्देश दिये गये। हाल ही की घटना से सबको दुख हो रहा था। जैसे-जैसे समय बीतता गया अन्य लोगों के दिल से वह पीड़ा भी धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। जिनके घर जल गये थे अब वे ही अकेले भोगने के लिये रह गये थे।
गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को चैकें वितरित की गयी। चैक भुनाने हेतु बैंक जाना पड़ा। कुछ दलाल उसमें शामिल हो गये। तीस प्रतिशत का सुविधा शुल्क उन्हें चढ़ाना जरुरी हो गया। अधिकांश गाँव वालों ने यह शुल्क देकर रुपये प्राप्त कर लिये थे। ढिल्लन ने भी शुल्क देने की हामी भर ली थी। बैंक का समय समाप्त हो रहा था। इसलिये उसे कल आने को कहा गया था।
सुहना ने ढिल्लन से पूछा कि कितने रुपये मिले। ढिल्लन ने बताया कि दस हजार रुपये का चैक मिला है। तीन हजार बैंक वाले माँग रहे थे।
चैक मुझे दे, कल मैं जाऊँगा बैंक। सुहना ने चैक ले लिया। सुहना और उसकी पत्नी ब्लाक पहुँचे। बैंक खुल गया था। कर्मचारी अपने कार्य में लग गये थे कुछ अपने केबिन को खोलते जा रहे थे।
सुहना ने चैक बैंक मैनेजर के सामने रख दिया। मैनेजर ने बगल में बैठे हुये दलाल की तरफ इशारा किया। दलाल उठा और सुहना को एकांत में ले गया। दलाल ने बात स्पष्ट कर दी थी।
सुहना मैनेजर के पास आया और धीरे से बोला- ‘साहब, पहले वाले मैनेजर ने तो कभी पैसे नहीं माँगे। आप ये पैसे क्यों ले रहे हैं।?’
‘मदन ने नहीं बताया।’ मैनेजर ने दलाल की तरफ इशारा किया।
बताया है, लेकिन मुझे रुपये पूरे चाहिये।’ सुहना ठोस इरादे में बोला।
‘ले लो न, कौन रोक रहा है तुम्हें?’ मैनेजर ने तल्ख स्वर में कहा।
सुहना ने चैक मैनेजर के सामने रख दिया।
मैनेजर ने चैक फैंक दिया।
सुहना ने चैक उठा लिया और विनम्र स्वर में बोला- ‘साब हमारी स्थिति पर ध्यान दीजियें हमारे पास कुछ नहीं बचा। लोग आपको दुआएं देगें ।
‘दुआओं से पेट नहीं भरता है।’ मैनेजर व्यंग्य से मुस्कराया।
सुहना को ताव आ गया और बोला- ‘‘पूरे पैसे ले ले, मैने तुझे पूरे पैसे दिये, इतनें में तेरे जवान बेटे की त्रयोदशी हो जायेगी।’’
स्थिति को भाँपकर गोरीबाई आगे आ गयी और सुहना का हाथ पकड़ते हुये बोली- ‘‘ऐसी बातें शोभा नहीं देती हैं, ईश्वर से डरो, वह सब देखता है।’
‘वह कुछ नहीं देखता है। अगर देखता होता तो इसकी करतूतों को क्यों नहीं देखता है?’ सुहना उबल रहा था- ‘‘यह खुले आम रिश्वत लेता है, ईश्वर इसका कुछ नहीं बिगाड़ेगा। रिश्वत के पैसे से यह और अधिक फूलेगा-फलेगा। आग हमारे घरों में लगती है, अपना घर यह भर लेता है। हराम का पैसा खा-खाकर कैसा मोटा हो रहा है।’
मैनेजर अपनी बेइज्जती से तिलमिला उठा। उसने पुलिस बुलाने की धमकी दे डाली फिर भी उसके हाथ काँप रहे थे। धमकी का सुहना पर कोई असर नहीं हुआ। चैक के टुकड़े करके मैनेजर के मुख पर दे मारे और बैंक से बाहर निकल आया।
बैंक में सन्नाटा छा गया, जैसे सभी को साँप सूँघ गया हो।

26 अगस्त 2009

25 अगस्त 2009

मैं तेरे साथ - साथ हूँ.........

देखो तो एक सवाल हूँ
समझो तो , मैं ही जवाब हूँ ।।
 
उलझी हुई,इस ज़िन्दगी में। 
सुलझा हुआ-सा तार हूँ।।
 
बैठे है दूर तुमसे , गम करो
मैं ही तो बस, तेरे पास हूँ।।
 
जज्वात के समन्दर में दुबे है। 
पर मैं ही , उगता हुआ आफ़ताब हूँ
 
रोशनी से भर गया सारा समा
पर मैं तो, खुद ही में जलता हुआ चिराग हूँ ।।
 
जैसे भी ज़िन्दगी है, दुश्मन तो नही है। 
तन्हा-सी हूँ मगर, मैं इसकी सच्ची यार हूँ।।
 
जलते हुए जज्वात , आंखो से बुझेंगे  
बुझ कर भी बुझी, मैं ऐसी आग हूँ।।
 
कैसे तुम्हे बता दें , तू ज़िन्दगी है मेरी
अच्छी या बुरी जैसे भी, मैं घर की लाज हूँ ।।
 
कुछ रंग तो दिखाएगी , जो चल रहा है अब।
खामोशी के लबो पर छिड़ा , में वक्त का मीठा राग हूँ।।
 
कलकल-सी  वह चली, पर्वत को तोड़ कर
मैं कैसे भूल जाऊ, मैं बस तेरा प्यार हूँ।।
 
भुजंग जैसे लिपटे है , चंदन के पेड़ पर
मजबूरियों में लिपटा हुआ , तेरा ख्बाव हूँ।।
 
चुप हूँ मगर , में कोई पत्थर तो नही हूँ।
जो तुम कह सके, मैं वो ही बात हूँ
 
बस भी कर, के तू मुझको याद
वह सकेगा जो, में ऐसा आव हूँ।।
 
मेहदी बारातै सिन्दूर चाहिए
मान लिया हमने जब तुम ने कह दिया , मैं तेरा सुहाग हूँ।।
 
खुद को समझनाकभी तन्हा और अकेला। 
ज़िन्दगी के हर कदम पर , मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।    

24 अगस्त 2009

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - कहानी स्वरूप एवं संवेदना

कहानी स्वरूप एवं संवेदना
डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
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कहानी के स्वरूप के विषय में अनेक कहानीकारों ने विविध प्रकार की परिभाषायें प्रस्तुत की हैं -
1 - विदेशी विद्वानों के अनुसार
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पाश्चात्य आलोचक हडसन के अनुसार - ‘‘कहानी उसी को कहेंगे जो एक बैठक में सरलता से पढ़ी जा सके।’’
आर. फ्रांसिस फोस्टर के अनुसार - ‘‘कहानी जीवन की महत्वपूर्ण घटना एवं विषम परिस्थितियों का संक्षिप्त विवरण और मनुष्य के भीतर स्थित आधारभूत गुणों को प्रदर्शित करती है।’’
एच. जी. वेल्स के अनुसार - ‘‘कहानी को आकार में अधिक से अधिक इतना बड़ा होना चाहिये कि वह सरलता से बीस मिनट में पढ़ी जा सके।’’
सर हूफ वाल्पोल के अनुसार - ‘‘कहानी-कहानी होनी चाहिये अर्थात उसमें घटित होने वाली वस्तुओं का ऐसा लेखा जोखा होना चाहिये जो घटना और आकस्मिकता से परिपूर्ण हो उसमें प्रगति का ऐसा अप्रत्याशित विकास हो। जो कुतूहल के द्वारा सार और संतोष को पूर्ण आस्था तक ले जाये।’’
2 - भारतीय विद्वानों के मतानुसार
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प्रेमचन्द - ‘‘कहानी एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली उसका कथा विन्यास सब उसी भाव को पुष्ट करते है।’’
जयशंकर प्रसाद - ‘‘सौन्दर्य की एक झलक का चित्रण करना और उसके द्वारा रस की सृष्टि करना ही कहानी का उद्देश्य है।’’
राय कृष्ण दास - ‘‘कहानी मनोरंजन के साथ-साथ किसी न किसी सत्य का उद्घाटन करती है तथा आख्यायिका में सौन्दर्य की एक झलक का रस है।"
जैनेन्द्र कुमार - ‘‘कहानी एक भूख है जो निरंतर समाधान पाने की कोशिश में रहती है। हमारे अपने सवाल होते हैं शंकायें होती है, चिन्ताएँ होती है और हम उनका उत्तर उनका समाधान खोजने का, पाने का सतत प्रयत्न करते रहते है। हमारे प्रयोग होते रहते है। उदाहरणों और मिशालों की खोज होती रहती है। कहानी उस खोज के प्रयत्नों का एक उदाहरण है। वह एक निश्चित उत्तर ही नहीं देती, पर यह अलबत्ता कहती है कि शायद उस रास्ते मिले। वह सूचक होती है कुछ सुझाव देती है और पाठक अपनी चिन्तन क्रिया से उस सूझ को ले लेते हैं।
इस प्रकार समाज की विषमताओं को देखते हुये कहानीकारों ने अनेक प्रकार की कहानी समाज के सामने प्रस्तुत की। कहानियों में उच्च मानववाद का प्रतिपादन किया किन्तु यह मानववाद यथार्थ के सहारे आदर्श की ओर विकसित हुआ है। समाज के निम्न वर्ग की अनेक प्रकार की समस्यायें उसके जीवन के विभिन्न प्रकार के रूपों को प्रस्तुत करते हुये आदर्शवाद का संकेत करते हैं। उनकी दृष्टि इतनी पैनी है कि समाज का कोई रूप उनसे छिपा नहीं है जैसे - ताँगे वाला, किसान, श्रमिक, विद्यार्थी, डाक्टर, वकील, व्यापारी, अधिकारी आदि के विविध रूपों को वे अपनी कहानी के माध्यम से चित्रित करने में पूर्णतया सफल रहे हैं।
‘‘कथा साहित्य के आदि छोर को पकड़ने की इच्छा रखने वाले पाठकों की कसौटी में खरी उतरने वाली कहानियाँ मानवता के आदि ग्रन्थ वेदों तक में भी मिलती हैं, परन्तु इस कला का परिपूर्ण विकास आधुनिक युग की देन है।’’(1) कहानी से नयी कहानी तक की विकास यात्रा वस्तुतः नूतन भाव-भूमियों के अन्वेषण का एक साहित्यिक अनुष्ठान है। यथार्थ तो यह है कि आधुनिक व्यस्त एवं गतिशील जीवन के विविध परिवेशों के पकड़ने में अनेक सुविख्यात कहानीकार तक असफल हो रहे हैं।’’(2) जिस गति से जीवन भाग रहा है उसी गति से नयी कहानी का कथ्य, शिल्प, बिम्ब, यथार्थ एवं भाव बोध भी भाग रहा है। इस स्थिति में आधुनिक कहानीकार अनुभूतियों की समसामयिकता को जितना भी पकड़ पाता है उसे वह पाठक तक संप्रेषित कर देता है। आज अपने अभावों की पूर्ति एवं इच्छाओं की तृप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य संघर्षरत है। नयी कहानी ने इसी संघर्षरत मनुष्य को पकड़ा है।
मानव विद्रोह की चीख पुकार परिवर्तित परिवेश की विसंगतियों ने कहानीकारों को उसका दायित्वबोध करते हुए आधुनिक व्यक्ति के हृदय, मस्तिष्क चेतना और अन्तः चेतना की सूक्ष्म विवेचना का अवसर दिया। ‘‘स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सार्थक कहानी लेखन की दिशा में एक गम्भीर और महत्वपूर्ण प्रयास होने के कारण नयी कहानी आन्दोलन से सम्बद्ध लेखकों ने अनेक सशक्त कहानियाँ लिखीं यही नहीं उन्होंने सामाजिक यथार्थ के कुछ ऐसे आयामों को रेखांकित किया जिनकी ओर पहले के लेखकों का ध्यान पूरी तरह नहीं गया था।(3) नये कहानीकारों का अनुभव यदि एक सीमित दायरें में होता तो वह जीवन सत्य को इतनी सूक्ष्मता से कभी नहीं पकड़ पाता जितना कि पकड़े हुए हैं। जीवन सत्य की सूक्ष्म पकड़ के कारण ही नयी कहानी आज भी जीवन की मुख्य धारा से अनुस्यूत है तथा विभिन्न विकृतियों से उत्पीड़ित होने के पश्चात् भी आदमी का आत्म सम्मान उसके अचेतन में अकुण्ठित ही है। इस दृष्टि से नयी कहानी व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व का सही बोध करा सकी तो यही मोड़ किसी भाषा और उसके साहित्य के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। ‘‘आधुनिक कहानी यथार्थबोध की जटिलतम समस्याओं से निरन्तर अनुप्राणित है।’’(4) ‘‘आधुनिक कहानीकार के लिए कहानी अभिव्यक्ति होती है मात्र घटना नहीं।’’(5)
स्वतंत्रता के उपरांत सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, वैयक्तिक शैक्षणिक एवं राजनैतिक दृष्टि से आदमी के जीवन में जो अराजकता एवं अशांति आयी उसके कारण चारों ओर सताया हुआ आदमी ही दृष्टिगोचर होता है, निरन्तर बढ़ते हुए भ्रष्टाचार एवं स्वार्थ ने आदमी के अस्तित्व, सम्बन्धों एवं विश्वास पर जमकर प्रहार किये। ‘‘नयी कहानी हिन्दी कहानी का इतिहास नहीं है यह कहानी के विकास की शृंखला की एक कड़ी है।’’(6)
स्वातन्त्रयोत्तर भारतीय समाज में एक बड़ा परिवर्तन यथार्थ रुप में कहानी चित्रण था। ‘‘सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों में आने वाले परिवर्तन को लेकर जो कहानियाँ लिखी गयीं उनमें पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले वे पात्र हैं, जो अभी तक परम्परागत जीवन मूल्यों से चिपटे हुए हैं।(7)
वर्तमान समय में विषमताओं के तमाम तथ्यों को न निगल सकने के कारण जहाँ नई पीढ़ी अभाव, अनास्था, निराशा एवं कुंठा के क्षणों को जीने के लिए विवश हुई, वहाँ शिक्षातन्त्र की रोटी खाने वाले बुद्धिजीवी प्रजातन्त्र का खुला तमाशा देखकर भी कुछ न कर सकने की स्थिति में हैं। इस प्रकार इस असंतुष्ट आदमी की अनास्था, कुंठा विद्रोह एवं प्रतिकार की भावना ही नयी कहानी का कथ्य है। ‘‘स्वतंत्रता के बाद तरुण लेखकों की नई पीढ़ी ने एक नये समाज को देखा जिसमें भेड़िया-संघर्ष, अवसरवादिता और स्वार्थपरता का बोलबाला था - हर स्थिति में सत्ता हासिल हो, इसमें योग्यता या अयोग्यता का कोई सवाल नहीं - क्या यही हमारी स्वतंत्रता का वास्तविक रुप है ?’’(8)
आजादी के उपरान्त पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी समानाधिकार मिला तो उनके जीवन में एक परिवर्तन आना स्वाभाविक है। जब उनके पैरों से बन्धन की बेड़ियाँ खुल गयीं तो उनका कार्यक्षेत्र मात्र गृहस्थी तक ही सीमित नहीं रहा। नये कहानीकारों ने प्रायः अपने-अपने दृष्टिकोणों से इन स्त्रियों के जीवन को आधार बनाकर अनेक कहानियाँ लिखीं ऐसी कहानियाँ जो नौकरीपेशा स्त्री के जीवन की सच्चाई से भरी हुई हैं। उसमें मोहन राकेश कृत - ‘‘एक और जिन्दगी, सुहागनें, मिसपास’’, कमलेश्वर कृत - ‘‘तलाश’’, राजेन्द्र यादव कृत - ‘‘खेल, प्रतीक्षा, छोटे-छोटे ताजमहल टूटना’’, ऊषा प्रियम्बदा कृत - ‘‘नींद, झूठा दर्पण, पूति, एक और विदाई, नागफनी के फूल,’’ मन्नू भण्डारी कृत - ‘‘क्षय, जीती बाजी की हार’’, शांति मेहरोत्रा कृत - ‘‘महल एक औरत, मार्कण्डेय कृत - ‘‘एक दिन की डायरी’’, निर्मल वर्मा कृत - ‘‘परिन्दे, एक पुष्प एक नारी’’, शिवप्रसाद कृत - ‘‘धरातल’’, आदि उल्लेखनीय हैं।
आज विद्रोह का यह बिन्दु प्रत्येक मनुष्य के भीतर है विगत वर्षों की अधिकांश कहानियों में विद्रोह का यह बिन्दु पूर्णतः उभर कर आया है। ‘‘आज की सामाजिक एवं मानवीय संवेदनाएँ और परिस्थितियाँ अपनी आस्थाओं मूल्यों तथा विश्वासों के सहारे जीने वाले लोगों को उखाड़ फेंकने की चेष्टा करती है।’’(9)
आधुनिक कहानीकार प्राचीन लेखकों की तरह रस उत्पत्ति के लिए ही कहानियों की सृष्टि नहीं करता न ही मध्ययुगीन कहानीकारों की तरह अस्वाभाविक कौतूहलता की अस्वाभाविक घटनाओं को लेकर वर्णन करता है। वर्तमान कहानीकार आज का संघर्षशील व्यस्त और दुखी मानव जिसके सामने समस्याओं, चिन्ताओं और समाधानों का ढेर है। आज कहानी मनोरंजन के साथ किसी न किसी सत्य का भी उद्घाटन करती है। वैज्ञानिक युग का मानव पूर्णरुपेण स्वतंत्र है, आधुनिक कहानी साहित्य इसी वैयक्तिकता को महत्व देता है। आज का प्रत्येक कहानीकार अपनी कहानियों में व्यक्तिगत मान्यताओं धारणाओं और चिन्ताओं को मूर्तरुप देने की चेष्टा करता है। वह वर्तमान को भूलकर केवल भविष्य की काल्पनिक शांति में ही मन नहीं रमाता। वह अपने युग और उसमें उभरती नयी मान्यताओं के प्रति सचेत है। कहानी व्यक्ति व समाज की होती है, उसके कार्य, कारण और सम्बन्ध की होती है। ‘‘आज की कहानी के रुप एवं स्वरुप में तीव्र गति से परिवर्तन दिखाई देता है, परन्तु कहानी कला के मूल तत्वों में परिवर्तन नहीं है।’’(10)
आज विशिष्ठ पात्रों को न चुनकर सामान्य मानव को ही संघर्षों एवं युग की चेतना का प्रतीक माना जाता है। कहानियों का सम्बन्ध यदि जीवन से है तो पात्र भी यथार्थ जीवन के होने चाहिये। कहानी के चरम उद्देश्य तक में आज मानवता और मानव मूल्य है, उनकी व्याख्या है। उद्देश्य इतना सपाट सीमित या यांत्रिक नहीं होता कि कहानी के विषय में समाहित हो सके।
आजकल तो बिना किसी उद्देश्य और विचार के भी कहानीकार एक विशेष स्थिति को चित्रित कर देता है। इनमें कोई जीवन दर्शन नहीं तब भी आनन्द है। कथानक की सत्य रुपरेखा ही यहाँ उद्देश्य है जैसे मन्नू भंडारी की ‘आकाश के आइने में’, जगदीश चतुर्वेदी की ‘मुर्दा औरतों की झील’, रेणु की ‘टेबल’, ज्ञानरंजन की ‘फैंस’ के इधर उधर’ आदि। आज की कहानी में फूड़ता शोर-शराबा भी बिना उद्देश्य के नहीं, वह यदि निराशा दिखाती है तो आशा और जीवन पाने की छटपटाहट भी उसमें व्याप्त है।
आज कहानियों में युग-बोध, जीवन की समस्याएं, ज्ञान, सत्य का परिचित रुप भी उपलब्ध है। वह तर्क, विचार, मनन के बाद सूक्ष्म से सूक्ष्म अंतर्दृष्टियों को हास्य व्यंग्य ओर नई सशक्त अभिव्यक्ति को भी स्पष्ट कर रही है। एक स्वतंत्र नदी की तरह अविरल मधुर धारा प्रवाहित हो रही है, होती जाएगी। नयी कहानी के विकास के मुख्य तीन पक्ष हैं, न तीनों पक्षों का विकास एक साथ ही हुआ। इन तीनों के पूर्ण विकास से ही आधुनिक कहानी का पूर्ण विकास सम्भव हुआ। ये तीनों पक्ष क्रमशः आत्मा, रुप और शैली है।
नन्द दुलारे बाजपेयी आधुनिक कहानी के विवाद पर अपना मत स्पष्ट करते हुए बताते हैं - ‘‘नये युग की हिन्दी कहानियों के सम्बन्ध में दो बातें बड़े विश्वास के साथ और बहुत ही निर्विवाद भाव से कही जाती हैं। एक यह है कि ये कहानियाँ आधुनिक पश्चिमी कहानियों से प्रभावित हैं और उन्हीं के आधार पर लिखी जा रही हैं। दूसरी यह कि इन कहानियों का प्राचीन भारतीय कथा-साहित्य से कोई क्रमागत सम्बन्ध नहीं है किन्तु मुझे ये दोनों ही बातें सुविचारित नहीं जान पड़ती और सहसा यह मान लेने का कोई कारण नहीं दिखता।’’(11) नई हिन्दी कहानियों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है अथवा प्राचीन कथा-साहित्य से उनका कोई तात्विक साम्य नहीं है।
आरम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मेरा यह विचार देशप्रेम की किसी संकीर्ण भावना से प्रेरित होकर नहीं बनाया गया, न इसके मूल में प्राचीन-प्रियता की कोई धारणा ही है। साहित्यिक इतिहास के समस्त विद्यार्थी यह जानते हैं कि प्राचीन भारतीय कहानियाँ अपने समय के सभ्य संसार में कितना प्रभाव रखती थीं, उनका कितना ऋण संसार के कथा साहित्य पर है। यदि आज हिन्दी कहानियाँ पश्चिम से प्रेरणा ले रही हैं तो यह पूर्ववर्ती ऋण का शोध ही माना जाएगा।
उक्त स्थितियों में हम बिना किसी हिचक के वास्तविक स्थिति का उल्लेख कर सकते हैं। इन नई कहानियों का प्राचीन कहानियों से असम्बद्ध होना भी सिद्ध नहीं होता। यद्यपि विषय, शैली और उद्देश्य आदि में पर्याप्त परिवर्तन हो गया है।
संक्षेप में मैं कह सकती हूँ कि आधुनिक कहानी की यही रूपरेखा है जो क्रमशः विकसित होकर पश्चिमी साहित्य में प्रतिष्ठित हुयी है। हमे यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि छोटी-छोटी कहानियाँ लिखने की यह कला हमने यूरोप से ली है। कम से कम उसका आज का विकसित रूप तो पश्चिम का ही है। ना कि हमारे यहाँ प्राचीन संस्कृत-साहित्य में भी कहानी थी, पर अनेक कारणों से जीवन की अन्य धाराओं की भांति साहित्य में भी हमारी प्रगति रुक गयी। साहित्य के लिए प्राचीनकाल ने जो मर्यादायें बाँध दी थीं उनका उल्लघंन करना वर्जित था। अतएव काव्य और नाटक की भाँति कथा में भी हम आगे न बढ़ सके। कोई वस्तु बहुत सुन्दर होने पर भी अरुचिकर हो जाती है, जब तक उसमें कुछ नवीनता न लायी जायें। एक ही तरह का काव्य, एक ही भांति के नाटक पढ़ते-पढ़ते आदमी थक जाता है और वह नयी चीज चाहता है, चाहे वह उतनी सुन्दर और उत्कृष्ट न हो। हमारे यहाँ या तो यह इच्छा हुयी नहीं, या हमने उसे इतना कुचला की जड़भूत हो गई। पश्चिम प्रगति करता रहा। उसे नवीनता की भूख थी और मर्यादाओं की बेड़ियों से चिढ़। जीवन के प्रत्येक भाग में इसकी इस अस्थिरता की, असंतोष की, बेड़ियों से मुक्त हो जाने की छाप लगी हुई है। साहित्य में भी उसने क्रान्ति मचा दी। कथा-साहित्य में विकास हुआ और उसके विषय में चाहे उतना बड़ा परिवर्तन न हुआ हो, पर शैली तो बिल्कुल ही बदल गयी। ‘‘अलिफ लैला’’ उस समय का आदर्श था, रोमांस था, पर उसमें जीवन की समस्यायें न थीं, मनोविज्ञान के रहस्य न थे अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन अपने सत्य रुप में इतना स्पष्ट न था।’’(12)
ऊपर का यह लम्बा उद्धरण प्रेमचंद के एक प्रख्यात लेख से है। हिन्दी साहित्य के महारथियों में वे ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इस सत्य को जाना और हिन्दी की आज की आवश्यकताओं के अनुसार कहानियाँ दीं। वर्तमान युग की जरूरतों को समझते हुए साहित्य के इस नये पाठक के मन की ही चीज उन्होंने उसे देने का प्रयास किया।
आज का कहानीकार कल्पना मात्र पर अपनी कहानी की भित्ति खड़ी न करके किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर उसकी नींव रखकर और कला के दूसरे उपकरणों की सहायता से उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके, सजीवता प्रदान करता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नये कहानी लेखकों की एक सशक्त पीढ़ी अपनी रंगारंग अनुभूतियों को लेकर हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में आगे आयी, लेकिन नयी कविता की तरह ‘नई कहानी’ भी कोई पृथक चीज है, ऐसा भ्रम शायद कुछ इसी प्रकार के लोगों ने ही फैलाया है, जिनका न तो अपना कोई स्थिर मत है, न स्पष्ट दृष्टि। कहानी पुराने ढांचे में किसी मनोरंजक कथानक को लेकर भी लिखी जा रही है।
‘‘आधुनिक कहानी की विकास प्रक्रिया के अध्ययन से स्पष्ट है कि आधुनिक कहानी मनुष्य की समस्याओं और उसकी चेतना के विभिन्न स्तरों की कहानी है।’’(13)
आधुनिक कहानियाँ कथा साहित्य में एक नये मोड़ के आने की सूचना तो देती ही है किन्तु नये रचनात्मक परिवेश की ओर संकेत भी करती है। जो अब जीवन में आ रहा है।
नये जीवन मूल्य
अब समीक्षा के क्षेत्र में यह बात कम-बेश रुप में मान्य हो चुकी है कि जीवन-मूल्यों से कटकर तैयार हुए कलागत मूल्य न केवल अनावश्यक बल्कि अविश्सनीय भी हैं। जीवन-मूल्यों द्वारा नियोजित मर्यादाओं के प्रति रचनाकार की स्वीकृति-अस्वीकृति अथवा तटस्थता उसकी रचना के मूल्यांकन का निष्कर्ष बनती है।
‘‘मानवीय मूल्यों के सन्दर्भ में यदि हम साहित्य को नहीं समझते तो अक्सर हम ऐसी प्रतिभान योजना को प्रश्रय देने लगते हैं कि समस्त साहित्यिक अभियान गलत दिशाओं में मुड़ जाता है।’’(14)
‘‘पहले जो कथाकार आदर्शों मे विश्वास करता था, वही पाँचवे दशक से ही मूल्यों में विश्वास करने लगा।’’(15)
कालान्तर में इस विश्वास की परिणति नये मूल्यों की तलाश और विघटनशील मूल्यों के अस्वीकार में होती गई।
जिस समय देश के भाग्य विधाता संविधान के निर्माण में जुटे हुये थे, उस समय भारतीय जन-मानस गम्भीर चुनौतियों के दौर से गुजर रहा था। देश का भयावह विभाजन, बढ़ता हुआ औद्योगीकरण पाश्चात्य विचारकों - डार्विन, माक्र्स, फ्रायड और सात्र्र आदि के आदर्शवाद विरोधी विचार-सूत्रों का दबाव आदि औसतन भारतीय चेतना को झकझोरने के लिये पर्याप्त थे। फलस्वरूप मानवीय सम्बन्धों का सतत् एवं स्वाभाविक रुप विकृत हो चला, रिश्तों में दरारें पड़ गयीं और पुरातन ‘‘जीवन-मूल्य’’ आधुनिकता से टकराकर या तो नष्ट हो गए या ‘‘नया चोला’’ धारण करने के लिये बाध्य हो गए।’’
जिस आदर्शपरक आस्था और अभिजात्य गौरव के प्रति मोह स्वाधीनता - संघर्ष की प्रेरक शक्ति बने थे, कलांतर में वे सब ‘‘कुन्ठा’’ और ‘‘घुटन’’ में बदल गये। ‘‘बीमार संवेदनाओं और आत्मकारी विश्वासों से जैसे समूचा वातावरण साहित्यिक हो गया।’’(16) तीव्र गति से फैलता हुआ औद्योगीकरण, बढ़ती हुयी जनसंख्या का दबाव तथा जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश करती हुयी राजनीति, ये सब उन आदर्शों और विश्वासों की टूटने के लिए समान रूप से उत्तरदायी हैं। जिनकी स्वतंत्रता संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। तब से आज तक बहुत बड़ा उलटफेर हो चुका है। हिन्दी कहानीकारों ने इस बदलते हुए माहौल पर अनेक कहानियाँ लिखी हैं जिनमें समकालीन मूल्य-बोध के सही रुप को देखा जा सकता है।
‘‘नयी कहानी’’ के संबंधों के परिवर्तित रुप, प्रेम और घृणा की सापेक्षता, अर्थहीन जीवन की समझ में भी रोमांचित सा स्पर्श, और अजनबी होते अपने ही संसार को सही अभिव्यक्ति दी है। अजनबी होते अपने ही संसार को चेतना की मार्मिक अभिव्यक्ति मन्नू भंडारी की कहानी की मूल-चेतना है।’’
स्वतंत्रता के उपरान्त लिखी गयी कहानियाँ दरअसल परम्परागत मूल्यों के प्रति विक्षोभ प्रदर्शित करती हुई नवीन जीवन मूल्यों को उभारती हैं। अधिकांश कहानियों में जीवन-मूल्य भरे हुए हैं जो पूर्णतया टूटे नहीं हैं। नवीन मूल्यों की स्थापना की ओर भी कहानीकारों ने संकेत ही किया है केवल ‘‘तलाश’’ (कमलेश्वर)’’, (दाम्पत्य)’’ (राजकमल चैधरी) और ‘‘निश्चय’’ (कुल भूषण) आदि कुछ कहानियों में नवीन मूल्यों की स्थापना का प्रयास मिलता है।’’ इस पीढ़ी के कहानीकारों में ‘‘मानवीय मूल्यों के संरक्षण, जीवनी शक्ति के परिप्रेषण एवं सामाजिक नव निर्माण की उत्कंट प्यास है इतना ही नहीं, बल्कि आज की कहानी नयी भाव भूमियों का सृजन कर रही है।’’(17)
समय-समय पर टूटते-बनते मूल्यों के अनुसार रचनाकार की दृष्टि में भी परिवर्तन होना अनिवार्य है। लेकिन जैसा कि रामचन्द्र ‘‘भ्रमर’’ ने लिखा है ‘‘किसी भी रचनाकार की कृति उस चिंतन सत्य से अडिग नहीं होनी चाहिये, जो निरन्तर प्रगति का एकमात्र आधार है - मनुष्य के सनातन संघर्ष के प्रति आस्थावान होकर भविष्य के प्रति पूर्ण आशावादी होना।’’(18)
‘‘कतिपय आधुनिकतावादी राजकुमार ‘‘भ्रमर’’ के कथन को परम्परावादी ठहराते हुये उसकी सार्थकता को संदेहास्पद सिद्ध करने की कोशिश कर सकते ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि भारतीय परम्परा न केवल कुछ सामाजिक आदर्शों और मूल्यों के प्रति दुहराया गया विश्वास है अपितु उन मूल्यों की अस्वीकृति भी है जो अनुपयोगी सिद्ध हो जाते हैं।(19)
अतः परम्परा से कटे हुए मानवीय मूल्य न केवल अयथार्थ होते हैं बल्कि नाकाफी भी हमें आश्वत होना चाहिए कि सातवें - आठवें दशक के कहानीकार समकालीन जीवन-मूल्यों की यथार्थ एवं ईमानदार अभिव्यक्ति के नियामक सिद्ध हुए हैं।
इस प्रकार नए तथ्य नए प्रयोग और नव-जीवन मूल्यों द्वारा नयी कहानी ने कथा साहित्य को नयी अर्थवत्ता तथा कला-संचेतना प्रदान की है जो नितांत नयी उपलब्धि है। उक्त रचना धर्म को देखते हुए जैनेन्द्र जी का यह आपेक्ष कि नयी कहानी एक संघीय संज्ञा है, सटीक बैठता है।
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आधुनिक कथा साहित्य - गंगाप्रसाद पाण्डेय, पृ. 19
2. समकालीन हिन्दी साहित्य: नयी कहानी प्रश्न और उपलब्धियाँ - प्रवीण नायक, पृ. 61
3. जनवादी हिन्दी कहानी का विकास एक परिप्रेक्ष्य - आनंद प्रकाश, पृ. 58
4. नयी कहानियाँ - परमानन्द श्रीवास्तव, पृ. 33
5. परम्परा का नया मोड़: रोमांटिक यथार्थ (नयी कहानी संदर्भ व प्रकृति) पृ. 228
6. नयी कहानी: प्रतिनिधि हस्ताक्षर - डा. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 128
7. समकालीन हिन्दी कहानी और मूल्य संघर्ष की दिशा - डा. सविता जैन, पृ. 121
8. स्वतंत्रता के बाद की कहानी: नई कहानी दशा दिशा सम्भावना, श्रीमती विजय चैहान, पृ. 223
9. धर्मयुग - हिन्दी पत्रिका - 16 अक्टूबर, 1979
10. स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी कहानी - कृष्णा अग्निहोत्री, पृ. 12
11. आधुनिक साहित्य - नन्ददुलारे बाजपेयी - पृ. 239
12. हिन्दी कहानी - एक अन्तरंग परिचय, उपेन्द्रनाथ अश्क, पृ. 17-18
13. कहानी के तत्व: भगवतीचरण वर्मा, पृ. 29
14. मानव मूल्य और साहित्य: धर्मवीर भारती, पृ. 155
15. समकालीन कहानी: दिशा और दृष्टि (सं. धनन्जय): डा. बच्चन सिंह का निबन्ध गुमशुदा पहचान: तलाश की प्रतिक्रिया, पृ. 89
16. समकालीन कहानी: समांतर कहानी: समांतर से पूर्व कहानी में यथार्थ, जीवन: पृ. 21
17. कहानी नयी कहानी: डा. नामबर सिंह: पृ. 24
18. गिरिस्तन - (कहानी संग्रह) पृ. 166
19. श्री कान्त वर्मा: आलोचना अंक, 16 जनवरी-मार्च, 1972
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सम्पर्क -
वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग,
डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन)
उ0प्र0-285001,भारत

23 अगस्त 2009

गणेश भजन : स्व. शान्ति देवी वर्मा

भोले घर बाजे बधाई

स्व. शांति देवी वर्मा

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मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...


गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...

द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...

हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...

स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...

लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...

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20 अगस्त 2009

सुधा भार्गव की दो लघुकथाएं - "भविष्य" "भूख"

1 - भविष्य --
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यदि दिल से दिल नहीं मिले और बोझा प्रतीत होने लगे तो सम्बन्ध बिच्छेद करदेना ही ठीक है !'
'दिल से दिल मिलता नहीं ,मिलाया जाता है !बोझ लगाने से पहले एक दूसरे को उसकी समस्त अच्छाइयों और बुराइयों के साथ अपनाया जाता है ,तभी शादी सफल होती है !'
'ठीक है .....ठीक है !एक बार पवन का तलाक हो गया तो इसका यह मतलब यह नहींकि दूसरी बार भी हो !पिछले कटु अनुभवों से उसने बहुत कुछ सीखा है !अब तलाक़ की नौबत नहीं आयेगी !तु मेरी बात मान ,उससे शादी कर ले !वह निहायत शरीफ और नेक इंसान है !'
'कैसे विश्बास कर लूँ भैया ,वह मुझे तलाक़ नहीं देगा !-----जब आप इतना कह रहे हैं तो मैं शादी करने को तैयार हूँ !लेकिन वैवाहिक रीति रस्मों के समय मेरी कुछ शर्तें होंगी १'
'कैसी शर्तें ?'
यही कि तलाक़ की परिस्थिति पैदा हो भी जाये तो मियां बीबी की कचहरी में किन बातों का मानना जरुरी होगा !विवाह के सात वचन भरने के साथ विवाह -विच्छेद के वचन भी निबाहने होंगे !'
'इस उधम बाजी से तुम्हे क्या मिलेगा '!
.'भविष्य की सुरक्षा !'
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2 भूख

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मैंने उसकी नन्ही हथेली पर एक सिक्का धरा और निश्चिंत हो गई !लेकिन वह सुबकते हुए बोला --'मैं तो भूखा ही रह जाऊंगा !'दूसरे दिन वह फिर मिला !मैंने उसकी हथेली पर चार रोटियां रख दीं !वह फिर सुबकने लगा --'इससे मेरी भूख मिट जायेगी पर बाप भूखा रह जाएगा !उसे शराब की भूख लगी है !'
मुझे दोनों चीजें देना मंजूर न था !मैं बोली--'कोई एक तो भूखा रहेगा ही !'
'मैं भूख बर्दाश्त कर सकता हूँ उसकी मार नहीं !'वह फिर सुबकने लगा !
यन्त्रवत एक हाथ उठा और बढ़ गया पर्स की ओर !

18 अगस्त 2009

"रिश्ते"

(1)

कल रात
एक और रिश्ते की
मौत हो गई
पड़ोस में
अतिवेदना के स्वर
कुत्ते-बिल्ली का रोना था
सुबह-सवेरे उठ कर
कोई नया रिश्ता जोड़ना था
तकियों में सिर छुपाये
लंबी तान सो रहे
भई
किसे फुर्सत है मरने की
मिट्टी परआँख भरने की !

(2)

एक बार फिर
कोई रिश्ता मर गया
उम्र भर
जिसने चूमा-चाटा
साथ सुलाया
उससे ही
भरी भीड़ में
डर गया !

-डा0 अनिल चड्डा

17 अगस्त 2009

ये प्रेम है ......!!

ये प्रेम है ......!!
दुख तो हर हाल में देगा।
तेरे साथ होने पर भी .....
तेरे जाने के मौसम मे भी!
सोचती हूँ ......!!
दुखी होना है अगर हर हाल में......
तो तेरे साथ में रह कर दुखी होना बहतर है ।
रोने को एक कन्धा तो होगा ......
दुश्मन ही सही.... अपना -सा एक बन्दा तो होगा !!
ये प्रेम है .........!!!
दुख तो हर हाल में देगा।
दुख से सुख की अनुभूती है।
प्रेम बिन ज़िन्दगी अधूरी है ।
प्रेम से सारी खुशिया है।
प्रेम बिन ज़िन्दगी सूखी भूमि है।
प्रेम है तो सुन्दरता है।
अनुभूती है ।
खुशिया है ।
दुख है ।
आंसू है ।
संवेदना है ।
सारे रिश्ते नाते है।
जो अपनापन समझता है !!
ये प्रेम है .......
दुख तो हर हाल में देगा !!
दुख तो हर हाल में देगा !!!

बना क़ैस, रांझा बना था कभी मैं - गज़ल

बने फिरते थे जो जमाने मे शातिर
पहाड़ों तले आये वे ऊंट आखिर

छुपाना है मुश्किल इसे मत छूपा तू
हमेशा मुह्ब्बत हुई यार जाहिर

बना क़ैस ,रांझा बना था कभी मैं
मेरी जान सचमुच मैं तेरी ही खातिर

खुदा को भुलाकर तुझे जब से चाहा
हुआ है खिताब अपना तब से ही काफिर

बनी को बिगाड़े, बनाये जो बिगड़ी
कहें लोग हरफ़न में उसी को तो माहिर

मुझे छोड़कर तुम कहां जा रहे हो
हमीं दो तो हैं इस सफर के मुसाफिर

तेरी खूबियां 'श्याम' सब ही तो जाने
खुशी हो कि ग़म तू हरदम है शाकिर

16 अगस्त 2009

सरस्वती वन्दना: आचार्य सन्जीव 'सलिल'

गीत

संजीव 'सलिल'

अम्ब विमल मति दे

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....

बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....

कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....

हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....

नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
'सलिल' विमल प्रवहे.....

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दीपक मशाल की ग़ज़ल - मैं बेजार रोती रही


बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा.
वक़्त का हर एक कदम, राहे ज़ुल्म पर बढ़ता रहा.

ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,
मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा.

उसको खबर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,
मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा.

मैं बारहा कहती रही, ए सब्र मेरे सब्र कर,
वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा.

था कहाँ आसाँ यूँ रखना, कायम वजूद परदेस में,
पानी मुझे गंगा का लेकिन, हिम्मत बहुत देता रहा.

बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
'मशाल' तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा.
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दीपक मशाल
स्कूल ऑफ़ फार्मेसी
97, लिस्बर्न रोडबेलफास्ट
(युनाईटेड किंगडम) BT9 7BL