23 सितंबर 2009

स्मृति गीत / शोक गीत-

पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

आचार्य संजीव 'सलिल'

*

वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

*

वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

*

वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

*

19 सितंबर 2009

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह "राग-संवेदन" की कविता 'आल्हाद' 'आसक्ति'

(1) आह्लाद
.
बदली छायी
बदली छायी!
.
दिशा-दिशा में
बिजली कौंधी,
मिट्टी महकी
सोंधी-सोंधी!
.
युग-युग
विरह-विरस में
डूबी,
एकाकी
घबरायी
ऊबी,
अपने
प्रिय जलधर से
मिल कर,
हाँ, हुई सुहागिन
धन्य धरा,
मेघों के रव से
शून्य भरा!
.
वर्षा आयी
वर्षा आयी!
उमड़ी
शुभ
घनघोर घटा,
छायी
श्यामल दीप्त छटा!
.
दुलहिन झूमी
घर-घर घूमी
मनहर स्वर में
कजली गायी!
.
बदली छायी
वर्षा आयी!

--------------


(2) आसक्ति
.
भोर होते —
द्वार वातायन झरोखों से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल चिड़ियाँ
जगाती हैं,
उठाती हैं मुझे!
.
रात होते
निकट के पोखरों से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी दर्दुर
गा - गा
सुलाते हैं,
नव-नव स्वप्न-लोकों में
घुमाते हैं मुझे!
.
दिन भर —
रँग-बिरंगे दृश्य-चित्रों से
मोह रखता है
अनंग-अनंत नीलाकाश!
.
रात भर —
नभ-पर्यंक पर
रुपहले-स्वर्णिम सितारों की छपी
चादर बिछाए
सोती ज्योत्स्ना
कितना लुभाती है!
अंक में सोने बुलाती है!
.
ऐसे प्यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा — इतनी मनोहर
छोड़ दूँ कैसे?
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डा. महेंद्रभटनागर,
सर्जना-भवन,
110 बलवन्तनगर, गांधी रोड,
ग्वालियर — 474002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908
मो.: 09893409793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
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18 सितंबर 2009

नवगीत: लोकतंत्र के शहंशाह की जय... --आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

लोकतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
राजे-प्यादे
कभी हुए थे.
निज सुख में
नित लीन मुए थे.
करवट बदले समय
मिटे सब-
तनिक नहीं संशय.
कोपतंत्र के
शहंशाह की जय....
*
महाकाल ने
करवट बदली.
गायब असली,
आये नकली.
सिक्के खरे
नहीं हैं बाकि-
खोटे हैं निर्भय.
लोभतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
जन-मत कुचल
माँगते जन-मत.
मन-मथ,तन-मथ
नाचें मन्मथ.
लोभ, हवस,
स्वार्थ-सुख हावी
करुनाकर निर्दय.
शोकतंत्र के
शहंशाह की जय....

******

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह "राग-संवेदन" की कवितायें - 'तुलना' 'अनुभूति'

कुछ कारणों से डॉ० महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह "राग-संवेदन" की कविताओं का प्रकाशन बाधित हो गया था, अब फ़िर से रचनाओं का प्रकाशन सुचारू रूप से किया जाएगा। असुविधा के लिए खेद है।
(संचालक)
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(15) तुलना
.
जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
.
उसकी विषयवस्तु को —
.
क्रमिक अध्यायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
.
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
.
जीवन की कथा
स्वतः बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
.
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
.
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्रक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
.
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुनः उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!

.
(16) अनुभूति
.
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ
करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़
भरने के सिवा,
क्या किया?
.
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके
बार-बार चूके!
.
यों कहें —
जिये;
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग
हो जाने के बाद —
दंग हूँ,
बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
.
विश्वास किया
लोगों पर,
अंध-विश्वास किया
अपनों पर!
.
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार!
.
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
.
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब —
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन!
.
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ हैं मेरा,
मेरा बुत है!
अब,
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
.
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!
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16 सितंबर 2009

-डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - राष्ट्रभाषा हिन्दी: विकास के सोपान


राष्ट्रभाषा हिन्दी: विकास के सोपान
-डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
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भाषा का प्रवाह नीर की तरह है जहाँ से होकर भाषा पयस्विनी का प्रवाह होता है। उसकी गन्ध का उसमें समाहित हो जाना स्वाभाविक है। इतना ही नहीं भाषा पहले बनती है, राष्ट्रवाद में। हिन्दी भाषा के विविध नाम रूप हैं, यथा सम्पर्क भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा। इन विविध नाम रूपों के साथ हिन्दी अलग-अलग संदर्भों में विकसित हुई है। हिन्दी को जब हम सम्पर्क भाषा के रूप में देखते हैं तो हमें उसकी एक सुदीर्घ परम्परा दिखाई पड़ती है। सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भी बोली जाती थी, जब खड़ी बोली के रूप में वह एक सीमित क्षेत्र की भाषा थी। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की स्थापना बहुत प्राचीन नहीं है। वह मूलतः राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की देन है और राजभाषा हिन्दी मुगलकाल से प्रयुक्त होती रही है। वास्तविकता यह है कि सम्पर्क भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के संदर्भ में हिन्दी के विकास की दिशाएं अलग-अलग रही हैं, क्योंकि इन विविध रूपों में हिन्दी के सामाजिक संदर्भ भी अलग-अलग हैं। अतः सम्पर्क भाषा, राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में हिन्दी को एक करके नहीं देखा जा सकता।
शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से राष्ट्र-भाषा का सीधा सा अर्थ है राष्ट्र की भाषा और इस तरह राष्ट्र में जितनी भी भाषाएं प्रयोग की जा सकती हैं, उन सबको राष्ट्रभाषा कहा जा सकता है। किन्तु राष्ट्रभाषा का एक रूढ़ अर्थ है जिसका अभिप्राय है वह भाषा, जिसका प्रयोग सामान्यतः सम्पूर्ण राष्ट्र करे। इस रूप में राष्ट्रभाषा और सम्पर्क भाषा समानार्थी हो जाते हैं। परन्तु राष्ट्रभाषा और राजभाषा में एक वैधानिक अंतर है। राजभाषा का अर्थ राजकीय अर्थात राज-काज की भाषा से है। आधुनिक राजनीतिक परिवेश को ध्यान में रखते हुये कहा जा सकता है कि केन्द्र व राज्य सरकारें शासकीय पत्र व्यवहार, राजकाज तथा शासकीय कार्यों के लिये जिस भाषा का प्रयोग करती हैं, उसे राजभाषा कहा जाता है। इस तरह राजभाषा और राष्ट्रभाषा में मूल अंतर संवैधानिक मान्यता का है।
राजभाषा किसी भी देश की संविधान सम्मत भाषा होती है, जिसका प्रयोग मूलतः शासन विधान, न्याय पालिका और कार्यपालिका द्वारा किया जाता है। इसके विपरीत राष्ट्रभाषा राष्ट्र में व्यवहृत भाषा होती है। यह आवश्यक नहीं कि राष्ट्रभाषा किसी देश की राजभाषा भी हो किन्तु यह आवश्यक है कि राजभाषा उस देश की राष्ट्रभाषा अवश्य हो। वस्तुतः राजभाषा का क्षेत्र कुछ अधिक व्यापक होता है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हिन्दी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को तीन कालों में बाँटा जा सकता है -
1. अंग्रेजी शासन से पूर्व राजभाषा हिन्दी
2. अंग्रेजी शासन में राजभाषा हिन्दी
3. स्वतन्त्र भारत में राजभाषा हिन्दी
1. अंग्रेजी शासन से पूर्व राजभाषा हिन्दी
अंग्रेजी शासन से पूर्व अर्थात मुगल शासन में सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का व्यापक विस्तार पहले से ही था। यद्यपि मुगल शासन में राजकाज में फारसी का प्रयोग होता था किन्तु फारसी का प्रयोग शासन के उच्च स्तर तक सीमित था। निचले स्तर पर चार-पाँच शताब्दी तक शासन का कार्य हिन्दी में होता था। मध्यकालीन शासन-व्यवस्था के प्रसिद्ध जानकार ब्लाखमैन ने सन् 1871 ई. के ‘‘कलकत्ता रिव्यू’’ में लिखा है ‘‘माल गुजारी का इकट्ठा करना और जागीरों का प्रबन्ध करना उस समय बिल्कुल हिन्दुओं के हाथों में था। इसलिये निजी तथा सर्वसाधारण के हिसाब-किताब सब हिन्दी में रखे जाते थे। सभी दस्तूर-उल अमलों से इस बात की पुष्टि होती है कि प्रारम्भ से लेकर अकबर के शासनकाल के मध्य तक सभी सरकारी कागजात हिन्दी में रखे जाते थे।’’
राजा टोडरमल, जो अकबर के राजस्व मंत्री थे, के समय आदेश सरकारी कागजातों में फारसी में लिखे जाने लगे और हिन्दी नेपथ्य में चली गई। फारसी सरकारी नौकरी से जुड़ गई। फलतः युवकों ने अनिवार्यतः फारसी सीखी और इससे एक मंुशी वर्ग तैयार हुआ, जिसने तीन शताब्दी तक सरकार और फारसी की सेवा की। कारण स्पष्ट है कि हिन्दी का प्रयोग सीमित हो गया।
2. अंग्रेजी शासन में राजभाषा हिन्दी
ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की स्थापना के बाद भारत में प्रमुख भाषाओं की स्थिति इस प्रकार थी। अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी की भाषा थी एवं फारसी मुगलकाल से ही देश की राजभाषा के रूप में प्रयुक्त हो रही थी। इसके साथ क्षेत्रीय भाषाएं (इनमें हिन्दी सर्वाधिक लोगों द्वारा व्यापक क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा प्रयुक्त होती थी।)
शुरूआती दौर में कम्पनी शासन ने भाषा नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। मुगल शासन के पतन के बाद फारसी का महत्व यद्यपि कम हो गया था और उसका प्रचलन भी सीमित होने लगा था किन्तु कम्पनी शासन ने फारसी को राजभाषा बने रहने दिया। साथ ही हिन्दी की लोकप्रियता और सामाजिक दबाव के कारण फारसी के साथ हिन्दी का प्रयोग भी जारी रहने दिया। फलतः कम्पनी के राजकीय आदेशों, सूचनाओं और अन्य सरकारी कागजों में फारसी और हिन्दी दोनों का प्रयोग मान्य हो गया। कम्पनी शासन ने अपने सिक्कों और स्टाम्पों में फारसी के साथ-साथ नागरीलिपि को भी स्थान दिया। सन् 1830 तक हिन्दी का द्वितीय राजभाषा के रूप में प्रयोग होता रहा। यद्यपि फारसी के प्रयोग में हिन्दी की व्यापक लोकप्रियता के कारण अनेक व्यवहारिक कठिनाइयाँ थीं तो भी सन् 1830 तक कम्पनी शासन ने अपनी भाषा नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। अंग्रेजी में राजकाज करने के लिए तब अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं थी। फ्रेडरिक जाॅन और ड्रमन्ड जैसे अंग्रेज अधिकारी भी इस वास्तविकता से अच्छी तरह परिचित थे कि अभी भारतीय जनता पर अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को लादना अव्यावहारिक होगा।
राजभाषा के रूप में देशी भाषाओं के प्रयोग हेतु कम्पनी शासन ने सन् 1830 में बंगला, गुजराती, मराठी आदि को मान्यता दी। कम्पनी शासन की विज्ञप्ति में यह स्पष्ट कहा गया कि अदालतों की भाषा हिन्दी होगी और लिपि नागरी के स्थान पर फारसी भी हो सकती है। 20 नवम्बर सन् 1831 को एक कानून बना जिससे अदालतों में देशी भाषाओं का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इसके अनुसार बंगाल में बंगला, उड़ीसा में उड़िया, गुजरात में गुजराती तथा असम में असमिया भाषा को कानूनी स्वीकृति मिली। इस कानून के तहत संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश), बिहार तथा माध्य प्रान्त (मध्य प्रदेश) की अदालती भाषा के लिए हिन्दी को मान्यता मिलनी चाहिए थी किन्तु ऐसा नहीं हो सका। सरकार ने हिन्दी के स्थान पर फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू को इन प्रान्तों की अदालतों में मान्यता दे दी। कम्पनी ने राजभाषा फारसी को तो हटाया ही, इसके साथ लोक भाषा हिन्दी को भी अपने पूर्व अधिकार से भी वंचित कर दिया। मलिक मोहम्मद के अनुसार ‘‘यह विचित्र विडम्बना थी कि जब तक देश में फारसी का प्रचलन रहा तब तक देशी भाषा होने के कारण हिन्दी और उसकी लिपि नागरी-दोनों को स्थान मिला था किन्तु जब फारसी के स्थान पर उर्दू का प्रचलन हुआ तो हिन्दी का बचा-खुचा प्रयोग भी नष्ट हो गया।’’
फारसी लिपि में उर्दू का राजभाषा के रूप में प्रवेश कम्पनी शासन की सुविचारित भाषा नीति के तहत हुआ। इसमें फोर्ट विलियम कालेज के गिल क्राइस्ट की भाषा संबन्धी नीति का ही अनुसरण किया गया था। गिलक्राइस्ट उर्दू के पोषक थे। उनकी प्रेरणा से ही उर्दू, फारसी के स्थान पर सरकारी भाषा बनने के योग्य हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी (हिन्दवी, अरबी, फारसी का मिश्रित रूप) के रूप में उर्दू का ही प्रचार किया। इससे उर्दू की सरकारी स्थिति दृढ़ हो गई। हिन्दी के विद्वानों के अनुसार ‘‘सम्भवतः यह बिट्रिश शासकों की चाल थी। वे उर्दू को प्रोत्साहन देकर मुसलमानों को प्रसन्न रखना चाहते थे क्योंकि उर्दू उस समय देश के जनसाधारण की भाषा नहीं थी तथापि अंग्रेजों ने उसे सरकारी क्षेत्रों में स्थान देकर हिन्दी के प्रति घोर अन्याय किया था। कचहरियों में उर्दू को बलपूर्वक थोपकर अंग्रेजों ने ऐसा वातावरण तैयार किया जिससे भाषा के क्षेत्र में साम्प्रदायिकता पनपी।’’
मध्य प्रान्त, संयुक्त प्रान्त तथा बिहार के लोगों की मातृभाषा मुख्यतः हिन्दी थी। इसलिए इन प्रान्तों में उर्दू को अदालती भाषा बनाने के विरूद्ध जनमत तैयार होने लगा। इसका एक व्यावहारिक कारण यह भी था कि अदालती भाषा नाम के लिए उर्दू थी किन्तु वह फारसी के जटिल शब्दों से बोझिल थी। फारसी से बोझिल इस उर्दू के लिए अंग्रेज विद्वान ग्रौस की टिप्पणी थी ‘‘आजकल कचहरी की भाषा बड़ी कष्टदायक है क्योंकि एक तो वह विदेशी है, दूसरे इसे भारतवासियों का अधिकांश भाग नहीं जानता।’’ अतः यह मांग जोर पकड़ने लगी कि अदालतों की भाषा सरल, सुबोध और नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी होनी चाहिए। इस मांग ने एक व्यापक आन्दोलन का रूप ले लिया। फलतः सन् 1870 में सरकार ने एक आदेश पत्र जारी किया। इसमें कहा गया कि फारसी बहुल उर्दू नहीं लिखी जाए बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाये जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी, फारसी से पूर्णतः अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। इस आदेश का कोई प्रभाव नहीं हुआ और फारसी से बोझिल उर्दू का प्रयोग जारी रहा।
सरकार ने सन् 1873 में एक आदेश दिया कि बिहार की अदालतों और दफ्तरों में सब विज्ञप्तियाँ और घोषणाएं हिन्दी में जारी की जाएं परन्तु इस आदेश का क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं हुआ और उर्दू का प्रयोग उसी प्रकार होता रहा। अप्रैल, 1874 में एक परिपत्र द्वारा हिन्दी के नागरी लिपि में प्रयोग का पुनः आग्रह किया गया कि सन् 1873 के आदेश का पालन किया जाए। फिर भी हिन्दी बहिष्कार जारी रहा। सन् 1875 में सरकार ने पुनः एक परिपत्र सम्पूर्ण विभागीय अधिकारियों के पास भेजा किन्तु परिणाम कुछ नहीं निकला। हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए आन्दोलन को बढ़ते देखकर बंगाल के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर ऐड्रोल ने राजभाषा नीति पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने सोचा कि सरकारी आदेश का पूर्ण पालन तभी सम्भव हो सकेगा जब वे केवल नागरी लिपि में लिखे जाएं तथा जनता की ओर से जो कागज अदालतों में प्रेषित किए जाएं वे भी केवल इसी (नागरी) लिपि में हों। नये शासकीय आदेश में स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि फारसी लिपि में कोई कागज न तो अदालतों से जारी किया जाए और न जनता से अदालतों में स्वीकार किए जाएं। इसके अतिरिक्त पुलिस अधिकारियों को आदेश दिया गया कि यदि वे जनवरी, 1881 तक नागरी लिखना-पढ़ना नहीं सीखेंगे तो उन्हें हटा दिया जायेगा। उनकी जगह हिन्दी जानने वालों को ले लिया जायेगा। पहले इस आदेश की भी उपेक्षा की गई किन्तु शासन की दृढ़ता को देखकर क्रमशः फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू का स्थान हिन्दी ने ले लिया। इस प्रकार मध्य प्रान्त की कचहरियों में हिन्दी को स्थान मिला। उधर संयुक्त प्रांत की अदालतों में हिन्दी को मान्यता देने के लिए आन्दोलन चलता रहा। सन् 1854 व सन् 1856 के सरकारी आदेशों से हिन्दी को प्रांत के राजस्व विभाग की अदालतों में स्थान मिल गया था किन्तु यह संतोषजनक स्थिति नहीं कही जा सकती थी।
वार्षिक प्रांतीय भाषा रिपोर्ट में सन् 1873-74 में कहा गया कि प्रांत के 71 प्रतिशत विद्यार्थी हिन्दी माध्यम से पढ़ने के इच्छुक हैं किन्तु सरकार ने इसकी उपेक्षा करते हुए सन् 1877 में एक आदेश निकाला जिसके अनुसार ‘सरकारी नौकरियां केवल उनको ही उपलब्ध होंगी जो उर्दू या फारसी भाषा के साथ ‘वर्नाकलुर’ अथवा ‘एंग्लो मिडिल परीक्षा’ उत्तीर्ण होंगे। इस आदेश से हिन्दी समर्थकांे को आघात पहुँचा। फलतः सन् 1880 तक आते आते हिन्दी आन्दोलन काफी व्यापक हो गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में लेखकों और पत्रकारों ने राजभाषा हिन्दी आन्दोलन को आगे बढ़ाया। सन् 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न पत्र के उत्तर में भारतेन्दु जी ने लिखा - ‘‘सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।’’ सन् 1893 में अंग्रेजी सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। सन् 1896 में यह बात तेजी से फैली कि फारसी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि अपनाई जायेगी। इससे हिन्दी और उर्दू समर्थकों को समान रूप से धक्का पहुँचा। हिन्दी समर्थकों ने नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अंग्रेजी में ‘नागरी करैक्टर’ नामक पुस्तक में भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला। तब अंग्रेज सरकार को रोमन लिपि के प्रति देशवासियों की विरोध भावना का पता चला। इस विवाद को हल करने के लिए समिति गठित हुई। उसने भी रोमन लिपि के पक्ष में ही अपना निर्णय दिया। नागरी प्रचारिणी सभा ने इसका सक्रिय विरोध किया।
राजभाषा हिन्दी आन्दोलन की बागडोर पंडित मदनमोहन मालवीय के हाथों में आई। आपने ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजूकेशन इन नार्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज’ पुस्तिका में स्पष्ट किया कि स्वयं विभिन्न अंग्रेज अधिकारियों तथा विशेषज्ञों ने 19 वीं सदी के आरम्भ से ही समय-समय पर यह स्वीकार किया है कि हिन्दी को देश की अदालती भाषा बनने का अधिकार है उन्होंने नागरी लिपि की अत्यंत प्रशंसा करते हुए यह सिफारिश की है कि यदि नागरी लिपि के द्वारा अदालत में काम होगा तो जनता के एक विशाल भाग को सुगमता हो जायेगी। मदन मोहन मालवीय जी ने सन् 1898 में अपने नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल के साथ संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गर्वनर जनरल सर एण्टोनी मैकडैनुएल से मिलकर उन्हें एक याचिका प्रस्तुत की। गर्वनर ने स्वीकार किया कि यद्यपि वह अदालतों की भाषा के शीघ्र परिवर्तन के पक्ष में नहीं है फिर भी वे यह मानते हैं कि यदि नागरी लिपि के प्रयोग में छूट दी जाय तो इससे जनता का हित होगा। उन्होंने याचिका पर पूरी जाँच करने और विचार करने का आश्वासन दिया। इधर उर्दू समर्थकों ने भी उर्दू के लिए आवाज उठाई और सरकार के पास अपने प्रतिनिधि मण्डल भेजे। राजभाषा के रूप में हिन्दी-उर्दू का प्रश्न पूर्णतः राजनीतिक बन गया और एक सीमा तक साम्प्रदायिक भी। सर सैय्यद अहमद जैसे मुस्लिम नेता भी हिन्दी के प्रबल विरोधी बन गये। सरकार का झुकाव पहले से ही उर्दू के लिए था। स्पष्ट है कि समर्थकों को अधिक उग्रता से काम लेना पड़ा। अन्ततः बिट्रिश सरकार ने प्रशासन के तीन प्रमुख विभागों - राजस्व बोर्ड, हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार तथा न्याय-विभाग के कमिश्नर से राजभाषा के संबंध में सहमति मांगी। इन विभागों की सम्मति के आधार पर सरकार ने 18 अप्रैल, 1900 को अपना निर्णय इस प्रकार दिया:
सभी लोग अपनी इच्छानुसार अपनी याचिकाएं अथवा शिकायतें नागरी या फारसी लिपि में प्रयुक्त कर सकते हैं। सभी सम्मन, घोषणाएं तथा इस प्रकार के अन्य पत्र जो अदालतों तथा राजस्व बोर्ड के दफ्तरों से जारी किए जाते हैं अब फारसी तथा नागरी दोनों लिपियों में होंगे। इन कागजों में रिक्त स्थान भी दोनों लिपियों में भरे जा सकेंगे। सभी कार्यालयों में (उन्हें छोड़कर जिनमें सब काम अंग्रेजी में होता है) क्लर्क या अधिकारी पद पर भविष्य में केवल ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति की जायेगी जो फारसी तथा नागरी दोनों भली-भाँति लिख-पढ़ सकते हैं।
उर्दू भाषा प्रेमियों ने इस नयी व्यवस्था का विरोध किया। यद्यपि यह व्यवस्था हिन्दी को पूर्णता राजभाषा का दर्जा नहीं देती थी किन्तु आंशिक रूप से ही सही, अदालतों में हिन्दी को स्थान मिल ही गया। चूँकि लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति के अन्तर्गत अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बनती जा रही थी, साथ ही शासन के उच्च स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग होने लगा था। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक आते-आते अंग्रेजी ने उच्च शिक्षा, प्रशासन, राजनीति सभी क्षेत्रों में अपना स्थान बना लिया था। हिन्दी, उर्दू का प्रयोग राजकाज के निचली अदालतों तक ही सीमित रहा। सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद अंगे्रजी साम्राज्य के विरूद्ध व्यापक जनमत तैयार करने के लिए एक ‘सार्वदेशिक भाषा’ की आवश्यकता अनुभव की गई। राष्ट्रीय चेतना से समपृक्त राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को व्यापक समर्थन मिला। यहीं से राष्ट्रभाषा हिन्दी आन्दोलन की शुरूआत हुई। इसका एक अलग इतिहास है। हिन्दी के एक प्रसिद्ध समीक्षक का मानना है कि - ‘‘यहाँ केवल इतना संकेत कर देना पर्याप्त होगा कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को किसी प्रकार की कानूनी मान्यता नहीं मिली थी वरन् अपनी व्यापक लोकप्रियता और प्रयोग की सुदीर्घ परम्परा के कारण हिन्दी अहिन्दी सभी क्षेत्रों के राजनेताओं, समाज सुधारकों एवं चिन्तकों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का विचार ही सर्वप्रथम अहिन्दी क्षेत्र बंगाल से उत्पन्न हुआ। राष्ट्रभाषा आन्दोलन में महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, काका साहब कालेलकर, लाला लाजपतराय, डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद, पुरूषोत्तम दास टण्डन, मदन मोहन मालवीय, सेठ गोविन्ददास जैसे महान व्यक्तियांे का समर्थन और सक्रिय सहयोग रहा। साथ ही सामाजिक सुधार आन्दोलन से सम्बद्ध संस्थाओं आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी ने भी राष्ट्र भाषा आन्दोलन में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई। हिन्दी प्रचारक संस्थाओं जैसे काशी नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुजरात विद्यापीठ आदि ने राष्ट्र भाषा हिन्दी आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रभाषा आन्दोलन के कारण राजभाषा के रूप में हिन्दी को एक सशक्त पृष्ठभूमि मिली।
3. स्वतंत्र भारत में राजभाषा हिन्दी
अब प्रश्न यह उठता है कि देश की राजभाषा हिन्दी हो या हिन्दुस्तानी? इस प्रश्न को लेकर राजनेताओं में काफी मतभेद रहा। फारसी के पतन के बाद उर्दू का प्रयोग सीमित हो चला था। इसके विपरीत हिन्दी राष्ट्रभाषा आन्दोलन के कारण सशक्त समर्थन पा चुकी थी। हिन्दुस्तानी गाँधी जी का दिया हुआ नाम था। किन्तु वह आम बोलचाल की ही भाषा थी। राजकाज के लिये तो हिन्दी ही सर्वथा उपयुक्त थी। संविधान सभा पर हिन्दी को राजभाषा घोषित करने के लिये देश के कोने-कोने से दबाव पड़ने लगा। अन्ततः काफी वाद-विवाद के बाद देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया। इसी प्रकार हिन्दी के अंको के लिये भी मतभेद सामने आये। पुरूषोत्तम दास टण्डन और गोविन्ददास हिन्दी अंकों के प्रबल पक्षधर थे किन्तु पं. नेहरू का झुकाव अन्तर्राष्ट्रीय अंको के प्रति था। अंततः अन्तर्राष्ट्रीय अंको को ही मान लिया गया। यहाँ पर यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत कराने के लिये आधी शताब्दी तक एक आन्दोलन चलता रहा। भारतीय जनमानस में उसे राष्ट्रभाषा की मान्यता भी मिल गई किन्तु भाषाई राजनीति के कारण स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का नहीं ‘राजभाषा’ का दर्जा मिला।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा हिन्दी के लिये व्यवस्था के निर्देश मिलते हैं। अनुच्छेद 343 ;पद्ध में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को संघ की राजभाषा कहा गया है। साथ ही प्रारम्भ के पन्द्रह वर्षों तक अंग्रेजी के प्रयोग को भी उन सभी शासकीय कार्यों के लिये मान्यता मिल गई जिसमें उसका प्रयोग पहले से होता रहा है। संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार प्रारम्भ से पन्द्रह वर्षों में राष्ट्रपति किसी प्रयोजन के लिये अंग्रेजी के साथ हिन्दी का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेंगे। पन्द्रह वर्ष पश्चात हिन्दी के साथ अंग्रेजी का कितना और किन-किन प्रयोजनों के लिये उपयोग होगा, इसका निश्चय संसद करेगी। अनुच्छेद 344 के अनुसार प्रत्येक पांच वर्ष के पश्चात राष्ट्रपति एक भाषा आयोग की नियुक्ति करेंगे जो हिन्दी के उत्तरोतर अधिक प्रयोग करने और अंग्रेजी का प्रयोग घटाने की सिफारिश करेगा।
अनुच्छेद 345, 346 एवं 347 के अनुसार दो राज्यों के बीच अथवा एक राज्य और संघ के बीच विवाद विनिमय के लिये अंग्रेजी तथा हिन्दी और परस्पर समझौते से केवल हिन्दी का प्रयोग किया जा सकेगा। किसी राज्य की विधान सभा विधि द्वारा अपने प्रदेश की भाषा को मान्यता प्रदान कर सकेगी। यदि कोई राज्य अंग्रेजी को विधि द्वारा जारी नहीं रखना चाहता तो उस प्रदेश की भाषा राजभाषा हो जायेगी। उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी होगी किन्तु राष्ट्रपति या राज्यपाल की पूर्ण सम्मति से हिन्दी अथवा उस राज्य की भाषा का प्रयोग उच्च न्यायालय की कार्यवाही के लिये प्राधिकृत किया जा सकेगा। राजकीय प्रयोजनों में हिन्दी के विकास के लिये अनुच्छेद 351 का विशेष महत्व है। संघ को यह कार्य पन्द्रह वर्षों में कर लेना चाहिये था किन्तु पाँच दशकों से अधिक के बाद भी संघ अपने कत्र्तव्य को कितना पूरा कर पाया, यह शोध का विषय है।
आज राजभाषा की वर्तमान स्थिति सैद्धान्तिक स्तर पर हिन्दी को महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करा चुकी है। किन्तु व्यवहारिक स्तर पर अंग्रेजी की ही प्रमुखता है। मुगलकाल में फारसी के साथ हिन्दी द्वितीय स्तर की राजभाषा थी। कमोवेश वही स्थिति अंग्रेजी के साथ हिन्दी की है। अंग्रेजी केवल दक्षिण भाषा भाषियों के विरोध के कारण ही आज भी नहीं बनी है बल्कि इसके कुछ सामाजिक और आर्थिक कारण भी हैं जैसे कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्धान डा0 एस. एफ. कानडे लिखते हैं-‘‘शिक्षा और राजकार्य की भाषा का प्रश्न एक ही है। जब तक अंग्रेजी के साथ प्रतिष्ठा, सत्ता, नौकरी और पैसा जुड़ा रहेगा तब तक लोगों से अपेक्षा करना कि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाये, मूर्खता होगी और जब तक ये अंग्रेजी के मानस पुत्र सत्तारूढ़ रहेंगे, तब तक अंग्रेजी की शिक्षा प्रचारित रहेगी, अनिवार्य भी कर दी जायेगी और अंग्रेजी राजभाषा बने रहने का दावा भी करती रहेगी।’’
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने अंग्रेजी के इस व्यामोह से पिंड छुडाना स्वराज्य का अनिवार्य अंग माना था किन्तु यह इस देश की विडम्बना है कि वह इस व्यामोह से छूटने के बजाय दिन-प्रतिदिन उसमें और जकड़ता जा रहा है। यही हिन्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है। राजभाषा हिन्दी के प्रति जनता-जनार्दन की उपेक्षा खासकर हिन्दी भाषी व हिन्दी सीखे लोगों की अपेक्षा भी राजभाषा के कार्यान्वयन में अड़चन है। अकमर्णयता या हीन भावना से प्रेरित होकर लोग हिन्दी के प्रयोग से कतराते हैं। अंग्रेजी की आबोहवा इतनी जबर्दस्त है कि खुद हिन्दी भाषी-हिन्दी प्रेमी दूसरों के सामने अपना सिक्का जमाने के लिये अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। इसके लिये नवयुग में सिंहनाद-सा शंखनाद करने के लिये अभिनव भारतेन्दुओं को जन्म लेना है। श्रीमद्भागवत गीता में भी है, ‘‘यदा-यदाहिधर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः अभ्युत्थान मधर्मस्यतदात्मानम् सृजाम्यहम्।’’ निजभाषा उन्नति सभी उन्नतियों का मूल सिद्धान्त घोषित करने वाले कलम के धनी साहित्यकारों की सहायता से इस समस्या का भी समाधान किया जा सकता है। हिन्दी साहित्यकारों के लिये यह अंग्रेजी परस्त संकट एक चुनौती है। इस उम्मीद के साथ कि वे जनधर्म को जगाएंगे और जनभाषा को बचाएंगे।
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सम्पर्क:
वरिष्ठ प्रवक्ता: हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
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लेखक परिचय
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

15 सितंबर 2009

महेन्द्रभटनागर के गीत और उनका साहित्यिक परिचय


गीति-शिल्पी महेंद्रभटनागर

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पहला उल्लेख-योग्य प्रकाशित गीत — सन् 1945 में।
लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार श्री. जगन्नाथप्रसाद `मिलिन्द´ द्वारा सम्पादित `जीवन´ साप्ताहिक पत्र (ग्वालियर) में प्रकाशित :


बहने देना ....

बहने देना आँसू मेरे किन्तु, स्नेह-उपहार न देना!
पथ पर जब मैं रुक-रुक जाऊँ,
प्रति पग पर जब झुक-झुक जाऊँ,
तूफ़ानों से लड़ते - लड़ते
झंझा में फँस कर थक जाऊँ,
गिर-गिर चलने देना मुझको, क्षण-भर भी आधार न देना!
ज्वार उठे सागर में चाहे,
नौका फँसे भँवर में चाहे,
देख घिरी घनघोर घटाएँ
धड़कन हो अन्तर में चाहे,
बढ़ने देना मुझको आगे, हाथों में पतवार न देना!
अंधकारमय जीवन-पथ पर,
कुश-कंटकमय जीवन-पथ पर,
संबल - हीन अकेला केवल,
अपना अन्तस्तल ज्योतित कर,
मैं उठता-गिरता जाऊंगा, सुलभ-ज्योति संसार न देना!
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द्रष्टव्य : कवि का और हिन्दी का प्रथम नवगीत (सन् 1949 में प्रकाशित)। 'अन्तराल' नामक कविता-संग्रह में समाविष्ट (क्र.24) :
री हवा !
री हवा !
गीत गाती आ,
सनसनाती आ,
डालियाँ झकझोरती
रज को उड़ाती आ !
मोहक गंध से भर
प्राण पुरवैया
दूर उस पर्वत-शिखा से
कूदती आ जा !
ओ हवा !
उन्मादिनी यौवन भरी
नूतन हरी इन पत्तियों को
चूमती आ जा !
गुनगुनाती आ,
मेघ के टुकड़े लुटाती आ !
मत्त बेसुध मन
मत्त बेसुध तन
खिलखिलाती, रसमयी,
जीवनमयी
उर-तार झंकृत
नृत्य करती आ !
री हवा !
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महेंद्रभटनागर के गीत
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गाओ
.
गाओ कि जीवन - गीत बन जाये !
.
हर क़दम पर आदमी मजबूर है,
हर रुपहला प्यार-सपना चूर है,
आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
आस-सूरज दूर, बेहद दूर है !
गाओ कि कण-कण मीत बन जाये !
.
हर तरफ़ छाया अँधेरा है घना,
हर हृदय हत, वेदना से है सना,
संकटों का मूक साया उम्र भर
क्या रहेगा शीश पर यों ही बना,
गाओ, पराजय - जीत बन जाये !
.
साँस पर छायी विवशता की घुटन,
जल रही है ज़िन्दगी भर कर जलन,
विष भरे घन-रज कणों से है भरा
आदमी की चाहनाओं का गगन,
गाओ कि दुख संगीत बन जाये!
.
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जिजीविषा
.
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
.
पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
घोर गह-गह कर घहरती आँधियाँ,
पर, अजब विश्वास ले
सो रहा है आदमी
कल्पना की छाँह में !
.
पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
चल रहा है आदमी
साथ पाने राह में !
.
बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
हँस रहा है आदमी
आँसुओं में, आह में !
.
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मोह-माया
.
सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
.
हो किधर तुम मिल्लका-सी रम्य तन्वंगी,
रे कहाँ अब झलमलाता रूप सतरंगी,
मधुमती-मद-सी तुम्हारी मोहिनी रमनीय छायी है !
.
मानवी प्रति कल्पना की कल्प-लतिका बन,
कर गयीं जीवन जवा-कुसुमों भरा उपवन,
खो सभी, बस, मौन मन-मंदाकिनी हमने बहायी है !
.
हो किधर तुम , सत्य मेरी मोह-माया री,
प्राण की आसावरी, सुख धूप-छाया री,
राह जीवन की तुम्हारी चित्रसारी से सजायी है !
.
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चाँद से
.
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा
मुसकराओ ना !
.
तुम्हारे पास माना रूप का आगार है,
सुनयनों में बसा सुख-स्वप्न का संसार है,
अनावृत अप्सराएँ नृत्य करती हैं जहाँ,
नवेली तारिकाएँ ज्योति भरती हैं जहाँ,
उन्हीं के सामने जाओ, यहाँ पर
झलमलाओ ना !
.
बड़ी खामोश आहट है तुम्हारे पैर की,
तभी तो चोर बन कर, आसमाँ की सैर की,
खुली ज्यों ही पड़ी चादर सुनहरी धूप की
न छिप पायी किरन कोई तुम्हारे रूप की
बहाना अंग ढकने का, लचर इतना
बनाओ ना !
.
युगों से देखता हूँ, तुम बड़े ही मौन हो,
बताओ तो ज़रा, मैं पूछता हूँ कौन हो ?
न पाओगे कभी, जा दृष्टि से यों भाग कर
तुम्हारा धन गया है आज आँगन में बिखर,
रुको, पथ बीच, चुपके से मुझे उर में
बसाओ ना !
.
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कौन हो तुम
.
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत, आधी अँधेरी रात में !
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उड़ रहे हैं घन तिमिर के
सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक,
मूक इस वातावरण को
देखते नभ के सितारे एकटक,
कौन हो तुम, जागतीं जो इन सितारों के घने संघात में !
.
जल रहा यह दीप किसका
ज्योति अभिनव ले कुटी के द्वार पर,
पंथ पर आलोक अपना
दूर तक बिखरा रहा विस्तार भर,
कौन है यह दीप, जलता जो अकेला, तीव्र गतिमय वात में !
.
कर रहा है आज कोई
बार-बार प्रहार मन की बीन पर,
स्नेह काले लोचनों से
युग-कपोलों पर रहा रह-रह बिखर,
कौन-सी ऐसी व्यथा है, रात में जगते हुए जलजात में !
.
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सहसा
.
आज तुम्हारी आयी याद,
मन में गूँजा अनहद नाद !
बरसों बाद
बरसों बाद !
.
साथ तुम्हारा केवल सच था,
हाथ तुम्हारा सहज कवच था,
सब-कुछ पीछे छूट गया, पर
जीवित पल-पल का उन्माद !
.
बीत गये युग होते-होते,
रातों-रातों सपने बोते,
लेकिन उन मधु चल-चित्रों से
जीवन रहा सदा आबाद !
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परिचय
जन्म-तिथि : 26 जून 1926, प्रात: 6 बजे।
जन्म-स्थान : झाँसी (उ.प्र.)
कार्य-क्षेत्र : बुन्देलखंड, चम्बल-अंचल, मालवा।
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प्रकाशित काव्य-संग्रह (रचना-क्रमानुसार)
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1 तारों के गीत (प्रकाशन-वर्ष 1949)
2 विहान (1956)
3 अन्तराल (1954)
4 अभियान (1954)
5 बदलता युग (1953)
6 टूटती शृंखलाएँ (1949)
7 नयी चेतना (1956)
8 मधुरिमा (1959)
9 जिजीविषा (1962)
10 संतरण (1963)
11 संवर्त (1972)
12 संकल्प (1977)
13 जूझते हुए (1984)
14 जीने के लिए (1990)
15 आहत युग (1997)
16 अनुभूत क्षण (2001)
17 मृत्यु-बोध : जीवन-बोध (2002)
18 राग-संवेदन (2005)
.
संग्रह क्र. 1 से 16 'महेंद्रभटनागर-समग्र' के खण्ड 1,2 और 3 में समाविष्ट।
प्रकाशक : निर्मल पब्लिकेशन्स / अमर प्रकाशन, ए-139, गली क्र. 3, सौ-फुट रोड, कबीरनगर, शाहदरा, दिल्ली - 110 094 / प्रकाशन-वर्ष 2002 / (सम्पूर्ण साहित्य के छह-खण्ड 1800/-)

संग्रह क्र. 1 से 18 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' के खण्ड 1, 2 और 3 में समाविष्ट। प्रकाशक : विस्टा इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली (1150/-)
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विशिष्ट

प्रतिनिधि गेय गीतों के संकलन
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बूँद नेह की : दीप हृदय का
प्रथम संस्करण 1967 / नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली

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हर सुबह सुहानी हो!
द्वितीय संस्करण 1984 / सहयोग प्रकाशन, दिल्ली

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महेंद्र भटनागर के गीत
सम्पादक : डा. हरिश्चंद्र वर्मा
तृतीय संस्करण 2001 / प्रकाशक : इंडियन पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली — 7 / गीत-संख्या 120

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गीति-संगीति [द्वि-भाषिक : हिन्दी-अंग्रेज़ी]
चतुर्थ संस्करण 2007 / प्रकाशक : विस्टा इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली / गीत-संख्या 125

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गीत-सृष्टि का आदर्श


हृदय सिन्धु मति सीप समाना।
स्वाती सारद कहहिं सुजाना।।
जो बरखै बर बारि बिचारू।
होंहि कवित मुक्ता मनि चारू।।
गीत की परिभाषा
" सूक्ष्म पावन अनुभूतियों-भावनाओं-संवेदनाओं, विराट कल्पनाओं और उदात्त विचारों की सुन्दर सहज स्वत:स्फूर्त संगीतमयी अभिव्यक्ति गीत है। "
— डा. महेंद्रभटनागर
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कवि की गीत-सृष्टि पर विद्वानों के प्रकाशित आलेख :
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1 सिद्ध गीत-शिल्पी डा0 महेंद्र भटनागर
डा. हरिश्चन्द्र वर्मा
2 संवेदनशील भावुक गीतकार महेंद्र भटनागर
डा. सुरेश गौतम

3 डा. महेंद्र भटनागर के काव्य में गीति-तत्त्व
डा. पी. जयरामन
4 महेंद्र भटनागर के गीत

डा. गोविन्द `रजनीश´
5 महेंद्रभटनागर के गीत

डा. वीरेंद्र श्रीवास्तव
6 महेंद्र भटनागर के गीतों में आस्था, जिजीविषा और संघर्ष-चेतना
डा. स्वर्णकिरण

7 कवि महेंद्र भटनागर के गीतों में सामाजिक चेतना
डा. आदित्य प्रचण्डिया

8 महेंद्र भटनागर के गीत
डा. ऋषभदेव शर्मा

9 महेंद्र भटनागर के गीत
डा. ऋषिकुमार चतुर्वेदी

10 महेंद्र भटनागर के गीत
डा. शिववंश पाण्डेय

11 गीतों का सजल-सर्जक महेंद्र भटनागर
कु. निशा शर्मा

12 डा. महेंद्र भटनागर के गीतों में सौन्दर्य-बोध
डा. सूर्यप्रसाद शुक्ल

13 महेंद्रभटनागर की गीति-रचना
डा. रामचंद्र तिवारी

14 सांगीतिक परिप्रेक्ष्य और महेंद्रभटनागर के गीत
डा. पुष्पम नारायण

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महेंद्रभटनागर के गीतों की ऑडियो सी-डी
यशस्वी गायक : कुमार आदित्य विक्रम [मुम्बई]
श्रव्य : www.radiosabrang.com
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शोध-प्रबन्ध
गीति-तत्त्वों के निकष पर महेंद्रभटनागर के गीत
शोधकर्त्री : कुमारी पी. एषि़ल नाच्चियार
[दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, चेन्नई (तमिलनाडु) / 2003]

साक्षात्कार / प्रश्‍न : डा. सुरेश गौतम द्वारा :
गीत-संदर्भ (`महेंद्र भटनागर-समग्र´ खण्ड 5 में सम्मिलित)

हिन्दी पर गर्व करें

१४ सितम्बर को सारा देश' हिन्दी दिवस' मनाने की रस्म अदायगी कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि इस दिन हिन्दी के विकास और गौरव की बात कम होती है हिन्दी की दशा पर मातम अधिक मनाया जाता है। अशोक चक्रधर कल सायं NDTV पर कल कह रहे थे -
' चाहे सब कुछ अंग्रेजी में सर्व करो ,पर हिन्दी पर गर्व करो। '
हिन्दी अब तक वह स्थान क्यों नहीं पा सकी है जो उसे मिलना चाहिए था ,आज इस पर विचार करने की आवश्यकता है । मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दी को सेमिनारों व गोष्ठियों तक सीमित रख उसे आम आदमी से न जोड़ पाना है। कोई भी भाषा जन -भाषा तभी बन पाती है जब वह पूर्वाग्रहों एवं क्लिष्टता के आवरण से मुक्त होकर विकसित हो । हमें ध्यान रखना चाहिए कि पहले भाषा बनती है ,बाद में व्याकरण। गाँधी जी हिन्दी को हिन्दुस्तानी भाषा के रूप में विकसित करना चाहते थे जिसमें भारतीय संस्कृति की तरह किसी भी भाषा के लोक-प्रचलित ग्राह्य शब्दों का सामंजस्य सम्भव हो । पर हिन्दी के विकास के लिए अब तक सरकारी व अकादमिक स्तर पर जो भी प्रयास हुए हैं वे हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ एवं क्लिष्ट रूप को ही प्रोत्साहित करते है ।
यह भी देखा गया है कि विदेशी छात्र जो हिन्दी सीखते हैं वह भाषा का सहज रूप होकर कठिन रूप होती है।इससे कभी-कभी बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक घटना याद आती है कि इलाहाबाद में कुछ जर्मन छात्र ,जो हिन्दी का अध्ययन कर रहे थे ,साईकिल से यात्रा करते समय रुके। वहाँ एक छात्र की साईकिल के एक पहिये की हवा कम हो गयी । उसने साईकिल का पंचर बनने वाले से कहा ," श्रीमन! इस द्वै-चक्रिका के अग्र चक्र में पवन प्रविष्ट करा दीजिये ।" पंचर बनने वाला मुँह बाए उसकी बात समझने का प्रयास करता रहा।
मेरे एक मित्र एक महाविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता है और अति शुद्ध हिन्दी बोलते हैं। एक बार वे मेरे साथ एक परिचित ,जो बुखार व जुकाम से पीडित थे ,को देखने गए। उनसे मिलने पर उन्होंने देखा कि पीडित सज्जन की नाक का कुछ पदार्थ उनकी मूछ पर लग गया है । वे बोले," श्रीमन ! आपके श्मश्रु प्रदेश में आपकी नासा प्रदेश का एक आगंतुक विराजमान है ,कृपया उसका कर्षण करें। " भाषा की ऐसी क्लिष्टता ,क्या कभी सहज रूप में ग्राह्य हो सकती है?
अतः आज इस बात पर सम्यक् रूप से विचार करने की जरूरत है कि कैसे हिन्दी को सहज भाषा के रूप में विकसित कर आम जन के मन उसके प्रति अनुराग उत्पन्न किया जाए ?हिन्दीभाषी अंग्रेजी का ज्ञान पायें ,पर अपने समाज में अंग्रेजी बोलने में अपनी शान न समझें। हिन्दी का भविष्य उसे कबीर एवं प्रेमचंद कि भाषा के रूप में विकसित करने में ही है ,हमें इस जमीनी वास्तविकता को समझना होगा। तभी हमें हिन्दी पर गर्व करने में कोई संकोच नहीं होगा।

14 सितंबर 2009

नवगीत: अपना हर पल / है हिन्दीमय --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...

निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.

घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.

ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...

हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.

जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?

इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...

ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.

कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...

अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.

देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...

अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.

हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

13 सितंबर 2009

दिवंगत कवियों का काव्यमय श्राद्ध

जनपद जालौन के मुख्यालय उरई में आज दिनांक १३ सितम्बर को 'पहचान' साहित्यिक संस्था के द्वारा जनपद के दिवंगत कवियों को को श्रद्धान्जलि स्वरूप एक काव्यमय श्राद्ध का आयोजन किया गया .कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री यज्ञदत्त त्रिपाठी ने तथा संचालन श्री विनोद गौतम ने किया। कार्यक्रम में स्व० काली कवि, आरण्यक जी , बुंदेला जी ,निस्पृह जी,संतोष दीक्षित जी ,आदर्श 'प्रहरी',राम मोहन शर्मा 'मोहन', डा० आनंद,मणीन्द्र जी ,रागी जी ,विकास जी सहित सभी दिवंगत साहित्यकारों को याद किया गया । सुकवि रवि शंकर मिश्र ने 'प्रहरी' जी की निम्नांकित पंक्तियों से श्रद्धान्जलि व्यक्त की -
गीत में जो दर्द गाते हैं, उन्हें मेरा नमन है;
दर्द में जो मुस्कुराते हैं , उन्हें मेरा नमन है;
जो व्यथाओं में ,कथाओं की नई नित सृष्टि करते ,
मान्यताओं को बनाते हैं, उन्हें मेरा नमन है
कार्यक्रम में सुकवि योगी जी ,रामस्वरूप जी ,गीतेश जी ,वीणा जी ,अनुरागी जी,रेनू जी,कृपालु जी सहित अनेक कवियों ने काव्य- पाठ किया।

12 सितंबर 2009

सुरेन्द्र अग्निहोत्री की तीन कवितायें


(1)
युद्धरत आदमी
कल के लिए
प्रतीक्षारत...........
मोक्ष की नहीं दरकार
फटती धरती हो रही हाहाकार
आदमी-आदमी को नहीं करना प्यार
परत-दर-परत खुलता चेहरा
निकला गूंगा और बहरा
समय ने बिठा दिया पहरा
युद्धरत आदमी
विस्मृत स्मृति के लिए
यन्त्रवत...........
सूरज दमकेगा
जंगल चहकेगा
दिल बहकेगा
हवाओं ने नहीं बजाया सितार
टूट गई कल-कल करती नदियों की धार
इन्द्रधनुषी सपनों का उजड़ गया संसार।
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(2)
सरकार को भूल जाइए
और उसके कारिन्दो को
सुनने में यह जितना आसान लगता है,
उतना है नहीं
लेकिन यह बात मैंने,
वेबजह ही कहीं नहीं
साठ साल में जब मिला नहीं अधिकार
नहीं हो सका व्यवस्था में सुधार
तो कब तक प्रतीक्षा करते रहोगे
खुद करो अपनी समस्या का समाधान
आक्रोश की शक्ति को करो एकत्र
बदल दो तदबीर से तकदीर
दलाली के नये चरागाहों में
दर्ज राजपथ के दावेदार
पहले लोक के लिए होते थे
लेकिन अब उन पर
तन्त्र हावी हो गया है
अब उनकी निगाहे देखती नहीं
उन्हें दिखाया जाता है
जैसे एक आख दूसरी से रहती बेखबर
ठीक उसी तरह वे रहते है वेखबर
सरकारी गौमाताऐं बिसुखी पड़ी है
लात मारती है दूध देती नहीं।
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(3)
सियासत
सियासत में हो गया
चापलूसो का बोलबाला
मानवीय संवेदनाओं को
नहीं कोई पूछने वाला
आतंकी विस्फोट में
पैर गंवाने वाले को मिलते पांच लाख
और सरकारी बस से मौत होने पर
मिलता है एक लाख!
मौत और दुर्घटना में भी
हो रही है सौदेबाजी
अगर शिकार बनना ही है तो
लोग करे प्रकृति से प्रार्थना
मुझे दुर्घटना का शिकार बनाते वक्त मेरे खाते में
इतना जरूर लिख देना
जो भी बुरा हो वह विस्फोट में हो
नहीं तो सियासत की भेंट चढ़ जाएंगे
मौत पर कम
दुर्घटना पर अधिक मुआवजा पांएगे।

---------------------------------------------------
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
‘राजसदन’ 120/132 बेलदारी लेन,
लालबाग, लखनऊ।
मो. 9415508695


10 सितंबर 2009

महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं -acharya sanjiv 'salil

Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं

संस्कारधानी जबलपुर, ८ सितंबर २००९, बुधवार. सनातन सलिल नर्मदा तीर पर स्थित महर्षि जाबाली, महर्षि महेश योगी और महर्षि रजनीश की तपस्थली संस्कारधानी जबलपुर में आज सूर्य नहीं उगा, चारों ओर घनघोर घटायें छाई हैं. आसमान से बरस रही जलधाराएँ थमने का नाम ही नहीं ले रहीं. जबलपुर ही नहीं पूरे मध्य प्रदेश में वर्षा की कमी के कारण अकाल की सम्भावना को देखते हुए लगातार ४८ घंटों से हो रही इस जलवृष्टि को हर आम और खास वरदान की तरह ले रहा है. यहाँ तक की २४ घंटों से अपने उड़नखटोले से उपचुनाव की सभाओं को संबोधित करने के लिए आसमान खुलने की राह देखते रहे और अंततः सड़क मार्ग से राज्य राजधानी जाने के लिए विवश मुख्यमंत्री और राष्ट्र राजधानी जाने के लिए रेल मार्ग से जाने के लिए विवश वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री भी इस वर्षा के लिए भगवन का आभार मान रहे हैं किन्तु कम ही लोगों को ज्ञात है कि भगवान ने देना-पावना बराबर कर लिया है. समकालिक साहित्य में सनातन मूल्यों की श्रेष्ठ प्रतिनिधि डॉ. चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' को अपने धाम ले जाकर प्रभुने इस क्षेत्र को भौगोलिक अकाल से मुक्त कर उसने साहित्यिक बौद्धिक अकाल से ग्रस्त कर दिया है.


ग्राम होरीपूरा, तहसील बाह, जिला आगरा उत्तर प्रदेश में २० सितम्बर १९३९ को जन्मी चित्राजी ने विधि और साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध पिता न्यायमूर्ति ब्रिजकिशोर चतुर्वेदी बार-एट-ला, से
सनातन मूल्यों के प्रति प्रेम और साहित्यिक सृजन की विरासत पाकर उसे सतत तराशा-संवारा और अपने जीवन का पर्याय बनाया. उद्भट विधि-शास्त्री, निर्भीक न्यायाधीश, निष्पक्ष इतिहासकार, स्वतंत्र विचारक, श्रेष्ठ साहित्यिक समीक्षक, लेखक तथा व्यंगकार पिता की विरासत को आत्मसात कर चित्रा जी ने अपने सृजन संसार को समृद्ध किया.

ग्वालियर, इंदौर तथा जबलपुर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त चित्रा जी ने इलाहांबाद विश्व विद्यालय से १९६२ में राजनीति शास्त्र में एम्.ए. तथा १९६७ में डी. फिल. उपाधियाँ प्राप्तकर शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में कर्मठता और निपुणता के अभिनव मानदंड स्थापित किये.

चित्राजी का सृजन संसार विविधता, श्रेष्ठता तथा सनातनता से समृद्ध है.

द्रौपदी के जीवन चरित्र पर आधारित उनका बहु प्रशंसित उपन्यास 'महाभारती' १९८९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद्र पुरस्कार तथा १९९९३ में म.प्र. साहित्य परिषद् द्वारा विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

ययाति-पुत्री माधवी पर आधारित उपन्यास 'तनया' ने उन्हें यशस्वी किया. लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा में इसे धारावाहिक रूप में निरंतर प्रकाशित किया गया.

श्री कृष्ण के जीवन एवं दर्शन पर आधारित वृहद् उपन्यास 'वैजयंती' ( २ खंड) पर उन्हें १९९९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुनः प्रेमचंद पुरस्कार से अलंकृत किया गया.

उनकी महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियों में प्रथा पर्व (महाकाव्य), अम्बा नहीं मैं भीष्म (खंडकाव्य), तथा वैदेही के राम खंडकाव्य) महत्वपूर्ण है.

स्वभाव से गुरु गम्भीर चित्रा जी के व्यक्तित्व का सामान्यतः अपरिचित पक्ष उनके व्यंग संग्रह अटपटे बैन में उद्घाटित तथा प्रशंसित हुआ.

उनका अंतिम उपन्यास 'न्यायाधीश' शीघ्र प्रकाश्य है किन्तु समय का न्यायाधीश उन्हें अपने साथ ले जा चुका है.

उनके खंडकाव्य 'वैदेही के राम' पर कालजयी साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत- ''डॉ चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक ही संकल्प लिया है कि श्री राम और श्री कृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी. प्रस्तुत रचना वैदेही के राम उसी की एक कड़ी है. सीता की करूँ गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओँ के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है. जैस अकी चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से. सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह जाते हैं, राम नहीं रह जाते. यह उन्हें निरंतर सालता है. लोग यह भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप प्रमाणित करना था.''

चित्रा जी के शब्दों में- ''आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजे सीता को त्यागने के? वे स्वयं सिंहासन प् र्बैठे राज-भोग क्यों करते रहे?इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनैतिक परम्पराओं एवं संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है. रजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लॅण्ड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है. रजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता. अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से रजा पद-त्याग नहीं कर सकता था....कोइ भी पद अधिकारों के लिया नहीं कर्तव्यों के लिए होता है....''

चित्रा जी के मौलिक और तथ्यपरक चिंतन कि झलक उक्त अंश से मिलती है.

'महाभारती में चित्रा जी ने प्रौढ़ दृष्टि और सारगर्भित भाषा बंध से आम पाठकों ही नहीं दिग्गज लेखकों से भी सराहना पाई. मांसलतावाद के जनक डॉ . रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के अनुसार- ''पारंपरिक मान्यताओं का पालन करते हुए भी लेखिका ने द्रौपदी कि आलोकमयी छवि को जिस समग्रता से उभरा है वह औपन्यासिकता की कसौटी पर निर्दोष उतरता है. डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के मत में- ''द्रौपदी के रूप में उत्सर्ग्शीला नारी के वर्चस्व को अत्यंत उदात्त रूप में उभरने का यह लाघव प्रयत्न सराहनीय है.''

श्री नरेश मेहता को ''काफी समय से हिंदी में ऐसी और इतनी तुष्टि देनेवाली रचना नजर नहीं आयी.'' उनको तो ''पढ़ते समय ऐसा लगता रहा कि द्रौपदी को पढ़ा जरूर था पर शायद देखना आज हुआ है.''

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार- ''द्रौपदी को महाभारती कहना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है.''

स्वयं चित्रा जी के अनुसार- ''यह कहानी न्याय पाने हेतु भटकती हुई गुहार की कहानी है. आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है. नारी की पीडा शाश्वत है. नारी की व्यथा अनंत है. आज भी कितनी ही निर्दोष कन्यायें उत्पीडन सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं.

द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी. महाभारत व रामायण काल में कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया. कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट का हलाहल पान कर लिया. क्या हुआ था अंबा और अंबालिका के साथ? किस विवशता में आत्मघात किया था अंबा ने? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर? अनजाने में अंधत्व को ब्याह दी जाने वाली गांधारी ने क्यों सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं? और क्यों भूमि में समां गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी. किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल. जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी. जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी ही बार वह क्रुद्ध सर्पिणी सी फुफकार-फुफकार उठी. वह याज्ञसेनी थी. यज्ञकुंड से जन्म हुआ था उसका. अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिव्हाओंवाली अक्षत ज्वाला सी वह अंत तक लपलपाती रही.

नीलकंठ महादेव ने हलाहल पान किया किन्तु उसे सावधानी से कंठ में ही रख लिया था. कंठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकंठ किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीडा का हलाहल पी-पीकर ही दृपद्न्न्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था. वह कृष्ण हो चली, किन्तु झुकी नहीं....''

चित्रा जी का वैशिष्ट्य पात्र की मनःस्थिति के अनुकूल शब्दावली, घटनाओं की विश्वसनीयता बनाये रखते हुए सम-सामयिक विश्लेषण, तार्किक-बौद्धिक मन को स्वीकार्य तर्क व मीमांसा, मौलिक चिंतन तथा युगबोध का समन्वय कर पाना है.

वे अत्यंत सरल स्वभाव की मृदुभाषी, संकोची, सहज, शालीन तथा गरिमामयी महिला थीं. सदा श्वेत वस्त्रों से सज्जित उनका आभामय मुखमंडल अंजन व्यक्ति के मन में भी उनके प्रति श्रृद्धा की भाव तरंग उत्पन्न कर देता था. फलतः, उनके कोमल चरणों में प्रणाम करने के लिए मन बाध्य हो जाता था.

मुझे उनका निष्कपट सान्निध्य मिला यह मेरा सौभाग्य है. मेरी धर्मपत्नी डॉ. साधना वर्मा और चित्रा जी क्रमशः अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एक ही महाविद्यालय में पदस्थ थीं. चित्रा जी साधना से भागिनिवत संबंध मानकर मुझे सम्मान देती रहीं. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ईंट-पत्थर जुडवाने के साथ शब्द-सिपाही भी हूँ तो उनकी स्नेह-सलिला मुझे आप्लावित करने लगी. एक-दो बार की भेंट में संकोच के समाप्त होते ही चित्रा जी का साहित्यकार विविध विषयों खासकर लेखनाधीन कृतियों के कथानकों और पात्रों की पृष्ठभूमि और विकास के बारे में मुझसे गहन चर्चा करने लगा. जब उन्हें किसी से मेरी ''दोहा गाथा'' लेख माला की जानकारी मिली तो उनहोंने बिना किसी संकोच के उसकी पाण्डुलिपि चाही. वे स्वयं विदुषी तथा मुझसे बहुत अधिक जानकारी रखती थीं किन्तु मुझे प्रोत्साहित करने, कोई त्रुटि हो रही हो तो उसे सुधारने तथा प्रशंसाकर आगे बढ़ने के लिए आशीषित करने के लिए उन्होंने बार-बार माँगकर मेरी रचनाएँ और लंबे-लंबे आलेख बहुधा पढ़े.

'दिव्या नर्मदा' पत्रिका प्रकाशन की योजना बताते ही वे संरक्षक बन गयीं. उनके अध्ययन कक्ष में सिरहाने-पैताने हर ओर श्रीकृष्ण के विग्रह थे. एक बार मेरे मुँह से निकल गया- ''आप और बुआ जी (महीयसी महादेवी जी) में बहुत समानता है, वे भी गौरवर्णा आप भी, वे भी श्वेतवसना आप भी, वे भी मिष्टभाषिणी आप भी, उनके भी सिरहाने श्री कृष्ण आपके भी.'' वे संकुचाते हुए तत्क्षण बोलीं 'वे महीयसी थीं मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ.'

चित्रा जी को मैं हमेशा दीदी का संबोधन देता पर वे 'सलिल जी' ही कहती थीं. प्रारंभ में उनके साहित्यिक अवदान से अपरिचित मैं उन्हें नमन करता रहा और वे सहज भाव से सम्मान देती रहीं. उनके सृजन पक्ष का परिचय पाकर मैं उनके चरण स्पर्श करता तो कहतीं ' क्यों पाप में डालते हैं, साधना मेरी कभी बहन है.' मैं कहता- 'कलम के नाते तो कहा आप मेरी अग्रजा हैं इसलिए चरणस्पर्श मेरा अधिकार है.' वे मेरा मन और मान दोनों रख लेतीं. बुआ जी और दीदी में एक और समानता मैंने देखी वह यह कि दोनों ही बहुत स्नेह से खिलातीं थीं, दोनों के हाथ से जो भी खाने को मिले उसमें अमृत की तरह स्वाद होता था...इतनी तृप्ति मिलती कि शब्द बता नहीं सकते. कभी भूखा गया तो स्वल्प खाकर भी पेट भरने की अनुभूति हुई, कभी भरे पेट भी बहुत सा खाना पड़ा तो पता ही नहीं चला कहाँ गया. कभी एक तश्तरी नाश्ता कई को तृप्त कर देता तो कभी कई तश्तरियाँ एक के उदार में समां जातीं. शायद उनमें अन्नपूर्णा का अंश था जो उनके हाथ से मिली हर सामग्री प्रसाद की तरह लगती.

वे बहुत कृपण थीं अपनी रचनाएँ सुनाने में. सामान्यतः साहित्यकार खासकर कवि सुनने में कम सुनाने में अधिक रूचि रखते हैं किन्तु दीदी सर्वथा विपरीत थीं. वे सुनतीं अधिक, सुनातीं बहुत कम.

अपने पिताश्री तथा अग्रज के बारे में वे बहुधा बहुत उत्साह से चर्चा करतीं. अपनी मातुश्री से लोकजीवन, लोक साहित्य तथा लोक परम्पराओं की समझ तथा लगाव दीदी ने पाया था.

वे भाषिक शुद्धता, ऐतिहासिक प्रमाणिकता तथा सम-सामयिक युगबोध के प्रति सजग थीं. उनकी रचनाओं का बौद्धिक पक्ष प्रबल होना स्वाभाविक है कि वे प्राध्यापक थीं किन्तु उनमें भाव पक्ष भी सामान रूप से प्रबल है. वे पात्रों का चित्रण मात्र नहीं करती थीं अपितु पात्रों में रम जाती थीं, पात्रों को जीती थीं. इसलिए उनकी हर कृति जादुई सम्मोहन से पाठक को बाँध लेती है.

उनके असमय बिदाई हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति है. शारदापुत्री का शारदालोक प्रस्थान हिंदी जगत को स्तब्ध कर गया. कौन जानता था कि ८ सितंबर को न उगनेवाला सूरज हिंदी साहित्य जगत के आलोक के अस्त होने को इंगित कर रहा है. कौन जानता था कि नील गगन से लगातार हो रही जलवृष्टि साहित्यप्रेमियों के नयनों से होनेवाली अश्रु वर्षा का संकेत है. होनी तो हो गयी पर मन में अब भी कसक है कि काश यह न होती...

चित्रा दीदी हैं और हमेशा रहेंगी... अपने पात्रों में, अपनी कृतियों में...नहीं है तो उनकी काया और वाणी... उनकी स्मृति का पाथेय सृजन अभियान को प्रेरणा देता रहेगा. उनकी पुण्य स्मृति को अशेष-अनंत प्रणाम.


***************

09 सितंबर 2009

मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।


देखो तो एक सवाल हूँ
समझो तो , मैं ही जवाब हूँ ।।

उलझी हुई,इस ज़िन्दगी में।
सुलझा हुआ-सा तार हूँ।।

बैठे है दूर तुमसे , गम करो
मैं ही तो बस, तेरे पास हूँ।।

जज्वात के समन्दर में दुबे है।
पर मैं ही , उगता हुआ आफ़ताब हूँ

रोशनी से भर गया सारा समा
पर मैं तो, खुद ही में जलता हुआ चिराग हूँ ।।

जैसे भी ज़िन्दगी है, दुश्मन तो नही है।
तन्हा-सी हूँ मगर, मैं इसकी सच्ची यार हूँ।।

जलते हुए जज्वात , आंखो से बुझेंगे
बुझ कर भी बुझी, मैं ऐसी आग हूँ।।

कैसे तुम्हे बता दें , तू ज़िन्दगी है मेरी
अच्छी या बुरी जैसे भी, मैं घर की लाज हूँ ।।

कुछ रंग तो दिखाएगी , जो चल रहा है अब।
खामोशी के लबो पर छिड़ा , में वक्त का मीठा राग हूँ।।

कलकल-सी वह चली, पर्वत को तोड़ कर
मैं कैसे भूल जाऊ, मैं बस तेरा प्यार हूँ।।

भुजंग जैसे लिपटे है , चंदन के पेड़ पर
मजबूरियों में लिपटा हुआ , तेरा ख्बाव हूँ।।

चुप हूँ मगर , में कोई पत्थर तो नही हूँ।
जो तुम कह सके, मैं वो ही बात हूँ

बस भी कर, के तू मुझको याद
वह सकेगा जो, में ऐसा आव हूँ।।

मेहदी बारातै सिन्दूर चाहिए
मान लिया हमने जब तुम ने कह दिया , मैं तेरा सुहाग हूँ।।

खुद को समझना, कभी तन्हा और अकेला।
ज़िन्दगी के हर कदम पर , मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।

08 सितंबर 2009

मुक्तक

दुश्मन


अपने दुश्मन वे ख़ुद नजर आते है

नजर आए तो नजर अंदाज करते हैं

कोई तो है ,कहीं तो है

जो अविश्वास को हवा दे रहा है

प्यार की ठंडी छांह को

धुप में बदल रहा है !

* * *

04 सितंबर 2009

लघुकथा -रास्ता

रास्ता

'अंकल को पार्किन्सन की बीमारी हो गयी है !'
'उसी के बारे में सोच रही हूँ मेरी डाक्टर भांजी !'
'क्या सोचा ?'
'यही की भगवान् मेरी कड़ी परीक्षा लेने वाले हैं !'
'२-३ सालों में ही आपको निश्चित कर लेना होगा --कहाँ रहेंगी !अपने बच्चों से इस बारे में खुलकर बातें कर लीजिए !'
'तुम मेरी शुभ चिन्तक हो !इसीलिए तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ !ऊपर वाले से दुआ करना की तुम्हारे अंकल स्वस्थ हो जाएँ और वह मुझे इतनी शक्ति दे की चट्टान को भी तोड़कर अपना रास्ता बना लूँ !'

लघुकथा 1

मूर्ति



'चल -अचल संपत्ति में लडके -लड़की का कानूनन हक़ हो गया है !जन्म -मृत्यु ,वैवाहिक रीति -रस्मों की आधार शिला भी समानता हो तो एक नई नारी का जन्म हो जाए !'
'माँ ,आजकल सभी भिन्नता के घेरे से निकल आए हैं !हमारी बुआ सास के बेटी ही बेटी हैं !फूफा ससुर के मरने के बाद कपाल क्रिया उनके नाती (लड़की का बेटा )ने की !'
'यहाँ समानता की बात कहाँ से आन टपकी !लिंग भेद का राज्य स्पष्ट है !कायदे से बेटी को अपने बाप का अन्तिम संस्कार करना था ! लेकिन लडके को प्राथमिकता देकर उसके अस्तित्ब को छोटा कर दिया और बेटी कुछ बोली भी नहीं --आचार संहिता की मूर्ति !

03 सितंबर 2009

गीतिका: शब्द-शब्द से छंद बना तू --संजीव 'सलिल'

शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥

सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥

कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥

खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥

'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥

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