28 अक्तूबर 2009

नवगीत: चीनी दीपक / दियासलाई, --संजीव 'सलिल'

नवगीत


संजीव 'सलिल'

चीनी दीपक
दियासलाई,
भारत में
करती पहुनाई...

*

सौदा सभी
उधर है.
पटा पड़ा
बाज़ार है.
भूखा मरा
कुम्हार है.
सस्ती बिकती
कार है.

झूठ नहीं सच
मानो भाई.
भारत में
नव उन्नति आयी...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
श्रम का कोई
रसूख नहीं है.
फसल चर रहे
ठूंठ यहीं हैं.
मची हर कहीं
लूट यहीं है.

अंग्रेजी कुलटा
मन भाई.
हिंदी हिंद में
हुई पराई......
*
दड़बों जैसे
सीमेंटी घर.
तुलसी का
चौरा है बेघर.
बिजली-झालर
है घर-घर..
दीपक रहा
गाँव में मर.

शहर-गाँव में
बढ़ती खाई.
जड़ विहीन
नव पीढी आई...
*

26 अक्तूबर 2009

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ (जन्मतिथि 26 अक्टूबर पर)

साहित्य की सदैव से समाज में प्रमुख भूमिका रही है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं, वहीं लोगों में बखूबी जन जागरण का कार्य भी करती थीं। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ साहित्य और पत्रकारिता के ऐसे ही शीर्ष स्तम्भ थे, जिनके अखबार ‘प्रताप‘ ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी। प्रताप के जरिये न जाने कितने क्रान्तिकारी स्वाधीनता आन्दोलन से रूबरू हुए, वहीं समय-समय पर यह अखबार क्रान्तिकारियों हेतु सुरक्षा की ढाल भी बना।

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अपने ननिहाल अतरसुइया, इलाहाबाद में हुआ था। उनके नाना सूरज प्रसाद श्रीवास्तव सहायक जेलर थे, अतः अनुशासन उन्हें विरासत में मिला। गणेश शंकर के नामकरण के पीछे भी एक रोचक वाकया है- उनकी नानी ने सपने में अपनी पुत्री गोमती देवी के हाथ गणेश जी की प्रतिमा दी थी, तभी से उन्होंने यह माना था कि यदि गोमती देवी का कोई पुत्र होगा तो उसका नामकरण गणेश शंकर किया जायेगा। मूलतः फतेहपुर जनपद के हथगाँव क्षेत्र के निवासी गणेश शंकर के पिता मुंशी जयनारायण श्रीवास्तव ग्वालियर राज्य में मुंगावली नामक स्थान पर अध्यापक थे। गणेश शंकर आरम्भ से ही किताबें पढ़ने के काफी शौकीन थे, इसी कारण मित्रगण उन्हें ‘विद्यार्थी‘ कहते थे। बाद में उन्होंने यह उपनाम अपने नाम के साथ लिखना आरम्भ कर दिया। विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पिता जी के स्कूल मुंगावली, जहाँ वे एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में अध्यापक थे, में हुई। विद्यार्थी जी उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। 1904 में उन्होंने भलेसा से अंग्रेजी मिडिल की परीक्षा पास किया, जिसमें पहली बार हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में मिली थी। तत्पश्चात पिताजी ने विद्यार्थी जी को पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने के लिए बड़े भाई शिवव्रत नारायण के पास कानपुर भेज दिया। कानपुर में आकर विद्यार्थी जी ने क्राइस्ट चर्च कालेज की प्रवेश परीक्षा दी पर भाई का तबादला मुंगावली हो जाने से आगे की पढ़ाई फिर वहीं हुई। वर्ष 1907 में विद्यार्थी जी आगे की पढ़ाई के लिए कायस्थ पाठशाला गये। इलाहाबाद प्रवास के दौरान विद्यार्थी जी की मुलाकात ‘कर्मयोगी‘ साप्ताहिक के सम्पादक सुन्दर लाल से हुई एवं इसी दौरान वे उर्दू पत्र ‘स्वराज्य‘ के संपर्क में भी आये। गौरतलब है कि अपनी क्रान्तिधर्मिता के चलते ‘स्वराज्य‘ पत्र के आठ सम्पादकों को सजा दी गई थी, जिनमें से तीन को कालापानी की सजा मुकर्रर हुई थी। सुन्दरलाल उस दौर के प्रतिष्ठित संपादकों में से थे। लोकमान्य तिलक को इलाहाबाद बुलाने के जुर्म में उन्हें कालेज से निष्कासित कर दिया गया था एवं इसी कारण उनकी पढ़ाई भी भंग हो गई थी। सुन्दरलाल के संपर्क में आकर विद्यार्थी जी ने ‘स्वराज्य‘ एवं ‘कर्मयोगी‘ के लिए लिखना आरम्भ किया। यहीं से पत्रकारिता एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ती गई।

इलाहाबाद से गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ कानपुर आये एवं इसे अपनी कर्मस्थली बनाया। कानपुर में कलकत्ता से अरविंद घोष द्वारा सम्पादित ‘वन्देमातरम्‘ ने विद्यार्थी जी को आकृष्ट किया एवं इसी दौरान उनकी मुलाकात पं0 पृथ्वीनाथ मिडिल स्कूल के अध्यापक नारायण प्रसाद अरोड़ा से हुई। अरोड़ा जी की सिफारिश पर विद्यार्थी जी को उसी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। पर पत्रकारिता की ओर मन से प्रवृत्त विद्यार्थी जी का मन यहाँ भी नहीं लगा और नौकरी अन्ततः छोड़ दी। उस समय महावीर प्रसाद द्विवेदी कानपुर में ही रहकर ‘सरस्वती‘ का सम्पादन कर रहे थे। विद्यार्थी जी इस पत्र से भी सहयोगी रूप में जुड़े रहे। एक तरफ पराधीनता का दौर, उस पर से अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार ने विद्यार्थी जी को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने पत्रकारिता को राजनैतिक चेतना को जोड़कर कार्य करना आरम्भ किया। इसी दौरान वे इलाहाबाद लौटकर वहाँ से प्रकाशित साप्ताहिक ‘अभ्युदय‘ के सहायक संपादक भी रहे। पर विद्यार्थी जी का मनोमस्तिष्क तो कानपुर में बस चुका था, अतः वे पुनः कानपुर लौट आये। कानपुर में विद्यार्थी जी ने 1913 से साप्ताहिक ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया प्राण फूँका बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया जो सारी हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। प्रताप प्रेस में कम्पोजिंग के अक्षरों के खाने में नीचे बारूद रखा जाता था एवं उसके ऊपर टाइप के अक्षर। ब्लाक बनाने के स्थान पर नाना प्रकार के बम बनाने का सामान भी रहता था। पर तलाशी में कभी भी पुलिस को ये चीजें हाथ नहीं लगीं। विद्यार्थी जी को 1921-1931 तक पाँच बार जेल जाना पड़ा और यह प्रायः ‘प्रताप‘ में प्रकाशित किसी समाचार के कारण ही होता था। विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चैरी-चैरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से प्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ प्रताप अखबार में ही मई 1922 में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।

विद्यार्थी जी एक पत्रकार के साथ-साथ क्रान्तिधर्मी भी थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने काकोरी षडयंत्र केस के अभियुक्तों के मुकदमे की पैरवी करवायी और जेल में क्रान्तिकारियों का अनशन तुड़वाया। कानपुर को क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाने में विद्यार्थी जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा, राजकुमार सिन्हा जैसे तमाम क्रान्तिकारी विद्यार्थी जी से प्रेरणा पाते रहे। वस्तुतः प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र से भागे सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं0 राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली। भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। सर्वप्रथम दरियागंज, दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए भगत सिंह ने दिल्ली की यात्रा की और लौटकर ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भंेट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। जरूरत पड़ने पर विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया। यही नहीं अशफाकउल्ला खान की कब्र भी विद्यार्थी जी ने ही बनवाई।

विद्यार्थी जी का ‘प्रताप‘ तमाम महापुरूषों को भी आकृष्ट करता था। 1916 में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे। 1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान विद्यार्थी जी स्वागत मंत्री रहे और जवाहर लाल नेहरू के साथ-साथ घोड़े पर चढ़कर अधिवेशन स्थल का भ्रमण करते थे। यह विद्यार्थी जी ही थे जिन्होंने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद‘ को प्रताप प्रेस में रखा एवं उनके गान ‘राष्ट्र पताका नमो-नमो‘ को ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘ में तब्दील कर दिया। विद्यार्थी जी सिद्धांतप्रिय व्यक्ति थे। एक बार जब ग्वालियर नरेश ने उन्हें सम्मानित किया और कहा कि मुझे खुशी है कि आपके पिताजी मेरे अंतर्गत मुंगावली में कार्यरत रहे हैं, परन्तु आप मेरे बारे में अपने अखबार में लगातार विरोधी खबरें छाप रहे हैं। तो विद्यार्थी जी ने निडरता से कहा कि मैं आपका और पिताजी के आपसे सम्बन्धों का सम्मान करता हूँ, परन्तु इसके चलते अखबार के साथ अन्याय नहीं कर सकता। हाँ, यदि आप इन खबरों का प्रतिवाद लिखकर भेजेंगे तो अवश्य प्रकाशित करूँगा।

कालान्तर में विद्यार्थी जी गाँधीवादी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए एवं यह उनकी लोकप्रियता का भी सबब बना। वे क्रान्तिकारियों एवं गाँधीवादी विचारधारा के अनुयायियों के लिए समान रूप से प्रिय थे। इस बीच अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया तो भारतीय जनमानस आगबबूला हो उठा। अंगे्रजी निर्दयता के विरूद्ध जनमानस सड़कों पर उतर आया। निडर एवं साहसी व्यक्तित्व के धनी तथा साम्प्रदायिकता विरोधी विद्यार्थी जी इस दौरान भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शान्त कराने के लिए लोगों के बीच उतर पड़े। उधर विद्यार्थी जी के प्रताप से अंग्रेजी हुकूमत भी भयभीत थी। रायबरेली में मंुंशीगंज गोली काण्ड के तहत ‘प्रताप‘ पर मानहानि का केस चल रहा था और अंग्रेज बार-बार यह संदेश दे रहे थे कि जब तक कानपुर में ‘प्रताप‘ जीवित है, तब तक प्रदेश में शान्ति स्थापना मुश्किल है। भड़की हिंसा को काबू करने के दौरान 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अन्तिम संस्कार कर दिया गया पर ‘प्रताप‘ के माध्यम से ‘विद्यार्थी‘ जी ने राजनैतिक आन्दोलन, क्रान्तिकारी चेतना, क्रान्तिधर्मी पत्रकारिता एवं साहित्य को जो ऊँचाईयाँ दीं, उसने उन्हें अमर कर दिया एवं इसकी आंच में ही अन्ततः स्वाधीनता की लौ प्रज्जवलित हुई।
- कृष्ण कुमार यादव

24 अक्तूबर 2009

दोहों की दुनिया संजीव 'सलिल'

http://divyanarmada.blogspot.com

दोहों की दुनिया

संजीव 'सलिल'

देह नेह का गेह हो, तब हो आत्मानंद.
स्व अर्पित कर सर्व-हित, पा ले परमानंद..

मन से मन जोड़ा नहीं, तन से तन को जोड़.
बना लिया रिश्ता 'सलिल', पल में बैठे तोड़..

अनुबंधों को कह रहा, नाहक जग सम्बन्ध.
नेह-प्रेम की यदि नहीं, इनमें व्यापी गंध..

निज-हित हेतु दिखा रहे, जो जन झूठा प्यार.
हित न साधा तो कर रहे, वे पल में तकरार..

अपनापन सपना हुआ, नपना मतलब-स्वार्थ.
जपना माला प्यार की, जप ना- कर परमार्थ..

भला-बुरा कब कहाँ क्या, कौन सका पहचान?
जब जैसा जो घट रहा, वह हरि-इच्छा जान.

बहता पानी निर्मला, ठहरा तो हो गंद.
चेतन चेत न क्यों रहा?, 'सलिल' हुआ मति-मंद..

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18 अक्तूबर 2009

मेरा जीना जीना है

"मेरा जीना जीना है"

मीरा ने तो
किया था
एक बार विषपान
मुझे
बार-बार करना है
गुज़री थी
एक बार
अग्निपरीक्षा से सीता
मुझे बार-बार जलना है
जितना विष
पिलाओगे तुम मुझे
होगा नुकीला
उतना ही
मेरा दंश
पिलाओगे आग
जितनी मुझे
उगलेगी कलम
उतनी ही बन दबंग
चाहो तो
कर डालो टुकड़े
मेरे ह्र्दय के तारों के
या लटका दो सरेआम मुझे
किसी चौराहे पर
फिर भी मैं लिख ही दूँगा
कटे-फटे
कागज़ के टुकड़ों पर
या
गंदी बस्ती की दीवारों पर
तुम मुझे
जलाते हो
ज़हर देते हो
खोल न दूँ कहीं मैं
भेद तुम्हारा
बता न दूँ विशव को
कि
जीने के लिए
हर क्षण मरते हो
मारते हो
और
मर-मर कर जीते हो
मरता तो
मैं भी बार-बार हूँ
मरना तो निश्चित है
दोनों का
पर मैं मरता हूँ
किसी के लिए
फिर भी मुझे जीना है
पर तुम्हारा जीना है
क्षण-भंगुर
और
मेरा जीना
जीना है
- डा0अनिल चड्डा

14 अक्तूबर 2009

दिवाली गीत: आओ! दीपावली मनायें...आचार्य संजीव 'सलिल'

दिवाली गीत:


आओ! दीपावली मनायें...

आचार्य संजीव 'सलिल'

*

साफ़ करें कमरा, घर, आँगन.
गली-मोहल्ला हो मन भावन.
दूर करें मिल कचरा सारा.
हो न प्रदूषण फिर दोबारा.
पन्नी-कागज़ ना फैलायें.
व्यर्थ न ज्यादा शोर मचायें.
करें त्याग रोकेट औ' बम का.
सब सामान साफ़ चमकायें.
आओ! दीपावली मनायें...

*

नियमित काटें केश और नख.
सबल बनें तन सदा साफ़ रख.
नित्य नहायें कर व्यायाम.
देव-बड़ों को करें प्रणाम.
शुभ कार्यों का श्री गणेश हो.
निबल-सहायक प्रिय विशेष हो.
परोपकार सम धर्म न दूजा.
पढ़े पुस्तकें, ज्ञान बढायें
आओ! दीपावली मनायें...

*

धन तेरस पर सद्गुण का धन.
संचित करें, रहें ना निर्धन.
रूप चतुर्दशी कहे: 'सँवारो
तन-मन-दुनिया नित्य निखारो..
श्री गणेश-लक्ष्मी का पूजन.
करो- ज्ञान से ही मिलता धन.
गोवर्धन पूजन का आशय.
पशु-पक्षी-प्रकृति हो निर्भय.
भाई दूज पर नेह बढायें.
आओ! दीपावली मनायें...

*

12 अक्तूबर 2009

राकेश अचल की ग़ज़ल - "चेहरा"

चेहरा दिल का हाल बताता रहता है,
कितना है खुशहाल बताता रहता है।

कौन-कौन कोठे पर अबकी जाएगा,
यह सूखे का साल बताता रहता है।

मेरा 'तोता' आशुकला में माहिर है,
जो पूछो तत्काल बताता रहता है।

मुसिफ चुप है, लेकिन अपने चश्मे से,
नोंचेगा क्यों खाल? बताता रहता है।

राजनीति में जहर घोलने वालो को,
कुछ ना कुछ 'भोपाल' बताता रहता है।

क्या तोहफे लेकर आई है बाबुल से,
बेटी का समाज बताता रहता है।

अरबों के मालिक से धेला मांगों तो,
वह खुद को कंगाल बताता रहता है।

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रचनाकार - राकेश अचल

06 अक्तूबर 2009

कृति चर्चा: Book Review Contemporary Hindi poetry: --salil

कृति चर्चा:

Contemporary Hindi poetry:

(A selection of Modern Hindi poems translated in English)

Editor & Translator: Bhagvat Prasad Mishra 'Niyaz'

Pages: 197, Price Rs. 300/-

Sat Sahitya Prakashan, FF4/B Block, Sun Power Flats, Mem Nagar, Ahmedabad 380052

*

'The present collection of Contemporary Hindi poems is a bouquet of different variety of flowers both in colour and fragrance fresh from the Hindi garden.

Hindi poetry today is not the old, traditional, formal and ornamental poetry. However, umlike west it still maintains it's lyricality through it's internal rhythm.

But you can'nt charge it with coservatism. It is much modern because both in form and content, it has broken the shackles of set metafers and similies and created new ones. What is most noteworthy is the return of the lyricin the form of songs, ghazals, new lyric and couplets.

Though translation is not original poetry but the spirit is there throbbing in every word and line. Robert Frost says: 'Whatever is left after translation is poetry.'

In one of his books "Poems and Problems' Bledinir Nebikov contributed an article on translating Eugene Vogin. He says 'what is translation?'

'It is the fadeed but shining head of the poet, the language of the parrot, the chattering of a monkey or insulting a departed soul.

But even after describing poetry as above, recreating a poem is impossible and so is its totality. If you think like this go through the the book in discussion, yo will change your view.

Twenty contemporary hindi poets Dr. Amba Shankar nagar, Niyaz, Dr. Chandrakant Mehta, Chandrasen 'Viraat", Dayakrishna Vijayvargiya, Dr, Kishor Kabra, Madhu Prasad, Madhukar Gaur, Nathmal Kedia, Nalini kant, Nirmal Shukla, Rajkumari Sharma 'Raaz', Rajendra Pardesi, Dr. Ram Sanehi Lal Sharma 'Yayavar', Ramesh Chandra Sobti, Sanjiv Verma 'Salil', Dr. Sudesh, Sunita Jain, Udai Bhanu 'Hans' and Dr. Vishnu 'Viraat' are enriching the book by their rmarkable poetry.

It is a rare collection of the contemporary Hindi Poetry. Lots of Thanks to Prof. Niyaaz for this noble work.

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03 अक्तूबर 2009

क्यों प्रासंगिक हैं शास्त्री जी ?

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और गाँधी जी के विचारों को सर्वाधिक रूप से अपने जीवन उतारने वाले शायद इकलौते राजनेता लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्म दिवस हम सभी २ अक्टूबर को मनाते हैं।
शास्त्री जी का जीवन त्याग एवं सादगी की जीवंत मिसाल था। उन्होंने उस विषम समय में देश का नेतृत्त्व किया जब चीन से भारत की पराजय के बाद विश्व में नेहरू जी का आभामंडल तिरोहित हो चुका था । शायद यही सदमा नेहरू की मृत्यु का कारण बना । उस समय सेना का मनोबल क्षीण था । पाकिस्तान अपने अमेरिकी आका की सैनिक सहायता व शह पा कर भारत को आँखें दिखा रहा था । देश में भीषण खाद्यान्न संकट था। भारत की गुटनिरपेक्षता नीति की कटु आलोचना देश के अन्दर हो रही थी।
ऐसी विपरीत परिस्थितियों में शास्त्री जी ने देश को जो दिशा दी ,वह इतिहास में अविस्मर्णीय है। उन्होंने देश के आर्थिक परिवेश को मजबूत बनाने के लिए जहाँ 'जय किसान ' का नारा दिया ,वहीं सुरक्षा बलों के मनोबल को शिखर पर पहुँचाने के लिए 'जय जवान ' का उदघोष किया । इसका परिणाम १९६५ के भारत -पाक युद्ध में मिला जब भारतीय सैनिकों के उच्च मनोबल के परिणामस्वरूप स्वदेश में निर्मित जेट विमानों से हमारे वायुसैनिकों ने ध्वनि से भी तेज रफ्तार रखने वाली सैबरजेट विमानों को धूल चटा दी और देसी टैंकों ने अमेरिकों पैटन टैंकों को ध्वस्त कर दिया । वीर हमीद जैसे वीर सपूतों की युग -युग तक अमर रहेगीं। यह सब शास्त्री जी के द्वारा किए प्रयासोंका परिणाम था।
शास्त्री जी की कथनी व करनी में कोई अन्तर नहीं था । देश के विषम खाद्यान्न संकट में उन्होंने आगे बढ़ कर न सप्ताह में एक दिन उपवास रखा । इसका इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि देश लाखों लोगों ने उनका अनुसरण किया। क्या आज की वर्तमान राजनीति में इतने उच्च मनोबल वाला कोई और राजनेता दूर -दूर तक दिखाई देता है ?
१९६५ में पाकिस्तान पर भारत की विजय के बाद भी उनकी विनम्रता में कोई कमी नहीं आयी। नेहरू जी द्वारा प्रतिपादित भारत की गुटनिरपेक्ष नीति को उन्होंने जारी रखा । विश्वशान्ति और संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी आस्था प्रदर्शित करते हुये उन्होंने सोवियत संघ के प्रधान मंत्री कोसीगिन की मध्यस्थता स्वीकार कर पाकिस्तान के साथ 'ताशकंद समझोता' 'किया और ताशकंद में ही उनका निधन हो गया।
शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री और राजनेता के रूप में मूल्यों,नैतिकता, ईमानदारी ,त्याग ,प्रशासनिक कुशलता दृढ़ता के जो प्रतिमान स्थापित किये ,वे दुर्लभ,मार्गदर्शक एवं अनुकरणीय हैंइसके लिए देश उनका सदैव ऋणी रहेगा

गांधीजी - चित्रों एवम् बुन्देली लोकगीतों के आइने में

उ ० प्र ० के जनपद जालौन के मुख्यालय उरई में दयानंद वैदिक स्ना० महाविद्यालय के सभागार में 'गाँधी जयंती' के अवसर पर INTACH के उरई अध्याय के द्वारा गाँधी जी के जीवन एवं कार्यों से सम्बंधित चित्रों की एक दुर्लभ प्रदर्शनी लगाई गई जिसका उदघाटन INTACH के प्रदेशीय महामंत्री श्री भार्गव जी ने किया । बुंदेलखंड संग्रहालय ,उरई के निदेशक एवं INTACH उरई के संयोजक डा हरी मोहन पुरवा की इस प्रदर्शनी के आयोजन में विशेष भूमिका रही। सह संयोजक डा राम किशोर पहारिया का भी महत्वपूर्ण सहयोग रहा ।
प्रदर्शनी में 'बुन्देली लोकगीतों में महात्मा गाँधी ' वीथिका का दिग्दर्शन कराया गया ,जिसकी कुछ बानगी निम्नाकित है -
जात -पांत तोड़ कर देसी बनादव ,डरखों भगाई सरकारी ;
कर कर सत्याग्रह लड़ी रे लडाई ,राजपाट छीनों दे तारी ;
गाँधी जी को मानौ औतार ,जे हैं सत्य अहिंसा के पुजारी
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बारे का बूढे बना दए सिपाई ,औरत संग मरद सजाए देसी गाँधी ने
तोपें चलीं, लागी बंदूकें , सत्याग्रह से जीती लडाई , देसी गाँधी ने
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ऐसो जोगी देखो यार ,जैसो भयो कलयुग में गाँधी
अंग्रेजन के राज उड़ा दये ,ऐसी हटी गाँधी की आँधी
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करनी मोहन हो कथनी कहाँ लो होई ,
मोहन भये कलिकाल में,इधर गाँधी अवतार रे;
गाँधी हते सो मर गए ,देस विदेसन नाम,
हत्यारों मराठा गोडसे ,,जी ने लै लाये प्राण रे;
गाँधी जी के हो गये नाम ,जैसे भये राम,कृष्ण के ;
गाँधी जी को दओ सम्मान ,देस ने राष्ट्रपिता कह के
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चना जोर गरम बाबू ,मै लाया मजेदार ,चना जोर गरम
चना जो गाँधी जी ने खाया ,जा के डांडी नमक बनाया;
सत्याग्रह संग्राम चलाया , चना जोर गरम
तुम भी चना चबेना खाओ ,खा के गाँधी जी बन जाओ ;
अंग्रेजों को मार भगाओ, चना जोर गरम
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गाँधी बब्बा तारनहार
चरखा चला -चला के तुमने ,
चला दई सुदेसी बयार
गाँधी बब्बा तारनहार
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(सहयोग - डा ० मनोज श्रीवास्तव )

02 अक्तूबर 2009

लघु कथा समय का फेर आचार्य संजीव 'सलिल'

लघु कथा

समय का फेर

गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले- ' तेरी तकदीर में तालीम है ही नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कार रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खायेगा.'

गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गयी. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया, सोचा: 'आज भगा रहे हैं. ठीक है भगा दीजिये, लेकिन मैं एक दिन फ़िर आऊंगा... जरूर आऊंगा.'

गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे गुरु जी वह घटना भूल गए.

कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे अतिथि का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- 'आपने पहचाना मुझे?'

गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गयी किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.

गुरु जी को चुप देखकर अतिथि ही बोला- 'आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.'

गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.

*****

01 अक्तूबर 2009

सुमधुर गीतोँ के शिल्पी ' मंजुल मयंक '


स्व० गणेश प्रसाद खरे 'मंजुल मयंक' बुंदेलखंड के हमीरपुर जिले के निवासी थे। उनका नाम देश के प्रमुख गीतकारों में लिया जाता है । वे प्रसिद्ध कवि गोपाल दास 'नीरज' के साथी व समकालीन थे । उनके गीतों की अभिव्यक्ति एवं मधुर स्वर लहरी श्रोताओं को बरबस ही आकृष्ट कर लेती थी। यह एक अजीब संयोग है कि उनकी जन्म तिथि व पुण्य तिथि दोनों ही ३० सितम्बर को पड़ती हैं। प्रस्तुत है उनका एक बेहद लोकप्रिय गीत -
रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा ,
तुम आए, सितारों को नींद गयी
धूप की पालकी पर ,किरण की दुल्हन,
आ के उतरी ,खिला हर सुमन, हर चमन ,
देखो बजती हैं भौरों की शहनाइयाँ ,
हर गली ,दौड़ कर, न्योत आया पवन,
बस तड़पते रहे ,सेज के ही सुमन,
तुम आए बहारों को नीद गयी१।
व्यर्थ बहती रही ,आंसुओं की नदी ,
प्राण आए न तुम ,नेह की नाव में,
खोजते-खोजते तुमको लहरें थकीं,
अब तो छाले पड़े,लहर के पाँव में,
करवटें ही बदलती ,नदी रह गयी,
तुम आए किनारों को नींद गयी२।
रात आई, महावर रचे सांझ की ,
भर रहा माँग ,सिन्दूर सूरज लिये,
दिन हँसा,चूडियाँ लेती अंगडाइयां,
छू के आँचल ,बुझे आँगनों के दिये,
बिन तुम्हारे बुझा, आस का हर दिया,
तुम आए सहारों को नीद गयी
साहित्य जगत के ऐसे मनीषी को विनम्र श्रद्धांजलि ।