30 नवंबर 2009

कृष्ण दयाल सक्सेना 'निस्पृह ' का गीत

निभना ही सीखा जीवन में

जाने कितनी बाधाओं को , मैंने शशि- सम हृदय लगाया ;
कष्ट-भार से बोझिल मन को , विचलित होने पर समझाया ;
भाँति शलभ की, दुःख की लौ पर ,मिटना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा .......................................................... । १।
शूल-सुमन दोनों को एक सम ,इस जीवन में प्यार किया है ;
शूल -मूल्य लेकर मानव से ,पुष्पों का व्यापार किया है ;
बन चकोर शशि हित ,शोलों को, चुगना ही सिखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ...............................................................। 2।
मंद पवन की शीतल सिहरन, को मैंने स्वीकार किया है ;
जब कि चुभन से भी शूलों की ,हँस कर ही अभिसार किया है ;
आंधी और तूफानों में भी , बढ़ना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ३।
मृग-चितवन की मनहर छवि का,मंजुल स्वर में गान किया है;
जब कि शौर्य को भी मृगेंद्र के ,समुचित ही सम्मान दिया है ;
कोमल -सबल सभी से मिल कर, हँसना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ४ ।
जब भी जिसको वचन दिया जो ,उसको पूरी तौर निभाया ;
हँस कर ही टाला है मग में ,कंकड़ -पत्थर , जो भी आया ;
कष्ट पड़े कितने भी ,प्रण पर टिकना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा........................................................ ।५ ।

बकरीद -निरीह जानवरों के कत्लेआम का विकल्प सोचने की जरूरत

ईद -उल -जुहा उर्फ़ बकरीद बीत गयी । कुर्बानी के नाम पर लाखों निरीह बकरे कुर्बान हो गए । आज तक मै यह नहीं समझ पाया कि इन बेजुबानों को मार कर व पका कर खाने से कैसी धार्मिक संतुष्टि मिलती है । मैंने अपने कई मुस्लिम मित्रों से इस बावत पूछा ,पर सभी का रटा -रटाया सा जबाब था कि यह कुर्बानी प्रतीकात्मक है और एक रिवाज के रूप में सदियों से स्थापित है अतः इस पर तर्क की ज्यादा गुंजायस नहीं है । इक्कीसवीं सदी में ऐसी तर्क आश्चर्यजनक भले ही लगते हों पर धार्मिक अंधविश्वासों कि जड़े कितनी गहरी होती है,यह भी स्पष्ट होता है।
अखबारों में ईद-उल-जुहा के महत्त्व के बारे में कई इस्लामिक विशेषज्ञों के विचार भी पढने को मिले । इस पर्व को आध्यात्मिक उन्नयन को प्रेरित करने वाला बताया गयाक़ुरबानी को अपनी प्यारी से प्यारी चीज को अल्लाह के नाम पर न्योछावर करने की प्रथा कहा गयाकुछ लोगों ने यह भी कहा कि कुर्बानी बुरी इच्छाओं एवं आदतों के परित्याग का प्रतीक है । पर निरीह जानवर को काट कर ऐसे लक्ष्य कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ?
मुस्लिम समाज में अब शिक्षा का व्यापक प्रसार हो चुका हैवहां पर भी जागरूक संवेदनशील लोगों कि एक अच्छीखासी जमात हैऐसी वीभत्स और सारहीन प्रथाओं के विरुद्ध इस समाज में भी आवाज उठनी चाहिये
बकरीद पर इस बार बकरे बहुत मँहगे बिके । कुछ बकरे तो कार से भी ज्यादा मँहगे थे । पच्चीस लाख तक का बकरा बिका । मैंने अपने एक परिचित ,जो घर से बाहर सर्विस पर नियुक्त हैं , को बकरीद पर मुबारकबाद के लिए फोन किया । उनकी बच्ची ने फोन रिसीव किया । मैंने पूछा कि कैसी बकरीद मनाई? उसने कहा कि इस बार कुर्बानी नहीं हो पायी क्यांकि पापा ने अपने एक दोस्त को कुर्बानी के लिए बकरा खरीदने के लिए पैसे दिये थे ,पर बकरा इतना मँहगा था कि ख़रीदा नहीं जा सका । मैने कहा ,"फ़िर क्या किया ?" उसने कहा कि जो पैसे बकरा खरीदने को निकाले थे , वह गरीबों में दान कार देंगें । मुझे लगा कि कुर्बानी के स्थान पर यदि यह विकल्प अपनाने पर मुस्लिम समाज विचार करे तो केवल लाखों बेजुबान जानवरों के खून से हाथ रँगने से बचा जा सकता है वरन इस पर्व के मूल में निहित 'मोह -माया का परित्याग क़र आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होना ' भावना को सही अर्थों में साकार किया जा सकता है।

27 नवंबर 2009

रामनिवास की गज़ल - वतन के नाम से जो है

गज़ल:-वतन के नाम से जो है
वतन के नाम से जो है वही सच्ची जवानी है
मोहब्बत है जुड़ी जिससे वही सच्ची कहानी है !!

वतन के नाम पर हँसकर कभी कुर्बान जो होती
वही असली जवानी है वही सच्ची जवानी है !!

जिसके काम से खुशबू सदा अर्पण की आती है
हमें उसकी ही खुशबू से सदा महफ़िल सजानी है!!

खाकर अन्न भारत का करे गुणगान दुश्मन का
वही तो देश द्रोही है उसे छोड़ना नादानी है!!
करता नाम जो रोशन सदा दीपक सा जल कर के
वही तन खूबसूरत है वही चेहरा नूरानी है !!

जो दूसरो के दुःख को भी दुःख अपना समझता है
वही सुलझा हुआ मानव वही ऋषियों सा ज्ञानी है !!

हमारा 'इंडिया' जीवन समर्पित मातृभूमि को
सदा इसके ही चरणों में हमें मस्तक झुकानी है!!

ग़ज़लकार -

राम निवास 'इंडिया'
गीतकार,नई दिल्ली

हिंदी सबके मन बसी --संजीव'सलिल'

हिंदी सबके मन बसी

आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा

हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..

संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..

हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..

ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.

संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.
हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..

सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..

भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..

उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..

भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..

24 नवंबर 2009

शोकगीत: नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ? संजीव 'सलिल'

पूज्य मातुश्री स्व. शांति देवि जी की प्रथम बरसी पर शोकगीत:

नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ?

संजीव 'सलिल'

नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
छीन लिया क्यों
माँ को तुमने?
कितना तुम्हें
मनाया हमने?
रोग मिटा कर दो
निरोग पर-
निर्मम उन्हें
उठाया तुमने.
करुणासागर!
दिया न साथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
मैया तो थीं
दिव्य-पुनीता.
मन रामायण,
तन से गीता.
कर्तव्यों को
निश-दिन पूजा.
अग्नि-परीक्षा
देती सीता.
तुम्हें नवाया
निश-दिन माथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
हरी! तुमने क्यों
चाही मैया?
क्या अब भी
खेलोगे कैया?
दो-दो मैया
साथ तुम्हारे-
हाय! डुबा दी
क्यों फिर नैया?
उत्तर दो मैं
जोडूँ हाथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*

23 नवंबर 2009

कहीं झुलस न जाये यह देश ?

महाराष्ट्र में 'मराठी अस्मिता' के एकाधिकार पर जंग जारी है । शिवसेना के गाडफादर बाल ठाकरे पहले लोकसभा चुनावों में और फ़िर विधान सभा निर्वाचन चुनावों में अपनी हार पचा नहीं पा रहे हैं। कभी जनता ने उन्हें सर, आंखों पर बिठाया था और वे स्वयं को जनता का आका मानने लगे थेलोक सभा चुनावों में तो उन्होंने जनता को शिव सेना को वोट देने का आदेश तक दे डाला ,जैसे महाराष्ट्र उनकी जागीर हो और जनता उनकी गुलामजब जनता ने उन्हें उनकी औकात दिखा दी ,तो वे बौखला उठे
शिव सेना की बड़ी दुखती रग इस समय राज ठाकरे हैं । न केवल शिव सेना की दुर्दशा के लिए वे जिम्मेदार हैं बल्कि शिवसेना का जनाधार भी वे न चुरा ले जायें ,इस चिंता से भी बालासाहिब ठाकरे परेशान हैं । वे दिखाना चाहते हैं कि शिवसेना के तेवर अभी भी उनकी जवानी के समय वाले हैं ,राज ठाकरे तो उनकी नक़ल कर रहे हैं और मराठी अस्मिता के पुरोधा व रखवाले अब भी वही हैं। इस प्रयास में शिवसेना अविवेकपूर्ण गतिविधियाँ करती जा रही हैंचाहे I B M लोकमत के कार्यालय पर हमले का मामला हो अथवा बालठाकरे द्वारा 'सामना' में सचिन तेंदुलकर को नसीहत देने का प्रयास । इनसे देश भर में कितनी फजीहत हो रही है ,इसे बूढ़े शेर ,सठियाये ठाकरे देख नही पा रहे हैं।
ठाकरे तो खैर ठाकरे हैं ,पर कांग्रेस को क्या हो गया है?वह केन्द्र व महाराष्ट्र में सत्ता में है । संविधान व लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेवारी उसी की है। पर वह शिवसेना की फूट का मजा राज्य की कानून -व्यवस्था की कीमत पर ले रही है । ठाकरे परिवार को गुंडई करने की खुली छूट उसने दे रखी है ,ऐसा प्रतीत होता है। यह स्थिति देश के लिए खतरनाक है । मराठी अस्मिता के नाम पर क्षेत्रवाद की घातक प्रवृत्ति को जिस तरह से जानबूझ कर हवा दी जा रही है ,यदि देश के अन्य भागों में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होनी शुरू हो गयी तो , देश का क्या होगा ? क्षेत्रवाद की इस आंधी में कहीं झुलस जाए ये देश ?

21 नवंबर 2009

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - गहन जीवन अनुभवों के स्याह यथार्थ से रूबरू होता वर्तमान युग का हिन्दी साहित्य

गहन जीवन अनुभवों के स्याह यथार्थ से रूबरू होता वर्तमान युग का हिन्दी साहित्य

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डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन
सस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला (हिमाचल प्रदेश)

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जीवन सम्भावनाओं का दूसरा नाम है और मनुष्य है अनगिनत सम्भावनाओं की बैसाखियों के सहारे थम-थम कर चलने वाला हिम्मतवर सैलानी। जन्म के प्रारम्भिक क्षण से लेकर मृत्यु के अन्तिम क्षण तक की सारी यात्रा अनेक रूचियों, भावों और प्रतिक्रियाओं की एक ऐसी परिणति है जिसकी गहराइयों में सब कुछ ऐसे समा जाता है मानो जन्म मिला ही इसलिये है कि उसे अपने लिये सब कुछ समेटकर उसी में विला जाना है। औद्योगीकरण, नगरीकरण और वैज्ञानिक अन्वेषणों के पाश्र्व में खड़ा जीवन बाहर से ही नहीं, भीतर से भी बदला है। आजादी ने हमें जितना दिया है, उससे अधिक हम से ले भी लिया है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘स्वतंत्रता और संस्कृति एक अल्पसंख्यक वर्ग-विशेष को ही मिली है।’ सामान्य मनुष्य तो अभी भी आजादी को टोह रहा है। आजादी राष्ट्रीय स्तर पर जितनी अहम उपलब्धियाँ लेकर आई है, वैयक्तिक स्तर पर उतना और वैसा कुछ भी नहीं हस्तगत हुआ है। ‘‘व्यक्ति की मनोव्यथा बढ़ी है क्योंकि महानगरों में भीड़ बढ़ी है। मनुष्य पहले से अधिक अकेला हुआ है क्योंकि उसे अस्तित्व नहीं मिला है। उसकी ऊब दुगुनी हुई है क्योंकि मानवीय सम्बन्ध बिखर गये हैं। मनुष्य बेरोजगार होता गया है क्योंकि गाँव और नगर पीढ़ियाँ उगल रहे हैं। निराशा का रंग दिन-प्रतिदिन गाढ़ा होता जा रहा है क्योंकि मनुष्य की स्थिति अनपहचान सी होती जा रही है।’’ महानगरों में भीड़ का दबाव बढ़ा है तो उसी अनुपात में जीवन यांत्रिक और एक रस होता जा रहा है। नतीजा यह है कि छोटे नगरों में जीवन के अभाव और विषम परिस्थितियाँ इतनी अधिक तेजी से बढ़ रही हैं कि व्यक्ति के मन में ‘एलियनेशन’ और ‘बोरडम’ की भावना ने डेरा सा डाल लिया है।

उपयुक्त साधनों का अभाव, जीवन स्तर में उत्पन्न बाधाएँ, अव्यवस्था व अनुपयोगी शिक्षा, बेकारी, जनसंख्या की बढ़ोत्तरी, वैज्ञानिक सुविधाओं का अधकचरापन और बीमारी, गन्दगी व भुखमरी के कारण देश का आम आदमी पीड़ित है। उसका रक्तचाप या तो ऊँचा है, या काफी नीचा है। वह ‘नार्मल’ नहीं रह गया है। युवक-युवतियों को अपनी समस्याएँ हैं। अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध, उन्मुक्त प्रेम, समलैंगिक विवाह, नशीले पदार्थों का सेवन, तलाक, हड़ताल, भू्रण हत्या और नंगे-अधनंगे शरीरों का नृत्य आदि जीवन को जिस हवा के साथ बहाये जा रहा है वहाँ ठहरकर सोचने का अवकाश ही किसको है ? नयी पीढ़ी समाज की सड़ी-गली परम्पराओं को तोड़ रही है। लीक से हटकर अपने अनुसार लीक बना रही है। वह ‘वाइफ स्वैपिंग’ के खेल खेलती है। फैशन का नया दौर सामने से गुजर रहा है। ‘टापलेस’ और ‘मिनी स्कर्टस’ का फैशन जोरों पर है। फैशन का बाजार गर्म है। एक तरह का डिजाइन आ नहीं पाता कि दूसरा आकर उसे पुराने खाते में धकेल देता है। हिप्पी व वीटनिक संस्कृति ने देश के महानगरों का जीवन क्रम ही बदल दिया है। वर्तमान जीवन में कालेजों और विश्वविद्यालयों का जीवन भी अनाकर्षक अव्यवस्थित और असन्तोषपूर्ण होता जा रहा है। युवा बुद्धिजीवियों के सामने भविष्य का रूप स्पष्ट नहीं है और आज की नारकीय जिन्दगी की धकापेल में कर्तव्य का ज्ञान ही हवा हो गया है। अतः विगत वर्षों में हमारा जीवन जितना बदला है, उसमें जो अव्यवस्था, दरार और बिखराव आया है, उतना पिछले सैकड़ों वर्षों में भी नहीं आ पाया था। मध्यवर्गीय व्यक्ति एक ओर तो पुराने संस्कारों की जकड़न से बाहर आना चाहता है और दूसरी ओर ‘टेबूज’ व रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ डालने पर आमादा है, किन्तु करे क्या ? उसके हाथों की ताकत गायब है। वह आधुनिक विदेह हो गया है। उसकी संकल्पी मनोवृत्ति नीचे दब गई है। अतः विवश है, अभिशप्त जीवन जी रहा है। इस विवशता ने उसके मानस में कुंठा, एकाकीपन, अजनबीपन, घुटन, निरूद्देश्यता, नपुंशक आक्रोश और अकेलेपन के बोध को गहरा दिया है। इस स्थिति से केवल पुरूष गुजर रहा हो ऐसी बात नहीं है, स्त्रियाँ भी इसी स्थिति और परिवेश में जी रही हैं। उनका शरीर रीतिकालीन नायकों के द्वारा तो उन्मथित ही हुआ था। आज तो वह बार-बार नापा जा रहा है। वासना के फीते के सामने वह छोटा पड़ गया है। अंग-प्रत्यंग पर वासना के नीले निशान हैं और उसकी परिणति भू्रण हत्या, एबार्शन और भोग की दीवारों से सिर पटकने में ही रह गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक परिवेश का मानचित्र काफी भयावह त्रासद और घिनौना है। उसमें समस्याओं के पहाड़ हैं, अतृप्तियों व विक्षुब्ध मनः स्थितियों की सरिताएँ हैं, अकेली शैलमालाओं और समूचे मानचित्र में न कोई रंग है, न रौनक। वह विकृत, हाशियाहीन, सीमाहीन और लिजलिजा सा हो गया है। इतना ही नहीं उसमें अंकित प्रत्येक नगर अजनबीपन का भार लिये अपनी जगह पर खड़ा भर है। यों उसके आसपास, छोटे बड़े नगरों की भीड़ है, उसका दबाव है, परन्तु फिर भी वह अकेला है। ऐसे परिवेश में लिखा गया आधुनिक साहित्य इससे अलग कैसे हो सकता था ? नहीं न। अतः उपरिसंकेतित परिवेश से प्रभावित साहित्य का रूप रंग भी तदनुकूल ही है।

समूची मानवता, मानवीय सम्बन्धों और मूल्यों का अपने ढंग से पुनरूवेषण करती है, अपने लिये एक मार्ग चुनती है, उसे केवल उसकी जन्म विवरणिका के माध्यम से कैसे समझा जा सकता है। उसकी पहचान उसकी व्यक्तिगत रूचियों, आदतों और प्रतिक्रियाओं से तो होती ही है उसे उसके परिवेश और सृजन के सहारे से भी समझा जा सकता है। व्यक्ति वह नहीं है जो वह बाहर से दिखता है, अपितु असली व्यक्ति वह है जो आदमीनुमा शक्ल का खोल ओढ़कर अपने भीतर एक आदमी को लिये चलता है। यह तथ्य सामान्य व्यक्ति से लेकर कलाकार तक पर लागू होता है। आधुनिक जीवन की विसंगतियाँ तो इस तथ्य को और भी प्रमाणित कर देती हैं। मनुष्य लाख कोशिश करे, परन्तु वह आन्तरिक संवेदना को छुए बिना न तो जीवन की विचित्रताओं से परिचित हो सकता है और न उसके मूल में कार्य कर रही शक्तियों से।

आज का आदमी अपने आसपास के अनेक सवालों से टकराता, टूटता और निर्वासित हो रहा है। क्योंकि मनुष्य वैज्ञानिक उपलब्धियों को अपने जीवन में जाने-अनजाने स्वीकार कर रहा है और वैज्ञानिक विचारधारा ही आधुनिकता की धारणा बन गई है। अतः आधुनिकता ने वार्तालाप के दायरे को नितांत सीमित और संकुचित कर दिया है। व्यक्ति अकेलेपन से निकलने और परिवेश से जुड़ने के लिये छटपटा रहा है। वह जीने के लिये नये सम्बन्धों और नयी मान्यताओं की तलाश करता है ताकि अपनी खोई हुई दिशा को प्राप्त कर सके और जीवन को नये सम्बन्धों और सन्दर्भों से जोड़ सके। स्वीकार और अस्वीकार, ग्रहण और त्याग तथा विरोध और सामंजस्य की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि एक रचनाकार अपने समय और परिवेश को पूरी ईमानदारी से अपने साहित्य में अंकित करता हुआ उसे विश्वसनीय बना दे। इसमें प्रकृति की अनाघात छवियां को समाहित कर दे, सौन्दर्य की तरंगें , सांस्कृतिक संदर्भ और इन सबको वाणी प्रदान करने वाली अद्भुत शैली को उत्पन्न कर दे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान युग का हिन्दी साहित्य युग साहित्य है। उसमें समकालीन युग-जीवन की अभिव्यंजना है। उसमें मनुष्य के राग-विराग, आसक्ति-अनासक्ति, स्वीकार-अस्वीकार, ग्रहण और त्याग, जीवन के गुह्य और जटिल संदर्भ, युग-त्रासदी और उससे उत्पन्न विभिन्न मनः स्थितियों का यथार्थ, विश्वसनीय और सही अंकन हुआ है। वर्तमान युग के साहित्य का सर्वप्रमुख गुण है। अनुभूति की ईमानदारी और अभिव्यक्ति का निश्छल स्याह यथार्थ सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके साथ ही समकालीन जीवन की समग्र पहचान-पकड़ और सूक्ष्म संवेदनात्मक अभिव्यक्ति। प्रस्तुत बिन्दुओं पर व्यापक विमर्श करना अन्वेषक का अभीष्ट अन्वेषण होगा ।


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सम्पर्क-वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
उरई (जालौन)285001

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लेखक का परिचय यहाँ से देखें

20 नवंबर 2009

प्रेम नारायण गुप्ता की लघुकथा - टेक केयर

लघुकथा: टेक केयर

प्रेम नारायण गुप्ता

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वर्माजी बहुत ख़ुश थे कि उनका बेटा विकास अच्छे से सैटल हो गया था। अब तो विकास ने मुंबई में अपना फ़्लैट भी ले लिया है और बच्चों के साथ मज़े से वहीं रह रहा है। वर्मा दंपती अब काफ़ी बूढ़े हो गए हैं और अक्सर बीमार रहते हैं। पेंशन के जिन रुपयों से गृहस्थी चल जाती थी अब वो कम पड़ने लगे हैं क्योंकि मँहगाई, दवाएँ और फलों का खर्च बजट बिगाड़कर रख देता है।
माँ ने फोन करके बेटे को घर बुलवाया तो वो छुट्टियों में पिता की बीमारी का हाल-चाल जानने चला आया। माँ-पिताजी बेटे को देखकर बहुत ख़ुश हुए और बहू और पोते-पोती को साथ न लाने पर नाराज़ भी हुए। आज बरसों बाद रसोई में कई चीज़ें एक साथ बनीं और बेटे को ख़ूब खिलाया-पिलाया।
बेटे ने पिता से पूछा, ‘‘अब तो दिल्ली में प्रापर्टी के दाम बहुत बढ़ गए हैं। अपना मकान कितने का चल रहा है?’’
ये सुनकर वर्माजी को अच्छा नहीं लगा और वो सुना-अनसुना कर गए। अगले दिन जाते हुए बेटा बोला, ‘‘ टेक केयर पापा।’’
मिसेज वर्मा की आँखें आँसुओं से भीग गईं और वे सोचती रहीं, ‘‘ बट हू विल टेक केयर?’’

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प्रेम नारायण गुप्ता
ए.डी.-26-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
Email:
premnarayan.gupta@yahoo.co.in

नवगीत: कौन किताबों से/सर मारे?... आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बीत गया जो
उसको भूलो.
जीत गया जो
वह पग छूलो.

निज तहजीब
पुरानी छोडो.
नभ की ओर
धरा को मोड़ो.

जड़ को तज
जडमति पछता रे.
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
दूरदर्शनी
एक फलसफा.
वही दिखा जो
खूब दे नफा.

भले-बुरे में
फर्क न बाकी.
देख रहे
माँ में भी साकी.

रूह बेचकर
टका कमा रे...
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बटन दबा
दुनिया हो हाज़िर.
अंतरजाल
बन गया नाज़िर.

हर इंसां
बन गया यंत्र है.
पैसा-पद से
तना तंत्र है.

निज ज़मीर बिन
बेच-भुना रे...
*

15 नवंबर 2009

नव गीत : चलो भूत से/मिलकर आएँ... --संजीव 'सलिल'

नव गीत :

संजीव 'सलिल'

चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*

14 नवंबर 2009

"" तृतीय कविता प्रतियोगिता सूचना ""

हिन्दी साहित्य मंच "तृतीय कविता प्रतियोगिता" दिसंबर माह से शुरु हो रही है। इस कविता प्रतियोगिता के लिए किसी विषय का निर्धारण नहीं किया गया है अतः साहित्यप्रेमी स्वइच्छा से किसी भी विषय पर अपनी रचना भेज सकते हैं । रचना आपकी स्वरचित होना अनिवार्य है । आपकी रचना हमें नवंबर माह के अन्तिम दिन तक मिल जानी चाहिए । इसके बाद आयी हुई रचना स्वीकार नहीं की जायेगी ।आप अपनी रचना हमें " यूनिकोड या क्रूर्तिदेव " फांट में ही भेंजें । आप सभी से यह अनुरोध है कि मात्र एक ही रचना हमें कविता प्रतियोगिता हेतु भेजें ।

प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आने वाली रचना को पुरस्कृत किया जायेगा । दो रचना को सांत्वना पुरस्कार दिया जायेगा । सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन हमारे निर्णायक मण्डल द्वारा किया जायेगा । जो सभी को मान्य होगा । आइये इस प्रयास को सफल बनायें । हमारे इस पते पर अपनी रचना भेजें -hindisahityamanch@gmail.com .आप हमारे इस नं पर संपर्क कर सकते हैं- 09818837469, 09891584813,

हिन्दी साहित्य मंच एक प्रयास कर रहा है राष्ट्रभाषा " हिन्दी " के लिए । आप सब इस प्रयास में अपनी भागीगारी कर इस प्रयास को सफल बनायें । आइये हमारे साथ हिन्दी साहित्य मंच पर । हिन्दी का एक विरवा लगाये जिससे आने वाले समय में एक हिन्दीभाषी राष्ट्र की कल्पना को साकार रूप दे सकें ।

12 नवंबर 2009

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव की पर्यावरण सम्बन्धी पुस्तक का आलेख - समुद्री प्रदूषण

लेखक - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का परिचय यहाँ देखें
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अध्याय 9 = समुद्री प्रदूषण का अर्थ एवं इसके रोकने के उपाय
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समुद्र का सम्बन्ध आम आदमी से न होने के कारण मानव को ज्ञात ही नहीं हो पाता है कि इसमें पर्यावरण के प्रदूषण द्वारा कितनी क्षति पहुँच रही है। भारत का तीन ओर से समुद्र से आबद्ध होना इसकी सार्थकता को सिद्ध करता है। समुद्र तट पर भारत की 1/4 आबादी निवास करती है। पर्यावरणविदों के अनुसार महानगरों में रहने वाले लोग अपेक्षाकृत कूड़ा करकट एवं गंदगी फैलाते हैं इसके साथ ही महानगरों में औसतन एक व्यक्ति 120 लीटर पानी भी प्रयोग करता है। वहीं छोटे एवं मझोले कस्बों में यह खपत थोड़ी कम अर्थात 80 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन हो जाती है। समुद्र किनारे बसे महानगरों मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई आदि में प्रति वर्ष ढेर सारा सीवेज मिलता है। इसके साथ ही प्राकृतिक आपदाओं (भूकम्प, भूस्खलन सुनामी) के कारण जो मौतें एवं मलवा मिलता/निकलता है वह समुद्र में मिलकर इसको प्रदूषित कर देता है। इसके साथ ही अनेक नदियों एवं कारखानों एवं अन्य माध्यमों से जो अवशिष्ट तरल एवं ठोस पदार्थ समुद्र में मिलते हैं उसमें कुछ न कुछ अशुद्धियां अवश्य रहती हैं। इस तरह स्पष्ट है कि ‘‘समुद्री पर्यावरण में मनुष्य द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ऐसे पदार्थ या ऊर्जा का मिलाना जिससे इस प्रकार हानिकारी प्रमुख तत्व उत्पन्न हों। जिससे जीवों को हानि पहुँचे, मानव स्वास्थ्य के लिये संकट उत्पन्न हो; मछली मारने और समुद्री जल की गुणवत्ता में सुधार करने जैसे कार्यों में बाधायें हों और सुविधाओं में कमी हो।’’ समुद्री प्रदूषण की संज्ञा दी जाती है।
अनेक नवीन वैज्ञानिक अनुसंधानों ने समुद्र की उपयोगिता को जहाँ एक ओर बढ़ाया है वहीं इसमें रहने वाले जीवों हेंरिग, मैकरेल, सरडाइन जैसी मछलियों, वनस्पतियों तथा सामुद्रिक खाद्य पदार्थों को क्षति पहुँचानी शुरू कर दी है क्योंकि आण्विक परीक्षणों, औद्योगीकरण, जहाजों एवं टैंकरों के व्यापक परिवहन एवं जहरीले अवशिष्टों की मिलावट ने इन जीवों के साथ मानव को भी अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। ऐसे में मानव के विस्तृत हितों को देखते हुये सभी लोगों को एक जुट होकर समुद्र प्रदूषण के कारकों को रोकने का प्रयास करना चाहिये।
भारत के निकटवर्ती सागरों में मिलने वाले ताजे पानी और प्रदूषकों की मात्रा
क्र. प्रतिवर्ष प्रदूषकों की मात्रा
1. प्रतिवर्ष नदियों द्वारा लाया गया पानी ==== 1,645 वर्ग किलोलीटर
2. अरब सागर पर होने वाली वार्षिक औसत वर्षा === 6,100 घन किलोलीटर
3. बंगाल की खाड़ी पर होने वाली वार्षिक औसत वर्षा === 6.5551012 घन कि. ली.
4. तटीय आबादी द्वारा सागरों में प्रतिवर्ष मिलाये जाने === 3,900000000 घन ली.
वाला सीवेज (60 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की
दर से)
5. तटीय उद्योगों द्वारा सागरों में प्रतिवर्ष मिलाये === 3,90,00000 घन ली.
जाने वाले व्यर्थ पदार्थ
6. नदियों द्वारा प्रतिवर्ष लाये जाने वाला सीवेज === 500,00,000 घन ली.
7. अरब सागर पर से प्रतिवर्ष === 57,9000000
ढोये जाने वाला कुल तेल
8. देश के पश्चिमी तट पर प्रतिवर्ष === 750-1000 टन
गर्म होने वाली तारकोल की गोलियाँ
स्रोत - शशि एण्ड डा0 एन के तिवारी-पर्यावरण एक परिचय, पृ. 151
समुद्री प्रदूषण रोकने के उपाय
---------------------------------
यह प्रदूषण सामान्य प्रक्रिया से रोका नहीं जा सकता है परन्तु दृढ़ इच्छा शक्ति एवं सरकारी प्रयासों से ऐसा कोई कार्य नहीं है जो किया न जा सके। भारत सरकार ने हालांकि तटीय क्षेत्रों की राज्य सरकारों को निर्देश दिये हैं कि उच्च ज्वार रेखाओं वाले हिस्सों में 500 मीटर तक के क्षेत्र में किसी भी प्रकार के निर्माण पर रोक होनी चाहिये।
1. समुद्र में तेल रिसाव होने पर ऐसे जीव चूषकों का प्रयोग होना चाहिये जो उसे शीघ्र पीकर जल की तरह साफ कर सके।
2. ऐसी तकनीकों को विकसित किया जाना चाहिये जो समुद्र में फैली गन्दगी को अन्दर ही अन्दर समाप्त कर सके।
3. सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति, व्यवस्थिति कार्य प्रणाली जिससे समुद्री जल को प्रदूषण से बचाया जा सके, इसका एकमात्र निदान है।

सम्पर्कः
वरिष्ठ प्रवक्ता: हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001

10 नवंबर 2009

नवगीत: बैठ मुंडेरे/कागा बोले --आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

बैठ मुंडेरे

कागा बोले

काँव, काँव का काँव.

लोकतंत्र की चौसर

शकुनी चलता

अपना दाँव.....
*
जनता

द्रुपद-सुता बेचारी.

कौरव-पांडव

खींचें साड़ी.

बिलख रही

कुररी की नाईं

कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल

हुई है

सूनी अमराई.

पनघट सिसके

कहीं न दिखतीं

ननदी-भौजाई.

राजनीति ने

रिश्ते निगले

सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो

भूख नहीं है.

नहीं भूख को दाना.

नादाँ स्वामी,

सेवक दाना

सबल करे मनमाना.

सूरज

अन्धकार का कैदी

आसमान पर छाँव...
*

आओ बच्चो गा कर पहाड़े सीखें !

(1)

“दो एकम दो दो दूनी चार”
दो एकम दो

दो दूनी चार
जल्दी से आ जाता
फिर से सोमवार ।

दो तीए छ:
दो चौके आठ
याद करो अच्छे से
अपना-अपना पाठ ।

दो पंजे दस
दो छेके बारह
आओ मिल कर बने
एक और एक ग्यारह

दो सत्ते चौदह
दो अटठे सोलह,
जिद नहीं करना
बेकार नहीं रोना

दो नामे अट्ठारह,
दो दस्से बीस,
करना अच्छे काम,
देंगें मात-पिता आशीष ।

(2)

“तीन एकम तीन तीन दूनी छ:”

तीन एकम तीन
तीन दूनी छ:
रोज-रोज नहा के,
साफ-सुथरा रह।

तीन तीए नौ,
तीन चौके बारह,
मेहनत करने वाला,
कभी नहीं हारा।

तीन पंजे पंद्रह,
तीन छेके अट्ठारह,
साफ दिल वाला,
कभी झूठ नहीं बोला।

तीन सत्ते इक्कीस,
तीन अट्ठे चौबीस,
हरदम रहना,
कक्षा में चौकस।

तीन नामे सत्ताईस,
तीन दस्से तीस,
कभी नहीं होना,
किसी से उन्नीस।

(3)


“चार एकम चार चार दूनी आठ”

चार एकम चार,
चार दूनी आठ,
मिल-जुल के खाना,
बराबर-बराबर बाँट।

चार तीये बारह,
चार चौके सोलह,
मुसीबत के वक्त,
होश नहीं खोना।

चार पंजे बीस,
चार छेके चौबीस,
मत हारना हिम्मत,
करते रहना कोशिश।

चार सत्ते अट्ठाईस,
चार अट्ठे बत्तीस,
मात, पिता, गुरूओं से,
लेना तुम आशीष।

चार नामे छत्तीस,
चार दस्से चालीस,
अन्तर्मन को हरदम,
रखना तुम खालिस।

- डा0 अनिल चड्डा

(हिन्द युग्म पर प्रकाशित)

03 नवंबर 2009

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - जातीय अक्स में लोक कहावतों/लोकोक्तियों का सिंहावलोकन

जातीय अक्स में लोक कहावतों/लोकोक्तियों का सिंहावलोकन
डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव

हमारा भारत अन्तर्विरोधों का देश है! भारतीय समाज को यहाँ कई खण्डों में बाँटकर प्राचीन काल से देखा गया है! यहाँ पर्व, त्योहारों एवं नामकरण में भेद होने के साथ ही साथ जातियों में समाज का बंटवारा है ही इसके साथ ही पत्थर, देवी-देवता, पेड़-पौधे, पशु पक्षियों, रंगों धातुओं एवं लकड़ी सभी क्षेत्रों में बंटवारा हैं ; इसमें दो राय नहीं है कि मानव प्रारम्भ से ही अपने परिवेश से प्रभावित होता रहा है और बिना वैज्ञानिक तथ्यों के विश्लेषण, सत्य और असत्य का ख्याल न रखकर कई बार मूक बन समाज के सामने समर्पण कर देता है! मानव की प्रवृत्ति है कि वह जो सुनता है उसे ही परम्परा में चले आ रहे रिवाज के अनुसार सत्य मान लेता है। पूर्वजों से अपनी जातिगति रूढ़ियांे को उत्तराधिकार के रूप में मनुष्य ने जो प्राप्त किया उन्हें ही पक्का करके चलता रहता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जाति के विघटनकारी और घातक रोगाणुओं को अनावश्यक रूप से प्रवेश कराने का परिणाम हमारे समक्ष विद्यमान है कि हम अपने ही समाज में रहने वाले व्यक्तियों , एक दूसरे को कोसते रहते हैं और अपने से भिन्न जाति के व्यक्ति को शत्रु समझने लगते हैं।
विल्सन ने बड़े विस्तार से एक स्थान पर लिखा है कि किस हद तक जातियों के नियम उसके हर व्यक्ति पर लागू होते हैं। आपने स्पष्ट किया है कि ‘‘जाति किसी मनुष्य के पैदा होने पर उसकी मान्यता, स्वीकृति, उत्सव और धार्मिक संस्कारा की दिशा का निर्देश कर देती है। वह उसकी शैशवावस्था, विद्यार्थी और ग्रहस्थ जीपन में उसके दुग्धपान, आचमन, जल-ग्रहण, भोजन और मलमूत्र त्याग, धोना, सफाई, प्रक्षालन, स्नान, आलेपन और वस्त्राभूषण ग्रहण, उठने-बैठने, झुकने, चलने, मिलने-जुलने, यात्रा करने, बोलने, पठन-पाठन, श्रवण और ध्यान, गायन, कार्य सम्पादन, खेल-कूद और लड़ने के तरीके निश्चित करती हैं! उसके धार्मिक और सामाजिक अधिकारों, विशेषाधिकारों, व्यवसायों अध्ययन, अध्यापन, कर्तव्यों और आचार-विचार, दैवी मान्यता, संस्कारों, ऋषियों, पापों और अतिक्रमणों, परस्पर व्यवहार, निषेद्यों और बहिष्कार, अशौच, शुद्धि, जुर्माने, कैद, अंग-भंग, देश-निकाला और मृत्युदण्ड के अपने विधि विधान है। यह हमें बतलाती है कि क्या करने से उसकी दृष्टि में पाप लगता है, पाप बढ़ता है, पाप दूर होता है और क्या करने से पुण्य घटता और बढ़ता है! जति उत्तराधिकार, सम्पत्ति के हस्तांतरण, कब्जा और सौदे, लाभ-हानि आदि सबके बारे में बतलाती है। यह मृत्यु दफन, शवदाह, स्मारक-निर्माण, सहायता, मृत्यु के बाद अनिष्ट आदि के बारें में भी बतलाती हैं। संक्षेप में यह मनुष्य के सभी सम्बन्धों और जीवन की सभी घटनाओं और जीपन से पूर्व और उसके बाद के सभी मामलों में हस्तक्षेप करती है।’’1 (भारतीय लाकोक्तियों में जातीय द्वेष-सं0 एस0 एस0 गौतम, गौतम बुक सेंटर-सी0-263 ए0 चन्दन सदन गली न0 1, हरदेवपुरी-शाहदरा, दिल्ली-110093, संस्करण 2007)।
जब बात साहित्य की होती है तब ऐसे समय में यह कहा जाता है कि साहित्य वह होता है जो सबका हित करे अर्थात् सबका हित हो वही साहित्य है। लेकिन हमारे यहाँ के साहित्यिक लोगों ने भारतीय समाज को वर्णो में बंटें होने की दूरी को कम नहीं किया अपितु समाज में फैले लोक साहित्य में प्रचलित कहावतों/लोकोक्तियों को संग्रह कर जाति-भेद को और भी बढावा दिया जो एक हथियार के रूप में लोग प्रयोग कर रहे हैं जिसके कारण समाज में घृणा, वैमनस्य और ईष्र्या ही नहीं बढ़ रहा है बल्कि भाई-चारा एवं सौहार्दं का सपना एक यूटोपियो साबित हो रहा है।
किसी राष्ट्र के इतिहास, रीति-रिवाज, धारणा, विश्वास और जीवन पद्धति का ज्ञान निश्चित तौर पर वहाँ की कहावतों से होता है इसी परिप्रेक्ष्य में लार्ड बेकन की टिप्पणी अपना विशेष महत्व रखती है कि ‘‘किसी भी राष्ट्र की प्रतिभा और स्वभाव आदि का दर्शन उसकी कहावतों से होता है परन्तु हमारे इन सभी आचारों, विचारों और व्यवहारों पर जाति ही हावी है अन्य बातों को तवज्जो ही नहीं मिली! जबकि एक बात सभी भली प्रकार जानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव व प्रकृति अलग-अलग है फिर एक अवगुण को पूरी जाति पर कैसे लागू किया जा सकता है। वास्तव में देखा जाये तो ये कहावतें एक के लिए व्यंग्य हैं तो दूसरे को घायल करने का कार्य करती हैं चूंकि ये आलोचनात्मक पृष्ठभूमि में तैयार की गयी होती हैं। इसलिए इन कहावतों का क्षेत्र सीमित होता है, इनका आधार लोकानुभव नहीं बल्कि किसी जाति विशेष को श्रेष्ठ या निकृष्ठ घोषित करना होता है। जिन जातियों से अधिक घृणा होती है उनके विरूद्ध उतनी ही घटिया से घटिया कहावतों का उपयोग किया गया है।’’2 (वही.......पृष्ठ 10-11)। भारतीय लोकोक्तियों में विशेष रूप से निम्न जातियों, महिलाओं व कमजोर तबकों पर फिकरे अधिक कसे गये हैं; इन कहावतो में इन वर्गों के प्रति सार्थक पक्ष बहुत कम पाये गये हैं। इनके प्रति भौड़ें, हँसी मजाक से लेकर चरित्र हनन तक किया गया और उनको नीचा ही दिखाया गया। दूसरी विशेषता इन कहावतों में यह पायी गई कि कोई भी जाति दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं मानती शायद यही कारण है कि घटिया से घटिया कहावतों का सृजन एवं विकास हुआ।
अभी भारत का अधिकांश भाग गाँवों में निवास(2/3) करता है इसमें सभी जातियों, ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, अहीर, तेली, धोबी, बढ़ई, सुनार, कुम्हार, चमार, दुसाध आदि रहते हैं। गांव के लोग परम्परावादी होते है, परम्परावादी जीवन में परिवर्तन करना बहुत ही कठिन कार्य होता है हांलाकि धनी एवं निम्न वर्ग के खान-पान और रहन-सहन में ज्यादा अन्तर नहीं होता है परन्तु कहावतें ऐसी आसढ़ हो चुकी हैं कि एक दूसरे के दोष ढंढ़ने की प्रवृत्ति के कारण, दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कहावतें बना दी गईं हैं। जो एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रहों से परिपूर्ण होती हैं। भाषिक शिष्टता एवं संकीर्ण सोच के कुछ निम्न उदाहरण कहावतों में देखे जा सकते हैं।
भारत में यादव पर्याप्त संख्या में हैं। ये लोग ग्वाल, राय, जाधव और यादव के नाम से विभिन्न प्रांतों एवं आंचलों में जाने लाते हैं। अधिकतर लोगों का पेशा कृषि एवं पशुपालन होने के कारण ग्रामीण है जिसके कारण ये छल-कपट एवं सच्चाई के कारण सीधे-साधे होते हैं। यही सीधा एवं भोलापन आम समाज के लिए इनकी मूर्खता का कारण बन जाता है। इसलिए यह कहा जाता है कि अहीर सदा नावालिग होता है- मगही में कहावत है कि-‘गोआर साठबरिस में बालिक होवे हैं।’ लोरिक अहीरों की जातीय लोकगाथा है। और लोरिक के स्मरण से अहीर लोग ओज और उत्साह का अनुभव करते हैं। इसलिए यह कहावत प्रचलित है कि अहीर कितनी भी पुराण पढ़ लें परन्तु वह लोरिक गाना नहीं छोड़ता - केतनो अहीर पढ़े पुरान, लोरिक छोड़ न गावे गान। अक्सर यह कहा जाता है कि अहीर(यादव) बुद्धू कम अक्ल होते हैं अतः इनसे संवाद करना निरर्थक होता है। जब कोई और व्यक्ति बातचीत के लिए न मिले और बात करनी ही पड़े तो अहीर से बातें करें। भोजन में सेतुआ और खिचड़ी का वही स्थान है जो अहीर का मनुष्य में है अर्थात् जब कुछ भी खाने को न मिलें तो सतुआ या खिचड़ी ही खाई जाए - कोअ न मिलै तो अहिर ते बतलाय, कुछो न मिलै तो सेतुआ(खिचड़ी) खाय।
उसी तरह से जुलाहा जाति पर अनेक कहावते प्रचलित है। जुलाहे बड़े सरल स्वभाव के कम पढ़े लिखे होते हैं। इनके सरल व्यवहार के कारण ही इन्हें लोकोक्तिया और लोक-कथाओं में मूर्खता के रूप में प्रदर्शित किया गया है। आठ जुलाहों के मध्य हुक्कों की सख्या नौ है, फिर भी वे हुक्के के लिए थुक्कम-थुक्का करते रहते हैं यह उनमें आपस में मेल न होना ही दर्शाता है - आठ जोलाहा नौ हुक्का, तवनों पर थुक्कम-थुक्का। कभी-कभी जुलाहा को गधे से भी मूर्ख समझा जाता है अर्थात् गधे से भी ज्यादा मूर्ख या सीधा साधा जुलाहा होता है? नही तो गधे के खेत खाने पर वह क्यों मार खाये? - खेतु खाय गदहा, मारू खाय जुलहवा। इसी तरह बेवकूफ के अन्न और जुलाहे के धन का कोई मूल्य नहीं होता। कारण वे उसका उचित उपयोग नहीं जानते - बागर अन्ने ,जोलहा धन्ने।
इसी तरह से भंगी बाल्मीकि अर्थात् चुहड़े जाति पर लोकोक्तियां प्रसिद्ध है-
भंगी की जात क्या, झूठे के बात क्या!
काम करो चुहड़े की तरह, आराम करो राजा की तरह।
चुहड़े से अगर कोई चीज लेनी है तो कुत्ते के गले पड़ गया समझो अर्थात् चुहड़े से लेना, कुत्ते के गले पड़ना।
गड़रिया(पाल) एक पशुपालक जाति होती है ये लोग भेड़ बकरी पालकर अपना जीवन यापन करते हैं। इनके बारे में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यह जाति विश्वास योग्य नहीं होती है - गड़रिया भालू का विश्वास न करें! एक तो गड़ेरन, दूसरे लहसुन खाये। अर्थात् भेड़ों के साथ अधिकांश रहने के कारण गड़ेरिया गन्दा रहता है ऊपर से लहसुन खाने पर उसकी दुर्गन्ध और बढ़ जाती है।
चमार अछूत जाति में सबसे अधिक सख्या में होते हैं। इस जाति में कबीर, रैदास एवं अनेक महापुरूष हुए हैं जो अपने तर्क एवं बुद्धि के द्वारा इतिहास में आज भी अमर बने हुए हैं। हिन्दी क्षेत्र में चमार के सम्बन्ध में उसकी बदनसीबी को कोसते हुए कहा गया है कि चमार के सिर अपना ही जूता पड़ता है - चमार के सिर चमार का जूता। कहावतों के अनुसार चमार अपनी बेटी का नाम अच्छा भी नहीं रख सकते हैं - चमार के बेटी नाम रज रनिया अर्थात् चमार के छोरी नाम चांदनी। परम्परावादी समाज में एक कहावत बहुत ही चर्चित है कि घर में बैठकर चने चबाएगें, भूखे रहेगे परन्तु चमार के यहाँ नौकरी नहीं करेगें - बैठेंगे चैखट पर चबाएंगें चने, चाकरी न करेंगे न चमार की।
इसी तरह से कुछ सामूहिक जातियों पर कहावतें प्रसिद्ध है कि अहीर, गड़ेरिया और पासी ये तीनों जातियां सत्यानाशी होती है - ‘अहीर, गड़ेरिया और पासी ,ये तीनों जातियाँ सत्यानाशी।’ यह भी प्रचलित है कि छोटी जात माण दी लातुन, बड़ी जात माण दी बातुन। अर्थात् छोटी जाति लातों(पीटने या दलन) से मानती हैं और बड़ी जाति बातों से मान जाती हैं! सभी जातियों के बारे में कहा गया है कि - जात सुभाव न छोड़ियों अन्त करहली तींत, जिस जाति का जो स्वभाव होता है, वह नहीं छूटता। करेले की तरकारी कड़वी ही होगी! चाहे जैसे भी बनाई जाए।
इक्कींसवी सदी के इस बुद्धि और तर्कवादी दौर में जब हम अन्तरिक्ष में बैठकर सैरगाह कर रहे हैं ऐसे में रूढ़िगत, जातिगत और अन्धविश्वास फैलाने वाली कहावतों को हमें भूलना होगा क्योंकि यह कहावतें मानव विकास की गतिशीलता को अवरूद्ध करने के साथ-साथ आपसी भाई-चारा एवं सौहार्द की भावना में विषमता पैदा करती है! हालांकि तथ्य यह है कि कहावत एक धारणा हो सकती है, चिर सत्य नहीं क्याकि इनके सत्य होने की कोर्ठ युक्तिसंगतता या वैज्ञानिकता नहीं होती। वैश्वीकरण के युग में आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्त लोक साहित्य को यथावत एकत्र किया जाए और वैज्ञानिक और तर्कवादी दृष्टि से इसकी व्याख्या की जाए जिससे किसी की भावना को ठेस न पहॅचे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-(1), (2). हिन्दूस्तानी कहावत कोश: सं0 एस0 डब्ल्यू0 फालन,
ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ नार्थ एण्ड अवध-विलियम क्रूक।
भारत में जातियां-जे0एच0हट्टन,
कास्ट एण्ड रेस इन इंडियाः जी0 एस0 धुर्ये,
ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ इण्डिया: एम0 ए0 शैरिंग।
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन संथान, राष्ट्रपति निवास, शिमला (हिमाचल प्रदेश)

स्मृति गीत: सृजन विरासत/तुमसे पाई... --संजीव 'सलिल'

स्मृति गीत:

संजीव 'सलिल'

सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*

रोशनी की तलाश में

कविता ---

रोशनी की तलाश में

रोशनी की तलाश में
नई सदी
है शुष्क सी बहती नदी
हँसता पिशाच दे रहा घाव
नसों में फैल रहा जहरबाद ।

इसके आचमन को
रोक सकेगी ,
कोई मीरा ?
कंठ से उतार सकेगा
कोई शिव ?
गले लगा सकेगा
कोई गांधी ? इनके प्रतिमानों का
क्या हो सकेगा
प्रादुर्भाव ।

अनगिनत प्रश्न
जड़ कर रह गये हैं दिलों में ,
तोड़ रहे हैं उन्हें -हमें ,
और यह है सूर्योदय की
अनचाही एक शाम ।


सुधा भार्गव




* * * *

रिश्तों की खूशबू













कविता
- सुधा भार्गव

रिश्तों की खुशबू



रिश्तों की खुशबू
जब दीवारों से टकराए
कदमों की आहट
धूल के आगोश में
सो जाए
तब लोरी गाकर
उनको जगा देना
जो
जाते -जाते
रुक -रुक कर
बढ़ते बढ़ते
देख रहे हैं हमको
मुड़ -मुड़ कर ।


नील गगन में
मेघा छंटते ही
किरणों की आँख -मिचौनी में
याद उन्हीं को कर लेना
जो अपनी खुशियाँ
विराट आकाश को सौंप गए ।


नजरों के अंदाज निराले
कौन- किसे- कब- कैसे लेता है
तीरों का विष बुझ -बुझ जाए
तो आवाज उन्हीं को दे देना
जो बिजली की कड़क बनकर
हर- जीत में जीते रहे
जाते -जाते
गलबहियां डाल
हार गले का बनते गये।

* * *

01 नवंबर 2009

नवगीत: भुज भर भेंटो... संजीव 'सलिल'

आज की रचना:

नवगीत

संजीव 'सलिल'

फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.

घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.

निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.

फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो. .
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com