31 जुलाई 2010

गीत: प्रतिभा खुद में वन्दनीय है... संजीव 'सलिल' *

गीत:

प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
संजीव 'सलिल'
*
   




 




   *
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.

शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.

शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.

हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है
 
भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*

    कौन पुरातन और नया क्या?
    क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
    राग-विराग सभी के अन्दर-
    क्या बेशर्मी और हया क्या?

    अतिभोगी ना अतिवैरागी.
    सदा जले अंतर में आगी.
    नाश और निर्माण संग हो-
    बने विरागी ही अनुरागी.

    प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
    'सलिल'-साधना साधनीय है.
    प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
    *

30 जुलाई 2010

तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही है .....???




तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही  है .....??

                          विकिलिक्स द्वारा अमेरिकी कारर्वाईयों के भंडाफ़ोड किये जाने और अमेरिकी सरकार द्वारा इसे संघीय व्यवस्था का उल्लंघन बताये जाने पर एक प्रश्न अपने-आप ही उठ खडा होता है कि क्या सिर्फ़ सरकारें ही व्यवस्था को बनाये रखती हैं,बाकि सब तंत्र उसका उल्लघंन ही करते हैं??
                             जबसे हमने लिखित इतिहास को पढा और उसके माध्यम से सब कालों में "सरकारों"का जो आचरण जाना और समझा है उससे तो ठीक उल्टा ही प्रमाणित होता है,अब तक के लिखित इतिहास के अनुसार हमने यही देखा है कि तरह-तरह की सरकारों ने किस-किस प्रकार के "सुनियोजित-कुकर्म" किये हैं और जब विभिन्न व्यक्तियों या किन्ही सामाजिक संगठनों ने उनके विरुद्द किसी भी प्रकार की आवाज़ उठायी या आंदोलन भी किया तो किस प्रकार से इस "सो-कोल्ड" सरकारों ने उनका गला घोंटा है या कि अपनी सेना और अपने अधीन तंत्र के द्वारा किस प्रकार की हिंसा के द्वारा कुचला है और मज़ा तो यह भी है कि यह सब आज इस "सो-कोल्ड’' या कहूं कि इस तथाकथित लोकतांत्रिक कहे जाने वाले "सभ्य" युग में भी हो रहा है,अंतर सिर्फ़ इतना है कि ऐसा आचरण करने वाली लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों का ढंग और कम्युनिस्ट सरकारों का ढंग एक-दूसरे थोडा अलग है.
             इससे कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक देशों में लोक-तंत्र का अर्थ महज इतना ही होता है कि नागरिक अपनी मनमानी करें और अगर सरकार को यह नागवार गुजरे तो वह अपनी मनमानी करे...फर्क सिर्फ़ इतना है कि सरकार की मनमानियां एक भयानक अत्याचार से भी भीषण हो सकती हैं,बाद में भले वह हटा दी जाये और बाद वाली सरकार उससे भी कमीनी साबित हो.....
             अब तक यही समझा जाता रहा है कि लोगों द्वारा चुनी गयी सरकारों में लोगों के हित ज्यादा सुरक्षित होते हैं,हालांकि ज्यादातर इतिहास इस बात की न सिर्फ़ तस्दीक नहीं करता बल्कि इसे नकारता भी है.सरकार के लोग,उपर से नीचे तक चाहे वो कोई भी हों,खुद के कर्म को उचित और आम नागरिक के कर्मों को ज्यादातर गलत बताते हैं....यह गलत होना गैर-कानूनी होने से लेकर देशद्रोह होना तक भी हो सकता है,यहां तक कि इसी तर्ज़ पर आज तक तमाम लोकतांत्रिक देशों के कानून उनके खुद के ही संविधान की धज्जियां उडाते दिखायी देते हैं.....और मज़ा यह है कि जिन कानूनों के बिना पर आम लोगों को कडी-से-कडी सज़ा तक दे दी जाती है....उन्हीं कानूनों की चिथडे उनके रखवाले हर वक्त करते हुए दिखायी देते हैं, मगर चुंकि हर आदमी अपनी ही समस्याओं से भरा उन्हें निपटाने में पगलाया रहता है.....उसे गरज़ ही नहीं होती इस सबको देखने की [जब तक कि वो खुद नहीं इस सब झमेले में फ़ंस जाये ]....और सिर्फ़ और सिर्फ़ इसीलिए यह सब चलता रहता है.....लोग आंख मूंद कर अपना-अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं....और सरकारी दुनिया में बिल्ली के भाग से छींका टूटता रहता है.....उस टूटे हुए छींके से ये सरकारी लोग [बिल्लियां]मलायी मार-मार कर खाते रहते हैं....यहां तक कि कोई आम नागरिक भी अगर इस मलायी को चाटना चाहे तो उसे निस्संदेह किसी ना किसी सरकारी हाथ की मदद का ही सहारा लेना होता है....मज़ा यह कि कल को अगर यह सब उजागर भी होता है तो इसका ठीकरा हर हालत में उस गैर-सरकारी व्यक्ति या समूह के माथे पर ही फ़ूटना होता है....अगर सरकारी हाथ कुछ ज्यादा ही काला हो गया हो तो तो सरकार खुद आगे बढ्कर उसे बचाया करती है...क्युंकि सरकार में भी तो ना जाने कितने ही पक्ष होते हैं,जिन्होने इस मलायी को चाटने में अपना भी मूंह मारा होता है......
           इसका सीधा मतलब आप यह भी लगा सकते हो कि सरकार का दामन हमेशा साफ़ ही होता है...हम जैसे हरामी-कमीने-बेईमान और भ्रष्ट लोग ही सरकार का मूंह काला किये जाते हैं[सरकार के साथ मूंह काला नहीं करते....!!!]और इसीलिये सरकार का विरोध करने वाले.....सरकार अलग सोचने वाले...सरकार से बिल्कुल ही भिन्न नीति रखने वाले....और सरकार के गलत कार्यों का विरोध करने वाले ना सिर्फ़ उसकी [गोपनीय]संघीय व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले समझे जाते हैं,अपितु देशद्रोही तक भी साबित किये जा सकते हैं......प्रत्येक सरकारी व्यक्ति,चाहे वह कितना ही अदना-सा....किसी भी सामान्य समझदारी का गैर-जानकार...या कि बिल्कुल ही टुच्ची सी समझ रखने वाला भी क्यों ना हो.....उसके अधिकार.. उसकी ताकत....उसका अहंकार....उसका रुतबा...उसकी कडकता....उसका रूआब....और सबसे बढ्कर ना जाने किन अनजान जगहों से आने वाला अथाह धन उसे हमसे इतर साबित करते हैं....मगर वह देश-द्रोही कभी नहीं कहला सकता....अगर कभी कहला भी गया तो यह माना जाता है कि जरूर ही उसके खिलाफ़ कोई गहरी राजनीतिक साजिश रची गयी है...और इसके पीछे अवश्य ही विपक्षी राजनीतिक दल है....और इस प्रकार उस गद्दार व्यक्ति या समूह इस तरह के तमाम देश-द्रोही कार्यों के प्रति आंख मूंद ली जाती है....और ऐसा क्यों ना हो.....आखिर उस हमाम में सभी शरीक जो हैं.....
           सरकार के अनुदान से चलने वाला बहुतेरा मीडिया भी इस हमाम का ही वासी ही होता है....इस मलायी का चटोरा.....सो एक तरफ़ मीडिया का एक हिस्सा उस गलत व्यक्ति/समूह या सरकार के इन कारनामों को उजागर कर रहा होता है....वहीं....यह मीडिया-विशेष अपनी पूरी ताकत और जद्दोजहद के संग उन गलत कार्यों में बराबर का भागीदार बन कर सरकार का वकील बनकर उन तमाम गलत पक्षों के पक्ष में तमाम निराधार और घटिया दलीलें पेश करता है....जिन्हें हम बराबर हरामीपने के कुतर्क साबित कर सकते हैं....और समय-समय पर ऐसा करते भी हैं......मगर ऐसा कब तक चले.....और क्योंकर चले.....??सरकारों का कार्य क्या सिर्फ़ हरामीपना करना है....??सरकारें क्या किसी और लोक से उतरी हैं और किसी के भी प्रति उत्तर्दायी नहीं हैं.....??और आम आदमी का कोई और काम नहीं है क्या,जो वह सरकारों और उससे जुडे तमाम लोगों पर नज़र रखे....और अपना महत्वपूर्ण काम-धाम छोड देने की कीमत चुका कर "ऐसे लोगों” की पोल खोजता चले.....??सरकारें एयरकंडीशंड रूमों में बैठ कर तमाम उल्टे-सीधे निर्णय ले ले....फिर आम आदमी या संगठन  सडक पर आंदोलन करता चले.....??जब सब राय आम आदमी को देनी है....और सरकार को उसके हर किये हुए कर्म का अच्छा-बूरा बतलाना है.....तो फिर ऐसे निकम्मे लोगों को सरकार बनाने का न्योता ही क्यों देना है...??
                  क्या सरकार होने का मतलब यही होता है.....कि आप मनमानी करते रहो.....मनमाने निर्णय लेकर अपने ही नागरिकों की जान सांसत में डालते रहो....उनका जीवन जीना हराम करते रहो.....??अपनी ऊंची अट्टालिकायें खडी करते रहो.....सब तरह का नाजायज काम उन्हीं नियमों के छेदों की आड में करते रहो...जिसकी बिना पर तुम किसी दूसरे को जेल में झोंक देते हो....???और मीडिया-कोर्ट और सभी तरह के संगठन सरकार के पीछे भोंपू और लाठी लेकर दौडते फ़िरें....???समझ नहीं आता कि आखिर सरकार है तो आखिर है क्या....??सरकारें हम बनाते हैं हममे से कुछ लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर हमारे बीच सब किस्म की व्यवस्था कायम करने के लिये....वो भी अपने खर्च से हुए चुनाव से और अपने ही खर्च पर दिये जाने वाले उन हज़ारों नेताओं और तमाम सरकारी लोगों को वेतन देकर.....और सब सरकार बनाते ही सिर्फ़ "अपनी व्यवस्था " कायम करने लग जायें....तो उन्हें वापस कैसे बुलाया जाये.....और उनके लिये किस तरह की सज़ा तय हो...अब सिर्फ़ इसी एक बात पर विचार करना है हमारे समाज रूपी तंत्र को....अगर सरकारें अप्रासंगिक हो गयीं हैं...या हरामी हो गयी हैं....तो उसी की वजह से न सिर्फ़ यह कु-व्यवस्था फ़ैलती है....बल्कि नस्लवाद-आतंकवाद नाम नासूर भी यहीं से पनपता है....पल्लवित होता है....और सरकार के हरामीपने की तरह सब जगह फ़ैल जाय करता है.....जिस तरह अपराधियों का इलाज लाठी-डंडे-कोडे तथा अन्य तरह की सज़ायें तय हैं.....उसी तरह यही सजायें क्या इन लोगों के लिये नहीं तय की जा सकती....अगर माननीय न्यायालय कानूनों में छेद की वजह से उचित फ़ैसला कर पाने में अक्षम है....तो फिर जनता को ही क्यों नहीं इसका ईलाज करना चाहिये....!! मुझे उम्मीद है कि यह अनपढ-गरीब और सतायी हुई जनता एकदम ठीक फैसला लेगी.....हो सकता है कि सभ्य लोगों को उसका फैसला "जंगल का कानून सरीखा लगे..."मगर अगर सब तरफ़ जंगली लोग ही हों...और आम जनता के अधिकारों का बर्बरतापूर्वक हनन कर रहे हों तो आप किस तरह उनका इलाज सो कोल्ड सभ्य कानूनों द्वारा कर सकते हैं....!!
                      पानी सर से अत्यधिक उपर जा चुका है....जनता को अब फैसला लेना ही होगा....कि उसे क्या चाहिये.....एक अमानवीय और किसी भी प्रकार की उचित सोच से रहित सरकार......और उसकी नाक तले ऊंघ रहा हरामजादा प्रशासन......कि इन सबसे मुक्ति.....अगर दूसरे रास्ते की मन में है....तब तो आगे बिल्कुल रद्दोबदल कर डालिये......अपने बीच से एकदम नये लोग निकालिये....और उन्हें चेतावनी देकर ही संसद और विधान सभाओं में भेजिये.....और अभी......अभी के लिये यही कहुंगा कि इस वर्तमान को अभी-की-अभी उखाड फेंकिये.....और यह आप सब....हम सब....यानि कि आम जनता ही कर सकती है.....क्योंकि हरामियों को सज़ा देने में हमारा कानून.....और हमारा संविधान भी पस्त हो चुका है.....!!!

28 जुलाई 2010

क्या तेरा जिस्म ख़त्म हो गया है ??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!


उफ़ ये मेरा दिल क्यूँ रो रहा है
क्या कहीं कोई गुम हो गया है ??
ये क्या कह डाला है हाय तुमने 
हर लम्हा ही तंग हो गया है !!
खुद का दर्द भी नहीं समझता 
दिल कितना सुन्न हो गया है !! 
अब इस राख को मत संभालो 
अब सब कुछ ख़त्म हो गया है !!
ये सच्चाई की बू कैसी है यहाँ 
क्या कोई फिर बहक गया है ??
कब्र में रू से पूछता है "गाफिल
क्या तेरा जिस्म ख़त्म हो गया है ?

27 जुलाई 2010

मुक्तिका: जब दिल में अँधेरा हो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

जब दिल में अँधेरा हो...

संजीव  'सलिल'
*













*


जब दिल में अँधेरा हो, क्या होगा मशालों से
मिलते हों गले काँटे, जब पाँव के छालों से?

चाबी की करे चिंता, कोई क्यों बताओ तो?
हों हाथ मिलाये जब, चोरों ने ही तालों से..

कुर्सी पे मैं बैठूँगा, बीबी को बिठाऊँगा.
फिर राज चलाऊँगा, साली से औ' सालों से..
 
इतिहास भी लिक्खेगा, 'मुझसा नहीं दूजा है,
है काबलियत मेरी, घपलों में-घुटालों में..

सडकों पे तुम्हें गड्ढे, दिखते तो दोष किसका?
चिकनी मुझे लगती हैं, हेमा जी के गालों से..

नंगों की तुम्हें चिंता, मुझको है फ़िक्र खुद की.
लज्जा को ढाँक दूँगा, बातों के दुशालों से..

क्यों तुमको खलिश होती, है कल की कहो चिंता.
सौदा है 'सलिल' का जब सूरज से उजालों से..

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25 जुलाई 2010

गुरु पूर्णिमा पर : दोहे गुरु वंदना के... संजीव 'सलिल'

गुरु पूर्णिमा पर :

दोहे गुरु वंदना के...

संजीव 'सलिल'
*
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गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, कोई नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भाव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम्, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
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गुरुता जिसमें वह गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
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गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटा कर बना दे, आदम से इंसान..
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गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
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माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
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शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
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गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
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ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम् का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
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गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
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विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
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गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
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गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
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मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
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शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा,रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
*
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
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गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
********
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

नवगीत / दोहा गीत : हिन्दी का दुर्भाग्य है... संजीव 'सलिल'

नवगीत / दोहा गीत :
हिन्दी का दुर्भाग्य है...
संजीव 'सलिल'
*
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*
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कान्हा मैया खोजता,
मम्मी लगती दूर.
हनुमत कह हम पूजते-
वे मानें लंगूर.

सही-गलत का फर्क जो
झुठलाये है सूर.
सुविधा हित तोड़ें नियम-
खुद को समझ हुज़ूर.

चाह रहे जो शुद्धता,
आज मनाते सोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कोई हिंगलिश बोलता,
अपना सीना तान.
अरबी के कुछ शब्द कह-
कोई दिखाता ज्ञान.

ठूँस फारसी लफ्ज़ कुछ
बना कोई विद्वान.
अवधी बृज या मैथिली-
भूल रहे नादान.

माँ को ठुकरा, सास को
हुआ पूजना रोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
गलत सही को कह रहे,
सही गलत को मान.
निज सुविधा ही साध्य है-
भाषा-खेल समान.

करते हैं खिलवाड़ जो,
भाषा का अपमान.
आत्मा पर आघात कर-
कहते बुरा न मान.

केर-बेर के सँग सा
घातक है दुर्योग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....

*******************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

24 जुलाई 2010

नव गीत: हम खुद को.... संजीव 'सलिल'

नव गीत:
हम खुद को....
संजीव 'सलिल'
*
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*
हम खुद को खुद ही डंसते हैं...
*
जब औरों के दोष गिनाये.
हमने अपने ऐब छिपाए.
विहँस दिया औरों को धोखा-
ठगे गए तो अश्रु बहाये.

चलते चाल चतुर कह खुद को-
बनते मूर्ख स्वयं फंसते हैं...
*
लिये सुमिरनी माला फेरें.
मन से प्रभु को कभी न टेरें.
जब-जब आपद-विपदा घेरें-
होकर विकल ईश-पथ हेरें.

मोह-वासना के दलदल में
संयम रथ पहिये फंसते हैं....
*
लगा अल्पना चौक रंगोली,
फैलाई आशा की झोली.
त्योहारों पर हँसी-ठिठोली-
करे मनौती निष्ठां भोली.

पाखंडों के शूल फूल की
क्यारी में पाये ठंसते हैं.....
*
पुरवैया को पछुआ घेरे.
दीप सूर्य पर आँख तरेरे.
तड़ित करे जब-तब चकफेरे
नभ पर छाये मेघ घनेरे.

आशा-निष्ठां का सम्बल ले
हम निर्भय पग रख हँसते हैं.....
****************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

22 जुलाई 2010

हिंदी के प्रति आप क्या बनेंगे,नमक-हलाल,या हरामखोर.....???



मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
 हिंदी के प्रति आप क्या बनेंगे,नमक-हलाल,या हरामखोर.....?

   दोस्तों , बहुत ही गुस्से के साथ इस विषय पर मैं अपनी भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त- रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....???एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम ,अपितु आप उससे अभिक  " " परेशान "हो जायेंगे.....!!
                 थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही " रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वास्तु को एकदम से बिलकुल ही नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!...तो थोडा-बहुत तो क्या बल्कि उससे बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे अधिकाधिक प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा ही लिया गया है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को बड़े बेशर्म ढंग से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा है बल्कि रोमन लिपि में लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
             ....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि युवा तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी प्रसार-संख्या बढाने के " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....??तो फिर दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो जाएगा....तो फिर उसमें आपके बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या आप उन्हें भी...."वो सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब कौवे काले हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस तरह का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर क्यूँ डाल देते हो....??
              मैं बहुत गुस्से में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह कहना चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना चाह रहे हों....या कि आप मुझे   नफरत की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें से जो भी बात आप पर लागू हो,उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको नागवार  लगेगा बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार गुजर रहा है....तो फिर आप ही बताईये  ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा को तिलांजलि देने में लगे हुए हैं ??
               आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण आप इसकी हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे  हुए रहते है...???....हिंदी ने आपका कौन-सा काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं बनाया है कि आपको उसे बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस होती है....क्या आपको अपनी बूढी माँ को देखकर शर्म आती है...??यदि हाँ ,तो बेशक छोड़ दीजिये माँ को भी और हिंदी को अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी की हिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य नहीं आपके जीवन में...??
                 क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...??क्या हिंदी में आगे बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं होते....??मेरी समझ से तो हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व का सिरमौर का रह चुका है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में भी...क्या उस समय इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका भट्टा बिठाया है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे संस्कार का...भी...!!
              आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका कारण  यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह देश अपना स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक करोड़ लोगों की सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का मुगालता पालना...यह गलतफहमी पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के साधनों पर न हुआ होता...और उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी होती तो....जैसे उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद ही कोई गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई होती...!!
               हिंदी के साथ वही हुआ , जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ हुआ....आज देश अपनी तरक्की पर चाहे जितना इतरा ले...मगर यहाँ के अमीर-से-अमीर व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान तो खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी पनपने भी देंगे.....!!ऐसे हालात में कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की भाषा बन सकती है....उसे हमने कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का घर....तो कहीं जानबूझकर नज़रंदाज़ किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे कहते हुए भी शर्म आती है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की खाता है....ओढ़ता है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर सार्वजनिक जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी "रंडी" को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!!ऐसे बेशर्म वर्ग को क्या कहें ,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता है.....जिसे जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
                क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग लगा देते हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर घर से बाहर कर देते हैं....तो हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला....हाकिम....हिंदी ने भी आपका क्या बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी मृत्यु तक आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी लतियायें,अपने माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही हिंदी का अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि उसके प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??
http://baatpuraanihai.blogspot.com/

20 जुलाई 2010

लघुकथा

समझदारी /सुधा भार्गव

चचा -भतीजे अकसर फ़ोन पर बातें किया करते | आज भी उनका वार्तालाप चल रहा था |
--किसनिया ,तुम्हारे बाप की तबियत ठीक नहीं है |मेरी बूढ़ी शिराओं में भी इतनी ताकत नहीं बची कि उनके चार काम कर सकूँ |कुछ दिन के लिए यहाँ आकर सेवा का पुण्य कमा लो |

--चचा दो माह बाद गर्मियों की छुट्टियों में तो आना ही है |अभी आऊँ फिर दुबारा आऊँ कुछ जँचता नहीं | समय की भी बर्बादी और पैसे की भी |

--तुम्हारी समझ को क्या कहूँ ! बचकाना या बेमुरब्बत |पैसे की तो कोई कमी नहीं फिर बाप की जायदाद
भी तुम्हारे हाथों लगेगी |

--तभी तो मुझे और भी ज्यादा देखभाल के कदम उठाना है वरना दुनिया कहेगी - बाप की कमाई बेटा उड़ा रहा है |


* * * * *
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लघुकथा

खुशी का अंकुर \सुधा भार्गव

बनवारी के रिटायर होते ही बेटे ने कार की बुकिंग करा दी |वह बड़ा खुश - - | कार में बैठकर घूमना उसका सपना ,सपना ही बन कर रह गया था लेकिन यह खुशी का अंकुर शीघ्र आश्चर्य के खोल में बंद हो गया |
कार जैसे हाथी को पालना सरल न था | बेटे की नौकरी नई -नई |तनख्वाह भी कम ,स्कूटर भत्ता भी नाम मात्र को |

दुविधा में फसे बनवारी ने पूछ ही लिया -
-बेटा कार के लिए पैसा कहाँ से लाओगे ?
-पापा कार के जिए मैंने बैंक से लोन ले लिया है |आपको जो प्रोविडेंट फंड मिलेगा उसके ब्याज से कर्जा चुका देंगे |
-प्रोविडेंट फंड वक्त -बेवक्त के लिए होता है |ब्याज से बुढ़ापा कटता है फिर कार की ऐसी जरूरत क्या आन पड़ी |
-आपके लिए खरीदी है - - खूब घूमो - फिरो |आराम से आओ -जाओ |

बेटे की भावना देख बनवारी निहाल हो गया | ओठों पर चुप्पी की मोहर लग गयी |
संयोग की बात ,अगले माह बनवारी की पत्नी को तेज बुखार ने आन दबोचा |इलाज पर इलाज बदले जाने लगे |पैसा पानी की तरह बह निकला पर बुखार ने उतरने का नाम नहीं लिया | बनवारी का माथा चिंता की रेखाओं से घनीभूत हो गया |
-पापा आप परेशान हैं !
-हाँ !इलाज के लिए पैसा कहाँ से आएगा |
-साधारण सी बात ! आपके प्रोविडेंट फंड के ब्याज से | वक्त -बेवक्त उसका बड़ा सहारा है |
उसकी ही बात को बेटा दोहरा रहा था |बनवारी चौंक गया |
-जरूरत के देखते हुए मैं कार की बुकिंग रद्द करने जा रहा हूं|

अपने ही कदमों पर बेटे को चलता देख बनवारी की दिमागी उलझन सुलझने लगी |उसकी खुशी का अंकुर धीरे - धीरे ऊपर उठने लगा और एक सुदर्शन वृक्ष में परिवर्तित हो गया |

* * * * *

19 जुलाई 2010

हाँ........स्थिति वाकई भयावह है....!!

हाँ........स्थिति वाकई भयावह है....!!!
                 आज ही रात को बंगाल के एक रेलवे प्लेटफोर्म पर एक भयावह हादसा घटित हुआ है...जिसने भी इस हादसे के बारे में सुना-पढ़ा या देखा है....वो मर्माहत है....सन्न है...किंकर्तव्यविमूढ़ है....समझ नहीं पा रहा कि इस हादसे से अकाल काल-कलवित हो गए लोगों के परिजनों के लिए आखिर क्या करे....उन्हें किस तरह ढाढस बंधाये....और घायल पड़े लोगों को किस तरह राहत दे....चारों ओर कोहराम-सा मचा हुआ है....लोग तड़प रहे हैं....चीख रहे हैं....चिल्ला रहे हैं....भयातुर हैं...किसी को एकबारगी समझ नहीं आ रहा कि इस स्थिति का सामना कैसे करें....चारों और आपाधापी मची हुई है....लोगों के बीच मौत के मातम तांडव कर रहा है...और प्रेस तथा तमाम चैनलों के प्रतिनिधि इस "प्रोग्राम"को कवर करने के लिए घायल लोगों से भी ज्यादा चीख-पुकार मचा रहे हैं...लोगों को राहत पहुंचाने से ज्यादा उनके "बाईट" लेने की होड़ मची हुई है सबके बीच....और इन तमाम "बायिटों" के साथ देश भर के चैनलों में एक-सा माजरा चल रहा है....सब-के-सब किसी नयी सी चीज़ को सबसे पहले अपने द्वारा "कवर" की गयी "स्टोरी" बता रहे हैं....और तरह-तरह की बातें करते हुए....उन्हीं-उन्हीं दृश्यों का वही-वही विश्लेषण करते हुए दर्शकों का समय व्यतीत करवा रहे हैं...!!
                     .इस अचानक घटी "स्टोरी" में भय-रोमांच-मौत-संवेदना और हृदय-विदारकता सभी कुछ है....जिससे खबर बनती है...जिससे चैनलों की डिमांड बढती है...जिससे चैनलों की कमाई.....मैं सोचता हूँ....कि स्थिति वाकई भयावह ही है....एक जिम्मेवार प्रेस का काम आखिर क्या है....??जल्दी-से-जल्दी अपने प्रिय दर्शकों तक "खबर" ओ सॉरी..."स्टोरी" पहुँचाना....और चूँकि कोई भी चीज़ "हराम" की तो होती नहीं.....सो खबर के साथ अथाह-अनगिनत विज्ञापन "पेल" देना....तो दर्शकों अभी-अभी (सिर्फ) हमने आपको यह बताया कि किस प्रकार यहाँ इस हादसे में पचास लोग मारे गए हैं....और सौ से ज्यादा लोग घायल हैं....जिनमें बीस की स्थिति बहुत-ही नाजुक है पता नहीं वे बच भी पायेंगे या नहीं...हम आपको उनके रिश्तेदारों के पास लिए चलते हैं..लेकिन तब तक एक छोटा-सा ब्रेक ( झेलिये आप सब !!) टी.वी.की स्क्रीन पर बांये साइड एक विज्ञापन की तस्वीर आ रही है....किसी शैक्षणिक-संस्थान की जिसमे यह बताया जा रहा है कि उनके संस्थान में फलां-फलां कोर्से की कीमत घटा दी गयी है....और दांयी तरफ एक अंडाकार विज्ञापन दर्शकों को पहले से काफी कम कीमत में फ़्लैट-जमीन-डुप्लेक्स उपलब्ध करा रहा है....और दर्शकों को जल्दी-से-जल्दी इस ऑफर को लूट लेने को कह रहा है.....और सबसे नीचे स्क्रीन पर एक पट्टी विज्ञापन की और चल रही है....जिसमें रेल-दुर्घटना के ब्योरों के बाद चैनल का विज्ञापन विज्ञापनदाताओं के लिए है....जिसमे चैनल यह बता रहा है कि इस चैनल में विज्ञापन देने के लिए हमारे इस-इस प्रतिनिधि से संपर्क करे....मैं रेल-दुर्घटना से विज्ञापन का कोई तारतम्य समझने की चेष्टा कर रहा हूँ....लेकिन मुझ मुरख के पल्ले कुछ पड़ ही  नहीं रहा.. .....बस इतना ही कह पा रहा हूँ कि स्थिति वाकई भयावह ही है
....मगर दुर्घटना के सन्दर्भ में.....या चैनलों द्वारा उसे "परोसे" जाने के तौर-तरीके के सन्दर्भ में......?????

14 जुलाई 2010

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
*
hindi-day.jpg



*
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह.
'सलिल' नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..

13 जुलाई 2010

क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

   क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??
..........जंगल.....!!यह शब्द जब हमारी जीभ से उच्चारित होता है....तब हमारे जेहन में एक अव्यवस्था...एक कुतंत्र...एक किस्म की अराजकता का भाव पैदा हो जाया करता है....इसीलिए मानव-समाज में जब भी कोई इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है तो हम अक्सर इसे तड से जंगल-तंत्र की उपमा दे डालते हैं.....मगर अगर एक बार भी हम जंगल की व्यवस्था को ठीक प्रकार से देख लें तो हम पायेंगे कि हमारी यह उपमा ना सिर्फ़ गलत है....अपितु जंगल-विरोधी भी है....!!
               क्या कभी किसी ने किसी भी जंगल में अव्यवस्था नाम की चीज़ देखी भी है...??अव्यवस्था दरअसल कहते किसे हैं?....जंगल में (प्रक्रिति) का सिस्टम क्या होता है...यही ना कि शेर हिरण को खा जाता है....??मगर कब...जब उसे भूख लगती है केवल-और-केवल तब..!!जब-तब तो नहीं ही ना...मगर यह सिस्टम तो उपरवाले द्वारा प्रदत्त सिस्टम है...जिससे जंगल ही नहीं बल्कि सारा जगत चला चला करता है...मानव-जगत के सिवा....जल-थल और नभ,सब जगह का प्राकृतिक नियम एक समान है कि एक मजबूत भूखा जानवर एक कमजोर जानवर को खा जाता है...मगर सब जगह एक बात सामान्य है...वो यह कि सब जानवरों को जब भूख लगती है....केवल और केवल तभी उसके द्वारा दूसरे को खाये जाने की ऐसी घटना घटती है....इसके अलावा बाकी सब कुछ,सब समय,सब जगह बिल्कुल सामान्य और सहज ढंग से घटता रहता है.....प्राय: सब जानवर एक-दूसरे के संग आपस में घुल-मिलकर ही रहा करते हैं...और ऐसा होना हमारी जानकारी के अनुसार जीव-जगत के प्रादुर्भाव के समय से ही सुचारू ढंग से चला आ रहा है....शायद चलता भी रहेगा.....गनीमत है कि कम-से कम जंगल या जीव-जगत में यह एक अनिवार्य किस्म की नियमबद्द्त्ता जारी ही है....वरना हम हम कभी के नियम नाम की किसी चीज़ को भूल गये होते....!!
                      आदमी के जगत में,भले ही आदमी खुद को क्या-न-क्या साबित करने में लगा रहे मगर,हर पल यह बात साबित होती है कि अनुशासन में बंधना आदमी की फ़ितरत कतई नहीं है....भले ही धरती के कुछ हिस्सों में आदमी नाम की यह जात अनुशासन नाम की चीज़ से बंधी हुई दीख पड्ती है...मगर यह अनुशासन अधिकांशत: भय-जनित प्रक्रिया है,जहां कि नियम का पालन न करने पर कठोर दंड का प्रावधान है....और मज़ा यह कि तमाम कठोर-से-कठोर दंडों के बावजूद भी आदमी नाम का यह उच्चश्रृंखल  जीव नीच-से-नीच कर्म करता पाया जाता है....बेशक फांसी भी चढ जाता है....मगर अपने कुकर्मों से तनिक भी बाज नहीं आता...और मज़ा यह कि यही आदमी हर वक्त खुद को जानवरों से बेहतर बताता है...!!
                                अगर सिर्फ़ सोच के बूते,जबकि उस सोच का अपने जीवन में किसी भी प्रकार की करनी पर कोई असर तक ना हो,एक जात विशेष को बिना किसी से पुछे अपने-आप ही बेहतर बताना एक किस्म की धृष्टता ही कही जायेगी...एक अहंकार-जनित अहमन्यता.....!!मगर आदमी को इससे क्या लेना-देना....वो श्रेष्ठ था,श्रेष्ठ  है और सदा श्रेष्ठ ही रहेगा.... किसी को कोई दिक्कत है तो हुआ करे उसकी बला से....!!मगर आदमी की तमाम करनी को जानवरों के कर्मों से तौलें तो हम यही पायेंगे कि जंगल, आदमी के समाज से सदा बेहतर था...बेहतर है....और शायद जन्म-जन्मान्तर तक बेहतर ही रहेगा क्योंकि जानवर की तलाश सिर्फ़-और-सिर्फ़ पेट की भूख है....मगर आदमी की तलाश पेट से ज्यादा अहंकार.... लालच....और उससे निर्मित स्वार्थ की है....और चुंकि आदमी सोचता भी है....सो भी वह अपने स्वार्थ से ज्यादा कभी कुछ नहीं सोचता...भले वह बातें तरह-तरह की जरूर कर ले....और अपनी लच्छेदार बोलियों से अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों को तरह-तरह के प्यारे-प्यारे नाम और काल्पनिक शक्ल क्युं ना दे दे....!!
                        आदमी इस जगत वह सबसे अलबेला जीव है....जो अपने समुचे जीवन में अपनी तमाम कथनी और करनी के अंतर के बावजूद खुद को खुद ही श्रेष्ठ साबित किये हुए रहता है....और मज़ा यह कि इसमें उसका खुद का ही,यानि अपनी खुद की जाति के लोगों का समर्थन भी रहता है....अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों के एवज में वो कत्ल करता है.....बम फ़ोडता है....हज़ारों लोगों का एक साथ कत्लेआम करता है....अपने जीवन में खुद को और खुद के संबंधियों को आगे बढाने के लिये ना जाने क्या-क्या करम करता है....खुद के रंग....धर्म....नस्ल....धन....वर्ग को ऊंचा साबित करने से ज्यादा सामने वाले को बौना साबित करने के लिये हर-प्रकार के शाम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेता है... चुगलखोट्टा तो यह जीव इतना है कि धरती का हर जीव इसके सम्मुख तुच्छ है....और अहंकारी इतना कि ऊपरवाला भी इसके सामने पानी भरे....लालची भी इतना कि दुनिया का सब कुछ उदरस्थ करके भी इसका जी भरने को ना आये....और मज़ा यह कि फ़िर भी आदमी सबसे श्रेष्ठ है...क्या आपको हंसी नहीं आती आदमी की यानि अपनी इस स्वनामधन्य अहंकार-जनित श्रेष्ठता पर....यदि नहीं....तो आप भी इसी प्रकार की आदमीयत का इक हिस्सा हैं.....
                                आदमी हमेशा समाज-समाज करता रहता है....मगर उसके समाज की अंतरंग सच्चाई क्या है....??
               क्या यह समाज,जो एक ही जाति के लोगों का तथाकथित पढा-लिखा,सभ्य-ससंस्कृत समाज है,क्या वास्तव में यह है.. ??
              क्या धरती के इस हिस्से से लेकर उस हिस्से तक वह किसी भी एक रूप से एक है??
              वसुधैव-कुटुम्बकम की प्यारी-प्यारी धारणाओं के होते हुए भी क्या कभी भी किसी भी वक्त में यह धारणा या ऐसी ही कोई अन्य धारणा धरती पर विचार-भर के अलावा अन्य किसी भी रूप में फलीभूत हुई भी है??                                  
              क्या समाज आज भी तरह-तरह से एक-दूसरे का खून नहीं पीता....??वह भी सामाजिकता का चोला ओढ़कर....!!!!
             यह समाज क्या आज भी बिना किसी कारण के महज अपनी धारणा को पुख्ता बताने के वास्ते दूसरे का सिर कलम नहीं कर देता ??
             क्या यही समाज आज भी किसी गैर के या यहां तक कि अपने ही घर में अपनी बहन-बेटियों का रेप नहीं करता??
             क्या आज भी यह समाज अपने फायदे के लिये कौन-सा गंदे-से-गंदा काम नहीं करता....??
             आदमी के द्वारा किये जाने वाले अगर इन तमाम कामों की फ़ेहरिस्त तैयार करूं तो एक लंबा-सा आलेख अलग से और तैयार करना पडेगा....!!(आप कहें तो शुरू करूँ....??)
             सच तो यह है कि भाषा आदमी की....बोली आदमी की....जानवर तो बिचारे मूक प्राणी रहे हैं सदा से,इसलिए सदा से इस धरती पर बेखट्के राज करता आया है आदमी....मगर करे ना राज आदमी कौन साला उसे मना करता है....मगर अपनी करनी का दंड इस पूरी धरती को क्यूं देता है....अपने किये की गाज जानवरों-पहाडों-नदियों और तमाम तरह के वातावरण पर क्यूं डालता है....??
             और तो और आदमी पशुओं के नाम की गाली क्यूं देता है....पशु बेचारों ने आदमी के बाप का क्या बिगाडा है??यह जो सामाजिक दुर्व्यवस्था है...यह तो आदमी नाम के इस जीव की मौलिक उपज या आविष्कार है...!! इसे जंगल का नाम देकर जंगल बेचारे का नाम बदनाम क्यूं करता है...??
              खुदा ना खास्ते अगर कभी कुछ जानवरों ने आदमी की कुछ हरकतें सीख लीं ना.....तो आदमी का समाज जंगल चाहे बना हो या बना हो.....जंगल अवश्य एक वीभत्स समाज बन जायेगा आदमी की एक घटिया कार्बन-कापी....एकदम बेलगाम...उच्चश्रृंखल ...और इन बेचारों को यह मालूम भी ना पडेगा कि वो क्या-से-क्या बन गए हैं और उनका जंगल भी.....क्या-से-क्या....!!
            आदमी तो शायद अपनी सोच से संभवत: कभी बदल भी पाये.... क्यूंकि शायद कभी तो वह ठीक-ठाक तरह भी सोच ले.....मगर जानवर तो यह सोच भी नहीं सकते कि गलती से वे भी अगर आदमी की तरह हो गये तो धरती किस किस्म की हो जायेगी.....!!!

11 जुलाई 2010

भोजपुरी हाइकु सलिला: ---------संजीव वर्मा 'सलिल'

भोजपुरी  हाइकु
संजीव वर्मा 'सलिल'
*










*
पावन भूमि
भारत देसवा के
प्रेरण-स्रोत.
*
भुला दिहिल
बटोहिया गीत के
हम कृतघ्न.
*
देश-उत्थान?
आपन अवदान?
खुद से पूछ.
*
अंगरेजी के
गुलामी के जंजीर
साँच साबित.
*
सुख के धूप
सँग-सँग मिलल
दुःख के छाँव.
*
नेह अबीर
जे के मस्तक पर
वही अमीर.
*
अँखिया खोली
हो गइल अंजोर
माथे बिंदिया.
*
भोर चिरैया
कानन में मिसरी
घोल गइल.
*
काहे उदास?
हिम्मत मत हार
करल प्रयास.
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

10 जुलाई 2010

नवगीत: पैर हमारे लात हैं.... संजीव 'सलिल'



नवगीत:

पैर हमारे लात हैं....

संजीव 'सलिल'
*










*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण कमल.
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*











*
पगडंडी  काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.













टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*









*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.










पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*










*

पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम हरिकर, वे श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.











उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम उत्पल शतदल...











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चित्र : ब्रम्हकमल, रक्तकमल, नीलकमल,  श्वेतकमल.
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

नीलम पुरी की ग़ज़ल ----- नींद आ जाये



नीलम पुरी की ग़ज़ल ----- नींद आ जाये

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तुम खवाब बनकर आयो तो नींद आ जाये,
आगोश मैं अपनी सुलाओ तो नींद आ जाये,

चूम लो अपने होठों से मेरी खामोश आँखों को ,
मेरी पलकों पर वही खवाब सजाओ तो नींद आ जाये,

तुम छु लो फिर गुज़रे ज़माने की तरह,
अहसास वही फिर से जगाओ तो नींद आ जाये.

मैं शमा बन तनहा जलती हूँ रोज रातों मैं,
तुम परवाना बन मुझसे लिपट जायो तो नींद आ जाये.

खून बहता है पानी बन रगों मैं मेरी,
तुम नस नस मैं समां जायो तो नींद आ जाये,

खामोश हूँ मैं किसी गुज़रे फ़साने की तरह,
मुझे ग़ज़ल की तरह ,तुम गुनगुनाओ तो नींद आ जाये.

मासूम तो हूँ मैं भी ,मगर नीलम की तरह ,
तुम भी मेरे लिए बदल जायो तो नींद आ जाये.

आज आग मेरी नस नस मैं लगाओ तो नींद आ जाये,
आगोश मैं अपनी सुलाओ तो नींद आ जाये।

09 जुलाई 2010

उम्र भर लिखते रहे....!!!!

उम्र भर लिखते रहे,हर्फ़-हर्फ़ बिखरते रहे
बस तुझे देखा किये,आँख-आँख तकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
कब किसे ने हमें कोई भी दिलासा दिया
खुद अपने-आप से हम यूँ ही लिपटते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.......
आस हमारे आस-पास आते-आते रह गयी..
हम चरागों की तरह जलते-बुझते रह गए.....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
हम रहे क्यूँ भला इतने ज्यादा पाक-साफ़
लोग हमें पागल और क्या-क्या समझते रहे...!!
उम्र भर लिखते रहे....
आज खुद से पूछते हैं,जिन्दगी-भर क्या किये
पागलों की तरह ताउम्र उल्टा-सीधा बकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे....!!!!

08 जुलाई 2010

अज्ञेय के साथ की अनुभूतियाँ -- डॉ0 महेन्द्रभटनागर का संस्मरण

डॉ0 महेंद्रभटनागर का संस्मरण ---
मेरी ज़िन्दगी में भी आये थे ‘अज्ञेय’
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अपने प्रारम्भिक साहित्यिक जीवन में ‘अज्ञेय’ जी से बड़ा प्रभावित था। उनका मेरा प्रथम साहित्यिक परिचय ‘गैंग्रीन’ (‘रोज़’) शीर्षक कहानी के माध्यम से हुआ। इस कहानी के कला-सौन्दर्य और मनोवैज्ञानिक चित्रण ने बड़ा आकर्षित किया था। तदुपरांत, ‘अज्ञेय’ जी की और भी कहानियाँ पढ़ीं — जो उपलब्ध हो सकीं। ‘कोठरी की बात ’ (जेल-जीवन की कहानियों का संग्रह) पढ़ी। ‘अज्ञेय’ जी के व्यक्ति के संबंध में, बहुत-कुछ उज्जैन-आवास के दौरान, प्रभाकर माचवे जी से सुना। तदुपरांत, डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी से। ‘तार-सप्तक’ (प्रकाशन- सन् 1943) प्रभाकर माचवे जी के यहाँ ही देखा; सन् 1945 के बाद कभी। ‘तार-सप्तक’ के मुख-पृष्ठ का चित्र देखकर ‘अज्ञेय’ जी की असाधारणता का बोध होता है। माचवे जी इस चित्र को समझ नहीं पाते थे; उन्हें वह कुछ उल्लू का-सा चित्र प्रतीत होता था ! ‘अज्ञेय’ जी के वैशिष्ट्य पर हम प्राय: बात करते थे। ‘तार-सप्तक’ की प्रकाशन-योजना भी माचवे जी से ही विदित हुई थी। ‘अज्ञेय’ जी से मेरा सीधा परिचय व पत्राचार सन् 1948 में हुआ। उन दिनों, उज्जैन से, ‘सन्ध्या’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहा था। ‘सन्ध्या’ की प्रति ‘अज्ञेय’ जी को भी प्रयाग भेजी। ‘अज्ञेय’ जी का उत्साहवर्द्धक पत्र मिला :

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प्रयाग / दि. 17-11-48


प्रिय महेंद्र जी,

‘सन्ध्या’ मिली। सुंदर है, और आशा करता हूँ कि आप उसे निकाल ले जायेंगे। मध्य-भारत में नयी पत्रिकाओं के लिए काफ़ी क्षेत्र है और आपको उसका लाभ उठा कर ‘सन्ध्या’ की उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए।

मैं दिसम्बर में कुछ भेज सकूंगा; आप क्या एक बार याद दिलाने का कष्ट करेंगे?


सस्नेह,

आपका


वात्स्यायन

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‘अज्ञेय’ जी, इन दिनों प्रयाग से ‘प्रतीक’ (द्वै-मासिक साहित्य-संकलन) निकाल रहे थे - श्रीपतराय जी के साथ। ‘प्रतीक’ के अंक क्र. 10 (हेमंत/ 1948) में उन्होंने मेरी भी एक कविता ‘संकल्प-विकल्प’ प्रकाशित की :

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आज यह कैसी थकावट?

कर रही प्रति अंग - रग-रग को शिथिल!

.

मन अचेतन भाव-जड़ता पर गया रुक!

ये उनीदें शान्त बोझिल नैन भी थक-से गये!

.

क्यों आज मेरे प्राण का

उच्छ्वास हलका हो रहा है,

गूँजते हैं क्यों नहीं स्वर व्योम में?

.

पिघलता जा रहा विश्वास मन का

मोम-सा बन,

और भावी आस भी

क्यों दूर-तारा-सी

दृष्टि-पथ से हो रही ओझल?

.

व जीवन का धरातल

धूल में कंटक छिपाये

राह मेरी कर रहा दुर्गम!

.

गगन की घहरती इन आँधियों से

आज क्यों यह दीप प्राणों का

रहा उठ रह-रह सहम?

.

रे सत्य है,

इतना न हो सकता कभी भ्रम!

.

भूल जाऊँ?

या थकावट से शिथिल हो कर

नींद की निस्पन्द श्वासों की

अनेकों झाड़ियों में

स्वप्न की डोरी बना कर झूल लूँ?

.

इस सत्य के सम्मुख झुका कर शीश अपना

आत्म-गति को

(रुक रही जो)

रोक लूँ?

.

या सत्य की हर चाल से

संघर्ष कर लूँ आत्मबल से आज?

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इस अंक के अन्य लेखक थे — दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, जैनेन्द्र कुमार, भगवतशरण उपाध्याय, गिरिजाकुमार माथुर, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, नलिनविलोचन शर्मा, प्रभाकर माचवे आदि।
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‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से स्वाध्यायी परीक्षार्थी के रूप में, हिन्दी में एम. ए. कर चुका था। ‘महाराजवाड़ा शासकीय हाई स्कूल, उज्जैन’ में अध्यापक था — मात्र साठ रुपये प्रति माह पर ! भूगोल और हिन्दी की कक्षाएँ लेता था। स्वयं को बड़ा असंतुष्ट अनुभव करता था। किसी बेहतर कार्य व पद के लिए प्रयत्नशील था। पिता जी के वेतन-मात्र से घर का गुज़ारा कठिन होता जा रहा था। परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण ही, बी. ए. करने के बाद, नौकरी करनी पड़ी थी।

‘अज्ञेय’ जी से संबंध क्रमशः विकसित होते गये। सोचा; क्यों न उनके माध्यम से ‘ऑल इंडिया रेडियो’ की किसी नौकरी के लिए प्रयत्न करूँ। कारण, पूर्व में माचवे जी के साथ, ‘ऑल इंडिया रेडियो, बम्बई’ का इंटरव्यू दे चुका था। माचवे जी उन दिनों ‘माधव इण्टरमीडिएट शासकीय महाविद्यालय, उज्जैन’ में तर्क-शास्त्र; फिर अंग्रेज़ी के व्याख्याता थे। साहित्यिक ख्याति पर्याप्त अर्जित कर चुके थे। उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में जम कर लिख रहे थे। जम कर लिखना तो उनका जीवन-भर रहा। मैं अध्यापकी से असंतुष्ट था। समाचार पत्रों में रोज़गार संबंधी विज्ञापन नियमित देखता था। एक दिन, ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के प्रोग्राम असिस्टेंट का विज्ञापन देखने में आया। तुरन्त पत्र लिख कर फॉर्म मँगवाया। फॉर्म भरने में कोई त्रुटि न रह जाये; एतदर्थ माचवे जी को दिखाने गया। माचवे जी मुझसे हर प्रकार से वरिष्ठ थे। उन्होंने देखा-भाला और फिर मैंने उसे पंजीयत-डाक से निर्दिष्ट पते पर भेज दिया। उचित समय पर, इण्टरव्यू-कॉल आया। बम्बई का। बड़ी खुशी हुई। फौरन माचवे जी को बताने, उनके निवास पर पहुँचा। माचवे जी बोले, ‘‘मेरा भी इण्टरव्यू-कॉल आया है। बम्बई का। बम्बई साथ-साथ चलेंगे। वहाँ ठाणे में, मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं — लोकल-ट्रेन निरीक्षक। वहाँ ठहरेंगे।’’ और फिर, उन्होंने बताया कि जब मैं अपना भरा हुआ फॉर्म उन्हें दिखाने गया था; तब उन्होंने भी फॉर्म मँगवा लिया था और भर कर भेज दिया था। विज्ञापन तो उनकी नज़र में आया नहीं; मेरे से ही जानकारी उन्हें मिली थी। अपने आवेदन के संबंध में उन्होंने मुझे कुछ बता नहीं रखा था; जो स्वाभाविक था। इण्टरव्यू-कॉल के कारण सब प्रकट हो ही जाना था। वैसे माचवे जी भी अपने पद से संतुष्ट नहीं थे। वे भी कहीं बाहर निकल जाने के लिए, मेरे समान, छटपटा रहे थे। हम दोनों के इण्टरव्यू, बम्बई में, एक ही दिन हुए। हम दोनों ने एक ही प्रांत से, एक ही नगर से और एक ही मुहल्ले (माधवनगर) से आवेदन-पत्र प्रेषित किये थे। केन्द्रीय सरकार की नौकरी थी। एक बार में, एक ही स्थान से, दोनों का चयन किया जाना, शायद ठीक न समझा गया हो। ज़ाहिर है, माचवे जी की तुलना में, मेरा पहले चुना जाना सम्भव (न्यायोचित) न था। और माचवे जी का ही चयन हुआ। लेकिन, मुझे रिजेक्शन-कार्ड उस समय तक नहीं भेजा गया; जब-तक माचवे जी ने 'ऑल इंडिया रेडियो नागपुर’ में कार्य-भार ग्रहण नहीं कर लिया। इससे यही अनुमान लगाया; यदि किसी कारणवश माचवे जी रेडियो की नौकरी स्वीकार नहीं करते तो फिर नियुक्ति-पत्र मेरे पास आता ! प्रतीक्षा-सूची संबंधी सूचना देने की प्रथा तब, लगता है, नहीं थी। गरज़ यह है कि मैं अपने अध्यापक-पद पर यथावत् बना रह गया ! इस पृष्ठभूमि में, मैंने ‘अज्ञेय’ जी को लिखा। ‘अज्ञेय’ जी ने मुझे यथासमय उत्तर दिया :

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प्रतीक / 14 हेस्टिंग्स रोड, इलाहाबाद / दि. 17 जनवरी 1949

प्रिय महेंद्र जी,


आपका कार्ड मिला था। उसका उत्तर इसलिए नहीं दिया कि पड़ताल अभी बाक़ी थी।
रेडियो प्रोग्राम असिस्टेंट और ट्रांसमिशन असिस्टेंट तो अभी और लिए जाएंगे। इनकी नियुक्ति तो नयी दिल्ली द्वारा होती है ; लेकिन आप चाहें तो आवेदन लखनऊ के स्टेशन-डायेक्टर को भी भेज सकते हैं। इलाहाबाद के लिए, जहाँ तक मुझे मालूम है, प्रोग्राम असिस्टेंट नये नहीं लेकर, लखनऊ और दिल्ली से ही पूरे कर लिए जाएंगे। लेकिन स्टाफ़-आर्टिस्ट तो दो-तीन लिए जाएंगे और एनाउन्सर भी। इनके लिए अगर आप आवेदन देना चाहें तो मुझे भेज दें। आशा है कि मैं कुछ सहायता कर सकूंगा। आप एक बाज़ाब्ता आवेदन-पत्र स्टेशन-डायेक्टर, लखनऊ के नाम भी भेज दें कि आप इलाहाबाद में स्टाफ़-आर्टिस्ट या एनाउन्सर होना चाहते हैं। जो आवेदन-पत्र भेजें, उसकी एक अतिरिक्त कापी मेरे पास भेज दें मै यहाँ से कोशिश कर लूंगा। आपको ऑडीशन के लिए आना होगा। जनवरी के अंतिम और फ़रवरी के प्रथम सप्ताह में लोगों को उसके लिए बुलाया जाएगा। जिस तरह की योग्यताओं की ज़रूरत है, वह तो आप जानते ही हैं। मातृभाषा भी हिन्दी हो तो अच्छा है। इसके अलावा अगर आप बुंदेलखंडी या संयुक्त प्रांत की और कोई जन-बोली बोल सकते हों तो उसका उल्लेख अवश्य कर दीजिएगा। उत्तर शीघ्र दें और आवेदन तो फौ़रन भेज दें।

आशा है, आप प्रसन्न हैं।

स्नेही

वात्स्यायन

आवेदन के साथ ऐसी एक तालिका दे दें :


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(अंग्रेज़ी में प्रोफार्मा का प्रारूप ‘अज्ञेय’ जी ने स्वयं लिख कर भेजा।)
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‘अज्ञेय’ जी ने इतनी रुचि ली; देखकर मन उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया। इस समय तक, उनसे मिला तक न था। सूत्र मात्र रचनात्मक लेखन था; पत्राचार था। ‘अज्ञेय’ जी में, एक बहुत अच्छे मित्र के गुण थे। सहयोग करना; उपकार करना उनकी प्रकृति थी। खेद है, उनके और निकट न आ सका।

निर्धारित कार्यक्रमानुसार, उनसे मिलने इलाहाबाद तक न जा सका। कारण, मात्र यात्रा-भीरुता। ‘अज्ञेय’ जी को फिर लिखा और अपनी स्थिति बतायी। इस बीच यह ख़बर सुनने में आयी कि ‘नोबल-प्राइज़’ के लिए ‘अज्ञेय’ जी के नाम पर भी विचार हो रहा है ! अतः पत्र में इसका भी उल्लेख किया। प्रभाकर माचवे जी आकाशवाणी-केन्द्र, नागपुर से स्थानान्तरित होकर इलाहाबाद पहुँच चुके थे। इसकी सूचना भी ‘अज्ञेय’ जी ने दी और पत्रोत्तर में लिखा :

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‘अज्ञेय’/ 14 हेस्टिंग्स रोड इलाहाबाद / 16 फरवरी 1949

प्रिय महेन्द्र जी,

आपका 2 तारीख़ का पत्र मिला। यों तो आप इधर अभी आ गये होते तो अच्छा होता। जो कुछ निर्णय होना होता जल्द पता लग जाता। लेकिन अब अगर सुविधा नहीं है तो मई के प्रथम सप्ताह में ही सही। इस बीच मैं फिर बात कर लूंगा।
प्रभाकर जी आ गये हैं और मेरे साथ ही हैं। आपको अलग से पत्र लिख रहे हैं। मेरी जब-तब जहाँ-तहाँ एप्लाई करने की बात उड़ती रहती है। ऐसी अफ़वाहों से, और नहीं तो, मेरा मनोरंजन तो होता ही है !

स्नेहपूर्वक आपका,

स. ही. वात्स्यायन
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सन् 1950 लग गया। एल. टी. कर चुका था। मध्य-भारत के तत्कालीन शिक्षा-संचालक श्री भैरवनाथ झा ने, साक्षात्कार के पश्चात् मुझे पदोन्नत कर, व्याख्याता बना कर, इंटरमीडिएट कॉलेज, धार स्थानान्तरित कर दिया। इससे आर्थिक दृष्टि से भी कुछ राहत मिली। बाहर, अन्यत्र जा कर नौकरी करने का विचार त्याग दिया। लेकिन ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त करने का निश्चय किया। डा. विनयमोहन शर्मा जी के निर्देशन में। विषय रखा-‘प्रेमचंद के समस्यामूलक उपन्यास’। इस संबंध में, ‘अज्ञेय’ जी को बताया और उनकी राय ली। प्रेमचंद का उपन्यास-साहित्य ख़रीदना था। श्रीपतराय जी को लिखने के पूर्व ‘अज्ञेय’ जी को लिखा। उन्होंने, श्रीपतराय जी से कह कर, प्रेमचंद के उपन्यासों का सेट मुझे उपहार-स्वरूप तुरन्त भिजवा दिया। इस सबसे संबधित उनका पत्र इस प्रकार है:

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इलाहबाद / दि. 29 अगस्त 1950

प्रियवर,


आपका पत्र दिल्ली से लौट कर कल देखा। आप धार में नियुक्त हो गये जानकर आनन्द हुआ।
प्रेमचंद के ‘समस्यामूलक’ उपन्यास कौन से हैं ? मेरी समझ में तो सब या सामाजिक हैं या व्यक्ति चरित्र के उपन्यास हैं। यों उपन्यास कला आदि के विषय में पुस्तकों की सूची आप को कुछ दिनों बाद याद दिलाये जाने पर दिल्ली से भेज दूंगा। मैं अब इधर कम और दिल्ली अधिक रहता रहूंगा — प्रतिमास एक सप्ताह इलाहाबाद और तीन सप्ताह दिल्ली। दिल्ली का पता है द्वारा ‘ थॉट’, साप्ताहिक, 35 फे़ज़ बाज़ार रोड, दरियागंज, दिल्ली। आपका पत्र श्रीपतजी को देकर उन्हें कहे दे रहा हूँ; आप उन्हें या अमृत को सीधे पत्र लिख सकते हैं।

पता श्रीपतराय, 6 ड्रमंड रोड, इलहाबाद।


सस्नेह,


वात्स्यायन


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‘अज्ञेय’ जी के, उपर्युक्त पत्र में, व्यक्त विचार के आलोक में ही, मैंने ‘समस्यामूलक उपन्यास’ का विस्तृत सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया। शोध-प्रबन्ध के ‘प्रवेश’ में भी अपना मन्तव्य स्पष्ट किया। विवादास्पद पक्ष ही शोध को नवीनता व मौलिकता प्रदान करते हैं। वस्तुतः लेखक की अपनी थीसिस यही होती है। सर्व-मान्य पक्षों पर लिखना इतना धारदार नहीं होता। उसमें मात्र श्रम है — चाहे वह विवेचन-विश्लेषण का ही क्यों न हो। नवीन स्थापना सही अर्थों में शोध है।

‘अज्ञेय’ जी को मात्र एक बार प्रत्यक्ष देख-सुन सका ; जब वे ‘माधव माहविद्यालय’, उज्जैन किसी कार्यक्रम में आये थे। सन् ठीक-ठीक स्मरण नहीं। सम्भवतः सितम्बर 1955 के पूर्व। उन दिनों ‘सुमन’ जी भी उज्जैन में थे।
प्रगतिशील काव्य-धारा से जुड़े होने के कारण; ‘अज्ञेय’ जी की प्रकाशन-योजनाओं में सम्मिलत होना कभी नहीं चाहा। ‘सप्तकों’ में स्थान मिले; ऐसा कभी सोचा तक नहीं; यद्यपि श्री गिरिजाकुमार माथुर चाहते थे। ‘आलोचना’ (जुलाई 1954) में प्रकाशित उन्होंने अपने एक लेख (‘नई कविता का भविष्य’, पृ. 64 ) में ऐसा संकेत भी दिया। इसके पूर्व, श्री गजानन माधव मुक्तिबोध ने, आकाशवाणी-केन्द्र नागपुर से, मेरी काव्य-कृति ‘टूटती शृंखलाएँ (प्रकाशन सन् 1949) की समीक्षा, ‘तार-सप्तक’ के परिप्रेक्ष्य में, प्रसारित करते हुए, उसे ‘तार-सप्तक’ की परम्परा का काव्य स्थापित किया था।

‘अज्ञेय’ जी के काव्य पर, सन् 1946 में प्रकाशित ‘इत्यलम्’ संकलन के आधार पर मैंने अपने छात्रों को एक आलेख का डिक्टेशन दिया था; ‘आधुनिक साहित्य और कला' में और फिर 'समग्र' खंड-5 में समाविष्ट है। छात्रोपयोगी दृष्टि के कारण, इसमें नया स्वतंत्र स्व-चिन्तन नहीं; मात्र सामान्य विशेषताओं का उल्लेख है।

'अज्ञेय'-काव्य में बहुत-कुछ स्पष्ट, सम्प्रेषणीय, कलात्मक व आकर्षक है; तो पर्याप्त दुरूह, जटिल व अस्पष्ट भी। उनकी समग्र साहित्य-साधना, नि:संदेह महत्त्वपूर्ण है; जिस पर तटस्थ-निष्पक्ष दृष्टि से विचार होना शेष है।

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110, बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर 474 002 [म.प्र.]

07 जुलाई 2010

भोपाल गैस त्रासदी : एक शब्द चित्र डॉ. कमल जौहरी डोगरा, भोपाल

भोपाल गैस त्रासदी : एक शब्द चित्र
















डॉ. कमल जौहरी डोगरा, भोपाल

*
याद है उन्नीस सौ चौरासी
दो दिसंबर की वह भीषण रात
और तीन दिसम्बर का धुंधला सवेरा
बीत गए जिसके छब्बीस साल.















शीत ऋतु की काली रात वह
गैस त्रासदी के लिये कुख्यात.
बन गयी बिकाऊ खबर
विश्व-नक़्शे पर उभर आया भोपाल.

सहानुभूति-सहायता का समुद्र लहराया
पत्रकारों, छायाकारों की भारी भीड़
नेताओं की दौड़-भाग, गहमा-गहमी
सब उमड़ आये भोपाल में बादलों से.

कुछ देर में छँट गए थे बादल
बिना बरसे उड़ गए हवा में शीघ्र
रह गयी जनता कराहती, दुःख भोगती
अनाथ बच्चे, विधवा नारियाँ बिसूरती.

पुरुष जो बच गए, पुरुषार्थ से हीन
आजीविका कमाने में असमर्थ वे
परिवार बिखरे, कुछ के लापता सदस्य
जो आज तक गुमशुदा सूची में हैं.

कैसी घोर विपत्ति की थी रात?
सड़कों पर भीड़, भागता जन समूह
कहीं भी, कैसे भी भोपाल से
दूर भाग जाने को व्याकुल.














पर दिशाहीन इन मानवों का 
दिशादर्शन करनेवाली वाणी मौन थी.
सरकारी घोषणा न थी कहीं कोई
भेड़ों सी भागती जनता थी सब कहीं.

स्मरण है हम भी भागे थे भीड़ में
आँख जब अचानक खुल गयी थी.
खांसी की तकलीफ से छोड़ा बिस्तर
पहुँचे थे पानी पास, आँख की जलन से.

पीड़ा न कम हो पाई पर किसी तरह
अचानक शोर-गुल सड़क पर सुन
जिज्ञासा-कौतूहल ने उकसाया था
पूछने पर सुना: ''तुम भी भागो.

गैस निकली है कार्बाइड से विषैली.
मर रहे हैं लोग, शहर से दूर जाओ.''
घर में न सवारी थी, न कोई पुरुष ही
केवल एक बालक, विद्यार्थी था.

मृत्यु के भय ने लगा दिये थे पंख
किसी तरह हड़बड़ी में ताला डालकर
भाग लिये थे हम, पैरों पर दौड़ते से
रास्ते पर वाहन भरे थे लोगों से.
















कोई न सुन रहा था हमारी गुहार.
लिफ्ट देने की करुण प्रार्थना पुकार
न जगह थी, न समय उनके पास.
थी पीछे मौत, भागना था उससे दूर.

आखिर पैदल ही मीलों चले उस रात
कई और भी लोग थे हमारे साथ
रुके वहाँ जहाँ सो रहे थे निवासी
शरण ली के घर में परिचितों के साथ.

फिर पौ फटी, सूरज उग रहा था.
अफवाहों का घटाटोप भी छंटा.
कोई आया उनके घर, हादसे को देख
शवों, मूर्छितों से पटी सड़कें लाँघकर.

आँखों-देखी का वर्णन कर रहा था
अस्पतालों में पीड़ितों की भीड़
सड़कों पर नेताओं की कुछ जीपें
कितना विषैला प्रभाव था गैस का?

मानव ही नहीं मार्ग और गलियों में थी
गाय, बकरी, मुर्गियों की निर्जीव देहें.
झुलसे पेड़, पत्तियां थी जहर रहीं
मृत्यु की काली छाया सब पर पडी.
















हो गया शहर का जीवन गतिहीन
केवल रुदन, कराहें, अस्पतालों में लोग
आवागमन के साधन भी न थे कहीं
न तांगा, न टेम्पो, न कोई बस.

मृतकों को ढो रही थीं सरकारी गाड़ियाँ
या कि एम्बुलेसों में जिंदा बेहोश देहें
स्वयंसेवक व्यस्त थे, मूर्छितों को ढोते.
झुग्गी-झोपडी से निकालते पीड़ितों को.

उधर दान का था दौर चल पड़ा
अस्पतालों में था अम्बर भोजन का.
औषधियाँ भी दान में आने लगीं थीं.
दानियों की भीड़ लगी थी, होड़ सी.

भाग्यशाली थे वे जो बच गये थे.
या कि वे जिन्हें कम क्षति पहुँची थी.
देखने को उत्सुक थे, चिंतित भी
वे ही दानी थे, वे ही सेवा में रत.

उज्जवल पक्ष एक था इस त्रासदी का
सरकारी चिकित्सकों ने किया रात-दिन एक.
भूखे-प्यासे जुटे थे वे बचाने में
पीड़ितों को जीवित मृत्यु-मुख से.















शहर के सब अस्पताल भर गए
बल्कि तम्बू भी तने थे शरण देने हेतु.
नागर में अफवाह थी: पानी, वनस्पति
हवा सब कुछ, हो गया दूषित यहाँ पर.

आतंकित थे लोग, हवा-पानी किस तरह छोड़ें?
सब्जी खाना छोड़ दी थी सभी ने.
सब कुछ अछूत सा हो गया था शहर में
जन-पलायन भी शुरू हो चला था.

कई मोहल्ले सूने हो गए पूरे के पूरे.
ताले लगे हुए थे द्वारों पर, पुराने भोपाल में.
कुत्ते भटक रहे थे भूख से व्याकुल बहुत
वीरान हो गया था शहर का बड़ा हिस्सा.

हमीदिया अस्पताल में देखे थे हमने
कुछ नन्हें बच्चे नर्सों की गोद में
जिनको लेने कोई नर-नारी न आया था.
अब अनाथों की सूची में थे वे लावारिस.

स्कूल-कालेज बंद हो गए अनिश्चय में
पढने, पढ़ानेवाले दम साध घर में बैठे थे.
कुछ के संबंधी चल बसे थे, कुछ खुद पीड़ित थे.
कौन-किसे आदेश देता? जिसकी प्रतीक्षा थी.













दफ्तरों में हाजिरी थी न्यून याकि शून्य.
कुछ तो खुले ही न थे, खोलनेवाला न था.
डाक, तर, टेलीफोन सब बंद हो गये.
बहर के शहरों में दुखी-चिंतित थे संबंधी.

मृत्यु का तांडव नृत्य देखा आँखों से
भोपाल आ गया था काल की चपेट में.
अकाल मौत की छाया मंदर रहे एथी
सब ओर हाहाकार, आशंका और भय था.

ऐसे दिन कभी न देखे थे जीवन में.
कितने प्राणियों को डँस लिया था
कितनों को निर्जीव-अपंग बना था
'युनियन कार्बाइड' के कारखाने ने.

यह कारखाना जो कभी खुला था
सौभाग्य बनकर इस धरती पर
हजारों की आजीविका का साधन बनकर
अधिकारी बन गए थे कुछ  पहुँचवाले.

उनका व्ही. आई. पी. गेस्ट हाउस
शरण देता था बहुतों को कृपा कर
फिर भला कौन जाँच करता उनके
जन-घातक कारनामों की समय पर.















पहले भी छुट-पुट घटनाएँ हुईं थीं
विधान सभा में उठे प्रश्न, हुई चर्चा
दबा दी गयी आवाज़ सत्य- न्याय की
दफना दी गयीं घटनाएँ फाइलों में.

शासन की यही उपेक्षा भारी पड़ गयी
बन गयी महाकाल के तांडव की वज़ह.
काल-सर्प डँस गया हजारों को भोपाल में
लिख गया इतिहास भयावना-डरावना.

दोषी कोई और, पाप किसी और का
फल भोग निर्दोष नागरिकों ने, भाग गए
ज़िम्मेदार नेता, जन प्रतिनिधि, अधिकारी
बची रही सभी की कुर्सी, की कर्त्तव्य की उपेक्षा.

प्रधानमंत्री ने लगाया फेरा अस्पताल का
दिया आश्वासन पूरी सहायता का, 'की कृपा?'
बोले मुख्यमंत्री, 'सभी साधन हैं यहाँ',
'सफ़ेद झूठ' कह हँसा महाकाल. कौन सुनता?

विदेशों से आये आश्वासन, संवेदनाएँ, राशियाँ
समां गए प्रशासन के भस्मासुरी पेट में,
कट न पाये कष्ट बेबस जनता के आज तक
हो नहीं सका है न्याय, न आशा शेष है न्याय की.












विदेशी पत्रकार लिये कीमती कैमरे
आ धमके अमरीकी वकील, दिलायेंगे न्याय
लुटेरे बाँटेंगे खैरात?, कैसा ढकोसला?
हाय रे मानव! पीड़ितों को दिलासा भी झूठी.

आने लगे शोधकर्ता क्रमवार, पूछते प्रश्न
चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थी, कुरेदते घाव
समाजशास्त्र के शोधकर्ता जुटते आँकड़े
किसे चिंता पीड़ितों की?, सभी चाहते तथ्य.

आया ए.आई.एम्. संस्थान करने परीक्षण
परखने 'मिक' का दुष्प्रभाव मनुज शरीर पर
दी होगी कुछ सच्ची-कुछ झूठी रिपोर्ट
जनता तक न पहुँचने दी गयी उसकी भनक.

अखबारी खबर: 'सरकार ने छिपाली रपट.
कैसे और कौन करता प्रकाशन? खुलता झूठ
बेनकाब होता शासन-प्रशासन. हद तो यह
घातक रोगों से घिरे जन को न दी गयी जानकारी.

कौन किसे कब कैसे देगा मार्गदर्शन?
इस विपदा से जूझने का, न जानता था कोई.
अँधेरे में सुई टटोलते से, रोगियों को
सतही स्तर पर दावा दे रहे थे चिकित्सक.
















लक्षणों पर आधारित पद्धति से हो रहा था
इलाज साधनहीन सरकारी अस्पतालों में.
चिकित्सकों को भी ज्ञात न था उस वक़्त
कौन से विषैले रासस्याँ मिले थे गैस में.

'कार्बाइड मौन था, सरकार चुप्प, अँधेरा घुप्प.
अधिकारी थे संवेदना शून्य-उदासीन.
लोगों में व्याप्त थी दहशत, दानवी कारखाने से
अब भी बची थी भारी मात्रा में 'मिक' भंडारों में.

किसी भी दिन फ़ैल सकती है विषैली गैस.
वायुमंडल को कर सकती है दूषित.
लौट न पा रहे थे लोग, इसी भय से.
अतः, घोषणा हुई 'ऑपरेशन फेथ' की.

भगोड़ा अर्जुन आया तानकर सीना, बोला:
'वैज्ञानिक करेंगे नष्ट 'मिक को, न हों भयभीत'
न हुआ भरोसा किसी को झूठे-लबार  पर
तिथि तय हुई, फिर भागे लोग जान बचाने.

वह दिन भी आया और निकल गया
शनैः-शनैः हुआ था भय कुछ कम.
पनप रहे थे रोग- घातक, असाध्य, पीड़ादायी
चल रही थी दावा लम्बे समय की.














क्रमशः दम तोड़ रहे थे पीड़ित
मृत्यु दर तीव्रता से बढ़ रही थी.
सरकारी आँकड़े कह रहे थे कुछ और
फिर भी संख्या पहुँची हजारों में.

जो बच भी गए वे कमाने काबिल न थे.
खाँसते-कराहते थे रात-दिन अस्पतालों में.
धरती या खाट पर पड़े कमजोर-कंकाल
भविष्य की फ़िक्र में तिल-तिल घुल रहे थे.

खुले थे कुछ वार्डों में अस्थायी कैम्प.
बँट रहा था अनाज गरीब तबकों में.
कुछ ज़रूरी राशन कुछ को मिला मुफ्त.
ले रहे थे काँपते हाथ, हताश चेहरे, बुझी नज़रें.

धीरे-धीरे आ रही थी गति शहर में
खुले थे दफ्तर, शालाएँ, महाविद्यालय भी.
पर चहल-पहल न थी कहीं, सर्वत्र उदासी
तूफ़ान के बाद की सी शांति फ़ैली थी.

गैस-राहत का दफ्तर खुल गया था'
अधिकारी भी नियुक्त किए गये थे उनमें.
 सक्रिय हो रहे थे वे धीरे-धीरे,
बन रहे थे कानून,निबटने समस्या से..















सरकारी तंत्र चलता है जिस तरह 
समय तो लगना ही था व्यवस्था में,
किन्तु काल कब करता है इन्तिज़ार?
उसकी गति तेज़ थी निगलने की..

यंत्रवत सा सब चलने लगा था.
दिनचर्या चलने लगी पर निर्जीव सी,
लोग आने लगे वापिस, पलायन रुका
बँट रहे थे फार्म 'दावे; के प्रचुरता से..

उस हेतु भी वापिस आ रहे थे लोग
आशा बंध गयी थी कि कुछ होगा अब.
क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा शीघ्र ही
धंधा-इलाज सब कर सकेंगे जिससे..

किन्तु एक साल बाद ही मिल पाये थे
केवल दो सौ पचास रुपये प्रति माह के.
'अंतरिम राहत' के नाम से, भीख की तरह
अनेक चक्करों और लंबी कतारों के बाद..

बैंकों की शाखाएँ खुलीं फिर तो
भीड़ जब सम्हाली न थी सरकारी तन्त्र से.
दावों की सुनवाई का चला नाटक
न्यायाधीशों की नियुक्ति ने लिये कुछ साल..















कराहती जनता कर रही थी एकत्र
साक्ष्य के लिये चिकित्सा के सबूत.
मृतकों के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
श्मशानों, कब्रिस्तानों के प्रमाण पत्र भी..

बहुत मुश्किल था यह सब जुटाना
कहाँ, किसके पास रखा था सुरक्षित
अशिक्षित जनता कहाँ जानती थी
इंसान से ज्यादा, कागजों का महत्त्व?

बेबस, बीमार, लाचार काट रहे थे चक्कर
न्याय पद्धति जटिल-जानलेवा-समयलेवा.
शासकीय मशीनरी जड़, संवेदना से शून्य.
न्यायाधीश करते कानून का पालन?

कानून जो होता है अंधा और बहरा
भीषणतम त्रासदी कभी कहीं नहीं घटी
इससे उसे क्या सरोकार? उसे चाहिए-
सबूत, आप जिंदा हैं? इसका भी..

कानून की इस प्रक्रिया ने ले लिये
कितने ही वर्ष?, पीड़ितों की दशा
बाद से बदतर हो रही थी प्रति पल
न्याय की आस में तोड़ गए दम कितने ही..














न वकील, न बहस, न तारीख
एक दिन आता कागज़- 'आइये! लेने मुआवजा
फलां दिन, फलां जगह, फलां समय'...
श्रेणीबद्ध कर दिये पीड़ित, क्या पीड़ा भी?

ए, बी, सी, डी... श्रेणी में बाँटा था जिनने
नहीं विदित था उनको भी आधार रहा क्या?
भीषणतम विभीषिका थी यह इस शताब्दी की
इंसानों के साथ मरे पशु-पंछी अगणित..

जीवन भर को बन गए थे लाखों रोगी.
अस्थमा, खांसी, ह्रदय की बीमारियाँ.
नेत्र-ज्योति ही हानि, कैंसर से भयंकर रोग
पल-पुस रहे थे अगणित शरीरों में दिन-रात.

गर्भिणी महिलाएँ, गर्भस्थ शिशु भी
हुए थे दुष्प्रभावित विषैली गैस संक्रमण से.
आजीवन ही नहीं, पीढ़ियों तक रहेगा प्रभाव
हानि का मूल्य आँकना संभव नहीं.

सरकार ने आंकी थी कीमत, बहुत सस्ती
शासन के आकाओं की नज़र में
आदमी की पीड़ा की कीमत
न्यूनतम केवल बीस हज़ार ही थी.















अधिकतम?... कुछ ज्यादा हज़ार...
मृतकों का मुआवजा- लाख रुपये
इंसान की कीमत आंकी गयी जीवित रहते
उपार्जन क्षमता से, आयु से, रुतबे से.

करोड़ों की राशि लेकर बैठी सरकार
अत्यंत कृपण थी उसे पीड़ितों तक पहुँचाने में.
न योग्यता का मूल्य, न विशेषज्ञता का,
न विद्वता का, न त्याग-समर्पण का.

योजनायें बनाती रहीं, चलती रहीं
बरसों तक इलाज़ की, बसाहट की.
रोज़गार देने की, अशक्तों को
निराश्रितों को पेंशन दिलाने की.

खोले गए नए अस्पताल करोंड़ों के
कुछ तो आज तक न हो सके क्रियाशील
कैसी ढील?, कीमती मशीनों में लगी में जंग 
अब भी चल रहा है चक्र लगातार.

आधे-अधूरे मन से हो रहा है यह सब
किसी की सच्ची लगन या रूचि नहीं
नेता है राजनीति और वोटो के खेल में व्यस्त
अधिकारी लाल-फीताशाही के मद में ग्रस्त.















लंबी अंतहीन कहानी, न जाने कब तक चले?
एक और महत्वपूर्ण पक्ष है इस त्रासदी का
हत्यारों को दंड दिलाना भी तो जरूरी था
जो जिम्मेदार थे हजारों प्राणियों की मौत के.

कंपनी के मलिक को न कर गिरफ्तार
भगाया था देश से सुरक्षित, सरकारी यान से
फिर बन कमजोर केस, कई दिनों बाद
कुछ साल चलता रहा, ख़बरें छपती रही.

अंत में किया गया एक समझौता
राष्ट्रीय अस्मिता से, बहुत अपमानजनक ढंग से
केवल कुछ करोड़ रुपयों की राशि देकर
बरी हो गया अपराधी जघन्य अपराध से.

उत्पीड़ितों से कुछ पूछा-जाना नहीं गया.
वाह रे जनतंत्र, साफ़ हो गया कि आज भी
हम दास हैं विदेशी आकाओं के.
उस दिन इस स्वतंत्र देश का सिर नीचा हुआ.

भारतीयों की जान की कीमत कुछ भी नहीं.
भारतीय की हत्या देश में हो या विदेश में
अपराध नहीं बनती, सजा नहीं मिलती
कलंकित हुआ देश दुनिया और भावी पीढ़ियों के सामने.












किसने किया यह अन्यायपूर्ण  समझौता?
व्यक्ति हो या सरकार किसने दिया अधिकार?
जनता दण्डित देना चाहती है कंपनी मालिकों को
'एंडरसन' को फाँसी होनी ही चाहिए.

हम दे न सके हत्यारों को सजा कोई.
धनराशि का हुआ भरपूर दुरूपयोग.
चिल्लाते हैं उत्पीडित आज भी
वर्षगाँठ मनती है हर बरस, होती हैं घोषणाएँ.

अब भी कहाँ सुरक्षित है यह शहर?
अब भी दबे हैं विशिले-घातक रसायन
कारखाने की मिट्टी और टैंकरों में.
ला सकते हैं कभी भी प्रलयंकर भूचाल.

भूलते जा रहे हैं वह भीषण रात क्रमशः.
प्रकृति का नियम है भूलो और जिओ
कितु याद न रखा तो- फिर-फिर होंगे हादसे
फिर-फिर होगा अन्याय देश में यहाँ या अन्यत्र.

दास्तां लंबी है पीड़ितों की पीडाओं की
कहाँ तक कही-लिखी जाये?, इस घड़ी
सिर्फ और सिर्फ कलम की श्रृद्धांजलि
मृतकों को, संवेदना पीड़ितों के लिये अशेष.














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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम