19 अक्तूबर 2010

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

   इन दिनों तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार ही भारत के एक महाशक्ति बनने के कयास लगाये जाते हैं,महाशक्ति बन चुके और महाशक्तिमान अमेरिका को चुनौती देते चीन से उसकी तुलना भी की जाती है,मगर भारत की इस महत्वकांक्षा में सबसे बडा रोडा भारत खुद ही है और अगर यह देश अपनी कतिपय किन्तु महत्वपूर्ण खामियों को दूर करने का प्रयास नहीं करेगा तो महाशक्ति बनना तो दूर उसके धूल में मिल जाने की गुंजाईश ही ज्यादा लगती है !!आज हम इन खामियों का विश्लेषन ना भी करते हुए सिर्फ़ उन्हें चिन्हित करने का प्रयास भर करें तो भारत के महाशक्ति बनने की राह में कौन सी बाधाएं हैं,उन्हें जानकर दूर करने का प्रयास किया जा सकता है,मज़ा यह कि ये कमजोरियां इतनी खुल्लमखुल्ला हैं कि उन्हें आंख मूंदकर भी जाना जा सकता है,बशर्ते कि हम अपने भीतर ईमानदारी से झांकने को तैयार हों !!  
                पहला,भारत के राजनेताओं में देश के प्रति ममत्व का अभाव तथा दूरदर्शिता की कमी--विगत कई बरसों से यह देखा जा रहा है, तरह-तरह की खिचडी सरकारों ने अपने असुरक्षा-बोध के कारण देश के खजाने को निर्ममतापुर्वक तथा निहायत ही बेशर्मीपुर्वक ऐसा लूटा है,जिसकी की कहीं और कोई मिसाल ही नहीं मिलती तथा अपने इसी असुरक्षाबोध के कारण उन्होने अपने शासन के दौरान धन कमाने(कमाने नहीं बल्कि लूट्पाट करने)के बाद बचे-खुचे समय में भी बजाय शासन करने के एक-दूसरे की टांग-खिंचाई ही की है,सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध...निन्दा के निन्दा ही जैसे उनका एकमात्र मकसद रह गया प्रतीत होता है.ऐसे में देश के लगभग सभी राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था प्रायश: चुल्हे में जा गिरी है,और आर्थिक व्यवस्था पर तो जैसे घून ही लगा जा रहा है,हर कोई बस अपना-अपना हिस्सा बांटने के लिए सत्ता में भागीदार बन रहा है और इसीलिए हर कोई हर किसी को अपना हिस्सा खाने में मददगार बनकर अपना हिस्सा सुरक्षित करने भर में आत्मरत है,तो फिर ऐसे देश,जिसकी सभी व्यवस्थाओं का जहां उपरवाला ही मालिक है,के महाशक्ति बनने की कामना या स्वप्न एक हंसी-ठठ्ठे से ज्यादा और कुछ नहीं लगता....!!
                दूसरा ,भारत के व्यापारी वर्ग की भयंकर आत्मरति भरी बनियावृत्ति --भारत का व्यापारी वर्ग,चाहे वो किसी भी जात-वर्ग या धर्म-विशेष का ही क्यों ना हो,उसकी वृत्ति आज भी प्राचीन काल की तरह आत्मलीन-आत्मरत और स्वार्थ से ओत-प्रोत रहते हुए अपने हितों की रक्षा करने हेतु शासक-वर्ग की चिरौरी करना और उसके तलवे चाटना भर है.इस स्थिति में आज इतना फ़र्क अवश्य आ गया है कि इस ग्लोबल युग में बडे-बडे उद्योगपति सत्ता की वैसी चिरौरी नहीं करते,बल्कि सरकारों को अपने राज्य और देश के विकास के लिए उन उद्योगपतियों की राह में आगे चलकर फूल बिछाने पडते हैं,मगर इससे इस स्थिति में अलबत्ता कोई फ़र्क आ गया हो,नहीं दिखाई देता...क्योंकि आज के दौर में सत्ता और बडे व्यापारी और उद्योगपति एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं,दोनों ही एक-दूसरे का खूब दोहन करते हैं और इसका परिणाम कभी नंदी-ग्राम,सिंगूर तो कभी उडीसा-झारखंड के विभिन्न हिस्सों में पैदा हुई हिंसा के रूप में दिखाई देता है,इसका अर्थ यह भी है कि भारत का सत्ता-तंत्र भारत के विकास में यहां के आम लोगों को विश्वास में लेने का हिमायती नहीं है और यदि ऐसा है तो भी आने वाले दिनों में तरह-तरह के विरोध के स्वर की अनुगूंज और हिंसा का वातावरण दिख पडने वाला है,जिसके मूल में होगा इन्हीं बनिया लोगों का क्षूद्र स्वार्थ और लालच,जिसे देश के विकास का जामा पहना कर आम जनता का हक छीनते जा रहे हैं ये कतिपय लोग !!
                 तीसरा,विकास की किसी समुचित अवधारणा का नितान्त अभाव-- भारत के विकास में किसी भी भारतीय में विकास का कोई खाका,कोई मानचित्र,कोई रास्ता,कोई सोच या किसी भी किस्म की समुचित अवधारणा का सर्वथा अभाव है.या यूं कहूं कि भारत कैसा हो ,ऐसा कोई सपना भारत के किसी नागरिक के मन में पलता हो,ऐसा दिखाई नहीं देता,या कम-से-कम इसके जिम्मेवार नेताओं में तो बिल्कुल भी नहीं,और मिलाजुला कर कोई एक खाका खींच पाने को कोई व्यक्ति,समूह तत्पर हो,ऐसा भी देखने में नहीं आता !बस विकास-विकास का रट्टा चल रहा है हमारे चारों तरफ़,कि इसको बुला लो,उसको बुला लो...लेकिन यह तय नहीं है कि कैसे,कितना कितने समय में और क्या करना करना है,यह कोई नहीं जानता कि कितने प्रतिशत खेती करनी है,उस खेती के लिए उसके साधनों का क्या-कितना-कैसा विकास करना है और विकास की इस अवधारणा के चलते जो अहम चीज़ पीछे छूट जाती है वो यह है कि इसका कोई अनुमान,आकलन या सरसरी तौर पर लिया गया कोई आंकडा तक नहीं है कि जिस विकास के लिए उपजाऊ खेतों को यानि कि किसानों की रोजी-रोटी के एकमात्र साधन यानि कि [अभी के आकलन के अनुसार "सेज" की खातिर (प्रस्तावित जमीन)ली जाने वाली याकि छीनी जाने वाली जमीन के ऊपर प्रतिवर्ष दस लाख टन अनाज उपजाया जाता है !!]को छीनकर उसके बदले किए जाने वाले विकास का क्या मूल्य है,क्या गुणवत्ता है,क्या आयु है और क्या पर्यावरणीय नुकसान या फ़ायदे हैं,उनसे किनको और किस हद तक फ़ायदा है तथा देश के लिए,इसकी सामाजिक,आर्थिक और पारम्परिक स्थितियों के मद्देनज़र कौन-सा विकास सचमुच ही फ़ायदेमन्द है !!
                  चौथा,इस अदूरदर्शिता के कारण घट सकने वाले संकट को देख पाने में असमर्थता-- अपनी इस अदूरदर्शिता की वजह से पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज़ पर बुलाए और निमंत्रित किए जाने वाले लोगों की बन आयी है और आने वाले लोगों की बांछे सरकारों की ऐसी तत्परता देख कर वैसे ही खिल-खिल जाती है,और वो काम को अमली जामा तो बाद में पहनाएं या कि पहनाएं कि ना पहनाएं,मगर तरह की शर्तें और डिमांड पहले धर देते हैं कि पहले ये दे दो-वो दे दो,ये फ़्री करो-वो फ़्री करो,इतनी जमीन चाहिए,इतनी बिजली,इतना पानी इतने सस्ते मज़दूर,इतनी दूर या पास और इस तरह का बाज़ार और "सेल" की गारंटी यानि इतनी सरकारी खरीदी की गारंटी....वल्लाह क्या बात है...सुभानल्लाह क्या बात है और ले देकर वही बात कि ये खान दे दो,वो खान दे दो...फ़ैक्टरी के नाम और स्थानीय लोगों को रोजगार देने के नाम पर ली गयी तमाम रियायतों के बावजूद होता ठीक इसका उलटा ही है,यानि कि कानून को धत्ता बताना,नियमों की धज्जी उडाना,कायदे-कानूनों को ताक पर धर देना...स्थानीय लोगों को रोजगार तो क्या,कभी फ़ैक्टरी के दर्शन तक नसीब नहीं हो पाते गांव-वालों को...क्योंकि यह सब सुगमतापूर्वक शायद भारत में ही संभव है !!
                  पांचवा,आम भारतीय जन की काहिली और गप्पबाजी की खतरनाक आदत-- यह एक मुद्दा हमें कोसों पीछे ढकेल सकता है अगर इसके प्रति हम सचेत नहीं हुए,कि हम आम भारतीय भौगोलिक कारणों से या फिर अपनी जन्मजात काहिली की आदत के कारण ऐसे ही आम-तौर पर काफ़ी पीछे धकेले दे रहे हैं और मज़ा यह कि हमारी यह आदत हमें तो क्या किसी को हमारी बूरी आदत के रूप में दिखाई नहीं देती !!भारतीयों की इस बुराई(या खूबी??)के चलते भारत को गपोडियों का देश भी कहा जा सकता है,वो भी ऐसा कि यहां का एक सडक छाप आदमी भी दुनिया के प्रत्येक विषय में गहन रूप से पारंगत प्रतीत होता है,जो शायद अन्यत्र दुर्लभ ही है,आम भारतीय की प्रवृत्ति उन्हें दरअसल मसखरा बना देती है,मगर शायद हमें इन मामूली बातों से कोई फ़र्क पड्ता हो ऐसा देखने को नहीं मिलता,मगर सच तो यह है कि काम के दौरान की जाने वाली व्यर्थ की बातों के कारण किस प्रकार मिनटों का काम घंटों में परिणत हो जाता है,इसे देखने का होश शायद अब तक किसी को नहीं है या फिर ये भी संभव हो कि इसे समस्या के रूप में देखा ही ना जाता हो,क्योंकि काम के प्रति सबका रवैया एक-सा ही है इसलिए सबकी कार्यशैली तकरीबन यही बन चुकी है,किन्तु गप्पबाजी की यह आदत कब कामचोरी में बद्ल जाती है इसका अहसास भी आम भारतीयों को नहीं है,इसीलिए किसी भी काम में लेट-लतीफ़ी समस्त भारतीयों की पेटेंट फ़ितरत है और इस फ़ितरत के रहते हुए महाशक्ति तो क्या क्षेत्रीय शक्ति बनने के आसार भी नज़र नहीं आते !!
         छ्ठा,विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव--विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव साथ भारत के पारम्परिक ज्ञान के साथ भारत के वैज्ञानिकों का दुराव-- किसी भी देश की प्रगति में समय के साथ कदम-ताल मिला कर चलने की प्रवृत्ति के साथ ही अपनी परम्परा से आयी हुई खास आदतों और विशेषताओं को सहेज कर रखना भी विकास की ही एक कसौटी मानी जाती है जबकि भारत के सन्दर्भ में इसका ठीक उल्टा ही होता प्रतीत होता है कि जहां यहां के लोगों में किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक चेतना का अभाव है बल्कि यहां के  वैज्ञानिकों में भी भारत के बहुमुल्य पारम्परिक ज्ञान के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं है और मिलाजुला कर इन दोनों पक्षों की अज्ञान-पूर्ण सोच के कारण आम लोगों में  विज्ञान का प्रसार तथा खास लोगों में पारम्परिक चेतना का प्रसार होता नहीं दिख पड्ता और इस स्थिति के रहते भी सामंजस्य पूर्ण विकास कतई सम्भव होता नहीं दिखता,क्योंकि इस तरह से कोई कार्य अपने जमीनी रूपों में साकार होता नहीं दिख पड्ता,सोच की यह विषमता दोनों पक्षों में एक किस्म का दावानल ही है !!
         कुल मिलाकर हम यह पाते हैं कि-- सच में ही भारत की तरक्की की राह में खुद भारत ही यानि कि भारतीय ही सबसे बडी बाधा हैं और सवाल यह है कि क्या हम भारतीय अपनी इन कमियों को स्वीकारने को तैयार हैं?देश जैसी एक भावूक चेतना का पोषन करने के लिए अपनी निजता का हनन करना होता है,अपने स्वार्थों को परे धरना पड्ता है,खून और पसीना बहाकर दिन-रात एक करना होता है!!सवाल यह कि क्या हम भारतीयों में भारत के प्रति कोई आमूल सोच,कोई विजन,कोई सपना है!मगर उससे भी बडा प्रश्न तो यह है कि भारत के रहनुमाओं के पास भारत के लिए कोई दिशा है?कोई अध्ययन,कोई रोशनी है कि थोडी सी दूर तक भी भारत उस रोशनी में अपने पांव बढा सके!!इनके मन में ऐसा कोई सपना भी है,जिसे तिरसठ साल पहले इसे आज़ाद कराने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों ने बोया था तथा कुछ  ने तो बडी सीधी सी राह भी दिखाई थी!! दरअसल सपने ही वो रोशनी होते हैं,जिसकी आंच में तपकर आदमी निखरता है और जिसके प्रकाश में विकास,या तरक्की जो जो कहिए,के भीने-भीने और सुगन्ध भरे फूल खिलते हैं,और भारत के मामले में भी यह सच निस्सन्देह ही उलट तो नहीं हो सकता !! 

12 अक्तूबर 2010

हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!

हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!  

  
कभी जब भी मैं अपने आस-पास के समाज पर नज़र दौडाता हूं....तो ऐसा लगता है कि यह समाज नहीं....बल्कि एक ऐसी दोष-पूर्ण व्यवस्था है,जिसमें लेशमात्र भी सामाजिकता नहीं.....उदाहरण हर एक पल हमारे सामने घटते ही रहते हैं....इस समाज में जीवन-यापन के लिए नितांत आवश्यक चीज़ है आजीविका का साधन होना....और दुर्भाग्यवश यही आजीविका का सिस्टम ही ऐसा बना दिया गया है कि इससे बचने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता....अब ये सिस्टम क्या है,ज़रा इस पर भी गौर करें...मगर इससे पूर्व यह भी देख लें कि पहले कम-से-कम भारत में क्या हुआ करता था....सदियों पहले व्यापार जब हुआ करता था...उसमें व्यापारी लोग किसान या उत्पादन-कर्ता से माल खरीद कर खुद उसे यत्र-तत्र ले जाकर बेचा करते थे....इस प्रकार लोगों को महज दो हाथों से होकर किसी भी तरह का माल उपलब्ध हो जाया करता था...इसका अर्थ यह भी हुआ कि किसी भी तरह का माल अपने उत्पादक हाथों से [उनके उचित लाभ को जोडकर]व्यापारी से होकर [पुन: उनके उचित लाभ को चुकाकर]छोटे शहरों के दुकानदारों के हाथों [उनका लाभ चुकाकर]उपयोग-कर्ताओं तक पहुंचता था...देख्नने में तो यह बात आज की परिस्थितियों जैसी ही जान पड्ती है....मगर वैसा है नहीं....यहां देखने वाली बात यह है कि...यहां कोई बिचौलिया आदि  का अस्तित्व नहीं दिखायी देता और साथ ही माल ढोने वाला ट्रांसपोर्टर खुद् व्यापारी ही हुआ करता था...इस प्रकार कम-से-कम दो जगह लाभ का बंट्वारा होने से बचता था....इसका अर्थ यह भी हुआ कि उपयोग-कर्ता तक कोई भी माल थोडी कम,या यूं कहूं कि वाजिब कीमत में,पहुंचता था,तो भी गलत नहीं होगा...मेरे द्रष्टिकोण से जिस समय इस वर्तमान किस्म का व्यापार का चलन ना हुआ होगा....व्यापारी भी उचित लाभ लेकर ही कीमत का निर्धारण किया करता होगा....कम-से-कम पुराने काल की कीमतों को जब हम आंकते हैं तो साफ़-साफ़ यह पता चलता है.....कि बहुत दूर तो क्या अभी हाल के सात-आठ दशकों पूर्व भी कीमतें बिल्कुल उचित हुआ करती थीं...और यह भी कि उस वक्त कीमत तय करने का सिसट्म बेहद पारदर्शी हुआ करता था....जहां अंतिम खरीदार को भी सभी जगह वितरीत हुए लाभों का पता हुआ करता था !!
                   आज अब जैसा कि सिस्टम बना जा रहा है....या कि बनाया जा रहा है...या कि बना दिया है...उससे यह साफ़ परिलक्छित होता है कि यह सिस्ट्म सत्ताधिकारियों-उत्पादन-कर्ताओं और बडे व्यापारियों की सांठ-गांठ रूपी व्यभिचार का सिस्टम है...जिसमें सरकार उत्पादनकर्ता या बडे रसूखदार व्यापारी को सब-कुछ करने की असीम छूट देती है...बदले में सरकार को पिछ्ले रास्ते से उसका "हिस्सा" पहुंच जाया करता है...और बेशक यह किसी को भी दीख नहीं पाता....यह सब इतना सुचारू है... नियमित है...प्रबंधित है....कि आम आदमी की तो क्या बिसात....अच्छे-अच्छों को भी इस सिस्टम में छिपे व्यभिचार का जरा भी आभास नहीं है....सिर्फ़ वो ही लोग इसे जान और समझ पाते हैं,जो इस सिस्टम से जा जुड्ते हैं....और इसकी कीमत चुकाते हैं... अरबों-अरबों लोग....क्या कोई जानता है...कि उसके हाथों तक पहुंचने वाली किसी भी वस्तु की उचित कीमत क्या होनी चाहिए..??
                             क्या किसी को इस बात का आभास भी है....बडी-बडी "बहु"-राष्ट्रीय कंपनियां...जो अपनी मोनोपोली द्वारा अकूत लाभ बटोरे जाती हैं,वो दरअसल हमें पता भी नहीं कि एक रुपये की लागत की वस्तु का मुल्य यानी कि एम.आर.पी. क्या तय कर सकती हैं...क्या आप में से कोई अंदाजा भी लगा सकता है...??नहीं....!!??.....तो फिर जान लीजिये आपके लिये यह कीमत कम-से-कम दस रुपये तो होगी ही....बीस रुपये तक भी हो सकती है....और किसी असामयिक परिस्थिति में [अर्थशास्त्र के अनुसार डिमांड बढ्ने पर वस्तुओं के मूल्य में ब्रद्धि होती है....और यह अर्थ-शास्त्र किन लोगों ने लिखा....??]पचास रुपये तक भी जा सकती है...और अकसर जाया भी करती है....!!
                     कहने को तो आदमी ने अपनी सुरक्शा के लिए इस समाजरुपी तंत्र का निमार्ण किया है....हम खुद भी समाज के रूप में स्वयं को शायद बेहतर समझते हैं....मगर....समाज अगर सच्ची ही समाज है....तो क्या वह अपने सदस्यों से इस तरह की लूट्पाट कर सकता है...??.....एक रुपये की वस्तु का इतना नाजायज मुल्य ले सकता है....मोनोपोली....बिचौलिए .....सरकारी कमीशन.....ट्रांसपोर्टर.....और आज का सबसे बडा खर्च विग्यापन....और सबसे बढ्कर इन ये सब मिलकर किसी भी वस्तु का मुल्य...इतना-इतना-इतना ज्यादा बढा देते है....कि आम आदमी को तो यह भी नहीं पता कि उसके द्वारा उसकी अथाह मेहनत से कमाए जा रहे जरा से रुपये से किया जाने वाला एक-एक रुपये का खर्च किस प्रकार कुछ थोडे से लोगों की संपत्ति में इजाफा किये जा रहा है.....!!!  

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http://baatpuraanihai.blogspot.com/

10 अक्तूबर 2010

नवगीत: समय पर अहसान अपना... संजीव 'सलिल'

नवगीत:


समय पर अहसान अपना...

संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*

देवी नागरानी के ग़ज़ल संग्रह (लौ दर्दे दिल की) की समीक्षा

लौ, जो रौशनी बन गयी

ग़ज़ल ने हिंदी साहित्य मे अपना विशिस्ट स्थान बना लिया है यही कर्ण है की हिन्दी काव्य मे हर तीसरा कवि ग़ज़ल विधा मे अपनी अभिव्यक्ति कर रहा है | दुष्यन्त से लेकर आज तक हजारों गज़लकार ने राष्ट्र और समाज के ज्वलंत विषयों पर अपनी अपनी गज़लों मे चर्चा की है | आधुनिक गज़लकारो में देवी नागरानी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है जिन्होंने राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी गज़लों से विशेष स्थान बनाया है | उनका नवीनतम ग़ज़ल संग्रह लो दर्द-दिल की इस बात का पक्का सबूत है कि ग़ज़ल अपने कथ्य और शिक्षा से पूरे मानक -समाज मे प्रेम और सदभाव का सन्देश दे रही है यथा -

मुहब्बत के बहते हों धारे जहाँ

वतन ऐसा जन्नत -निशाँ चाहिए

ग़ज़ल कि सार्थकता पर उनकी पंक्तियाँ हाटव्य है -

अनबुझी प्यास रूह कि है ग़ज़ल

खुश्क होठों कि तिशनगी है ग़ज़ल

बचपन कि खुशियों को धर्म-जाति और आंतकवाद के नाग ने डस लिया है | देवी नागरानी के शब्दों मे -

अब तो बंदूके खिलौने बन गई

हों गया वीरान बचपन का चमन

कवयित्री ने गज़लों मे हिन्दी -उर्दू के शब्दों का सुंदर व सटीक प्रयोग किया है जो उनके गहन भाषा ज्ञान का प्रतीक है | एक मतला देखे -

कर गई लौ दर्दे-दिल कि इस तरह रौशन जहाँ

कौंधती है बादलों में जिस तरह बर्के-तपाँ

कवयित्री का समर्थन नारी और गरीब आदमी के लिए है -

चूल्हा ठंडा पड़ा है जिस घर का

समझो ग़ुरबत का है वहां पहरा

नारी होती है मान घर-घर का

वो मकाँ को बनाये घर जैसा

ये पंक्तियाँ भी पाठक और श्रोता को गज़ब का हौसला देती है -

किसी को हौसला देना -दिलाना अच्छा लगता है

ज़रुरत मे किसी के काम आना अच्छा लगता है

देश पर अपनी जान लुटाने वालों को याद करते हुए वे कहती है -

मिटटी को इस वतन कि ,देकर लहू कि खुशबू

ममता का, क़र्ज़ सारा, वीरों ने ही उतरा

कुल मिलाकर देवी नागरानी की गज़लों है जीवन के सभी रंगों का सलीको और संजीदगी से सजाया है जो ग़ज़ल के बेहतर भविष्य का पता देती है| आशा है उनकी ये गज़ले देश- विदेश मे लोकप्रिय होंगी और अपना विशिष्ट स्थान बनाएगी| उन्हें बधाई|

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समीक्षक --

डॉ.रामगोपाल भारतीय

६ ए ब्रिज कुंज, रोहटा रोड , मेरठ (उ० प्र०) भारत. मो. (०९३१९६१८१६९)

संग्रहः लौ दर्देदिल की,

ळेखिकाः देवी नागरानी,

पन्नेः १२०, मूल्यः रु.१५०,

प्रकाशकः रचना प्रकाशन, मुंबई ५०



09 अक्तूबर 2010

देवी नांगरानी के ग़ज़ल संग्रह -- लौ दर्दे दिल की -- का लोकार्पण

“लौ दर्दे दिल की” ग़ज़ल संग्रह का लोकार्पण

१५ अगस्त २०१० को कुतुबनुमा एवं श्रुति सँवाद समिति द्वारा आयोजित समारिह के अंतरगत श्रीमती देवी नागरानी के ग़ज़ल संग्रह “लौ दर्दे दिल की” का लोकार्पण मुंबई में १५ अगस्त २०१०, शाम ५ बजे, आर. डी. नैशनल कालेज के कॉन्फ्रेन्स हाल श्री आर.पी.शर्मा महर्षि की अध्यक्षता में पूर्ण भव्यता के साथ संपन्न हुआ. कार्य दो सत्रों में हुआ पहला विमोचन, दूसरा काव्य गोष्टी.

समारोह की शुरूवात में मुख़्य महमानों ने दीप प्रज्वलित किया और श्री हरिशचंद्र ने सरस्वती वंदना की सुरमई प्रस्तुती की. अध्यक्षता का श्रेय श्री आर. पी शर्मा (पिंगलाचार्य) ने संभाला. मुख़्य महमान श्री नँदकिशोर नौटियाल (कार्याध्यक्ष-महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी एवं संपादक नूतन सवेरा), श्री इब्रहीम अशक (प्रसिद्ध गीतकार) जो किसी कारण न आ सके. श्री जलीस शेरवानी (लोकप्रिय साहित्यकार), “कुतुबनुमा” की संपादिका डा॰ राजम नटराजन पिलै रहे. देवी नागरानी जी ने सभी मुख़्य महमानों को पुष्प देकर सन्मान किया, जिसमें शामिल थे डा॰ गिरिजाशंकर त्रिवेदी, संतोश श्रीवास्तव, श्रीमती आशा व श्री गोपीचंद चुघ


आर पी शर्मा “महरिष” ने संग्रह का लोकार्पण किया और अपने वक्तव्य में यह ज़ाहिर किया कि साहित्यकार अपनी क़लम के माध्यम से लेखिनी द्वारा समाज को नई रोशनी देतने में सक्षम हैं. उसके पश्चात शास्त्रीय संगीतकार सुधीर मज़मूदार ने देवी जी की एक ग़ज़ल गाकर श्रोताओं को मुग्ध कर दिया…

“रहे जो ज़िंदगी भर साथ ऐसा हमसफ़र देना

मिले चाहत को चाहत वो दुआओं में असर देना”


कुतुबनुमा की संपादक डा॰ राजाम नटराजन पिल्लै ने अपने वक्तव्य में लेखन कला पर अपने विचार प्रकट करते हुए देवी जी के व्यक्तित्व व उनकी अनुभूतियों की शालीनता पर अपने विचार प्रस्तुत किये और उनके इस प्रयास को भी सराहते हुए रचनात्मक योगदान के लिये शुभकामनाएं पेश की. जलीस शेरवानी जनाब ने “लौ दर्दे दिल की” गज़लों के चंद पसंददीदा शेर सुनाकर ग़ज़ल की बारीकियों का विस्तार से उल्लेख भी किया और सिंधी समुदाय के योगदान का विवरण किया. नौटियाल जी ने आज़ादी के दिवस की शुभकामनायें देते हुए, देवी जी को इस संकलन के लिये बधाई व भकामनाएं दी.

देवी नागरानी ने अपनी बात रखते हुए सभी महमानों का धन्यवाद अता किया. आगे अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा “प्रवासी शब्द हमारी सोच में है. भारत के संस्कार, यहाँ की संस्क्रुति लेकर हम हिंदुस्तानी जहाँ भी जाते हैं वहीं एक मिनी भारत का निर्माण होता है जहाँ खड़े होकर हम अपने वतन की भाषा बोलते है, आज़ादी के दिवस पर वहां भी हिंदोस्तान का झँडा फहराते है, जन गन मन गाते है. हम भले ही वतन से दूर रहते हैं पर वतन हमसे दूर नहीं. हम हिंदोस्ताँ की संतान है, देश के वासी हैं, प्रवासी नहीं. ” और अपनी एक ग़ज़ल ला पाठ किया..

“पहचानता है यारो हमको जहान सारा

हिंदोस्ताँ के हम हैं, हिंदोस्ताँ हमारा.”

पहले सत्र में संचालान का भार श्री अनंत श्रीमाली ने अपने ढंग से खूब निभाया . देवी जी ने पुष्प गुच्छ से उनका स्वागत करते हुए उनका धन्यवाद अता किया.

द्वतीय सत्र में संचालान की बागडौर अंजुमन संस्था के अध्यक्ष एवं प्रमुख शायर खन्ना मुज़फ्फ़रपुरी जी ने बड़ी ही रोचकतपूर्ण अंदाज़ से संभाली। और इस कार्य के और समारोह में वरिष्ट साहित्यकार व महमान थेः श्री सागर त्रिपाठी, श्री अरविंद राही, (अध्यक्ष‍ श्रुति संवाद साहित्य कला अकादमी), श्री गिरिजा शंजकर त्रिवेदी (नवनीत के पूर्व संपादक), श्री उमाकांत बाजपेयी, हारिराम चौधरी, राजश्री प्रोडक्शन के मालिक श्री राजकुमार बड़जातिया, संजीव निगम, श्री मुस्तकीम मक्की (हुदा टाइम्स के संपादक)व जाने माने उर्दू के शायर श्री उबेद आज़म जिन्होंने इस शेर को बधाई स्वरूप पेश किया. …

अँधेरे ज़माने में बेइंतिहा है

बहुत काम आएगी लौ दर्दे-दिल की “..उब्बेद आज़म

सभी कवियों, कवित्रियों ने अपनी अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों से समां बांधे रखा. कविता पाठ की सरिता में शामिल रहे श्री सागार त्रिपाठी जिन्होने अपने छंदो की सरिता की रौ में श्रोताओं को ख़ूब आनंद प्रदान किया. कड़ी से कड़ी जोड़ते रहे श्री अरविंद राही, लक्ष्मण दुबे, श्री मुरलीधर पांडेय, शढ़ीक अब्बासी, देवी नागरानी, श्री शिवदत्त अक्स, गीतकार कुमार शैलेंद्र, नंदकुमार व्यास, राजम पिल्लै, मरियम गज़ाला, रेखा किंगर, नीलिमा डुबे, काविता गुप्ता, श्री राम प्यारे रघुवंशी, संजीव निगम, संगीता सहजवाणी, शिवदत “अक्स”, कपिल कुमार, सुष्मा सेनगुप्ता, और शील निगम, ज्यिति गजभिये.

श्रोताओं ने काव्य सुधा का पूर्ण आनंद लेते रहे श्री गिरीश जोशी, प्रमिला शर्मा, प्रो॰ लखबीर वर्मा, मेघा श्रीमाली, पं॰ महादेव मिश्रा, संतोष श्रीवास्तव, प्रमिला वर्मा, पंडित महादेव मिश्रा, रवि रश्मि अनुभूति, शिप्र वर्मा, राजेश विक्रांत, मुमताज़ खान, वी. न. ढोली, लक्ष्मी यादव, प्रकाश माखिजा, शकुंतला शर्मा, इकबाल मोम राजस्तानी, श्याम कुमार श्याम, सतीश शुक्ल, सिकंदर हयात खान, अमर ककड़, विभा पांडेय, शिल्पा सोनटके, अमर मंजाल, कान्ता, लक्ष्मी सिंह, रत्ना झा, गोपीचंद चुघ, आशा चुघ, संगीता सहजवानी, प्रो॰ शोभा बंभवानी, देवीदास व लता सजनानी, गिरीश जोशी. करनानी जी, कवि कुलवंत. त्रिलोचन अरोड़ा, नंदलाल थापर, श्रीमती किरण जोशी, सोफिया सिद्दिकी, रजनिश दुबे और सुनील शुक्ला. सुर सरिता का अंतिम चरण शुक्रगुज़ारी के साथ समाप्त हुआ. आज़ादी का जश्न खुशियों के परचम हर चहरे पर फहराता रहा..समाप्ति एक शुभ आरंभ है. जयहिंद.

07 अक्तूबर 2010

देवी नागरानी की ग़ज़ल -- शब्दकार पर

ग़ज़ल -- देवी नागरानी


मालिक है कोई, मजदूर कोई

मसरूर कोई, मजबूर कोई

मासूम को सूली मिली कैसे

क़ुद्रत का भी है दस्तूर कोई

ये भूख नहीं इक ख़ंजर है

है पेट में इक नासूर कोई

मिट्टी में मिलेगा जब इक दिन

क्यों इतना है मग़रूर कोई

क्यों हुस्न पे यूँ इतराती है

जन्नत की है क्या तू हूर कोई

आसां जीवन कोई जीता इधर

मुश्किल से उधर है चूर कोई

बदनाम हुआ जितना देवी

उतना ही हुआ मशहूर कोई


देवी नागरानी

आदरणीय प्रधानमंत्री जी......................




आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
                समुचे देशवासियों की और से आपको राम-राम (साम्प्रदायिक राम-राम नहीं बाबा !!)
                आदरणीय पी.एम. जी,अभी कुछ दिनों पहले आपका बयान देखा था अखबारों में लाखों-लाख किलो अनाज के सडने पर अदालतों द्वारा उसे गरीबों को मुफ़्त मुहैया कराये जाने के आदेश पर,जिसे पहले आपके परम आदरणीय मंत्रियों ने सलाह बतायी और फिर अन्य गोल-मोल बातें बताने लगे,आपने भी अदालतों को सरकार के नीतिगत मामलों में नसीहत ना देने की नसीहत दे डाली !लेकिन ऐसा कहते वक्त आपने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि अदालतों को क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो वह आये दिन बार-बार ऐसे मामलों पर आदेश या राय देती है जो असल में सरकारों को करना चाहिए,मगर दुर्भाग्यवश वो करती ही नहीं...अभी अभी मैनें एक जज को यह शेर कहते हुए सुना कि"उलझने अपने दिल की सुलझा लेंगे हम.....आप अपनी ज़ुल्फ़ को सुलझाईए...!!तब मेरा भी कुछ कहने को जी चाहने लगा और मैं आपको यह पत्र लिखने बैठ गया !!
                           "वो नहीं सुनते हमारी,क्या करें....मांगते हैं हम दुआ जिनके लिए....चाहने वालों से गर मतलब नहीं....आप फिर पैदा हुए किनके लिए" ये दोनों शेर मेरे लिए ऐसे हैं जैसे वोट देते हैं हम सभी जिनके लिए......और अपनी ही जनता से गर मतलब नहीं...आप फिर पैदा हुए......तो आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी.....बात-बात में अदालतों के कोप से क्रोधित होने के बजाय आप सब अपनी बात-बात को,हर बात को अदालत में घसीटने के बजाय आपस में क्यूं नहीं सलटा लिया करते हो...ओटो वाले के भाडा बढाने की बात हो,बच्चों के नर्सरी में एडमिशन का सवाल हो,जन सामान्य की सुविधा के बस खरीदने का प्रश्न हो,ट्रैफ़िक व्यवस्था सुधारने का प्रश्न हो,फ़ुटपाथ दुकानदारों के हटाने का सवाल हो या उन्हें पुन: बसाने का प्रश्न,किसी कारखाने या किसी भी सरकारी योजना के कारण अपनी जगह से हटने वाले लोगों के पुनर्वास का प्रश्न हो या कि किसी भगवान आदि के जन्म-स्थल को तय करने जैसे एकदम से जटिल और किसी भी तरह की अदालत से बिल्कुल अलग रहकर या अदालतों को किसी भी हालत में उन मामलों में ना घसीट कर आपस में ही सर्वमान्य सहमति कायम करने के मामले हों.....हुज़ुरे-आला जरा जनता को यह बताने की कष्ट करेंगे कि इन मामलों में किसी भी किस्म का फैसला किसे करना चाहिये...??और अगर वो फैसले उन फैसलों को करने वाली अधिनायक ताकत नहीं कर पाती है तो क्यों...??तो फिर उस ताकत यानि उस सत्ता में बने रहने का हक क्यों है,उसने किस काम के लिए चुनाव जैसी चीज़ में येन-केन-प्रकारेण जीत पाकर कौन सा काम करने के लिए सत्ता में जाने का जिम्मा लिया है...??अपने किसी भी तरह के फैसले को जनता के बीच लागू करवाने की नैतिक ताकत इस सत्ता में क्यों नहीं है और इसके लिए उसे बारम्बार पुलिस और सैनिकों की आवश्यकता क्यों है...??अपनी हर बात को किसी सैनिक-शासक की तरह जबरिया लागू कराने की विवशता क्यों है...??...और अन्त में यह कि तरह-तरह की तमाम बातों को अदालतों में घसीट कर ले ही गया कौन है....किसी भी मुद्दे पर अपने द्वारा लिए जाने वाले फैसलों को अदालतों पर टाला किसने है....??
                  आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी अभी कुछ दिनों बाद ही दशहरा है,और आपको पता है कि ये अदालतें आपकी तमाम सरकारों को क्या आदेश या सलाह देने वाली हैं....वो कहने वाली हैं कि सडकों पर फ़ैले कचरे को उठाओ....बजबजाती नालियों को साफ़ करो भैईया...क्योंकि दशहरा और दुर्गा-पूजा देखने जाने वालों को कोई कष्ट ना हो....और फिर उसके कुछ दिनों बाद ही दीवाली और छठ आएगी और एक बार फिर ये अदालतें एक बार फिर उन्हीं लोगों को वही नसीहत देंगी और यह भी कहेंगी कि भैईया लोगों अब जरा तमाम नदी-तालाब-घाटों को भी साफ़ कराओ....तब प्रशासन की नींद खुलेगी और वो अचानक हरकत में आएगा....तो अदालतों के साथ-साथ मेरा और तमाम देशवासियों का भी आप सबसे यही सवाल है कि आप सब वहां क्यों हैं अगर आपको हर प्रशासनिक कार्य करवाने के लिए गहरी नींद से जगाना पडे...हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए जनता को आंदोलन ही करना पडे...यहां तक कि आप ही के यहां काम करने वाले अपने वेतन या पेंशन के लिए अदालत तक जाना पड जाए...यहां तक कि आप किसी शिक्षक को पच्चीस-पच्चीस बरस तक वेतन ही ना दो....उसका लाखों-लाख रुपया आपके पास बकाया हो और उसके बाल-बच्चे भूखे मरें....और तो और....जो काम आप सब करो उसमें भी बस ही अपना वारा-न्यारा कर डालो.....जनता के लिए किए जाने वाले कार्य में जनता का धन खुद ही डकार जाओ....और जनता को खबर भी ना हो....यही नहीं भूखी मरती हुई जनता के लिए भेजी गयी सहायता राशि की बंदरबांट कर लो...और जनता कलपती हुई मर जाए....धरती के उपर के और नीचे के तमाम कच्चे या पक्के माल या साधनों की बंदरबांट कर लो....और वहां रहने वाले गरीबों को हमेशा के लिए बेदखल कर दो.....वो जीये चाहे मरें....तुम्हारी बला से.....क्योंकि तुम विकास चाहते हो....क्योंकि उस विकास में ही दरअसल तुम सबका "विकास" है !!??
                         आदरणीय श्री पी.एम.जी आप आज की तारीख में सबसे ईमानदार पी.एम कहे जाते हो......किन्तु सरकार मुझे इस बात से तनिक भी इत्तेफ़ाक नहीं है...क्योंकि अगर आपकी  नाक के एन नीचे यह सब चलता होओ....आपके अगल-बगल के समस्त मंत्रीगण बिना किसी लाभकारी व्यापार या व्यवसाय के करोडपति हों,अरबपति हों....और आपकी भुमिका उसमें कतई नहीं...ऐसा कोई पागल भी नहीं मान सकता....और तो और आपके खुद के कार्यकाल में लगातार यही सब हो रहा होओ,जो पिछ्ले साठ-बासठ बरसों से होता आया है....तो मुझे आप यह तो बताओ कि क्यों नहीं इस सबमें आपकी भुमिका को संदिग्ध माना जाये.....यह तो एक अल्बत्त मज़ाक है कि एक ऐसी सरकार,जिसके सब लोग धन के समन्दर में गोते-पर-गोते खाये जा रहे हों,उसका मुखिया किनारे खडा होकर यह कह रहा होओ....कि हम तो बिल्कुल नहीं भीगे जी....हमें तो छींटे पडे ही नहीं.....पता आपको इस किस्म की बेहुदी बातें कौन लोग करते हैं.....भांड लोग...भांड....!! लेकिन यह भी बडा मज़ाक है कि यह बातें मैं किससे कर रहा हुं....उससे, जो किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता से तो नहीं ही...जिसने अपने सब कार्य-कलापों का चिट्ठा सिर्फ़ एक उस व्यक्ति को देना है,वो खुद भी किसी महत्वपूर्ण सरकारी पद पर नहीं बैठा हुआ होने की वजह से किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता के प्रति तो नहीं ही...बेशक वो ना केवल पी.एम. पद को अपितु सभी मंत्रालयों को अपनी मर्ज़ी के अनुसार चलाता होओ...अरे-रे-रे ऐसा मैं नहीं कहता...बल्कि सब कहते हैं और मैं सुनता हूं..और ऐसा मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती कि शायद ऐसा हो भी...जो तकरीबन दिखाई भी देता है...जो शायद गलत नहीं भी है....तो यह भी एक मज़ाक ही है देश के प्रति कि देश को चलाने वाला प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति है जो संसद या देश के प्रति जवाबदेह ना होकर अपनी पार्टी के प्रति जवाबदेह है....और उसकी पार्टी को चलाने वाला मुखिया चुकिं सरकारी ओहदे पर नहीं है,इसलिए वो भी संसद और देश के प्रति अपनी जवाबदेही से च्यूत है.....अगर ऐसा ही है सरकार....तो हम सब भी पागल ही तो हैं...जो जगह-जगह शोर मचाते हैं....हज़ारों पन्ने काले करते हैं....और तमाम मंत्रियों की खुदगर्ज़ जिन्दगी में दखल देने की गैरजिम्मेदाराना हिमाकत करते हैं....अगर देश के तमाम लोग भी ऐसे ही हैं...मैं खुद भी ऐसा ही हूं....तो यह सब बातें तो विधवा का विलाप ही हैं....सो इस विलाप के लिए मुझे माफ़ करें....इस बात-बहस के लिए मुझे माफ़ करें...सरकार सच कह रहा हूं,मुझे माफ़ करें !!
-- http://baatpuraanihai.blogspot.com/

06 अक्तूबर 2010

देवी नागरानी की लघुकथा -- अख़बरवाला मूर्ति

अख़बरवाला मूर्ति

हाँ यह वही तो है जो 35 साल पहले मेरे नये घर का दरवाजा खटखटाकर, सवाली आँखों से, शिष्टाचार के साथ खड़ा था. दरवाजा खोलते हुआ पूछा था मैंने भी सवाली आँखों से बिना कुछ कहे.

"मैं अख़बार लाता हूँ ,पूरी कॉलोनी के लिये. आप को भी चाहिए तो बता दीजिए"


"अरे बहुत अच्छा किया कल इतवार है और हर इतवार को हमारा सिंधी अख़बार 'हिंदवासी' आता है जो ज़रूर मुझे दीजिएगा"

"अच्छा" कहकर वह यह कहते हुए सीडियाँ उतरने लगा "पाँच रुपए का है वो" और अपनी तेज़ रफ़्तार से वह दो मज़िल उतर गया. 1973 की बात आयी आई गई हो गयी, हर दिन, हर घर को,कई साल बीतने के बाद भी बिना नागे वह अख़बार पहुंचाता है, और मैं पढ़ती रही हूँ, दूर दूर तक की ख़बरें. शायद अख़बार न होता तो हम कितने अनजान रह जाते समाचारों से, शायद इस ज़माने की भागती जिंदगी से उतना बेहतर न जुड़ पाते. अपने आस पास की हाल चाल से बखूबी वाकिफ़ करती है यह अख़बार.


पिछले दो साल में लगातार अपनी रसोई घर की खिड़की से सुबह सात बजे चाय बनाते हए देखती हूँ 'मूर्ति' को, यही नाम है उसका. बेटी C.A करके बिदा हो गयी है, बेटा बैंक में नौकरी करता है, और मूर्ति साइकल पर अख़बार के बंडल लादे, उसे चलता है, एक घर से दूसरे घर में पहुंचाता है, जाने, दिन में कितनी सीडि़या चढ़ता उतरता है. एक बात है अब उसकी रफ़्तार पहले सी नहीं. एक टाँग भी थोड़ी लड़खड़ाने लगी है. 35 साल कोई छोटा अरसा तो नहीं, मशीन के पुर्ज़े भी ढीले पढ़ जाते है, बदले जाते है,पर इंसानी मशीन उफ़! एक अनचाही पीड़ा की ल़हर सिहरन बन कर सीने से उतरती है और पूरे वेग से शरीर में फैल जाती है. वही 'मूर्ति' अब अख़बार के साथ, खुद को ढोने का आदी हो गया है, थोड़ा देर से ही, पर अख़बार पहुंचाता है, दरवाजे की कुण्डी में टाँग जाता है. जिस दौर से वह अख़बार वाला गुज़रा है, वह दौर हम पढ़ने वाले भी जीकर आए है उन अख़बारों को पढ़ते पढ़ते. पर पिछले दो साल से उस इंसान को, उसके चेहरे की जर्जराती लकीरों को, उसकी सुस्त चाल को पढ़ती हूँ यह तो आप बीती है, आईने के सामने रूबरू होते है पर कहा खुद को भी देख पाते हैं, पहचान पाते हैं. बस वक़्त मुस्कुराता रहता है हमारी जवानी को जाते हुए और बुढ़ापे को आते हुए देखकर.


और मैं वहीं चाय का कप हाथ में लेकर सोचती हूँ, क्या यही जिंदगी है्? हाँ अजब है यह जिंदगी, खुद तो जीती है, पर वो हुनर उस अख़बरवाले मूर्ति को न सिखा पाई. उससे आज भी बोझ उठवाती है, उसकी कंपकपाते हड्डयों पर ज़्यादा बोझ डलवाती है, घरों की मंज़िलों तक का सफर तय करवाती है और धीरे धीरे वह दिखाई देता है मेरी खिड़की के सामने वाली सीड़ी से उतरता हुआ अख़बार वाला मूर्ति, जिसकी जिंदगी को हम शायद पल दो पल रुककर अख़बार के पन्नों की तरह कभी पढ़ न पाए. मैने पीछे पलटते हुए देखा है, इन अख़बारों को रद्दी में जाते हुए, आदमी पुराना फिर भी रोज़ नया अख़बार ले आता है.


देवी नागरानी

03 अक्तूबर 2010

गाँधी जी का डंडा

कालेज में गाँधी जयंती का कार्यक्रम चल रहा था ।एक पुराने बुजुर्ग सदस्य एक बड़ा सा डंडा लेकर उसके सहारे चलते हुए आये । वाह डंडा क्या था ,उनके कद से एक फिट ऊंची एक नक्काशीदार लाठी थी । लोगों ने मजाक किया की गाँधी जी का डंडा लाये हैं आप । यह तो बहुत बड़ा है ।उन्होंने कहा कि अगर आज गाँधी जी जिन्दा होते तो इतना बड़ा डंडा लेकर ही उन्हें चलना पड़ता तभी लोग उनकी बात सुनते । बात छोटी सी थी थी पर सोचने पर विवश कर गयी । आज डंडे कि भाषा ही जल्दी समझ में आती है आदमी को । कथनी -करनी में अंतर न हो ,यह बात गाँधी ने कही थी पर कौन उसे अपनाना चाहता है ? गाँधी को तो अप्रासंगिक मानते हैं हम लोग

जेब में हैं गाँधी जी .

गाँधी जयंती पर आज हमारे शहर में एक कार्यक्रम गांधीजी के दुर्लभ चित्रों की प्रदर्शनी के रूप में हुआ । प्रदर्शनी नगर के एक संग्रहालय ने लगाई थी जो कि आयोजकों के समर्पण और कड़ी मेहनत का परिणाम थी । इसका उदघाटन प्रदेश सरकार के एक मंत्री ने किया। मंत्री जी कभी आर० एस ० एस ० के कार्यकर्ता रहे थे , अब बसपा के ब्राहमण कार्ड के बदौलत बसपा सरकार में मंत्री हैं । आर ० एस ० एस ० और बसपा दोनों के गाँधी जी के कितने प्रखर आलोचक रहे हैं ,यह सभी को पता है । कार्यक्रम के इस विरोधाभासी पक्ष पर कितने लोगों का ध्यान गया यह पता नहीं पर जब मुख्य अतिथि प्रदर्शनी का अवलोकन कर रहे थे उस समय आयोजन करने वाली संस्था के एक कार्यकर्त्ता ने मंत्री को समझाया कि गाँधी जी हमारे देश में इतने लोकप्रिय हैं कि हमारी जेब में रहते हैं। शायद उनका आशय नोटों पर छपे गाँधी जीके चित्र से था। यह सुन कर प्रदर्शनी देख रहे एक दर्शक ने टिप्पणी कि हमारा दुर्भाग्य है कि हमने गांधीजी को जेब में बंद कर रखा है ,आवश्यकता उन्हें जेब से निकल कर उनके कृतित्व से कुछ सीखने की है ।

02 अक्तूबर 2010

विभिन्न धर्मों के लोगों में से एक इंसान की आवाज़....!!



                   पिछले दो दिनों से सोच रहा हूँ कि इस विषय पर लिखूं कि ना लिखूं....ऐसा यह विषय,जो शोध का है,पुरातत्व का है,इतिहास का है,वर्तमान का है,भविष्य का है,आस्था का है,कर्तव्य का है,दायित्व का है,भाईचारे का है,बड़प्पन का है,सौहार्द का है,धर्म का है,देश की शान्ति का है,आपस में मिलकर रहने का है....और हम चाहें तो यह अब न भूतो ना भविष्यति वाली मिसाल का भी हो सकता है...मगर अहम भला ऐसा क्यूँ होने देंगे...!!पांच-सौ साल से लटके हुए एक मुद्दे पर किसी कोर्ट ने एक फैसला दे दिया है.....जिसके लिए उसने हज़ारों तरह के साक्ष्य,पुरातात्विक प्रमाण,गवाहियां और ना जाने क्या-क्या कुछ देखा है,समझा है...इस प्रकार एक किस्म का गहनतम शोध किया है हमारे न्यायाधीशों ने इस विषय पर...और तब ही उन्होंने आने वाले भविष्य को ध्यान में रखते हुए...भारतीय-जनमानस और उसकी हठ-धर्मिता की संभावना को भांपकर यह फैसला लिया है....कभी-कभी क़ानून भी परिस्थितियों के मद्देनज़र फैसला लिया करता है...बेशक आप उसे गलत ठहरा दें...मगर जो मामला आप उसके पास ले जाते हैं....जरूरी नहीं कि उसमें क़ानून की बारीकियां ठीक उसी तरह काम करें...जिस तरह वो अन्य भौतिक मामलों में काम करती हैं...और अगर ऐसा ही आसान मामला आप इस राम-जन्म-भूमि मामले को समझते हो तो आपको गरज ही क्या थी इसे कोर्ट ले जाने कि...और आपने अगरचे कहा था कि आप कोर्ट का कोई फैसला आये उसे मानने के लिए बाध्य होगे....तो अब क्या सुप्रीम-कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट की रट लगा रहे आप....??
                   सबसे पहली बात तो यह कि जिन लोगों का यह कहना है कि यह फैसला आस्था के आधार पर दिया गया है...उनसे कुछ बिन्दुओं पर दृष्टि डालने पर जोर दूंगा(१)हम सब अपने लिखित और अलिखित इतिहास से यह जानते हैं कि हिन्दुओं के आराध्य भगवान् राम का जन्म अयोध्या में हुआ है...और हमारे सारे पौराणिक ग्रन्थ इस बात की तस्दीक करते हैं...भले आप धर्म-निरक्षेप-वादियों और अन्य धर्मावलम्बियों की दृष्टि में एक मज़ाक हो,थेथरई हो,हठ-धर्मिता हो,या बेबुनियाद आस्था ही हो,जो भी हो...मगर एक मात्र सत्य तो आपको मानना ही पडेगा कि अयोध्या ही भगवान् श्री रामचंद्र जी की जन्म-भूमि थी और चूँकि थी,इसीलिए है और रहेगी...और यह भी सच है यह भूमि अयोध्या के किसी और स्थान पर नहीं मानी जाती इसीलिए अवश्य ही यही रही होगी...अगर राम जी पता होता कि भविष्य में किसी गैर-धर्मावलम्बी द्वारा हथिया कर या फिर स्वयं नष्ट होकर ऍन उसी जगह पर किसी मस्जिद के रूप में निर्मित हो जाने वाली है तो शायद उन्होंने उस जगह का चुनाव संभवतः नहीं ही किया होता....किन्तु अब चूँकि पहली गलती राम से ही हो चुकी...सो उसका परिणाम तो उनके वंशजों को भुगतना ही ठहरा....(२)मेरे प्यारे-प्यारे पढ़े-लिखे सम्मानीय भाईयों और बंधू-बांधवों...अब चूँकि अयोध्या नामक उस जगह पर राम जी जन्मस्थान का कोई और क्षेत्र भारतीयों द्वारा कभी निर्धारित ही नहीं किया जा सका इसीलिए यह मानना भी हमारी विवशता ही होगी कि दुर्भाग्यवश श्री राम जी ने वहीँ जन्म लिया....अब चूँकि श्री राम जी ने किसी झोपड़ी में जन्म ना लेकर एक राजा के महल में जन्म लिया था...तो इससे कम-से-कम यह भी तय है कि वह राजमहल कई एकड़ जमीन पर फैला हुआ होगा....सो यह भी तय हुआ कि आज की तारीख में तो क्या उस समय का भी उसका कोई नक्शा अब तक किसी के पास होने से ठहरा...अब चूँकि नक्शा ही नहीं है तो एकदम से यह नहीं बताया जा सकता कि वह कौन सा बिन्दु था जहां श्री राम जी जन्म लिया होगा....!!!
                     मगर अबे मेरे बाप-दादाओं....और तमाम सम्मानित लोगों ,अगर यह तय ही है कि अयोध्या ही राम का जन्म-स्थान है....और भले ही मान्यतावश यह माना जाता है कि वही स्थान राम का जन्मस्थान हो सकता है,चूँकि कोई और स्थान की डिमांड यहाँ नहीं हो रही...और जिस पर कालान्तर में ताकत द्वारा कब्जा कर लिया गया.....जो भी हो यहाँ यह कहना भी बात को असंगत मोड़ देना हो जाएगा... क्योंकि जैसा कि हम जानते हैं कि विगत इतिहास में मुगलों द्वारा भारतीयों पर किसी किस्म का अत्याचार-शोषण आदि नहीं हुआ था और उस काल में हम सब मिलजुल कर रहते थे....और मुग़ल इतने सहिष्णु हुआ करते थे कि उन्होंने मंदिर तोड़ना तो दूर....अपितु हमें मंदिर बनवा-बनवा कर दान में दिए थे...छोड़िए,यह भी  विषयांतर हो जाएगा...तो अब चूँकि राम-लला वहीँ के थे,हैं,और रहेंगे....तो भईया लोगों इसमें आस्था का क्या सवाल है...!!.अब हमारा इतिहास हमेशा से लिखित इतिहास नहीं रहा तो क्या यह कोई पाप हो गया...??हमारा कोई आराध्य पूर्वज हजारों-हजार साल पहले होकर चला गया,अपना बिना कोई लिखित विवरण दिए....तो इसमें उसका या हमारा कोई अपराध है...?? अ
                    हम फिर से उसी बात आते हैं....!!अब अगर कोई महल है तो उसके फैले हुए क्षेत्रफल में कहाँ से कहाँ तक किस-किस तरह के प्रकोष्ठ...शयन-कक्ष या किन्हीं अन्य तरह के कक्ष रहें होंगे....इस बात की तस्दीक अब कौन करेगा...बुखारी जी,जिलानी जी,मोहन भागवत जी,आडवाणी जी,मुलायम जी या जस्टिस श्री शर्मा जी,अग्रवाल जी या कि खान साहेब जी....कौन करेगा इस बात की तस्दीक....??और चूँकि हम सब यह जानते हैं कि इसे सही तरह से साबित ही नहीं किया जा सकता...तो इस पर किसी भी तरह का सवाल उठाने का अधिकार ना तो हममे से किसी का था....और ना किसी जस्टिस के फैसले का सवाल ही था...और जब यह दोनों ही बातें थीं....तो इस पर दे दिए गए किसी भी किस्म के फैसले पर सवाल उठाने या आक्षेप करने का अधिकार किसी भी किस्म की ताकत को होना चाहिए !!
                   ध्यान रहे यह सबको कि यह बात कोई एक हिन्दू नहीं कह रहा....हमारा किसी भी जात या धर्म  का होना या ना होना एक संयोग मात्र है...इसे हमें अपनी मानवीयता पर किसी भी कीमत पर हावी नहीं होना देना चाहिए...इस धरतीं पर राम जी कृपा से हर एक कौम का अपना एक मुख्य काबा....या जो भी कुछ है...उसमें अगर एक काबा हिन्दू का भी हो जाए तो उसमें किसी का क्या बिगड़ता है....सिर्फ यह बात भी हम सब सोच लें तो बात बन सकती है....वरना सदियों से हमने अपने धर्म को फैलाने के लिए कोई कम खुनी लड़ाईयां नहीं खेली हैं....अगर धर्म का नाम किसी के खून से होली ही खेलना है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना....मगर अगर सच में हममें मानवीयता नाम की कोई चीज़ अगर बची हुई है तो इस फैसले को शिरोधार्य कर ही लेना चाहिए....खुदा-ना-खास्ता अगर सुप्रीम-कोर्ट में यही बात साबित हो गयी कि हाँ यही राम-लला का जन्म-स्थान है....तब....या इसका उलटा ही साबित हो गया....तब.....तब कौन सा भाईचारा बचा रह पायेगा....तब या तो यह होगा और या तो वह....और दोनों ही स्थिति में......मैं इस पर कुछ कहना नहीं चाहूँगा...किन्तु मैं हिन्दू ना भी होता तो इस आस्था....श्रद्धा के इस घनीभूत केंद्र पर लोगों की अपने प्रभु-दर्शन को प्यासी आँखें देखकर उसे उनलोगों को ही समर्पित कर डालता....यहाँ तो बाकायदा हजार साल चली आ रही श्रद्धा है....और क्या मजाक है कि आप इसे बेबुनियाद या इसी टाईप की कुछ चीज़ बताये जाते हो....??
                         दोस्तों इस फैसले में अगर आस्था नाम की चीज़ का अंश है भी तो आप मुझे यह तो बताईये....कि ऐसे सवाल उठाने वाले खुद क्या आस्थावान नहीं हैं....वो किस तरह के फैसले देते......या ऐसे अहम् और जन-मानस को झकझोर देने वाले प्रश्न पर अपना क्या स्टैंड रखते....और अगर वो किसी भी पक्ष की आस्था से प्रेरित हुए होते तो किस प्रकार के फैसले लेते....और आस्थावान ही ना हुए होते तो भला फैला ही क्या दे पाते....कभी-कभी क़ानून की रक्षा करने से बेहतर आदमी की, आदमियत की,और आदमी के भीतर अन्य चीज़ों की रक्षा करना होता है....और यह सब होता है आदमी को आदमी के साथ मिलजुल कर रहने देने के लिए.... वरना क़ानून तो क़ानून है.....वो किसी को भी कहीं से भी बेदखल कर कर सकता है....सच (या झूठ की भी ??)की बुनियाद पर...अगर वहां से राम लला बेदखल हो सकते है तो मीर बांकी या बाबर भी....महत्वपूर्ण यह है कि आप किसे आदमी के जीवन के लिए महत्वपूर्ण मानते हो....बाबर को....या राम को....चाहे आप किसी भी धर्म के क्यों ना हों...!!(....यहाँ किसी छोटा या बड़ा सिद्ध नहीं किया जा रहा,सिर्फ जीवन में आस्था के प्रश्न का औचित्य बताया जा रहा है...)हो सकता है एक बहुत बड़े वर्ग की दृष्टि में कोई बाबर या कोई मीर बांकी ,किसी दूसरी कौम के पूज्य आराध्य देव राम से ज्यादा इम्पोर्टेंट हों.....मगर इससे राम की महत्ता गिर नहीं जाएगी...और अगर राम का ना नाम लेकर यह जमीन किसी ने मस्जिद को सौंप भी दिया तो कोई बड़ा भाईचारा स्थापित नहीं हो जाएगा....भाईचारा अब किस बात में है....इस फैसले का आधार अब कोर्ट ने तैयार कर दिया है....इसे समझना अब हमारा काम है....और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बेशक आप सब बहुत बड़े तत्व-ज्ञानी हो सकते हो.... भले तीनो माननीय जजों से से बुद्धिमान भी हो सकते हो....मगर आप राम से बड़े हों....तो ले जाईये भगवान् राम को घसीट कर सुप्रीम कोर्ट और कर दीजिये उनके आदर्शों की ऐसी की तैसी.....मर्यादा तो खैर आपमें कभी थी ही नहीं....!!!