ग़ज़ल - १
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बेताबियों को हद से ज़िआदा बढ़ा गया
पिछ्ला पहर था रात को कोई जगा गया
मेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब में ये कौन आ गया
दीपक मुहब्बतों के हज़ारों जला गया
कुछ इस तरह से आया अचानक वो सामने
मुझको झलक जमाल की अपने दिखा गया
इक आसमां में और भी हैं आसमां कई
मुझको हक़ीक़तों से वो वाकिफ़ करा गया
पलकें उठी तो उट्ठी ही देवी रहीं मेरी
झोंका हवा का पर्दा क्या उसका उठा गया
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ग़ज़ल - २
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तन के मकान में भले ही रह रहे हैं हम
उसका उधार क्या कभी लौटा सके हैं हम
यूँ यकबयक बरस पड़ी हमपे मुसीबतें
कुछ ऐसे उजड़े हैं कि न फिर बस सकें हैं हम
दीवार उठ गयी है जो घर - घर के दरमियाँ
तन्हाईयों में जैसे बसर कर रहे हैं हम
बिछड़े जो दर - दरीचों से मिलकर गले कभी
देखा जो दूर से उन्हें तो रो पड़े हैं हम
दीवारों में दबी हुई ऐ देवी सिसकियाँ
पदचाप उनकी साँसों में सुनते रहे हैं हम
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देवी नागरानी
मुम्बई