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27 जून 2011

माँ जो चाहे तुमसे प्यारे वही काम तुम करना.

जीवन में गर चाहो बढ़ना,

माँ की पूजा करना.

माँ जो चाहे तुमसे प्यारे,

वही काम तुम करना.

माँ के आशीर्वाद को पाकर,

जब तुम कहीं भी जाओगे.

मनमाफिक हो काम तुम्हारा,

खुशियाँ सारी पाओगे.

कोई काम करने से पहले माँ का कहा ही करना,

माँ जो चाहे तुमसे प्यारे वही काम तुम करना.


माँ ने ही सिखलाया हमको,

बड़ों की सेवा करना.

करनी पड़े मदद किसी की,

कभी न पीछे हटना.

करो सहायता यदि किसी की अहम् न इसका करना,

माँ जो चाहे तुमसे प्यारे वही काम तुम करना.

शालिनी कौशिक

01 जून 2011

माँ को शीश नवाना है.


होगा जब भगवान् से मिलना हमें यही तब कहना है,

नमन तुम्हे करने से पहले माँ को शीश नवाना है.


माँ ने ही सिखलाया हमको प्रभु को हर पल याद करो,

मानव जीवन दिया है तुमको इसका धन्यवाद् करो.

माँ से ही जाना है हमने क्या क्या तुमसे कहना है,

नमन तुम्हे करने से पहले माँ को शीश नवाना है.


जीवन की कठिनाइयों को गर तुम्हे पार कर जाना है ,

प्रभु के आगे काम के पहले बाद में सर ये झुकाना है.

शिक्षा माँ की है ये हमको तुमको ही अपनाना है,

नमन तुम्हे करने से पहले माँ को शीश नवाना है.


माँ कहती है एक बार गर प्रभु के प्रिय बन जाओगे,

इस धरती पर चहुँ दिशा में बेटा नाम कमाओगे.

तुमसे मिलवाया है माँ ने इसीलिए ये कहना है,

नमन तुम्हे करने से पहले माँ को शीश नवाना है.

शालिनी कौशिक

11 मई 2011

अशोक जी की कविता -- बेटियाँ


ओस की बूंदों सी होती हैं बेटियाँ !

खुरदरा हो स्पर्श तो रोती हैं बेटियाँ !!


रौशन करेगा बेटा बस एक ही वंश को !

दो - दो कुलों की लाज ढोतीं हैं बेटियाँ !!


कोई नहीं है दोस्तों एक दुसरे से कम !

हीरा अगर है बेटा तो मोती है बेटियाँ !!


काँटों की राह पर खुद चलती रहेंगी !

औरों के लिए फूल ही बोती हैं बेटियाँ !!


विधि का है विधान या दुनिया की है रीत !

क्यों सबके लिए भार होती हैं बेटियाँ !!


धिक्कार है उन्हें जिन्हें बेटी बुरी लगे !

सबके लिए बस प्यार ही संजोती है बेटियाँ






Ashok jangra
Executive DraughtsMan(C)
Architecture Department,
ARCH CONSULTANT
Architect-Engineers,Int.Designers

04 मई 2011

दिव्या गुप्ता जैन की काव्य रचना

हर मील के पत्थर पे इबारत ये लिखा दो ,
नापाक इरादों को कभी मंजिल नहीं मिलती

खुदा के नाम पर कत्ले आम करने वालों को,
जन्नत तो क्या, दो गज जमीन भी नहीं मिलती,

ताउम्र वो करते रहे अपनी कौम को बदनाम,
फिर अपनी कौम से ही उनको मोहब्बत नहीं मिलती,

इस भ्रम वो जीते रहे की हो रहे है दे रहे बलिदान,
कत्ले-आम किसी भी धर्म की सीरत नहीं होती!!!!!

-दिव्या गुप्ता जैन (4th May, 2011)

24 अप्रैल 2011

उचित निर्णय युक्त बनाना

जो बनते हैं सबके अपने,

निशदिन दिखाते हैं नए सपने,

ऊपर-ऊपर प्रेम दिखाते,

भीतर सबका चैन चुराते,

ये लोगों को हरदम लूटते रहते हैं,

तब भी उनके प्रिय बने रहते हैं.

ये करते हैं झूठे वादे,

भले नहीं इनके इरादे,

ये जीवन में जो भी पाते,

किसी को ठग के या फिर सताके,

ये देश को बिलकुल खोखला कर देते हैं ,

इस पर भी लोग इन पर जान छिड़कते हैं.

जब तक ऐसी जनता है,

तब तक ऐसे नेता हैं,

जिस दिन लोग जाग जायेंगे,

ऐसे नेता भाग जायेंगे,

अब यदि चाहो इन्हें हटाना,

चाहो उन्नत देश बनाना,

सबसे पहले अपने मन को,

उचित निर्णय युक्त बनाना.

shalini kaushik


27 मार्च 2011

क्या देखे यही सपने?

एक प्रश्न करती है
मुझसे मेरी आत्मा

क्या ऐसे ही जीवन की

की थी तुमने कल्पना?

सोच में पड़ गयी

समझ न पाई
न जाना
बचपन में खेले पढ़े
और देखे सपने

पर क्या हुए वे अपने?

बड़े हुए फिर चाहा

और बड़े बन जाना

पर सच्चे पथ से डिगने को

अपना मन न माना

देखा जब पीछे मुड़कर

ठिठके हम खड़े थे

उन्नति पथ पर
आगे को
हम तो नहीं बढे थे.

20 मार्च 2011

बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष" की हास्य कविता -- काव्य मंच पर होली

काव्य मंच पर होली

======================

काव्य मंच पर चढ़ी जो होली, कवि सारे हुरियाय गये,

एक मात्र जो कवयित्री थी, उसे देख बौराय गये,

एक कवि जो टुन्न था थोडा, ज्यादा ही बौराया था,

जाने कहाँ से मुंह अपना, काला करवा के आया था,

रस श्रृंगार का कवि गोरी की, काली जुल्फों में झूल गया,

देख कवयित्री के गाल गोरे, वह अपनी कविता भूल गया,

हास्य रस का कवि, गोरी को खूब हसानो चाह रहो,

हँसी तो फसी के चक्कर में, उसे फसानो चाह रहो,

व्यंग्य रस के कवि कि नजरे, शुरू से ही कुछ तिरछी थी,

गोरी के कारे - कजरारे, नैनों में ही उलझी थी,

करुण रस के कवि ने भी, घडियाली अश्रु बहाए,

टूटे दिल के टुकड़े, गोरी को खूब दिखाए,

वीर रस का कवि भी उस दिन, ज्यादा ही गरमाया था,

गोरी के सम्मुख वह भी, गला फाड़ चिल्लाया था,

रौद्र रूप को देख के उसके, सब श्रोता घबडाय गये,

छोड़ बीच में में सम्मलेन, आधे तो घर भाग गए ,

बहुत देर के बाद में, कवयित्री की बारी आई,

प्रणाम करते हुए, उसने कहा मेरे प्रिय कविभाई’,

सुन ‘भाई’ का संबोधन, कवियों की ठंडी हुई ठंडाई,

संयोजक के मन - सागर में भी, सुनामी सी आई,

कटता पत्ता देख के अपना, संयोजक भी गुस्साय गया,

सारे लिफाफे लेकर वो तो, अपने घर को धाय गया ||

=================================

बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
206, टाइप-2,
आई.आई.टी.,कानपुर-208016, भारत

03 फ़रवरी 2011

हिन्द-युग्म Hindi Kavita: मुझको जग में आने दे माँ !

हिन्द-युग्म Hindi Kavita: मुझको जग में आने दे माँ !


पुरस्कृत कविता: मुझको जग में आने दे मां !

कोख में तेरी पड़ी पड़ी
सोच रही ये घड़ी-घड़ी
मैं कैसा जीवन पाऊँगी
जब दुनिया में मैं आऊँगी
क्या दूजे बच्चों की मानिंद
मैं भी खेलूँगी, खाऊँगी
या तेरी तरह मेरी जननी
जीवन भर धक्के पाऊँगी
ग़र तू भी साथ नहीं देगी
तो बोल कहाँ मैं जाऊँगी
क्यों ऐसा होता आया है
कन्या ने जन्म जब पाया है
जन्मदाता के माथे पर
चिंता का बादल छाया है
ग़र धरती पर मैं बोझ हूँ माँ
क्यों ईश्वर ने मुझे बनाया है
फिर दुनिया में आने से पहले
क्यों तूने मुझे मिटाया है
मुझको आजमाने से पहले
वजूद मेरा झुठलाया है
मैं हाड-माँस की पुतली हूँ
कुछ मेरी भी अभिलाषा है
सब की भाँति इस दुनिया में
जीने की मुझे भी आशा है
कुछ मुझमें भी तो क्षमता है
इस जग को दिखलाने दे माँ
खुद को साबित करने को
मुझको इस जग में आने दे माँ
पर सबसे पहले मेरी माँ
मुझ पर विश्वास ज़रूरी है
उससे भी पहले जननी मेरी
खुद पर विश्वास ज़रूरी है
ग़र जन्म नहीं मैं पाऊँगी
क्या साबित कर दिखलाऊँगी
इस जग को कुछ दिखलाना है
मुझको इस जग में आना है
मुझको जग में आने दे मां !
मुझको जग में आने दे माँ !!

16 जनवरी 2011

तभी नाम ये रह जायेगा....


जीवन था मेरा बहुत ही सुन्दर,
भरा था सारी खुशियों से घर,
पर ना जाने क्या हो गया
कहाँ से बस गया आकर ये डर.
पहले जीवन जीने का डर,
उस पर खाने-पीने का डर,
पर सबसे बढ़कर जो देखूं मैं
लगा है पीछे मरने का डर.
सब कहते हैं यहाँ पर आकर,
भले ही भटको जाकर दर-दर,
इक दिन सबको जाना ही है
यहाँ पर सर्वस्व छोड़कर.
ये सब कुछतो मैं भी जानूं,
पर मन चाहे मैं ना मानूं,
होता होगा सबके संग ये
मैं तो मौत को और पर टालूँ.
हर कोई है यही सोचता,
मैं हूँ इस जग में अनोखा,
कोई नहीं कर पाया है ये
पर मैं दूंगा मौत को धोखा.
फिर भी देखो प्रिये इस जग में जो भी आया है जायेगा,
इसलिए भले काम तुम कर लो तभी नाम ये रह जायेगा.

15 जनवरी 2011

नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा --संजीव 'सलिल'

नवगीत:


गीत का बनकर / विषय जाड़ा

--संजीव 'सलिल'

*

गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...
*
कोहरे से

गले मिलते भाव.

निर्मला हैं

बिम्ब के

नव ताव..

शिल्प पर शैदा

हुई रजनी-

रवि विमल

सम्मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
फूल-पत्तों पर

जमी है ओस.

घास पाले को

रही है कोस.

हौसला सज्जन

झुकाए सिर-

मानसी का

मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
नमन पूनम को

करे गिरि-व्योम.

शारदा निर्मल,

निनादित ॐ.

नर्मदा का ओज

देख मनोज-

'सलिल' संग

गुणगान करता है...

*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

'सलिल' क्यों

अभिमान करता है?...

******

12 जनवरी 2011

नीता पोरवाल की कविता --- ऐसा क्यूँ है...

आज
फिर
भोर की लाली
मंद क्यूँ है ?


क्षितिज पर
सूरज
भी चेहरा
छुपाता क्यूँ है ?

पंछियों का
कलरव भी
सहमा - सहमा सा
क्यूँ है ?

शायद
कुछ लाचार बूढों ने
आसमान तले ठिठुर कर
दम तोड़ा होगा कहीं

शायद
कुछ नन्हे कन्धों पर
आ गया होगा फिर
कबाड़ बीनने का बोरा कहीं

शायद
कोई पगली
शिकार हुई होगी
फिर किसी
दरिंदगी की कहीं

हाँ
शायद
इसी लिए
प्रकृति भी शर्मिन्दा
बैठी होगी कहीं ॥

10 जनवरी 2011

कन्या भ्रूण हत्या को मना कीजिये

वो कली जब गोद आई ,
साँस थी महक गयी ,
धीरे से जब मुस्कुराई ;
मोती से झोली भर गयी ,
'माँ' कहा उसने मुझे ;
मुझको तो जन्नत मिल गयी ,
उंगली पकड़ कर जब चली;
खुशिया ही खुशिया छा गयी ,
है मुझे गर्व खुद पर ;
था लिया निर्णय सही ,
भ्रूण हत्या को किया था ;
द्रढ़ता से मैंने नहीं,
जो कही कमजोर पड़कर
दुष्कर्म मै ये कर जाती ,
फिरकहाँ नन्ही कली
कैसे मेरे घर खिल पाती ,
ये महकेगी ,ये चहकेगी ,
सारे घर की रौनक होगी ,
मेरी बिटिया की किलकारी
पूरी दुनिया में गूंजेगी .

07 जनवरी 2011

शालिनी कौशिक की कविता -- जैसे को तैसा

कविता -- जैसे को तैसा
====================

बहुत खुश होते हैं मुझसे जलने वाले
मेरा थोडा दुःख देखकर,
बहुत मित्र बनते हैं मुझसे जलने वाले
मेरा कोई शत्रु देखकर,
हैं नादाँ वे सब,हैं अंजान वे सब,
नहीं जानते अब तक कुछ भी यहाँ
किसी के भी सुख से ,किसी के भी दुःख से
किसी को भी मिलता है सुख-दुःख कहाँ,
क्या मैंने जो खोया,क्या उनको मिल पाया,
क्या मैंने जो पाया,क्या उनका छिन पाया,
यही सब वे सोचें,
यही सब वे जानें,
क्यों खुश हो रहे हैं वे मेरे बहाने,
क्यों ना इन क्षणों को कुछ करके बिताएँ
क्यों देते खुश होकर मुझे तुम दुआएँ
नहीं चाहती मैं अब कुछ भी तुमसे,
भले मनाओ खुशियाँ भले करलो जलसे,
तुम सबकी असलियत जानी मैं जबसे ,
है दिल में तो चाहत मेरी यही तबसे,
जैसा तुमने किया है वैसा ही तुम सब पाओ,
इसलिए करती जाओ ऐसा ताकि ऐसा फल भी खाओ.

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Shalini Kaushik advocate

29 दिसंबर 2010

नीता पोरवाल की कविता -- ये ख्वाइश क्यूँ हैं....

ये ख्वाइश क्यूँ हैं....
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आज फिर ये वावरी पलके नम क्यू है
सावन की बदरी सी झरती
नन्ही बूंदों को चुन - चुन के हथेली पे सजाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तपती- दुपहरी वीरान- राहें
बेकल पंछी से भटकते तन को छाँव बन के आये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तेज़ हवाएं तूफानी मौजें
भंवर में डोलती कश्ती से मन को साहिल तक ले जाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

महसूस की उनकी मौजूदगी हर ज़र्रे में हमने
अब मुझे भी मेरे होने का अहसास दिलाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

गर वादा किया तो साथ निभाया भी हमने
दो कदम मेरे भी साथ चल कर दिखाए कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तेरी यादों के चरागों को हर पल रोशन रखा हमने
अब मेरे अंधियारे दिल में भी चराग जलाए कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तेरी बेरुखी को भी ग़ज़ल सा गुनगुनाया हम ने
अब नीता के बेसुरे गीत भी गुनगुनाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

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नीता पोरवाल

27 दिसंबर 2010

नीता पोरवाल की काव्य-रचना --- दिल करता है

कुछ देखना जो चाहूँ तो धुंधला जाती है आँखे
आज क्यूँ बहुत ..हाँ बहुत रोने को दिल करता है

कुछ लिखना जो चाहूँ तो अलफ़ाज़ नहीं मिलते
आसुओं को ही जुबान बनाने को दिल करता है

हर पल बढ़ती ये बेचैनी....ये दीवानगी.. ये पागलपन
आज किसी की आरजू में फना हो जाने को दिल करता है

वो न समझे थे ना समझेंगे खामोशियों की जुबान
शायद कभी समझेंगे ये झूठा गुमान रखने को दिल करता है

लम्हा -लम्हा , हर लम्हा साथ तो निभाया है इन आसुओं ने
तो अब इन आसुओं को ही हमसाज़ बनाने को दिल करता है

----------------------------
नीता पोरवाल

21 दिसंबर 2010

महेंद्रभटनागर की कविताएँ

महेंद्रभटनागर की कविताएँ

कला-साधना

हर हृदय में

स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ

कला की साधना है इसलिए !

गीत गाओ

मोम में पाषाण बदलेगा,

तप्त मरुथल में

तरल रस ज्वार मचलेगा !

गीत गाओ

शांत झंझावात होगा,

रात का साया

सुनहरा प्रात होगा !

गीत गाओ

मृत्यु की सुनसान घाटी में

नया जीवन-विहंगम चहचहाएगा !

मूक रोदन भी चकित हो

ज्योत्स्ना-सा मुसकराएगा !

हर हृदय में

जगमगाए दीप

महके मधु-सुरिभ चंदन

कला की अर्चना है इसलिए !

गीत गाओ

स्वर्ग से सुंदर धरा होगी,

दूर मानव से जरा होगी,

देव होगा नर,

व नारी अप्सरा होगी !

गीत गाओ

त्रास्त जीवन में

सरस मधुमास आ जाए,

डाल पर, हर फूल पर

उल्लास छा जाए !

पुतलियों को

स्वप्न की सौगात आए !

गीत गाओ

विश्व-व्यापी तार पर झंकार कर !

प्रत्येक मानस डोल जाए

प्यार के अनमोल स्वर पर !

हर मनुज में

बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत

कला की कामना है इसलिए

===================================

कविता-प्रार्थना

आदमी को

आदमी से जोड़ने वाली,

क्रूर हिंसक भावनाओं की

उमड़ती आँधियों को

मोड़ने वाली,

उनके प्रखर

अंधे वेग को आवेग को

बढ़

तोड़ने वाली

सबल कविता

ऋचा है, / इबादत है !

उसके स्वर

मुक्त गूँजें आसमानों में,

उसके अर्थ ध्वनित हों

सहज निश्छल

मधुर रागों भरे

अन्तर-उफ़ानों में !

आदमी को

आदमी से प्यार हो,

सारा विश्व ही

उसका निजी परिवार हो !

हमारी यह

बहुमूल्य वैचारिक विरासत है !

महत्

इस मानसिकता से

रची कविता

ऋचा है, इबादत है !

===============================

प्रतीक्षक

अभावों का मरुस्थल

लहलहा जाये,

नये भावों भरा जीवन

पुनः पाये,

प्रबल आवेगवाही

गीत गाने दो !

गहरे अँधेरे के शिखर

ढहते चले जाएँ,

उजाले की पताकाएँ

धरा के वक्ष पर

सर्वत्रा लहराएँ,

सजल संवेदना का दीप

हर उर में जलाने दो !

गीत गाने दो !

अनेकों संकटों से युक्त राहें

मुक्त होंगी,

हर तरफ़ से

वृत्त टूटेगा

कँटीले तार का

विद्युत भरे प्रतिरोधकों का,

प्राण-हर विस्तार का !

उत्कीर्ण ऊर्जस्वान

मानस-भूमि पर

विश्वास के अंकुर

जमाने दो !

गीत गाने दो !

==============================

22 नवंबर 2010

गीत: स्वीकार है..... संजीव 'सलिल'

गीत:

स्वीकार है.....

संजीव 'सलिल'
*
दैव! जब जैसा करोगे
सब मुझे स्वीकार है.....
*
सृष्टिकर्ता!
तुम्हीं ने तन-मन सृजा,
शत-शत नमन.
शब्द, अक्षर, लिपि, कलमदाता
नमन शंकर-सुवन
वाग्देवी शारदा माँ! शक्ति दें
हो शुभ सृजन.
लगन-निष्ठा, परिश्रम पाथेय
प्रभु-उपहार है.....
*
जो अगम है, वह सुगम हो
यही अपनी चाहना.
जो रहा अज्ञेय, वह हो ज्ञेय
इतनी कामना.
मलिन ना हों रहें निर्मल
तन, वचन, मन, भावना.
शुभ-अशुभ, सुख-दुःख मिला जो
वही अंगीकार है.....
*
धूप हो या छाँव दोनों में
तुम्हारी छवि दिखी.
जो उदय हो-अस्त हो, यह
नियति भी तुमने लिखी.
नयन मूदें तो दिखी, खोले नयन
छवि अनदिखी.
अजब फितरत, मिला नफरत में
'सलिल' को प्यार है.....
*****

21 नवंबर 2010

जोगेन्द्र सिंह की कविता -- कुहुक

कुहुक

=================


गूँज उठी

चिर प्रतीक्षित कुहुक ...

घुल गया शहद -सा ..

हूँ ..! पहचाना स्वाद !

या कोई फंतासी मन की ?

याद है अपना बचपन मुझे ....

तब तुम कोलरिज की कुबलाई खान थीं ....!

थीं एक जीती-जागती अमराई के

स्वादु आम की

पकी मिठास !

डाली-डाली

फुदक-फुदक

करतीं संगीत समारोह ...

जाने कितनी रामलीलाएं भी फीकी थीं !

फिर पाना हमारी प्रशंसा ..

और गर्विता का

मंद होते नीलाभ आकाश से

धूप की नमी बीच

कहीं सांध्य के झुरमुट से

दीठना ..

और एक ठुमके के साथ

कुहू-कुहू की डोर में बंधी पतंग का

आकाश में उड़ना ....

मैं भी उड़ जाता संग तुम्हारे ...!

सुधियों के झरोखे से

कुछ कनखियाँ लगाते

देखता हूँ खुद को ...

दो फुटी ऊंची मेड

कंधे तक आती कनक बालियाँ ..

रहट की घर्र-घर्र ...

और अचानक सर्र से गुज़र जाना

तुम्हारे संगीत का ..!

पर अब ?

तुम फंतासी हो ..

और मैं कठोर ज़मीन से चिपका

यथार्थ !

सोचता हूँ -

किस शहर

किस गाँव मिलोगी ...

या बिन मिले कुहुक के

कैसे पकेंगे आम ...

बेस्वाद ...हैं ...

मुँह को

कसैलेपन की आदत हो गयी है ....!

जोगेंद्र सिंह

20 नवंबर 2010

जोगेन्द्र सिंह की कविता -- बूढ़ा हूँ , पर अकेला नहीं

बूढ़ा हूँ , पर अकेला नहीं
=====================

दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l

अपने ही दायरों में
दिनभर सिमटते वृक्ष ...
अब सांझ के आँचल तले
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं ...l
चहचहाते कलरव करते खग ..
गर्दभ ध्वनि से भयभीत शावक ...
आगोश नहीं , पर लगता आगोश -सा ..
खागी का स्नेह भरा आभास चूज़ों से ...l

एक ओर खड़ा सब देख रहा हूँ ...
मुझ पर भी चढ़ा था कभी यह रंग ...
प्रकृति संग .. किया था रमण मैंने भी ..
अब जान पड़ता सब आघात सा ..l
ज़रिये जो थे वायस मेरी खुशियों के ..
चुभते हैं ह्रदय में अब ..
उन्हीं के होने से तीखे शूल से l
नज़ारे पहले भी थे ... मेरे चरों ओर ...
कुछ नहीं बदला ...
आलम अब भी वही है ...
गर कुछ बदला है ..
तो वह है अहसासात मेरे ...
न था कभी ...पर अब अकेला हूँ ...
निस्सहाय अब मौन खड़ा हूँ ..
सूख गयी है काया ..
मुक्त बंधन हो रह गया अकेला ...l
जर्जर काया में रमती जान ..
हाँ, अब बूढ़ा हूँ मैं ...
एक कमरे वाली छत ..
अब चूने लगी है .. बारिश के मौसम में ..l
उमड़-घुमड़ रही हैं अतीत की यादें ..
किसी कोने में पड़े... जर्जर मेरे मन में ..
जितने भी कहते मेरे अपने हैं ..
हैं नहीं....थे हो गए अब वो ...
पड़ा हूँ पीछे मर-खप जाने को ...l
दृश्य वही हैं ..सौन्दर्य वही हैं ...
बदल चुका मन अब वो मोह नहीं है ...
फिर से ...
दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l

स्वयं को खोकर स्वयं में खोजता ...
निर्निमेष निहारता ... बदस्तूर इन दृश्यों को ...
कि अब मैं अकेला हूँ .... निपट अकेला ..l
जुड़ने लगा है नाता ... टपकती बूंदों से ..
खटकते नहीं अब फूटे भांडे ...
दीमक लगी लकड़ी की खूँटी ....
संभालती है जो फटे कुरते को ...
अपनी सी अब लगने लगी है ..l
सालती थी जो बात अब तक ...
अपनी बन , नया नाता गढ़ने लगी है ..
शायद कभी अकेला था ही नहीं ..
इन्हें जान भर लेने की देरी थी ...l
निर्जीव नए संसार के साथ ...
हाँ, बूढ़ा हूँ ; पर अकेला नहीं ..
हाँ, अब मैं अकेला नहीं हूँ ....


जोगेंद्र सिंह
मुंबई

18 नवंबर 2010

डॉ0 महेन्द्र भटनागर की कविता -- ज़िन्दगी की शाम


ज़िन्दगी की शाम

[महेंद्रभटनागर]

यह उदासी से भरी मजबूर, बोझिल

ज़िन्दगी की शाम !

अपमानित, दुखी, बेचैन युग-उर की

तड़पती ज़िन्दगी की शाम !

मटमैले, तिमिर-आच्छन्न, धूमिल

नीलवर्णी क्षितिज पर

आहत, करुण, घायल, शिथिल

टूटे हुए कुछ पक्षियों के पंख प्रतिपल फड़फड़ाते !

नापते सीमा गगन की दूर,

जिनका हो गया तन चूर !

धुँधला चाँद शोभाहीन

कुछ सकुचा हुआ-सा झाँकता है,

हो गया मुखड़ा धरा को देखकर फीका,

सफ़ेदी से गया बीता,

कि हो आलोक से रीता !

गया रुक एक क्षण को राह में

सिर धुन पवन !

सम्मुख धरा पर देख जर्जर फूस की कुटियाँ

पड़ीं जो तोड़ती-सी दम,

घिरा जिनमें युगों का सघन-तम !

और जिनमें

हाँफ़ती-सी, टूटती-सी साँस का साथी

पड़ा है हड्डियों का ढेर-सा मानव,

बना शव !

मौनता जिसकी अखंडित,

धड़कता दुर्बल हृदय

अन्याय-अत्याचार के अगणित प्रहारों से दमित !

अभिशाप-ज्वाला का जला,

निर्मम व्यथा से जो दला

जिसको सदा मृत-नाश का परिचय मिला !

जो दुर्दशा का पात्र,

भागी कटु हलाहल-घूँट जीवन का,

मरण-अभिसार का

निर्जन भयानक पंथ का राही

थका, प्यासा, बुभुक्षित !

कह रहा है सृष्टि का कण-कण

मनुजता का पतन !

असहाय हो निरुपाय मानवता गिरी,

अवसाद के काले घने

अवसान को देते निमंत्रण

बादलों में मनु-मनुजता आ घिरी !

उद्यत हुआ मानव

बिना संकोच, जोकों-सा बना,

मानव रुधिर का पान करने !

क्रूरतम तसवीर है,

है क्रूरतम जिसकी हँसी

विष की बुझी !

पर, दब सकी क्या मुक्त मानवता ?

सजग जीवन सबल ?

यह दानवी-पंजा अभी पल में झुकेगा,

और मुड़ कर टूट जाएगा !

मनुजता क्रुद्ध हो जब उठ खड़ी होगी

दबा देगी गला

चाहे बना हो तेज़ छुरियों से !

सबल हुंकार से उसकी

सजग हो डोल जाएगी धरा,

जिस पर बना है

भव्य, वैभव-पूर्ण इकतरफ़ा महल

(पर, क्षीण, जर्जर और मरणोन्मुख !)

अभी लुंठित दिखेगा,

और हर पत्थर चटख कर

ध्वंस, बर्बरता, विषमता की कथा

युग को सुनाएगा !

जलियानवाला-बाग़-सम मृत-आत्माओं की

धरा पर लोटती है आबरू फिर;

क्योंकि गोली से भयंकर

फाड़ डाले हैं चरण

दृढ़ स्वाभिमानी शीश, उन्नत माथ !

जिन पर छा गयी

सर्वस्व के उत्सर्ग की अद्भुत शहीदी आग,

उसमें भस्म होगा, ध्वस्त होगा राज तेरा

ज़ुल्म का, अन्याय का पर्याय !

पर, यह ज़िन्दगी की शाम

अगणित अश्रु-मुक्ताओं भरी,

मानों कि जग-मुख पर गये छा ओस के कण !

चाहिए दिनकर कि जो आकर सुखा दे

पोंछ ले सारे अवनि के प्यार से आँसू सजल !

जिससे खिले भू त्रस्त

जीवन की चमक लेकर,

चमक ऐसी कि जिससे प्रज्वलित हों सब दिशाएँ,

जागरण हो,

जन-समुन्दर हर्ष-लहरों से सिहर कर गा उठे

अभिनव प्रभाती गान,

वेदों की ऋचाओं के सदृश !

बज उठे युग-मन मधुर वीणा

जिसे सुन, जग उठें सोयी हुईं जन-आत्माएँ !

और कवि का गीत

जीवन-कर्म की दृढ़ प्रेरणा दे,

प्राण को नव-शक्ति नूतन चेतना दे !

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