29 अप्रैल 2010

दिव्या गुप्ता जैन की कविता -- "बेटियाँ"

दिव्या गुप्ता जैन की कविता ......
ये रचनाएँ स्क्रेप के द्वारा प्राप्त हुईं हैं.

()

जीवन भर
सजाती हैं अपनों का संसार
''बेटियाँ!''
जाने क्यों?
लगती हैं भार

()

समय
असमय
रोप दी जाती हैं
अजानी माटी में,
धान की पौधकी तरह।


जलवायु
अनुकूल हो
याहो प्रतिकूल,
सम्भलना,
खिलना, और बिखरना
इनकी नियती होती है,
''बेटियाँ!''
जाने क्यों?
'अभागी'होती हैं!


()

पीढ़ी दर पीढ़ी,
'माँ'
ने सिखाया
बेटियों को
सिर्फ़ सहना।


दु: में भी,
सुख में भी,
खुश रहना।


अभावों को भी
समझन लेना
अपना 'सौभाग्य'


()

'माँ!
'तुमने क्यों नहीं सिखाया?
बेटी!
सच को सच,
झूठ को झूठ कहे।


दु: में भी,
सुख में भी,
तटस्थ रहे।


ससुराल और
मायके जैसे,
दो सशक्त
किनारों के
संरक्षण में,
'उन्मुक्त'
नदी की तरह बहे।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

28 अप्रैल 2010

लिखने वालों, सावधान....!!आगे खड्डा[गढ्ढा] है !!

लिखने वालों, सावधान....!!आगे खड्डा[गढ्ढा] है !!
.....कल मैं अपने रूम में बैठी हुई सोच रही थी कि सोचूं तो क्या सोचूं कि अचानक सामने वाले कोने से दो चूहे निकले और एक दूसरे के पीछे दौड़ने लगे...उनका छुपा-छुपी का खेल देखकर मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था.........और आखिरकार वो थक-कर एक ओर निढाल होकर पढ़ गए.....
ब्लागर एक :नाईस
ब्लागर दो :बेहद उम्दा
ब्लागर तीन :बेहतरीन प्रस्तुति
ब्लागर चार :बढ़िया लिखा है
ब्लागर पांच :ब्लागजगत में आपका स्वागत है
ब्लागर छः :बेहद अच्छी रचना,आभार
ब्लागर सात :अच्छा लिखती हो आप,कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लो[ताकि ऐसी उम्दा रचनाओं पर मैं बार-बार आकर आसानी से टिपिया सकूँ ]
ब्लागर आठ :........http:////..............................पे अवश्य पधारें
ब्लागर नौ :.........
ब्लागर दस :..........
अभी-अभी अटलांटा से लौटा हूँ मैं....बहुत थक गया हूँ मगर अपनी ट्रैवलिंग का एक्स्पिरिएन्स आप सबसे शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ ......आपको पता नहीं होगा शायद कि अटलांटा की बरफ एकदम सफ़ेद होती है,झकाझक सफ़ेद और ठोस भी........तो इस तरह बहुत ही रोमांचक रहा मेरा यह सफ़र कभी फुर्सत मिले तो आप भी अटलांटा हो आईये आपको भी बड़ा मज़ा आयेगा.....
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काली खिड़की पर एक हरा सांप रेंग रहा है
तितलियाँ हंस रही हैं/पर्दा हिल रहा है
लगता है कोई तनहा है और रो रहा है
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"अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथों में दे दिया
उसकी अम्मा ने मुझे मरने से बचा लिया
आज फिर वो बला की ख़ूबसूरत लग रही थी
आज फिर मैंने उसके गालों का चुम्मा लिया
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................लिखने वाले धडाधड पैदा होते जा रहे हैं.ब्लागर मंच एक ऐसी जगह हो गया है जहां ठेले वाला,रिक्शेवाला.रेजा,कुली,डॉक्टर,इंजीनियर,अफसर,नेता.
पी.एम्.,सी.एम्.,कलाकार आदि सब के सब एक मिनट के भीतर अपना ब्लाग बनाकर धायं-धायं अपना लेखन पेले जा रहा है,उस लेखन में चाहे वो अपनी योजनायें बताये...चाहे गिनती-पहाडा रटाये,चाहे अपनी दिनचर्या ही क्यूँ ना पढाये कि अपने शौच की प्रक्रिया ही बताने लगे.....मगर क्या है कि हिंदी-लेखन है ना...इससे हिंदी का भला जो होता है...मगर भैया तब तो फिर मस्तराम साहित्य से भी हिंदी का उतना ही भला होता है...बल्कि इसे पढने वाले तो ब्लागरों से निस्संदेह बहुत ज्यादा है....अब ये बात अलग है कि ऐसी हिंदी से हिंदी का क्या भला है यह भी अपन को समझ में आता नहीं...!!
ना व्याकरण,ना लिंग-निर्धारण,ना वचन-संगति,और ना किसी किस्म की "क्वालिटी"ही..............""रात हो गया था हमलोग एक साथ जा रहा था की तभी अँधेरी चंदनी[चांदनी] में /आसमानों में कईएक तारे एक साथ टीमटीमा रहा था कि एक चोर हमको मिले और उन्होंने हमसे सब कुछ को लुट लिया हम तबाह हो गए,बर्बाद हो गए....हम लौट रहे थे खाली हाथ,तलाब का पानी चमचम कर रहा था और उसमे मछलि दौड़ रहा था........ऐसा अद्भुत है यह हिंदी लेखन...जिसे पढ़कर अक्सर सर के बाल और रौंगटे तक खड़े हो जाते हैं....मगर क्या करूँ हिंदी की भलाई के लिए ऐसी ही हिंदी को पढने की विवशता हो गोया...और चिठ्ठाजगत के मेल के थ्रू जब तक मैं इन अद्भुत चिठ्ठों तक पहुँच पाता हूँ....तब तक मुझसे पहले दसियों लोग उपरोक्त टिप्पणियाँ चिपका कर चले जा चुके होते हैं.....
उम्दा-से-उम्दा चीज़ों पर भी नाईस,बेहतरीन,बढ़िया,वाह,सुन्दर....और कूड़े-से-कूड़े पर भी यही नाईस,उम्दा,बेहतरीन,सुन्दर.....यानि कि सब धान साढ़े बाईस पसेरी....और मज़े की बात तो यह है....कि बहुत से वाकई लाज़वाब-से ब्लागों पर कोई जाता तक नहीं...बेशक उनमें अद्भुत और जबरदस्त सामग्री क्यूँ ना हो....!!वहां गलती से तब कोई जाता है जब लिखने वाला खुद किसी ब्लॉग पर टिपिया कर लौटा हो....यह पैकेज-डील यानि कि लेने का देना वाला कारोबार चल रहा है ब्लॉगजगत में...!!हाँ मगर यह है कि ब्लॉगजगत में सभी प्रकार के लिक्खाडों का स्वागत यूँ होता है जैसे हमारी संसद या विधानसभाओं में किसी चोर,उच्चक्के,गुंडे या मवाली का....गोया कि सबसे बड़ा हरामखोर ही यहाँ का सबसे ज्यादा देश-प्रेमी हो !!
कार्य के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने के लिए एक न्यूनतम योग्यता....न्यूनतम अहर्ता की आवश्यकता होती है....मगर नेता और लेखक की योग्यता जितनी शून्य हो उतना ही गोया वह सफल व्यक्ति है.....!!यह स्थिति संभवतः भारत के लिए ही निर्मित है.......!!
लिखना तो ऐसा हो गया है जैसे आपने जब चाहा तब "पाद"दिया....जैसे आपके इस अतुलनीय "पाद"से कोई अद्भुत खुशबू आती होओ....या कि कोई विशिष्ट आवाज़.......क्यों भाई लिखना ऐसी भी क्या जरूरी है कि नहीं कुछ जानो नहीं तब भी लिखोगे ही.....!!कि लिखे बगैर तुम्हारी नानी मर जाने वाली होओ....!!कि खुद को व्यक्त नहीं कर पाए तो मर ही जाओगे.....!!क्यों भई तुम्हारे लेखन में ऐसा कौन-सा सरोकार....किस प्रकार की चिंता.....या कौन से सामाजिक दायित्व....या कौन-सी हिंदी की जिम्मदारी झलकती है कि जिसके लिए तुम्हें सराहा जाए कि तुम्हें नमन किया जाये जाए कि स्वागत ही किया जाए....??मगर तब भी तुम्हारा स्वागत है कि तुम तो हिंदी बुढ़िया के अथिति हो....इस तरह उसके देवता हो.....!!तुम्हारा स्वागत है....इसलिए कि तुम भी हमारे ब्लॉग पर आओ....पढो....टिपिआओ....जाओ.....!!
हमने तो वर्ड-वेरिफिकेशन हटा दिया है अब आप भी हटाओ.......
ये सब क्या हो रहा है...समझ ही नहीं आता....मेरे प्यारे लिक्खाडों....प्रत्येक चिठ्ठे पर प्यारी,उम्दा,बेहतरीन,नाईस कहने वालों क्या तुम्हें उबकाई नहीं आती..
....??क्या तुम्हारा जी नहीं मिचलाता....तुम किसी भी भेद-बकरी-मेमने पर महज इसलिए टिपिया आते हो कि वो तुम्हारी फोटो पर क्लिक करके "तुम"और "तुम्हारे" ब्लाग तक पहुँच जाए.......तुम्हारा फोलोवर बन जाए....??......फूलों की कटाई-छंटाई के लिए जैसे माली की दरकार होती है....वैसे ही अच्छी रचना को हम तक पहुँचने में सम्पादक नामक एक खलनायक कि मगर अब तो हर कोई सम्पादक है...मैं चाहे ये लिखूं...मैं चाहे वो लिखूं...मेरी मर्ज़ी.....इस तरह "उम्दा"लिकने वालों का तांता बढ़ता ही जा रहा है...और उससे भी ज्यादा उनपर टिपियाने वाले लोगों की तादाद.....और एक विशाल खड्डा{गड्ढा}तैयार होता जा रहा है जहां फ़िल्टर किया हुआ स्वच्छ पानी और मल-मूत्र सब एक ही जगह समा जा रहा है....क्या अच्छा है...क्या बुरा....इसका भी भेद भी मिटता जा रहा है....कितने अच्छे है ब्लागर लोग,जो ना बुरा देखते हैं...ना बुरा सुनते हैं.....ना बुरा बोलते हैं....कितने विनम्र....कितने प्यारे.....!!
लेकिन मेरे प्यारे बिलागारों इस प्यारे और अनुकूल वातावरण में ही ब्लॉगजगत के सड़ने के बीज पनपने लगें हैं....और अगर तुम सबने ध्यान नहीं दिया तो...हजारों की संख्या के ब्लॉगों में कोई दर्जन ब्लॉग भी ढंग के साहित्य के ढूढने असंभव हो जायेंगे जहां कि तुम्हारा चित्त शांत हो सके...हिंदी कि हिंदी करना अब बंद भी करो...और अभी इसी वक्त से सोचना और करना शुरू कर दो कि किस तरह हिंदी ब्लाग को परिपक्वता मिले....इसे कैसे बचाएं(अरे!!अभी ही तो पैदा हुआ था...!!??)
यहाँ कैसे क्वालिटी प्रोडक्ट को ही बढ़ावा मिले.....यहाँ पर देश-काल-समाज-और यथार्थ से वास्तविक सरोकार रखने वाली चीज़ें पुष्ट हों.....अच्छा मगर अशुद्द लिखने वालों का मार्गदर्शन कैसे हो....घटिया चीज़ों की अवहेलना करनी ही हो....बहुत-सी चीज़ों में तथ्यात्मक गलतियों का निराकार तत्काल ही कैसे हो....ग़ज़ल लिखने वालों को गलतियां विकल्प-सहित कैसे चिन्हित की जाएँ.[गज़लें मैं खुद भी गलत लिखता हूँ....अलबत्ता अपने विषय और दूसरी अन्य बातों के कारण माफ़ कर दी जाती हैं]
यह तो गनीमत है कि ब्लॉगजगत में ऐसे अद्भुत लोग हैं जिनको पढ़ना किन्हीं नाम-चीन लेखकों को पढने से भी ज्यादा सुखद आश्चर्य होता है मगर यह भी तब अत्यंत दुखद हो जाता है जब वो भी किसी ऐरी-गैरी रचना पर वही नाईस-उम्दा-बेहतरीन-सुन्दर की टिप्पणी चेप कर चले आते हैं....कि वो भी भलेमानुषों की तरह उनके ब्लॉग पर आने का कष्ट करें....इस तरह एक अच्छा और उम्दा मंच बन सकने वाली जगह एक कूड़े-करकट के ढेर में तब्दील होती जा रही है....जल्दी ही जिसमें मोती का एक दाना भी खोजना मुश्किल हो जाएगा....इसलिए देवी सरस्वती के हे प्यारे और विनम्र साधकों....इस जगह को सबका शौचालय बनने से बचा लो...तुम्हारी हिंदी का भी कल्याण हो जाएगा.....और तुम्हारे बच्चे जीयें....ऐसी मेरी प्रार्थना है....!!एक बार बोल दो ना प्लीज़.....क़ुबूल.....क़ुबूल......क़ुबूल......!!

27 अप्रैल 2010

हितेश कुमार शर्मा की कविता --- याद पुरानी

बचपन की फिर याद पुरानी आई है।
फिर से वह बरसात सुहानी आई है।

कागज की जब नाव बनाया करते थे।
पानी में फिर उसे तिराया करते थे।
डूब न जाये कहीं यही शंका लेकर-
उसके संग-संग दौड़ जाया करते थे।

भीग भागकर जब लौटा करते थे घर,
माँ की पड़ती डाँट हँसानी आई है।

कभी खाँसते, कभी छींकते थे लेकिन।
नालों में हम नाव डालते थे लेकिन।
कभी फँसाकर कील, बाँध डोरी ऊँची-
राह चली टोपियाँ फाँसते थे लेकिन।

बुरा मानता था तब कोई कभी नहीं।
वही शरारत याद लुभानी आई है।

वह बरसाती मौसम की मोहक यादें।
बूँदों में जाने की माँ से फरियादें।
माँ की झिड़की पर मित्रों का आवाहन-
चिन्ता रहती, घर बाहर कैसे साधें।

आँख मिचौली जो खेली जीवन में।
याद वही हमको मरजानी आई है।

गर्म पकोड़ी खाते थे हम अपने घर।
और चाय पीने जाते थे उसके घर।
वह जो नन्ही मुन्नी प्यारी गुड़िया सी-
चुपके-चुपके मिलती थी घर के बाहर।

हँसती थी तो सारा आलम हँसता था।
याद वही फिर हँसी बिरानी आई है।
----------------------
हितेश कुमार शर्मा,
गणपति भवन,
सिविल लाइन्स, बिजनौर 246701

26 अप्रैल 2010

हितेश कुमार शर्मा की कविता - मंहगाई

मंहगाई
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मंहगाई कुछ और बढ़ेगी, लगता मुझको यार हितेश,
अभी सियासत और लड़ेगी मंहगाई पर यार हितेश।

कोरे भाषण या आश्वासन कमी नहीं कर पायेंगे,
जाने कितने घर निगलेगी यह मंहगाई यार हितेश।

लोकसभा में, राज्यसभा में भाषण दोषारोपण होंगे,
पर मंहगाई कम करने पर होगा नहीं विचार हितेश।

धरने और प्रदर्शन होंगे, हड़तालें और जाम लगेंगे,
इन्कलाब का शोर मचेगा मंहगाई पर यार हितेश।

ऊँचे नेता मंत्री अफसर सबके भाषण खूब छपेंगे,
पर गरीब का नहीं लिखेगा दुख कोई अखबार हितेश।

अपना सबकुछ देकर तू किस-किस को देगा राशन,
अनगिन चूल्हे बुझा चुकी है यह मंहगाई यार हितेश।

मिली न जुम्मन को मजदूरी फाका गुजरा हफ्तों से,
गंगा जी में डूब के उसने जान गँवाई यार हितेश।

सरकारी सेवक का वेतन बढ़ा दोगुना चौगुना,
मजदूरों की मजदूरी में बढ़ी न पाई यार हितेश।

हुये करोड़ों के घोटाले मंत्री मालामाल हुये,
उनको कभी न छू पायेगी यह मंहगाई यार हितेश।

टूटी हुईं चारपाई भी जिनके घर पर नहीं मिली,
सांसद और विधायक निधि ने उन्हें दिलाई कार हितेश।

मंत्री जी बनने से पहले कुल जमीन थी बीघा तीन,
सौ बीघे के कई फार्म हैं उनके अब सरकार हितेश।

चुपकर वरना कल को तेरा नहीं मिलेगा पता कहीं,
सत्ताधीशों के होते हैं हत्यारे किरदार हितेश।
-------------------
हितेश कुमार शर्मा,
गणपति भवन, सिविल लाइन्स,
बिजनौर - 246701 (उ0प्र0)

25 अप्रैल 2010

राजीव कुमार थेपड़ा [वर्मा] की दो काव्य-रचनाएँ

पिघलता जा रहा हूँ, ये क्या हो रहा है मुझे ?

ओ सूरज,मैं आँख-भर नहीं देख पाता तुझे !!


मैंने किसी के दुःख में रोना छोड़ दिया अब

कितने ही गम और परेशानी हैं खुद के मुझे !!


दिन से रात तलक खटता रहता हूँ बिन थके

उम्र गुजरने से पहले कहाँ है आराम मुझे !!


ना जाने किन चीज़ों के पीछे भाग रहा हूँ

उफ़ ना जाने ये क्या होता जा रहा है मुझे !!


किसी जगह टिक कर रोने को दिल है आज

ऐसा क्यूँ हो जाता है अक्सर ''गाफिल'' मुझे !!..


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किसी शै समझ नहीं पता की क्या करूँ

किसी के कंधे से जा लगूँ और रो पडूँ !!


जिन्दगी अगर इसी को कहते हैं तो फिर

इसी वक्त मर जाऊं,अपनी लाश दफना दूँ !!


कोशिशें,नाकामियाँ,गुस्सा और नफरत,उफ़

घुट-घुट कर रोता रहूँ और बस रोता रहूँ !!


ऊपरवाले का होगा कई सदियों का इक बरस

मैं क्यूँ पल-पल,कई-कई सदियाँ जीता रहूँ !!


इतना हूँ बुरा तो वक्त मार ही दे ना मुझे

उम्र की किश्ती के साथ किनारे जा लगूँ !!


बहुत तड़पती हैं ये धडकनें दिल के भीतर मेरे

दिल को निकाल कर फेंक दूं बेदिल ही जिया करूँ !!


मैं अपने-आप से भाग भी जाऊं तो जाऊं कहाँ

इससे तो अच्छा है कि खुद में ही गर्क हो रहूँ !!


कई दिनों से सोचा था खुद के बारे में कुछ लिखूं

अपने हर इक हर्फ़ में मैं कुत्ते की मौत मरता रहूँ !!


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परिचय :


नाम : राजीव कुमार थेपड़ा [वर्मा]

पिता : स्व किशन वर्मा

जन्म-तिथि :24 सितम्बर 1970

शिक्षा :बी ए आनर्स [दर्शन-शास्त्र]

रूचि :रंगमंच,गायन,लेखन तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय [था]

विशेष :1997 में इन्डियन फ़िल्म एन्ड थियेटर अकादिमी [दिल्ली] के टापर

अभिनय-गायन-लेखन-निर्देशन में सैंकड़ों मंचन

पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा प्रकाशित

चंडीगड तथा इलाहाबाद से सुगम तथा शास्त्रीय संगीत में संगीत-प्रभाकर

इन सभी क्षेत्रों में कई पुरस्कार

आकाशवाणी रांची के कलाकार मगर फ़िलहाल पैकिंग मैटेरियल के व्यापार में सक्रिय

[सभी शौक जो ऊपर उल्लिखित हैं, उनसे किनारा !!]

कार्यालय : प्राची सेल्स

नोर्थ मार्केट रोड

अपर बाजार, रांची

ब्लॉग, जहाँ दस्तक देता हूँ----

http://baatpuraanihai.blogspot.com/

http://ranchihalla.blogspot.com/

http://bhadas.blogspot.com/

http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/

http://dakhalandazi.blogspot.com/

24 अप्रैल 2010

क्यों?

मन की खंडित वीणा के
तारों में स्वर कम्पन क्यों? 
स्वर लहरियां मचल रही,
विरह राग की सरगम क्यों?

कुछ मधुर गीत की आशा में
मिले कटु - तिक्त स्वर क्यों?
टूटी सी लय कुछ बता रही,
अंतर्वेदना मेरे मन की क्यों?

जग तो था ये मनहर बहुत
जहर बुझे वचन फिर क्यों?
स्वयं भू कि सर्वोत्तम कृति,
मानव खो बैठा मानवता क्यों?

किस भुलावे में भटकता रे मन
शून्य  के आयामों तक क्यों?
मिजराब मचलती तारों पर 
फिर नीरव है सारे स्वर क्यों? 

आशा छोडूं जीवन की या
पूंछूं खुद से मैं हूँ जीवित क्यों?
सपना  तो देखा था उपवन का
फिर बेनूर हुआ ये मधुवन क्यों? 

22 अप्रैल 2010

पृथ्वी दिवस आज है !


                    आज पृथ्वी दिवस है - २२ अप्रैल !  ये जीवन दायिनी धरती माँ हमें सब कुछ देती रही है और आज भी दे रही है. लेकिन जब हम उसके पास कुछ बचने दें. उसके श्रृंगार वृक्षों को हमने उजाड़ दिया, उसके जल स्रोतों को हमने इस तरह से दुहा है कि वे भी अब जलविहीन हो चले हैं. इसके गर्भ  में इतने परीक्षण  हम कर चुके हैं कि उसकी कोख अब बंजर हो चुकी है. अब भी हम उसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं. अब भी हम ये नहीं सोच पा रहे हैं कि जब ये नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह  की खोज करके उसपर चले जायेंगे. जैसे की गाँव छोड़ कर शहर आ गए. वहाँ अब कुछ भी नहीं रह गया है - खेतों को बेच कर मकान बनवा लिए. अब खाने की खोज में शहर आ गए. कुछ न कुछ करके गुजारा कर लेंगे.
                                 हम क्यों रोते हैं कि अब मौसम बदल चुके हैं, तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है. इसके लिए कौन दोषी है? हम ही न, फिर रोना किस बात का है? हमारी अर्थ की हवस ने , धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल डाल कर बंजर बना लिया. फसल अच्छी लेने के लिए उसको बाँझ बना दिया. ये कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खोयी है.
                              हर साल २२ अप्रैल को धरती को बचाने के लिए और उसके बचाव के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए इस दिवस का आयोजन किया जाता है.  पूरी दुनियाँ इस धरती को माँ नहीं कहती, कालांतर में आदमी सुबह उठकर  उस पर पैर रखने से पहले उसके स्पर्श को अपने मस्तक पर लगता था. ये मैंने अपने घर में ही देखा है. खेतों की पूजा होते देखी है. विश्व में इसको एक ग्रह  ही माना जाता है और फिर भी विश्व के किसी और देशवासी ने इस ग्रह को बचाने के लिए ये मुहिम शुरू की थी. ये व्यक्तित्व है जो अपनी दृढ इच्छाशक्ति के लिए विख्यात है - अमेरिका के पूर्व सीनेटर गेलार्ड नेल्सन.

                इस दिवस के आरम्भ करने की मुहिम के पीछे क्या अवधारणा थी ?  इस बारे में कुछ बातें  उन्हीं की जुबानी मिली है, जो मैं  दैनिक जागरण के साभार यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.


" पृथ्वी दिवस का मकसद क्या था? कैसे हुई इसकी शुरुआत? ये प्रश्न हैं जिन्हें लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं. वास्तव में  पृथ्वी दिवस का विचार मेरे दिमाग में १९६२ में आया और सात साल तक चलता रहा. मुझे इस बात से परेशानी थी की हमारे पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल नहीं है. नवम्बर १९६२ में मैंने इस विचार से राष्ट्रपति कैनेडी को अवगत करने और मुद्दे को उठाने के लिए उनको राष्ट्रीय संरक्षण यात्रा करने के लिए मनाने की सोची. एटार्नी जनरल राबर्ट कैनेडी से इस प्रस्ताव के बारे में बात करने के लिए मैं वाशिंगटन  गया. विचार उनको पसंद आया. राष्ट्रपति को भी यह पहल पसंद आई . सितम्बर १९६३ में राष्ट्रपति ने ग्यारह प्रान्तों की अपनी पांच दिवसीय संरक्षण यात्रा शुरू की. लेकिन कई कारणों से इसके बाद भी मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडा नहीं  बन सका. इस बीच मैं पर्यावरणीय  मुद्दों पर लगातार जनता के बीच आवाज उठाता रहा. पूरे देश में पर्यावरण में होने वाले नुकसान को स्पष्ट देखा जा सकता था. लोग पर्यावरण सबंधी मुद्दों पर चिंतित थे लेकिन राजनीतिज्ञों के कानों पर जून नहीं रेंग रही थी. १९६९ की गर्मियों के दौरान वियतनाम युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन कालेजों के कैम्पस तक पहुँच चुका था. यही मेरे जेहन में यह ख्याल आया कि क्यों न पर्यावरण को हो रहे नुकसान के विरोध के लिए व्यापक जमीनी आधार तैयार क्या जाए. सितम्बर १९६९ में सिएटल में एक जनसभा में मैंने घोषित किया की १९७० के वसंत ऋतू में पर्यावरण मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रदर्शन किया जाएगा. भागीदार बनाने के लिए सबका आह्वान किया. अख़बारों में इस खबर को अच्छी तरीके से कवर किया गया. इसके बाद खबर फैलते देर नहीं लगी . टेलीग्राम, पत्र और टेलीफ़ोन के माध्यम से इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देश भर से तांता लगा गया. जन-जागरण शुरू हो चुका था. मैं अपने मिशन में कामयाबी की ओर बढ़ रहा था अंततः २२ अप्रैल १९७० को २ करोड़ के विशाल जाना समुदाय के बीच पहला पृथ्वी दिवस मनाया गया."
                              जब ये काम ४० वर्षों से चल रहा है तब हमारी पृथ्वी की ये हालत है अगर हम अब भी नहीं चेते तो ये ज्वालामुखी, भूकंप , सुनामी और भूस्खलन - जो इस पृथ्वी के पीड़ा के प्रतीक हैं, इस पृथ्वी को नेस्तनाबूद कर देंगे. ये मानव जाति जो अपने शोधों पर इतरा रही है, कुछ भी शेष नहीं रहेगा. इस लिए आज ही और इसी वक्त संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे करेंगे और जो नहीं जानते उन्हें इससे अवगत कराएँगे या फिर अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे.  जब धरती माँ नहीं रहेगी तो उसकी हम संताने होंगे ही कहाँ? इस लिए हमें भी रहना है और इस माँ को भी हरा भरा रखना है ताकि वह खुश रहे और  हम भी खुश रहें.

कुछ मुक्तक : --संजीव 'सलिल'

कुछ मुक्तक

संजीव 'सलिल'
*
मनमानी को जनमत वही बताते हैं.
जो सत्ता को स्वार्थों हेतु भुनाते हैं.
'सलिल' मौन रह करते अपना काम रहो-
सूर्य-चन्द्र क्या निज उपकार जताते हैं?
*
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?.
*
मौत से पहले कहो हम क्यों मरें?
जी लिए हैं बहुत डर, अब क्यों डरें?
आओ! मधुशाला में तुम भी संग पियो-
तृप्त होकर जग को तरें, हम तरें..
*
दोस्तों की आजमाइश तब करें.
जबकि हो मालूम कि वे हैं खरे..
परखकर खोटों को क्या मिल जायेगा?
खाली से बेहतर है जेबें हों भरे..
*
दोस्तों की आजमाइश वे करें.
जो कसौटी पर रहें खुद भी खरे..
'सलिल' खुद तो वफ़ा के मानी समझ-
बेवफाई से रहा क्या तू परे?
*
क्या पाया क्या खोया लगा हिसाब जरा.
काँटें गिरे न लेकिन सदा गुलाब झरा.
तेरी जेब भरी तो यही बताती है-
तूने बाँटा नहीं, मिला जो जोड़ धरा.
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

11 अप्रैल 2010

डॉ0 रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ का आलेख

अनुभव और अनुभूति की आँच में तपा राग-संवेदन: महेंद्रभटनागर-विरचित अद्यतन काव्य-कृति

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लेखक -- डॉ0 रामसनेही लाल शर्मा यायावर

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डा. महेंद्रभटनागर एक सतत रचनाशील कवि, संकल्पशील कर्मयोगी, मूल्यनिष्ठ शिक्षक, रागदीप्त गृहस्थ और मेधावी चिन्तक रहे हैं। काव्य-कृति राग-संवेदन उनकी समूची जीवन-यात्रा का भावात्मक प्रस्तुतीकरण है। ये कविताएँ कवि के गहन अन्तस्तल से निकली राग-दीप्त अभिव्यक्तियाँ हैं। इन कविताओं से गुज़रना मानों एक इतिहास से गुज़रना है। इनमें केवल कवि का युग ही साँस नहीं ले रहा; वह दृष्टि भी जाग्रत व चित्रित है जो कवि के पास है। इस सबके होते हुए कवि डा. महेंद्रभटनागर व्यक्तिनिष्ठता से बचकर कविता की संवेदना को सार्वजनीन बनाकर उसे सार्वकालिक भी बना सके हैं तो इसे उनका चमत्कार ही मानना चाहिए। इन रचनाओं का संवेदना-संसार अत्यन्त व्यापक व विस्तृत है। पर्यावरण-प्रदूषण की चिन्ता से लेकर विश्व-प्रेम तक, अपनों-परायों से मिली यातनाओं व धोखों से उत्पन्न पीड़ा से लेकर समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न तक, वैयक्तिक आसक्ति की पीड़ा से लेकर अनासक्तिमूलक जिजीविषा तक तथा किसी अपने के बिछोह से उत्पन्न पीड़ा से लेकर दुर्दान्त युग की विसंगतियों तक सभी-कुछ इन कविताओं में परिव्याप्त है। कवि ने जहाँ दर्द को जिया है, वहाँ उसने अपनी अनथक जिजीविषा को भी कभी पराजित नहीं होने दिया है। इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ओर ये कवि के अन्तः संसार अर्थात् उसकी भावनाओं, संवेदनाओं, मूल्यों, परम्पराओं, विश्वासों, संकल्पों और आस्थाओं को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं; वहीं दूसरी ओर ये बाह्य संसार और उसकी जटिलताओं को भी प्रस्तुत करती हैं।

कवि डा. महेंद्रभटनागर के पास अत्यन्त सक्षम और समर्थ भाषा है। इसलिए वे सामान्य शब्दों को भी दूरगामी अर्थ-सम्भावनाएँ से संयोजित कर अपनी रचनाओं को अप्रतिम बना देते हैं। उदाहरणार्थ उनकी बदलो कविता का यह उद्धरण लें :

सड़ती लाशों की दुर्गन्ध लिए

छूने/गाँवों-नगरों के/ओर-छोर

जो हवा चली

उसका रुख़ बदलो!

ज़हरीली गैसों से/अलकोहल से लदी-लदी

गाँवों-नगरों के नभ-मंडल पर

जो हवा चली

उससे सँभलो/उसका रुख़ बदलो!

यहाँ हवा अत्यन्त समर्थ प्रतीक बनकर उभरी है। अपसंस्कृति, बाज़ारवाद मानव-मानव के बीच फैली स्वार्थपरता, संवादहीनता और संवेदनहीनता अर्थात् सभी मूल्यहन्ता और हृदयहन्ता परिस्थितियों तथा समूचा दमघोंटू समकालीन परिवेश हवा के रूप में यहाँ प्रतीकित हो रहा है। आज व्यक्ति की जो समस्या है, शायद जो सबसे बड़ी समस्या है, वह यह है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के रागात्मक पुल टूट गये हैं। मानवीय संबंधों में स्वार्थ का विष भर गया है। स्वार्थ की कीचड़ से अपनापन गँदला हो गया है। ऐसे में संवेदनशील मन की यातना है भीड़ का अकेलापन:

लाखों लोगों के बीच/अपरिचित अजनबी

भला,/कोई कैसे रहे!

उमड़ती भीड़ में/अकेलेपन का दंश

भला,/कोई कैसे सहे!

असंख्य आवाज़ों के/शोर में

किसी से अपनी बात

भला,/कोई कैसे कहे!

कवि जब आज के मानव में व्याप्त सीमातीत स्वार्थपरता को देखता है तो मानव के चारित्रिक अध:पतन को देखकर उनका हृदय पीड़ित हो जाता है :

कितना ख़ुदग़रज़/हो गया इंसान!

बड़ा ख़ुश है/पाकर तनिक-सा लाभ

बेचकर ईमान!

चंद सिक्कों के लिए/कर आया

शैतान को मतदान!

नहीं मालूम ख़ुददार का मतलब,

गट-गट पी रहा अपमान!

रिझाने मंत्रियों को/उनके सामने

कठपुतली बना निष्प्राण,

अजनबी-सा दीखता

आदमी की खो चुका पहचान!

परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि कवि केवल संसार में व्याप्त विभीषिकाएँ ही देख रहा है या संसार का केवल निराश व हताश करने वाला कृष्ण-पक्ष ही उसे दिखायी पड़ता है; वरन इसके विपरीत वह अंधकार की छाती पर आशा का दीपक जलाने को आतुर दिखायी पड़ता है। यों कहा जा सकता है कि कवि डा. महेंद्रभटनागर मानते हैं कि संसार में दुःख हैं, यातनाएँ हैं, पीड़ाएँ हैं, विषमताएँ हैं, और हृदय की पोर-पोर को विषदग्ध करने वाली मारक परिस्थितियाँ हैं फिर भी यह संसार जीने योग्य है। नहीं तो इसे बनाया जा सकता है, बनाया जाना चाहिए। डा.महेंद्रभटनागर स्वप्नदर्शी हैं। तभी तो उन्होंने समतामूलक समाज की स्थापना का स्वप्न देख लिया है :

समता का/बोया था जो बीज-मंत्र

पनपा, छतनार हुआ!

सामाजिक-आर्थिक

नयी व्यवस्था का आधार बना!

शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,

नवयुग का छविकार बना!

साम्य-भाव के नारों से

नभ-मंडल दहल गया!

मौसम/कितना बदल गया!

डा. महेंद्रभटनागर विश्व-परिवार का ऐसा स्वप्न सँजोते हैं जिसमें सभी मानवों को एक परिवार के सदस्य की तरह रहने का अवसर मिले। जब-तक विश्व-परिवार नहीं बनेगा, जब-तक अपनत्व का विकास नहीं होगा, तब-तक विश्व की सारी वैज्ञानिक प्रगति, सारे उपग्रह, अन्तरिक्ष की सारी उड़ानें, सारे सुपर-कम्प्यूटर और सारे सोफ्ट-वेयर निरर्थक हैं। अतः संसार के सभी मानव-सदस्यों को :

कल्पित दिव्य शक्ति के स्थान पर

मनुजता अमर सत्य कहना होगा!

सम्पूर्ण विश्व को/परिवार एक

जानकर, मानकर/परस्पर मेल-मिलाप से

रहना होगा!

संसार में व्याप्त अंधकार, अज्ञान, अनीति, निराशा, विसंगति और विषमता से जूझने के लिए कवि डा. महेंद्रभटनागर का अन्तरस्थ कवि एक ओर तो स्वप्नदर्शी हो जाता है वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत धरातल पर अक्षय जिजीविषा और सतत कार्यशीलता का संकल्प ले लेता है। यह इसी संकल्प का स्वर है:

लेकिन/मेरी हुँकृति से/थर्राता है आकाश-लोक,

मेरी आकृति से/भय खाता है मृत्यु-लोक!

तय है/हारेगा हर हृदयाघात, लुंज पक्षाघात

अमर आत्मा के सम्मुख!

जीवन्त रहूंगा/श्रमजीवी मैं,

जीवन-युक्त रहूंगा/उन्मुक्त रहूंगा!

यही नहीं, यह अनथक कर्मयोगी कवि चरैवेति-चरैवेति के ऊर्जस्वी उपनिषदीय मंत्र का भी विश्वासी है। इसीलिए तो वह कहता है :

राह का/नहीं है अन्त

चलते रहेंगे हम!

दूर तक फैला अँधेरा

नहीं होगा ज़रा भी कम!

टिमटिमाते दीप-से

अहर्निश/जलते रहेंगे हम!

इसके साथ ही वह कर्म का और जीवन का भरपूर आनन्द लेना चाहते हैं और हर क्षण का पूरा उपभोग कर उसे जीवन का रस बनाना चाहते हैं :

हर लमहा

अपना गूढ़ अर्थ रखता है,

अपना एक मुकम्मिल इतिहास

सिरजता है,

बार-बार बजता है!

इसलिए ज़रूरी है

हर लमहे को भरपूर जियो,

जब-तक

कर दे न तुम्हारी सत्ता को

चूर-चूर वह!

भाषा की सरलता और अर्थ का दूरगामी विस्तार राग-संवेदन की कविताओं को अन्यतम बनाता है। कवि नयी भाषा की खोज नहीं करता, न परिमार्जित परिनिष्ठित हिन्दी का ठाठ सँजोकर अपनी विद्वता की धक जमाता है अपितु वह साधरण भाषा में असाधरण अर्थ-दीप्तियाँ जगाता है। यही कवि डा. महेंद्रभटनागर के कवित्व की अन्यतम विशेषता है। बिम्ब और प्रतीक नितान्त सुपरिचित हैं। हवा, पानी, धुँआ, तीर्थ, घटा, आग, कंकड़ों का ढेर, आदि परम्परागत प्रतीक हैं। परन्तु डा. महेंद्रभटनागर ने इन्हीं में गहन अर्थ की शक्ति भर दी है। कुल मिलाकर, भाव-सम्पदा, दीर्घ जीवनानुभव में तप्त रागात्मक संवेदना, मूल्य-दृष्टि और साधरणता में असाधरणता का आभास कराते शिल्प के कारण राग-संवेदन की कविताएँ संस्कारित रुचि वाले पाठकों के अन्तस को झंकृत करेंगी।


3 चुटकियाँ------->>>दीपक 'मशाल'


१-
अक्स धुंधला पड़ा है मेरा
खो सा गया हूँ मैं
जाने क्या-क्या ख्वाहिश लिए
सो सा गया हूँ मैं..
वो हर घड़ी मुझे
गैर किये जाते हैं
मोहब्बत देखे वगैर
वैर किये जाते हैं..

२-
अपनी तो आदत है समझो, तुमको चिढ़ाने की
कभी तुमको सताने की कभी तुमको हंसाने की
कहने को कह दूँ दोस्त तुमको अपनी जान से प्यारा
मगर हर रिश्ते को नाम देने की आदत है ज़माने की

3-
ऐ मेह्ज़बीं ऐसा नहीं कि हमें तुमसे प्यार नहीं
खता है वक़्त की के हमें मौका नहीं मिलता
तुम्हें पता नहीं कि दुनिया में और भी हैं ताजमहल
पर दिल से निकलने का उन्हें मौका नहीं मिलता
दीपक 'मशाल'
पिक. खुद निकाले गए

10 अप्रैल 2010

"शब्दकार बंद कर दिया जाए" -- अपनी राय जल्द से जल्द दें

क्यों शब्दकार का प्रकाशन बंद कर दिया जाए?

ये सवाल आप सभी (सदस्यों से) से इस कारण पूछा जा रहा है ताकि आप सभी को ये ना लगे कि हमने बिना आपकी सहमति के ऐसा कदम उठाया है
जबसे शब्दकार को सामुदायिक ब्लॉग के रूप में शुरू किया है तब से आचार्य संजीव 'सलिल' जी का आशीर्वाद ही मिलता रहा है, शेष सदस्यों ने बहुत ही बेरुखी दिखाई है

वैसे हम तो इसे बंद करने का मन बना चुके हैं...........आगे आप लोगों का विचार बस जानना है

ये किसी की कोई मजबूरी नहीं कि सदस्यता ली है तो लिखना ही पड़ेगा (कोई लिख भी कहाँ रहा है??) आप सभी का आभार जो आप लोग इससे जुड़े

हमने तो सोचा था कि इसी बहाने हिंदी भाषा, साहित्य के लिए कुछ कर पायेंगे पर.....................

चलिए दिनांक 12-04-10 की शाम 05 बजे तक के लिए आप सभी सदस्यों की और उन पाठकों की रायमांगी जा रही है जो शब्दकार के प्रति रूचि रखते हैं......................
धन्यवाद--
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
संचालक - शब्दकार