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07 मार्च 2011

दिव्या गुप्ता जैन का आलेख -- कम से कम अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए -- महिला दिवस पर विशेष

कम से कम अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
दिव्या गुप्ता जैन
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सही मायने में महिला दिवस तब ही सार्थक होगा जब समाज में महिलाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से संपूर्ण आज़ादी मिलेगी, जहाँ उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा! समाज में हर महत्वपूर्ण निर्णय में उनके नज़रिए को महत्वपूर्ण समझा जायेगा! उन्हें भी पुरुष के सामान एक इंसान समझा जायेगा! जहाँ वह सर उठा कर अपने महिला होने पर गर्व कर सके!

आज भी सच्चाई ये है की जन्म से पहले ही उसे जीने का अवसर बेटे की अपेक्षा काफी कम मिलता है! और अगर दुनिया में आ भी गयी तो पोषण और स्वस्थ्य सुबिधाओ में भारी कमी की जाती है! शिक्षा के मामले में बेटे को गुणवत्तापूर्ण श्रेठ विद्यालय तो बेटी को कम खर्च वाला सरकारी विद्यालय! क्यूंकि हम मानते है की उसे तो आगे चलकर चूल्हा- चौका ही करना है! घर के कामों की जिम्मेदारी उस पर 6 वर्ष से आ जाती है जबकि लड़का 14-15 साल तक भी बाबू ही रहता है!

शादी के निर्णय में लड़कियों को कोई पसंद- नापसंद का अधिकार नहीं दिया जाता जबकि लड़के को ये अधिकार है कि वो कब और किससे शादी करेगा! खेल स्पर्धा में आज भी बहुत सी लडकिया काबिल होते हुए भी परिवार की रजामंदी न होने से हिस्सा नहीं ले पाती! यहाँ तक की राजनीति में भी परिवार के पुरुषो द्वारा महिलाये तब लायी जाती है जब महिला आरक्षित सीट हो या पुरुष किसी केस में फंसा हो! पद पर रखी जाती है महिला और उसकी डोर होती है पुरुष के हाथ!

महिला परिवार को खुशियाँ देने के लिए प्रसव पीड़ा सहे! बच्चो को पाले पोसे! घर के बुजुर्गो का धयान रक्खे! मेहमानों की आवभगत करे! साल भर की गृहस्थी तैयार करे! पर फिर भी हम कहते हैं कि वो कुछ नहीं करती! क्यूंकि हम सिर्फ पैसा कमाने को ही काम मानते है! वो अलग बात है कि महिला 15 घंटे काम करती है और पुरुष 8 घंटे! अब तो हमें सोच बदलनी चाहिए वरना हजारों महिला दिवस आयेंगे और चले जायेंगे!

और महिला बेटी, बहन, भाभी और माँ तो बन जाएगी पर समाज में और इंदिरा गाँधी, किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम या सानिया मिर्ज़ा पैदा नहीं हो पाएंगी!

22 जनवरी 2011

क्या आज का सच यही है?

एक शेर जो हम बहुत जोर-शोर से गाते हैं-
"खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं."
क्या जानते हैं कि यूं तो ये मात्र एक शेर है किन्तु चंद शब्दों में ये शेर उन शहीदों के मन की भावना को हमारे सामने खोल का रख देता है .वे जो हमें आजादी की जिंदगी देने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर गए यदि आज हमारे सामने अपने उसी स्वरुप में उपस्थित हो जाएँ तो शायद हम उन्हें एक ओर कर या यूं कहें की ठोकर मार कर आगे निकल जायेंगे,कम से कम मुझे आज की भारतीय जनता को देख ऐसा ही लगता है.आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया जो मुझे इतना कड़वा सच आपके सामने लाना पड़ गया.कल का हिंदी का हिंदुस्तान इसके लिए जिम्मेदार है जिसने अपने अख़बार की बिक्री बढ़ाने के लिए एक ऐसे शीर्षक युक्त समाचार को प्रकाशित किया कि मन विक्षोभ से भर गया.समाचार था "ब्रांड सचिन तेंदुलकर ने महात्मा गाँधी को भी पीछे छोड़ा"ट्रस्ट रिसर्च एड्वयिजरी [टी.आर.ऐ.]द्वारा किये गए सर्वे में भरोसे के मामले में सचिन को ५९ वें स्थान पर रखा गया है और महात्मा गाँधी जी को २३२ वें स्थान पर रखा गया है .सचिन हमारे देश का गौरव हैं.रत्न हैं किन्तु महात्मा गाँधी को पछाड़ना उनके क्या किसी भी भूत,वर्तमान,भविष्य के व्यक्ति के वश में नहीं है.क्या पिता से ऊपर भी कोई हो सकता है?और ये सोचने कि बात है कि क्या महात्मा गाँधी को पिता का दर्जा हमारे भारत देश ने ऐसे ही दे दिया जहाँ सुभाष चंद बोसे जैसे नेता भारत रत्न के लिए आजादी के बहुत वर्षो बाद चुने जाते हैं और जहाँ जनता को देश के लिए कार्य करने वालो के लिए जनता को खुद भारत रत्ना कि सिफारिश करनी पड़ती हो वहाँ महात्मा गाँधी के योगदान कुछ तो होगा जो उन्हें पिता का दर्जा मिला,फिर सचिन से उनका क्या मुकाबला?वे सचिन के समय के नहीं,वे कोई क्रिकेटर नहीं.और जहाँ तक बात है भरोसे की तो ये पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं=
"जब-जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े,
मजदूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े,
हिन्दू व मुसलमान सिख पठान चल पड़े,
कदमो पे तेरे कोटि-कोटि प्राण चल पड़े,"
महात्मा गाँधी से उनकी तुलना का यहाँ कोई मतलब भी नहीं.और इस तरह के सर्वेक्षण की खबर को प्रमुखता देना एक उच्च कोटि के समाचार पत्र के लिए सही नहीं इस लिए उस को इस सम्बन्ध में ध्यान देना चाहिए .जैसे चाहे शुक्ल पक्ष हो या कृष्ण पक्ष सूर्य के प्रकाश पर कोई असर नहीं होता ऐसे ही महात्मा गाँधी के नाम के आगे कोई और नाम हो ही नहीं सकता .इस तरह के सर्वेक्षण बंद होने चाहिए जो जनता के समक्ष गलत बाते रखते हैं .अमिताभ जी से तुलना सही है किन्तु आज जब गाँधी जी हमारे बीच में नहीं हैं तब इस तरह के सर्वेक्षण क्या वास्तव में सही हैं?और क्या सही हैं हम जो भरोसे के विषय में सचिन को महात्मा गाँधी जी से ऊपर रखते हैं .महात्मा गाँधी जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया और खुद कोई फायदा कभी नहीं लिया .हम में से बहुत से लोग उनके सिद्धांतों से मतभेद रख सकते हैं किन्तु जहाँ तक बात है उनके खुद के लिए कुछ करने कि तो शायद एक राय ही होंगे.इसलिए जैसा मैं सोच रही हूँ क्या आप भी इन सर्वेक्षणों के बारे में वही सोच रहे हैं?
मैं तो उनके सम्बन्ध में एक कवि महोदय के शेर को प्रस्तुत कर अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ.किन्तु आप सोचियेगा ज़रूर-
'कैंची से चिरागों की लौ काटने वालो.
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते.
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो,
पर फूल की khushboo समेत नहीं सकते."

15 दिसंबर 2010

देहावसान : वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव संजीव वर्मा 'सलिल'

देहावसान :
वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव

संजीव वर्मा 'सलिल'

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ २८.११.२०१०. स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में आज देर रात्रि विख्यात अर्थशास्त्री, छत्तीसगढ़ राज्य में महाविद्यालायीन शिक्षा के सुदृढ़ स्तम्भ रहे अर्थशास्त्र की ३ उच्चस्तरीय पुस्तकों के लेखक, प्रादेशिक कायस्थ महासभा मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष रोटेरियन, लायन प्रो. सत्य सहाय का लम्बी बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. खेद है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार आपने प्रदेश के इस गौरव पुरुष के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ तथा असावधान रही. वर्ष १९९४ से पक्षाघात (लकवे) से पीड़ित प्रो. सहाय शारीरिक पीड़ा को चुनौती देते हुए भी सतत सृजन कर्म में संलग्न रहे. शासन सजग रहकर उन्हें राजकीय अतिथि के नाते एम्स दिल्ली या अन्य उन्नत चिकित्सालय में भेजकर श्रेष्ठ विशेषज्ञों की सेवा उपलब्ध कराता तो वे रोग-मुक्त हो सकते थे.

१६ वर्षों से लगातार पक्षाघात (लकवा) ग्रस्त तथा शैयाशाई होने पर भी उनके मन-मष्तिष्क न केवल स्वस्थ्य-सक्रिय रहा अपितु उनमें सर्व-हितार्थ कुछ न कुछ करते रहने की अनुकरणीय वृत्ति भी बनी रही. वे लगातार न केवल अव्यवसायिक सामाजिक पत्रिका 'संपर्क' का संपादन-प्रकाशन करते रहे अपितु इसी वर्ष उन्होंने 'राम रामायण' शीर्षक लघु पुस्तक का लेखन-प्रकाशन किया था. इसमें रामायण का महत्त्व, रामायण सर्वप्रथम किसने लिखी, शंकर जी द्वारा तुलसी को रामकथा साधारण बोल-चाल की भाषा में लिखने की सलाह, जब तुलसी को हनुमानजी ने श्रीराम के दर्शन करवाये, रामकथा में हनुमानजी की उपस्थिति, सीताजी का पृथ्वी से पैदा होना, रामायण कविता नहीं मंत्र, दशरथ द्वारा कैकेयी को २ वरदान, श्री राम द्वारा श्रीभरत को अयोध्या की गद्दी सौपना, श्री भारत द्वारा कौशल्या को सती होने से रोकना, रामायण में सर्वाधिक उपेक्षित पात्र उर्मिला, सीता जी का दूसरा वनवास, रामायण में सुंदरकाण्ड, हनुमानजी द्वारा शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराना, परशुराम प्रसंग की सचाई, रावण के अंतिम क्षण, लव-कुश काण्ड, सीताजी का पृथ्वी की गोद में समाना, श्री राम द्वारा बाली-वध, शूर्पनखा-प्रसंग में श्री राम द्वारा लक्ष्मण को कुँवारा कहा जाना, श्री रामेश्वरम की स्थापना, सीताजी की स्वर्ण-प्रतिमा, रावण के वंशज, राम के बंदर, कैकेई का पूर्वजन्म, मंथरा को अयोध्या में रखेजाने का उद्देश्य, मनीराम की छावनी, पशुओं के प्रति शबरी की करुणा, सीताजी का राजयोग न होना, सीताजी का रावण की पुत्री होना, विभीषण-प्रसंग, श्री राम द्वारा भाइयों में राज्य-विभाजन आदि जनरूचि के रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है. गागर में सागर की तरह विविध प्रसंगों को समेटे यह कृति प्रो. सहाय की जिजीविषा का पुष्ट-प्रमाण है.

प्रो. सत्यसहाय जीवंत व्यक्तित्व, कर्मठ कृतित्व तथा मौलिक मतित्व की त्रिविभूति-संपन्न ऐसे व्यक्तित्व थे जिन पर कोई भी राज्य-सत्ता गर्व कर सकती है. ग्राम रनेह (राजा नल से समबन्धित ऐतिहासिक नलेह), तहसील हटा (राजा हट्टेशाह की नगरी), जिला दमोह (रानी दमयन्ती की नगरी) में जन्में, बांदकपुर स्थित उपज्योतिर्लिंग जागेश्वरनाथ पुण्य भूमि के निवासी संपन्न-प्रतिष्ठित समाजसेवी स्व. सी.एल. श्रीवास्तव तथा धर्मपरायण स्व. महारानी देवी के कनिष्ठ पुत्र सत्यसहाय की प्राथमिक शिक्षा रनेह, ग्राम, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा दमोह तथा महाविद्यालयीन शिक्षा इलाहाबाद में अग्रज स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव (आपने समय के प्रखर पत्रकार, दैनिक लीडर तथा अमृत बाज़ार पत्रिका के उपसंपादक, पत्रकारिता पर महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक) के सानिंध्य में पूर्ण हुई. अग्रज के पद-चिन्हों पर चलते हुए पत्रकारिता के प्रति लगाव स्वाभाविक था. उनके कई लेख, रिपोर्ताज, साक्षात्कार आदि प्रकाशित हुए. वे लीडर पत्रिका के फ़िल्मी स्तम्भ के संपादक रहे. उनके द्वारा फ़िल्मी गीत-गायक स्व. मुकेश व गीता राय का साक्षात्कार बहुचर्चित हुआ.

उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के निजी सचिव स्व. महेशदत्त मिश्र पन्नालाल जी के साथ रहकर राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे. तरुण सत्यसहाय को गाँधी जी की रेलयात्रा के समय बकरीका ताज़ा दूध पहुँचाने का दायित्व मिला. गाँधी जी की रेलगाड़ी इलाहाबाद पहुँची तो भरी भीड़ के बीच छोटे कद के सत्यसहाय जी नजर नहीं आये, रेलगाड़ी रवाना होने का समय हो गया तो मिश्रजी चिंतित हुए, उन्होंने आवाज़ लगाई 'सत्य सहाय कहाँ हो? दूध लाओ.' भीड़ में घिरे सत्यसहाय जी जोर से चिल्लाये 'यहाँ हूँ' और उन्होंने दूध का डिब्बा ऊपर उठाया, लोगों ने देखा मिश्र जी डब्बा पकड़ नहीं पा रहे और रेलगाड़ी रेंगने लगी तो कुछ लम्बे लोगों ने सहाय जी को ऊपर उठाया, मिश्र जी ने लपककर डब्बा पकड़ा. बापू ने खिड़की से यह दृश्य देखा तो खिड़कीसे हाथ निकालकर उन्हें आशीर्वाद दिया. मिश्रा जी के सानिंध्य में वे अनेक नेताओं से मिले. सन १९४८ में अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् नव स्वतंत्र देश का भविष्य गढ़ने और अनजाने क्षेत्रों को जानने-समझने की ललक उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ले आयी.

पन्नालाल जी अमृत बाज़ार पत्रिका और लीडर जैसे राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में संवाददाता और उपसंपादक रहे थे. वे मध्य प्रान्त और विदर्भ के नेताओं को राष्ट्री क्षितिज में उभारने में ही सक्रिय नहीं रहे अपितु मध्य अंचल के तरुणों को अध्ययन और आजीविका जुटने में भी मार्गदर्शक रहे. विख्यात पुरातत्वविद राजेश्वर गुरु उनके निकट थे, जबलपुर के प्रसिद्द पत्रकार रामेश्वर गुरु को अपना सहायक बनाकर पन्नालाल जी ने संवाददाता बनाया था. कम लोग जानते हैं मध्य-प्रदेश उच्च न्यायालय के विद्वान् अधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी भी प्रारंभ में प्रारंभ में पत्रकार ही थे. उन्होंने बताया कि वे स्थानीय पत्रों में लिखते थे. गुरु जी का जामाता होने के बाद वे पन्नालाल जी के संपर्क में आये तो पन्नालाल जी ने अपना टाइपराइटर उन्हें दिया तथा राष्ट्रीय अख़बारों से रिपोर्टर के रूप में जोड़ा. अपने अग्रज के घर में अंचल के युवकों को सदा आत्मीयता मिलते देख सत्य सहाय जी को भी यही विरासत मिली.

आदर्श शिक्षक तथा प्रशासनविद:

बुंदेलखंड में कहावत है 'जैसा पियो पानी, वैसी बोलो बनी, जैसा खाओ अन्न, वैसा होए मन'- सत्यसहाय जी के व्यक्तित्व में सुनार नदी के पानी साफगोई, नर्मदाजल की सी निर्मलता व गति तथा गंगाजल की पवित्रता तो थी ही बिलासपुर छत्तीसगढ़ में बसनेपर अरपा नदीकी देशजता और शिवनाथ नदीकी मिलनसारिता सोने में सुहागा की तरह मिल गई. वे स्थानीय एस.बी.आर. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये. उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, सरस-सटीक शिक्षण शैली, सामयिक उदाहरणों से विषय को समझाने तथा विद्यार्थी की कठिनाई को समझकर सुलझाने की प्रवृत्ति ने उन्हें सर्व-प्रिय बना दिया. जहाँ पहले छात्र अर्थशास्त्र विषय से दूर भागते थे, अब आकर्षित होने लगे. सन १९६४ तक उनका नाम स्थापित तथा प्रसिद्ध हो चुका था. इस मध्य १९५८ से १९६० तक उन्होंने नव-स्थापित 'ठाकुर छेदीलाल महाविद्यालय जांजगीर' के प्राचार्य का चुनौतीपूर्ण दायित्व सफलतापूर्वक निभाया और महाविद्यालय को सफलता की राह पर आगे बढ़ाया. उस समय शैक्षणिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की दीपशिखा प्रज्वलित करनेवालों में अग्रगण्य स्व. सत्य सहाय अपनी मिसाल आप थे.जांजगीर महाविद्यालय सफलतापूर्वक चलने पर वे वापिस बिलासपुर आये तथा योजना बनाकर एक अन्य ग्रामीण कसबे खरसिया के विख्यात राजनेता-व्यवसायी स्व. लखीराम अग्रवाल प्रेरित कर महाविद्यालय स्थापित करने में जुट गये. लम्बे २५ वर्षों तक प्रांतीय सरकार से अनुदान प्राप्तकर यह महाविद्यालय शासकीय महाविद्यालय बन गया. इस मध्य प्रदेश में विविध दलों की सरकारें बनीं... लखीराम जी तत्कालीन जनसंघ से जुड़े थे किन्तु सत्यसहाय जी की समर्पणवृत्ति, सरलता, स्पष्टता तथा कुशलता के कारण यह एकमात्र महाविद्यालय था जिसे हमेशा अनुदान मिलता रहा.

उन्होंने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में अधिष्ठाता छात्र-कल्याण परिषद्, अधिष्ठाता महाविद्यालयीन विकास परिषद् तथा निदेशक जनजाति प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण के रूप में भी अपनी कर्म-कुशलता की छाप छोड़ी.
आपके विद्यार्थियों में स्व. बी.आर. यादव, स्व. राजेंद्र शुक्ल. श्री अशोक राव, श्री सत्यनारायण शर्मा आदि अविभाजित मध्यप्रदेश / छतीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री, पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय मंत्री तथा स्व. श्रीकांत वर्मा सांसद और राष्ट्रीय राजनीति के निर्धारक रहे. अविभाजित म.प्र. के वरिष्ठ नेता स्वास्थ्य मंत्री स्व. डॉ. रामाचरण राय, शिक्षामंत्री स्व. चित्रकांत जायसवाल से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे. उनके अनेक विद्यार्थी उच्चतम प्रशासनिक पदों पर तथा कई कुलपति, प्राचार्य, निदेशक आदि भी हुए किन्तु सहाय जी ने कभी किसीसे नियम के विपरीत कोई कार्य नहीं कराया. अतः उन्होंने सभी से सद्भावना तथा सम्मान पाया.

सक्रिय समाज सेवी:

प्रो. सत्यसहाय समर्पित समाज सुधारक भी थे. उन्होंने छतीसगढ़ अंचल में लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की कुप्रथा से आगे बढ़कर संघर्ष किया. ग्रामीण अंचल में रहकर तथा सामाजिक विरोध सहकर भी उन्होंने न केवल अपनी ४ पुत्रियों को स्नातकोत्तर शिक्षा दिलाई अपितु २ पुत्रियों को महाविद्यालयीन प्राध्यापक बनने हेतु प्रोत्साहित तथा विवाहोपरांत शोधकार्य हेतु सतत प्रेरित किया. इतना ही नहीं उन्होंने अपने संपर्क के सैंकड़ों परिवारों को भी लड़कियों को पढ़ाने की प्रेरणा दी.

स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे सामाजिक ऋण-की अदायगी करने में जुट गये. प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जबलपुर, बरमान (नरसिंहपुर), उज्जैन, दमोह, बालाघाट, बिलासपुर आदि अनेक स्थानों पर युवक-युवती, परिचय सम्मलेन, मितव्ययी दहेज़रहित सामूहिक आदर्श विवाह सम्मलेन आदि आयोजित कराये. वैवाहिक जानकारियाँ एकत्रित कर चित्राशीष जबलपुर तथा संपर्क बिलासपुर पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अभिभावकों को उपलब्ध कराईं.
विविध काल खण्डों में सत्यसहाय जी ने लायन तथा रोटरी क्लबों के माध्यम से भी सामाजिक सेवा की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित कर अपूर्व सदस्यतावृद्धि हेतु श्रेष्ठ गवर्नर पदक प्राप्त किये. वे जो भी कार्य करते थे दत्तचित्त होकर लक्ष्य पाने तक करते थे.

छतीसगढ़ शासन जागे :

बिलासपुर तथा छत्तीसगढ़ के विविध अंचलों में प्रो. असत्य सहाय के निधन का समाचार पाते ही शोक व्याप्त हो गया. छतीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों ने उनकी स्मृति में शोक प्रस्ताव पारित किये. अभियान सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्था जबलपुर, रोटरी क्राउन जबलपुर, रोटरी क्लब बिलासपुर, रोटरी क्लब खरसिया, लायंस क्लब खरसिया, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सनातन कायस्थ महापरिवार मुम्बई, विक्रम महाविद्यालय उज्जैन, शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर, कायस्थ समाज बिलासपुर, कायस्थ कल्याण परिषद् बिलासपुर, कायस्थ सेना जबलपुर आदि ने प्रो. सत्यसहाय के निधन पर श्रैद्धांजलि व्यक्त करते हुए उन्हें युग निर्माता निरूपित किया है. छत्तीसगढ़ शासन से अपेक्षा है कि खरसिया महाविद्यालय में उनकी प्रतिमा स्थापित की जाये तथा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर में अर्थशास्त्र विषयक उच्च शोध कार्यों हेतु प्रो. सत्यसहाय शोधपीठ की स्थापना की जाए.

दिव्यनर्मदा परिवार प्रो. सत्यसहाय के ब्रम्हलीन होने को शोक का कारण न मानते हुए इसे देह-धर्म के रूप में विधि के विधान के रूप में नत शिर स्वीकारते हुए संकल्प लेता है कि दिवंगत के आदर्शों के क्रियान्वयन हेतु सतत सक्रिय रहेगा. हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने की प्रो. सत्यसहाय की मनोकामना को मूर्तरूप देने के लिये सतत प्रयास जारी रहेंगे. आप सब इस पुनी कार्य में सहयोगी हों, यही सच्ची कर्मांजलि होगी.

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12 दिसंबर 2010

बंधु उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ जी से यदा-कदा! -- महेन्द्र भटनागर


बंधु उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ जी से यदा-कदा!

[महेंद्रभटनागर]

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यह वर्ष श्री॰ उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ जी का जन्मशती-वर्ष है।

अश्क’ जी का जन्म 14 दिसम्बर 1910 को जालंधर (पंजाब) में हुआ था। उनकी पत्नी श्रीमती कौशल्या अश्क और दो पुत्र — उमेश और नीलाभ।

उनके द्वारा लिखित साहित्य विपुल है:

काव्य-कृतियाँ (8), उपन्यास (10), कहानी-संग्रह(13), नाटक (11), एकांकी-संग्रह (7), आलोचना-ग्रंथ (4), निबन्ध-संग्रह (4), संस्मरण-संकलन (4), जीवनी, साक्षात्कार-संकलन (5) के अतिरिक्त अनुवाद (7) और सम्पादन (‘संकेत’ (1956 हिन्दी), (1962 उर्दू) भी।

मेरे उनसे बड़े आत्मीय संबंध रहे। समय-समय पर एकांकी नाटकों के सम्पादन का दायित्व मुझे सौंपा जाता रहा। इन संकलनों में ‘अश्क’ जी के एकांकी शामिल न हों यह नामुमकिन था। अत: अनुमति-प्राप्ति-हेतु, मुझे समय-समय पर उनसे पत्र-व्यवहार करना पड़ा। उनके सौजन्य और औदार्य से मैं बड़ा प्रभावित हुआ। ‘अश्क’ जी ने प्रकाशन-अनुमति मुझे तुरन्त दी।

जिन दिनों मैं ‘जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर’ से सम्बद्ध ‘कमलाराजा कन्या शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ में हिन्दी-विभाग का अध्यक्ष था, ‘अश्क’ जी को एक विशेष कार्यक्रम में आमंत्रित किया। उनके पुत्र श्री॰ उमेश मुझसे मिलने ग्वालियर आए। उसके बाद ‘अश्क’ जी का बड़ा प्यारा ख़त आया। यह पत्र ‘अश्क’ जी की अनेक विशेषताओं को उजागर करता है।






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अश्कउपेन्द्रनाथ,

5-खुसरोबाग़ रोड, इलाहाबाद — 211 001 / दिनांक : 25-2-81

प्रियवर महेंद्रभटनागर साहब,

कई दिनों से आपको पत्र लिखने की सोच रहा हूँ, लेकिन चाहने पर भी समय नहीं निकाल पाया और इस सयम रात के दो बजे बैठ कर ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।

आपने साग्रह ग्वालियर बुलाया था, चण्डीगढ़ भी तार दिया था, लेकिन लाख इच्छा रखने के बावज़ूद मैं आपके उस स्नेह भरे आमंत्रण की लाज न रख सका, जिसका मुझे अफ़सोस है।

20 वर्षों बाद पंजाब गया था। मन में आयी कि दो दिन को अपने जन्म-स्थान जालंधर भी होता चलूँ। केवल दो दिन का प्रोग्राम बनाया था, पर वहाँ दूरदर्शन-केन्द्र के निदेशक मेरी उपस्थिति का लाभ उठाने की गर्ज़ से ज़ोर देने लगे कि मेरे उपन्यास गिरती दीवारेंके लोकेल पर — याने मेरे पैतृक घर और मेरी ससुराल बस्ती ग्रज़ा जाकर डाक्यूमेण्टरी बनाएंगे। इसलिए रुकना पड़ा और दो के बदले दस दिन लग गए।

नये साल के तीन सप्ताह तो इसी 70 वीं वर्ष-गाँठ के चक्कर में निकल गए और ढेर सारी इकट्ठी हो जाने वाली डाक को निपटाने और घरेलू परेशानियों के पार पाने के प्रयास में — जो नीलाभ की अनुपस्थिति में बहुत बढ़ गयी हैं। उसने पंद्रह वर्षोंसे सब काम सँभाल रखा था और मैं सारा वक़्त लेखन में गुज़ारता था, अब इस बुढ़ापे में प्रकाशन की अनेक चिन्ताएँ भी सिर पर सवार हो गयी हैं।

बहरहाल सबसे पहले तो आपके आग्रह की रक्षा न कर पाने के लिए आपसे क्षमा-याचना करता हूँ और वादा करता हूँ कि यदि स्वास्थ्य ठीक रहा और आपने फिर कभी बुलाया तो ज़रूर हाज़िर हूंगा। आपसे भी अनुरोध करता हूँ कि यदि इस बीच आप इलाहाबाद आयें तो मिले बिना न जायँ। बल्कि असुविधा न हो तो मेरे यहाँ ही ठहरें। यथासम्भव हम आपको किसी तरह का कष्ट न होने देंगे।

गत दिसम्बर में मेरी निम्नलिखित तीन पुस्तकें छपी हैं ( निमिषा: उपन्यास, ‘मुखड़ा बदल गया: एकांकी-संग्रह, ‘चेहरे: अनेक- 3 : जीवनी-खंड)। अपनी शुभकामनाओं के साथ भेज रहा हूँ। पढ़ें तो अपने इम्प्रेशन ज़रूर दें।

उमेश आपसे मिल कर आया था तो उत्साहित था। ऐसी कठिनाई में आपने सहायता का हाथ बढ़ाया है, उसके लिए भी आभार लें। आपको किसी तरह की शिकायत का अवसर वह नहीं देगा।

सस्नेह,

उपेंद्रनाथ अश्क

पुनश्च:

मुझे अचानक फिर दिल्ली जाना पड़ रहा है। सूचना-मंत्री श्री साठे ने जाने किस परामर्श के लिए बुलाया है और वहाँ कितने दिन लग जायँ, इसलिए इतनी रात गये ये पंक्तियाँ जल्दी-जल्दी लिखी हैं।

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अश्क’ जी जैसे सर्वतोमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार कम ही देखने में आते हैं। उनमें कार्य-क्षमता अद्भुत थी।

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डा॰ महेंद्रभटनागर, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (म॰ प्र॰)

फ़ोन : 0751-4092908 / -मेल : drmahendra02@gmail.com

07 दिसंबर 2010

फिरदौस खान का आलेख -- विकलांग व्‍यक्तियों के सशक्तिकरण की दरकार

विकलांग व्‍यक्तियों के सशक्तिकरण की दरकार

फ़िरदौस ख़ान
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यह आलेख साभार फिरदौस जी के ब्लॉग "मेरी डायरी" से उनकी अनुमति सहित लिया गया है। इस आलेख को मूल रूप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस आलेख को फिरदौस जी के ब्लॉग पर यहाँक्लिक करके भी पढ़ा जा सकता है फिरदौस जी का आभार।
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दुनियाभर में 65 करोड़ लोग विकलांगता के शिकार हैं. वर्ष 2001 में हुई जनगणना के मुताबिक भारत में 2.19 करोड़ लोग विकलांग हैं जो कुल आबादी के 2.13 फ़ीसदी हैं. इसमें दृष्टि 29 फ़ीसदी श्रवण 6 फ़ीसदी, वाणी 7 फ़ीसदी, गति 28 फ़ीसदी और मानसिक 10 फ़ीसदी शामिल हैं. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) के 2002 की रिपोर्ट के मुताबिक़ कुल विकलांगों में दृष्टि 14 फ़ीसदी श्रवण 15 फ़ीसदी, वाणी 10 फ़ीसदी, गति 51 फ़ीसदी और मानसिक 10 फ़ीसदी हैं. 75 फ़ीसदी विकलांग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, 49 फ़ीसदी विकलांग निरक्षर हैं और 34 फ़ीसदी रोज़गार प्राप्त हैं. पूर्व में चिकित्सकीय पुनर्वास पर दिए बल की बजाए अब सामाजिक पुनर्वास पर ध्यान दिया जा रहा है. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के तहत विकलांगता विभाग, विकलांग व्यक्तियों की मदद करता है, जिनकी संख्या वर्ष 2001 में हुई जनगणना के मुताबिक़ 2.19 करोड़ थी जो देश की कुल आबादी का 2.13 फ़ीसदी था. इनमें दृष्टि, श्रवण, वाणी, गति तथा मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति शामिल थे.

हर साल 3 दिसम्‍बर को अंतर्राष्‍ट्रीय विकलांगता दिवस मनाया जाता है. 1981 से मनाए जा रहे इस दिन का मक़सद विकलांग व्‍यक्तियों के प्रति बेहतर समझ क़ायम करना और उनके अधिकारों पर ध्‍यान देने के साथ-साथ उन्‍हें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक जीवन में मिलने वाले लाभ दिलाना है. विकलांगों से संबंधित विश्‍व कार्यकलाप कार्यक्रम ने विकलांगों की समाज में संपूर्ण और कारगर भागीदारी का लक्ष्‍य निर्धारित किया था जिसे संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा ने 1982 में स्‍वीकार कर लिया. संयुक्‍त राष्‍ट्र ने विकलांगों के लिए पूर्ण और कारगर भागीदारी की प्रतिबद्धता व्‍यक्‍त की, जिसे 2006 में मंज़ूर विकलांगता के शिकार लोगों के नवगठित अधिकार समझौते में और मज़बूती प्रदान की गई. भारत ने 30 मार्च 2007 को संयुक्‍त राष्‍ट्र समझौते पर हस्‍ताक्षर किए. भारत सरकार विकलांग लोगों की पूर्ण भागीदारी, उनके अधिकारों की रक्षा और उन्‍हें समान अवसर प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है. भारत की अधिकांश आबादी गांवों में रहती है और स्‍वास्‍थ्‍य और पुनर्वास सेवा तक पहुंच हमेशा से चुनौती का विषय रहा है. इस तथ्‍य को ध्‍यान में रखते हुए हमारी सरकार ने सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर विभिन्‍न कार्यक्रमों के ज़रिये उन लोगों तक पहुंचने के लिए अनेक क़दम उठाए हैं जिन तक पहुंचा नहीं जा सका.

सामाजिक न्‍याय और अधिकारिता मंत्रालय हर साल 3 दिसम्‍बर को विकलांगों के सशक्तिकरण के लिए राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार प्रदान करता है. इन पुरस्‍कारों की शुरुआत 1969 में विकलांगों को नौकरी देने वाले सर्वश्रेष्‍ठ मालिकों और सर्वश्रेष्‍ठ कर्मचारी को पुरस्‍कृत करने के लिए की गई थी. बदलते परिदृश्‍य को ध्‍यान में रखते हुए राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार योजना की समीक्षा की गई और समय समय पर इसमें बदलाव करते हुए पुरस्‍कारों की विभिन्‍न नई श्रेणियां शुरू की गईं. राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों की वर्तमान योजना के मुताबिक़ विकलांगों के सशक्तिकरण के लिए 13 श्रेणियों में 63 पुरस्‍कार दिए जाएंगे, जिनमें सर्वश्रेष्‍ठ कर्मचारी/ स्‍व रोज़गार विकलांग, सर्वश्रेष्‍ठ मालिक और नौकरी देने वाले अधिकारी/विकलांगों को नौकरी देने वाली एजेंसी, विकलांगों के लिए काम करने वाले सर्वश्रेष्‍ठ व्‍यक्ति और संस्‍थान, अनुकरणीय व्‍यक्ति, विकलांगों का जीवन बेहतर बनाने के उद्देश्‍य से सर्वश्रेष्‍ठ व्‍यावहारिक अनुसंधान/नवपरिवर्तन/उत्‍पादों का विकास, विकलांगों के लिए अवरोध मुक्‍त वातावरण तैयार करने की दिशा में श्रेष्‍ठ कार्य, पुनर्वास सेवाएं देने वाला श्रेष्‍ठ ज़िला, राष्‍ट्रीय विश्‍वास की स्‍थानीय स्‍तर की समिति, राष्‍ट्रीय विकलांगता, वित्‍त् और विकास निगम को दिशा देने वाले सर्वश्रेष्‍ठ राज्‍य, सर्वश्रेष्‍ठ सृजनशील वयस्‍क विकलांग व्‍यक्ति, सर्वश्रेष्‍ठ सृजनशील विकलांग बच्‍चा, सर्वश्रेष्‍ठ ब्रेल प्रेस और सर्वश्रेष्‍ठ सुगम्‍य वेबसाइट शामिल हैं.

आधिकारिक जानकारी के मुताबिक़ देशभर के विभिन्‍न प्राधिकारों को पत्र लिखकर नामांकन मांगे गए. इसके अलावा मंत्रालय की वेबसाइट में विज्ञापन देने के अलावा देशभर के विभिन्‍न लोकप्रिय क्षेत्रीय दैनिक समाचार-पत्रों में भी विज्ञापन दिये गए. जो सिफ़ारिशें प्राप्‍त हुईं उनमें से स्‍क्रीनिंग समिति ने संक्षिप्‍त सूची तैयार की और राष्‍ट्रीय चयन समिति ने पुरस्‍कारों को अंतिम रूप दिया. हर साल 3 दिसम्‍बर को अंतर्राष्‍ट्रीय विकलांगता दिवस के अवसर पर यह पुरस्‍कार दिए जाते हैं., भारतीय पुनर्वास परिषद् के मुताबिक़ निःशक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 के अन्तर्गत विकलांग व्यक्तियों को अनेक अधिकार दिए गए हैं. अविकलांग व्यक्तियों की तरह समान अवसर का अधिकार, विकलांगजनों के कानूनी अधिकारों की सुरक्षा और जीवन के कार्यों में अविकलांग व्यक्तियों के बराबर पूर्ण भागीदारी का अधिकार दिया गया है. इस अधिनियम द्वारा विकलांगजनों को क़ानूनी तौर पर मान्यता दी गई है और विभिन्न विकलांगताओं को क़ानूनी परिभाषा दी गई है.

इस अधिनियम से विकलांगजनों को यह अधिकार है कि उनकी देखभाल की जाए और जीवन की मुख्यधारा में उन्हें पुनर्वासित किया जाए और सरकार तथा इस अधिनियम द्वारा कवर किए गए प्राधिकरणों और अन्य प्राधिकरण और स्थापनाओं का यह दायित्व है कि वे इस अधिनियम के प्रावधानों के मद्देनज़र विकलांगजनों के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें. केन्द्रीय और राज्य सरकारों का यह कर्त्तव्य है कि वे रोकथाम संबंधी उपाय करें, ताकि विकलांगताओं को रोका जा सके. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर कर्मचारियों को प्रशिक्षित करें, स्वास्थ्य और सफ़ाई संबंधी सेवाओं में सुधार करें. वर्ष में कम से कम एक बार बच्चों की जांच करें, जोखिम वाले मामलों की पहचान करें. प्रसवपूर्व और प्रसव के बाद मां और शिशु के स्वास्थ्य की देखभाल करें और विकलांगता की रोकथाम के लिए विकलांगता के कारण और बचाव के उपायों के बारे में जनता को जागरूक करें. प्रत्येक विकलांग बच्चे को 18 वर्ष की आयु तक उपयुक्त वातावरण में निःशुल्क शिक्षा का अधिकार है.

सरकार को विशेष शिक्षा प्रदान करने के लिए विशेष स्कूल स्थापित करने चाहिए, सामान्य स्कूलों में विकलांग छात्रों के एकीकरण को बढ़ावा देना चाहिए और विकलांग बच्चों के व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए अवसर मुहैया कराने चाहिए. पांचवीं कक्षा तक पढाई कर चुके विकलांग बच्चे मुक्त स्कूल या मुक्त विश्वविद्यालयों के माध्यम से अंशकालिक छात्रों के रुप में अपनी शिक्षा जारी रख सकते हैं और सरकार से विशेष पुस्तकें और उपकरणों को निःशुल्क प्राप्त करने का उन्हें अधिकार है. सरकार का यह कर्त्तव्य है कि वह नए सहायक उपकरणों, शिक्षण सहायक साधनों और विशेष शिक्षण सामग्री का विकास करे ताकि विकलांग बच्चों को शिक्षा में समान अवसर प्राप्त हों. विकलांग बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार को शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने हैं, विस्तृत शिक्षा संबंधी योजनाएं बनानी हैं. विकलांग बच्चों को स्कूल जाने-आने के लिए परिवहन सुविधाएं देनी हैं, उन्हें पुस्तकें, वर्दी और अन्य सामग्री, छात्रवृत्तियां, पाठ्यक्रम और नेत्रहीन छात्रों को लिपिक की सुविधाएं देना है. दृष्टिहीनता, श्रवण विकलांग और प्रमस्तिष्क अंगघात से ग्रस्त विकलांगजनों की प्रत्येक श्रेणी के लिए पदों का आरक्षण होगा. इसके लिए प्रत्येक तीन वर्षों में सरकार द्वारा पदों की पहचान की जाएगी. भरी न गई रिक्तियों को अगले साल के लिए ले जाया जा सकता है.

विकलांगजनों को रोजगार देने के लिए सरकार को विशेष रोज़गार केन्द्र स्थापित करने हैं. सभी सरकारी शैक्षिक संस्थान और सहायता प्राप्त संस्थान सीटों को विकलांगजनों के लिए आरक्षित रखेंगे. रिक्तियों को गरीबी उन्मूलन योजनाओं में आरक्षित रखना है. नियोक्ताओं को प्रोत्साहन भी देना है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके द्वारा लगाए गए कुल कर्मचारियों में से 5 व्यक्ति विकलांग हैं. आवास और पुनर्वास के उद्देश्यों के लिए विकलांग व्यक्ति रियायती दर पर जमीन के तरजीही आबंटन के हक़दार होंगे. विकलांग व्यक्तियों के साथ परिवहन सुविधाओं, सड़क पर यातायात के संकेतों या निर्मित वातावरण में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा. सरकारी रोजगार के मामलों में विकलांग व्यक्तियों के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. सरकार विकलांग व्यक्तियों या गंभीर विकलांगता से ग्रस्त व्यक्तियों के संस्थानों की मान्यता निर्धारित करेगी. मुख्य आयुक्त और राज्य आयुक्त विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों से संबंधित शिकायतों के मामलों की जांच करेंगे. सरकार और स्थानीय प्राधिकरण विकलांग व्यक्तियों के पुनर्वास का कार्य करेंगे, गैर-सरकारी संगठनों को सहायता देंगे, विकलांग कर्मचारियों के लिए बीमा योजनाएं बनाएंगे और विकलांग व्यक्तियों के लिए बेरोजगारी भत्ता योजना भी बनाएंगे. छलपूर्ण तरीक़े से विकलांग व्यक्तियों के लाभ को लेने वालों या लेने का प्रयास करने वालों को 2 साल की सज़ा या 20 हज़ार रुपए तक का जुर्माना होगा.

राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 के अन्तर्गत विकलांगता से ग्रस्त व्यक्तियों को भी अनेक अधिकार दिए गए हैं. इस अधिनियम के अनुसार केन्द्रीय सरकार का यह दायित्व है कि वह ऑटिज्म, प्रमस्तिष्क अंगघात, मानसिक मंदता और बहु विकलांगता ग्रस्त व्यक्तियों के कल्याण के लिए, नई दिल्ली में राष्ट्रीय न्यास का गठन करें. केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित किए गए राष्ट्रीय न्यास को यह सुनिश्चित करना होता है कि इस अधिनियम की धारा 10 में वर्णित उद्देश्यों पूरे हों. राष्ट्रीय न्यास के न्यासी बोर्ड का यह दायित्व है कि वे वसीयत में उल्लिखित किसी भी लाभग्राही के समुचित जीवन स्तर के लिए आवश्यक प्रबंध करें और विकलांगजनों के लाभ हेतु अनुमोदित कार्यक्रम करने के लिए पंजीकृत संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान करें. इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार, विकलांग व्यक्तियों को स्थानीय स्तर की समिति द्वारा नियुक्त संरक्षक की देखरेख में, रखे जाने का अधिकार है. नियुक्त किए गए ऐसे संरक्षकों उस व्यक्ति और विकलांग प्रतिपाल्यों की संपत्ति के लिए ज़िम्मेदार और उत्तरदायी होंगे.

यदि विकलांग व्यक्ति का संरक्षक उसके साथ दुप्र्यवहार कर रहा है या उसकी उपेक्षा कर रहा है या उसकी संपत्ति का दुरुपयोग कर रहा है तो विकलांग व्यक्ति को अपने संरक्षक को हटा देने का अधिकार है. जहां न्यासी बोर्ड कार्य नहीं करता या इसने सौंपे गए कार्यों के कार्यनिष्पादन में लगातार चूक की है, वहां विकलांग व्यक्तियों हेतु पंजीकृत संगठन, न्यासी बोर्ड को हटाने/इसका पुनर्गठन करने के लिए केन्द्रीय सरकार से शिकायत कर सकता है. इस अधिनियम के उपबन्ध राष्ट्रीय न्यास पर जवाबदेही, मॉनीटरिग, वित्त, लेखा और लेखा-परीक्षा के मामले में बाध्यकारी होंगे.

भारतीय पुनर्वास अधिनियम, 1992 के अंतर्गत निःशक्त व्यक्तियों को भी अधिकार दिए गए हैं. इस अधिनियम के तहत परिषद द्वारा रखे जा रहे रजिस्टरों में जिन प्रशिक्षित और विशेषज्ञ व्यावसायिकों के नाम दर्ज हैं, उनके द्वारा विकलांगजनों को लाभ पहुंचाना. शिक्षा के उन न्यूनतम मानकों को बनाए रखने की गारंटी जो भारत में विश्वविद्यालयों या संस्थानों द्वारा पुनर्वास अर्हता की मान्यता के लिए अपेक्षित हैं. शिक्षा के उन न्यूनतम मानकों को बनाए रखने की गारंटी जो भारत में विश्वविद्यालयों या संस्थानों द्वारा पुनर्वास अर्हता की मान्यता के लिए अपेक्षित हैं. केन्द्र सरकार के नियंत्रणाधीन और अधिनियम द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर किसी सांविधिक परिषद द्वारा पुनर्वास व्यावसायिकों के व्यवसाय के विनियम की गारंटी.

मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 के अंतर्गत विकलांगों को अनेक अधिकार दिए गए हैं. मानसिक रुप से रुग्ण व्यक्तियों के उपचार और देखभाल के लिए सरकार या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा स्थापित या अनुरक्षित किए जा रहे किसी मनश्चिकित्सीय अस्पताल या मनश्चिकित्सीय नर्सिग होम या स्वास्थ्य लाभ गृह (सरकारी सार्वजनिक अस्पताल या नर्सिग होम के अलावा) में भर्ती होने, उपचार करवाने या देखभाल करवाने का अधिकार. मानसिक रुप से रुग्ण कैदी और नाबालिग को भी सरकारी मनश्चिकित्सीय अस्पताल या मनश्चिकित्सीय नर्सिग होम्स में इलाज करवाने का अधिकार है. 16 वर्ष से कम आयु के नाबालिगों, व्यवहार में परिवर्तन कर देने वाले अल्कोहल या अन्य व्यवसनों के आदी व्यक्ति और वे व्यक्ति जिन्हें किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, को सरकार द्वारा स्थापित या अनुरक्षित किए जा रहे अलग मनश्चिकित्सीय अस्पतालों या नर्सिग होम में भर्ती होने, उपचार करवाने या देखरेख करवाने का अधिकार है. मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों को सरकार से मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को विनियमित, निर्देशित और समन्वित करवाने का अधिकार है.

सरकार का दायित्व इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित केन्द्रीय प्राधिकरणों और राज्य प्राधिकरणों के माध्यम से मनश्चिकित्सीय अस्पतालों और नर्सिग होमों को स्थापित और अनुरक्षित करने के लिए ऐसे विनियमनों और लाइसेंसों को जारी करने का है. इन सरकारी अस्पतालों और नर्सिग होमों में इलाज अन्तःरोगी या बाह्य रोगी के रुप में हो सकता है. मानसिक रुप से रुग्ण व्यक्ति ऐसे अस्पतालों या नर्सिग होमों में अपने आप भर्ती होने के लिए अनुरोध कर सकते हैं और नाबालिग अपने संरक्षकों के द्वारा भर्ती होने के लिए अनुरोध कर सकते हैं. मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों के रिश्तेदारों द्वारा भी रुग्ण व्यक्तियों की ओर से भर्ती होने के लिए अनुरोध किया जा सकता है. भर्ती आदेशों को मंज़ूर करने के लिए स्थानीय मजिस्ट्रेट को भी आवेदन किया जा सकता है. पुलिस का दायित्व है कि भटके हुए या उपेक्षित मानसिक रुग्ण व्यक्ति को सुरक्षात्मक हिफाजत में लें, उसके संबंधी को सूचित करें और ऐसे व्यक्ति के भर्ती आदेशों को जारी करवाने हेतु उसे स्थानीय मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित करें.

मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों को इलाज होने के बाद अस्पताल से डिस्चार्ज होने का अधिकार है और अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार वह छुट्टी का हक़दार है. जहां कहीं मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति भूमि सहित अपनी अन्य संपत्तियों की स्वयं देखरेख नहीं कर सकते वहां, जिला न्यायालय आवेदन करने पर ऐसी संपत्तियों के प्रबंधन की रक्षा और सुरक्षा ऐसे मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों के संरक्षकों की नियुक्ति करने के द्वारा या ऐसी संपत्ति के प्रबंधकों की नियुक्ति द्वारा प्रतिपालय न्यायालय को सौंप कर करनी पड़ती है. सरकारी मनश्चिकित्सीय अस्पताल या नर्सिग होम में अंतःरोगी के रूप में भर्ती हुए मानसिक रुप से रुग्ण व्यक्ति के उपचार का ख़र्च, जब तक कि मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति की ओर से उसके संबंधी या अन्य व्यक्ति द्वारा ऐसे ख़र्च को वहन करने की सहमति न दी गई हो, संबंधित राज्य सरकार द्वारा ख़र्च का वहन किया जाएगा और इस तरह के अनुरक्षण के लिए प्रावधान ज़िला न्यायालय के आदेश द्वारा दिए गए हैं. इस तरह का खर्च मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति की संपत्ति से भी लिया जा सकता है. इलाज करवा रहे मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का असम्मान (चाहे यह शारीरिक हो या मानसिक) या क्रूरता नहीं की जाएगी और न ही मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति का प्रयोग उसके रोग-निदान या उपचार को छोड़कर, अनुसंधान के उद्देश्य से या उसकी सहमति से नहीं किया जाएगा. सरकार से वेतन, पेंशन, ग्रेच्यूटी या अन्य भत्तों के हकदार मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों (जैसे सरकारी कर्मचारी, जो अपने कार्यकाल के दौरान मानसिक रूप से रुग्ण हो जाते हैं), को ऐसे भत्तों की अदायगी से मना नहीं किया जा सकता है. मजिस्ट्रेट से इस आशय का तथ्य प्रमाणित होने के बाद, मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति की देखरेख करने वाला व्यक्ति या मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति के आश्रित ऐसी राशि को प्राप्त करेंगे. यदि मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति कोई वकील नहीं कर सकता या कार्यवाहियों के संबंध में उसकी परिस्थितियों की ऐसी अपेक्षा हो तो अधिनियम के अंतर्गत उसे मजिस्ट्रेट या ज़िला न्यायालय के आदेश द्वारा वकील की सेवाओं को लेने का अधिकार है.

विकलांगों के कल्याण के लिए सरकार कई योजनाएं चला रही है. विकलांगों के लिए राष्ट्रीय छात्रवृत्ति की इस योजना के तहत प्रत्येक वर्ष 500 नई छात्रवृत्ति ऐसे प्रतिभागियों को दी जाती है जो 10वीं के बाद 1 साल से अधिक अवधि वाले व्यावसायिक या तकनीकी पाठ्यक्रमों में अध्ययन करते हैं. हालांकि मानसिक पक्षाघात, मानसिक मंदता, बहु-विकलांगता तथा गंभीर श्रवण हानि से ग्रस्त छात्रों की स्थिति में छात्रवृत्ति 9वीं कक्षा से छात्र-छात्राओं को अध्ययन पूरा करने के लिए दी जाती है. छात्रवृत्ति के लिए प्रार्थनापत्र आमंत्रित करने की विज्ञप्ति प्रमुख राष्ट्रीय/क्षेत्रीय समाचारपत्रों में जून के महीने में दी जाती है तथा इसे मंत्रालय की वेबसाइट पर भी प्रकाशित किया जाता है. राज्य सरकारों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन से इस योजना के व्यापक विज्ञापन के लिए अनुरोध किया जाता है.

ऐसे छात्र जो 40 फ़ीसदी या ज़्यादा विकलांग की श्रेणी में आते हैं और जिनके परिवार की आय 15 हज़ार रुपए से ज़्यादा न हो, वे भी इस योजना के तहत आते हैं. स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर के तकनीकी या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों वाले छात्रों को प्रति माह 700 रुपए की राशि सामान्य स्थिति में तथा 1,000 रुपए की राशि छात्रावास में रहने वाले छात्रों को दी जाती है. डिप्लोमा तथा सर्टिफिकेट स्तर के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों वाले छात्रों को प्रति माह 400 रुपए की राशि सामान्य स्थिति में तथा 700 रुपए की राशि छात्रावास में रहने वाले छात्रों को दी जाती है. छात्रवृत्ति के अलावा छात्रों को पाठ्यक्रम की फ़ीस भी दी जाती है जिसकी राशि वार्षिक 10,000 रुपए तक है. इस योजना के तहत अंधे /बहरे स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों को व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को पूरा करने के लिए सॉफ्ट्वेयर के साथ कंप्यूटर के लिए भी आर्थिक सहायता दी जाती है. यह सहायता मानसिक पक्षाघात से ग्रस्त छात्रों को आवश्यक सॉफ्टवेयर की उपलब्धता के लिए भी दी जाती है.

सिर्फ़ योजनायें बनाने से विकलांगों का सशक्तिकरण होने वाला नहीं है. इसके लिए ज़रूरी है कि सरकारी योजनाओं का फ़ायदा ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचे. इसके लिए जागरूकता की ज़रूरत है. आम लोगों को भी चाहिए कि अगर उनके आस-पास ऐसा कोई व्यक्ति या बच्चा है तो उसके परिजनों को सरकारी योजनाओं की जानकारी मुहैया कराएं. यक़ीन मानिए हमारी ज़रा सी मदद से किसी की ज़िन्दगी की दिशा बदल सकती है. उसे जीने की एक नई राह मिल सकती है. मौक़ा मिलने पर विकलांग व्यक्ति भी विभिन्न क्षेत्रों में कामयाबी की इबारत लिख सकते हैं.

14 नवंबर 2010

दिव्या गुप्ता जैन का बाल दिवस पर विशेष आलेख -- खो ना जाएँ ये तारे जमीन पे

खो ना जाये ये तारे जमीं पे
दिव्या गुप्ता जैन

आज सभी बच्चे बहुत उत्साहित है की वे अपने स्कूल में बाल दिवस मनाएंगे औरअच्छे-अच्छे उपहार पाएंगे! नाचेंगे गायेंगे और ढेर सारी मस्ती करेंगे! कितनी प्यारी तस्वीर हैं ना! पर हमारें देश में बहुत सारे बच्चें हैं जो स्कूल नहीं जाते काम पर जाते है! हम सब हमेशा गपशप के दौरान अपने बचपन और स्कूल की ढेर सारी बातें करते है! पर नन्हे-मुन्नों का क्या जिन्हें या तो स्कूल नसीब नहीं होता और होता भी है तो ऐसा जहाँ उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती!

केंद्र सरकार ने मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू तो करवा दिया पर पर ये कानून हमारें सभी नन्हे-मुन्नों का भविष्य सवारने के लिए नाकाफी है! इस कानून में भी बहुत सारे बदलाव की जरूरत है! जैसे कि "पैरा शिक्षक" (जैसे संबिदा शिक्षक, अथिति शिक्षक,गुरूजी, शिक्षामित्र आदि) लगाने पर रोक नहीं है! इसी कारण सरकारी व सस्ते निजी स्कूल में पढाई आज भी रामभरोसे चलती है!

कानून में शिक्षकों का न्यूनतम वेतन इतना कम रक्खा गया है की सरकारी स्कूल में पैरा शिक्षक और निजी में अयोग्य शिक्षक जारी रहेंगे! सरकारी शिक्षकों की चुनाव और जनगणना के काम में रोक नहीं लगाई गई! यानि मास्टरसाहब घूमेंगे गावं और बच्चें उनकी बाट जोहेंगे! कानून में निजी विद्यालयों की फीस बढ़ाने पर कोई रोक नहीं लगाई है! तो गरीब बच्चे बड़े स्कूल को देख तो सकते पर उसके अन्दर जाने की हिम्मत नहीं कर सकते!

एक अध्ययन के दौरान यह पता चला कि मलिन बस्ती में रहने वाले प्राथमिक स्तर पर शिक्षित अभिभावकों के बीस प्रतिशत बच्चे निरक्षर हैं। ऐसे परिवारों में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने जाने वाले बच्चों की संख्या 30.58 फीसदी है। इनमें 14.32 प्रतिशत लड़के और 16.26 प्रतिशत लड़कियां हैं। जाहिर है कि यहां पर छात्रओं की संख्या छात्रें से अधिक है। जबकि पढ़ाई छोड़ने वाले कुल 15.53 प्रतिशत बच्चों में से बालकों का प्रतिशत 10.43 हैं। वहीं दूसरी तरफ बालिकाओं का प्रतिशत 5.09 है।

कितना मजेदार हो अगर चुनाव आयोग वोटिंग मशीन में चुनाव चिन्ह हटा केसिर्फ उमीदवार का नाम लिखने का नियम लागु कर दे! तो सारे नेता अपना काम छोड़ कर जनता तो पढ़ाने-लिखाने में जुट जाएँ! और वो सारे स्कूल की फीस माफ़ करा देंगे! और हमारे चंदू, छोटू, दीपू, गायत्री, बड़की, रज्जो सब कचरा बीनना और बर्तन साफ़ करना छोड़ कर कहेंगे "स्कूल चले हम"!
आईये हम सब मिलकर प्रयास करें की हमारें सभी नन्हे-मुन्ने पढ़े-लिखे और जीवन मैं बहुत आगे बढे!
- दिव्या गुप्ता जैन

05 अगस्त 2010

चिंतन : शब्दों की सामर्थ्य संजीव 'सलिल'

चिंतन :

शब्दों की सामर्थ्य

संजीव 'सलिल'
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पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.

हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.

दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.

समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.

तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.

अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.

प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?

केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.

साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.

सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

21 जून 2010

दिव्या गुप्ता जैन का आलेख -- अपने पिता को विस्मृत न करें

अपने पिता को विस्मृत न करें
दिव्या गुप्ता जैन


माता-पिता का किसी भी व्यक्ति के जीवन में क्या महत्व है ये बताने की आवश्यकता नहीं है।जहाँ माँ कोख में बच्चे को अपने खून से सींचती है तो वही पिता उसे परिपक्व होने तक अपने पसीने से पालता है। एक तरफ माँ बच्चे के पालन- पोषण ढेर सारा त्याग और तपस्या के साथ करती है, तो दूसरी तरफ पिता एक मजबूत आधार की तरह हर समय सहारा देता है। इसीलिए यदि किसी परिवार में दुर्घटनावश यदि पिता की असमय म्रत्यु हो जाती है तो परिवार बिखर जाता है और बच्चे शिक्षा, सहारा, सलाह, प्रोत्साहन के आभाव में आगे नहीं बढ़ पाते।


हर पिता अपने बच्चो को अपने से ज्यादा सफल देखना चाहता है जिसके वह कठिन परिश्रम करता है।अपने शौकों पर नियंत्रण करता है। जरुरत पड़ने पर कर्ज भी लेता है। खुद छोटे से घर में रहके, साइकिल चलाके अपने बच्चो के लिए बड़े घर और गाड़ी का सपना देखता है। और उस सपने को पूरा करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी को संघर्ष में निकल देता है। पिता वो शाख है जो अपने बच्चे की हर मुश्किल में उसका साया बन जाता है। जिस समय उसे एक कदम भी चलना भी नहीं आता उसे उँगली पकड़ के चलना सिखाता है परन्तु आजकल के बच्चे अपना फर्ज भूल गए है

इसीलिए शहर के नक़्शे में वृद्धाश्रम दिखने लगे है। जहाँ पिता अकेले पाँच बच्चो को पाल लेता है उन्हें जीवन के सारे सुख आराम देता है वही पाँच बच्चे मिलकर एक पिता को नहीं पाल पाते। कमाने की भागदौड़ में हम
मॉल में लगी सेल देखने का, किटी पार्टी का, समारोह में जाने का समय तो निकल लेते हैं! लेकिन बूढ़े पिता के जोड़ों के दर्द का हाल पूछने का समय नहीं निकल पाते। यहाँ तक कि हमें उनकी दवा का खर्च भी अखरने लगता है। हम उस समय ये भूल जाते है की ये वही बरगद का पेड़ है जिसकी छाया में पलके हम बड़े हुए है। यदि उन्होंने भी उस समय अपनी ऐशोआराम में समय बिताया होता तो शायद हम इस ऊंचाई पर नहीं पहुच पाते।

आइये आज अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस पर अपने पिता को सम्मान दे। हमारे जीवन में उनके योगदान को याद करें। और यदि वो अभाग्यवश हमारें साथ नहीं है तो अपने बच्चो के साथ उनके योगदान की चर्चा करें।

07 मई 2010

जनगणना प्रक्रिया अधूरी क्यों?

देश में जनगणना का कार्य आरभ्य होने जा रहा है, हमारा गृह मंत्रालय इसके लिए प्रारूप तैयार कर चुका है. कल ये प्रश्न उठा कि इनमें जाति के उल्लेख के लिए कोई कॉलम नहीं है और गृह मंत्री इसके लिए तैयार भी नहीं है. लेकिन जाति के उल्लेख के बारे में सभी विपक्षी दल ही नहीं बल्कि सत्ता दल के  लोग भी एक मत हैं. हमारी व्यवस्था में इसको बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. 


क्योंकि प्रारूप तैयार हो चुका है और प्रिंट होकर तैयार भी हो चुके हैं. 

                              जनगणना कोई रोज होने वाली प्रक्रिया नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति के निर्णय से होने वाला काम है. गहन विचार के बाद ही प्रारूप तैयार होना चाहिए था और जब हमारे देश में जती के आधार पर कुछ क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं तो फिर इसका संज्ञान तो बहुत जरूरी हो जाता है. हमारे देश में कितनी पिछड़ी जातियाँ है और उनकी संख्या कितनी है? इसी तरह से जनजातियों , अनुसूचित जातियों और इससे भी बढ़कर अल्पसंख्यक वर्ग की गणना कि जानकारी भी बहुत जरूरी है. 
                            हमारे संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को विशिष्ट सुविधाएँ और आरक्षण प्रदान किया गया है और इतने वर्षों में ये अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्ग उस सीमा से आगे बढ़ चुके हैं लेकिन आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं क्यों कि उनको संविधान में  घोषित किया गया. इस अल्पसंख्यक वर्ग को भी पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्षों से चली आ रही परंपरा को अब ख़त्म करना भी आवश्यक हो चुका है. या फिर इस जाति व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाय और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं होना चाहिए . अगर इसको जारी रखना है तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हम कितने हैं ? हमारा पूरे देश में क्या  प्रतिशत है ? और क्या प्रतिनिधित्व है.
                             वैसे इस जनगणना के साथ यदि वाकई जाति के स्थान पर राष्ट्रीयता को महत्व दिया जाय तो देश का कल्याण हो सकता है.  जो गणना हो वह भारतियों की हो,  कोई जाति  नहीं ,कोई वर्ग नहीं. हाँ अगर उत्थान की दृष्टि से देखना है तो हमें ये स्तर और वर्ग आर्थिक विकास की दृष्टि से बनाने चाहिए ताकि जो पिछड़े हैं या आर्थिक तौर से कमजोर हैं , उनको आरक्षण का लाभ मिल सके.  सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण लेने वालों में समृद्ध और समृद्ध होता जा रहा है और जो पिछड़े हैं वे वहीं के वही हैं उन तक लाभ पहुँच ही नहीं पाता है.

24 अप्रैल 2010

क्यों?

मन की खंडित वीणा के
तारों में स्वर कम्पन क्यों? 
स्वर लहरियां मचल रही,
विरह राग की सरगम क्यों?

कुछ मधुर गीत की आशा में
मिले कटु - तिक्त स्वर क्यों?
टूटी सी लय कुछ बता रही,
अंतर्वेदना मेरे मन की क्यों?

जग तो था ये मनहर बहुत
जहर बुझे वचन फिर क्यों?
स्वयं भू कि सर्वोत्तम कृति,
मानव खो बैठा मानवता क्यों?

किस भुलावे में भटकता रे मन
शून्य  के आयामों तक क्यों?
मिजराब मचलती तारों पर 
फिर नीरव है सारे स्वर क्यों? 

आशा छोडूं जीवन की या
पूंछूं खुद से मैं हूँ जीवित क्यों?
सपना  तो देखा था उपवन का
फिर बेनूर हुआ ये मधुवन क्यों? 

22 अप्रैल 2010

पृथ्वी दिवस आज है !


                    आज पृथ्वी दिवस है - २२ अप्रैल !  ये जीवन दायिनी धरती माँ हमें सब कुछ देती रही है और आज भी दे रही है. लेकिन जब हम उसके पास कुछ बचने दें. उसके श्रृंगार वृक्षों को हमने उजाड़ दिया, उसके जल स्रोतों को हमने इस तरह से दुहा है कि वे भी अब जलविहीन हो चले हैं. इसके गर्भ  में इतने परीक्षण  हम कर चुके हैं कि उसकी कोख अब बंजर हो चुकी है. अब भी हम उसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं. अब भी हम ये नहीं सोच पा रहे हैं कि जब ये नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह  की खोज करके उसपर चले जायेंगे. जैसे की गाँव छोड़ कर शहर आ गए. वहाँ अब कुछ भी नहीं रह गया है - खेतों को बेच कर मकान बनवा लिए. अब खाने की खोज में शहर आ गए. कुछ न कुछ करके गुजारा कर लेंगे.
                                 हम क्यों रोते हैं कि अब मौसम बदल चुके हैं, तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है. इसके लिए कौन दोषी है? हम ही न, फिर रोना किस बात का है? हमारी अर्थ की हवस ने , धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल डाल कर बंजर बना लिया. फसल अच्छी लेने के लिए उसको बाँझ बना दिया. ये कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खोयी है.
                              हर साल २२ अप्रैल को धरती को बचाने के लिए और उसके बचाव के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए इस दिवस का आयोजन किया जाता है.  पूरी दुनियाँ इस धरती को माँ नहीं कहती, कालांतर में आदमी सुबह उठकर  उस पर पैर रखने से पहले उसके स्पर्श को अपने मस्तक पर लगता था. ये मैंने अपने घर में ही देखा है. खेतों की पूजा होते देखी है. विश्व में इसको एक ग्रह  ही माना जाता है और फिर भी विश्व के किसी और देशवासी ने इस ग्रह को बचाने के लिए ये मुहिम शुरू की थी. ये व्यक्तित्व है जो अपनी दृढ इच्छाशक्ति के लिए विख्यात है - अमेरिका के पूर्व सीनेटर गेलार्ड नेल्सन.

                इस दिवस के आरम्भ करने की मुहिम के पीछे क्या अवधारणा थी ?  इस बारे में कुछ बातें  उन्हीं की जुबानी मिली है, जो मैं  दैनिक जागरण के साभार यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.


" पृथ्वी दिवस का मकसद क्या था? कैसे हुई इसकी शुरुआत? ये प्रश्न हैं जिन्हें लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं. वास्तव में  पृथ्वी दिवस का विचार मेरे दिमाग में १९६२ में आया और सात साल तक चलता रहा. मुझे इस बात से परेशानी थी की हमारे पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल नहीं है. नवम्बर १९६२ में मैंने इस विचार से राष्ट्रपति कैनेडी को अवगत करने और मुद्दे को उठाने के लिए उनको राष्ट्रीय संरक्षण यात्रा करने के लिए मनाने की सोची. एटार्नी जनरल राबर्ट कैनेडी से इस प्रस्ताव के बारे में बात करने के लिए मैं वाशिंगटन  गया. विचार उनको पसंद आया. राष्ट्रपति को भी यह पहल पसंद आई . सितम्बर १९६३ में राष्ट्रपति ने ग्यारह प्रान्तों की अपनी पांच दिवसीय संरक्षण यात्रा शुरू की. लेकिन कई कारणों से इसके बाद भी मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडा नहीं  बन सका. इस बीच मैं पर्यावरणीय  मुद्दों पर लगातार जनता के बीच आवाज उठाता रहा. पूरे देश में पर्यावरण में होने वाले नुकसान को स्पष्ट देखा जा सकता था. लोग पर्यावरण सबंधी मुद्दों पर चिंतित थे लेकिन राजनीतिज्ञों के कानों पर जून नहीं रेंग रही थी. १९६९ की गर्मियों के दौरान वियतनाम युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन कालेजों के कैम्पस तक पहुँच चुका था. यही मेरे जेहन में यह ख्याल आया कि क्यों न पर्यावरण को हो रहे नुकसान के विरोध के लिए व्यापक जमीनी आधार तैयार क्या जाए. सितम्बर १९६९ में सिएटल में एक जनसभा में मैंने घोषित किया की १९७० के वसंत ऋतू में पर्यावरण मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रदर्शन किया जाएगा. भागीदार बनाने के लिए सबका आह्वान किया. अख़बारों में इस खबर को अच्छी तरीके से कवर किया गया. इसके बाद खबर फैलते देर नहीं लगी . टेलीग्राम, पत्र और टेलीफ़ोन के माध्यम से इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देश भर से तांता लगा गया. जन-जागरण शुरू हो चुका था. मैं अपने मिशन में कामयाबी की ओर बढ़ रहा था अंततः २२ अप्रैल १९७० को २ करोड़ के विशाल जाना समुदाय के बीच पहला पृथ्वी दिवस मनाया गया."
                              जब ये काम ४० वर्षों से चल रहा है तब हमारी पृथ्वी की ये हालत है अगर हम अब भी नहीं चेते तो ये ज्वालामुखी, भूकंप , सुनामी और भूस्खलन - जो इस पृथ्वी के पीड़ा के प्रतीक हैं, इस पृथ्वी को नेस्तनाबूद कर देंगे. ये मानव जाति जो अपने शोधों पर इतरा रही है, कुछ भी शेष नहीं रहेगा. इस लिए आज ही और इसी वक्त संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे करेंगे और जो नहीं जानते उन्हें इससे अवगत कराएँगे या फिर अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे.  जब धरती माँ नहीं रहेगी तो उसकी हम संताने होंगे ही कहाँ? इस लिए हमें भी रहना है और इस माँ को भी हरा भरा रखना है ताकि वह खुश रहे और  हम भी खुश रहें.

11 अप्रैल 2010

डॉ0 रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ का आलेख

अनुभव और अनुभूति की आँच में तपा राग-संवेदन: महेंद्रभटनागर-विरचित अद्यतन काव्य-कृति

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लेखक -- डॉ0 रामसनेही लाल शर्मा यायावर

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डा. महेंद्रभटनागर एक सतत रचनाशील कवि, संकल्पशील कर्मयोगी, मूल्यनिष्ठ शिक्षक, रागदीप्त गृहस्थ और मेधावी चिन्तक रहे हैं। काव्य-कृति राग-संवेदन उनकी समूची जीवन-यात्रा का भावात्मक प्रस्तुतीकरण है। ये कविताएँ कवि के गहन अन्तस्तल से निकली राग-दीप्त अभिव्यक्तियाँ हैं। इन कविताओं से गुज़रना मानों एक इतिहास से गुज़रना है। इनमें केवल कवि का युग ही साँस नहीं ले रहा; वह दृष्टि भी जाग्रत व चित्रित है जो कवि के पास है। इस सबके होते हुए कवि डा. महेंद्रभटनागर व्यक्तिनिष्ठता से बचकर कविता की संवेदना को सार्वजनीन बनाकर उसे सार्वकालिक भी बना सके हैं तो इसे उनका चमत्कार ही मानना चाहिए। इन रचनाओं का संवेदना-संसार अत्यन्त व्यापक व विस्तृत है। पर्यावरण-प्रदूषण की चिन्ता से लेकर विश्व-प्रेम तक, अपनों-परायों से मिली यातनाओं व धोखों से उत्पन्न पीड़ा से लेकर समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न तक, वैयक्तिक आसक्ति की पीड़ा से लेकर अनासक्तिमूलक जिजीविषा तक तथा किसी अपने के बिछोह से उत्पन्न पीड़ा से लेकर दुर्दान्त युग की विसंगतियों तक सभी-कुछ इन कविताओं में परिव्याप्त है। कवि ने जहाँ दर्द को जिया है, वहाँ उसने अपनी अनथक जिजीविषा को भी कभी पराजित नहीं होने दिया है। इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ओर ये कवि के अन्तः संसार अर्थात् उसकी भावनाओं, संवेदनाओं, मूल्यों, परम्पराओं, विश्वासों, संकल्पों और आस्थाओं को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं; वहीं दूसरी ओर ये बाह्य संसार और उसकी जटिलताओं को भी प्रस्तुत करती हैं।

कवि डा. महेंद्रभटनागर के पास अत्यन्त सक्षम और समर्थ भाषा है। इसलिए वे सामान्य शब्दों को भी दूरगामी अर्थ-सम्भावनाएँ से संयोजित कर अपनी रचनाओं को अप्रतिम बना देते हैं। उदाहरणार्थ उनकी बदलो कविता का यह उद्धरण लें :

सड़ती लाशों की दुर्गन्ध लिए

छूने/गाँवों-नगरों के/ओर-छोर

जो हवा चली

उसका रुख़ बदलो!

ज़हरीली गैसों से/अलकोहल से लदी-लदी

गाँवों-नगरों के नभ-मंडल पर

जो हवा चली

उससे सँभलो/उसका रुख़ बदलो!

यहाँ हवा अत्यन्त समर्थ प्रतीक बनकर उभरी है। अपसंस्कृति, बाज़ारवाद मानव-मानव के बीच फैली स्वार्थपरता, संवादहीनता और संवेदनहीनता अर्थात् सभी मूल्यहन्ता और हृदयहन्ता परिस्थितियों तथा समूचा दमघोंटू समकालीन परिवेश हवा के रूप में यहाँ प्रतीकित हो रहा है। आज व्यक्ति की जो समस्या है, शायद जो सबसे बड़ी समस्या है, वह यह है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के रागात्मक पुल टूट गये हैं। मानवीय संबंधों में स्वार्थ का विष भर गया है। स्वार्थ की कीचड़ से अपनापन गँदला हो गया है। ऐसे में संवेदनशील मन की यातना है भीड़ का अकेलापन:

लाखों लोगों के बीच/अपरिचित अजनबी

भला,/कोई कैसे रहे!

उमड़ती भीड़ में/अकेलेपन का दंश

भला,/कोई कैसे सहे!

असंख्य आवाज़ों के/शोर में

किसी से अपनी बात

भला,/कोई कैसे कहे!

कवि जब आज के मानव में व्याप्त सीमातीत स्वार्थपरता को देखता है तो मानव के चारित्रिक अध:पतन को देखकर उनका हृदय पीड़ित हो जाता है :

कितना ख़ुदग़रज़/हो गया इंसान!

बड़ा ख़ुश है/पाकर तनिक-सा लाभ

बेचकर ईमान!

चंद सिक्कों के लिए/कर आया

शैतान को मतदान!

नहीं मालूम ख़ुददार का मतलब,

गट-गट पी रहा अपमान!

रिझाने मंत्रियों को/उनके सामने

कठपुतली बना निष्प्राण,

अजनबी-सा दीखता

आदमी की खो चुका पहचान!

परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि कवि केवल संसार में व्याप्त विभीषिकाएँ ही देख रहा है या संसार का केवल निराश व हताश करने वाला कृष्ण-पक्ष ही उसे दिखायी पड़ता है; वरन इसके विपरीत वह अंधकार की छाती पर आशा का दीपक जलाने को आतुर दिखायी पड़ता है। यों कहा जा सकता है कि कवि डा. महेंद्रभटनागर मानते हैं कि संसार में दुःख हैं, यातनाएँ हैं, पीड़ाएँ हैं, विषमताएँ हैं, और हृदय की पोर-पोर को विषदग्ध करने वाली मारक परिस्थितियाँ हैं फिर भी यह संसार जीने योग्य है। नहीं तो इसे बनाया जा सकता है, बनाया जाना चाहिए। डा.महेंद्रभटनागर स्वप्नदर्शी हैं। तभी तो उन्होंने समतामूलक समाज की स्थापना का स्वप्न देख लिया है :

समता का/बोया था जो बीज-मंत्र

पनपा, छतनार हुआ!

सामाजिक-आर्थिक

नयी व्यवस्था का आधार बना!

शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,

नवयुग का छविकार बना!

साम्य-भाव के नारों से

नभ-मंडल दहल गया!

मौसम/कितना बदल गया!

डा. महेंद्रभटनागर विश्व-परिवार का ऐसा स्वप्न सँजोते हैं जिसमें सभी मानवों को एक परिवार के सदस्य की तरह रहने का अवसर मिले। जब-तक विश्व-परिवार नहीं बनेगा, जब-तक अपनत्व का विकास नहीं होगा, तब-तक विश्व की सारी वैज्ञानिक प्रगति, सारे उपग्रह, अन्तरिक्ष की सारी उड़ानें, सारे सुपर-कम्प्यूटर और सारे सोफ्ट-वेयर निरर्थक हैं। अतः संसार के सभी मानव-सदस्यों को :

कल्पित दिव्य शक्ति के स्थान पर

मनुजता अमर सत्य कहना होगा!

सम्पूर्ण विश्व को/परिवार एक

जानकर, मानकर/परस्पर मेल-मिलाप से

रहना होगा!

संसार में व्याप्त अंधकार, अज्ञान, अनीति, निराशा, विसंगति और विषमता से जूझने के लिए कवि डा. महेंद्रभटनागर का अन्तरस्थ कवि एक ओर तो स्वप्नदर्शी हो जाता है वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत धरातल पर अक्षय जिजीविषा और सतत कार्यशीलता का संकल्प ले लेता है। यह इसी संकल्प का स्वर है:

लेकिन/मेरी हुँकृति से/थर्राता है आकाश-लोक,

मेरी आकृति से/भय खाता है मृत्यु-लोक!

तय है/हारेगा हर हृदयाघात, लुंज पक्षाघात

अमर आत्मा के सम्मुख!

जीवन्त रहूंगा/श्रमजीवी मैं,

जीवन-युक्त रहूंगा/उन्मुक्त रहूंगा!

यही नहीं, यह अनथक कर्मयोगी कवि चरैवेति-चरैवेति के ऊर्जस्वी उपनिषदीय मंत्र का भी विश्वासी है। इसीलिए तो वह कहता है :

राह का/नहीं है अन्त

चलते रहेंगे हम!

दूर तक फैला अँधेरा

नहीं होगा ज़रा भी कम!

टिमटिमाते दीप-से

अहर्निश/जलते रहेंगे हम!

इसके साथ ही वह कर्म का और जीवन का भरपूर आनन्द लेना चाहते हैं और हर क्षण का पूरा उपभोग कर उसे जीवन का रस बनाना चाहते हैं :

हर लमहा

अपना गूढ़ अर्थ रखता है,

अपना एक मुकम्मिल इतिहास

सिरजता है,

बार-बार बजता है!

इसलिए ज़रूरी है

हर लमहे को भरपूर जियो,

जब-तक

कर दे न तुम्हारी सत्ता को

चूर-चूर वह!

भाषा की सरलता और अर्थ का दूरगामी विस्तार राग-संवेदन की कविताओं को अन्यतम बनाता है। कवि नयी भाषा की खोज नहीं करता, न परिमार्जित परिनिष्ठित हिन्दी का ठाठ सँजोकर अपनी विद्वता की धक जमाता है अपितु वह साधरण भाषा में असाधरण अर्थ-दीप्तियाँ जगाता है। यही कवि डा. महेंद्रभटनागर के कवित्व की अन्यतम विशेषता है। बिम्ब और प्रतीक नितान्त सुपरिचित हैं। हवा, पानी, धुँआ, तीर्थ, घटा, आग, कंकड़ों का ढेर, आदि परम्परागत प्रतीक हैं। परन्तु डा. महेंद्रभटनागर ने इन्हीं में गहन अर्थ की शक्ति भर दी है। कुल मिलाकर, भाव-सम्पदा, दीर्घ जीवनानुभव में तप्त रागात्मक संवेदना, मूल्य-दृष्टि और साधरणता में असाधरणता का आभास कराते शिल्प के कारण राग-संवेदन की कविताएँ संस्कारित रुचि वाले पाठकों के अन्तस को झंकृत करेंगी।