06 जून 2011

लघुकथा


दुविधा /सुधा भार्गव











एक परी थी। जैसे -जैसे यौवन की दहलीज पर कदम बढ़े  उसकी सुन्दरता बढ़ती गई। रंग -बिरंगे पंख  निकल आये। जिन पर सवार हो वह कल्पना जगत की सैर करना  ज्यादा पसंद करती।

बाहर आने में जरा सी भी देर हो जाती, उसकी माँ  घबरा उठती-- कहीं उसकी बेटी को नजर न लग जाये -कोई उसके पंख मैले न कर दे ।

एक दिन वह बोली -
-मेरी बेटी, तुझ पर बलिहारी जाऊँ ---अब तू बड़ी हो गई है ----घर -बाहर  मक्खियाँ जरूर  भिनभिनाती  होंगी ।
बाहर कोई मक्खी तुझे  तंग करे--- तो तू क्या करेगी?
-करना क्या है चट से मसल दूंगी।
-और अगर घर की  मक्खी  परेशानी का कारण बन जाये तो ----।
माँ के इस प्रश्न ने परी को असमंजस में डाल दिया।
-हकलाते हुए बोली ---साथ -साथ रहते तो अपनापन लगने लगता है। उन्हें कैसे मसलूं -।
-प्रश्न अपने- परायेपन का नहीं हैं !सवाल है अन्दर की मक्खियों से अपनी  रक्षा कैसे की जाय ---?
दुविधा के भार से झुकी आँखें--- ऊपर उठीं ।
-सोचना क्या -----! उनको भी मसलना होगा  कभी- कभी बाहर से ज्यादा खतरनाक इंसानियत का मुखौटा पहने ये - - - -अन्दर की मक्खियाँ होती हैं जिनको पहचानने में अक्सर  नजरें धोखा खा जाती हैं।


माँ का इशारा समझ परी  ने आगे  की ओर उड़ान भरनी शुरू कर दी। दुविधा की केंचुली उसने उतर फेंकी थी ।
* * * * *

1 टिप्पणी:

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर संदेश देती लघुकथा।