नव वर्ष पर नवगीत
संजीव 'सलिल'
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
**********************
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30 दिसंबर 2009
फिर एक बार // कविता
फिर एक बार
_________
आओ....
बदल डालें दीवार पर
लटके कलेन्डर
फिर एक बार,
इस आशा के साथ
कि-
शायद इसबार हमें भी मिलेगा
अफसर का सद व्यवहार
नेता जी का प्यार
किसी अपने के द्वारा
नव वर्ष उपहार.
सारे विरोधियों की
कुर्सियां हिल जाऐं
मलाईदार कुर्सी
अपने को मिल जाऐ.
सुरसा सी मँहगाई
रोक के क्या होगा ?
चुनावी मुद्दा है
अपना भला होगा .
जनता की क्यों सोचें ?
उसको तो पिसना है
लहू बन पसीना
बूँद-बूँद रिसना है
रिसने दो, देश-हित में
बहुत ही जरूरी है
इसके बिन सब
प्रगति अधूरी है.
प्रगति के पथ में
एक साल जोड दो
विकास का रथ लाकर
मेरे घर पे छोड दो.
बदल दो कलेन्डर
फिर एक बार
आगत का स्वागत
विगत को प्रणाम
फिर एक बार......!!
डॉ.योगेन्द्र मणि
_________
आओ....
बदल डालें दीवार पर
लटके कलेन्डर
फिर एक बार,
इस आशा के साथ
कि-
शायद इसबार हमें भी मिलेगा
अफसर का सद व्यवहार
नेता जी का प्यार
किसी अपने के द्वारा
नव वर्ष उपहार.
सारे विरोधियों की
कुर्सियां हिल जाऐं
मलाईदार कुर्सी
अपने को मिल जाऐ.
सुरसा सी मँहगाई
रोक के क्या होगा ?
चुनावी मुद्दा है
अपना भला होगा .
जनता की क्यों सोचें ?
उसको तो पिसना है
लहू बन पसीना
बूँद-बूँद रिसना है
रिसने दो, देश-हित में
बहुत ही जरूरी है
इसके बिन सब
प्रगति अधूरी है.
प्रगति के पथ में
एक साल जोड दो
विकास का रथ लाकर
मेरे घर पे छोड दो.
बदल दो कलेन्डर
फिर एक बार
आगत का स्वागत
विगत को प्रणाम
फिर एक बार......!!
डॉ.योगेन्द्र मणि
29 दिसंबर 2009
शान्ता क्लोज़
शान्ता क्लोज़ ने
दरवाजा खटटाया
छुट्टी के दिन भी सुबह-सुबह
आठ बजे ही आ जगाया
बोला
आँख फाडकर क्या देखता है
मुझे पहिचान
जो भी चाहिऐ माँग .
हम बडबडाऐ-
सुबह-सुबह क्यों दिल्लगी करते हो
किसी दूसरे दरवाजे पर जाओ
सरकारी छुट्टी है ,सोने दो
तुम भी घर जाकर सो जाओ.
वह हमारी समझदारी पर मुस्कराया
पुनः आग्रह भरी निगाहों का
तीर चलाया।
हामने भी सोच -
चलो आजमाते हैं
बाबा कितने पानी में
पता लगाते हैं.
हम बोले -
बाबा, हमारा ट्रान्सफर
केंसिल कर दो
मंत्री जी के कान में
कोई ऐसा मंत्र भर दो
जिससे उनको लगे
हम उनके वफादार हैं
सरकार के सच्चे पहरेदार हैं.
वो मुस्कराया-
यह तो राजनैतिक मामला है
हम राजनीती में टांग
नहीं फसाते
नेताओं की तरह
चुनावी आश्वासन
नही खिलाते
कुछ और माँगो.
हम बोले ठीक है-
बेटे की नौकरी लगवादो
घर में जवान बेटी है
बिना दहेज के
सस्ता सुन्दर टिकाऊ
दामाद दिलवादो
मंहगाई की धार
जेब को चीरकर
सीने के आरपार
हुई जाती है
धनिया के पेट की
बलखाति आँतों को
छिपाने की कोशिश में
तार-तार हुई कमीज भी
शरमाती है
नरेगा योजना में
उसका नाम भी है
रोजगार भी है
भुगतन भी होता है
लेकिन उसकी मेहनत का
पूरा भुगतान
उसकी जेब तक पहुँचा दो.
वृद्धाश्रमों की चोखट पर
जीवन के अंतिम पडाव की
इन्तजार में
आँसू बहाते
बूढे माँ-बाप की औलादों के
सीने में
थोडा सा प्यार जगा दो
एक दिन चाकलेट खिलाकर
बच्चों को क्या बहलाते हो
मुफ्त में सोई इच्छाओं को
क्यों जगाते हो ?
वह सकपकाया-
सब कुछ समझते हुऐ भी
कुछ नहीं समझ पाया
लेकिन हम समझ गये-
यह भी किसी संभ्रांत पति की
तरह लाचार है
या मेरे
जावान बेटे की तरह
बेरोजगार है
हो सकता है
यह भी हो
मेरे देश की तरह
महामारी का शिकार
या फिर इसकी झोली को
मिलें हों सीमित अधिकार.
वैसे भी हमारा देश
त्योहारों का देश है
पेट भरा हो या खाली
कितनी भी भारी हो
जेबों पर कंगाली
हर त्योहार देश की शान है
मेरा देश शायद
इसीलिऐ महान है ॥
डॉ. योगेन्द्र मणि
दरवाजा खटटाया
छुट्टी के दिन भी सुबह-सुबह
आठ बजे ही आ जगाया
बोला
आँख फाडकर क्या देखता है
मुझे पहिचान
जो भी चाहिऐ माँग .
हम बडबडाऐ-
सुबह-सुबह क्यों दिल्लगी करते हो
किसी दूसरे दरवाजे पर जाओ
सरकारी छुट्टी है ,सोने दो
तुम भी घर जाकर सो जाओ.
वह हमारी समझदारी पर मुस्कराया
पुनः आग्रह भरी निगाहों का
तीर चलाया।
हामने भी सोच -
चलो आजमाते हैं
बाबा कितने पानी में
पता लगाते हैं.
हम बोले -
बाबा, हमारा ट्रान्सफर
केंसिल कर दो
मंत्री जी के कान में
कोई ऐसा मंत्र भर दो
जिससे उनको लगे
हम उनके वफादार हैं
सरकार के सच्चे पहरेदार हैं.
वो मुस्कराया-
यह तो राजनैतिक मामला है
हम राजनीती में टांग
नहीं फसाते
नेताओं की तरह
चुनावी आश्वासन
नही खिलाते
कुछ और माँगो.
हम बोले ठीक है-
बेटे की नौकरी लगवादो
घर में जवान बेटी है
बिना दहेज के
सस्ता सुन्दर टिकाऊ
दामाद दिलवादो
मंहगाई की धार
जेब को चीरकर
सीने के आरपार
हुई जाती है
धनिया के पेट की
बलखाति आँतों को
छिपाने की कोशिश में
तार-तार हुई कमीज भी
शरमाती है
नरेगा योजना में
उसका नाम भी है
रोजगार भी है
भुगतन भी होता है
लेकिन उसकी मेहनत का
पूरा भुगतान
उसकी जेब तक पहुँचा दो.
वृद्धाश्रमों की चोखट पर
जीवन के अंतिम पडाव की
इन्तजार में
आँसू बहाते
बूढे माँ-बाप की औलादों के
सीने में
थोडा सा प्यार जगा दो
एक दिन चाकलेट खिलाकर
बच्चों को क्या बहलाते हो
मुफ्त में सोई इच्छाओं को
क्यों जगाते हो ?
वह सकपकाया-
सब कुछ समझते हुऐ भी
कुछ नहीं समझ पाया
लेकिन हम समझ गये-
यह भी किसी संभ्रांत पति की
तरह लाचार है
या मेरे
जावान बेटे की तरह
बेरोजगार है
हो सकता है
यह भी हो
मेरे देश की तरह
महामारी का शिकार
या फिर इसकी झोली को
मिलें हों सीमित अधिकार.
वैसे भी हमारा देश
त्योहारों का देश है
पेट भरा हो या खाली
कितनी भी भारी हो
जेबों पर कंगाली
हर त्योहार देश की शान है
मेरा देश शायद
इसीलिऐ महान है ॥
डॉ. योगेन्द्र मणि
28 दिसंबर 2009
सामयिक दोहे संजीव 'सलिल'
सामयिक दोहे
संजीव 'सलिल'
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..
रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..
फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.
कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
******************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
संजीव 'सलिल'
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..
रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..
फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.
कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
******************
Acharya Sanjiv Salil
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26 दिसंबर 2009
झारखण्ड की नौटंकी -मचलते सोरेन
झारखण्ड का खंड - खंड जनादेश झारखण्ड की जनता की लोकतान्त्रिक समझ एवं झारखण्ड के राजनीतिक परिवेश पर कई सवाल खड़े करता है । किसी भी दल को चुनावों में बहुमत न मिल पाना जहाँ एक ओर मतदाताओं की भ्रमित मानसिकता का परिचायक है वहाँ दूसरी ओर व्यक्तिपूजा, अंधश्रद्धा ,आपराधीकरण एवं भ्रष्टाचार के मुद्दों के प्रति लोगों की उदासीनता अथवा अविश्वास को प्रदर्शित करता है। राष्ट्रीय दल जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। सरकारों के बनाने व बिगड़ने के उनके खेल ने उनकी विश्वसनीयता प्रभावित की है ।
जो भी हो शिबू सोरेन की बल्ले -बल्ले है । उनके बिना कोई सरकार नहीं बनने वाली। कांग्रेस ने पहले कहा कि मुख्य मंत्री के रूप में शिबू सोरेन सफल नहीं रहे । इस पर गुरु सोरेन का दांव था कि मैं किंगमेकर नहीं बल्कि किंग बनूँगा। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तो उनकी नजर है ही ,उपमुख्यमंत्री का पद भी वे अपने बेटे के लिये चाहते हैं जैसे झारखण्ड उनकी जागीर ही होते । जनता ने उनके आपराधिक इतिहास के बावजूद जोड़ -तोड़ करने लायक समर्थन तो दे ही दिया है । अब राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की नजर में गुरु सोरेन खलनायक से नायक दिखते प्रतीत होते हैं। उनका मचलना बर्दास्त करना उनकी मजबूरी बन गया है। मधु कोड़ा के ऐतिहासिक घोटाले के बाद भी जनता ने उनकी पत्नी को जिता दिया । क्या हो गया है हमारे लोगों को ? १९७० में छात्र जीवन में मैंने सुकवि विनोद निगम की एक कविता पढ़ी थी जो तब की तुलना में आज के भारतीय राजनीतिक परिवेश पर अधिक समीचीन लगती है ।- प्रस्तुत हैं इस रचना के कुछ अंश -
बस्ती बड़ी अजीब यहाँ की ,न्यारी है तहजीब यहाँ की ;
जिनके सारे काम गलत हैं ;सुबह गलत है,शाम गलत है;
उनको लोग नमन करते हैं।
बकवासों से अधिक नहीं है ,जिन्हें त्याग और तप कई बातें ;
उनके नाम वसीयत कर दी, सुख -सुविधाएँ जनम -जनम की ;
जो मंदिर क्या ईश्वर तक की , कर देते है सौदेबाजी ;
उनके हाथों रोली -चंदन , उनके हाथो ध्वजा धरम की;
बिगड़ी सारी परम्परायें , बड़ी गलत चल रहीं हवायें;
जिनके सभी अधूरे वादे , जिनके सारे गलत इरादे ;
उनको लोग नमन करते हैं।
जिनके घने जुल्म से , जो अवसर के हाथ बिक गये ;
उनका कीर्तन लोग कर रहे , उनका यश गा रहीं दिशायें ;
जिनके पाप बोलते छत पर , गलियां जिनके दोष गा रहीं ;
उनका बार-बार अभिनन्दन , उनकी लेते सभी बलायें ;
जाने कैसा चलन यहाँ का , बिगड़ा वातावरण यहाँ का ;
जो युग के अनुकूल नहीं हैं , जिनके ठीक उसूल नहीं है ;
उनको लोग नमन करते हैं।
जो भी हो शिबू सोरेन की बल्ले -बल्ले है । उनके बिना कोई सरकार नहीं बनने वाली। कांग्रेस ने पहले कहा कि मुख्य मंत्री के रूप में शिबू सोरेन सफल नहीं रहे । इस पर गुरु सोरेन का दांव था कि मैं किंगमेकर नहीं बल्कि किंग बनूँगा। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तो उनकी नजर है ही ,उपमुख्यमंत्री का पद भी वे अपने बेटे के लिये चाहते हैं जैसे झारखण्ड उनकी जागीर ही होते । जनता ने उनके आपराधिक इतिहास के बावजूद जोड़ -तोड़ करने लायक समर्थन तो दे ही दिया है । अब राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की नजर में गुरु सोरेन खलनायक से नायक दिखते प्रतीत होते हैं। उनका मचलना बर्दास्त करना उनकी मजबूरी बन गया है। मधु कोड़ा के ऐतिहासिक घोटाले के बाद भी जनता ने उनकी पत्नी को जिता दिया । क्या हो गया है हमारे लोगों को ? १९७० में छात्र जीवन में मैंने सुकवि विनोद निगम की एक कविता पढ़ी थी जो तब की तुलना में आज के भारतीय राजनीतिक परिवेश पर अधिक समीचीन लगती है ।- प्रस्तुत हैं इस रचना के कुछ अंश -
बस्ती बड़ी अजीब यहाँ की ,न्यारी है तहजीब यहाँ की ;
जिनके सारे काम गलत हैं ;सुबह गलत है,शाम गलत है;
उनको लोग नमन करते हैं।
बकवासों से अधिक नहीं है ,जिन्हें त्याग और तप कई बातें ;
उनके नाम वसीयत कर दी, सुख -सुविधाएँ जनम -जनम की ;
जो मंदिर क्या ईश्वर तक की , कर देते है सौदेबाजी ;
उनके हाथों रोली -चंदन , उनके हाथो ध्वजा धरम की;
बिगड़ी सारी परम्परायें , बड़ी गलत चल रहीं हवायें;
जिनके सभी अधूरे वादे , जिनके सारे गलत इरादे ;
उनको लोग नमन करते हैं।
जिनके घने जुल्म से , जो अवसर के हाथ बिक गये ;
उनका कीर्तन लोग कर रहे , उनका यश गा रहीं दिशायें ;
जिनके पाप बोलते छत पर , गलियां जिनके दोष गा रहीं ;
उनका बार-बार अभिनन्दन , उनकी लेते सभी बलायें ;
जाने कैसा चलन यहाँ का , बिगड़ा वातावरण यहाँ का ;
जो युग के अनुकूल नहीं हैं , जिनके ठीक उसूल नहीं है ;
उनको लोग नमन करते हैं।
25 दिसंबर 2009
'बड़ा दिन' --संजीव 'सलिल'
'बड़ा दिन'
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
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संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
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23 दिसंबर 2009
स्मृति दीर्घा: झाँक रहे हैं लोग -संजीव 'सलिल'
स्मृति दीर्घा:
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
22 दिसंबर 2009
दोहा गीतिका तुमको मालूम ही नहीं --'सलिल'
(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
15 दिसंबर 2009
स्मृति गीत: एक कोना कहीं घर में --संजीव 'सलिल'
स्मृति गीत
संजीव 'सलिल'
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
संजीव 'सलिल'
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
09 दिसंबर 2009
भजन: सुन लो विनय गजानन संजीव 'सलिल'
भजन:
सुन लो विनय गजानन
संजीव 'सलिल'
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
सुन लो विनय गजानन
संजीव 'सलिल'
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
08 दिसंबर 2009
सुरेन्द्र अग्निहोत्री की कविता - राहुल तुम कब जानोगे
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
============================
============================
राहुल,
इतिहास तुमसे प्रश्न पूछे न पूछे
पर में तुमसे प्रश्न करता हूँ
भविष्य क्या होगा इसकी चिन्ता नहीं
यह बात मैंने यूं ही नहीं कही
क्यों भूख से दम तोड़ते
अपनों से मुँह मोड़ते
सल्फाश को मुक्ति का मार्ग मानते
खेत-खलिहान, हल-बखर पहचाते
लोगों के बीच आये!
राहुल, क्यों?
उनकी टूटी खटिया पर बैठकर
उम्मीदों का हरापन जगा गये
बगाबत और बागी बुन्देली भू पर
क्यो ममता का पाठ पढ़ा गये
जवाब दो राहुल क्यों?
तुम्हारें बैठने से भूगोल नहीं बदला
बदला है माया का सुर
सरकारी योजनाओं की दिशा नहीं बदली
बज रही सब अपनी ढफली
राहुल, क्या मिला?
मिला सिर्फ कागजी शेरों को
जो सत्ता का स्वाद चख गये
बिना श्रम के
सांसद और मंत्री बन गये
राहुल, तुम देख पाओगें,
अधफटी साड़ी में घूंघट ताने
खड़ी लुगाई की चिन्ता क्या हैं
कितने दिन से चूल्हा नहीं जला
अपना दर्द किससे कहे वह भला
राहुल, यहां
शादी इतिहास के लिए नहीं होती हैं
तलाक भूगोल नहीं बदलता है
रोती हर घर में ममता है।
राहुल, कब जानोगे,
सरकारी गौमताएं
दूध नहीं देती हैं
पनाने जाए कोई
तो लात मारती है
राहुल, क्या करेगा,
आधुनिक पूँजीवाद का उदय
आर्थिक मंदी का दौर बाला उतार-चढ़ाव
यही नहीं चलता अखाड़े का दाव
दबंगो और दादूओं का है यहां पड़ाव
राहुल,
कभी उनके साथ कोई झण्डा होता है
तो कभी उनके साथ पुलिस का डन्डा होता है
राजनीतिक दुराग्रह का यही है खेल
कभी फूलों की माला, कभी मिलती है जेल
राहुल,
क्यो ठिठक गये तुम्हारे कदम
जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ने की दिखाई दम
उनका तुम समझो कुछ तो मर्म
न खुशी उनकी न उनके अपने गम!
-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन 120/132 बेलदारी लेन,
लालबाग,लखनऊ
मोः 9415508695
इतिहास तुमसे प्रश्न पूछे न पूछे
पर में तुमसे प्रश्न करता हूँ
भविष्य क्या होगा इसकी चिन्ता नहीं
यह बात मैंने यूं ही नहीं कही
क्यों भूख से दम तोड़ते
अपनों से मुँह मोड़ते
सल्फाश को मुक्ति का मार्ग मानते
खेत-खलिहान, हल-बखर पहचाते
लोगों के बीच आये!
राहुल, क्यों?
उनकी टूटी खटिया पर बैठकर
उम्मीदों का हरापन जगा गये
बगाबत और बागी बुन्देली भू पर
क्यो ममता का पाठ पढ़ा गये
जवाब दो राहुल क्यों?
तुम्हारें बैठने से भूगोल नहीं बदला
बदला है माया का सुर
सरकारी योजनाओं की दिशा नहीं बदली
बज रही सब अपनी ढफली
राहुल, क्या मिला?
मिला सिर्फ कागजी शेरों को
जो सत्ता का स्वाद चख गये
बिना श्रम के
सांसद और मंत्री बन गये
राहुल, तुम देख पाओगें,
अधफटी साड़ी में घूंघट ताने
खड़ी लुगाई की चिन्ता क्या हैं
कितने दिन से चूल्हा नहीं जला
अपना दर्द किससे कहे वह भला
राहुल, यहां
शादी इतिहास के लिए नहीं होती हैं
तलाक भूगोल नहीं बदलता है
रोती हर घर में ममता है।
राहुल, कब जानोगे,
सरकारी गौमताएं
दूध नहीं देती हैं
पनाने जाए कोई
तो लात मारती है
राहुल, क्या करेगा,
आधुनिक पूँजीवाद का उदय
आर्थिक मंदी का दौर बाला उतार-चढ़ाव
यही नहीं चलता अखाड़े का दाव
दबंगो और दादूओं का है यहां पड़ाव
राहुल,
कभी उनके साथ कोई झण्डा होता है
तो कभी उनके साथ पुलिस का डन्डा होता है
राजनीतिक दुराग्रह का यही है खेल
कभी फूलों की माला, कभी मिलती है जेल
राहुल,
क्यो ठिठक गये तुम्हारे कदम
जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ने की दिखाई दम
उनका तुम समझो कुछ तो मर्म
न खुशी उनकी न उनके अपने गम!
-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन 120/132 बेलदारी लेन,
लालबाग,लखनऊ
मोः 9415508695
04 दिसंबर 2009
नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा... संजीव 'सलिल'
नव गीत:
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
र्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
र्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
03 दिसंबर 2009
देश की माटी के सच्चे सपूत -भारत रत्न डा ० राजेन्द्र प्रसाद
भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद का आज जन्मदिवस है जो न केवल एक नामचीन विधिवेत्ता एवं मूल्यों के प्रति समर्पित स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाने जाते हैं ,वरन संविधान सभा के अध्यक्ष एवं देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में उनकी भूमिका अतुलनीय रही है ।
डा ० राजेंद्र प्रसाद बिहार के जीरादेई ग्राम में जन्मे थे । प्रारम्भ से हे असाधारण प्रतिभा से उन्होंने सदैव अपने शिक्षकों का मन मोहा और कक्षा में नए कीर्तिमान स्थापित किए । कलकत्ता हाईकोर्ट में उनकी ख्याति देश के गिने - चुने बैरिस्टरों में की जाती थी । देश की गुलामी के प्रति संघर्ष की लालसा ने उन्होंने जमीजमाई वकालत छोड़ कर स्वाधीनता संघर्ष में कार्य करने को प्रेरित किया । गाँधी जी उनकी विद्वत्ता एवं सादगी से इतने प्रभावित थे कि उनका सदैव साथ चाहते थे। नेहरू जी भी उन्हें अत्यन्त आदर देते थे और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते थे । गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में बिहार का कार्यभार उन्होंने बखूबी सभांला।
स्वतंत्रता के पश्चात निर्मित संविधानसभा के वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए उनके कुशल निर्देशन में संविधानसभा में जो बहसें हुई, वे देश के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखती हैं । देश से विभिन्न क्षेत्रों से चुन कर आए विविध हितों ,भाषाओँ और क्षेत्रों के लिए स्वीकार्य सविधान के लिए वाद-विवाद का संचालन और फ़िर एक आमसहमति पर आधारित प्रारूप पर सहमति बनाना एक दुष्कर कार्य था जिसे पूरा करना राजेन्द्र बाबू जैसे व्यक्तित्व के लिए ही सम्भव था ।
उनकी क्षमता को देखते हुए ही उन्हें भारतीय गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया । जो राष्ट्रपति भवन वायसरायों व गवर्नर जनरलों के वैभव का प्रतीक था ,वह राजेन्द्र बाबू की सादगी एवं गाँव की सौंधी मिटटी से सुवासित होने लगा । उनसे मिलने पर किसी को भी पाबन्दी नहीं थी। स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने चरखे से स्वयं सूत कात कर वस्त्र पहनने का जो संकल्प लिया था ,राष्ट्रपति बनने क बाद भी उसे अपनाते रहे ।
राष्ट्रपति के रूप में राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपने कार्यों से इस पद को जो गरिमा प्रदान की एवं मान्यताएं स्थापित कीं ,वे उनके उत्तराधिकारियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुईं । भारतीय संविधान में राष्ट्रपति मात्र एक औपचरिक राज्य प्रधान नहीं है ,वरन संविधान का सुचारू संचालन होता रहे ,यह जिम्मेवारी भी राष्ट्रपति की है ,इस तथ्य को राजेन्द्र प्रसाद जी ने व्यावहारिकता प्रदान की । rउनके लिए अपने संवैधानिक कर्तव्यों के आगे व्यक्तिगत सम्बन्ध गौण थे। घनिष्ठ मित्र होने बाद भी नेहरू जी से कुछ मुद्दों पर उनका मतभेद रहा था । हिंदू कोड बिल पर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे इसे उचित नहीं मानतेऔर सासदों को उन्होंने संदेश भेजने के अधिकार का प्रयोग किया । तिब्बत को 'बफर स्टेट 'बनाये रखना वे भारत की सुरक्षा के लिए आवश्यक मानते थे और इस पर चीन के खतरनाक इरादों के बारे में उन्होंने नेहरू जी को सचेत भीकिया था,पर नेहरू जी चीन को खुश करने के चक्कर में तिब्बत की बलि दे बैठे , और इसका दुष्परिणाम १९६२ में चीन के आक्रमण के रूप में देश को भुगतना पडा ।
पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद राजेन्द्र बाबू पटना में सदाकत आश्रम में रहने लगे. १९६३ में जब उनका निधन हुआ तो नेहरू जी उनकी अंत्येष्ठी में तो शामिल नहीं ही हुए बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति डा ० राधाकृष्णन को भी वहां न जाने सलाह दी ,जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। नेहरू जैसे व्यक्तित्व का इस तरह का आचरण दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।
राजेन्द्र बाबू को देश ने 'भारत रत्न ' से सम्मानित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। उनके जैसा व्यक्तित्व देश में कोई दूसरा नहीं हुआ।
डा ० राजेंद्र प्रसाद बिहार के जीरादेई ग्राम में जन्मे थे । प्रारम्भ से हे असाधारण प्रतिभा से उन्होंने सदैव अपने शिक्षकों का मन मोहा और कक्षा में नए कीर्तिमान स्थापित किए । कलकत्ता हाईकोर्ट में उनकी ख्याति देश के गिने - चुने बैरिस्टरों में की जाती थी । देश की गुलामी के प्रति संघर्ष की लालसा ने उन्होंने जमीजमाई वकालत छोड़ कर स्वाधीनता संघर्ष में कार्य करने को प्रेरित किया । गाँधी जी उनकी विद्वत्ता एवं सादगी से इतने प्रभावित थे कि उनका सदैव साथ चाहते थे। नेहरू जी भी उन्हें अत्यन्त आदर देते थे और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते थे । गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में बिहार का कार्यभार उन्होंने बखूबी सभांला।
स्वतंत्रता के पश्चात निर्मित संविधानसभा के वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए उनके कुशल निर्देशन में संविधानसभा में जो बहसें हुई, वे देश के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखती हैं । देश से विभिन्न क्षेत्रों से चुन कर आए विविध हितों ,भाषाओँ और क्षेत्रों के लिए स्वीकार्य सविधान के लिए वाद-विवाद का संचालन और फ़िर एक आमसहमति पर आधारित प्रारूप पर सहमति बनाना एक दुष्कर कार्य था जिसे पूरा करना राजेन्द्र बाबू जैसे व्यक्तित्व के लिए ही सम्भव था ।
उनकी क्षमता को देखते हुए ही उन्हें भारतीय गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया । जो राष्ट्रपति भवन वायसरायों व गवर्नर जनरलों के वैभव का प्रतीक था ,वह राजेन्द्र बाबू की सादगी एवं गाँव की सौंधी मिटटी से सुवासित होने लगा । उनसे मिलने पर किसी को भी पाबन्दी नहीं थी। स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने चरखे से स्वयं सूत कात कर वस्त्र पहनने का जो संकल्प लिया था ,राष्ट्रपति बनने क बाद भी उसे अपनाते रहे ।
राष्ट्रपति के रूप में राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपने कार्यों से इस पद को जो गरिमा प्रदान की एवं मान्यताएं स्थापित कीं ,वे उनके उत्तराधिकारियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुईं । भारतीय संविधान में राष्ट्रपति मात्र एक औपचरिक राज्य प्रधान नहीं है ,वरन संविधान का सुचारू संचालन होता रहे ,यह जिम्मेवारी भी राष्ट्रपति की है ,इस तथ्य को राजेन्द्र प्रसाद जी ने व्यावहारिकता प्रदान की । rउनके लिए अपने संवैधानिक कर्तव्यों के आगे व्यक्तिगत सम्बन्ध गौण थे। घनिष्ठ मित्र होने बाद भी नेहरू जी से कुछ मुद्दों पर उनका मतभेद रहा था । हिंदू कोड बिल पर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे इसे उचित नहीं मानतेऔर सासदों को उन्होंने संदेश भेजने के अधिकार का प्रयोग किया । तिब्बत को 'बफर स्टेट 'बनाये रखना वे भारत की सुरक्षा के लिए आवश्यक मानते थे और इस पर चीन के खतरनाक इरादों के बारे में उन्होंने नेहरू जी को सचेत भीकिया था,पर नेहरू जी चीन को खुश करने के चक्कर में तिब्बत की बलि दे बैठे , और इसका दुष्परिणाम १९६२ में चीन के आक्रमण के रूप में देश को भुगतना पडा ।
पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद राजेन्द्र बाबू पटना में सदाकत आश्रम में रहने लगे. १९६३ में जब उनका निधन हुआ तो नेहरू जी उनकी अंत्येष्ठी में तो शामिल नहीं ही हुए बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति डा ० राधाकृष्णन को भी वहां न जाने सलाह दी ,जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। नेहरू जैसे व्यक्तित्व का इस तरह का आचरण दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।
राजेन्द्र बाबू को देश ने 'भारत रत्न ' से सम्मानित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। उनके जैसा व्यक्तित्व देश में कोई दूसरा नहीं हुआ।
02 दिसंबर 2009
नवगीत: पलक बिछाए/राह हेरते... आचार्य संजीव 'सलिल'
नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
राग-संवेदन के प्रकाशन के साथ पुस्तकालय प्रारम्भ
पिछले कुछ समय से शब्दकार का यह प्रयास चल रहा था कि देश के रचनाकारों की पुस्तकों का भी प्रकाशन समय-समय पर किया जाया करे। इस संदर्भ में कुछ साहित्यकारों से सम्पर्क भी किया गया। इस कड़ी में डा0 महेन्द्रभटनागर जी और डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने पूरा सहयोग दिया।
पुस्तकों का प्रकाशन एक अलग ब्लाग पुस्तकालय पर समय-समय पर किया जायेगा। आज से इसका प्रकाशन किया जा रहा है। सबसे पहले डा0 महेन्द्रभटनागर जी के काव्य-संग्रह ‘‘राग-संवेदन’’ का प्रकाशन किया जा रहा है।
राग-संवेदन की कुछ कविताओं का प्रकाशन पहले भी शब्दकार पर हो चुका है। वहाँ इन कविताओं के प्रकाशन में किन्हीं कारणों से अनियमितता हो गई थी (डा0 महेन्द्रभटनागर जी इसके लिए क्षमा करेंगे।)
राग-संवेदन में कुल पचास कवितायें निम्न हैं ----
1 राग-संवेदन/1
2 ममत्व
3 यथार्थ
4 लमहा
5 निरन्तरता
6 नहीं
7 अपेक्षा
8 चिर-वंचित
9 जीवन्त
10 अतिचार
11 पूर्वाभास
12 अवधूत
13 सार-तत्त्व
14 निष्कर्ष
15 तुलना
16 अनुभूति
17 आह्लाद
18 आसक्ति
19 मंत्र-मुग्ध
20 हवा
21 जिजीविषु
22 राग-संवेदन/2
23 वरदान
24 स्मृति
25 बहाना
26 दूरवर्ती से
27 बोध
28 श्रेयस
29 संवेदना
30 दो ध्रुव
31 विपत्ति-ग्रस्त
32 विजयोत्सव
33 हैरानी
34 समता-स्वप्न
35 अपहर्ता
36 दृष्टि
37 परिवर्तन
38 युगान्तर
39 प्रार्थना
40 प्रबोध
41 सुखद
42 बदलो
43 बचाव
44 पहल
45 अद्भुत
46 स्वप्न
47 यथार्थता
48 खिलाड़ी
49 सिफ़त
50 बोध-प्राप्ति
अपेक्षा है कि आप सभी का सहयोग मिलेगा, पुस्तकीय सहयोग भी प्राप्त होगा। प्रयास यही रहेगा कि पुस्तकालय का प्रकाशन नियमित रूप से होता रहे।
लेबल:
जानकारी,
डॉ0 महेन्द्र भटनागर
30 नवंबर 2009
कृष्ण दयाल सक्सेना 'निस्पृह ' का गीत
निभना ही सीखा जीवन में
जाने कितनी बाधाओं को , मैंने शशि- सम हृदय लगाया ;
कष्ट-भार से बोझिल मन को , विचलित होने पर समझाया ;
भाँति शलभ की, दुःख की लौ पर ,मिटना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा .......................................................... । १।
शूल-सुमन दोनों को एक सम ,इस जीवन में प्यार किया है ;
शूल -मूल्य लेकर मानव से ,पुष्पों का व्यापार किया है ;
बन चकोर शशि हित ,शोलों को, चुगना ही सिखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ...............................................................। 2।
मंद पवन की शीतल सिहरन, को मैंने स्वीकार किया है ;
जब कि चुभन से भी शूलों की ,हँस कर ही अभिसार किया है ;
आंधी और तूफानों में भी , बढ़ना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ३।
मृग-चितवन की मनहर छवि का,मंजुल स्वर में गान किया है;
जब कि शौर्य को भी मृगेंद्र के ,समुचित ही सम्मान दिया है ;
कोमल -सबल सभी से मिल कर, हँसना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ४ ।
जब भी जिसको वचन दिया जो ,उसको पूरी तौर निभाया ;
हँस कर ही टाला है मग में ,कंकड़ -पत्थर , जो भी आया ;
कष्ट पड़े कितने भी ,प्रण पर टिकना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा........................................................ ।५ ।
कष्ट-भार से बोझिल मन को , विचलित होने पर समझाया ;
भाँति शलभ की, दुःख की लौ पर ,मिटना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा .......................................................... । १।
शूल-सुमन दोनों को एक सम ,इस जीवन में प्यार किया है ;
शूल -मूल्य लेकर मानव से ,पुष्पों का व्यापार किया है ;
बन चकोर शशि हित ,शोलों को, चुगना ही सिखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ...............................................................। 2।
मंद पवन की शीतल सिहरन, को मैंने स्वीकार किया है ;
जब कि चुभन से भी शूलों की ,हँस कर ही अभिसार किया है ;
आंधी और तूफानों में भी , बढ़ना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ३।
मृग-चितवन की मनहर छवि का,मंजुल स्वर में गान किया है;
जब कि शौर्य को भी मृगेंद्र के ,समुचित ही सम्मान दिया है ;
कोमल -सबल सभी से मिल कर, हँसना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ४ ।
जब भी जिसको वचन दिया जो ,उसको पूरी तौर निभाया ;
हँस कर ही टाला है मग में ,कंकड़ -पत्थर , जो भी आया ;
कष्ट पड़े कितने भी ,प्रण पर टिकना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा........................................................ ।५ ।
बकरीद -निरीह जानवरों के कत्लेआम का विकल्प सोचने की जरूरत
ईद -उल -जुहा उर्फ़ बकरीद बीत गयी । कुर्बानी के नाम पर लाखों निरीह बकरे कुर्बान हो गए । आज तक मै यह नहीं समझ पाया कि इन बेजुबानों को मार कर व पका कर खाने से कैसी धार्मिक संतुष्टि मिलती है । मैंने अपने कई मुस्लिम मित्रों से इस बावत पूछा ,पर सभी का रटा -रटाया सा जबाब था कि यह कुर्बानी प्रतीकात्मक है और एक रिवाज के रूप में सदियों से स्थापित है अतः इस पर तर्क की ज्यादा गुंजायस नहीं है । इक्कीसवीं सदी में ऐसी तर्क आश्चर्यजनक भले ही लगते हों पर धार्मिक अंधविश्वासों कि जड़े कितनी गहरी होती है,यह भी स्पष्ट होता है।
अखबारों में ईद-उल-जुहा के महत्त्व के बारे में कई इस्लामिक विशेषज्ञों के विचार भी पढने को मिले । इस पर्व को आध्यात्मिक उन्नयन को प्रेरित करने वाला बताया गया । क़ुरबानी को अपनी प्यारी से प्यारी चीज को अल्लाह के नाम पर न्योछावर करने की प्रथा कहा गया । कुछ लोगों ने यह भी कहा कि कुर्बानी बुरी इच्छाओं एवं आदतों के परित्याग का प्रतीक है । पर निरीह जानवर को काट कर ऐसे लक्ष्य कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ?
मुस्लिम समाज में अब शिक्षा का व्यापक प्रसार हो चुका है । वहां पर भी जागरूक व संवेदनशील लोगों कि एक अच्छीखासी जमात है । ऐसी वीभत्स और सारहीन प्रथाओं के विरुद्ध इस समाज में भी आवाज उठनी चाहिये।
बकरीद पर इस बार बकरे बहुत मँहगे बिके । कुछ बकरे तो कार से भी ज्यादा मँहगे थे । पच्चीस लाख तक का बकरा बिका । मैंने अपने एक परिचित ,जो घर से बाहर सर्विस पर नियुक्त हैं , को बकरीद पर मुबारकबाद के लिए फोन किया । उनकी बच्ची ने फोन रिसीव किया । मैंने पूछा कि कैसी बकरीद मनाई? उसने कहा कि इस बार कुर्बानी नहीं हो पायी क्यांकि पापा ने अपने एक दोस्त को कुर्बानी के लिए बकरा खरीदने के लिए पैसे दिये थे ,पर बकरा इतना मँहगा था कि ख़रीदा नहीं जा सका । मैने कहा ,"फ़िर क्या किया ?" उसने कहा कि जो पैसे बकरा खरीदने को निकाले थे , वह गरीबों में दान कार देंगें । मुझे लगा कि कुर्बानी के स्थान पर यदि यह विकल्प अपनाने पर मुस्लिम समाज विचार करे तो न केवल लाखों बेजुबान जानवरों के खून से हाथ रँगने से बचा जा सकता है वरन इस पर्व के मूल में निहित 'मोह -माया का परित्याग क़र आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होना ' भावना को सही अर्थों में साकार किया जा सकता है।
अखबारों में ईद-उल-जुहा के महत्त्व के बारे में कई इस्लामिक विशेषज्ञों के विचार भी पढने को मिले । इस पर्व को आध्यात्मिक उन्नयन को प्रेरित करने वाला बताया गया । क़ुरबानी को अपनी प्यारी से प्यारी चीज को अल्लाह के नाम पर न्योछावर करने की प्रथा कहा गया । कुछ लोगों ने यह भी कहा कि कुर्बानी बुरी इच्छाओं एवं आदतों के परित्याग का प्रतीक है । पर निरीह जानवर को काट कर ऐसे लक्ष्य कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ?
मुस्लिम समाज में अब शिक्षा का व्यापक प्रसार हो चुका है । वहां पर भी जागरूक व संवेदनशील लोगों कि एक अच्छीखासी जमात है । ऐसी वीभत्स और सारहीन प्रथाओं के विरुद्ध इस समाज में भी आवाज उठनी चाहिये।
बकरीद पर इस बार बकरे बहुत मँहगे बिके । कुछ बकरे तो कार से भी ज्यादा मँहगे थे । पच्चीस लाख तक का बकरा बिका । मैंने अपने एक परिचित ,जो घर से बाहर सर्विस पर नियुक्त हैं , को बकरीद पर मुबारकबाद के लिए फोन किया । उनकी बच्ची ने फोन रिसीव किया । मैंने पूछा कि कैसी बकरीद मनाई? उसने कहा कि इस बार कुर्बानी नहीं हो पायी क्यांकि पापा ने अपने एक दोस्त को कुर्बानी के लिए बकरा खरीदने के लिए पैसे दिये थे ,पर बकरा इतना मँहगा था कि ख़रीदा नहीं जा सका । मैने कहा ,"फ़िर क्या किया ?" उसने कहा कि जो पैसे बकरा खरीदने को निकाले थे , वह गरीबों में दान कार देंगें । मुझे लगा कि कुर्बानी के स्थान पर यदि यह विकल्प अपनाने पर मुस्लिम समाज विचार करे तो न केवल लाखों बेजुबान जानवरों के खून से हाथ रँगने से बचा जा सकता है वरन इस पर्व के मूल में निहित 'मोह -माया का परित्याग क़र आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होना ' भावना को सही अर्थों में साकार किया जा सकता है।
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