22 अप्रैल 2010

पृथ्वी दिवस आज है !


                    आज पृथ्वी दिवस है - २२ अप्रैल !  ये जीवन दायिनी धरती माँ हमें सब कुछ देती रही है और आज भी दे रही है. लेकिन जब हम उसके पास कुछ बचने दें. उसके श्रृंगार वृक्षों को हमने उजाड़ दिया, उसके जल स्रोतों को हमने इस तरह से दुहा है कि वे भी अब जलविहीन हो चले हैं. इसके गर्भ  में इतने परीक्षण  हम कर चुके हैं कि उसकी कोख अब बंजर हो चुकी है. अब भी हम उसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं. अब भी हम ये नहीं सोच पा रहे हैं कि जब ये नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह  की खोज करके उसपर चले जायेंगे. जैसे की गाँव छोड़ कर शहर आ गए. वहाँ अब कुछ भी नहीं रह गया है - खेतों को बेच कर मकान बनवा लिए. अब खाने की खोज में शहर आ गए. कुछ न कुछ करके गुजारा कर लेंगे.
                                 हम क्यों रोते हैं कि अब मौसम बदल चुके हैं, तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है. इसके लिए कौन दोषी है? हम ही न, फिर रोना किस बात का है? हमारी अर्थ की हवस ने , धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल डाल कर बंजर बना लिया. फसल अच्छी लेने के लिए उसको बाँझ बना दिया. ये कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खोयी है.
                              हर साल २२ अप्रैल को धरती को बचाने के लिए और उसके बचाव के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए इस दिवस का आयोजन किया जाता है.  पूरी दुनियाँ इस धरती को माँ नहीं कहती, कालांतर में आदमी सुबह उठकर  उस पर पैर रखने से पहले उसके स्पर्श को अपने मस्तक पर लगता था. ये मैंने अपने घर में ही देखा है. खेतों की पूजा होते देखी है. विश्व में इसको एक ग्रह  ही माना जाता है और फिर भी विश्व के किसी और देशवासी ने इस ग्रह को बचाने के लिए ये मुहिम शुरू की थी. ये व्यक्तित्व है जो अपनी दृढ इच्छाशक्ति के लिए विख्यात है - अमेरिका के पूर्व सीनेटर गेलार्ड नेल्सन.

                इस दिवस के आरम्भ करने की मुहिम के पीछे क्या अवधारणा थी ?  इस बारे में कुछ बातें  उन्हीं की जुबानी मिली है, जो मैं  दैनिक जागरण के साभार यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.


" पृथ्वी दिवस का मकसद क्या था? कैसे हुई इसकी शुरुआत? ये प्रश्न हैं जिन्हें लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं. वास्तव में  पृथ्वी दिवस का विचार मेरे दिमाग में १९६२ में आया और सात साल तक चलता रहा. मुझे इस बात से परेशानी थी की हमारे पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल नहीं है. नवम्बर १९६२ में मैंने इस विचार से राष्ट्रपति कैनेडी को अवगत करने और मुद्दे को उठाने के लिए उनको राष्ट्रीय संरक्षण यात्रा करने के लिए मनाने की सोची. एटार्नी जनरल राबर्ट कैनेडी से इस प्रस्ताव के बारे में बात करने के लिए मैं वाशिंगटन  गया. विचार उनको पसंद आया. राष्ट्रपति को भी यह पहल पसंद आई . सितम्बर १९६३ में राष्ट्रपति ने ग्यारह प्रान्तों की अपनी पांच दिवसीय संरक्षण यात्रा शुरू की. लेकिन कई कारणों से इसके बाद भी मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडा नहीं  बन सका. इस बीच मैं पर्यावरणीय  मुद्दों पर लगातार जनता के बीच आवाज उठाता रहा. पूरे देश में पर्यावरण में होने वाले नुकसान को स्पष्ट देखा जा सकता था. लोग पर्यावरण सबंधी मुद्दों पर चिंतित थे लेकिन राजनीतिज्ञों के कानों पर जून नहीं रेंग रही थी. १९६९ की गर्मियों के दौरान वियतनाम युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन कालेजों के कैम्पस तक पहुँच चुका था. यही मेरे जेहन में यह ख्याल आया कि क्यों न पर्यावरण को हो रहे नुकसान के विरोध के लिए व्यापक जमीनी आधार तैयार क्या जाए. सितम्बर १९६९ में सिएटल में एक जनसभा में मैंने घोषित किया की १९७० के वसंत ऋतू में पर्यावरण मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रदर्शन किया जाएगा. भागीदार बनाने के लिए सबका आह्वान किया. अख़बारों में इस खबर को अच्छी तरीके से कवर किया गया. इसके बाद खबर फैलते देर नहीं लगी . टेलीग्राम, पत्र और टेलीफ़ोन के माध्यम से इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देश भर से तांता लगा गया. जन-जागरण शुरू हो चुका था. मैं अपने मिशन में कामयाबी की ओर बढ़ रहा था अंततः २२ अप्रैल १९७० को २ करोड़ के विशाल जाना समुदाय के बीच पहला पृथ्वी दिवस मनाया गया."
                              जब ये काम ४० वर्षों से चल रहा है तब हमारी पृथ्वी की ये हालत है अगर हम अब भी नहीं चेते तो ये ज्वालामुखी, भूकंप , सुनामी और भूस्खलन - जो इस पृथ्वी के पीड़ा के प्रतीक हैं, इस पृथ्वी को नेस्तनाबूद कर देंगे. ये मानव जाति जो अपने शोधों पर इतरा रही है, कुछ भी शेष नहीं रहेगा. इस लिए आज ही और इसी वक्त संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे करेंगे और जो नहीं जानते उन्हें इससे अवगत कराएँगे या फिर अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे.  जब धरती माँ नहीं रहेगी तो उसकी हम संताने होंगे ही कहाँ? इस लिए हमें भी रहना है और इस माँ को भी हरा भरा रखना है ताकि वह खुश रहे और  हम भी खुश रहें.

5 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

इस दिवस पर भी अन्य दिवसों के भांति भाषणबाजी, तमाम कार्यक्रम और उनमें केवल चिन्ता व्यक्त करने से कुछ नहीं होगा. ज़रूरत है, कुछ ऐसे संकल्पों की जिन्हें क्रियान्वित भी किया जाये, तभी पृथ्वी के संरक्षण में हम आंशिक सहयोग दे पायेंगे.

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही अच्छी जानकारी...पूरे विस्तार से...पृथ्वी दिवस मनाने की शुरुआत के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा..पर अफ़सोस भी होता है...ऐसी जरूरत ही क्यूँ पड़ी?...और अब तो जरूरत बढती ही जा रही है...जरूरत है कि सबलोग चेतें,जागरूक हों और अपने अपने सामर्थ्य से इसके संरक्षण के लिए कुछ करें..सिर्फ पृथ्वी दिवस मनाने की औपचारिकता ना निभाएं

शब्दकार-डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आदमी इतना सोच ले कि हम ले क्या रहे हैं और दे क्या रहे हैं तो समस्या का हल निकल आये.
जानकारी अच्छी है पर अब लोगों को अमल भी करना होगा.
बधाई, पोस्ट लिखने के लिए.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

इस पोस्ट के लिए जो नियत दिन था, उसके लिए सिर्फ एक या दो लोग नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति इसके प्रति उत्तरदायी है लेकिन अफसोस इस बात का है कि अमल कौन करे? जब हम इस दिवस के लिए पढ़ कर उसकी साथर्कता के लिए ये संकल्प करने के लिए दो शब्द नहीं लिख सकते हैं कि हाँ मानवजाति को इस ओर कुछ प्रयास करने होंगे और इसमें हम अकेले नहीं है बल्कि अपने साथ और दो लोगों को जो नहीं जानते इससे जुसने के लिए प्रेरित करेंगे. हम ब्लॉग बना कर कुछ सार्थक करने के लिए प्रयत्नशील हैं लेकिन किस सार्थकता के लिए बात करते हैं?

मनोज कुमार ने कहा…

आज हमारी पृथ्‍वी पर जो इतना बड़ा संकट आ खड़ा है यदि समय रहते इसका निदान-निराकरण नहीं हुआ तो हमें बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अपने-अपने स्‍वार्थ के लिए पृथ्‍वी पर अत्‍याचार किया जाता है और उनके परिणामों के बारे में कोई नहीं सोचता।
पृथ्‍वी के सभी तत्‍वों को संरक्षण देने का संकल्‍प लेना चाहिए। पृथ्‍वी हमारी मां है, हमें उसकी सेवा करनी चाहिए – दोहन नहीं।