07 अप्रैल 2010

ये कैसी है जीत तुम्हारी---------->>>दीपक 'मशाल'

ये कैसी है जीत तुम्हारी
ये प्रश्न उठे हैं आहों से
हो लेते हो खुश तुम कैसे
इंसानी चीखों से
क्या मकसद पूरे कर पाओगे
खून सने तरीकों से
कितने चूल्हे बुझा दिए
बस अपनी रोटी पाने को
कोख सुखाकर कितनी तुमने
डायन अपनी माँ को सिद्ध किया
अपने घर किलकारी भरने को
औरों का दीप बुझा डाला
सुर्ख सब पत्ते कर डाले
बस मौत नाचती जंगल में
कैसे अब सो तुम पाओगे
शापित होके शापों से
रंजित होकर आहों से
ये प्रश्न उठे हैं आहों से
ये कैसी है जीत तुम्हारी
दीपक 'मशाल'

1 टिप्पणी:

Dr. Mahendra Bhatnagar ने कहा…

उच्चकोटि की संवेदना समन्वित कविता। कवि दीपक मशाल जैसे कवियों पर हिन्दी कविता का भविष्य निर्भर है।
*महेंद्रभटनागर
[ग्वालियर - भारत]
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