27 मार्च 2011

चार सौ का आंकड़ा छूने की बधाई -- सुझाव आमंत्रित हैं

शब्दकार आप सभी सदस्यों की मेहनत और सहयोग से निरन्तर आगे बढ़ रहा है। राजीव जी की इस पोस्ट के साथही शब्दकार ने अपनी चार सौवीं पोस्ट को छू लिया है। यह सदस्यों की लगातार बनी रहने वाली सक्रियता का सूचक है।


चित्र गूगल छवियों से साभार

400 के आंकड़े को शब्दकार के द्वारा छूने के बाद भी लगता है कि जो सोचकर इस ब्लॉग को शुरू किया था, वह उद्देश्य अभी भी कहीं से पूरा होते नहीं दिखता है। पूरा क्या अभी उसके आसपास भी पहुंचता नहीं दिखता है। शब्दकार आप सभी के सामूहिक प्रयास का सुखद परिणाम है तथा इसको और भी अधिक सुखद बनाने के लिए आप सभी का पर्याप्त सहयोग अपेक्षित है।

इस बार आप सभी सदस्यों से और शब्दकार के पाठकों से इस बात की अपेक्षा है कि वे शब्दकार को और अधिक लोकप्रिय, और भी अधिक सारगर्भित, और भी अधिक साहित्यिक बनाने के लिए हमें अपने-अपने स्तर पर सुझाव भेजने का कष्ट करें।

चूंकि सभी सदस्यों के व्यक्तिगत ब्लॉग हैं और सभी अपने-अपने स्तर पर उत्कृष्ट लेखन करके हिन्दी भाषा तथा साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। ऐसे में शब्दकार जैसे सामुदायिक ब्लॉग की आवश्यकता क्यों और किस कारण से पड़ी है? ऐसा क्या किया जाये कि सभी को, चाहे वह इस ब्लॉग का सदस्य हो अथवा पाठक, यहां की सामग्री के अध्ययन के द्वारा कुछ सार्थकता प्राप्त हो सके। इसमें हम अकेले कुछ नहीं हैं, आप सभी इसके महत्वपूर्ण अंग हैं।

अतः शब्दकार को अपना ब्लॉग मानकर, समझकर इस सम्बन्ध में अपने अमूल्य सुझाव अवश्य देवें कि इसे कैसे और अधिक प्रभावी तथा लोकप्रिय बनाया जा सके। सभी सदस्यों और पाठकों को शब्दाकर के चार सौ का आंकड़ा छूने पर बधाई तथा शुभकामनायें। सभी लेखक सदस्यों का विशेष आभार जो अपने सहयोग से, अपनी रचनात्मकता से शब्दकार को लोकप्रिय तथा जीवन्त बनाये हुए हैं।

क्या देखे यही सपने?

एक प्रश्न करती है
मुझसे मेरी आत्मा

क्या ऐसे ही जीवन की

की थी तुमने कल्पना?

सोच में पड़ गयी

समझ न पाई
न जाना
बचपन में खेले पढ़े
और देखे सपने

पर क्या हुए वे अपने?

बड़े हुए फिर चाहा

और बड़े बन जाना

पर सच्चे पथ से डिगने को

अपना मन न माना

देखा जब पीछे मुड़कर

ठिठके हम खड़े थे

उन्नति पथ पर
आगे को
हम तो नहीं बढे थे.

24 मार्च 2011

अब अगर जो वो रास्ते में आ जाए !!

य काफिया और रदीफ़ तो हटा दे जाहिद ,ज़रा मेरे हर्फ़ ग़ज़ल में समां जायें !!
जिंदगी का हर लम्हा ही एक मकता है ,हर शै के बाद दूसरी शै ही आ जाए !!
मुश्किलों ने हमसे कर ली है अब तौबा, अब अगर जो वो रास्ते में आ जाए !!
उम्र को ही पैराहन की तरह ओढ़ा हुआ है,मौत जब आए,इसी में समां जाए !!
अब तो तू ही तू नज़र आता है यारब,जहाँ में जहाँ-जहाँ तक मेरी नज़र जाए !!
हम हर्फ़ को ही खुदा समझाते हैं यारा,हर हर्फ़ की ही जद में खुदा आ जाए !!
इक जरा मन को कडा कर लीजिये ,हर फिक्र धूल में उड़ती ही नज़र आए !!
इतनी कड़ी निगाहों से ना देखिये हमें,कहीं खुदा ही घबरा कर ना आ जाए !!
दुनिया में रसूख उसी का होता है,जिसे,रसूख की फिक्र कभी भी ना सताए !!
सिर्फ़ मुहब्बत का भूखा हूँ"गाफिल",प्यार से मुझे कोई कुछ भी खिला जाए !!

किसी के बाप की नहीं है यह धरती....!!

किसी के बाप की नहीं है यह धरती....!!  
                 दोस्तों धरती पर रह रहे तमाम लोगों के बारे में यह बात सुस्पष्ट रूप से कही जा सकती है की धरती पर के सारे लोग अंततः धरती का भला चाहते हैं,और तकरीबन हर कोई शायद धरती को स्वर्ग ही बनाना चाहता है,अब यह बात अलग है कि इस सपने को फलीभूत करने के लिए जो कर्म करने होते हैं,उन्हें करना तो दूर,सही तरह से उनपर विचार भी नहीं किया जाता...तो आदमी द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की बातें दरअसल एक मज़ाक ही लगती हैं...एक बहुत बड़ा बेहूदा मज़ाक...!!जो धरती के हर एक कोने में लाखों-करोड़ों लोग हर वक्त विलापते रहते हैं....और बड़े सुकून से ठीक उसी वक्त वो धरती का सीना छलनी करते हुए होते हैं....जिस वक्त वो धरती के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हुए होते हैं...और एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि धरती को सबसे ज्यादा छलनी करने वाले या इसे लूटने वाले लोग ही धरती को सुन्दर बनाने की बातें करते हैं,तथा इसे करने के लिए वो तरह के दान-धर्म आदि भी करते हैं...और इस तरह वो दानवीरता के "कर्ण"कहलाये जाते हैं...और धरती के समाज पर उनका प्रभुत्व अन्य लोगों की अपेक्षा और-और-और बढ़ता जाता है...!!
                     दोस्तों जिस तरह हम सब इंसान धरती पर जीने के लिए अपने लिए बेहतर से बेहतर संसाधन चाहते हैं और सुख से जीना चाहते हैं....ठीक उसी तरह धरती भी हमसे ऐसा ही चाहती है,किन्तु धरती मूक है...यह हमसे कभी कुछ नहीं बोलती इसलिए हम यह समझ ही नहीं पाते...दोस्तों धरती पिछले बहुत से समय से आदमी वेदना से तड़प रही है...हमने तरह-तरह के कैंसर से धरती को इतना ज्यादा पीड़ित कर दिया है कि धरती इन घावों से से बुरी तरह छटपटा रही है....किन्तु,चूँकि वह हमसे कुछ नहीं बोलती....सो उसकी तड़प को हम नहीं समझ पाते.....और ना ही अपनी उस माँ,जिसने हमें जन्म देकर पाला-पोषा और बड़ा करके ऐसा बनाया कि हम उसकी गोद में एक बेहतरीन जीवन को अंजाम दे सकें....उस माँ के असीम दर्द को देखने की चेष्टा तक नहीं करते हम सब....और मजा यह कि धरती पर के सबसे श्रेष्ठ जीव भी हम सब मानव ही हैं.....यह स्वनामधन्यता हमारी इस लाचार माँ की पीड़ा और कसक को और भी ज्यादा बढाए देती हैं...!!
                  सबसे पहले तो दोस्तों हमें यह बात और तमीज हमेशा के लिए हमारे जेहन में धर लेनी चाहिए कि यह धरती हम इंसानों में सबके या किसी भी एक के बाप की नहीं है...यह धरती इस पर रह रहे तमाम असंख्य प्राणियों की भी है...जिन्हें हम जानते और नहीं जानते हैं...मगर उफ़ हमने उन असंख्य प्राणियों को धरती पर से ना सिर्फ बेदखल करते जा रहे हैं,बल्कि इस तरह से धरती के बहुरंगी पने को,इसकी विविधता को भी जान-बूझकर मिटाए दे रहे हैं....यह सब महज इसलिए कि हम मानव -जात शान से रह सकें....??किन्तु यहाँ भी हम मानव-जात एक तुच्छ जात ही साबित हुए जाते हैं... क्यूंकि जिस धरती को हम अपने लिए सुख की सेज बनाए रखना चाहते हैं....उसी धरती को अपने सुख और सेज के लिए ना जाने कितने ही अगणित बाशिंदों को भूखे-बेहाल-कंगाल और मरने की हद तक लाचार बनाकर रखा हुआ है...जब कुछ करोड़ लोग इस धरती पर मौज-मठ्ठा/हंसी-ठठ्ठा कर रहे होते हैं....ठीक उसी वक्त अरबों लोग भूख से तड़प रहें होते हैं....पानी के लिए,रोटी के लिए और कुछ अन्य साधनों के लिए आपस में मारामारी कर रहे होते हैं...!!
                 यह बहुत अजीब बात है कि जो धरती किसी एक के बाप की नहीं है,इस धरती का एक छोटा-सा टुकडा भी किसी एक की जागीर नहीं है...उस धरती पर जन्म लेने वाले लोग धरती के टुकड़े- टुकड़े कर बेच-खा रहे हैं....और उन टुकड़ों की खातिर कुत्तों से भी ज्यादा बुरी तरह से लड़-झगड़ रहें हैं...और धरती के इन तरह-तरह के टुकड़ों के लिए खून की नदियाँ तक बहा देने में इन्हें कोई संकोच नहीं है...!!(धरती के कुत्ते मुझे क्षमा करेंगे...आदमी के इस विषय में उन जैसे वफादार जीवों का नाम घसीटे जाने को लेकर मैं सचमुच बेहद शर्मिन्दा हूँ...!!)  
                    दोस्तों...धरती का हर-एक कण हम सबके लिए हैं....जिनका उपयोग हमें हमारे सम्यक जीवन जीने के लिए करना था...और खुद को एक सभ्य जात या प्राणी मानने के (स्वनामधन्य एवं अतिरंजित)गुण के कारण अपने पास के किसी भी एक अतिरिक्त कण को अन्य आदमी को प्रदान कर उसे उसके जीने में सहयोग प्रदान करना चाहिए था....किन्तु बजाय ऐसा करने के हमने धरती के इन तरह-तरह से जीवन-दायिनी और सुख-दायिनी कणों को संपत्ति बनाकर उस संपत्ति को तरह-तरह से अपने पास रखने का दुष्कर्म करना शुरू कर डाला....यह दुष्कर्म आज जिन उंचाईयों तक जा पहुंचा है... कि अरबों भूखे-नंगे लोगों के बीच अरबों डालरों की संपत्ति कमाए हुए लोगों को अपना नाम अमीर लोगों की लिस्ट में देखना बजाय शर्म,एक हेंकड़ी-एक अहंकार-एक गौरव का अहसास करता है...और मजा यह कि धरती पर के ही संसाधनों को अपनी ताकत से अपने हक़ में इस्तेमाल कर अमीर से अमीरतम बने हुए लोगों की हेंकड़ी यह है कि उन्होंने यह सब अपनी बुद्धि से किया है...एक मजेदार बात है यह कि आदमी अपनी अपनी बुद्धि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए धन-संपत्ति और बल पैदा करने और उसे और बढाते जाने के लिए करता है.....दूर के लोगों की बात तो छोडिये...उसके खुद के सगे-सम्बन्धी भी भूखे हो सकते हैं....और फिर भी ऐसे लोगों का सम्मान समाज में तनिक भी कम नहीं होता...!!
                  दोस्तों इस धरती पर हर जगह बुद्धि का परचम लहरा रहा है....और अपना धन या ताकत इसलिए सबको वाजिब प्रतीत होता है,क्यूंकि बुद्धि द्वारा स्थापित तर्क इसे सही साबित हैं करते हैं...यह अहंकार कि यह सब मैंने अपने कर्म और बुद्धि से पाया है....यहाँ यह बात गायब कर दी जाती है कि ज्यादातर यह हासिल वाजिब या न्याय-संगत तरीकों से ना होकर शाम-दाम-दंड-भेद-तीन-तिकड़म- छल-कपट यहाँ तक कि धूर्तता-मक्कारी से किया गया होता है....ऊँचे दर्जे का यह कपट हमारी व्यवस्था से मान्यता प्राप्त होता है....क्यूंकि हम व्यवस्था के विभिन्न तरह के लोग या कल-पूर्जे इसी तरह से अपना पोषण "ग्रीस-मोबिल"आदि प्राप्त करते हैं....हमारी मिलीभगत से हम सब जो,जिस भी किस्म के उद्योग-धंधे या व्यापार में शामिल होते हैं....इस मिलीभगत से अपने कुछ लोगों को प्रश्रय देते हैं....बाकी सबको बाहर कर देते हैं...!!इस तरह से हमारे कुछ लोगों का समूहीकरण अंततः धरती की सामूहिकता को नष्ट करते जाते हैं...क्यूंकि धरती की सामूहिकता उसकी प्रकृति में व्याप्त जीवनोनुकुल नासर्गिकता है जो सबको जीने के व्यापक अवसर प्रदान करती है....जबकि हम मानव प्रत्येक प्राणी के लिए मौजूद इन अवसरों को अपने स्वार्थजनित कुप्रयास-कुप्रबंधन द्वारा तोड़ते चले जाते हैं....!!
                हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे प्रयासों के कारण धरती भीतर से खोखली और बाहर से हरीतिमा-विहीन,प्रदूषित और ना जीने लायक होती चली जा रही है.....और इसे इस हालत तक लाने की जिम्मेवार ताकतें ही इसकी मानव-जाति का नेतृत्व कर रही हैं,किये जा रही हैं...करती जाएंगी...!!
बुद्धि के साथ विकास के कुप्रबंध का कोई उदाहरण देखना हो तो यह पृथ्वी के हर उस कोने में देखा जा सकता है,जहां भी आदमी नाम का जीव मौजूद है...जो अपने सिवा धरती के हर एक चीज़ को मते दे रहा है....और अपने में से भी कमजोर लोगों को मते दे रहा है....पता नहीं ऊपर वाले ने आदमी को बनाए जाते समय इस भयावह समय की कल्पना की थी या नहीं...मगर अगर धरती आज जीने योग्य साधनों से रिक्त होती जा रही है तो उसका कारण महज आदमी का अतिलालच-अतिअहंकार-अतिस्वार्थ और अतिबुद्धिवादिता है....और आदमी ही यह समझता नहीं....अपनी अतिबुद्धिवादिता के ही कारण...जहां-जहां ही अति बुद्धिनिष्ठ है...वहां-वहां उसने धरती पर के संसाधनों और मानव तथा प्राणिजगत के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाये हुए है...और ऐसा करना चूँकि वह अपनी बुद्धि के बूते हुए होना मानता है...इसलिये उसे अपनी यह बपौती ना सिर्फ वाजिब बल्कि यही सही है,ऐसा लगता है उसे...!! 
                  दोस्तों पढ़े-लिखे और सभ्य होने का अगर सिर्फ धन कमाने और इस धन कमाने के लिए दूसरों का हक़ छीनना भर है....तो लानत है इस सभ्यता पर...तो फिर छोडिये भी धरती को स्वर्ग बनाने के कपट-भरे विचार को और यह कहिये कि हम सिर्फ अपने लिए ऐसा कहते हैं और अपने लिए ही ऐसा करना भी चाहते हैं....तो ज्यादा ईमानदारीपूर्ण होगा और मानवीयता के ज्यादा करीब भी... किन्तु एक और तो मानवता की बातें....और दूसरी तरफ सिर्फ व् सिर्फ तमाम अमानवतापूर्ण कृत्य यह हमारे चरित्र को बिलकुल भी शोभा नहीं देते....अगर हम यह मानते हैं कि हम तनिक भी चरित्रवान हैं...और हाँ यह भी सही है कि हम आगे भी ऐसा ही करते रहने वाले हैं....तो फिर दोस्तों आज से यह सब बातें बंद.....!!क्या बंद....??धरती को स्वर्ग बनाने की बातें या इसके पर्यावरण के नष्ट होते जाने की चिंता भरी बातें......!!आप बस अपना काम किये जाओ....जो भोगना है.....हमारी संताने भोग लेंगी ना.....अपन को चिंता काहे को लेने की.....!!!!

20 मार्च 2011

बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष" की हास्य कविता -- काव्य मंच पर होली

काव्य मंच पर होली

======================

काव्य मंच पर चढ़ी जो होली, कवि सारे हुरियाय गये,

एक मात्र जो कवयित्री थी, उसे देख बौराय गये,

एक कवि जो टुन्न था थोडा, ज्यादा ही बौराया था,

जाने कहाँ से मुंह अपना, काला करवा के आया था,

रस श्रृंगार का कवि गोरी की, काली जुल्फों में झूल गया,

देख कवयित्री के गाल गोरे, वह अपनी कविता भूल गया,

हास्य रस का कवि, गोरी को खूब हसानो चाह रहो,

हँसी तो फसी के चक्कर में, उसे फसानो चाह रहो,

व्यंग्य रस के कवि कि नजरे, शुरू से ही कुछ तिरछी थी,

गोरी के कारे - कजरारे, नैनों में ही उलझी थी,

करुण रस के कवि ने भी, घडियाली अश्रु बहाए,

टूटे दिल के टुकड़े, गोरी को खूब दिखाए,

वीर रस का कवि भी उस दिन, ज्यादा ही गरमाया था,

गोरी के सम्मुख वह भी, गला फाड़ चिल्लाया था,

रौद्र रूप को देख के उसके, सब श्रोता घबडाय गये,

छोड़ बीच में में सम्मलेन, आधे तो घर भाग गए ,

बहुत देर के बाद में, कवयित्री की बारी आई,

प्रणाम करते हुए, उसने कहा मेरे प्रिय कविभाई’,

सुन ‘भाई’ का संबोधन, कवियों की ठंडी हुई ठंडाई,

संयोजक के मन - सागर में भी, सुनामी सी आई,

कटता पत्ता देख के अपना, संयोजक भी गुस्साय गया,

सारे लिफाफे लेकर वो तो, अपने घर को धाय गया ||

=================================

बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
206, टाइप-2,
आई.आई.टी.,कानपुर-208016, भारत

18 मार्च 2011

मजहब न तेरा कोई हो इन्सान तू बने

अवतार सिंह 'पास' पजाब के प्रगतिशील कवि थे । . जब भारत में खालिस्तानी आतंकवाद चरम सीमा पर था तब वे उस विचारधारा से जुड़े थे जो आतंकवादियों के इरादों के खिलाफ संघर्ष कर रही थी । . उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिल रहीं थीं और बाद में उनकी हत्या भी कर दी गयी । इसी दौरान उनको बेटी होने की सूचना भी मिली । उन्होंने अपनी बेटी को संबोधित करते हुए एक काव्यात्मक ख़त लिखा जो आतंक के विरुद्ध लड़ी में न केवल उनके जज्बे को प्रदर्शित करता है वरन फिरकापरस्त ताकतों को भी बेनकाब कर लोगों को जागरूक करता है। इस दृष्टि से उनकी यह कविता एक शाश्वत दस्तावेज कही जा सकती है.

बाप, का ख़त बेटी कें नाम

बेटी तेरे जनम पै है स्वागत तेरा बहुत,
दादी से तेरी मुझको समाचार ये मिला ;
लेकिन वह ज्यादा खुश आयी नहीं मुझे,
लड़का न होने का उसे शायद रहा गिला।

अफ़सोस उसकी सोच पै बिलकुल नहीं मुझे ,
लड़की के साथ भेद ये सदियों से आया है ;
जड़ इसकी पूंजीवाद है ,सामंतवाद है ,
बेशक बुराइयों का यही तो निजाम है ।

शोषितजनों की मुक्ति ही बस मेरालक्ष्य है ,
संघर्ष कर रहा हूँ मैं,जालिम निजाम से;
मै चाहता हूँ ऐसा निजाम आये हिंद में ,
इज्जत हो आदमी की जहाँ उसके काम से ।

बेटी तेरा जनम हुआ है ऐसे वक्त पर ,
लथपथ है जबकि खून से पंजाब की जमीं;
फिरकापरस्त ताकतें करती हैं साजिशें ,
कैसे रहे सुकून स पजाब की जमीं ?

फिरकापरस्त ताकतें ,काली ये ताकतें ,
ये ताकतें हैं मौत की,सूचक विनाश की ;
लोगों को मजहबों के खेमे में बाँट कर ,
गुल करना चाहती हैं सभी किरणें आस की।


लड़ते हुए इनसे मैं मर भी गया तो क्या,
इस जंग में महान शहादत तो चाहिए ;
बलिदान चाहें जितने हों चिंता नहीं ,मगर,
इन काली ताकतों को क़यामत तो चाहिए।


शायद ही तुझको दे सकूँ मै तेरा हक़,मगर,
आदर्श मेरे तेरी धरोहर हैं कीमती ;
फिरकापरस्त लोगों से तू रहना सावधान ,
इंसानियत ही दुनियां में जेवर है कीमती।

पैगाम तेरे वास्ते मेरा यही है बस ,
हिन्दू बने,न सिक्ख,न मुसलमान तू बने ;
दहलीज पर जवानी की,जब तू रखे कदम,
मजहब न तेरा कोई हो ,इन्सान तू बने ।

16 मार्च 2011

कुछ न कुछ करते रहिये....!!!


कुछ न कुछ करते रहिये यां जमे रहने के लिए ,
इस जद्दोजहद में ख़ुद के ठने रहने के लिए !!
यहाँ कोई ना लेगा भाई आपको हाथो-हाथ ,
बहुत जर्फ़ चाहिए आपके खरे रहने के लिए !!
इन्किलाब न कीजै रहिये मगर आदमी से ,
रूह का होना जरुरी है अपने रहने के लिए !!
सब मुन्तजिर हैं कि मिरे लब खुले कब ,
कुछ बात तो हो मगर मेरे कहने के लिए !!
इस दुनिया से इन्किलाब की उम्मीद न करो,
मर रहे सब लोग यां अपने जीने के लिए !!
हम झगडों के कायल हैं ना अमन के खिलाफ,
कुछ आसमां हो कबूतरों के उड़ने के लिए !!
हम रहना चाहते हैं सबसे मुहब्बत के साथ ,
कोई तैयार ही नहीं है प्यार करने के लिए !!
जो कर रहे हो तुम उसके सिला की सोचो ,
नदिया बही जा रही है बस बहने के लिए !!
पशोपेश में है"गाफिल"क्या करे ना करे ,
क्या य जगह बची है हमारे रहने के लिए !!ये यां जमे रहने के लिए ,
इस जद्दोजहद में ख़ुद के ठने रहने के लिए !!
यहाँ कोई ना लेगा भाई आपको हाथो-हाथ ,
बहुत जर्फ़ चाहिए आपके खरे रहने के लिए !!
इन्किलाब न कीजै रहिये मगर आदमी से ,
रूह का होना जरुरी है अपने रहने के लिए !!
सब मुन्तजिर हैं कि मिरे लब खुले कब ,
कुछ बात तो हो मगर मेरे कहने के लिए !!
इस दुनिया से इन्किलाब की उम्मीद न करो,
मर रहे सब लोग यां अपने जीने के लिए !!
हम झगडों के कायल हैं ना अमन के खिलाफ,
कुछ आसमां हो कबूतरों के उड़ने के लिए !!
हम रहना चाहते हैं सबसे मुहब्बत के साथ ,
कोई तैयार ही नहीं है प्यार करने के लिए !!
जो कर रहे हो तुम उसके सिला की सोचो ,
नदिया बही जा रही है बस बहने के लिए !!
पशोपेश में है"गाफिल"क्या करे ना करे ,
क्या य जगह बची है हमारे रहने के लिए !!

ख्वाजा मेरे ख्वाजा...दिल में समां जा !!


ख्वाजा मेरे ख्वाजा ....दिल में समां जा ......श्याम की राधा....अली का दुलारा...ख्वाजा मेरे ख्वाजा !!.....एक धुन सी हर वक्त दिल में मचलती रहती है...हर किसी के प्रति प्यार में पगा ये दिल किसी-न-किसी को अपने पास ही नफरत के शोलों से भड़कता देखकर दिन-रात परेशान होता रहता है!! सबको इस जीवन में इंसानों के बीच ही रहना है,और वो भी अपने आस-पड़ोस के लोगों के बीच ही......मगर सबके-सब एक अनदेखे-अनजाने खुदा... भगवान...गाड...आदि के पीछे ऐसे बावले....उतावले हुए रहते हैं कि मारकाट तक पर उतारूं हैं.....!!मन्दिर- मस्जिद-गिरिजा से इस नामालूम से ईश्वर को बाहर लाकर अपने बीच के रिश्तों में खड़ा कर दिया है इसे ....!! हम सब एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के भरोसे के लिए,एक-दूसरे के प्यार के लिए जीते हैं ....!दूसरे के लिए जीना ही प्यार है...और दूसरे के लिए मर-मिटना ही उस प्यार की पराकाष्ठा !! मगर खुदा या भगवान के लिए मरना और मारना उस प्यार और इंसान की ही नहीं बल्कि खुदा या भगवान् की भी तौहीन है ...शायद ये मारने वाले नहीं जानते...मगर चंद हत्यारों के कुकर्मों के कारण आपसी विश्वास की चूले हिलने लगी हैं और उसका दुष्परिणाम आगे क्या होने को है ....क्या ये खुदा अथवा भगवान् या गोड के बन्दे कभी समझ भी पायेंगे ?? ईश्वर का सही स्थान देवालयों या फ़िर अपने ख़ुद के ही दिल में होता है....सबसे उचित स्थान तो निस्संदेह हमारा दिल ही है ...जहाँ जरा सी गर्दन झुकाई और यार की सूरत देख ली !!.... मगर दिल की और रुख ना करने वाले आदमी को चैन ही नहीं है ...सब गोया इसी बात के लिए बेचैन हैं कि जिसे वो पूजते हैं सिर्फ़-व्-सिर्फ़ वाही श्रेष्ठ है और बाकी के सब-के-सब भी उसे ही पूजें !!यही उस पागलपन की इन्तेहाँ है ,जो हमें बावलों की तरह लडाती रहती है.......!!!! और तो और जिस बुद्धिजीवी वर्ग से इसका समाधान पाने की आशा की जाती है वो ख़ुद भी इस पागलपन का अगुआ बन बैठता है !!....ब्लॉग वगैरह से लेखक लोग आपसी अनबन के कारण निकाले जा रहे हैं ...कोई एक दूसरे को समझने-समझाने के प्रयास नहीं करता !!बस यही कि हमें नहीं फुर्सत तुम्हें समझने की..चलो भागो यहाँ से ....पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं हमें समझाने !! ... यह प्रचलन ,यानि कि दूसरे को समझने कि कोई चेष्टा नहीं करना या दूसरे को अपने सामने बिल्कुल ही तुच्छ समझना हर किस्म के वर्ग में है ............यह सब हम सबमें दूरी बढ़ा रहा है.....यह सब हमें समाधान तो क्या,और भी गहरी समस्या की और ले जा रहा है .....मगर शायद हम ये तो समझते ही नहीं या फ़िर अपने अंहकार की वजह से समझना ही हैं चाहते !!...........मगर हम कहाँ जा रहे हैं ...हमारा भविष्य क्या है...यह कोई भी विवेकवान व्यक्ति बिना सोचे ही बता देगा !!.............अगर हम सचमुच ही अपने-आप को सभ्य और विवेकशील मानते है तो अभी-की-अभी इस पर निर्णय लेना होगा....तथा हर समुदाय के व्यक्ति को अपने उग्रपंथियों को काबू में करना होगा तथा कट्टरपंथियों पर भी लगाम कसनी ही होगी.....वरना ये लोग हमें जहाँ ले जायेंगे ,उसकी तस्वीर की कल्पना भी भयावह है !!...........अब सिर्फ़-व्-सिर्फ़ आदमी ही बनकर रहा जा सकता है इससे कमतर की जो बात सोचतें हैं वे दुनिया को सिर्फ़ पीछे ही ले जा सकते है मगर दुनिया पीछे जाने के लिए बनी ही नहीं है ....वह तो या तो आगे ही जायेगी ..या फ़िर ऐसे लोगों की वजह से मिट जायेगी !!!!

ओह जापान....तुम फिर से वैसे ही सुन्दर बन जाओ....!!


ओह जापान....तुम फिर से वैसे ही सुन्दर बन जाओ....!! 
                 जो कुछ घट रहा होता है हमारे सामने,उससे विमुख हम कभी नहीं रह सकते...बहुत बार बहुत सी बातों पर हमारी आँखे भर-भर आती हैं...मगर कुछ भी हमारे बस में नहीं होता हम बस तड़प कर रह जाते हैं...जापान की विभीषिका एक ऐसी ही दुर्घटना है...जिस पर अपने भाईयों के लिए सिवाय मंगलकामनाएं और शुभकामनाएं प्रेषित करने के कुछ नहीं कर सकते...धरती पर जापान नाम की इस जगह के हमारे तमाम भाई बंधू जल्द-से-जल्द इस त्रासदी के परिणामों को झेल कर आने वाले कल में एक बार फिर एक सुन्दर-मजबूत और अकल्पनीय जापान के निर्माण को अग्रसर हों,ऐसी हमारी कामना है....हमारे जापानी भाईयों,विपदा की इस अभूतपूर्व घडी में हजारों मील दूर बैठे हम सब आपके साथ हैं...!!!!

11 मार्च 2011

क्या आपको पता है कि क्यूँ....??

                    .......घटनाएं होती हैं...खबर बनती हैं .........ख़बरें छपती हैं.....ख़बरें पढ़ी जाती हैं....खबर देखी जाती हैं...ख़बरें अंततः बीत जाती हैं....अगली घटना होती है....फिर खबर बनती है....फिर खबर छपती है....फिर खबर पढ़ी जाती है....खबर देखी जाती है.....और खबर बिसरा दी जाती है....कहीं कुछ भी घट जाए....कितना भी लोमहर्षक...कितना भी दर्दनाक.....कितना भी शर्मनाक....कहीं कुछ गुबार नहीं उठता....कहीं कोई दावानल नहीं सुलगता...सब कुछ वैसे-का-वैसा चलता चलता रहता है.....आदमी ही खबर का हिस्सा है...और आदमी ही कलपता है....आदमी ही तड़पता है....आदमी ही रोता है... मगर "साला" ये आदमी है कि क्या है...रत्ती भर भी नहीं बदलता....किसी भी बात से विचलित नहीं होता....क्या आपको पता है कि क्यूँ....??
मैं आपको बताता हूँ कि क्यूँ....क्यूंकि आदमी यह समझता ही नहीं कि यह समूची धरती दरअसल एक परिवार है और इस परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रत्येक कर्म से कोई दूसरा सदस्य अत्यंत प्रभावित होता है....यह प्रभाव अच्छे कर्म से परिवार के सुगठित रहने के परिणाम में और....गलत कार्य से परिवार टूटने के परिणाम में दृष्टिगत होता है...सच तो यह है कि आदमी अगर रंच भर भी यह सोच पाए कि परिवार को स्वर्ग की भांति बनाए रखना श्रेयस्कर है या नरक....तो शायद बात बदल भी सकती है मगर शायद आदमी को यह सोच पाने का अवकाश ही कहाँ....और स्थितियां दिनो-दिन यातनादायक होती जा रही हैं...आदमी का जीना बेहद प्रतिकूल होता जा रहा है...मीडिया द्वारा सोचे और स्थापित किये जा रहे आदमी की कमाई पहले की अपेक्षा बढ़ जाने के कतिपय तथ्यों के बावजूद....  क्या आपको पता है कि क्यूँ....??
दरअसल आदमी जब भी रोटी के फेर से ऊपर उठ जाता है...तब-तब उसे तरह-तरह के अन्य सुखों की कल्पनाएँ घेरने लगती हैं...और मीडिया के तमाम रूपों द्वारा परोसे जा रहे तरह-तरह के व्यंजनों का लुत्फ़ उठाने का स्वार्थ उसे तरह- तरह से विचलित करने लगता है....वह अपनी स्थितियों से विचलित होने लगता है....असंतुष्ट होने लगता है...और तरह-तरह की बेईमानियाँ-धूर्ततायें-कपट आदि करने लगता है....मगर तरह-तरह के भ्रष्टाचार आदमी को उतना विचलित इसलिए नहीं कर पाते क्यूंकि हर कोई येन-केन-प्रकारेण यह सब करता है...या करने को तैयार रहता है.. और ऐसा करने के हर कोई एक-दूसरे का सहयोगी बन जाता है...या बनने को तैयार रहता है... क्या आपको पता है कि क्यूँ....?? क्यूंकि आदमी ऐसा करके कभी सोच ही नहीं पाता कि आज उसके ऐसे किसी कर्म से कोई दूसरा इससे प्रभावित हो रहा है....और चूँकि सब ऐसा ही करने को तत्पर हैं...तो कल को कोई दूसरा जब यही करेगा तो उस स्वयं पर भी यही गुजरेगी....पता नहीं क्यूँ आदमी सारे धार्मिक कर्मकांड और इस प्रकार की वैचारिकता के बावजूद या तो कर्म के सिद्धांत को नहीं मानता....या फिर कर्म-सिद्धांत उस पर लागू नहीं होगा,ऐसा वह समझता है....अगर ऐसी दुर्बुद्धि या कुबुद्धि है आदमी में तो आप क्या कर सकते हैं...??.....मगर दोस्तों साधारण बेईमानी-भ्रष्टाचार-कपट-धूर्तता आदि में और आदमी द्वारा धरती पर किए जाने वाले एक जघ्यतम अपराध की कोई अन्य मिसाल नहीं मिलती जिसे मीडिया की भाषा में बलात्कार कहा जाता है....और समूची धरती पर यह भीषणतम अपराध केवल और केवल मानव ही करता है...जिसे वह खुद सभी प्राणियों में सबसे सभी मानता है.....!! क्या आपको पता है कि क्यूँ....?? क्यूंकि आदमी को अब तक यह पता ही नहीं है कि नारी के लिए उसकी देह का अर्थ क्या है....और सहवास या सम्भोग का मतलब क्या है....एक स्त्री की देह को उसकी सम्मति से पाना और उसपर जबरन कब्जा कर उसके किसी अंग में अपने-आप को जबरदस्ती थोप देने में क्या अंतर है....!! ....कि नारी जिस तरह अपनी देह को सजाती-संवारती-दुलारती है.....उस देह की सुन्दरता को कोई अपने प्रेम और सम्मान से जीते,ऐसा वो चाहती है....और इस चाहना में एक निर्मलता है....किसी को सम्पूर्ण रूप से पाने की अभीप्सा है....और उसकी आँखों और आत्मा में इस बात की गहरी प्यास है कि उसे पाने वाला....उसे चाहने वाला उसे सम्पूर्णतया जान लेवे....पहचान लेवे....एक मित्रता चाहती है वह पुरुष से...जिससे वो ना केवल प्रेम कर सके बल्कि उसके साथ अपना अन्तरंग बाँट सके....अपने आपको बाँट सके....अंततः अपने-आप को उसे सौंप सके...!!....अगर पुरुष नाम का यह जीव किंचित-मात्र भी इस मर्म को-इस चाहना को-इस अभीप्सा को...इस अव्यक्त आवाज़ को सुन सके-समझ सके...तो इस धरती का तो कायाकल्प ही हो जाए....हमारे-आपके-सबके बच्चें एक दूसरे के प्रति सम्मान भाईचारे और प्रेम के संग एक नया जीवन आरम्भ कर सकें....!!
                     किन्तु ऐसा नहीं समझकर इसका ठीक विपरीत आचरण कर....यानी स्त्री के संग जबरदस्ती व्याभिचार कर आदमी कौन-सा सुख पाता है....यह हमको नहीं पता....!! क्या आप किसी ऐसी किसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हो कि सरेआम तड़पती हुई जबरदस्ती नग्न की गयी कोई बाला हाथापाई करते हुए मुहं दबाकर और हाथ-पैर बाँध कर छटपटाते हुए,जोर जबरदस्ती करते हुए किसी मर्द को क्या सुख प्रदान कर पाती होगी....??.....कल्पना भी सहम जायेगी आपकी-हमारी या तकरीबन हम सबकी....मगर दोस्तों ऐसा हमारे बीच हम सबके होते हुए भी होता है.......!!
क्या आपको पता है कि क्यूँ....?? शायद इसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है....और ऐसा व्यभिचार करने वालों के पास तो बिलकुल भी नहीं....मगर एक प्रश्न अक्सर मेरे मन में उठता रहता है कि जैसे खून का बदला खून....वैसे ही रेप का बदला.....अरे नहीं-नहीं-नहीं....ऐसा भीषणतम विचार हमारे मन में कभी नहीं आता ना...और आ भी नहीं सकता....क्यूंकि ऐसे तो पूरी दुनिया ही आततायी हो जायेगी.....है ना....??तो दोस्तों आगे से हम क्यूँ ना करें....कि जिसने भी ऐसा निंदनीय कृत्य किया हो....अक्सर उसके घर वाले परिवार उसे बचाने का प्रयास आखिरी दम तक किए जातें हैं....उनके पास हम सब अपनी-अपनी बेटियाँ ले जाकर उन्हें ऐसा कहें कि ये ले मेरी भी बेटी ले...ले....!!ये ले मेरी भी बेटी ले...ले....ये ले साले...ले अपनी बेटी के कपडे मैं उतारता हूँ....ले मेरी आँखों के सामने कर....जो तुझे करना है.....आ अपने घर के और मर्दों को भी बुला ले.. ....साले हम तुम्हारे लिए बेटियों की कमी नहीं होने देंगे.....उनकी माताओं-और बहनों को कहें कि आइये माताजी-बहिनजी....अपने भाई-पति-चाचा-ताऊ-दादा-भतीजे सबको बाहर लाओ....लो-लो-लो यहाँ खुली सड़क पर सरेआम हमारी बेटियों पर जबदस्ती करो....दोस्तों.....ऐसे दृश्य की कल्पना भले अभी आपको अजीब लगे मगर...जैसा कि हाल है और जैसा कि हमारे न्यायतंत्र की सीमा है....और जैसा कि ऐसा करने वालों का रसूख है.....हमें ऐसा ही करना होगा....किसी को ऐसे ही तोड़ा जा सकता क्यूंकि जब न्याय का भय ख़त्म हो जाता है....और ताकतवर लोगों की हैवानियत की तूती बोलने लगती है....तब शायद ये हथियार काम कर सकते होंओं ....और मुझे उम्मीद है कि इसीसे शायद कुछ हो तो हो....वरना मेरे देखे तमाम नयना साहनी....भंवरी बाई.....अरूशी.....सोनू-लिली-कल्पना-रुचिका....और अभी-अभी रांची के बीचो-बीच कुकर्म कर ह्त्या करके फेक दी गयी बारह वर्षीया रौशनी या फिर रांची में ही छज्जे से फ़ेंक कर मार डाली गयी अन्नाऔर ना जाने कितनी अनाम कन्याएं और स्त्रियों की न्याय को तरसती आँखे चिल्ला-चिल्ला कर अनंत काल तक हमसे यह पूछती रहेगी....कि बताओ मेरे साथ ऐसा क्यूँ हुआ...??बताओ मेरा कसूर क्या था...और एक स्त्री द्वारा पूछे जाने वाले ऐसे तमाम सवालों का कोई जवाब  हममे से किसी के पास नहीं होगा...... क्या आपको पता है कि क्यूँ....?? क्या आपको पता है कि क्यूँ....??
--
http://baatpuraanihai.blogspot.com/


सपने में भी रोकती है बेटियाँ....!!

सपने में भी रोकती है बेटियाँ....!!
एक बिटिया दस वर्ष की हो गयी है मेरी 
और दूसरी भी पांच के करीब....
कभी-कभी तो सपने में ब्याह देता हूँ उन्हें 
और सपने में ही जब 
जाता हूँ अपनी किसी भी बेटी के घर....
तो मेरे सीने से कसकर लिपट कर 
खूब-खूब-खूब रोती हैं बेटियाँ....
मुझसे करती हैं वो 
खूब-खूब-खूब सारी बातें....
अपने घर के बारे में 
माँ के बारे में और 
मोहल्ले के बारे में...
और तो और कभी-कभी तो 
ऐसी-ऐसी बातें पूछ डालती हैं 
कि छलछला जाती हैं अनायास ही आँखे 
और जीभ चुप हो जाती है बेचारी...
पता नहीं कितने तो प्यार से 
और पता नहीं कितना तो..... 
खाना खिलाये जाती हैं वो मुझे....
और जब चलने लगता हूँ मैं 
वापस उनके यहाँ से....
तो एक बार फिर-फिर से...
खूब-खूब-खूब रोने लगती हैं बेटियाँ 
कहती हैं पापा रुक जाओ ना....
थोड़ी देर और रुक जाते ना पापा....
कुछ दिन रुक जाते ना पापा....
पापा रुक जाओ ना प्लीज़...
हालांकि जानती हैं हैं वो 
कि नहीं रुक सकते हैं पापा.....
मगर उनकी आँखे रोये चली जाती हैं....
और पापा की आँख सपने से खुल जाती है....
देखता हूँ....बगल में सोयी हुई बेटियों को....
छलछला जाता हूँ भीतर कहीं गहरे तक...
चूम लेता हूँ उनका मस्तक....
देखता हूँ....सोचता हूँ...बहता हूँ....
कि उफ़ कितनी गहरी जान हैं मेरी बेटियाँ....!!!

-- 
http://baatpuraanihai.blogspot.com/

10 मार्च 2011

आठ मार्च (महिला-दिवस)के बाद.....................!!!!

सुनो....सुनो.....सुनो....सुनो.....
ओ देवियों....
ओ संसार की तमाम नारियों...
बालाओं...कन्याओं....
इस,बीते महिला-दिवस के बाद...
तुम्हारे ऊपर अब किसी पुरूष का
कोई अत्याचार नहीं होगा....
संसार-भर के मीडिया में
महिला-दिवस के प्रचारित होने के बाद
सहम गया है संसार-भर का पुरुष....
और कसम खा ली है उसने कि....
अब नहीं करेगा वह नारी का अ-सम्मान
तो हे सम्पूर्ण नारियों....
अब विश्व-विजेता हो तुम...
और अब आगे चलेगी तुम्हारी ही मर्ज़ी
अब चार साल से बारह साल की बच्चियां
नहीं फ़ेंक दी जायेंगी कहीं कुकर्म के बाद...
और किसी चलती लड़की पर,
कभी तेज़ाब नहीं फेंका जाएगा....
अब कोई अरुणा नहीं पड़ी रहेगी....
सैतीस साल तक किसी अस्पताल के बिस्तर पर...
और ना ही पच्चीस सालों तक लड़ना पडेगा,
किसी भंवरी देवी को कचहरी में न्याय....!!
कोई किसी नारी को जीते-जी....
किसी तंदूर में नहीं भूनेगा....
और ना ही कोई आरूषी अपने ही माँ-बाप से
ह्त्या का शिकार बन पाएगी.....
और तो और अपने इस भारत में
अब कहीं कोई दहेज़-ह्त्या नहीं होगी....
यहाँ तक कि किसी मनचले की किसी....
छेड़खानी का शिकार भी नहीं बनेगी कोई लड़की....
और रात को अकेले चल सकोगी तुम सब भयहीन,सड़कों पर
और सारे पियक्कड़ और क्रोधी पति भी आठ मार्च के बाद
अपनी स्त्री को अपने जुल्म का शिकार नहीं बनायेंगे...
और ना ही अब समझी जायेगी किसी स्त्री की योनि...
अपनी तिजोरी के धन या जमीन की भांति अपनी मिलकियत
हे दुनिया की तमाम देवियों...
कितनी आशावादी हो ना तुम सब....
अब तो मैं भी तुम सबकी तरह इस आशा का शिकार हो चुका हूँ
ऐसा लगता है कि किसी(ब्राहमण) ने ठीक ही कहा है....
कि साल अच्छा है.....(चाहे बरसों पहले....!!)
आठ मार्च के बाद ऊपर लिखा हुआ ही होगा....
यानी कि कोई जोर और जुल्म नहीं होगा तुमपर....
यह सब होगा और जरूर होगा.....मगर....
तुम सबकी मृत्यु के पश्चात.....!!
(अभी-अभी आज के प्रभात-खबर में पढ़ा कि बीती रात
या दिन बारह साल की एक बाला को
कुकर्म करके हत्या कर खेत में फ़ेंक दिया गया) 

--
http://baatpuraanihai.blogspot.com/



08 मार्च 2011

राम निवास'इंडिया' की ग़ज़ल -- महिला दिवस पर विशेष

ग़ज़ल

मैं प्रेम करुणा ममता को नमन करता हूँ
नारी तेरी शालीनता को नमन करता हूँ!!

पुरुषों की सारी आदतें तू सहन करती है
धरणी सी सहनशीलता को नमन करता हूँ!!

पीकर हलाहल भी कभी इज़हार ना करती
लज्जा तेरी गंभीरता को नमन करता हूँ !!
राधा तू ही मीरा तू ही लैला भी हीर हो
श्रद्धा तेरी मैं श्रेष्ठता को नमन करता हूँ !!

गार्गी तू ही,कैकई तू ही, तू लक्षमीबाई हो
आस्था मैं तेरी वीरता को नमन करता हूँ!!

'इंडिया' कहूँ मैं सच;तेरा एहसान सब पे है
नारी तेरी महानता को नमन करता हूँ!!

-------------------------------------
राम निवास'इंडिया'
कवि शायर एवं गीतकार

07 मार्च 2011

दिव्या गुप्ता जैन का आलेख -- कम से कम अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए -- महिला दिवस पर विशेष

कम से कम अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
दिव्या गुप्ता जैन
==========================

सही मायने में महिला दिवस तब ही सार्थक होगा जब समाज में महिलाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से संपूर्ण आज़ादी मिलेगी, जहाँ उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा! समाज में हर महत्वपूर्ण निर्णय में उनके नज़रिए को महत्वपूर्ण समझा जायेगा! उन्हें भी पुरुष के सामान एक इंसान समझा जायेगा! जहाँ वह सर उठा कर अपने महिला होने पर गर्व कर सके!

आज भी सच्चाई ये है की जन्म से पहले ही उसे जीने का अवसर बेटे की अपेक्षा काफी कम मिलता है! और अगर दुनिया में आ भी गयी तो पोषण और स्वस्थ्य सुबिधाओ में भारी कमी की जाती है! शिक्षा के मामले में बेटे को गुणवत्तापूर्ण श्रेठ विद्यालय तो बेटी को कम खर्च वाला सरकारी विद्यालय! क्यूंकि हम मानते है की उसे तो आगे चलकर चूल्हा- चौका ही करना है! घर के कामों की जिम्मेदारी उस पर 6 वर्ष से आ जाती है जबकि लड़का 14-15 साल तक भी बाबू ही रहता है!

शादी के निर्णय में लड़कियों को कोई पसंद- नापसंद का अधिकार नहीं दिया जाता जबकि लड़के को ये अधिकार है कि वो कब और किससे शादी करेगा! खेल स्पर्धा में आज भी बहुत सी लडकिया काबिल होते हुए भी परिवार की रजामंदी न होने से हिस्सा नहीं ले पाती! यहाँ तक की राजनीति में भी परिवार के पुरुषो द्वारा महिलाये तब लायी जाती है जब महिला आरक्षित सीट हो या पुरुष किसी केस में फंसा हो! पद पर रखी जाती है महिला और उसकी डोर होती है पुरुष के हाथ!

महिला परिवार को खुशियाँ देने के लिए प्रसव पीड़ा सहे! बच्चो को पाले पोसे! घर के बुजुर्गो का धयान रक्खे! मेहमानों की आवभगत करे! साल भर की गृहस्थी तैयार करे! पर फिर भी हम कहते हैं कि वो कुछ नहीं करती! क्यूंकि हम सिर्फ पैसा कमाने को ही काम मानते है! वो अलग बात है कि महिला 15 घंटे काम करती है और पुरुष 8 घंटे! अब तो हमें सोच बदलनी चाहिए वरना हजारों महिला दिवस आयेंगे और चले जायेंगे!

और महिला बेटी, बहन, भाभी और माँ तो बन जाएगी पर समाज में और इंदिरा गाँधी, किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम या सानिया मिर्ज़ा पैदा नहीं हो पाएंगी!