बचपन की फिर याद पुरानी आई है।
फिर से वह बरसात सुहानी आई है।
कागज की जब नाव बनाया करते थे।
पानी में फिर उसे तिराया करते थे।
डूब न जाये कहीं यही शंका लेकर-
उसके संग-संग दौड़ जाया करते थे।
भीग भागकर जब लौटा करते थे घर,
माँ की पड़ती डाँट हँसानी आई है।
कभी खाँसते, कभी छींकते थे लेकिन।
नालों में हम नाव डालते थे लेकिन।
कभी फँसाकर कील, बाँध डोरी ऊँची-
राह चली टोपियाँ फाँसते थे लेकिन।
बुरा मानता था तब कोई कभी नहीं।
वही शरारत याद लुभानी आई है।
वह बरसाती मौसम की मोहक यादें।
बूँदों में जाने की माँ से फरियादें।
माँ की झिड़की पर मित्रों का आवाहन-
चिन्ता रहती, घर बाहर कैसे साधें।
आँख मिचौली जो खेली जीवन में।
याद वही हमको मरजानी आई है।
गर्म पकोड़ी खाते थे हम अपने घर।
और चाय पीने जाते थे उसके घर।
वह जो नन्ही मुन्नी प्यारी गुड़िया सी-
चुपके-चुपके मिलती थी घर के बाहर।
हँसती थी तो सारा आलम हँसता था।
याद वही फिर हँसी बिरानी आई है।
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हितेश कुमार शर्मा,
गणपति भवन,
सिविल लाइन्स, बिजनौर 246701
1 टिप्पणी:
स्मृतियों का बहुत सुन्दर चित्रण हि इस रचना में ।
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