भारतीय दीवारें --- कविता
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गोबर से लिपी
जीवन के चित्र खींचती
कहीं घूँघट में हंसती
हुक्के के अलाव में गरमाती
जौ की कनातें सजाती
छिपी गुनगुनी धूप से बतियाती
सरसों की पीली रोशनी में
केसर के कुमकुम आकाश लगाती
धान की क्यारियों में
भीगी-भीगी नरमाहट- सी
काली मिट्टी में निपजती
गौरांग नवजात -सी रूई की मखमली गुड़िया !
बरगद के पेड़ की
छाया को समेटती
पीपल की बांह पर
नीड़ों को सोने देती
बैलों की रुनझुन के
लोक संगीत
सांझ के कोने में
दीप सी जगमगाती
एक दीपावली
एक होली
एक अजान
एक सत्कार
एक नेह
एक मेह
एक नींव ...
उस पर खड़ी भारत की दीवारें ..!
मौसम के थाल में
फूंकती समय के शंख
एक देवस्थान
निर्लिप्त देव प्रतिमा!
अब इन्हें लेना है
किनसे प्रतिकार ?
कैसा प्रतिकार ?
ये नहीं कहतीं ...
तुम्हारा समाज
रोज़ छापता है रीतियों के मांडने ,
अन्धविश्वास भरे हाथ के छापे
और ये होकर बेजुबान
दुनिया को दिखाती हैं
अपने भारतीय होने की पहचान !
तुमसे अपनापा है इनका!
तुम्हारा है क्या ? लगाव !
तय कर लो
ये करेंगी
यहीं खड़ी
तुम्हारी प्रतीक्षा !
एक आहट सुनी अभी !
अपर्णा
7 टिप्पणियां:
sundar kavita
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
गोबर से लिपी-पुती पवित्र भारतीय ग्रामीण दीवारों को कितने ही सरोकारों से जोड़ती इस तरह की सुन्दर कविता पहली बार दिखी.. बधाई अपर्णा जी.. आभार चाचा जी..
aparna ji ki aik bahut sundar sashakt kavita ...Dr kumarendar ji .. dhanyvaad is kavita ko share kiya blog mei... kal aapki ye post chachamanch par hogi... dhanyvaad..
Dr kumarendar ji .. dhanyvaad, aapne rachna prakashit ki.
shesh sabhi ke comments padhe aur kavita ke baare mein ray jaan paaye.
aap sabhi ka dhanywad.
saadar!
भारत की मिट्टी से जुडी अच्छी रचना
इस रचना में ग्राम्यांचल का जो चित्र उकेरा है आपने और भारतीयता की जो प्रकृति बताई है, मन भावुक और गर्वोन्नत हो गया...
भावुक बहुत ही सुन्दर इस रचना को पढवाने के लिए आभार आपका..
रिश्तों में कई रिश्ते बंधे होते हैं एक खुलता है ,दूसरा संभालता है ,सुन्दर रचना आभार। "एकलव्य"
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