09 सितंबर 2010

जया पाठक की दो कवितायें -- कठिन दिन --- स्वत्व से अभिसार

जया पाठक की दो कवितायें

) कठिन दिन
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सपनों की नदी
तिरती है पास से
एक कठिन दिन
जलता है
रेत के किनारों पर
आती जाती छुवन लहरों की
अनायास छेड़ती
छोड़ती शैशव के गीले छाप
बढ़ता जलता दिन
वाष्पित कर देता
तुरंत उसे
जैसे लगी हो होड़ कोई
एक तरल
और एक ठोस के होने में
मैं चलता हांफता
जलती रेत पर
गलता हुआ
किनारे वाली नदी
हंसती मुझपर
मैं खड़ा होता
नदी में पाँव धंसा
तो रेत उड़ाती
मज़ाक पौरुष का
हतप्रभ हूँ...
कैसे पाऊं खुद को
कि यह नदी गति है मेरी
और यह तपती रेत
मेरा मार्ग
यह दोनों ही तो हैं केवल
मेरे मनुष्य होने का प्रमाण

सुनो,
तुम्हारे धामों तक क्यों जाना ??
संभव हैं इन से ही
वैतरिणी तक
का संधान !

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२) स्वत्व से अभिसार

सखी
मैं गयी थी कल
मिलने उस से
उसकी उंगलियाँ पसीजी सी
खुरदुरे हाथ
पैरों में बिवाय ...
यकीनन वह कुम्हार था...
जाने क्यूँ
अपनी देह
लगी सौंधी, मिट्टी सी....

आज फिर
मिल कर आई हूँ मैं
उस से...
आज उसके हाथ
बडे सख्त थे...
चमड़ी काली हो चली थी...
भट्टी में लोहा गर्माते...
भारी हथौडे की चोट से
बनी लगती है
अटल आस्था मेरी
लोहसाँय सी गंध यह
मुझमें.....

उहूँ....
मन नहीं भरता मेरा
कल फिर जाउंगी
वह मंदिरों में
मूर्तियाँ गढ़ता मिलेगा मुझसे...
उसके थके कंधे-थके हाथ
छेनी हथौड़े से
तराशता मुझे
कर देगा
जड़ से चेतन...

हाँ सखी...
बाम्हन नहीं कर सकेगा
यह दुष्कर....
मुझे मेरे स्वत्व तक
वह कुम्हार,
लोहार...या
मूर्तिकार पंहुचा देगा ...
विशवास है मुझे...

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जया पाठक

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

दोनों रचनाएँ बहुत बढ़िया लगीं. आभार आपका.

अपर्णा ने कहा…

जया, एक नहीं दो कविताएँ ! 'स्वत्व से अभिसार ' कविता एक नया प्रयोग है l
एक खुली चुनौती .. l