23 दिसंबर 2009

स्मृति दीर्घा: झाँक रहे हैं लोग -संजीव 'सलिल'

स्मृति दीर्घा:

संजीव 'सलिल'

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स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...

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पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.

मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..

चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...

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ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.

शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.

पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...

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टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.

जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.

उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...

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मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.

कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.

मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...

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बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.

मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.

दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...

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ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.

मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.

'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...

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स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.

यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.

लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...

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1 टिप्पणी:

शब्दकार-डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

yadon ka ye silsila hai, waqt ke sath bhi hai, apnon ke sath bhi hai............. bas YADEN hi baki rah jatin hain.