31 जनवरी 2011

ऐसा मेरा विश्वास है !

आशा की एक किरण
अँधेरे को चीरकर ,
आशा की एक बूँद
सूखी धरती को भिगोने ,
मेरी एक चीख
सन्नाटे को फाड़कर ,
आयेगी- आयेगी-आयेगी ,ऐसा मेरा विश्वास है ।
हर निर्दोष को
न्याय मिल सकेगा ;
हर कातिल को
दुष्कर्म का फल मिलेगा ,
हर मासूम
सुख की नींद सो सकेगा ,
ऐसा होगा -ऐसा होगा -ऐसा होगा ,ऐसा मेरा विश्वास है .

30 जनवरी 2011

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव की पुस्तक की समीक्षा --- राष्ट्रभाषा हिन्दी के विविध आयाम


राष्ट्रभाषा हिन्दी के विविध आयाम
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भूमण्डलीकरण के इस दौर में जबकि हमारे सामने भाषा का संकट स्वरूप रूप से दिख रहा है, तब हिन्दी भाषा के उन्नयन की बात करना निश्चय ही प्रेरणास्पद है। हिन्दी साहित्य क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद’ की संकल्पना को स्थापित करने वाले युवा आलोचक डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव की समीक्ष्य कृति हिन्दी भाषा की विकास-यात्रा के विविध आयाम प्रस्तुत करती है। हिन्दी भाषा के प्रति अपनी लगन को स्पष्ट करते हुए डॉ. वीरेन्द्र ‘जमीनी कार्य करने की आवश्यकता’ पर बल देते हैं।
राष्ट्रभाषा हिन्दी: विचार नीतियां और सुझाव पुस्तक तेरह अध्यायों में विभाजित है और इसके प्रत्येक अध्याय का विषय इतना व्यापक एवं गम्भीर है कि उसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति कहीं कुछ धुंधलका शेष बचता ही नहीं है। लेखक ने हिन्दी के नये आँकड़ों से अवगत कराते हुये लिखा है कि अपने विशाल शब्द भण्डार, वैज्ञानिकता, शब्दों और भावों के आत्मसात की प्रवृत्ति के साथ हिन्दी ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में उपयुक्तता एवं विलक्षणता के कारण आज हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में सर्वत्र मान्यता मिल रही है। लगभग 80 करोड़ आमजनों द्वारा विश्व के 176 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है। नव्यतम आँकड़े यह कहते हैं कि विश्व में हिन्दी बोलने वाले अब पहले स्थान पर हो गये हैं।’’ वास्तविकता यह भी है कि वर्तमान में हिन्दी भारत सहित विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक बोली, पढ़ी-लिखी तथा समझी जाती है। यही कारण है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी, चीनी एवं अंग्रेजी को पीछे छोड़ते हुए विश्व की प्रथम भाषा हो गयी है जो सर्वाध्किा आम जनता (अस्सी करोड़ से अधिक) द्वारा स्वेच्छा से बोले जाने वाली भाषा है। लेखक की मान्यता है कि आज हिन्दी भाषा साहित्य लेखन, वाचन तथा गायन आदि के रिवाज से हटकर अब दैनंदिन जीवन से लेकर विज्ञान प्रौद्योगिकी व्यापार-प्रबंधन आदि प्रत्येक क्षेत्र में यह अपनी उपस्थिति दर्शा चुकी है क्योंकि भाषा के इस नव्यतम रूप का युगानुकूल परिवर्तन एवं नवसृजन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है। इसका प्रमुख कारण विश्व स्तर पर बढ़ रहे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक अन्तः सम्बन्धों के कारण वैचारिक स्तर पर एक वैश्विक चेतना का प्रादुर्भाव हो रहा है जिससे समूचे विश्व में हिन्दी भाषा को एक नयी दृष्टि मिल रही है और अन्तर्राष्ट्रीय विचारधाराओं का परिप्रेक्ष्य वर्तमान हिन्दी साहित्य में पूर्णता परिलक्षित हो रहा है।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति और उसके अर्थ से प्रारम्भ हुई यात्रा राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याओं और समाधान पर आकर समाप्त होती है। प्रशंसनीय यह है कि डॉ. वीरेन्द्र ने समाज के उन तमाम सारे क्षेत्रों को अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा है तथा उनमें हिन्दी के स्वरूप को परिलक्षित करने का प्रयास किया है जो वर्तमान में किसी न किसी रूप में हिन्दी-भाषा विकास की बात करते दिखते हैं। इन क्षेत्रों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, बैंक, इण्टरनेट, स्वैच्छिक संगठन, संचार माध्यम आदि प्रमुख हैं। इन क्षेत्रो को आधार बनाकर लिखे गये लेखों में हिन्दी की वास्तविक स्थिति को दर्शाया गया है। डॉ. वीरेन्द्र ने हिन्दी भाषा के वर्तमान स्वरूप एवं उसकी स्थिति को दर्शाने के साथ-साथ उसकी संवैधानिक स्थिति को भी प्रस्तुत किया है। इन लेखों के माध्यम से हिन्दी के प्रति संवैधानिक सोच तथा समय-समय पर गठित होते आयोगों का दृष्टिकोण आसानी से समझा जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक का विवेचन करने पर यह ज्ञात होता है कि हिन्दी अपने विशेष साहित्यिक भण्डार की वजह से लोगों के जादुई आकर्षण का केन्द्र रही है और वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी को नये परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। यहाँ चाहे सूचना प्रौद्योगिकी की बात हो या उत्पाद बेचने की या वोट माँगने की, विज्ञापनों के माध्यम से वस्तु के आत्म प्रचार की या फिल्मों को लोकप्रिय बनाने की या फिर वैज्ञानिक अनुसंधान की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने की, इन सबके लिये हिन्दी अब सर्वमान्य भाषा बन गयी है क्योंकि परिवर्तन के अनुरूप, परिवेश के अनुसार स्वयं को ढालकर अभिव्यक्ति को बहुआयामी रूप प्रदान करने में हिन्दी सदैव सक्षम रही है। तेरह अध्यायों के इस संग्रह के द्वारा डॉ. वीरेन्द्र ने हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप, सत्य हमारे सामने उद्घाटित किया है। निःसंदेह यह पुस्तक ज्ञानवर्धक एवं संग्रहणीय है।
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समीक्षक -- डॉ. धनंजय सिंह
पुस्तक: राष्ट्रभाषा हिन्दी: विचार नीतियां और सुझाव
लेखक: डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक: नमन पब्लिकेशन्स, 4231/1 अंसारी रोड,दरियागंज ,नई दिल्ली.2
मूल्य: रू. 250.00
पृष्ठ : 12+128=140
ISBN % 978-81-8129-234-0

29 जनवरी 2011

ख्वाजा मेरे ख्वाजा...दिल में समा जा !!


ख्वाजा मेरे ख्वाजा ....दिल में समां जा ......श्याम की राधा....अली का दुलारा...ख्वाजा मेरे ख्वाजा !!.....एक धुन सी हर वक्त दिल में मचलती रहती है...हर किसी के प्रति प्यार में पगा ये दिल किसी-न-किसी को अपने पास ही नफरत के शोलों से भड़कता देखकर दिन-रात परेशान होता रहता है!! सबको इस जीवन में इंसानों के बीच ही रहना है,और वो भी अपने आस-पड़ोस के लोगों के बीच ही......मगर सबके-सब एक अनदेखे-अनजाने खुदा... भगवान...गाड...आदि के पीछे ऐसे बावले....उतावले हुए रहते हैं कि मारकाट तक पर उतारूं हैं.....!!मन्दिर- मस्जिद-गिरिजा से इस नामालूम से ईश्वर को बाहर लाकर अपने बीच के रिश्तों में खड़ा कर दिया है इसे ....!! हम सब एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के भरोसे के लिए,एक-दूसरे के प्यार के लिए जीते हैं ....!दूसरे के लिए जीना ही प्यार है...और दूसरे के लिए मर-मिटना ही उस प्यार की पराकाष्ठा !! मगर खुदा या भगवान के लिए मरना और मारना उस प्यार और इंसान की ही नहीं बल्कि खुदा या भगवान् की भी तौहीन है ...शायद ये मारने वाले नहीं जानते...मगर चंद हत्यारों के कुकर्मों के कारण आपसी विश्वास की चूले हिलने लगी हैं और उसका दुष्परिणाम आगे क्या होने को है ....क्या ये खुदा अथवा भगवान् या गोड के बन्दे कभी समझ भी पायेंगे ?? ईश्वर का सही स्थान देवालयों या फ़िर अपने ख़ुद के ही दिल में होता है....सबसे उचित स्थान तो निस्संदेह हमारा दिल ही है ...जहाँ जरा सी गर्दन झुकाई और यार की सूरत देख ली !!.... मगर दिल की और रुख ना करने वाले आदमी को चैन ही नहीं है ...सब गोया इसी बात के लिए बेचैन हैं कि जिसे वो पूजते हैं सिर्फ़-व्-सिर्फ़ वाही श्रेष्ठ है और बाकी के सब-के-सब भी उसे ही पूजें !!यही उस पागलपन की इन्तेहाँ है ,जो हमें बावलों की तरह लडाती रहती है.......!!!! और तो और जिस बुद्धिजीवी वर्ग से इसका समाधान पाने की आशा की जाती है वो ख़ुद भी इस पागलपन का अगुआ बन बैठता है !!....ब्लॉग वगैरह से लेखक लोग आपसी अनबन के कारण निकाले जा रहे हैं ...कोई एक दूसरे को समझने-समझाने के प्रयास नहीं करता !!बस यही कि हमें नहीं फुर्सत तुम्हें समझने की..चलो भागो यहाँ से ....पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं हमें समझाने !! ... यह प्रचलन ,यानि कि दूसरे को समझने कि कोई चेष्टा नहीं करना या दूसरे को अपने सामने बिल्कुल ही तुच्छ समझना हर किस्म के वर्ग में है ............यह सब हम सबमें दूरी बढ़ा रहा है.....यह सब हमें समाधान तो क्या,और भी गहरी समस्या की और ले जा रहा है .....मगर शायद हम ये तो समझते ही नहीं या फ़िर अपने अंहकार की वजह से समझना ही हैं चाहते !!...........मगर हम कहाँ जा रहे हैं ...हमारा भविष्य क्या है...यह कोई भी विवेकवान व्यक्ति बिना सोचे ही बता देगा !!.............अगर हम सचमुच ही अपने-आप को सभ्य और विवेकशील मानते है तो अभी-की-अभी इस पर निर्णय लेना होगा....तथा हर समुदाय के व्यक्ति को अपने उग्रपंथियों को काबू में करना होगा तथा कट्टरपंथियों पर भी लगाम कसनी ही होगी.....वरना ये लोग हमें जहाँ ले जायेंगे ,उसकी तस्वीर की कल्पना भी भयावह है !!...........अब सिर्फ़-व्-सिर्फ़ आदमी ही बनकर रहा जा सकता है इससे कमतर की जो बात सोचतें हैं वे दुनिया को सिर्फ़ पीछे ही ले जा सकते है मगर दुनिया पीछे जाने के लिए बनी ही नहीं है ....वह तो या तो आगे ही जायेगी ..या फ़िर ऐसे लोगों की वजह से मिट जायेगी !!!

28 जनवरी 2011

आदमी क्या है ...

आदमी क्या है एक खिलौना है ,
जीवन में हँसना कम अधिक रोना है।
खुशिया मिलती हैं कभी कभी,
संग दुःख लाती तभी तभी।
खुशियाँ आयें या न आयें,
दुःख के पड़ जाते हैं साये।
दुःख अपना प्यारा साथी है,
निरंतर साथ निभाता है।
खुशियाँ बुलाने पर भी न आयें,
दुःख आ जाता है बिन बुलाये।
दुःख में विधि को हम याद करें,
सुख में न इसका ध्यान करें।
जो सुख में इसका ध्यान करें,
तो दुःख हम सब पर कैसे पड़े।
गलती हम करते जाते हैं,
पर स्वीकार न करते कभी।
इस कारण ही तो ऐसा है,
पड़ जाते जल्दी दुःख सभी।
दुखों की परम परंपरा है,
सुख तो एक व्यर्थ अप्सरा है।
दुखों की ही हर पल सोचें,
सुखों का कभी न ध्यान करें.

प्राथमिकता

मेरी आरजू
कुछ कर दिखाने की,
मेरा जूनून
कुछ पाने का ,
मेरी ख्वाहिश
सबको अपनाने की ;
मेरे दिल में कशमाकश
ऊँचा उठ जाने की ,
मुझ में हलचल
उड़ कर दिखाने की ,
मुझमे हिम्मत
नवीन सर्जन करने की ,
''मैं' मनुष्य हूँ !
ये हैं मेरी प्राथमिकताये .

25 जनवरी 2011

कोटि-कोटि नमन तुझे है.....


                   कोटि-कोटि नमन तुझे है......





हे स्वर साधक......सूर सम्राट.......सरस्वती भक्त
तुझे विश्व की विनम्र श्रद्धांजलि.........................
तुझे शत-शत नमन करते हैं हम......................
तुझे ह्रदय में बिठा-रखेंगे हम...........................

23 जनवरी 2011

लघु कथा -फूल

सिमरन दो साल के बेटे विभु को लेकर जब से मायके आई थी; उसका मन उचाट था.गगन से जरा सी बात पर बहस ने ही उसे यंहा आने के लिए विवश किया था.यूँ गगन और उसकी 'वैवाहिक रेल' पटरी पर ठीक गति से चल रही थी पर सिमरन के नौकरी की जिद करने पर गगन ने इस रेल में इतनी जोर क़ा ब्रेक लगाया क़ि यह पटरी पर से उतर गई और सिमरन विभु को लेकर मायके आ गयी.सिमरन अपने से निकली तो देखा विभु उस फूल की तरह मुरझा गया था जिसे बगिया से तोड़कर बिना पानी दिए यूँ ही फेंक दिया गया हो.कई बार सिमरन ने मोबाईल उठाकर गगन को फोन मिलाना चाह पर नहीं मिला पाई ये सोचकर क़ि ''उसने क्यों नहीं मिलाया?' मम्मी-पापा व् छोटा भाई उसे समझाने क़ा प्रयास कर हार चुके थे. विभु ने ठीक से खाना भी नहीं खाया था बस पापा के पास ले चलो क़ि जिद लगाये बैठा था.विभु को उदास देखकर आखिर सिमरन ने मोबाईल से गगन क़ा नम्बर मिलाया और बस इतना कहा-''तुम तो फोन करना मत,विभु क़ा भी ध्यान नहीं तुम्हे ?'' गगन ने एक क्षण की चुप्पी के बाद कहा -''सिम्मी मैं शर्मिंदा था......मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे...........पर तुम अपने घर क़ा गेट तो खोल दो ........मैं बाहर ही खड़ा हूँ....!''यह सुनते ही सिमरन की आँखों में आंसू आ गए वो विभु को गोद में उठाकर गेट खोलने के लिए बढ़ ली. गेट खोलते ही गगन को देखकर विभु मचल उठा ........पापा.....पापा........'' कहता हुआ गगन की गोद में चला गया.सिमरन ने देखा की आज उसका फूल फिर से खिल उठा था और महक भी रहा था.

मैं समझ नहीं पा रही.......अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!



क्या याद है तुम्हें,जब हम मिले थे कभी पहली-पहली बार...
कहाँ याद होगा भला तुम्हें,तुम्हें भला इतनी फुर्सत ही कहाँ...
मैं बताती हूँ तुम्हें,तुम अवाक रह गए मुझे देखकर...
और आँखों-ही-आँखों में मेरी प्रशंसा की थी,और मैं खुश हो गयी
मैं खुश हो गयी थी इस बात पर कि,कोई इस तरह भी देखा करता है 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम भी खुश हो गए....
अपने पहले ही देखने में दिल दे चुके थे मुझे तुम...
मगर मैंने तुम्हें तौलने में कुछ वक्त लगाया....
क्यूंकि लड़कियां अक्सर इस तरह दिल नहीं दिया करती...
और फिर कुछ मुलाकातों में ही यह तय हो गया कि तुम मेरे हो 
उन दिनों तुम मेरी हर बात का कितना ख्याल रखते थे...
हर छोटी-छोटी बात पर बिछ-बिछ जाया करते थे,सर नवा कर 
और मुझे लगता कि मुझे समझने वाला इक सच्चा हमदर्द मिल गया 
मेरे अकेलेपन को बांटने वाला एक सही इंसां मिल गया है....
और मैं भी मर मिटी थी तुमपर,तुमसे भी ज्यादा...
तुम सोचते थे मैं यही चाहती हूँ...बस यही चाहती हूँ...खुश रहना 
इसी आधे सच से गुजर रहा था हमारा प्यार...इकरंग हमारा संसार...
और तब हमने शादी कर ली अपने घर वालों के विरोध के भी बाद 
और बना बैठे हम अपने सपनों का नया इक संसार 
जहां हमारे बीच प्यार था,मनुहार था,चुहल थी,तकरार थी....
और भी बहुत कुछ था,जिसमें साथ-साथ बिताते थे हम कितना ही वक्त 
बाँटते थे अपने सारे मुद्दे...गम...बातें...चुटकुले और हंसी....
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम इतने में खुश रहते थे....
बेशक मैं भी खुश थी तुम्हारी ही तरह....क्यूंकि तुम मुझमें खुश थे
और यह सिलसिला कुछ दिन तक चला...
उन दिनों मैं बहुत मादक-कमनीय और अद्भुत आकर्षक थी तुम्हारी नज़र में 
और मेरी नज़र में दुनिया के सबसे समझदार और प्यार करने वाले पति...
एक-एक कर फिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए....और मैं ढीली-ढाली तुम्हारी नज़र में 
मेरी कमनीय देह दो बच्चों को जन्म देकर वैसी नहीं रह पायी थी...
जैसा कि देखने की आदत पड़ी हुई थी तुम्हें बिलकुल टाईट या कसी हुई
मेरे स्तन लटक गए थे और योनि भी शायद कुछ ढीली...
तुम्हारी नज़र अब नयी बालाओं पर जा टिकती थी....
और मैं ताकती थी तुम्हें टुकुर-टुकुर,तुम्हारी भूख का आभास करती...
हालांकि बच्चों को प्यार तुम खूब करते थे और कर्तव्य सारे पूरे 
हंसती-खेलती गुजर रही थी इसी तरह गृहस्थी हमारी 
तुम अब भी कोशिश करते थे मुझे सदा खुश रखने की और...
सब कुछ पूरा किया करते थे अपनी पूरी तल्लीनता के साथ...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...और मैं भी खुश रहती थी तुम्हारे संग..
तुम्हारी अर्द्धांगिनी बन सदा पूर्ण परिवार का वायदा निभाती हुई....

कुछ लड़कियां भी दोस्त थी तुम्हारी,जो बेहिचक घर आती थीं...
मुझे कभी कोई शक नहीं हुआ,कि तुम वैसे नहीं हो,औरों की तरह...
मगर एक दिन जो मेरे बचपन का दोस्त आया था मुझसे मिलने हमारे घर
मैंने ताड़ लिया था तुम्हारी आँखों में कोई शक....तुम्हारा कोई डर...
और फिर उसके बाद मैनें कभी अपने पुरुष मित्र को नहीं आने दिया अपने घर 
हम हमेशा साथ चलते रहे....बच्चे हमारे बड़े होते रहे...हम सब खुश-खुश ही रहे 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...मैं इसी तरह जी रही थी तुम्हारे आसपास 
तुम्हारे शौक मेरे सर माथे पर...और मेरी हॉबी हमारी गृहस्थी में बाधक 
मैं भी कुछ रचना चाहती,मैं भी कुछ गढ़ना चाहती थी...और 
सोचती रहती थी सारा-सारा दिन जाने तो क्या-क्या...
मगर समझ ही नहीं आता था इस तरह बंधे-बंधे करूँ मैं आखिर क्या...
पढना-लिखना-गाना-नाचना और पेंटिंग हो गए सब हवा...
बच्चे और तुम जब घर आ जाते थे तो मैं खुश ही रहती थी सदा...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम्हारी चाहना पूरी करते हुए मेरे 
तुमने बाहर जो भी चाहा...वो लगभग हासिल ही किया..
मैं भीतर हमारा(या सिर्फ तुम्हारा)घर संभालती रही...
और मैंने जो भी सपना देखा....मन मसोस कर रह गयी...
कई बार सोचा था कि तुमको कुछ दिल की बात कहूँ...मगर 
कुछ तुम्हारी व्यस्तताओं के,कुछ किसी भय के कारण कहने से रह गयी 
और इसी तरह मेरी सारी आकांक्षाएं एक-एक करके ढह गयी...
जो सोचा,वो कभी कह ना सकी-लिख ना सकी-रच ना सकी 
बंदिशों में गृहस्थी को संवारती हुई परिवार का घर चलाती रही 
हर चीज़ में मर्ज़ी तुम्हारी होती...यहाँ तक कि रसोई भी तुम्हारी मर्ज़ी की 
और तुम थोडा छुट दे देते तो पूरी होती बच्चों की मर्ज़ी...
मैंने कभी नहीं जाना सच कि आखिर मेरी मर्ज़ी है क्या...
और कभी मर्ज़ी ने खोले पंख तो भयभीत होकर सिमट गयी मैं खुद 
गृहस्थी को कभी आंच ना आये मेरे कारण,मैंने मर्ज़ी समेट ली 
सबकी मर्ज़ी को जीते हुए अपने बच्चों की शादी भी कर दी 
अब भी थोड़ी तुम्हारी मर्ज़ी चलती है,फिर बच्चों की,फिर बच्चे के बच्चों की 
सबकी इच्छाओं में मैं सदा से अपना जीवन बून रहीं हूँ 
सबकी सब तरह की हवस को पूरा करते मैं खुद में खुद को ढूंढ रही हूँ
सबको लगता है,मैं यही चाहती हूँ...मैं नारी हूँ....पुरुष की एक सहगामिनी....और 
मैं समझ नहीं पा रही अब किसी के सम्पूर्ण साथ होकर भी अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!   

22 जनवरी 2011

क्या आज का सच यही है?

एक शेर जो हम बहुत जोर-शोर से गाते हैं-
"खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं."
क्या जानते हैं कि यूं तो ये मात्र एक शेर है किन्तु चंद शब्दों में ये शेर उन शहीदों के मन की भावना को हमारे सामने खोल का रख देता है .वे जो हमें आजादी की जिंदगी देने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर गए यदि आज हमारे सामने अपने उसी स्वरुप में उपस्थित हो जाएँ तो शायद हम उन्हें एक ओर कर या यूं कहें की ठोकर मार कर आगे निकल जायेंगे,कम से कम मुझे आज की भारतीय जनता को देख ऐसा ही लगता है.आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया जो मुझे इतना कड़वा सच आपके सामने लाना पड़ गया.कल का हिंदी का हिंदुस्तान इसके लिए जिम्मेदार है जिसने अपने अख़बार की बिक्री बढ़ाने के लिए एक ऐसे शीर्षक युक्त समाचार को प्रकाशित किया कि मन विक्षोभ से भर गया.समाचार था "ब्रांड सचिन तेंदुलकर ने महात्मा गाँधी को भी पीछे छोड़ा"ट्रस्ट रिसर्च एड्वयिजरी [टी.आर.ऐ.]द्वारा किये गए सर्वे में भरोसे के मामले में सचिन को ५९ वें स्थान पर रखा गया है और महात्मा गाँधी जी को २३२ वें स्थान पर रखा गया है .सचिन हमारे देश का गौरव हैं.रत्न हैं किन्तु महात्मा गाँधी को पछाड़ना उनके क्या किसी भी भूत,वर्तमान,भविष्य के व्यक्ति के वश में नहीं है.क्या पिता से ऊपर भी कोई हो सकता है?और ये सोचने कि बात है कि क्या महात्मा गाँधी को पिता का दर्जा हमारे भारत देश ने ऐसे ही दे दिया जहाँ सुभाष चंद बोसे जैसे नेता भारत रत्न के लिए आजादी के बहुत वर्षो बाद चुने जाते हैं और जहाँ जनता को देश के लिए कार्य करने वालो के लिए जनता को खुद भारत रत्ना कि सिफारिश करनी पड़ती हो वहाँ महात्मा गाँधी के योगदान कुछ तो होगा जो उन्हें पिता का दर्जा मिला,फिर सचिन से उनका क्या मुकाबला?वे सचिन के समय के नहीं,वे कोई क्रिकेटर नहीं.और जहाँ तक बात है भरोसे की तो ये पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं=
"जब-जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े,
मजदूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े,
हिन्दू व मुसलमान सिख पठान चल पड़े,
कदमो पे तेरे कोटि-कोटि प्राण चल पड़े,"
महात्मा गाँधी से उनकी तुलना का यहाँ कोई मतलब भी नहीं.और इस तरह के सर्वेक्षण की खबर को प्रमुखता देना एक उच्च कोटि के समाचार पत्र के लिए सही नहीं इस लिए उस को इस सम्बन्ध में ध्यान देना चाहिए .जैसे चाहे शुक्ल पक्ष हो या कृष्ण पक्ष सूर्य के प्रकाश पर कोई असर नहीं होता ऐसे ही महात्मा गाँधी के नाम के आगे कोई और नाम हो ही नहीं सकता .इस तरह के सर्वेक्षण बंद होने चाहिए जो जनता के समक्ष गलत बाते रखते हैं .अमिताभ जी से तुलना सही है किन्तु आज जब गाँधी जी हमारे बीच में नहीं हैं तब इस तरह के सर्वेक्षण क्या वास्तव में सही हैं?और क्या सही हैं हम जो भरोसे के विषय में सचिन को महात्मा गाँधी जी से ऊपर रखते हैं .महात्मा गाँधी जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया और खुद कोई फायदा कभी नहीं लिया .हम में से बहुत से लोग उनके सिद्धांतों से मतभेद रख सकते हैं किन्तु जहाँ तक बात है उनके खुद के लिए कुछ करने कि तो शायद एक राय ही होंगे.इसलिए जैसा मैं सोच रही हूँ क्या आप भी इन सर्वेक्षणों के बारे में वही सोच रहे हैं?
मैं तो उनके सम्बन्ध में एक कवि महोदय के शेर को प्रस्तुत कर अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ.किन्तु आप सोचियेगा ज़रूर-
'कैंची से चिरागों की लौ काटने वालो.
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते.
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो,
पर फूल की khushboo समेत नहीं सकते."

जीवन कर्म

हर सुबह नई आशा के साथ जागो;
दिल में विश्वास रखो ऊपर वाले के प्रति;
गिरो अगर तो गिरकर संभालो खुद को;
जिन्दगी में जीत फिर तुम्हारी होगी!
ये मत सोचो क्या खो दिया;
रखो आशा कुछ पाने की;
मत रो अपनी विफलता पर ;
लिखो नयी इबारत कामयाबी की!
संघर्षो की राह पर चलकर ;
मंजिल पालो सपनो की;
गम की गर्मी में तपकर ही
मिलेंगी सांसे राहत की!
जीवन कर्म का स्थल है;
आराम यहाँ कहाँ करना है;
निज प्रयास
की क्यारी को खुशियों के फूलो
से भरना है !

21 जनवरी 2011

एक अभिन्न मित्र की कलम से........

एक अभिन्न मित्र की कलम से.....



मैं क्या हूँ....कब हूँ 
और क्यों हूं....??
मैं कौन हूं....
और आप हैं कौन....??
खिलौना है...मोबाइल है...
आलमारी है....झरोखा है....
मतलब क्या है....
और क्या नहीं है....??
कोई मेरा है.....
या मैं किसी का हूं.....??
अरबों मैं हैं यहाँ....
इसमें मैं कहाँ हूँ...??
खींचतान....उठापटक
समुद्र की उठती-गिरती लहरें....
मन समुद्र है या अनंत...??
जय...पराजय...
हार.....जीत....
ख़ुशी एवं गम....
हरी अनंत....
हरी कथा अनंता......
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******चिन्मय भारद्वाज 
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20 जनवरी 2011

ऐ...तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है.....!!

ऐ...तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है.....!!
तेरे भीतर भी कोई आवाज़ है....
तेरे अन्दर भी कोई साज है....
तू सभी चीज़ों का आगाज है....
तू, तू है....कोई और नहीं....एक जीवंत राज है   
तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है....
ऐ...तू कभी तेरे को पहचान ना कभी....
कि तेरे भीतर भी कोई आदमी आग है....
बस....पता नहीं क्यों इसपर....
जन्मों-जन्मों से बिछी हुई राख है...
ऐ पागल...तू,तू है....तेरे भीतर भी कोई है..
कोई व्यक्तित्व...कोई निजता....कोई आत्मा....
तू नहीं है किसी के विलास का एक साधन मात्र 
मगर,अगर तू ऐसी ही रही...तो समझ ले कि 
ऐसा ही रहेगा यह आदम भी जैसे-का-तैसा 
एक अनंत यौनिकता...एक बर्बर भूख...
अगर तू इसकी मान ले तो बहुत अच्छा....

अगर नहीं तो ताकत के सहारे आक्रमण कर देगा 
और कहेगा कि नहीं हो सकता आज के युग में ऐसा...
नहीं यह सिर्फ एक तरफ़ा सोच नहीं है मेरी....
अपने चारों तरफ देख रहा हूँ यही एक भूख....
अनंत काल से अनन्त रूप से भूखी भूख....
मगर ऐ पागल....तेरा काम सिर्फ यही तो नहीं है ना...?
किसी के साथ कुछ रात गुजार देना....
किसी के देखने के लिए अपनी मांसलता संवार लेना...
क्या महज एक जिस्म है तू....?
जैसा कि तूने बना दिया है खुद को....!!
अगर ऐसा कुछ ही खुद को मानती है तू....
तब तो मुझे तुझसे कुछ नहीं कहना....मगर,
अगर सच में तू एक निजता है...एक व्यक्तित्व..एक आत्मा..
तो इसे पहचान ना री पगली....
निरी पशु बन कर क्या जीए जा रही है तू....
थोड़े से क्षेत्रों में कुछेक नौकरियां करके भी....

तू बनाए तो हुए है खुद को विलास का एक हूनर....
कहीं मजबूरी....तो कहीं खुद आगे बढकर....!!
जिन्दगी क्या है....कभी सोचा भी है तूने....?
तो भला क्या सिखा सकती है तू अपने बच्चों को...!!
और जिन बच्चों ने तुझसे कुछ नहीं जाना....
क्योंकि तूने खुद ने ही नहीं जाना....
तो कैसा बनाएंगे....जिन्दगी को वे....

और कैसी बनेगी बिना जाने हुए बच्चों से यह धरती....
(जैसी कि बनती जा रही है,कैरियर के लिए लड़ते 
और हवस को पूरा करने में खुद को झोंकते ये युवा...)
अरी ओ पगली....तू तो है जन्म देने वाली....
किसी को जन्म देने से पहले......
कम-से-कम अब तो खुद को पहचान....
ज़रा यह तो सोच कि कितनी विराट है तू....!!
तेरे भीतर पलता है एक अनंत व्याकुल जीवन....
इस जीवन की व्याकुलता को सही दिशा में साध....
तू है इस धरती पर एक गहन-गह्वर योगिनी....

तू मत बन पगली महज एक बावली भोगिनी....
कि तू....सच में तू है अगर....
तो आ....अपनी प्यास को पहचान....
अपने-आप से कोई नयी बात कर.....
अपने बच्चों को कोई नयी प्यास दे....
अपनी तलाश कर....अपना गुमां पहचान
देख ना री....यह धरती कुम्भलाई जा रही है....
तू अनन्त की इस भीड़ में मत खो जा री....
तेरे आने वाले बच्चे तुझसे बड़ी आस में है...


यह धरती एक नयी नस्ल की तलाश में है....!!
अब इस भीड़ में तू अपने लिए एक अनंत वीराना बून....
फिर देख दुनिया तेरे भीतर यूँ सिमट जाएगी....
जैसे कि इक भक्त में.....समा जाता है....परमात्मा....!! 

देवी नागरानी की ग़ज़ल

ग़ज़ल : १

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बस्तियाँ भी परेशाँ-सी रहती वहाँ

आदमी आदमी से ख़फा है जहाँ

.

मौत की बात तो बाद की बात है

ज़िन्दगी से अभी तक मिली हूँ कहाँ?

.

देर से ही सही दिल समझ तो गया

वक़्त की अहमियत हो रही है जवाँ

.

भीड़ रिश्तों की चारों तरफ़ है लगी

ख़ाली फिर भी है क्यों मेरे दिल का मकाँ?

.

खेलते हैं खुले आम खतरों से जो

हौसलों ही पे उनके टिका है जहाँ

.

दिल के आकाश में देखा जो दूर तक

कहकशाँ से परे भी थी इक कहकशाँ


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ग़ज़लः2

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मौन भाषा को हमारी तर्जुमानी दे गया

एक साकित-से क़लम को फिर रवानी दे गया

.

वलवले पैदा हुए हैं फिर मेरे एहसास में

जाने वाला मुस्करा कर इक निशानी दे गया

.

दाँव पर ईमान और बोली ज़मीरों पर लगी

कोई शातिर शहर को यूँ बेईमानी दे गया

.

डूब कर ही रह गई हूँ आँसुओं की बाढ़ में

ग़म का बादल हर तरफ पानी ही पानी दे गया

.

उसके आने से बढ़ी थीं रौनकें चारों तरफ

जब गया तो वो हमें दर्दे-निहानी दे गया

.

दे गया जुंबिश मिरे सोए हुए जज़्बात को

मुझकोदेवीआज कोई ज़िन्दगानी दे गया


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देवी नागरानी
मुम्बई

19 जनवरी 2011

आत्मशक्ति पर विश्वास

जीवन एक ऐसी पहेली है जिसके बारे में बात करना वे लोग ज्यादा पसंद करते हैं जिन्होंने कदम-कदम पर सफलता पाई हो.उनके पास बताने लायक काफी कुछ होता है. सामान्य व्यक्ति को तो असफलता का ही सामना करना पड़ता है.हम जैसे साधारण मनुष्यों की अनेक आकांक्षाय होती हैं. हम चाहते हैं क़ि गगन छू लें; पर हमारा भाग्य इसकी इजाजत नहीं देता.हम चाहकर भी अपने हर सपने को पूरा नहीं कर पाते .यदि मन की हर अभिलाषा पूरी हो जाया करती तो अभिलाषा भी साधारण हो जाती .हम चाहते है क़ि हमें कभी शोक ;दुःख ; भय का सामना न करना पड़े.हमारी इच्छाएं हमारे अनुसार पूरी होती जाएँ किन्तु ऐसा नहीं होता और हमारी आँख में आंसू छलक आते है. हम अपने भाग्य को कोसने लगते है.ठीक इसी समय निराशा हमे अपनी गिरफ्त में ले लेती है.इससे बाहर आने का केवल एक रास्ता है ---आत्मशक्ति पर विश्वास;------
राह कितनी भी कुटिल हो ;
हमें चलना है .
हार भी हो जाये तो भी
मुस्कुराना है;
ये जो जीवन मिला है
प्रभु की कृपा से;
इसे अब यूँ ही तो बिताना है.
रोक लेने है आंसू
दबा देना है दिल का दर्द;
हादसों के बीच से
इस तरह निकल आना है;
न मांगना कुछ
और न कुछ खोना है;
निराशा की चादर को
आशा -जल से भिगोना है;
रात कितनी भी बड़ी हो
'सवेरा तो होना है'.

न्याय पथभ्रष्ट हो रहा है....

"इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा,
ये हाल है तो कौन अदालत में जायेगा."
राहत इन्दोरी के ये शब्द और २६ नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ के द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट पर किया गया दोषारोपण "कि हाईकोर्ट में सफाई के सख्त कदम उठाने की ज़रुरत है क्योंकि यहाँ कुछ सड़ रहा है."साबित करते हैं कि न्याय भटकने की राह पर चल पड़ा है.इस बात को अब सुप्रीम कोर्ट भी मान रही है कि न्याय के भटकाव ने आम आदमी के विश्वास को हिलाया है वह विश्वास जो सदियों से कायम था कि जीत सच्चाई की होती है पर आज ऐसा नहीं है ,आज जीत दबंगई की है ,दलाली की है .अपराधी बाईज्ज़त बरी हो रहे हैं और न्याय का यह सिद्धांत "कि भले ही सौ अपराधी छूट जाएँ किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए"मिटटी में लोट रहा है .स्थिति आज ये हो गयी है कि आज कातिल खुले आकाश के नीचे घूम रहे हैं और क़त्ल हुए आदमी की आत्मा तक को कष्ट दे रहे हैं-खालिद जाहिद के शब्दों में-
"वो हादसा तो हुआ ही नहीं कहीं,
अख़बार की जो शहर में कीमत बढ़ा गया,
सच ये है मेरे क़त्ल में वो भी शरीक था,
जो शख्स मेरी कब्र पे चादर चढ़ा गया."
न्याय का पथभ्रष्ट होना आम आदमी के लिए बहुत ही कष्टदायक हो रहा है.आम आदमी खून के आंसू रो रहा है.निचले स्तर पर भ्रष्टाचार को झेल जब वह उच्च अदालत में भी भ्रष्टाचार को हावी हुआ पाता है तो वह अपने होश खो बैठता है .अपराध कुछ और वह पलट कर कुछ और कर दिया जाता है और अपराधी को बरी होने का मौका कानूनन मिल जाता है.हफ़ीज़ मेरठी के शब्दों में-
"अजीब लोग हैं क्या मुन्सफी की है,
हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है."
आश्चर्य की बात तो यह है कि संविधान द्वारा दिए गए कर्त्तव्य को उच्चतम न्यायालय जितनी मुस्तैदी से निभा रहा है उच्च न्यायालयों में वह श्रद्धा प्रतीत नहीं होतीजबकि संविधान द्वारा लोकतंत्र के आधार स्तम्भ में लोकतंत्र की मर्यादा बनाये रखने के जिम्मेदारी न्यायालयों को सौंपी गयी है और इस तरह उच्च न्यायालयों का भी ये उत्तरदायित्व बनता है कि वे भी उच्चतम न्यायालय की तरह न्याय के संरक्षक बने .उच्च न्यायालय अपनी गरिमा के अनुसार कार्य नहीं कर रहे हैं .कभी कर्णाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिनाकरण का मामला न्याय को ठेस लगाता है तो कभी सुप्रीम कोर्ट की इलाहाबाद हाईकोर्ट में "सडन"की टिपण्णी से सर शर्म से झुक जाता है प्रतीत होता है कि मुज़फ्फर रज्मी के शब्दों में न्याय भी ये कह रहा है-
"टुकड़े-टुकड़े हो गया आइना गिर कर हाथ से,
मेरा चेहरा अनगिनत टुकड़ों में बँटकर रह गया."

17 जनवरी 2011

बिजली विभाग पर मुकदमा!

सांयकाल के साढ़े सात बज रहे थे.जून क़ा महीना था.तनु ने भोजन डायनिंग टेबल पर लाकर रखा ही था क़ि बिजली भाग गयी.इनवर्टर दो दिन से ख़राब था.साहिल ने किसी तरह टॉर्च ढूढ़ कर ऑन की और एक मोमबत्ती जला दी.तनु पहले ही पसीने-पसीने हो रही थी.बिजली भागते ही उसका गुस्सा फूट पड़ा--.....आपसे परसों से कह रही हूँ इनवर्टर ठीक करा दीजिये...लाइट क़ा तो यही है......मैं मरुँ या जियूं आप पर तो फर्क ही नहीं पड़ता .जब कुछ करना ही नहीं था तो शादी क्यों की ?अब ऐसी गर्मी में क्या खाना खाया जायेगा? यह कहती हुई तनु बैडरूम की ओर बढ़ ली .साहिल क़ा दिमाग भी गर्मी से भन्ना रहा था. वो ऊँची आवाज में बोला ''तुम्हारा जितना कर दूँ उतना कम .अरे भाई इंसान हूँ दिनभर आफिस में किटकिट और घर पर तुम्हारी बडबड .....'' बैडरूम के द्वार तक पहुची तनु इस बात पर भड़कती हुई बोली ''......अच्छा मैं बड-बड करती रहती हूँ.......ठीक है सुबह ही अपने मायके चली जाती हूँ तभी तुम्हे ....'' तनु अपना वाक्य पूरा करती इससे पहले ही बिजली आ गयी.पंखा चलने से मोमबती बुझ गयी और तनु-साहिल क़ा गुस्सा भी.तनु डायनिंग टेबल की ओर आती हुई बोली ''कहो चली जाऊ ? '' साहिल मुस्कुराता हुआ बोला ''हाँ ! चली जाओ .मैं तो बिजली विभाग पर केस ठोक दूंगा क़ि तुम्हारी वजह से मेरी पत्नी घर छोड़ कर चली गयी............''साहिल के वाक्य पूरा करने से पहले ही बिजली फिर से भाग गयी.इस बार दोनों अँधेरे में जोर से हँस पड़े.तनु हँसते हुए बोली ''लो ठोक ही दो बिजली विभाग पर मुकदमा''.

16 जनवरी 2011

तभी नाम ये रह जायेगा....


जीवन था मेरा बहुत ही सुन्दर,
भरा था सारी खुशियों से घर,
पर ना जाने क्या हो गया
कहाँ से बस गया आकर ये डर.
पहले जीवन जीने का डर,
उस पर खाने-पीने का डर,
पर सबसे बढ़कर जो देखूं मैं
लगा है पीछे मरने का डर.
सब कहते हैं यहाँ पर आकर,
भले ही भटको जाकर दर-दर,
इक दिन सबको जाना ही है
यहाँ पर सर्वस्व छोड़कर.
ये सब कुछतो मैं भी जानूं,
पर मन चाहे मैं ना मानूं,
होता होगा सबके संग ये
मैं तो मौत को और पर टालूँ.
हर कोई है यही सोचता,
मैं हूँ इस जग में अनोखा,
कोई नहीं कर पाया है ये
पर मैं दूंगा मौत को धोखा.
फिर भी देखो प्रिये इस जग में जो भी आया है जायेगा,
इसलिए भले काम तुम कर लो तभी नाम ये रह जायेगा.

15 जनवरी 2011

नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा --संजीव 'सलिल'

नवगीत:


गीत का बनकर / विषय जाड़ा

--संजीव 'सलिल'

*

गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...
*
कोहरे से

गले मिलते भाव.

निर्मला हैं

बिम्ब के

नव ताव..

शिल्प पर शैदा

हुई रजनी-

रवि विमल

सम्मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
फूल-पत्तों पर

जमी है ओस.

घास पाले को

रही है कोस.

हौसला सज्जन

झुकाए सिर-

मानसी का

मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
नमन पूनम को

करे गिरि-व्योम.

शारदा निर्मल,

निनादित ॐ.

नर्मदा का ओज

देख मनोज-

'सलिल' संग

गुणगान करता है...

*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

'सलिल' क्यों

अभिमान करता है?...

******

तो हुजूर…मेहरबान…कद्रदान…पहलवान…मेहमान…भाई-जान....!!!


ए बन्दर…
बोलो सरकार…
सबसे बडे चोर को कहते हैं क्या…
महाचोर सरकार…!
और चोरों के प्रमुख को…?
चोरों का सरदार…!
अगर तू कोई चीज़ चुरा लाये
तो दुनिया चोर तुझे कहेगी या मुझे…
हमदोनों को सरकार…!

लेकिन चोरी तो तूने ना की होगी बे…
लेकिन मेरे सरदार तो आप ही हो ना सरकार…!
ये नियम तो सभी जगह चलता होगा ना बन्दर…
हां हुजूर और जो इसे नहीं मानते हैं…
वो सारे चले जाते है अन्दर…!
अरे वाह,तू तो हो गया है बडा ज्ञानी बे…
सब आपकी संगत का असर है सरकार…!
तो क्या संगत का इतना ज्यादा असर हो जाता है…?
हां हुजूर,एक सडी हुई चीज़ से सब कुछ सड जाता है…!
ये बात तो आदमियों में लागू होती होगी ना बे…?
आदमी पर सबसे ज्यादा असर होता है इन सबका सरकार…!
मतलब किसी के किसी भी सामुहिक कार्य की जवाबदेही…
सिर्फ़ व सिर्फ़ उसके मुखिया की होती है सरकार…!!
मगर आदमी ये बात क्यों नहीं समझता बे बन्दर…?
सरकार,आदमी असल में सबसे बडा है लम्पट…
आदमी है सबसे बडा बेइमान और मक्कार…सरकार…!
और सब तरह के भ्रष्ट लोगों का मुखिया भी…
उसपर अंगुली उठाने पर कहता है खबरदार…!!
तो हुजूर…मेहरबान…कद्रदान…पहलवान…मेहमान…भाई-जान 
ऐसा है हमारा यह बन्दर…
जो कभी-कभी घुस जाता मेरे भी अन्दर....!!
मगर हां हुजूर,जाते-जाते एक बात अवश्य सुनते जाईए…
यह बन्दर…हम सबके है अन्दर…
जो बुराईयों को पहचानता है,सच्चाई को जानता है…!
मगर ना जाने क्यों इन सबसे वो आंखे मूंदे रहता है…!
अपनी आत्मा को बाहर फ़ेंककर किस तरह वो रहता है…?
और अपनी पूरी निर्लज्जता के साथ हंसता-खिखियाता हुआ…
कहीं अपने घर का मुखिया…कहीं किसी शहर का मेयर…
कहीं किसी राज्य का मुखिया…कहीं किसी देश का राजा…
इन बन्दर-विहीन लोगों ने देश का बजा दिया है बाजा…!!!! 

14 जनवरी 2011

ऐ औरत !!अब तुझे रूपम पाठक ही बनना होगा.....!!


ऐ  औरत !!अब तुझे रूपम पाठक ही बनना होगा.....
ऐ औरत !!अब अगर तूझे सचमुच एक औरत ही होना है 
तो अब तू किसी भी व्यभिचारी का साथ मत दे....
जैसा कि तेरी आदत है बरसों से 
घर में या बाहर भी......
कि हर जगह तू सी लेती है अपना मुहं 
घर में किसी अपने को बचाने के लिए.....
और बाहर अपनी अस्मत का खिलवाड़.....
इस सबको झेलने से बेहतर तू समझती है....
सबसे ज्यादा अच्छा अपना मुहं सी लेना....

और तेरे मुहं सी लेने की कीमत क्या है,तू जानती है...??
 तेरी ही कोख से जने हुए ये बच्चे...बूढ़े...और जवान....
सब-के-सब तुझ पर चढ़ बैठना चाहते हैं....
ये उद्दंड तो इतने हो गए हैं तेरी चुप्पी से....
कि इन्हें कुछ नज़र ही नहीं तुझमें,तेरी कोख के सिवा 
......तो अब तू सोच ना....कि तेरे पास अब चारा ही क्या है...
......आ मैं बताता हूँ तुझे....लेकिन मैं क्या बताऊँ 
......अब तो सबको रूपम ने बता ही दिया है.......
.......उठा ले हाथों में कटार....या फिर कुछ और....
.......बेशक ये रास्ता मुश्किल से बहुत है भरा......
.......मगर कुछ ही दिन करना होगा यह तुझे...
.......उसके बाद देख लेना.............
......कि तेरी तरफ उठने वाला हर नापाक कदम 

......तेरा क्रोध भरा चेहरा देखकर....
.......वापस लौट जाएगा....अगले ही दम....!!
......ऐ औरत तू ज़रा सी देर के लिए बना ले....
.....खुद को दुर्गा का कोई भी अवतार.....
.....जो आज बनी है रूपम सी कोई....
......अपने बच्चों को बता अपने रौद्र रूप के मायने 
......और आदमी रुपी जानवर की वीभत्सता का क्रूर सच...
......तेरे भीतर की दुर्गा अगर तुझमें ज़रा सी भी अवतरित हो जाए...
......तो हर वहशी इंसान को अपनी औकात पता चल जाए...!! 

13 जनवरी 2011

अल्पना जी के ब्लॉग से लौट कर.....!

  अल्पना जी के ब्लॉग से लौट कर.....!!

हा...हा....हा....हा....हा....दसवीं कक्षा के जमाने में पढ़ा था गुनाहों के देवता को.....एक सांस में उसे पढने के लिए समय ना मिलने के कारण बीमारी का बहाना कर छत पर जा-जाकर पढ़ा करता उसे....कई-कई बार पढ़ा.....और कई-कई बार रोया......और एक बार तो मैं फफक-फफक कर रोया था.....ऐसा था इस उपन्यास का रस...आज सोचता हूँ तो......हा....हा....हा....हा.....हर चीज़ का एक वक्त होता....कहते हैं की मुहब्बत का कोई वक्त नहीं होता.....मगर होता है जनाब होता है मुहब्बत का भी वक्त....जब वो आपके भीतर उफान मार रही होती है.....मगर आपके पास कोई नहीं होता....आब खुद में मुहब्बत से भरे होते हैं.....और बस इंतज़ार कर रहे होते हैं की कोई मिल जाए.....और जब कोई मिल जाता है तो आपके भीतर की सारी मुहब्बत उस पर उड़ेल दी जाती है.....मगर वक्त इंतज़ार भी तो नहीं करता  आपका या किसी और का....सरपट दौड़ता जाता है ....देखते-न-देखते आपके कानों के आस-पास के कोने सफ़ेद हो जाते हैं.....आपके बच्चे तब उस उम्र के हो चुके होते हैं....जब आपने पढ़ी थी गुनाहों का देवता या फिर कोई और  किताब....और आप रोया करते थे....जब आप किसी के लिए तड़पा करते थे....दिल का वो दर्द अब आपको याद ही नहीं आता....मुब्बत एक मज़ाक लगा करती है .....शायद इसीलिए आज आप अपने दिन भूल चुके होते हैं .....शायद...इसीलिए अपने  बच्चों को ऐसी बातों पर डांटा करते हैं...लेकिन सच बाताऊं दोस्तों....अगर वक्त मिल जाए.....और आप अपने काम-काज को तिलांजलि दे सकें....या कुछ देर के लिए भूल कर ही सही...मुहब्बत को पा सकते हैं....मुहब्बत से सब कुछ संवार सकते हैं.....हाँ सच मेरे दोस्तों....सच.....सच्ची.....सच्च.....कसम से....!!! 
अजब है सच यह मुहब्बत 
रहती है दिल में कशमकश...!!
अजब है यह छोटा सा दिल 
हर शै भागता-दौड़ता-सा हुआ...!! 
अजब है हमारे भीतर की बात 
हमसे छुटकारा पाने को व्यग्र....!!
अजब से हो जाया करते हैं हम 
जब कोई मिल जाता है अपना-सा..!!
और अपनों के बीच ही रहते हुए 
हम हो जाते बेगाने सबके लिए...!!
अजब-सा लगता है हमारा चेहरा 
कोई और ही झांकता है उसमें से...!!
तो मुहब्बत से भरे हुए हम सब 
इतनी दुश्मनायी में क्यूँ रहते हैं...!!
गर इश्क आदमी का फन है "गाफिल"
इसमें इतने आततायी क्यूँ बसा करते हैं...!!