27 सितंबर 2010

मुक्तिका: बिटिया संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

बिटिया

संजीव 'सलिल'
*
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..

कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..

झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..

नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..

खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..

करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..

राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..

जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..

पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..

फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..

दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..

मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..

*******************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बोलो जी तुम अब क्या कहोगे....???

ज़माना बेशक आज बहुत आगे बढ़ चूका होओ,मगर स्त्रियों के बारे में पुरुषों के द्वारा कुछ जुमले आज भी बेहद प्रचलित हैं,जिनमें से एक है स्त्रियों की बुद्धि उसके घुटने में होना...क्या तुम्हारी बुद्धि घुटने में है ऐसी बातें आज भी हम आये दिन,बल्कि रोज ही सुनते हैं....और स्त्रियाँ भी इसे सुनती हुई ऐसी "जुमला-प्रूफ"हो गयीं हैं कि उन्हें जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता इस जुमले से...मगर जैसा कि मैं रो देखता हूँ कि स्त्री की सुन्दरता मात्र देखकर उसकी संगत चाहने वाले,उससे प्रेम करने वाले,छोटी-छोटी बच्चियों से मात्र सुन्दरता के आधार पर ब्याह रचाने वाले पुरुषों...और ख़ास कर सुन्दर स्त्रियों, बच्चियों को दूर-दूर तक भी जाते हुए घूर-घूर कर देखने की सभी उम्र-वर्गों की जन्मजात प्रवृति को देखते हुए यह पड़ता है कि स्रियों की बुद्धि भले घुटने में ही सही मगर कम-से-कम है तो सही....तुममे वो भी है,इसमें संदेह ही होता है कभी-कभी....स्त्रियों को महज सुन्दरता के मापदंड पर मापने वाले पुरुष ने स्त्री को बाबा-आदम जमाने से जैसे सिर्फ उपभोग की वस्तु बना कर धर रखा है और आज के समय में तो विज्ञापनों की वस्तु भी....तो दोस्तों नियम भी यही है कि आप जिस चीज़ को उसके जिस रूप में इस्तेमाल करोगे,वह उसी रूप में ढल जायेगी....समूचा पारिस्थितिक-तंत्र इसी बुनियाद पर टिका हुआ है,कि जिसने जो काम करना है उसकी शारीरिक और मानसिक बुनावट उसी अनुसार ढल जाती है...अगर स्त्री भी उसी अनुसार ढली हुई है तो इसमें कौन सी अजूबा बात हो गयी !!
दोस्तों हमने विशेषतया भारत में स्त्रियों को जो स्थान दिया हुआ है उसमें उसके सौन्दर्य के उपयोग के अलावा खुद के इस्तेमाल की कोई और गुंजाईश ही नहीं बनती...वो तो गनीमत है विगत कालों में कुछ महापुरुषों ने अपनी मानवीयता भरी दृष्टि के कारण स्त्रियों पर रहम किया और उनके बहुत सारे बंधक अधिकार उन्हें लौटाए....और कुछ हद तक उनकी खोयी हुई गरिमा उन्हें प्रदान भी की वरना मुग़ल काल और उसके आस-पास के समय से हमने स्त्रियों को दो ही तरह से पोषित किया....या तो शोषित बीवी....या फिर "रंडी"(माफ़ कीजिये मैं यह शब्द नहीं बदलना चाहूँगा.... क्योंकि हमारे बहुत बड़े सौभाग्य से स्त्रियों के लिए यह शब्द आज भी देश के बहुत बड़े हिस्से में स्त्रियों के लिए जैसे बड़े सम्मान से लिया जाता है,ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली और उसके आस-पास "भैन...चो....और भैन के.....!!)जब शब्दों का उपयोग आप जिस सम्मान के साथ अपने समाज में बड़े ही धड़ल्ले से किया करते हो....तो उन्हीं शब्दों को आपको लतियाने वाले आलेखों में देखकर ऐतराज मत करो....बल्कि शर्म करो शर्म....ताकि उस शर्म से तुम किसी को उसका वाजब सम्मान लौटा सको....!!
तो दोस्तों स्त्रियों के लिए हमने जिस तरह की दुनिया का निर्माण किया....सिर्फ अपनी जरूरतों और अपनी वासनापूर्ति के लिए....तो एक आर्थिक रूप से गुलाम वस्तु के क्या हो पाना संभव होता....??और जब वो सौन्दर्य की मानक बनी हुई है तो हम कहते हैं कि उसकी बुद्धि घुटने में....ये क्या बात हुई भला....!!....आपको अगर उसकी बुद्धि पर कोई शक तो उसे जो काम आप खुद कर रहे हो वो सौंप कर देख लो....!!और उसकी भी क्या जरुरत है....आप ज़रा आँखे ही खोल लो ना...आपको खुद ही दिखई दे जाएगा....को वो कहीं भी आपसे कम उत्तम प्रदर्शन नहीं कर रही,बल्कि कहीं -कहीं तो आपसे भी ज्यादा....कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि इस युग में किसी को छोटा मत समझो...ना स्त्री को ना बच्चों को...वो दिन हवा हुए जब स्त्री आपकी बपौती हुआ करती थी...अब वो एक खुला आसमान है...और उसकी अपनी एक परवाज है...और किसी मुगालते में मत रहना तुम....स्त्री की यह उड़ान अनंत भी हो सकती है....यहाँ तक कि तुम्हारी कल्पना के बाहर भी....इसीलिए तुम तो अपना काम करो जी...और इस्त्री को अपना काम करने दो.....उसकी पूरी आज़ादी के साथ......ठीक है ना.....??आगे इस बात का ध्यान रखना....!!!

25 सितंबर 2010

ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा......!!



ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा......!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा......!!
अरे हम सब मिलकर बजाते हैं हम सब का ही बाजा !! 
अरे हमने धरती के गर्भ को चूस-चूस कर ऐसा है कंगाल किया 
पाताल लोक तक इसकी समूची कोख को कण-कण तक खंगाल दिया 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
हमने सारे आसमान का एक-एक बित्ता तक नाप लिया 
जहां तक हम पहुंचे अन्तरिक्ष को अपनी गन्दगी से पाट दिया 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
इस धरती का रुधिर हमारे तन में धन बन बन कर बहता है
हमारा बहाया हुआ केमिकल धरती की रग-रग में बहता है
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
इस धरती हम सेठ-किंग और जाने क्या-क्या कहाते हैं 
हर नदी-तालाब-नाहर-नाले में अपना कचरा बहाते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
जिस अबला पर मन आ जाए उसे हम अपने धन-धान्य से पाट देते हैं 
और जो ना माने हमारी उसका बलात चीरहरण हम कर देते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
छोटे-छोटे बच्चे भी हमारी वहशी नज़रों से बच तक नहीं पाते हैं 
जिन्होंने जन्म लिया है अभी ही,वो भी भेंट हमारी चढ़ जाते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
कर ले यहाँ पर हम कुछ भी मगर कभी पापी नहीं कहलाते हैं 
और सभी पापों में भर कर गंगा में ही नहा आते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
आत्मा हमारी ऐसी है जो सबके धन की ही प्यासी है 
जो भी दे दे धन इन्हें ये बस उन चरणों की दासी है 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
भूखे-नंगे-गरीब-अनाथ कोई भी हमें दिखाई ही नहीं देते है 
जिसकी भी जर-ज़रा-जमीं-जोरू हो,हम तिजोरी में भर लेते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
कितना भी खा जाए मगर हम डकार कभी नहीं लेते हैं 
"फ़ोर्ब्स"पत्रिका में खुद को पाकर हम खुश-खुश हो लेते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
देश हमारी ठोकर पर है हर मंत्री हमारा नौकर,सब कहते हैं 
हम इतने गिरे हुए हैं भाई,किसी की भी जूती चाट लेते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
अरे हम सब मिलकर बजाते हैं हम सब का ही बाजा !!

21 सितंबर 2010

रो मत मेरी बच्ची !!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                                                        रो मत मेरी बच्ची !!
                  मेरी प्यारी-प्यारी बच्ची !!तुझे बहुत-बहुत-बहुत प्यार और तेरी माँ तथा तेरे भाई बहनों को भी मेरा असीम प्रेम !!
                  मेरी बिटिया मैं तेरा पिता लूकस टेटे धरती से बहुत दूर की दुनिया से बोल रहा हूँ....आज ही किसी अखबार में तेरे पत्र के बारे में मैंने जाना तो मेरी आँखे,मेरा दिल,मेरी आत्मा एकदम से भर्रा गयी....और बड़े गीले मन से और कराहती आत्मा से मैं तुझे कुछ कहना चाह रहा हूँ,मुझे उम्मीद है कि तू मेरी बात को ना सिर्फ समझेगी बल्कि जो मैं कहूँ उसे मानेगी भी....मानेगी ना तू ??
                  मेरी बिटिया,तेरी तरह मुझे भी यह नहीं पता कि  मेरे नक्सली भाईयों ने मुझे ही क्यूँ मारा ?जबकि मैं तो उन्हें अब तक जल-जंगल-जमीन और उस पर रहने वाले आदिवासियों के व्यापक हित या हक़ में लड़ने वाला कुछ उग्रपंथी ही मानता था,जो सरकारी कार्यशैली और उसमें व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार के कारण गरम दल के रूप में परिणत हो गए एक गुट के रूप में देखा करता था!!मगर मैं भी तो अपने और अपने परिवार का पेट पालने के लिए संयोग-वशात या दुर्भाग्यवश सरकार के हक़ में रहने वाला एक अदना-सा कर्मचारी मात्र था,जिसका कार्य महज अपने आकाओं की हुक्मउदूली करना भर था,इस प्रकार सरकार और जनता दोनों ही की सेवा के लिए नियुक्त ऐसा कर्मचारी,जिसे हर समय तलवार की धार पर खडा रहना पड़ता था,हमारी किसी भी प्रकार की चूक हमें जनता या नेता किसी की भी गालियों का शिकार बना डालती थी,यहाँ तक कि हम किसी से मार खाकर भी उफ़ भी नहीं कर सकने वाले एक विवश कर्मचारी मात्र थे और ऐसे विवश आदमी को मारना यह,मेरी बिटिया,अब तक मेरी समझ से बाहर है!और तुम सब की याद में यहाँ मेरी आत्मा तड़फा करती है !!
                   मेरी प्यारी बिटिया,जंगल-जमीन-जल और आदिवासियों की बातें करने वाले ये लोग क्या सच में अब नक्सली ही हैं,इस बात पर अब मुझे शक होने लगा है,क्यूंकि सरकारी नीतियों और पूँजीवाद का विरोध करते हुए ये लोग उन्हीं की तरह धन-संपत्ति का संग्रह करते और जगह-जगह जमीन-मकान लेते ये लोग,बैंकों तथा डाक-खाने और शेयरों में पैसे का इन्वेस्ट करते ये लोग,तरह-तरह की अय्याशियाँ करते,रखैल रखते और संगठन की नेत्रियों को जबरन बलत्कृत करते ये लोग, हड़िया-दारू और अन्य प्रकार के नशों में धुत्त रहने वाले ये लोग,कहीं से लगता ही नहीं कि यही लोग आन्दोलनकारी हैं कि इन्हीं पूंजीपतियों और नेताओं की एक भद्दी कार्बन कॉपी !!और ये लोग जो आन्दोलन के नाम पर सिवाय हत्या,आगजनी,बंदी,अपहरण आदि के कुछ जानते तक नहीं !!निर्दोष नागरिकों का खून,सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान बस यही इनकी फितरत है जैसे,कुछ बनाना जो नहीं जानते,कितनी आसानी से सब कुछ को नष्ट कर देते हैं,एक मिनट भी नहीं लगता उन्हें यह सब करने....यह सब मात्र व्यवस्था के विरोध के नाम पर....!!
                    मेरी प्यारी बिटिया, तू बार-बार अखबार के माध्यम से यह मत जताया कर कि उन्होंने मुझ आदिवासी को ही क्यूँ मारा !!अरे मेरी पगली बिटिया उन्होंने किसी को भी मारा होता तो उस घर में आज हमारे घर की तरह ही अन्धेरा होता है ना !!तो यह अच्छा ही हुआ ना कि मैं उनके काम आ गया,उनके घरों में आज अँधेरा होने से बच गया !!मेरी बिटिया,अगर हमारी वजह से किसी और की जान बच जाए तो हमें मरने से डरना नहीं चाहिए !!और मेरी बच्ची मैं जानता हूँ कि तू कितनी बहादूर है और इस वक्त भी अपनी माँ और अपने भाई-बहनों को ढांडस देने की ही चेष्टा कर रही होगी और मैं यह भी जानता हूँ कि समय रहते तू सब कुछ संभाल लेगी! अब तू इक्कीस बरस की हो गयी है ना! तू शिक्षक बनना चाहती है ना ?तो मैं आ चुका हूँ यहाँ भगवान् के पास तेरी अर्जी लगाने !उन्होंने तेरी अर्जी मंजूर भी कर ली है मगर वो मुझसे कह रहे हैं कि मैं तुझसे कहूँ कि तू शिक्षक बन कर बच्चों में देश के प्रति प्रेम की अलख जगाए और उनमें देश के लिए मर जाने का जज्बा पैदा करे !! क्योंकि आज इस देश में इसके लिए मरने वालों की संख्या बेहद कम हो गयी है,बल्कि इसे लूटने वाले,इसके गौरव,इसकी अस्मत का हरण करने वाले लोगों की बहुतायत हो गयी है!
                   इसलिए ऐ बिटिया ,भगवान् हमसे कह रहा है कि आगे तू भी अगर बच्चों की माँ बने तो,तो अपने बच्चों के भीतर इस करप्ट व्यवस्था से लड़ने का और अच्छे काम के लिए मर-मिटने का संकल्प भर दे !मेरी बिटिया हमारे देश की सारी समस्याओं की जड़ इसका करप्शन और इससे लड़ने के संकल्प की कमी का है !!    
जो पैसे वाले हैं,वो शायद पैसों के अलावा कुछ नहीं सोच पाते,मगर सेमिनारों में अच्छे-अच्छे व्याख्यान देते फिरते हैं और जिनके सर पर देश का ताज है,वो तो जैसे करप्टओ के बाप के बाप के भी बाप हैं और उन्हें इस बात से भी अंतर नहीं पड़ता कि देश कहाँ जा रहा है या कि उनके कर्मों से रसातल के किस दलदल में औंधा घुसा चला जा रहा है और ये लोग बड़े-बड़े मंचों से विकास और गौरव आदि की बात किया करते हैं....इस सारे सिस्टम से,ओ मेरी बिटिया, अपने बच्चों में अब लड़ने की इच्छा और और इससे हर हाल में जीतने का संकल्प भरना ही होगा !!
                    मेरी प्यारी बिटिया !!सच तो यह भी है कि पहले गांधी ,भगत सिंह और आज़ाद जैसे वीरों की माएं पैदा होती हैं,तब तो उनसे भगत सिंह पैदा होते हैं और समय की मांग भी यही है कि तेरे जैसी बिटियाएँ अब देश के ऐसे रखवालों को पैदा करें जो इन सरीखे तमाम महिषासुरों का मान-मर्दन कर सकें,उनका खात्मा कर सकें !और राज्य की बागडोर अपने नेक हाथों में लेकर इसकी चहुँ ओर फैली विपन्नता को दूर करें....बिटिया मेरी,मेरे जैसे एक आदमी का क्या सपना होता है ?यही ना कि हम सब अपनी मिनिमम जरूरतों को पूरा करके निम्नतम हद तक भी खुशहाल हो सकें,इसी प्रकार हमारे जैसे तमाम अन्य आम आदमी भी खुशहाल रहे !!और अपनी इस कामना के लिए हम स्टेजों पर हुंकारे नहीं भरते, मगर अरबों- खरबों पतियों वाली धन्ना-सेठों की यह भूमि अपने करोड़ों नागरिकों का पेट भरने तक के लिए चोरों की मोहताज हो जाए तो भगवान् से भी मोहभंग हो जाए, मेरी बिटिया, सबका !! 
                       इसलिए ऐ मेरी प्यारी और बहादूर बिटिया !मत रो रे ! मत रो !!तू रोएगी तो मैं भी रो पडूंगा !क्या तू यही चाहती है कि मैं यहाँ आकर भी रोता ही रहूँ ?अगर मैंने तुझे अपना सच्चा प्यार दिया है तो जा दुनिया के सब बच्चों में वह प्यार बाँट !मेरे इस अवांछित तरीके से हुए बलिदान के बावजूद तू समाज को सच्चा और नैतिक बनाने में अपना योगदान दे !अगर तू ऐसा कर पायी तभी मैं खुश होउंगा !तभी मेरी आत्मा को मुक्ति भी मिलेगी !मगर तब तक, ओ मेरी बिटिया, मैं तड़पता ही रहूंगा !मेरी आत्मा कसमसाती ही रहेगी !!मेरी बच्ची ,अब इस महान कार्य को मैं तुझे सौंपता हूँ !तू मेरे सपने को पूरा करे,इतनी आशा तो मैं तुझसे कर सकता हूँ ना,तेरा बाप हूँ मैं !तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तेरे जैसी तमाम बच्चे-बच्चियों में मेरे देश का भविष्य सुरक्षित रहे !!इसी कामना के साथ विदा मेरी बेटी !!
                                                                                                                                                                                              तेरा अभागा बाप     
                                                                                                                                                                                                    लूकस टेटे 


20 सितंबर 2010

शब्दकार की तीन सौवीं पोस्ट प्रकाशित--आभार संजीव 'सलिल' जी का--इतिहास पर नजर डालें


शब्दकार ब्लॉग का आरम्भ 01 मार्च 2009 को किया गया था। तबसे लेकर आजतक इसके साथ उतार-चढ़ाव वाला समय भी आता रहा। एक बारगी बीच में ऐसा भी समय आया जबकि इसका संचालन बन्द करने का भी विचार बना। शब्दकार के लगभग सभी साथियों की ओर से इसको बन्द न करने का सुझाव दिया गया।

अपनी छोटी सी यात्रा में शब्दकार ब्लॉग जगत में कहाँ स्थित है यह तो आकलन आप सुधी पाठकजन ही करें। अपनी व्यस्तता के बीच समय निकाल कर देखा तो पाया कि शब्दकार पर 300वीं पोस्ट का प्रकाशन हो चुका है।

इस 300वीं पोस्ट का प्रकाशन इसी 10 सितम्बर 2010 को हुआ। इस पोस्ट के रचनाकार ब्लॉग जगत के सम्माननीय आचार्य संजीवसलिलजी हैं। तीन सौवीं पोस्ट भी कविता रही जिसका शीर्षक था जीवनअंगना को महकाया आचार्य संजीव ‘सलिल’ जी के साथ शब्दकार का अजब संयोग जुड़ा हुआ है। इसको आप शब्दकार के संक्षिप्त इतिहास के द्वारा देख-समझ सकते हैं।

लगभग बारह दिनों पूर्व शब्दकार की तीन सौवीं पोस्ट के प्रकाशन होने के पूर्व एक दिन पोस्ट का सम्पादन करते समय देखा था कि जल्द ही शब्दकार पर तीन सौवीं पोस्ट किसी न किसी के द्वारा प्रकाशित होगी। पहले सोचा कि इस बात को सबके बीच बाँट कर तीन सौवीं पोस्ट लिखने वालों को आमंत्रित किया जाये फिर विचार आया कि नहीं देखते हैं कि किस शब्दकार साथी की पोस्ट 300 का आँकड़ा छूती है।

आइये अब एक निगाह शब्दकार की संक्षिप्त सी यात्रा पर भी डाल लें और इसके विकास की राह को और प्रशस्त करें।

शब्दकार की पहली पोस्ट का प्रकाशन हुआ था 01 मार्च 2009 को। इस पहली पोस्ट के रचनाकार थे डॉ0 ब्रजेश कुमार और इनके द्वारा एक कविता प्रकाशनार्थ प्रेषित की गई थी। इस कविता का शीर्षक था--लो पुनः मधुमास आया।

यहाँ सुधी पाठकों को याद दिला दें कि पहले शब्दकार में पोस्ट का प्रकाशन शब्दकार के संचालक डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर के द्वारा होता था। बाद में रचनाकारों की अधिक से अधिक सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए इस ब्लॉग को सामुदायिक ब्लॉग के रूप में संचालित करना शुरू किया। शब्दकार का सामुदायिक संचालन 15 अगस्त 2009 से किया गया।

सामुदायिक ब्लॉग के रूप में शुरू होने के बाद पहली पोस्ट का प्रकाशन 16 अगस्त 2009 को एक कविता के रूप में हुआ। सरस्वती वंदना के द्वारा प्रकाशित होने वाली पहली रचना के साथ ब्लॉग जगत के माननीय आचार्य संजीवसलिलजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।

इसके बाद से लगातार शब्दकार साथियों के द्वारा रचनाओं का प्रकाशन होता रहा। शब्दकार में इसके बाद भी पूर्व की भाँति उन रचनाकारों की भी रचनाओं का प्रकाशन होता रहा जो शब्दकार के सदस्य नहीं बने थे।

शब्दकार की सौवीं पोस्ट के रूप में डॉ0 अनिल चड्डा की कविताओंतेरा वजूदऔरतेरा इन्तजार को स्थान मिला। इन कविताओं को दिनांक 08 जुलाई 2009 को शब्दकार संचालक द्वारा ही प्रकाशित किया गया था। ध्यातव्य रहे कि तब तक शब्दकार का संचालन सामुदायिक रूप में शुरू नहीं हुआ था।

शब्दकार की दो सौवीं पोस्ट के रूप में भी एक कविता को स्थान मिला और इस बार भी रचनाकार रहे आचार्य संजीवसलिलजी। इस बार उनकी बाल कविता थी बंदर मामा और तारीख रही 30 जनवरी 2010।

शब्दकार की यात्रा धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ रही थी और लगातार रचनाओं को प्रकाशनार्थ संचालक द्वारा मंगवाया भी जा रहा था। शब्दकार के सदस्य साथियों के अलावा भी अन्य ब्लॉगर मित्र अपनी रचनाओं को प्रकाशनार्थ प्रेषित कर रहे थे।

इस बीच वह भी समय आया जबकि शब्दकार में 300 वीं पोस्ट का प्रकाशन हुआ। इस पोस्ट के बारे में विवरण आप ऊपर पढ़ ही चुके हैं।

सभी सदस्य साथियों को, अन्य मित्रों को जो रचनाएँ प्रकाशनार्थ भेजते हैं, पाठकों को, शब्दकार की रचनाओं पर टिप्पणी करने वालों का आभार, बधाईयाँ और शुभकामनाएँ। आप सभी के सहयोग की इसी तरह आवश्यकता रहेगी। भावी योजनाओं में विचार है कि शीघ्र ही एक शब्दकारआयोजन करवाया जायेगा जिसमें सभी साथियों को आमन्त्रित करके सम्मानित करने की योजना है (यदि आर्थिक संसाधन साथ देते रहे)

शुभकामनाएँ आप भी भेजिए शेष तो भविष्य के गर्भ में छिपा है।

शब्दकार के सदस्य साथी ------
शब्दकार ब्लॉग के समर्थकों की संख्या भी 60 है

19 सितंबर 2010

सामयिक कविता : मेघ का सन्देश : --------संजीव सलिल'

सामयिक कविता


मेघ का सन्देश :

संजीव सलिल'
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.

मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..

सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..

देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.

एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..

तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..

तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.

नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..

*************************

16 सितंबर 2010

भारतीय संस्कृति की अस्मिता की पहचान है हिन्दी -- अंडमान निकोबार में गोष्ठी


भारतीय संस्कृति की अस्मिता की पहचान है हिन्दी
१४ सितम्बर 2010


भारत के सुदूर दक्षिणी अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में निदेशक डाक सेवा कार्यालय में हिन्दी-दिवस का आयोजन किया गया. निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण और पारंपरिक द्वीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया. कार्यक्रम के आरंभ में अपने स्वागत भाषण में सहायक डाक अधीक्षक श्री रंजीत आदक ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर कि निदेशक श्री कृष्ण कुमार यादव स्वयं हिन्दी के सम्मानित लेखक और साहित्यकार हैं, ऐसे में द्वीप-समूह में राजभाषा हिन्दी के प्रति लोगों को प्रवृत्त करने में उनका पूरा मार्गदर्शन मिल रहा है. हिन्दी कि कार्य-योजना पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि संविधान सभा द्वारा 14 सितंबर, 1949 को सर्वसम्मति से हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था, तब से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है. इस अवसर पर जोर दिया गया कि राजभाषा हिंदी अपनी मातृभाषा है, इसलिए इसका सम्मान करना चाहिए और बहुतायत में प्रयोग करना चाहिए.



इस अवसर पर कार्यक्रम को संबोधित करते हुए चर्चित साहित्यकार और निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने हिन्दी को जन-जन की भाषा बनाने पर जोर दिया। अंडमान-निकोबार में हिन्दी के बढ़ते कदमों को भी उन्होंने रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि हमें हिन्दी से जुड़े आयोजनों को उनकी मूल भावना के साथ स्वीकार करना चाहिए। स्वयं डाक-विभाग में साहित्य सृजन की एक दीर्घ परम्परा रही है और यही कारण है कि तमाम मशहूर साहित्यकार इस विशाल विभाग की गोद में अपनी काया का विस्तार पाने में सफल रहें हैं. इनमें प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी, सुविख्यात उर्दू समीक्षक शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर जैसे तमाम मूर्धन्य नाम शामिल रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल भी डाक विभाग में ही क्लर्क रहे।

निदेशक श्री कृष्ण कुमार यादव यादव ने अपने उद्बोधन में बदलते परिवेश में हिन्दी की भूमिका पर भी प्रकाश डाला और कहा कि- आज की हिन्दी ने बदलती परिस्थितियों में अपने को काफी परिवर्तित किया है. विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, पत्र-पत्रिकाओं का प्रचलन बढ़ा है, इण्टरनेट पर हिन्दी की बेबसाइटों और ब्लॉग में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा में परियोजनाएं आरम्भ की हैं. निश्चिततः इससे हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है। श्री यादव ने जोर देकर कहा कि साहित्य का सम्बन्ध सदैव संस्कृति से रहा है और हिन्दी भारतीय संस्कृति की अस्मिता की पहचान है। इस अवसर पर पोर्टब्लेयर प्रधान डाकघर के पोस्टमास्टर एम. गणपति ने कहा कि आज हिन्दी भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में अपनी पताका फहरा रही है और इस क्षेत्र में सभी से रचनात्मक कदमों की आशा की जाती है। इस अवसर पर डाकघर के कर्मचारियों में हिंदी के प्रति सुरुचि जाग्रति करने के लिए निबंध लेखन, पत्र लेखन, हिंदी टंकण, श्रुतलेख, भाषण और परिचर्चा जैसे विभिन्न कार्यक्रम भी आयोजित किये गए. कार्यक्रम में जन सम्पर्क निरीक्षक पी. नीलाचलम, कुच्वा मिंज, शांता देब, निर्मला, एम. सुप्रभा, पी. देवदासु, मिहिर कुमार पाल सहित तमाम डाक अधिकारी/कर्मचारी उपस्थिति रहे. कार्यक्रम का सञ्चालन हिंदी अनुभाग के कुच्वा मिंज द्वारा किया गया.

निदेशक डाक सेवाएँ
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह,
पोर्टब्लेयर -744101

आंकडे यदि सच्चाई होते तो......!!!

आंकडे यदि सच्चाई होते तो......!!!

                                                       एक सवाल !!!!
""जैसा कि कहा जाता है कि औरत की बुद्धि उसके पैर के घुट्नों में होती है तो फिर एक तीस-चालीस-पचास-साठ-सत्तर-अस्सी यहां तक कि नब्बे वर्षीय "पुरुष"भी अठ्ठारह-बीस वर्षीय अपनी बेटी-पोती-नाती-परपोती समान लड्की के साथ के साथ "ब्याह" कैसे रचा डालता है?क्या पुरुष की बुद्धि उसके पैर की कानी अंगुली में होती है??होती भी है या कि नहीं...???""



                       आंकडे यदि सच्चाई होते तो......!!
                       अपने बचपन से ही हम स्कूल में और बाद में कालेज आदि में बहुत सारी बाते तरह-तरह के आंकडों की मदद से पढ्ते-समझते हुए आते हैं,सांख्यिकी के आंकडे  कुछ ऐसी ही चीज़ हैं जो ऐसा लगता है कि तस्वीर को थोडा साफ़ करते हैं,कि गणनात्मक चीज़ों को सही तरीके से समझने में हमारी मदद करते हैं किन्तु सच तो यह है कि अधिकतर इससे मानवजाति दिग्भ्रमित ही होती रही है और इससे पैदा निष्कर्षों में बहुत से मामलों में कोई सार तक नहीं होता,अगर आप यह गौर करें तो आप खुद भी चौंक जायेंगे ! दरअसल ज्यादातर चीज़ों के बारे में हम निष्कर्षों की प्राप्ति के लिए जिन आंकडों का उपयोग करते हैं,दरअसल वो आंकडे उन मूल आंकडों का औसत होता है,जिनकी संख्या के कुल जोड को कुल ईकाईयों से भाग देकर प्राप्त किया जाता है,लेकिन यही भागफल बहुत से मामलों में एक "भ्रम" हो जाता है हम सबके लिए !आईए हम सब जरा इसकी पड्ताल भी करें .
           आज के अखबार की खबर है कि भारत में मोबाईल उपभोक्ताओं की संख्या साढे पैंसठ करोड जा पहुंची है मगर इस आंकडे में सच का प्रतिशत थोडा-सा अलग भी हो सकता है,क्योंकि यह आंकडा मोबाईल कंपनियों द्वारा दिये/बेचे गये सिम के आधार पर है,जबकि सच तो यह है कि करोडों लोगों के पास आज मल्टी-सिम मोबाईल हैं,यहां तक कि लाखों लोगों के पास चार-पांच सिम से लेकर दर्जनों सिम तक मौजूद हैं,इसके अलावा बेकार पडे सिमों तथा रद्दी की टोकरी में फेंके जा चुके सिमों की संख्या भी लाखों-लाख संख्या में होंगे,इस प्रकार अगर हम इस संख्या की वास्तविक पड्ताल कर सकें तो यह संख्या मेरी समझ से पांच-सात करोड कम भी हो सकती है !!
           अभी कुछ दिनों पूर्व भारत के सांसदों ने अपना वेतन सोलह हजार से  तीन गुना बढा कर पचास हजार करोड रुपये कर लिया था तब अखबारों में तरह-तरह के आंकडे देखने को मिले.विभिन्न देशों में सांसदों को मिलने वाले वेतन का जिक्र किया गया था मगर संयोग से इस मामले में भारत की तुलना जिन देशों से तुलना की गयी थी वे सब-के-सब विकसित देश थे और भारत के मुकाबले बेहद अमीर,अर्थात इस "मुकाबले" का असल में कोई अर्थ ही नहीं था,क्योंकि यह बिल्कुल ऐसा ही था कि बिल्ली कितना खाना खाती है और हाथी कितना !तो सौ बिल्लियां कितना खाएंगी इतने हाथी के मुकाबले !!
           आंकडों की बाजीगरी में एक शब्द बडा ही "फ़ेमस" है उस शब्द का नाम है "प्रति-व्यक्ति"!आईए जरा इस प्रति व्यक्ति नामक बला को समझें !दर-असल धरती पर प्रत्येक चीज़ प्रत्येक आदमी को उपलब्धता के आधार पर तौली जाती है और अरबों आदमियों के "महा-मायाजाल" में हरेक व्यक्ति की प्राप्तियों को अलग-अलग नहीं बताया जा सकता, इसे बताने के लिए ही सबके गुणनफल को इकाइयों से भाग देकर एक औसत निकाल कर बताया जाता है किन्तु यही औसत दर-असल एक "महाघोटाला" है,जिससे सच के नाम पर सिर्फ़-व-सिर्फ़ भ्रम ही सामने आता है और इस भ्रम का शिकार हर कोई ही है !आईए जरा इसे भी देखें!!!
           मेरे गांव में एक हजार लोग रहते हैं,जिसमें किसी का दो जने का परिवार है,किसी का चार का,किसी का दस जने का,तो किसी का तो पच्चीस-तीस जनों का परिवार भी है,उसमें भी किसी दो जने वाले परिवार के पास कई एकड खेती है और किसी बीस जने वाले परिवार के पास एकाध या आधा एकड ही खेती है.गांव के एक हजार लोग मोटा-मोटी सौ परिवार हैं और गांव की कुल उपज सात हजार टन अनाज है.अब मज़ा यह कि गांव के सौ परिवारों में अस्सी-पिचयासी परिवार गरीब हैं,दो परिवार करोड्पति हैं,आठ परिवार लखपति,और पांच लखपति के लगभग-लगभग.तो कोई तो कम कमाई के बावजूद अपने परिवार के सदस्यों की दिन-रात की हारी-बीमारी से परेशान है और फसल भी उसकी ऐसी जो साल में दो बार ही होए,तिस पर सुखा-बाढ या किसी अन्य दैवीय आपदा का प्रकोप हो जाए तो यह समस्या अलग !हो सकता है कि किसी परिवार के खेतों की कुल उपज गांव में सबसे अधिक हो मगर वह परिवार ज्यादा व्यक्तियों वाला हो,इसका उलटा भी संभव है,कोई साल भर चार फसल तो कोई दो,कोई सब्जी उगा रहा है तो कोई क्या,हर तरह की फसल का विक्रय मूल्य भी अलग-अलग है,जो एक रुपये से लेकर पचास रुपये प्रति किलो तक का भी हो सकता है,जो भी हो मगर गांव की कुल उपज का मुल्य  कुल कोई नब्बे लाख रुपये सालाना है,मगर इसमें भी पचास लाख रुपये तो इन पन्द्रह परिवारों के हैं,और उसमें भी पच्चीस लाख रुपये पांच परिवारों के,और उसमें भी पन्द्रह लाख सिर दो परिवारों के !!इस प्रकार आर्थिक आधार पर किसी की कोई तुलना या गणना आप कर ही नहीं सकते.....!!
                          तो दोस्तों आकड़ों का सच तो सचमुच यही है एक अलग तरह का उदाहरण देता हूँ,दो भाईयों की लड़ाई हो गयी,बिजनेस में आपस में उनकी नहीं पटी,घर की पंचायत बैठी,बड़े भाई से हिसाब माँगा गया तो उसने जो हिसाब दिया वो कुछ यूँ था....कमाई सौ रुपये,घर खर्च तीस रुपये,दूकान खर्च तीस  रूपये,गोदाम दस रुपये,एल.आई.सी.पालिसी बीस रुपये और उपरी खर्च दस रूपये.....ऊपर-ऊपर देखने में हिसाब-किताब बिल्कुस जंचा हुआ था मगर जो बात घर की पंचायत को आखिरी तक पता नहीं चली की घर के तीस रुपये खर्च में छोटे भाई का हिस्सा मात्र पांच रूपये था,दूकान खर्च दरअसल बीस रूपये ही था,गोदाम खर्च भी इसी तरह कुछ उन्नीस-बीस के फर्क में था,तथा एल.आई.सी.पालिसी में छोटे भाई का हिस्सा महज ढाई प्रतिशत ही था और सबसे मजे वाली बात तो यह कि कमाई का अनुमान वास्तविक कमाई से आधा बताया जा रहा था और महीने की कुल सेल भी काफी घटा कर बतायी गयी थी.....मगर घर की पंचायत इस नपे-तुले हिसाब से संतुष्ट थी और इस प्रकार अंत में जो फैसला हुआ उसमें बड़े भाई ने कुल स्टॉक का साथ प्रतिशत खुद और चालीस प्रतिशत छोटे भाई के आधार पर बंटवारा कर दिया,अब यह स्टॉक का मूल्यांकन भी बड़े भाई का मन-माफिक हिसाब से तय किया हुआ था....तथा बड़े भाई ने पिछले पन्द्रह-बीस सालों का निजी इन्वेस्टमेंट तो पूरा-का-पूरा गायब ही कर दिया तथा वर्तमान में दी गयी उधारियों,जो स्टॉक का आधा थीं,उसे भी पूँजी मानने से इनकार कर वह भी गपचा गया यहाँ तक वह दूकान भी बड़े भाई के पास ही रही और बड़े भाई की इस न्यायप्रियता का सबने सामने समर्थन किया....और बड़ी हंसी-ख़ुशी-पूर्वक यह बंटवारा राजी-ख़ुशी संपन्न करवा दिया गया...बाद में क्या हुआ,इसकी बातें बाद में.....!!
                         कहने का मतलब यही है आंकड़ों का खेल ऐसा ही है,अगर आंकड़ों से सच प्रकाशित होता तो सब कुछ बहुत अलग-सा होता...आंकड़े अगर सच होते तो दुनिया में इतनी खुशहाली होती कि मत पूछिए.....भारत की प्रति-व्यक्ति आय मान लिया पांच हजार रुपये प्रति महीना है,मगर कहते हैं भारत की    आधी संपदा के बराबर मूल्य के संसाधन कुल छत्तीस लोगों के पास है(या ऐसा ही कुछ)तो इन छत्तीस लोगों के प्रति महीने की कमाई को अगर निकाल लें तो प्रति व्यक्ति आंकडा क्या बचेगा....सो अनुमान लगाने का कार्य मैं आज आप सबों को सौंपता हूँ....आप अनुमान लगाएं तब तक मैं ज़रा हल्का होकर आता हूँ...तब तक के लिए एक छोटा सा ब्रेक.....!!!
मैं भूत बोल रहा हूँ..........!

15 सितंबर 2010

हिंदी -सहजता की तलाश में

प्रति वर्ष की तरह हिंदी दिवस मनाने की औपचारिकता आज हिंदी दिवस पर पूरी की गयी । हिंदी की याद बुद्धिजीवियों ,साहित्यकारों को आज के दिन ही आती है । हिंदी की दुर्दशा एवं स्थिति पर आँसू बहाए जाते हैं । सरकार को कोसा जाता है और दूसरे दिन हिंदी को कोई नहीं याद करता ।
भाषा का सम्बन्ध किसी राष्ट्र की अस्मिता से होता है । एक राष्ट्र के लोगों के लिये उनकी भाषा पर गर्व होता है । अपनी भाषा के विकास उन्नयन के लिये प्रयास करना शासन एवं नागरिकों का कर्तव्य है । पर हमारा देश आज तक अपनी भाषा के लिये सर्वसम्मति नहीं बना पाया । इसके लिये सरकार ,राजनीतिक दल ,वोट पालिटिक्स तो जिम्मेवार है ही , हिंदी के उदभट विद्वान् कम उत्तरदायी नहीं है जिन्होंने हिंदी को सेमिनारों एवं गोष्ठियों तक सीमित कर लिया है । संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट हिंदी आम आदमी से दूर होती जा रही है ।
किसी भी भाषा का विकास उसमे लोगों की सक्रिय सहभागिता से होता है । भाषा संवाद एवं सम्प्रेषण का एक माध्यम है । यदि इसमें सहजता व सरलता का अभाव रहता है तो आम आदमी इससे दूर हो जायेगा। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ आज भी साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम है ,भाषा को ग्राह्य बनाने के लिये जमीनी सच्चाई को समझना होगा। हिंदी को लोगो की भाषा बनाने के लिये इसे क्लिष्टता के चंगुल से तो दूर करना ही होगा अपितु अन्य भाषा विशेषकर अंग्रेजी के लोकग्राह्य शब्दों को अपनाना होगा ,बिना यह चिंता किये कि इससे भाषा का शास्त्रीय स्वरूप प्रभावित होगा ।
विश्व की कोई भी ऎसी भाषा नहीं है जिसमे अन्य भाषाओँ के शब्दों को ग्रहण न किया हो । अंग्रेजी भाषा में ही दस लाख से अधिक शब्द अन्य भाषाओँ के हैं ,पर इससे उसके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं आया । हिंदी के विकास और विस्तार के लिये हमें यह व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा।
आज का युग वैश्वीकरण का युग है। भारत विश्व के विकसित देशों की नजर में एक बड़ा बाजार है । बड़े देशो ने अपने तकनीकी विशेषज्ञों को हिंदी सिखाने की शुरूआत कर दी है जिससे वे यहाँ की भाषा में आम लोगों से संवाद कर अपने उत्पादों को जन -जन तक पहुंचा सकें । जाहिर है ऐसी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं वरन आम लोगों की सहज संवाद की भाषा ही हो सकती है । इससे हिंदी रोटी -रोजी से जुड़ सकती है । ऐसा हो भी रहा है । आर्थिक कारण किसी भी सामाजिक , राजनीतिक परिवर्तन में निर्णायक होते हैं , भाषा का विकास और विस्तार इससे अछूता कैसे रह सकता है ?हिंदी भी इसका अपवाद कैसे हो सकती है ?

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय .... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...

निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.

घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.

ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...

हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.

जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?

इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...

ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.

कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...

अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.

देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...

अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.

हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

10 सितंबर 2010

कविता: जीवन अँगना को महकाया संजीव 'सलिल'

कविता:

जीवन अँगना को महकाया

संजीव 'सलिल'
*
*
जीवन अँगना को महकाया
श्वास-बेल पर खिली कली की
स्नेह-सुरभि ने.
कली हँसी तो फ़ैली खुशबू
स्वर्ग हुआ घर.
कली बने नन्हीं सी गुडिया.
ममता, वात्सल्य की पुडिया.
शुभ्र-नर्म गोला कपास का,
किरण पुंज सोनल उजास का.
उगे कली के हाथ-पैर फिर
उठी, बैठ, गिर, खड़ी हुई वह.
ठुमक-ठुमक छन-छननन-छनछन
अँगना बजी पैंजन प्यारी
दादी-नानी थीं बलिहारी.
*
कली उड़ी फुर्र... बनकर बुलबुल
पा मयूर-पंख हँस-झूमी.
कोमल पद, संकल्प ध्रुव सदृश
नील-गगन को देख मचलती
आभा नभ को नाप रही थी.
नवल पंखुडियाँ ऊगीं खाकी
मुद्रा-छवि थी अब की बाँकी.
थाम हाथ में बड़ी रायफल
कली निशाना साध रही थी.
छननन घुँघरू, धाँय निशाना
ता-ता-थैया, दायें-बायें
लास-हास, संकल्प-शौर्य भी
कली लिख रही नयी कहानी
बहे नर्मदा में ज्यों पानी.
बाधाओं की श्याम शिलाएँ
संगमरमरी शिला सफलता
कोशिश धुंआधार की धरा
संकल्पों का सुदृढ़ किनारा.
*
कली न रुकती,
कली न झुकती,
कली न थकती,
कली न चुकती.
गुप-चुप, गुप-चुप बहती जाती.
नित नव मंजिल गहती जाती.
कली हँसी पुष्पायी आशा.
सफल साधना, फलित प्रार्थना.
विनत वन्दना, अथक अर्चना.
नव निहारिका, तरुण तारिका.
कली नापती नील गगन को.
व्यस्त अनवरत लक्ष्य-चयन में.
माली-मलिन मौन मनायें
कोमल पग में चुभें न काँटें.
दैव सफलता उसको बाँटें.
पुष्पित हो, सुषमा जग देखे
अपनी किस्मत वह खुद लेखे.
******************************
टीप : बेटी तुहिना (हनी) का एन.सी.सी. थल सैनिक कैम्प में चयन होने पर रेल-यात्रा के मध्य १४.९.२००६ को हुई कविता.
------- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

09 सितंबर 2010

जया पाठक की दो कवितायें -- कठिन दिन --- स्वत्व से अभिसार

जया पाठक की दो कवितायें

) कठिन दिन
============

सपनों की नदी
तिरती है पास से
एक कठिन दिन
जलता है
रेत के किनारों पर
आती जाती छुवन लहरों की
अनायास छेड़ती
छोड़ती शैशव के गीले छाप
बढ़ता जलता दिन
वाष्पित कर देता
तुरंत उसे
जैसे लगी हो होड़ कोई
एक तरल
और एक ठोस के होने में
मैं चलता हांफता
जलती रेत पर
गलता हुआ
किनारे वाली नदी
हंसती मुझपर
मैं खड़ा होता
नदी में पाँव धंसा
तो रेत उड़ाती
मज़ाक पौरुष का
हतप्रभ हूँ...
कैसे पाऊं खुद को
कि यह नदी गति है मेरी
और यह तपती रेत
मेरा मार्ग
यह दोनों ही तो हैं केवल
मेरे मनुष्य होने का प्रमाण

सुनो,
तुम्हारे धामों तक क्यों जाना ??
संभव हैं इन से ही
वैतरिणी तक
का संधान !

==============


२) स्वत्व से अभिसार

सखी
मैं गयी थी कल
मिलने उस से
उसकी उंगलियाँ पसीजी सी
खुरदुरे हाथ
पैरों में बिवाय ...
यकीनन वह कुम्हार था...
जाने क्यूँ
अपनी देह
लगी सौंधी, मिट्टी सी....

आज फिर
मिल कर आई हूँ मैं
उस से...
आज उसके हाथ
बडे सख्त थे...
चमड़ी काली हो चली थी...
भट्टी में लोहा गर्माते...
भारी हथौडे की चोट से
बनी लगती है
अटल आस्था मेरी
लोहसाँय सी गंध यह
मुझमें.....

उहूँ....
मन नहीं भरता मेरा
कल फिर जाउंगी
वह मंदिरों में
मूर्तियाँ गढ़ता मिलेगा मुझसे...
उसके थके कंधे-थके हाथ
छेनी हथौड़े से
तराशता मुझे
कर देगा
जड़ से चेतन...

हाँ सखी...
बाम्हन नहीं कर सकेगा
यह दुष्कर....
मुझे मेरे स्वत्व तक
वह कुम्हार,
लोहार...या
मूर्तिकार पंहुचा देगा ...
विशवास है मुझे...

=====================
जया पाठक

07 सितंबर 2010

एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!!


मेरे प्यारे सम्मानीय दोस्तों......
सचमुच मैं ऐसा मानता हूँ कि हमारे देश में कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसके लिए समस्याओं का पहाड़ बना दिया जाए....मगर हम देखते हैं कि ऐसा ही है....और ऐसा देखते वक्त अक्सर मेरी आँखें छलछलाई जाती हैं....मगर शायद मैं भी देश के कतिपय उन कुछ कायर लोगों में से एक हूँ....जो डफली तो बहुत बजाते हैं....मगर उसमें से कोई राग नहीं पैदा होता....और ना ही अपने खोखे से निकल कर किसी चौराहे पर आते हैं कि जिससे कोई आवाज़ कहीं तक भी पहुंचे मगर उफ़ किसी की कोई आवाज़ कहीं तक भी नहीं पहुँचती....अक्सर ऐसा लगता है कि हम पागल कुत्तों की तरह बेकार ही भूंक रहे हैं....क्योंकि जिनको सुनाने के लिए हम भूंके जा रहे हैं...उनके कानों में जूं तो क्या रेंगेगी...शायद उनतक हमारी आवाज़ पहुँचती ही नहीं.....मगर मैं देख रहा हूँ कि कब तक नीरो चैन की बंशी बजाता रहेगा....कब तक हम सोते रहेंगे....मगर दोस्तों इतना तो तय जानिये जिस दिन हमारी आँख खुलेगी....उस दिन इन नीरों को अपनी बंशी छोड़कर घुटनों के बल चलकर हम तक आना होगा....और देखिये कि कब तक हम इस कुंभकर्णी नींद में सोये रहते हैं....!!!!बाकी आपके द्वारा इस नाचीज़ के विचारों को सम्मान दिए जाने पर मैं अभिभूत हूँ....आप विचार का सम्मान अब तक करते हो...तो इतना तो जाहिर है कि लौ अभी बुझी नहीं है....बस उसे थोड़ा हवा दिए जाने की जरुरत है....और बस.....आग लग जानी है....इस सिलसिले में मैं अपना यह आलेख भी आप तक पहुंचा रहा हूँ....!!
                                        एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!
क्यूं सरकार बनाना चाहते हैं आप सरकार.....??
                         ....हे सरकार बनाने वालों....इधर देख रहा हूं कि बडी छ्टफटी लगी हुई है आप सबको सरकार बनाने की,क्यूं माई बाप ऐसी भी क्या हड्बडी हो गयी है अचानक आप सबको...कि आव-न-देखा ताव...वाली धून में आप सब सरकार बनाने को व्याकुल हो रहे हो,यहां तक किसी अंधे को भी आप सबों की यह व्यग्रता दिखाई पड रही है.किसी को समझ ही नहीं आ रहा है कि यकायक ऐसा क्या घट गया कि आप सब ऐसे बावले हुए जा रहे हो सरकार बनाने के लिये....लेकिन हां,कुछ-कुछ तो हम सब्को समझ आ ही रहा है कि यह सब क्यूं हो रहा है...!!
             आप सब पर शायद आप सबके द्वारा किए गये घोटालों की तलवार लटक रही है ना शायद....आप सब वही है ना जो अभी से दस साल पहले से लेकर अभी कुछ दिनों पूर्व तक एक-एक कर बने दलीय या निर्दलीय मुख्यमंत्री थे..और उस दौरान आप और आपके साथियों ने क्या-क्या गुल-गपाडा किया था क्या आप सब उस सबको भूल गये...या आप चाहते हैं कि जनता उसे भूल जाये ...!!हा....हा....हा....हा....हा....मैं भी क्या-क्या बके जा रहा हूं....जनता तो वैसे ही सब कुछ भूल जाती है....तभी तो बार-बार आप सबों से धोखा खाने के बावजूद बार-बार आप सबमें से उलट-पुलट कर फिर-फिर से उन्हीं कुछ लोगों को वापस वहीं भेज देती है,जहां से अभी-अभी कुछ दिनों पहले ही लुट-पिट कर आयी थी....पता नहीं क्यों भारत की जनता के दिल में विश्वास नाम की चीज़ जाने किस अकूत मात्रा में ठूस-ठूस कर भरी हुई है कि साला खत्म ही नहीं होने को आता....और इसी के चलते पिछली बार ही चुनाव में हारा व्यक्ति इस बार फिर से जीत कर ठसके से संसद या विधान-सभा में जा पहुंचता है...और किसी की आंखे भी नहीं फटती...!!
                         पता नहीं क्यों यह कुडमगज जनता ऐसा क्यों सोचती है कि इस बार यह आदमी सुधर गया होगा....इस बार "सार" ई बबुआ सुधरिए गया होगा....और सत्ता के खेल के पिछ्वाडे में फिर से वही कुचक्र रचा जाने लगता है...फिर से राज्य-देश और संविधान के "पिछ्वाडे" में लातें जमायी जाने लगती हैं...और किसी भी माई के लाल को कभी भी यह अहसास नहीं हो पाता कि वह भी इसी मिट्टी की संतान है....और अभी कुछ दिनों पहले वह भी यहां के स्थानीय लोगों के साथ...जनम-जनम के साथ की तरह रहा करता था....यहीं की बोली-चाली में रचा-पगा वह यहीं के लोगों के साथ यहीं के वार-त्योहार मनाता था और यहीं के लोगों के दुख-दर्द-हारी-बीमारी-पीडा-म्रत्यु आदि में शरीक हुआ करता था...ऐसा लगता है कि राजनीति को उसने अपने "लिफ़्ट" कराने भर की सीढी मात्र बनाया हुआ था...और लिफ़्ट होते ही उसका इस परिवेश से-इस वातावरण से-इस सहभागिता से नाता ही टूट गया...किसी नयी दुल्हन बनी  लड्की की तरह...जैसे एक लडकी अपनी शादी के तुरंत पश्चात अपने पति के घर के नये वातावरण- नये परिवेश के अनुसार खुद को ढाल लेती है यहां तक कि थोडे ही दिनों में अपने बाबुल के घर कभी-कभार आने के अलावा सभी नातों से विरक्त हो जाती है...आप सब भी हे सरकार बनाने वालों शायद ठीक वैसे ही लगते हो मुझे....लेकिन दुल्हन का यह जो उदाहरण दिया है मैंने,यह अधुरा है अभी क्योंकि पूरी बात तो यह है कि यह दुल्हन ज्यादातर अपने घर को बनाती है,इसकी रखवाली करती है....इसके वंश को बढाती है....वंशजों को पालती है-पोषती है,उनकी रखवाली करती है...अपना खून भी देना पडे तो देकर उस घर की रक्षा करती है...!!
                             तुम जरा सोचो ओ सरकार बनाने वालों कि यदि यह दुल्हन अगर तुम्हारी तरह हरामखोर या विभीषण हो जाए तब....!!तब क्या होगा...??अरे होगा क्या....तुम्हारी संताने नाजायज होंगी और तुम्हे पता भी नहीं होगा....!!तुम्हारे सच्चे वंश का भी तुम्हे पता ना होगा....क्या तुमने कभी सपने में भी यह सोचा या चाहा है कि तुम्हारे घर में कभी ऐसा हो...तुम्हारी दुल्हन कोई वेश्या या दुश्चचरित्र हो....!!...अगर नहीं...तो ओ सरकार बनाने वालों....तुम अपने राज्य या देश रूपी घर के लिए ऐसा क्यूं और कैसे सोचा करते हो....और दिन-रात...अपने देश और राज्य के प्रति दुश्च्रित्रिय आचरण कैसे किया करते हो...??क्या तुम्हें इस बात का कोई भान भी है कि इसका असर तुम्हारे खुद के वंशजों पर क्या पडेगा....कभी तुमने ऐसा सोचकर देखा भी है कि कल को तुम्हारे बच्चे किसी स्कूल में पढ रहे हों या सडक पर कहीं जा रहे हों और उनके पीछे अचानक यह जुमला उनके कानों में आ पडे..."देखो हरामखोर की औलाद....!!""देखो वो जा रही उस साले हरामजादे की बेटी,पता है इसकी मां....!!""वो देखो...वो देखो क्या पहलवान बना फिर रहा साला....साला मर्सिडीज बेंज दिखाता है....बाप की हराम की कमाई...!!"
                लेकिन ये जुमले तो बडे साधारण हैं...आप कल्पना करो कि कैसे-कैसे और कितने-कितने गन्दे जुमले तुम्हारे बच्चे-बच्चियों के लिए सरे-राह,सरे-आम और किस टोन में इस्तेमाल किए जा सकते हैं...!!और तुम्हारी खून और वीर्य से उत्पन्न वो सन्तानें किस कदर शर्म से पानी-पानी हो सकती हैं....दोस्तों...जरा यह भी सोचो कि ऐसे वक्त उन पर क्या गुजरेगी,सो कोल्ड जिनके लिए-जिनकी खुशी के लिए तुम सब इन गन्दे कार्यों को अंजाम दे रहे हो.....!!!   
                             तुम सब अगर अपने लिए और अपने बच्चों के लिए उज्जवल और प्यारा भविष्य चाहते हो तो अपने राज्य-अपने देश को अपने माँ-बात की तरह इज्ज़त दो सम्मान दो....इसके निवासियों का हक़ लूटने के बजाय इनकी सच्ची रहनुमाई करो...इनकी खातिर और इनके हक़ का कार्य करो....अरे पागलों पैसा तो तब भी तुम्हारे हाथ पर्याप्त आ जाएगा....तुम क्यों हाय-पैसा--हाय पैसा किए जाते हो...क्यूँ नहीं समझते कि ये पैसा तुम्हारे भविष्य का कटु अन्धकार है...और तुम्हारी संतानों के लिए घोर श्रम से डूब मरने का एक साधन...अगर तुम्हें अपने आने वाले भविष्य के लिए गदगी ही छोडनी है तब तो कुछ कहा और किया नहीं जा सकता...मगर अगर सच में तुम्हें देश में पीडी-दर-पीडी अमर होना है और वो भी अपने नाम की सुन्दरता के रूप में तो मेरे अनाम भाईयों ओ सरकार बनाने वालों,अपने शौर्य को राज्य और देश की बेहतरी की खातिर खर्च करो....और देखना अगर तुम स्वर्ग के आसमान देख पाए तो,कि तुम्हारी संतानें तुम्हारे नाम पर क्या गर्वोन्मत्त जीवन जी पा रही है.....और सर उठाकर सबसे कहे जा रही कि हाँ....देखो यह हमारे पापा ने किया था.....देखो ये काम मेरे दादाजी ने किया था....!!!!

06 सितंबर 2010

"lafz" ke sampaadak ke bahaane aap sabko ek paigam....!!!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

आदरणीय विनय कृष्ण उर्फ़ तुफ़ैल जी,
                               राम-राम
               अभी-अभी मेरी आजीवन सदस्यता वाली "लफ़्जका सितम्बर-नवम्बर २०१० का अंक पढ रहा था पेज बारह पर छ्पे श्री शंकर शरण जी के आलेख "माओवाद का अंधगानके मूल स्वर से यूं तो मैं सर्वथा सहमत हूं,मगर कुछ बातें जो मैं अपने चालीस-इकतालीस वर्षीय जीवन में समझ बूझ कर जीवन के प्रति कुछ ठोस समझ विकसित कर पाया हूं,उस समझ के अनुसार कुछ बातें कहने से खुद को मैं रोक नहीं पा रहा हूं,और आशा है कि ये बातें आपको मेरी गज़लों की तरह कूडा ना लगें.उपरोक्त आलेख के छ्ठे पैरे के एक वाक्यांश पर आता हूं,जो इस प्रकार उद्त है (अरुंधति के शब्दों में)
"....लोकतंत्र तो मुखौटा है,वास्तव में भारत एक ’अपर कास्ट हिन्दू-स्टेट है,चाहे कोई भी दल सता में होइसने मुसलमानों,ईसाइयों,सिखों, कम्युनिस्टों,दलितोंआदिवासियों और गरीबों के विरूद्द युद्ध छेड रखा है,जो उसके फ़ेंके गये टुकडों को स्वीकार करने के बजाय उस पर प्रश्न उठाते हैं..." उसके बाद के अगले पैरे में शंकर जी खुद कहते हैं कि यही पूरे लेख की केन्द्रीय प्रस्थापना है,जिसे जमाने के लिए अरुंधती ने हर तरह के आरोप,झूठ,अर्द्धसत्य घोषनाओं और भावूक लफ़्फ़ाजियों का उपयोग किया है..............."
               कभी-कभी जब हम एक ही विषय पर दो अलग-अलग तरह की बातें देखते-पढते या सुनते हैं तो अक्सर एक ही बात होती है,वो यह कि हम एक को लगभग बिना किसी मीन-मेख के स्वीकार कर लेते हैं और हमारे ऐसा करते ही वह दूसरी बात हमारे द्वारा एकदम से दरकिनार कर दी जाती है,मतलब यह कि यह भी अनजाने में तय हो जाता है कि उस दूसरी बात में कोई "सारही नहीं था,जबकि अक्सर हमारा ऐसा करना गलत ही साबित होता आया है.मैं पहले ही बता चुका हूं कि उपरोक्त लेख से मैं लगभग सहमत हूं,फिर भी अगर मैं कुछ कहना चाह रहा हूं,तो क्यों ना इसे थोडा समझ लिया जाए.
              अरुंधति के समुचे आलेख या किताब से पूरा विरोध प्रकट करते हुए भी एक बात जो है,वो हमारे जीवन में हमारे होश सम्भालते ही बार-बार हमारे सम्मुख आती है,वो यह कि हमारे खुद के जीवन में हमारे द्वारा नीची जातियों,गरीब लोगों,कमजोर लोगों के साथ किया जाने वाला कटु (कुटिल भी कहूँ क्या ??) "उल्लेखनीयव्यवहार....!!क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि घर के अन्दर नौकरों,दुकान पर स्टाफ़ों और आफ़िस में तमाम तरह के कर्मचारियों के साथ हमारा व्यवहार किस कदर "रिजिडहोता है,किसी भी खास किस्म की बात पर हम तरह-तरह के वर्गों,लोगोंसमूहों के लिए किस तरह की शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं,गुस्सा होने पर हम किस तरह से अपने सामने वाले "छोटे"कद के व्यक्ति का अपमान करते हैं और इस तरह के उदाहरणों में किन प्यारे-प्यारे शब्दों को अपने सभ्य,सु-संस्कृत,पढे-लिखे मुखमंडल से अपनी मीठी वाणी में किस प्रकार उच्चारित करते हैं.....??यह भूमिका आपको शायद मूल विषय से भटकती हुई लग रही होगी,मगर तुफ़ैल साहब ऐसा बिल्कुल भी नहीं है,बल्कि यह हमारे स्वभाव के "मूलरूपको दर्शाने और विषय को अपने पूरे वजूद के साथ प्रकट के उद्देश्य के रूप में है.
              क्या संविधानिक प्रस्थापनाओं से इतर भारत अपने मूल रूप में "अपर-कास्टरिजिड लोगों और खासकर ब्राह्मण लोगों के द्वारा के द्वारा संचालित नहीं है??जितना कि मैं जानता हूं,इसी इतिहास को पढकर,जो आपने-सबने पढा है,भारत अंग्रेजों के समय से बेशक अंग्रेजों का गुलाम था मगर उसके द्वारा किए जा रहे शासन की डोर भारत के इसी अपर कास्ट के हाथ में नहीं थी??,क्युंकि उस वक्त पढा-लिखा वर्ग यही हुआ करता था...??क्या अपनी रायबहादूरी,अंग्रेजों के प्रति अपनी स्वामी-भक्ति और अपने जीवन की ऐश-मौज को बनाए रखने के लिए क्या इसी वर्ग ने वाया ब्रिटिश सरकार,भारत के प्रति गद्दारी नहीं की थी...??राजपूतों(मैं खुद भी यही हूं)की आपसी रंजिश,ब्राहमणों के भयंकर एवं भगवान से भी ज्यादा ठसक वाले अहम के कारण ही क्या यह करोडों लोगों की आबादी वाला देश बेवजह ही सदियों तक थोडे से लोगों का गुलाम नहीं बना रहा....??और बीच-बीच में होने वाले आन्दोलनों की हवा इन्ही गद्दारों की वजह से नहीं निकली...??
                जी हां-जी हां मूल विषय पर  रहा हूं मैं....इन भूमिकाओं के मद्देनज़र अब मैं आप सबसे यह पूछना चाहता हूं कि इन स्थितियों में आज भी भला कहां और कौन-सा फ़र्क पैदा हो पाया है...और क्या आज भी यह "अपर-कास्ट" जरा भी बदल पायी है...??यह भारत में तमाम जगह पर जाकर निजी बातचीत कर के जाना जा सकता है कि हम आज भी किसी खास वर्ग,व्यक्ति या समूह के प्रति क्या राय रखते हैं और यही नहीं,अपनी उस राय को आज भी किन "संसदीय" शब्दों में व्यक्त करते हैं....!!अगर आप मेरे द्वारा उठाये गये इस प्रश्न की तह में जाने का रत्ती भर भी प्रयास करेंगे तो शायद आपकी आंखे भक्क रह जाएंगी...और दिमाग पागल....कि आज जिस युग में हम रह रहे हैं...उसमें इस तरह के विचारों और एक-दूसरे के प्रति इस तरह की राय को कायम रखते हुए कैसे एक-साथ रहा जा सकता है या कि कैसे एक साथ कार्य किया जा सकता है...??अगर तब भी यह हो रहा है तो यहां मैं यह जोडना चाहुंगा कि यह समय की मजबूरी भी है और साथ हमारे सभ्य होने का ढोंग भीकि कैसे हम अपने बाबा आदम जमाने के विचारों के बनाये रख आज के समय के साथ चलने का नाटक करते हैं और यह बात हमारे एक बेहतरीन-कुशल अभिनेता होने का परिचायक भी तो है..यह सब कहते हुए मैं अरुन्धति जी के विरोध में रहते हुए भी उनके इस वाक्यांश का अन्ध-समर्थक हूं हालांकि अरुन्धति जी ने ये ना भी कहा होता तो मैं सबके प्रति,हमारे और अपने प्रति भी यह अकाट्य राय रखता हूं कि हम "अपर-कास्ट" के लोग..........(भारत की तमाम संवैधानिक बाध्यताओं से परे हैं और अपनी तमाम मान्यताओं को कभी ना बदलने का संवैधानिक अधिकार कायम रखते हुए कुछेक लोगों के प्रति अपनी दुर्भावना को सदा कायम रखेंगे!!)........!!बाकि का आप खुद ही समझ लें(और पाठक तो वैसे भी काफ़ी समझदार हैं,कम-से-कम लफ़्ज़ जैसी पुस्तकों के रसिकगण....)
           मूल बात यह है कि व्यापारी,या ज्यादा सही शब्दों में कहूं तो बनिया बुद्धि के हम ज्यादातर "अपर-कासटीय" लोगों ने देश का जितना विकास नहीं किया है उससे कहीं बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना हित-स्वार्थ ही साधा है....और इसके लिए हमने गरीब-कमज़ोर और छोटी जाति के  लोगों का सदा शोषण किया है....देश का विकास जो आज दिखायी पडता है क्या वो सचमुच देश का ही विकास है...??हमारे चारों ओर जो चकाचौंध दिखलाई पडती है क्या यह देश के विकास की ही चकाचौंध है....??अरे किसी मुहल्ले में भले चारों ओर गरीबों के पेट से हाय-हाय उठ रही हो....क्या उसकी आवाज़ सुनाई पड्ती है...??मगर किसी एक सेठ के घर में होने वाली पार्टी का शोर-शराबा और उसके जायकेदार भोजन की महक तो दूर-दूर तक जाती है...जाती है ना...??(बात निकलेगी तो फिर दूर............तलक जाएगी....!!)अब इसे आप देश का विकास कहिए कि निजी विकास कहिए कि क्या कहिए....सो आप जाने....!!
                     मूल बात तो यह है कि भले आप पढे-लिखे हों...आप हावार्ड में पढ्कर आये हुए हों कि आस्ट्रेलिया कि कहीं और से...भले आपके पास इतना अथाह पैसा हो कि आप सबको खरीद सकते हों....और आप किसी खास जगह पर ही कारखाना लगाना चाहते हों...और सरकारें आपके लिए "सेजसजाने के लिए ना जाने कितनी ही "चिता"को आग लगाने को तैयार बैठी हो.....मगर उन गरीबों ने,उन आदिवासियों ने आपका क्या बिगाडा है,जो कम पढे-लिखे है,या कि निरक्षर हैं,या कि भोले-भाले हैं और आपके अनुसार विकास-विरोधी और इस नाते देश-विरोधी कि जिनके खेतों की उपजाऊ उस जमीन,जो बाबा आदम जमाने से आपको रोटी उपजा कर देती आयी है...और अनन्त काल तक आपके लिए वह रोटी उपजाती ही रहेगी...!!,का ही हरण क्यों करना चाहते हैं...??आपने आज तक कितने लोगों को उनकी जमीन,मतलब उनकी रोटी,घर और जीवन की सुरक्षा को छीन कर उसका उचित मुआवजा दिया है...??देश को विकास की चकाचौंध का दिवा-स्वप्न दिखाने वाले आप थोडे-से लोग क्या सचमुच देश के विकास की ही इच्छा रखते हो,या सिर्फ़ अपना महल खडा करना चाहते हो,क्या किसी से छुपा भी हुआ है....??
          मूल बात यह है कि किसी बात का विरोधी होते हुए भी हमें इस बात का ख्याल रखना अत्यन्त जरूरी है कि हमारा विरोधी क्या सचमुच व्यर्थ ही विरोध कर रहा है कि उसके विरोध में कोई सार भी है....!!भारत के संविधान के विरोध करने वाली नक्सली बातों का विरोध करने वाले हम खुद कदम-कदम पर क्या कर रहे हैं और करते हैं...??क्या हम अपनी सोच...अपनी कार्य शैली ,अपने कार्यों और अपने "अपर-कास्टिय" अहंकार भरे व्यवहार के कारण हरेक पल संविधान विरोधी कार्य नहीं करते....??देश के विकास के नाम पर सिर्फ़ अपना हित साधना और राजनीतिक लोगों के स्वार्थों की पुर्ति करना और इसके लिए किसी भी हद तक जाकर अपने ही देश के गरीब लोगों का जर-जोरू-जमीन छीन लेना क्या संविधान-सम्मत है....??और अगर हमारे द्वारा तमाम जीवन ऐसे ही कृत्य किए जाने फल्स्वरूप अगर कोई व्यक्ति-समूह या वर्ग नक्सली या व्यवस्था विरोधी बन जाता है तो यह कसूर किसका है.....उसका या हमारा.....और हमारी थैली के चट्टे-बट्टों का.....??
          और अंत में मूल बात यह है कि देश का भला सोचने वाले हम.....संविधान नामक चीज़ की बडी-बडी बातें करने वाले हम......प्रशासन नाम की किसी चीज़ के होते हुए भी हमारे बीच से उसके बिल्कुल नदारद रहने के कारण सदा उसे बस आपस में ही पानी पी-पीकर कोसने वाले हम....यदि वास्तव में खुद चरित्रवान होकर अपने कायराना चरित्र को त्याग कर सत्ता-विरोधी सूरों के साथ अपना सूर मिला लें तो वास्तव में देश की तमाम सत्ताओं का सूर और चरित्र बदल सकता है....और तब वास्तव में देश की खुशहाली सबके लिए मौजूं हो सकती है....सब लोग तंत्र में शरीक हो सकते हैं...वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों....का वास्तव अर्थ ध्वनित हो सकता है.....और तब सच बताऊं....!!कोई गलती से भी नक्सली नहीं बन सकता..!!