22 नवंबर 2010

गीत: स्वीकार है..... संजीव 'सलिल'

गीत:

स्वीकार है.....

संजीव 'सलिल'
*
दैव! जब जैसा करोगे
सब मुझे स्वीकार है.....
*
सृष्टिकर्ता!
तुम्हीं ने तन-मन सृजा,
शत-शत नमन.
शब्द, अक्षर, लिपि, कलमदाता
नमन शंकर-सुवन
वाग्देवी शारदा माँ! शक्ति दें
हो शुभ सृजन.
लगन-निष्ठा, परिश्रम पाथेय
प्रभु-उपहार है.....
*
जो अगम है, वह सुगम हो
यही अपनी चाहना.
जो रहा अज्ञेय, वह हो ज्ञेय
इतनी कामना.
मलिन ना हों रहें निर्मल
तन, वचन, मन, भावना.
शुभ-अशुभ, सुख-दुःख मिला जो
वही अंगीकार है.....
*
धूप हो या छाँव दोनों में
तुम्हारी छवि दिखी.
जो उदय हो-अस्त हो, यह
नियति भी तुमने लिखी.
नयन मूदें तो दिखी, खोले नयन
छवि अनदिखी.
अजब फितरत, मिला नफरत में
'सलिल' को प्यार है.....
*****

21 नवंबर 2010

जोगेन्द्र सिंह की कविता -- कुहुक

कुहुक

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गूँज उठी

चिर प्रतीक्षित कुहुक ...

घुल गया शहद -सा ..

हूँ ..! पहचाना स्वाद !

या कोई फंतासी मन की ?

याद है अपना बचपन मुझे ....

तब तुम कोलरिज की कुबलाई खान थीं ....!

थीं एक जीती-जागती अमराई के

स्वादु आम की

पकी मिठास !

डाली-डाली

फुदक-फुदक

करतीं संगीत समारोह ...

जाने कितनी रामलीलाएं भी फीकी थीं !

फिर पाना हमारी प्रशंसा ..

और गर्विता का

मंद होते नीलाभ आकाश से

धूप की नमी बीच

कहीं सांध्य के झुरमुट से

दीठना ..

और एक ठुमके के साथ

कुहू-कुहू की डोर में बंधी पतंग का

आकाश में उड़ना ....

मैं भी उड़ जाता संग तुम्हारे ...!

सुधियों के झरोखे से

कुछ कनखियाँ लगाते

देखता हूँ खुद को ...

दो फुटी ऊंची मेड

कंधे तक आती कनक बालियाँ ..

रहट की घर्र-घर्र ...

और अचानक सर्र से गुज़र जाना

तुम्हारे संगीत का ..!

पर अब ?

तुम फंतासी हो ..

और मैं कठोर ज़मीन से चिपका

यथार्थ !

सोचता हूँ -

किस शहर

किस गाँव मिलोगी ...

या बिन मिले कुहुक के

कैसे पकेंगे आम ...

बेस्वाद ...हैं ...

मुँह को

कसैलेपन की आदत हो गयी है ....!

जोगेंद्र सिंह

20 नवंबर 2010

जोगेन्द्र सिंह की कविता -- बूढ़ा हूँ , पर अकेला नहीं

बूढ़ा हूँ , पर अकेला नहीं
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दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l

अपने ही दायरों में
दिनभर सिमटते वृक्ष ...
अब सांझ के आँचल तले
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं ...l
चहचहाते कलरव करते खग ..
गर्दभ ध्वनि से भयभीत शावक ...
आगोश नहीं , पर लगता आगोश -सा ..
खागी का स्नेह भरा आभास चूज़ों से ...l

एक ओर खड़ा सब देख रहा हूँ ...
मुझ पर भी चढ़ा था कभी यह रंग ...
प्रकृति संग .. किया था रमण मैंने भी ..
अब जान पड़ता सब आघात सा ..l
ज़रिये जो थे वायस मेरी खुशियों के ..
चुभते हैं ह्रदय में अब ..
उन्हीं के होने से तीखे शूल से l
नज़ारे पहले भी थे ... मेरे चरों ओर ...
कुछ नहीं बदला ...
आलम अब भी वही है ...
गर कुछ बदला है ..
तो वह है अहसासात मेरे ...
न था कभी ...पर अब अकेला हूँ ...
निस्सहाय अब मौन खड़ा हूँ ..
सूख गयी है काया ..
मुक्त बंधन हो रह गया अकेला ...l
जर्जर काया में रमती जान ..
हाँ, अब बूढ़ा हूँ मैं ...
एक कमरे वाली छत ..
अब चूने लगी है .. बारिश के मौसम में ..l
उमड़-घुमड़ रही हैं अतीत की यादें ..
किसी कोने में पड़े... जर्जर मेरे मन में ..
जितने भी कहते मेरे अपने हैं ..
हैं नहीं....थे हो गए अब वो ...
पड़ा हूँ पीछे मर-खप जाने को ...l
दृश्य वही हैं ..सौन्दर्य वही हैं ...
बदल चुका मन अब वो मोह नहीं है ...
फिर से ...
दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l

स्वयं को खोकर स्वयं में खोजता ...
निर्निमेष निहारता ... बदस्तूर इन दृश्यों को ...
कि अब मैं अकेला हूँ .... निपट अकेला ..l
जुड़ने लगा है नाता ... टपकती बूंदों से ..
खटकते नहीं अब फूटे भांडे ...
दीमक लगी लकड़ी की खूँटी ....
संभालती है जो फटे कुरते को ...
अपनी सी अब लगने लगी है ..l
सालती थी जो बात अब तक ...
अपनी बन , नया नाता गढ़ने लगी है ..
शायद कभी अकेला था ही नहीं ..
इन्हें जान भर लेने की देरी थी ...l
निर्जीव नए संसार के साथ ...
हाँ, बूढ़ा हूँ ; पर अकेला नहीं ..
हाँ, अब मैं अकेला नहीं हूँ ....


जोगेंद्र सिंह
मुंबई

18 नवंबर 2010

डॉ0 महेन्द्र भटनागर की कविता -- ज़िन्दगी की शाम


ज़िन्दगी की शाम

[महेंद्रभटनागर]

यह उदासी से भरी मजबूर, बोझिल

ज़िन्दगी की शाम !

अपमानित, दुखी, बेचैन युग-उर की

तड़पती ज़िन्दगी की शाम !

मटमैले, तिमिर-आच्छन्न, धूमिल

नीलवर्णी क्षितिज पर

आहत, करुण, घायल, शिथिल

टूटे हुए कुछ पक्षियों के पंख प्रतिपल फड़फड़ाते !

नापते सीमा गगन की दूर,

जिनका हो गया तन चूर !

धुँधला चाँद शोभाहीन

कुछ सकुचा हुआ-सा झाँकता है,

हो गया मुखड़ा धरा को देखकर फीका,

सफ़ेदी से गया बीता,

कि हो आलोक से रीता !

गया रुक एक क्षण को राह में

सिर धुन पवन !

सम्मुख धरा पर देख जर्जर फूस की कुटियाँ

पड़ीं जो तोड़ती-सी दम,

घिरा जिनमें युगों का सघन-तम !

और जिनमें

हाँफ़ती-सी, टूटती-सी साँस का साथी

पड़ा है हड्डियों का ढेर-सा मानव,

बना शव !

मौनता जिसकी अखंडित,

धड़कता दुर्बल हृदय

अन्याय-अत्याचार के अगणित प्रहारों से दमित !

अभिशाप-ज्वाला का जला,

निर्मम व्यथा से जो दला

जिसको सदा मृत-नाश का परिचय मिला !

जो दुर्दशा का पात्र,

भागी कटु हलाहल-घूँट जीवन का,

मरण-अभिसार का

निर्जन भयानक पंथ का राही

थका, प्यासा, बुभुक्षित !

कह रहा है सृष्टि का कण-कण

मनुजता का पतन !

असहाय हो निरुपाय मानवता गिरी,

अवसाद के काले घने

अवसान को देते निमंत्रण

बादलों में मनु-मनुजता आ घिरी !

उद्यत हुआ मानव

बिना संकोच, जोकों-सा बना,

मानव रुधिर का पान करने !

क्रूरतम तसवीर है,

है क्रूरतम जिसकी हँसी

विष की बुझी !

पर, दब सकी क्या मुक्त मानवता ?

सजग जीवन सबल ?

यह दानवी-पंजा अभी पल में झुकेगा,

और मुड़ कर टूट जाएगा !

मनुजता क्रुद्ध हो जब उठ खड़ी होगी

दबा देगी गला

चाहे बना हो तेज़ छुरियों से !

सबल हुंकार से उसकी

सजग हो डोल जाएगी धरा,

जिस पर बना है

भव्य, वैभव-पूर्ण इकतरफ़ा महल

(पर, क्षीण, जर्जर और मरणोन्मुख !)

अभी लुंठित दिखेगा,

और हर पत्थर चटख कर

ध्वंस, बर्बरता, विषमता की कथा

युग को सुनाएगा !

जलियानवाला-बाग़-सम मृत-आत्माओं की

धरा पर लोटती है आबरू फिर;

क्योंकि गोली से भयंकर

फाड़ डाले हैं चरण

दृढ़ स्वाभिमानी शीश, उन्नत माथ !

जिन पर छा गयी

सर्वस्व के उत्सर्ग की अद्भुत शहीदी आग,

उसमें भस्म होगा, ध्वस्त होगा राज तेरा

ज़ुल्म का, अन्याय का पर्याय !

पर, यह ज़िन्दगी की शाम

अगणित अश्रु-मुक्ताओं भरी,

मानों कि जग-मुख पर गये छा ओस के कण !

चाहिए दिनकर कि जो आकर सुखा दे

पोंछ ले सारे अवनि के प्यार से आँसू सजल !

जिससे खिले भू त्रस्त

जीवन की चमक लेकर,

चमक ऐसी कि जिससे प्रज्वलित हों सब दिशाएँ,

जागरण हो,

जन-समुन्दर हर्ष-लहरों से सिहर कर गा उठे

अभिनव प्रभाती गान,

वेदों की ऋचाओं के सदृश !

बज उठे युग-मन मधुर वीणा

जिसे सुन, जग उठें सोयी हुईं जन-आत्माएँ !

और कवि का गीत

जीवन-कर्म की दृढ़ प्रेरणा दे,

प्राण को नव-शक्ति नूतन चेतना दे !

¤

17 नवंबर 2010

जब कुछ नहीं बोलती स्त्री......!!


जब कुछ नहीं बोलती स्त्री
तब सबसे ज्यादा बोलती हुई कैसे लगती है !
जब गुनगुनाती है वो अपने ही घर में
तब सारी दिशाएं गाती हुईं कैसे लगती हैं भला !
जब आईने में देखती है वो अपने-आपको
तो चिड़िया सी फुदकती है उसके सीने में !
बच्चों के साथ लाड करती हुई स्त्री
दुनिया की सबसे अनमोल सौगात है जैसे !
जब कभी वो तुम्हें देखती है अपनी गहरी आँखों से
तुम सकपका जाते हो ना कहीं अपने-आप से !!
स्त्री ब्रह्माण्ड की वो सबसे अजब जीव है
जिसकी जरुरत तुम्हें ही सबसे ज्यादा है !
और गज़ब तो यह कि -
तुम उसे वस्तु ही बनाए रखना चाहते हो
मगर यह तो सोचो ओ पागलों
कि कोई वस्तु कैसी भी सुन्दर क्यूँ ना हो
सजीव तो नहीं होती ना....!!
जगत की इस अद्भुत रचना को
इसकी अपनी तरह से सब कुछ रचने दो !
कि सजीव धरती ही बना सकती है
तुम्हारे जीवन को हरा-भरा !
और सच मानो -
स्त्री ही है वो अद्भुत वसुंधरा !!

14 नवंबर 2010

दिव्या गुप्ता जैन का बाल दिवस पर विशेष आलेख -- खो ना जाएँ ये तारे जमीन पे

खो ना जाये ये तारे जमीं पे
दिव्या गुप्ता जैन

आज सभी बच्चे बहुत उत्साहित है की वे अपने स्कूल में बाल दिवस मनाएंगे औरअच्छे-अच्छे उपहार पाएंगे! नाचेंगे गायेंगे और ढेर सारी मस्ती करेंगे! कितनी प्यारी तस्वीर हैं ना! पर हमारें देश में बहुत सारे बच्चें हैं जो स्कूल नहीं जाते काम पर जाते है! हम सब हमेशा गपशप के दौरान अपने बचपन और स्कूल की ढेर सारी बातें करते है! पर नन्हे-मुन्नों का क्या जिन्हें या तो स्कूल नसीब नहीं होता और होता भी है तो ऐसा जहाँ उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती!

केंद्र सरकार ने मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू तो करवा दिया पर पर ये कानून हमारें सभी नन्हे-मुन्नों का भविष्य सवारने के लिए नाकाफी है! इस कानून में भी बहुत सारे बदलाव की जरूरत है! जैसे कि "पैरा शिक्षक" (जैसे संबिदा शिक्षक, अथिति शिक्षक,गुरूजी, शिक्षामित्र आदि) लगाने पर रोक नहीं है! इसी कारण सरकारी व सस्ते निजी स्कूल में पढाई आज भी रामभरोसे चलती है!

कानून में शिक्षकों का न्यूनतम वेतन इतना कम रक्खा गया है की सरकारी स्कूल में पैरा शिक्षक और निजी में अयोग्य शिक्षक जारी रहेंगे! सरकारी शिक्षकों की चुनाव और जनगणना के काम में रोक नहीं लगाई गई! यानि मास्टरसाहब घूमेंगे गावं और बच्चें उनकी बाट जोहेंगे! कानून में निजी विद्यालयों की फीस बढ़ाने पर कोई रोक नहीं लगाई है! तो गरीब बच्चे बड़े स्कूल को देख तो सकते पर उसके अन्दर जाने की हिम्मत नहीं कर सकते!

एक अध्ययन के दौरान यह पता चला कि मलिन बस्ती में रहने वाले प्राथमिक स्तर पर शिक्षित अभिभावकों के बीस प्रतिशत बच्चे निरक्षर हैं। ऐसे परिवारों में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने जाने वाले बच्चों की संख्या 30.58 फीसदी है। इनमें 14.32 प्रतिशत लड़के और 16.26 प्रतिशत लड़कियां हैं। जाहिर है कि यहां पर छात्रओं की संख्या छात्रें से अधिक है। जबकि पढ़ाई छोड़ने वाले कुल 15.53 प्रतिशत बच्चों में से बालकों का प्रतिशत 10.43 हैं। वहीं दूसरी तरफ बालिकाओं का प्रतिशत 5.09 है।

कितना मजेदार हो अगर चुनाव आयोग वोटिंग मशीन में चुनाव चिन्ह हटा केसिर्फ उमीदवार का नाम लिखने का नियम लागु कर दे! तो सारे नेता अपना काम छोड़ कर जनता तो पढ़ाने-लिखाने में जुट जाएँ! और वो सारे स्कूल की फीस माफ़ करा देंगे! और हमारे चंदू, छोटू, दीपू, गायत्री, बड़की, रज्जो सब कचरा बीनना और बर्तन साफ़ करना छोड़ कर कहेंगे "स्कूल चले हम"!
आईये हम सब मिलकर प्रयास करें की हमारें सभी नन्हे-मुन्ने पढ़े-लिखे और जीवन मैं बहुत आगे बढे!
- दिव्या गुप्ता जैन

09 नवंबर 2010

महाशक्ति की याचना



अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा ऐतिहासिक रही। मुंबई आते ही उन्होंने भारत की गौरव गाथा का गुणगान किया ।आतंकवाद (२६/11) का सामना करने में मुंबई की जनता की भूमिका सराहना की । गाँधी जी को अपना प्रेरणाश्रोत बताते हुए उनसे सम्बंधित संग्रहालयों का दौरा किया । भारतीय उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए भारत की प्रगति का बखान किया .उसकी अर्थव्यवस्था की प्रशंसा की । झोली फैला कर अपने देश में पूंजीनिवेश का अनुरोध किया जिससे अमेरिकनों को नौकरियाँ उपलब्ध हो सकें । बड़े ही सहज भाव से बच्चों के साथ घुले मिले। पत्नी मिशेल के साथ बच्चों के बीच डांस किया । छात्रों के साथ संवाद कर उनके प्रश्नों के उत्तर दिये।
दिल्ली आकर उनका मिशन तारीफे इण्डिया थमा नहीं । भारत को इक्कीसवीं सदी की एक महाशक्ति बताया । भारत व अमेरिका के साझे मूल्यों व हितों का बखान कर उनके साथ -साथ कार्य करने को सामयिक जरूरत बताया। राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष एवं सोनिया जी से भेट की। पाकिस्तान को अमेरिका के सामरिक हितों के लिये अपरिहार्य बताते हुए आतंकवाद को ख़त्म करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बतायी ।संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कश्मीर समस्या को भारत व पाकिस्तान के बीच का मसला बताते हुए आपसी संवाद से हल करने पर जोर देते हुए कहा कि विकसित पाकिस्तान भारत के हित में है । प्रधनमंत्री ने दो टूक शब्दों में कहा कि भारत किसी भी मसले पर चर्चा से डरता नहीं ,पर वार्ता व आतंकवाद को प्रश्रय साथ साथ नहीं चल सकते। उन्होंने कहा भारत किसी देश कि नौकरियों को चुराने में यकीन नहीं करता ।उन्होंने कहा आउट्सोर्सिंग से अमेरिका की उत्पादकता बढ़ाने में भारतीयों ने योगदान दिया है।
संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए ओबामा ने अपने करिश्माई व्यक्तित्व ,कुशल वक्ता , सहजता व अमेरिकी हितों को साधने के अपने मिशन में भारत के सहयोग की पृष्ठभूमि बनाने में अपनी राजनयिक कुशलता का परिचय देते हुए न केवल सांसदों बल्कि देश की जनता का मन मोह लिया । उन्होंने गाँधी जी को याद किया ;भारत की स० राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का समर्थन किया ;आतंकवाद के प्रति संघर्ष में सहयोग का वचन दिया ; सीमापार आतंकवाद की भर्त्सना की ,मुंबई हमलों के आरोपियों को दण्डित करने का समर्थन किया और दोनों देशों के बीच बहुपक्षीय सहयोग की नयी संभावनाओं के द्वार खोले। अपने भाषण के प्रारंभ में हिंदी में स्वागत के लिये 'बहुत धन्यवाद' और अंत में 'जय हिंद 'कह कर सबका दिल खुश कर दिया ।
कुल मिला कर ओबामा की यात्रा सफल मानी जा रही है । मीडिया व विपक्षियों को कुछ भी आलोचना का मसाला नहीं मिला मनमोहन सिंह के नेतृत्त्व , उनकी साफगोई एवं राजनयिक कुशलता की सराहना ने भी की । अमेरिका को जहाँ अपने आर्थिक हितों को पूरा करने में सफलता मिली तो भारत के भी राजनीतिक व अन्य बहुपक्षीय हितों की पूर्ति होती दिखायी दे रही है । अमेरिका जैसे महाबली देश के राष्ट्रपति को भारत के समक्ष अपनी अर्थव्यस्था में सहयोग की याचक की भांति अपील करते देख यहाँ की जनता को निश्चित ही गर्व एवं प्रसन्नता का अनुभव हुआ होगा ।
पर ये वादे व्यावहारिक रूप में कितने सार्थक होगें ,इसका उत्तर आने वाला समय ही डे सकेगा । पर इस यात्रा से भारत और अमेरिकी दोनों सरकारों को अपने अपने देश में चुनोंतियों का सामना करने में राहत मिलेगी ।

04 नवंबर 2010

सुलगता क्यूं है कश्मीर ??,एक बिलकुल अलग-सा विचार...!!

        सुलगता क्यूं है कश्मीर ??,एक बिलकुल अलग-सा विचार...!!
                    कभी-कभी समस्याएं होती नहीं हैं बल्कि बना ली जाती हैं !कभी आपने ध्यान दिया कि जब किसी घर का कोई सदस्य किसी के प्रेम में पड्ता है तब क्या होता है ?होता यह है कि घर के सारे सदस्य उस प्रेमी और प्रेयसी के एकदम खिलाफ़ हो जाते हैं,यहां तक कि हत्या पर उतारू भी हो जाते हैं,वहीं प्रेमी भी जान जाए पर वचन ना जाए की तर्ज़ में करुंगा तो उसी से वरना किसी से नहीं टाईप की ही बात करता है और तमाम प्रकरणों में कहीं घर वाले तो अगर प्रेमी-प्रेमिका भाग्यशाली हुए तो वे जीत जाते हैं,ध्यान दीजिये कि प्रेमी/प्रेमिका या घरवाले/समाज की "हार" और "जीत" के रूप में इस बात को लिया जाता है !अर्थात यहां दोनों पक्षों के बीच किसी भी प्रकार का सामंजस्य समझौता कहलाता है और समझौता ना हो पाने की स्थिति हार या जीत ! शब्दों के इस चुनाव से हम समाज की बुनावट की भीतरी अर्थ सहज ही समझ सकते हैं और इस बुनावट का सीधा-सादा अर्थ है हमारा अहंकार !!
                    कश्मीर पर हम जरा रुक कर आयेंगे,पहले जरा इस बात की (बुनावट) तह तक हो आएं !जिस परिवार और समाज का निर्माण हमने किया है अपने भीतर सुव्यवस्था के लिए,उसकी बुनियाद में एक खंभा हमने अहंकार का लगा दिया है,और दुर्भाग्यवशात यह खंभा मानव-जीवन के समुचे आचरण में सबसे ज्यादा अहम हो गया है और हमारे अधिकतम व्यवहार इसी बुनियाद के साये में तय होते हैं और हम यह भी जानते हैं कि संसार के सारे धर्मों की सारी किताबों में इसे गलत बताया गया है,और त्याज्य बताया गया है अब यह बात भी अलग है कि ऐसा बताने वाले अधिकतर लोग भी ऐसा बताने के अनुरूप आचरण नहीं कायम रख पाए ! तो दोस्तों जब किसी बिल्डिंग की कोई भी एक बुनियाद गलत रख दी जाती है तब क्या होता है यह आप सब जानते हैं ना...?चलिये मैं यह नहीं पूछ्ता आपसे,मैं यह मानकर ही चल रहा हूं कि यह आप सब जानते ही होंगे !!
           जैसा कि उपर बताया गया कि मानव-जीवन के अधिकतम व्यवहार अहंकार से ही तय होते हैं और विचित्र यह है यह बात प्रेम-त्याग-ममत्व-कर्तव्य जैसी सबसे आवश्यक आधारभूत संरचनाओं से युक्त समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई "परिवार" से ही आरंभ हो जाती है,यानि कि झगडा तो परिवार नाम की बुनियादी सामाजिक संरचना से ही शूरू हो जाता है...अब आप बोलेंगे कि इस बात का संबंध हमारे आज के शीर्षक से क्या है भला,तो आपको मैं बता रहा हूं कि इसी बात पर मैं आ रहा हूं,मगर जरा रुकिये,इससे पहले एक बात समझनी ज्यादा जरूरी है !!
           परिवार,जहां कि हम बच्चे पैदा करते हैं और उन्हें पाल-पोस कर बडा करते हैं,उनमें हम आखिर किस प्रकार का आचरण भरते हैं,यह कभी हमने सोचा भी है ?हम उन्हें पैसे के रसूख और इस प्रकार अहंकार के गौरव का अहसास करा देते हैं,परिवार तक में भी किसी पैसे वाले सदस्य का रसूख और किसी गरीब सद्स्य के सम्मान में एक ऐसा भीषण अंतर होता है,जिससे गरीब सदस्य और उसके गरीब बेटे-बेटियां तथा बीवी एक कटु हाहाकार करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं,हम तमाम जीवन एक अमीर सद्स्य के आचरण का और उसके बच्चों की तमाम कारस्तानियों का बचाव करते हैं और एक दिन बच्चे अपने मां-बाप से भी ज्यादा अहंकारी और जिद्दी बन जाते हैं,थेथर तो वो पहले से ही होते हैं !!नहीं जी आप भले ना माने मगर इस बात का कश्मीर के सुलगने से संबंध अवश्य ही है!क्या कहा मैं मजाक कर रहा हूं ?नहीं जी फ़िलवक्त तो मेरा ऐसा इरादा कतई नहीं है !!आईए ना आगे बढते हैं थोडा और कुछ बताऊं तो शायद आप मेरी बात समझ पाएं !!
           दोस्तों,परिवार के बाहर निकलने पर हम एक ऐसी जगह जा पहुंचते हैं,जिसे समाज कहते हैं !जिसे हम उसके शाब्दिक अर्थों से तो जानते हैं, मगर उसकी वास्तविकताओं से,उसकी आवश्यकताओं से,उसकी संवेदनाओं से तथा अन्य मूलभूत चीज़ों से सर्वथा-सर्वथा अपरिचित होते हैं,चुंकि एक परिवार में रहते हुए हम यह अनुभव कर आए होते हैं कि परिवार के सभी सद्स्यों की कभी नहीं चलती,बल्कि सर्वदा उसी की तूती बोलती होती है,जो ताकत-वर होता है !और ताकत-वर माने कौन ?यह समझने का जिम्मा मैं आप पर छोडता हूं !तो इस प्रकार हमारी सोच में अनिवार्यरूपेण यह कीडा घुसा हुआ होता है कि यदि हम ताकत-वर हैं,तो हमारी ही बात सही है,उचित है और यदि हमारी बात उचित है तो हमारी मनमानियां भी बिल्कुल उचित हैं !और दोस्तों एक बात मैं आपको बताऊं ?....जब हम सही होते हैं तो दूसरा हर कोई गलत ही होता है....!आपका क्या सोचना है मित्रों ??
          बच्चा भटक जाता है तो हमेशा अनिवार्य रूप से सीधे-सीधे उसे दोषी ठहरा कर उसे सज़ा दे दी जाती है,परिस्थितियों को कभी नहीं पकडा जाता, पकडना तो दूर,संभावित जिम्मेवार परिस्थितियों की तरफ़ तो शायद ताका भी नहीं जाता !क्योंकि हर हालत में अभिभावक-गण यानि कि बुजुर्ग-गण ज्यादा अनुभवी,ज्यादा गुणी,ज्यादा दूरदर्शी-दूरअंदेशी और सबसे बडी बात सबसे ज्यादा पढे-लिखे यानि कि सर्वगुणसंपन्न होते हैं !अब अगर ऐसा ही है मेरे भाईयों तो क्या वे कभी गलत हो सकते हैं....नहीं ना ??और तब बच्चे को तो गलत होना ही ठहरा !!बच्चा गलत ही होता है,अनुभवहीन होता है ना,मासूम होता है ना,तमीज नहीं होती ना उसे और दुनियादारी की समझ ?वो तो बिल्कुल ही नहीं !!गलत और सही का यह आधार,यह संस्कार बच्चे के जनमते ही पहले ही पल से हम उसे देना शरू कर देते हैं और जब वही बच्चा विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में,संगठनों में और तरह-तरह के कार्यों में यह कहता है कि मैं सही हूं.....मैं ही सही हूं....मैं कह रहा हूं ना...मेरी सुनो...सिर्फ़ मेरी ही सुनो !!
           दोस्तों,अब हम कश्मीर पर आते हैं !दोस्तों पहले आप यह सोच कर बताईये कि कश्मीर की जनता के अभिभावक कौन हैं,और इन अभिभावकों के अभिभावक कौन है !मज़ा यह कि ये अभिभावक भी दो किस्म के हैं एक तो सत्ताधीश अभिभावक और दूसरे जो आन्दोलन कर रहे हैं और तीसरी है कश्मीर की अवाम और चौथी है बाकि के देश की जनता,जो कश्मीर नाम की जगह-प्रदेश से महज इसीलिए जुडी हुई है,क्योंकि दुनिया और भारत के नक्शे में इस नाम की जगह को भारत नाम के एक देश का एक अटूट हिस्सा बताया जाता है और इसके अलग होने से सर्वसंप्रभुत्व-संपन्न देश की अखंडता के प्रश्न पर प्रश्न पैदा हो जाता है....दोस्तों देश के एक नागरिक होने के नाते किसी भी प्रदेश से हमारा यह मानसिक जुडाव प्रयाप्त है ?यह सवाल इसीलिए भी उत्त्पन्न होता है क्योंकि सो काल्ड कश्मीर के तरह-तरह के रखवालों का कश्मीर नाम के एक प्रदेश से महज इतना ही जुडाव है,यहां तक कि जो कश्मीर के ही हैं उनका भी,जो कि वहां की राजनीति कर रहे हैं !!
          सारा देश चिल्ला-चिल्ला कर कहता है कि धारा एक सौ सत्तर खत्म करो,सैनिकों को और अधिकार दो,कश्मीर को दी जाने वाली अथाह सहायता और तरह-तरह की रियायते खत्म करो..ऊपर-ऊपर तो सब तार्किक लगता है,मगर कोई यह नहीं जानता कि सैनिकों को अभी तक के दिए गए अधिकारों का वास्तविक परिणाम क्या है,और अधिकार देने के खतरे क्या हैं....!!कश्मीर को दी जाने वाली अथाह सहायता और रियायतों का लाभ कौन उठा रहे हैं....मज़ा यह कि यही लोग कश्मीर की जनता के अभिभावक हैं और केन्द्र में शीर्ष पर बैठे कुछ लोग उनके भी अभिभावक और मज़ा तो यह भी है कि इनमें से कोई गलत नहीं है !कहीं तो शीर्ष पर बैठे नेताओं को अवाम की समस्याओं से कोई मतलब ही नहीं है,और तमाम स्थानीय मुख्यमंत्री नीरो की भांति या तो सोते हुए पाए जाते हैं या फ़िर अपने तरह-तरह के हरम में ऐश-मौज मस्ती करते हुए !!
          कोई मुझे यह बता सकता है दोस्तों कि अपने मां या बाप किसी को भी किसी गैर के साथ रंगरेलियां मनाते हुए एक बार भी देखकर आपके मन पर क्या बीत सकती है ?शायद आप विद्रोह कर सकते हैं,शायद आप घर से बाहर जा सकते हैं घर छोड कर या फिर अपने मां-बाप की हत्या भी कर सकते हैं....!!शायद यही कुछ बातें संभव दिखती हैं और दोस्तों जिस दिन भी आप ऐसा कुछ भी करते हो तो जो सूचना के विस्तार के क्षेत्र में ज्यादा मजबूत होगा,उसे सही मान लिया जाएगा मगर ज्यादा संभावना तो इसी बात की है आप भगौडा,झगडालू और हत्यारे मान लिए जाएं,बिना बात की तह तक जाए हुए....!!
               ....दोस्तों इससे आगे कहने के पूर्व मैं ज़रा रुकना चाहूँगा...और आगे की बात तभी कहूंगा...जब आप इसकी मुझे आज्ञा दोगे....आपकी आगया दरअसल आपकी एक तरह की सहमति भी तो होगी मेरी बातों के प्रति......है ना दोस्तों....!!

03 नवंबर 2010

उम्र भर लिखते रहे............!!!

उम्र भर लिखते रहे,हर्फ़-हर्फ़ बिखरते रहे
बस तुझे देखा किये,आँख-आँख तकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
कब किसे ने हमें कोई भी दिलासा दिया
खुद अपने-आप से हम यूँ ही लिपटते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.......
आस हमारे आस-पास आते-आते रह गयी..
हम चरागों की तरह जलते-बुझते रह गए.....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
हम रहे क्यूँ भला इतने ज्यादा पाक-साफ़
लोग हमें पागल और क्या-क्या समझते रहे...!!
उम्र भर लिखते रहे....
आज खुद से पूछते हैं,जिन्दगी-भर क्या किये
पागलों की तरह ताउम्र उल्टा-सीधा बकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे....!!!