31 दिसंबर 2010

बुन्देली कहानी ---- बिरादरी की पूँच

बुन्देली कहानी ---- बिरादरी की पूँच
डॉ0 लखन लाल पाल
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गाँव में पंचातें ऊसई खतम हो गई जैसे काबर माटी को कठिया गोंहूँ। गोंहूँ की किसमन ने कठिया खें अपनेई घर में पराओ बना डारो। रो रओ बिचारौ खेतन के कोने में। का करे तेजी से बदलो जमानौ, कठिया गोंहूँ जमाने के हिसाब सें न बदल सको। ई धरती में तो ओई ठहर पाउत जेमें जितती सक्ति होत। बिना सक्ति बालौ हिरा जात, कुदरत को जेइ नियम है। नये कानून ने जैसें जमीदारी प्रथा खें खतम कर दओ, ओइ के संग में पंचाटें बह गईं। आदमी सूधौ पुलिस अदालत करत। वहाँ मूँ देखौ ब्यौहार नहियाँ। केस फँस गओ तौ सजई को डौल है। फिर नई-जई बूढ़न की मानत कहाँ है। सबखें हुड्डन लगे। कछू नेतागीरी में रम गए। कुल मिला खें पंचाट घर अपने बिगत जीवन की सुरत में टसुआ बहाउत।
गाँव कौ कछू समाज पुरखन की ई पिरथा खें अभऊँ चला रओ। रघुआ ने ई पंचाट में कछू जान डार दई। गाँव भर में एकई सोर है। रघुआ लुगाई कर ल्याओ। कहाँ की आय, कोऊ नईं जानत। स्यात पन्दरा हजार में खरीदी। पाँच हजार रुपइया की छिरियाँ बेंची ती और दस हजार रुपइया पाँच रुपइया सैंकड़ा ब्याज पै उठा खें लै गओ तो और बहू खरीद ल्याओ। बिरादरी बहू की जाति की टोह में है। दुल्हनियाँ कौन जाति की है। कोऊ कहात धोबिन है, कोऊ कहात भंगिन है। रघुआ के सपोटर कहात बभनिया है, रघुआ कहात जाति बिरादरी की है। चहाँ जौन जाति की होबे, बहू साजी है। इकदम ऊँची-पूरी, गोरी नारी। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखी झिन्नू सारी में बहुतई अच्छी लगत। गाँव भर की बइरें बहू खें दिखन आउत। पाँच रुपइया, दस रुपइया, मीना बिछिया दैखें मुँ दिखत। रघुआ की बाई बरोबर संग में लगी रहात। खरीदी बहू कोऊ कछू कान में फूँक दे तो पन्दरा हजार तौ गए, बहू अलग से चली जैहै। एक दिना रघुआ की बाई ने बिरादरी की बइरिन खें बुलउआ दिबा खें बुलवा लओ। बहू कौ नाव धराबे खें। गोरी नारी दिखखें बइरिन ने बहू कौ नाव उजयारी धर दओ। रघुआ की बाई ने ई खुसी में सबखें मुठी भर-भर खें बतासा बाँटे। रघुआ कौ बाप चतरा बिरादरी की टोह में लगो रहात, कोऊ का बतात ? हवा कौ रुख कहाँ खें है ? तिवारौ ऊसई लगाएँ खें फिर रओ। पै बिरादरी के घुटे मानुष ऐसें कैसें भेद दैं दैहैं। बिरादरी चुकरिया में गुड़ फोर रई ती। बिरादरी रोटी कैंसे लैहैं, का डाँड़ लगाहै, यौ कोऊ नईं जानत, सिवाय ऊपर वाले के। बिरादरी बालिन ने रघुआ के बाप खें साफ-साफ कह दओ तो कि जबलौ बिरादरी खें रोटी न दै दैहित तब लौ तैं कुजात रैहै, न तोरे घर में कोऊ पानी पी है, न तोखें कोऊ पानी दैहै। चतरा गुस्सा में लाल हो जात्तो पै गुस्सा खें पीबो ओखी मजबूरी हती। पाँव फँसों है, पोले दइयाँ ओखें निकारनै है। खैर कछू होय, रघुआ के दिना आनन्द से गुजरन लगे। दिन भर बिरादरी के आदमी का धौंस देत, रात में सब भूल जात्तो।
चतरा आस-पास के गाँवन में अपनी बिरादरी से मिलो। ओखे मन कौ उत्तर काऊनै न दओ, फिरऊ फुसला पोठ खें अपने कोद खें मिलावे की कोसिस करी। सबनै एकई बात कही कि एक दिना को टिया धर लेव चतरा भइया। अपनी सबई बिरादरी खें जोर लेव। पंच जो निरनै करै ऊ तो माननै परिहै। कथा, भागौत, गंगा अस्नान जो कछू बिरादरी बतावै सो ऊ कर लइए। बिरादरी खैं कच्ची-पक्की रोटी दै दइए, तोरौ उद्धार हो जैहै। जाति गंगा हम सबई खैं पवित्तर कर देत। कोऊ चतरा से कहात-‘सुनो है, बहू साजी है, कहाँ सें फटकार दई।’ बहू की बड़वाई सुन खें चतरा की छाती दो गज फूल जात्ती। तुरत हँस खें बताउत- ‘भइया तुम्हारई चरनन की किरपा है। का करेंन फाल बिगर गओ तो, बिरादरी कौ कोऊ आदमी मोरे लरका के दाँत नईं दिखत तो, बंस तौ चलानै हतो, मैंने कही भइया पइसा लगहै ता लग जाबै, बहू तौ आ जैहै।’ ‘ठीक रहो दादी, बस बिरादरी खें और संभार लै, तोरौ बारे कैसो ब्याव बन जैहै।’
आज बिरादरी की पंचाट हती। बड़े-बड़े पंच आस-पास के गाँवन सें बुलाए गए। इतनौ-कर्रौ मामलौ गाँव कौ समाज अपने मूँड़ पै कैसे लै लेतो। आस-पास के पंचन कौ जमावड़ौ दिखे सें ऐसौ लगत तो जैसे कोऊ पिरतिस्ठित आदमी ई दुनिया से बिदा हो गओ होय और ओखी तेरहईं में लोग इकट्ठे भए हो।
मानुष धरती के सभई पिरानियन सें ईसें सिरेस्ट है कि ओखे पास दिमाग है, सोचे समझे की ताकत है। बिचार कर सकत। सभई पहलुअन खें समझ खें नतीजे पै पहुँच सकत। दो चार आदमी यहाँ बैठे तौ दो चार आदमी वहाँ। बूढ़न कौ सुरौधौ अलग लगो। कोऊ बिड़ी सुरक रओ तौ कोऊ तमाखू की पीक थूक रओ। सिकरिट तौ ऐसे चौखें जात जैसे भदुआ (गन्ना) बात कौ केन्द्र रघुआ और रघुआ की लुगाई हती। जुन रडुआ लरका हते उनै रघुआ से ईरखा होन लगी। जुन की रघुआ के बाप सें तनकई तन्ना-फुसकी हती वे ई घात में हते कि डाँड़ कररौ लगै तौ उनके करेजौ कौ दाह बुझा जावैं। कोऊ पंचाट में जाबे खें तौ तइयार हतो पै रोटी लैबे खें ठनगन करत। बिरादरी की मेहरियन ने खसमन खें जाती-जाती बेरा लौ खूब समझाओं। पुन्ना की बाई नै अपने आदमी सें कही- ‘भलू पुन्ना के नन्ना पाँत में नई जानै, बिरादरी खें साफ बता दइये। खसम ने कान पै नईं धरी तौ वा सन्ना खें बोली - ‘तै भलईं चलो जइये पाँत में, लडुअन कौ भूकौ होत ता, पै मैं जान बाली नहियाँ, ध्यान कर लैत।’
पुन्ना कौ नन्ना बिचारौ बेमौत मरो जा रओ तो। बिड़ी पीवे में ओखौ मन नईं लगत हतो। पंचन की ठसक सहाय कि लुगाई की। अब तौ रामभरोसे है, जो कछू होहै सो भुगती जैहै। पुन्ना कौ नन्ना पुरखन खैं कोस रओ तो कि लुगाइअन खें पंचाट सें बाहर काए राखो। लुगाई जात होतीं ता मैं कभऊँ न आतो, पुन्ना की बाई खें पठै देतो। सबरौ टंटा दूर हो जातो। ईनें सासकेरी नै मोई कुआ बहर कैसी हालत कर दई।
चार आदमी आपस में बता रए ते। एक बोलो- ‘सुनो है स्वसर रघुआ की लुगाई साजी है।’
-‘‘कक्का सिरी देबी सी लगत।’
-‘‘हैं !’’ दूसरे ने मुस्क्या खें आँखीं सिकोरी।
-‘‘सुनो है, धोबिन है।’’ पहलौ वालौ बोलो।
-‘‘ससुरा खें बिरादरी नईं मिली। बिरादरी की बइरें तू गयीं ती का ?’’
-‘‘जाति में आ गई कक्का, पंच धोबिन खें बिरादरी की न बना पाहैं का ?’’
--‘‘जाति गंगा में कूरा-करकट सब कछू मिल जात रे ! अब तौ यौ सब पंचन के हाँतन में है।’’
-‘‘अब का करो जाय कक्का, सुसरा रघुआ लुगायसौ हतो, अक्क लगी न धक्क, साजी दिखखें खरीद ल्याओ। कहात नहियाँ -‘प्यास न देखै धोबी घाट, इसक न देखै जाति कुजात।’ उन्हई में से तीसरौ बोलो।
तीसरे की बात सुन खें दो हँस परे, चौथौ न हँस पाओ। ऊ सोच में पर गओ। ऊ समुझाउत भओ बोलो -‘‘कक्का ई बारे मे सबूत नहियाँ, हम फँस जैहैं।’’ चौथे वाले की बातें सुनखें तीनों के मुँ लटक गए।
अब दूसरी कोद की जमात। खुसर-पुसर मची। इत्ते धीरे सें बोलत कि बात सूधी कान में पहुँचत, यहाँ-वहाँ बरबाद नईं होत।
-‘‘गर्रा गओ है चतरा, अच्छौ पइसा है, मुखिया डाँड़ हिसाब सें लगाइए।’’
-‘‘कित्ती पोपरटी होहै ?’’ मुखिया ने एक आँखी दबाई।
-‘‘अभै नगद पचासक हजार तौ धरे होहै। रघुआ, छिरियाँ राखें, पाँच-छै छिरियाँ अभई बेची ती। पन्दरा सोरा छिरियाँ अभै मौका पैहैं।’’
-‘‘चिन्ता न कर दादी, जैसौ तै चाहहित ऊसई होहै, कौन एक पंचाट निपटाई, हजार निपटा खें फैंक दई। कोऊ नै उँगरिया नईं उठा पाई।’’ मुखिया नै अपनी मूँछन पै हाथ फेरो।
ई जमात के आदमी मुखिया की बात के कायल हो गए। मुखिया नै अपनौ भभका बना लओ। मुखिया नै अभई अच्छे पंच कौ सरटीफिकट दै दओ तो। ऊनै गरब से गरदन हिलाई।
-‘‘दाऊ सेंकें मैकें न सट्टे करे।’’ ओई जमात में एक ठइया बोलो, ऊ कछू साँची बात जानत हतो। ऊसें न रहो गओ, ऊनै कह दओ- ‘‘बहू खरीदें खें दस हजार करजा उठाखें लै गओ तो। कहाँ सें आए पचास हजार कि साठ हजार।’’
दाऊ की बात कटतई दाऊ तिलमिलानों, पै घाघ किसम कौ आदमी बात संभारत भओ बोलो-‘‘अरे तै सिटया गओ का, दस हजार तौ चतरा नै ईसें करजा लए कि सब कोऊ जान जाय फिर भइया बिरादरी डॉड़ मजे को लगावै।’’
-‘‘चतरा की या बदमासी हमाई समझ तरें नई आई। ऐसई हो सकत।’’ ऊ अपनी बात खें वापस लेत भओ बोलो।
अब बिरादरी के लानै पंच बुलउआ भओ। पंचन की बात कौन टार सकत। घर सें तौ पहलईं निकर आये ते। जहाँ-तहाँ बैठ खें रैसल करत हते, अब उठ-उठ खें सब नीम के पेड़ें तरें इकट्ठे हो गए। मैंदान बड़ौ हतो, चारऊ कोद कच्ची माटी की भितिया उठी हती। चतरा नै गाँव भर की जेजमें माँगखें इकट्ठी कर लईं ती, ओई बिछा दई।
ओई मैदान में एक कोद चौतरा बनो हतो। पाँच पंच ओई में जा बैठे। ये पाँचऊ पंच अलग-अलग गाँवन के हते। बिरादरी में खूब नाम कमाओ तो, ओई कौ फायदा उन्हें मिलो कि वे आज पंच बन खें बैठ गये। बोले में चतुर। मूँड़ पै बड़े-बड़े साफा बाँधें, हाथ में तेल लगी हल्की सी लठिया। धोती कुरता के ऊपर सदरी पहरें लगत कि ये पंच है। मुँ पै गंभीरता, हर कोऊ उनके सामूँ बात करै सें दंदकत। पाँचऊ आराम सें चौतरा पै बिछी दरी पै बैठ गए। या दरी पंचन खें इस्पेसल हती। बचे आदमी खाले की जेजमन पै बैठ गए। वे पंच जुन-जुन के कौन्हऊ रिस्ता सें कछू लगत हते, उनके भाव बढ़ गये। एक पंच कुन्टा कौ मामा लगत तो, ओखे पांव अब धरती पै नई रुपत ते। अक्कल सें कछू कच्चौ हतो सो गाँव वाले धत तोरे की कह खें भगा देत ते। आज उन्हईं खें दिखखें ऐसे मुस्क्यात तो जैसें ....................।
पंचन नै आपस में हँरा से कछू बातें करीं। आदमिन के कान ठाड़े भए, पै वा आवाज उनके कान न सुन पाए। एक पंच गम्भीर बानी में बोलो-‘‘चतरा पंच काहे खें बुलाए ?’’ चतरा हाँत जोर खें ठाड़ो हो गओ और बुकरिया सौ मिमयानो- ‘‘मुखिया साब, तुम तौ सब जानत हौ।’’
-‘‘जानत तौ सब कछू है, तैं अपने मुँ सें तौ बता। चार आदमी सुन लैहै।’’ दूसरौ पंच हँसत भओ बोलो।
-‘‘पंचौ, मो लरका रघुआ बहू कर ल्याओ। सामूँ आँखिन कौ लरका है, गल्ती तौ ऊनै करई लई। मैं चाहत हौं कि बिरादरी मोखें सनात कर देबै तौ मैं तर जाऊँ।’’
बिरादरी के सब आदमी सांत बैठे ते। अभै कोऊ नईं बोल रओ तो। पंचन नै बिरादरी कोद दिखों फिर चतरा सें कही-‘‘बिरादरी जाति गंगा कहाउत, वा तौ तोखें सनात करई दैहै, पै यौ तौ बता कि बहू की जाति का है ?’’
मुखिया की बात सुनखें चतरा बंगलें झांकन लगो। ई कौ उत्तर चतरा का बनावै। सो ऊनै चिमाई साध लई।
-‘‘सुनो है धोबिन है।’’ पुन्ना को नन्ना बीच में बोलो।
-‘‘धोबिन कैसें है, बभनियां है।’’ रमोला नै फट्ट से पुन्ना के नन्ना की बात काट दई।
-‘‘पंचौ वा न धोबिन है, न बभनियां है, वा तौ भंगिन है।’’ चतरा कौ समर्थक व्यंग सें बोलो।-‘जाति-बिरादरी होत काहे खें हैं, बिरादरी ऊखें जाति में समगम कर पाहै कि नईं।’’ अब सभई बोलन लगे। इतनौ हल्ला होन लगो कि अब कोऊ काऊ कौ सढ़ौ नईं पर रओ तो ! पंचन नै बात संभारी, वे ठाड़े होखें बोले- ‘‘तुम सब जने चुप्पा हो जाव। ऐसें पंचाट नईं होत।’’ सभई चुप हो गये, पंचन की बात को टार सकत। चतरा हाँत जोड़ें अभऊँ ठाड़ो तो। पंच बोले-‘‘रघुआ खें बुलाऊ।’’ रघुआ वहीं बैटो हतो सो ठाड़ों हो गओ। एक पंच ने पूछो- ‘‘काए भइया, बहू कौन जाति की है ?’’
-‘‘साब बिरादरी की है।’’ रघुआ ने हात जोड़ खें जबाब दै दओ।
-‘‘तोखें कैसें पता कि वा बिरादरी की है ?’’ दूसरौ पंच मूँछन पै हात फेरत भओ बोलो।
-‘‘साब, ओईनै बताओ।’’ रघुआ कछू सरमियानो।
-‘‘कौन ओई नै ?’’ पंच कम नईं ते, सो बात उकेरी। रघुआ न बोलो सो बीच में एक बूढ़ौ बोल परो-‘‘बहू नै बताओ होहै।’’ रघुआ ने मुण्डी हिला दई।
अब बलू सें न रहो गओ। अठारा साल कौ लरका। दाढ़ी मूँछें जमत आउत ती। ओखौ शरीर साजौ हतों, जोसऊ खूब हतो सो खौखरया खें बोलो- ‘‘मोखौं यौ समझ में नई आउत कि पंच जाति पांत काए हुराएँ फिरत है। जाति-पाँति में उरझे रैहौ ता तुम्हारौ कभऊँ विकास नई हो पानै। दुनिया कहाँ पहुँच गई। दूसरी जातियन के आदमी हमें तुम्हें बेसऊर कैहैं। ईंसें जाति-पाँति छोड़ो, भौजाई साजी है। बिरादरी की पूँच लम्बी न बढ़ाऊ।’’
-‘‘बैठ जा रे ! सवाद-उवाद है नहियाँ। पंचाट है, मेहेरिया सें हँसी मजाक नुहै, जब चाहौ कर लेव। तौल खें बात करी जात।’’ उन्हई में सें एक बुड्ढ़ा बिगर परो।
बलु की बात नै आदमिन के करेजे चीर दए। स्यात छाती में तीर घुसे से इतनी पीरा नई होत होहै, जितनी बलु की बातन सें उन्हें पीरा भई। आदमी बिलबिला उठे। कइयक मूड़ पीटन लगे। दूसरे चिल्ला खें बोले-‘‘ अब आदमिन की तू-तू मैं मैं सुरू हो गई। दो पाल्टी बन गई। लोगन खें अब पता चल गओ कि कौन पाल्टी मे को को है। पंचन नै बात संभारी और उन्हें सांत कराउत भए बोले- ‘‘लला, समाज में हमऊँ खें रहनै है और तुम्हऊ खें। काल के दिना अपनौ कोऊ पानी न पीहै।’’
-‘‘बाभन, बनिया तुम्हारौ रोंज पानी पियन आउत का ?’’ बलु उखरई गओ।
बलु की सांची बात आदमिन खें न पची। कोऊ तरकऊ न सूझो, ईसें हँसियन ता हँसियन नईतर पिट हँसियन। कुफर बोले पै बिरादरी नै बलु पै दस सेर गुड़ कौ डाँड़ धर दओ। बलु के बाप खें बिरादरी की समझ हती ईसें ऊनै अपने लरका की भूल की माफी मांगी और रुपइया दैखें दस सेर गुड़ मंगा लओ।
बलु खें ई बात को बौहुत बुरओ लगो। ईसें बलु पाँव फैकत पंचाट से बाहर जान लगो। दाऊ ने बलु खें टेरो और समझाउत भओ बोलो- ‘‘बलु तैं काए बुराई मानत, अभई दिखो नहियाँ दो पाल्टी बनन लगी ती। पंच न रोकते ता थोरीअई देर में गड़िया चूतियां होन लगतो।’’ बलु गुस्सा में फिर खें अपने ठौर पै बैठ गओ।
गुड़ खात भए पंच बोले -‘‘खेत में मेंड़ होत, अगर मेंड़ न होबे ता खेत काहे कौ। पतई न चलै कौन खेत केखौ आय। पुरखा बेसऊर थोरे हते। हमें पुरखन की परपाटी पै तौ चलनई परहै।’’
पाँचऊ पंचन के मूँड़ एक देर फिर इकट्ठे भए। कछू देर तक उनकी आपस में मुण्डी हिली, फिर तनक देर में अलग हो गयीं। अब तीसरे पंच ने आदमिन कोद दिखों और खँखार खें बोलो- ‘अगर सबके मन सें हो जाए तौ बहू खें इतई बुला लओ जाय।’
बढ़ियल, बहुत बढ़ियल, कई आवाजें एकई साथ गूँज गई।
बहू पंचन के सामूँ आकें ठाड़ी हो गई। सबई की नजरें बहू कोद तीं। ओखी चालई से पता चलत तो कि बहू ठसकीली है। झिन्नू साड़ी में ओखौ मूँ झार-झार दिखात तो। चौथौ पंच बोलो-‘‘बहू तोरी जाति का है ?’’
-‘‘जाति बिरादरी की है।’’ बहू हँरा सें बोली। ओखी आवाज कोऊ न सुन सको। पंचाट में बैठो दाऊ जू रसिया हतो, सो ऊ बोलो- ‘‘बहू खूब तान खें बात कर। मूँ उघार लै, इतै सरम न कर। पंच परमेसर के सामूँ का सरम।’’
बहू ने एक झटका में साड़ी माथे तक सरका लई। चौकटा में गाज सी गिरी। दाँतन तरें उँगरिया दाब खें रह गओ आदमी। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखीं, गोरौ खूबसूरत मूँ पंच दिखखें रह गए। बहू मुसकराई और लजात भई बोली-‘‘का पूँछत हौ, पँूछौ, बिरादरी-बिरादरी चिल्लात हौ, का सबई लोग एकई बिरादरी के हौ? गोहूँ की तो किसमें बदल गईं, आदमी की किसमें नई बदली का, जुन मोई जाति बिरादरी पूँछत हो।’’
समाज में खुसर पुसर मच गई। पंच समेत सबई आदमिन खें साँप सौ सूँघ गओ। चोट कर्री हती। सो कछू आपस में बताने-‘‘या तौ घाट-घाट कौ पानी पिएँ है। चारऊ कोद की हवा खाई भई है। ईसें पार न पा पैहौ, जाने का बक ठाड़ी होबै, लुगाई है ईके मूँ कौ का टटा बैड़ों ?’’ दूसरौ बोलो- ‘‘बहू जैसी ठसकीली है, ऊसई ठसकदार बातें है ओखी। मुस्क्या खें कैसौ जबाब दओ।’’
खुस-पुस के बीच में दाऊ टपके -‘‘पंचौ होन दो पंचाट। खेत साजौ है फिर चहाँ बलकट धरो होय चहाँ गहाने और चहाँ मोल खरीदो होय। खेत में बीज अपनौ बओ जै है ता फसल तौ अपनई मानी जै है। बताऊ, सब जने या बात गलत है कि सही।’’
-‘‘या तोर बात बिलकुल सही है दाऊ।’’ पंचाट कौ मुखिया बोलो।
आदमियों और बइयर के बीच बिसात बिछी हती। पुरुष तौ अपने पॉसे फैंक चुके ते। अब बारी उजयारी की हती। जोर अजमाइस होन लगी। उजयारी अकेली मैदान में डट गई। ऊनै अपनौ पॉसों फैंको- ‘‘पंचौ कभऊँ-कभऊँ खेत अपनौ होत, बीज कोऊ को बुब जात, पै फसल तौ खेत बाले की कहाउत। खेत बालौ फसल चपोला दइयाँ धर लेत, ऊ नई काऊ खें बताउत। पंचौ मैं यौ पूँछबो चाहत कि बीज महतपूरन है कि खेत।’’
-‘‘यौ मार दओ, दाऊ वे डरे चित्त। उजयारी नै दाऊ की बात काट दई। अब तौ पंचनऊ खें निकड़ नइयाँ।’’ दो नए लरका हँरा-हँरा फुसफसाए।
पंचन खें पूरी तरा सें लगन लगो कि पंचन की बात हल्की हो गई। ई लुगाई नै तो सबके मूँ बन्द कर दए। बइयर आय ईसें उरझें सार नईं दिखात। हंड़िया होय ता ओखे मूँ पै पारौ धर देबै, ई लुगाई के मूँ पै का ध देन। कुल की होती ता लाज सरम होती, मोल खरीदी। ई चड़वॉक खें रघुआ न जानै कहाँ सें खरीद ल्याओ। सब पंचन खें उजयारी की बाते ततइयाँ सी लगी। अकेलौ बलु खुस हतो। ऊ अपनौ दस सेर गुड़ कौ डाँड़ भूल गओ। उजयारी कोद बलु ने एक देर दिखो। उजयारी की जीत पै बलु मुस्क्यानों। स्यात ऊ मुस्कान को अरथ हतो- ‘‘भौजी मार लओ मैदान, थोरी और डटी रओ, सबरे पीठ दिखाखें भग धरहैं।’’ उजयारिऊ भौजी ऊ मुस्कान कौ अरथ समझी। मुस्कान कौ उत्तर मुस्कान में दओ। ऊ मुस्कान को मतलब हतो- ‘‘लला चिन्ता न करौ, मैं पीठऊ दिखाए पै न इन्हें छोड़हौं। रगेद-रगेद मारिहौं, ढूड़ै गली न मिलहै।’’ उनकौ मुस्कराबो बिरादरी बालन नै दिखो। उन्नै समझो बलु उजयारी खें बढ़ा रओ है। एखी साँस पा गई, अब वा न हट है। वे खौंखरयाने बौहत पै उनकी एकऊ चाल न चली। उन्नै सोची, पंचाट बिगर जैहै। ईसें पुन्ना को नन्ना बोलो-‘‘पंचौ, फैसला होन दो, फालतू बातन में का धरो।’’
पुन्ना के नन्ना की बात सबखें जम गई। पंच फैसला सुनाबे खें तइयार हो गए। चतरा सकपकानो। बिरादरी न जानै कैसौ फैसला सुनाहै। ओखे पेट में भटा से चुरन लगे। पूरौ समाज इकदम सांत हो गओ। चतरा के दिमाग में घंटा सौ बजन लगो। अब पंचन नै मिलखें फैसला सुनाओ- ‘‘रघुआ बहू तौ करई ल्याओ है, ठीक है। पंच रघुआ की बहू नै पूरी बात सुनी। पंचन नै स्वीकार करत है।। चतरा खें बिरादरी में सामिल होने है तौ ईखौ डाँड़ भरनै परिहै। बिरादरी में दस हजार रुपइया जमा करै और कच्ची पक्की रोटी बिरादरी खै खबाबै, ऊखौ तरन तारन हो जैहै। चतरा के डाँड़ न भरे सें ऊ कुजात बनो रैहै।’’ बोल पंच परमेसर की जै। बोलौ संकर भगवान की जै। एक साथ कइयक आवाजन से वातावरन गूँज उठो। पंच चतरा सें बोले- ‘‘पंच फैसला मंजूर है।’’ चतरा कौ सरीर जड़ हो गओ। जैसे सबरे सरीर कौ खून निचोर लओ होय/-‘‘पंचन कौ फैसला मैं नई मानत।’’ उजयारी कड़क खें बोली। ई आवाज खें सबई चौंके। उन्नै तौ बर्रौटन में नई सोचो तो कि उन्हें या आवाज सुननै परिहै। या पहली आवाज आय, ईसें पहलूँ कभऊँ ऐसी आवाज सुनी नईं गई। ओऊ ऐसे ठेठ अन्दाज में। पंचन के कान ताते हो गये। आधे से जादा तिलमिला गए। पंचाट की सरासर बेइज्जती। छाती में घमूसा सौ लगो। पंचन खें ऐसी आसा नई हती कि लुगाई इत्तौ कुफर बोल जैहै। पंचन नै आदेस करो-‘‘सब भइया अपने ठौर पै बैठ जावें।’’ पंच मुखिया बोलो-‘‘बहू तोखें पंच फैसला काए मान्न नहियाँ ?’’
उजयारी अपनी बात पै तिली भर न डिगी। वा बोली- ‘‘दस हजार रुपइया मोरौ आदमी कहाँ से ल्याहै। दस हजार रुपइया जैसें तैसें सूद पै करजा लैकैं डॉड़ भर दैबी ता कच्ची पक्की रोटी में पता है बिरादरी कितने कौ खा जैहै ? तुम मोय आदमी खें और मोसे मजूरी करवाबो चाहत। मोरौ डुकरा (ससुर) येई खटका में मर जैहै। हम कुजात बने रैहै, ऊ हमें मंजूर है। तुम्हारौ फैसला हमें मंजूर नहियाँ।’’ पंच मूँ बा गये। सबरे पंच बिरादरी एक दूसरे कोद मूँ दिखत रह गए। उजयारी झटका सें घूम गई और सूधी घर खें चली गई।


डॉ. लखन लाल पाल
नया रामनगर, अजनारी रोड
कृष्णा धाम के आगे, उरई
जिला-जालौन (उ. प्र.)
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यह कहानी लेखक की प्रथम प्रकाशित कहानी है। यह उरई जालौन से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका स्पंदन के बुन्देली विशेष अंक में प्रकाशित हुई थी।

अरी ओ आधी दुनिया....!!

अरी ओ आधी दुनिया....
देख-देख देख ना आ गया इक और नया साल 
और तेरी भी खुशियों का नहीं है कोई पारावार 
यानी कि तुझे भी मनाना है नया साल...है ना....
तो सुन आज की रात होगा 
कई जगह तेरी अस्मत का व्यापार और कई जगह तो 
तेरी मर्ज़ी  के बिना तुझसे व्यभिचार......
धरती के सारे लोग सभी प्रकार के जीवों का असीमित मांस 
तो अपने  सीमित पेट में धकेलेंगे और साथ ही  
यही लोग तेरे गुदाज जिस्म की हरारत के संग 
अपनी असीम यौन-आकांक्षा के मारे हुए 
ना जाने कितने ही खेल खेलेंगे.....
बेशक कई जगह तो तू भी अपनी ही मर्ज़ी से 
इस फड़कते हुए खेल में शामिल रहेगी 
मगर ज्यादातर तो तू,तेरे साथ क्या हुआ 
ये किसी से कह भी ना सकेगी....
अरी ऐ री आधी दुनिया.....!!
क्या तूने कभी यह सोचा भी है कि 
हर कुछ सेकेंडों में तेरे साथ.... 
होता है किसी किस्म का कोई क्रोध, और 
किसी ना किसी किस्म का पारिवारिक वैमनस्य....
हर कुछ मिनटों में कहीं ना कहीं 
हो जाता है तेरे साथ रेप....
नन्ही-नन्ही बच्चियां भी इस कहर से बच नहीं पाती...!!
हर कुछ मिनटों में धरती में कहीं ना कहीं 
तुझमें से कोई कर लेती है आत्महत्या..... 
और तू सोचती है अ आधी दुनिया 
कि कंधे-से-कन्धा मिला रही है तू...!!
अगर इसे ही कंधे से कंधा मिलाना मिलाना कहते हैं 
तो फिर मुझे तुझसे कुछ नहीं कहना अ आधी दुनिया 
फिर भी तुझको इतना कहने से खुद को रोक नहीं सकता 
कि फिर अपने ऊपर हो रहे किसी भी तरह 
के अत्याचार पर चीत्कार मत कर 
तू सबके साथ कंधे से कंधा मिला और 
आज ही सबके साथ नया साल मना 
अपने जिस्म को बोटी-बोटी के रूप में 
तमाम लोगों के सामने परोस....
कहा तो जाता था कभी कि 
पुरुष के दिल पर कब्जा करने का रास्ता 
उसके पेट से होकर जाता है...
मगर अब जब तू खुद इस तरह शरीके-यार है 
सीधा ही मामला सेक्स तक पहुँच जाता है....
अगर तू तैयार है तब तो बहुत अच्छा....
अगर तैयार नहीं भी है तो कोई गम नहीं 
अपनी ताकत के दम पर पा लेगा वह तुझे 
चल-चल अ आधी दुनिया 
तू किसी बात की कोई फ़िक्र मत कर....
आज आधी रात के बाद से ही नया साल है...
तू सब चीज़ों के लिए तैयार हो जा....
और नया साल मना....
अ आधी दुनिया, इस अँधेरे भरे चकाचौंध में 
अपने लिए कोई कोना टटोल 
और उस कोने में नया साल मना 
हाँ तू बस....नया साल मना....!!!!

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29 दिसंबर 2010

नीता पोरवाल की कविता -- ये ख्वाइश क्यूँ हैं....

ये ख्वाइश क्यूँ हैं....
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आज फिर ये वावरी पलके नम क्यू है
सावन की बदरी सी झरती
नन्ही बूंदों को चुन - चुन के हथेली पे सजाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तपती- दुपहरी वीरान- राहें
बेकल पंछी से भटकते तन को छाँव बन के आये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तेज़ हवाएं तूफानी मौजें
भंवर में डोलती कश्ती से मन को साहिल तक ले जाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

महसूस की उनकी मौजूदगी हर ज़र्रे में हमने
अब मुझे भी मेरे होने का अहसास दिलाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

गर वादा किया तो साथ निभाया भी हमने
दो कदम मेरे भी साथ चल कर दिखाए कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तेरी यादों के चरागों को हर पल रोशन रखा हमने
अब मेरे अंधियारे दिल में भी चराग जलाए कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

तेरी बेरुखी को भी ग़ज़ल सा गुनगुनाया हम ने
अब नीता के बेसुरे गीत भी गुनगुनाये कोई
ये ख्वाइश क्यूँ है

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नीता पोरवाल

27 दिसंबर 2010

नीता पोरवाल की काव्य-रचना --- दिल करता है

कुछ देखना जो चाहूँ तो धुंधला जाती है आँखे
आज क्यूँ बहुत ..हाँ बहुत रोने को दिल करता है

कुछ लिखना जो चाहूँ तो अलफ़ाज़ नहीं मिलते
आसुओं को ही जुबान बनाने को दिल करता है

हर पल बढ़ती ये बेचैनी....ये दीवानगी.. ये पागलपन
आज किसी की आरजू में फना हो जाने को दिल करता है

वो न समझे थे ना समझेंगे खामोशियों की जुबान
शायद कभी समझेंगे ये झूठा गुमान रखने को दिल करता है

लम्हा -लम्हा , हर लम्हा साथ तो निभाया है इन आसुओं ने
तो अब इन आसुओं को ही हमसाज़ बनाने को दिल करता है

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नीता पोरवाल

21 दिसंबर 2010

महेंद्रभटनागर की कविताएँ

महेंद्रभटनागर की कविताएँ

कला-साधना

हर हृदय में

स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ

कला की साधना है इसलिए !

गीत गाओ

मोम में पाषाण बदलेगा,

तप्त मरुथल में

तरल रस ज्वार मचलेगा !

गीत गाओ

शांत झंझावात होगा,

रात का साया

सुनहरा प्रात होगा !

गीत गाओ

मृत्यु की सुनसान घाटी में

नया जीवन-विहंगम चहचहाएगा !

मूक रोदन भी चकित हो

ज्योत्स्ना-सा मुसकराएगा !

हर हृदय में

जगमगाए दीप

महके मधु-सुरिभ चंदन

कला की अर्चना है इसलिए !

गीत गाओ

स्वर्ग से सुंदर धरा होगी,

दूर मानव से जरा होगी,

देव होगा नर,

व नारी अप्सरा होगी !

गीत गाओ

त्रास्त जीवन में

सरस मधुमास आ जाए,

डाल पर, हर फूल पर

उल्लास छा जाए !

पुतलियों को

स्वप्न की सौगात आए !

गीत गाओ

विश्व-व्यापी तार पर झंकार कर !

प्रत्येक मानस डोल जाए

प्यार के अनमोल स्वर पर !

हर मनुज में

बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत

कला की कामना है इसलिए

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कविता-प्रार्थना

आदमी को

आदमी से जोड़ने वाली,

क्रूर हिंसक भावनाओं की

उमड़ती आँधियों को

मोड़ने वाली,

उनके प्रखर

अंधे वेग को आवेग को

बढ़

तोड़ने वाली

सबल कविता

ऋचा है, / इबादत है !

उसके स्वर

मुक्त गूँजें आसमानों में,

उसके अर्थ ध्वनित हों

सहज निश्छल

मधुर रागों भरे

अन्तर-उफ़ानों में !

आदमी को

आदमी से प्यार हो,

सारा विश्व ही

उसका निजी परिवार हो !

हमारी यह

बहुमूल्य वैचारिक विरासत है !

महत्

इस मानसिकता से

रची कविता

ऋचा है, इबादत है !

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प्रतीक्षक

अभावों का मरुस्थल

लहलहा जाये,

नये भावों भरा जीवन

पुनः पाये,

प्रबल आवेगवाही

गीत गाने दो !

गहरे अँधेरे के शिखर

ढहते चले जाएँ,

उजाले की पताकाएँ

धरा के वक्ष पर

सर्वत्रा लहराएँ,

सजल संवेदना का दीप

हर उर में जलाने दो !

गीत गाने दो !

अनेकों संकटों से युक्त राहें

मुक्त होंगी,

हर तरफ़ से

वृत्त टूटेगा

कँटीले तार का

विद्युत भरे प्रतिरोधकों का,

प्राण-हर विस्तार का !

उत्कीर्ण ऊर्जस्वान

मानस-भूमि पर

विश्वास के अंकुर

जमाने दो !

गीत गाने दो !

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ओ स्त्री...बच के तुम जाओगी कहाँ....भला...!!??

ओ स्त्री...बच के तुम जाओगी कहाँ....भला...!!??
एय स्त्री !!बहुत छट्पटा रही हो ना तुम बरसों से पुरुष के चंगुल में…
क्या सोचती हो तुम…कि तुम्हें छुटकारा मिल जायेगा…??
मैं बताऊं…?? नहीं…कभी नहीं…कभी भी नहीं…
क्योंकि इस धरती पर किसी को भी पुरुष नाम के जीव से
मरे बगैर या विलुप्त हुए बगैर छुटकारा नहीं मिलता…
पुरुष की इस सत्ता ने ना जाने कितने प्राणियों को लुप्त कर डाला
पुरुष नाम के जीव की सत्ता की हवस के आगे कोई नहीं टिक पाया
यह तो सभ्यता की शुरुआत से भी शायद बहुत पहले से लडता आ रहा है
तुम तो इसके साथ ही साथ रहती आयी हो,क्या इतना भी नहीं जानती
कि यह लडने के सिवा और कुछ जानता ही नहीं…!!
और अपने स्वभाव के अनुसार यह सबको एक जींस समझता है…!!
तुम भी एक जींस ही हो इसके लिए,बेशक एक खूबसूरत जींस…
और मज़ा यह कि सबसे आसान…और सर्वसुलभ भी…
सदियों से इसकी सहधर्मिणी होने के मुगालते में…
इसकी यौन-ईच्छाओं की पूर्ति का एक साधन-मात्र बनती रही हो तुम
पता है क्यूं…?सिर्फ़ अपनी सुरक्षा के लिए,मगर यह तो सोचो…
कि कभी भी,किसी भी काल में यह सुरक्षा तुम्हें मिल भी पायी…??
कि पुरुष की सुरक्षा,उसके द्वारा बनाए गये देशों की सीमाओं की सुरक्षा के निमित्त
सुरक्षाकर्मियों ने हर युद्द में तुम्हारे मान का चीर-हरण किया…
क्या यह पुरुष पशु था…नहीं…पशु तो ऐसा नहीं करता कभी…!!
नहीं ओ मासूम स्त्री…यह जीव कोई पशु या अन्य जीव नहीं…
यह पुरुष ही है…आदमजात…मर्द…धरती की समुची सत्ता का स्वयंभू स्वामी…
धरती के समस्त साधनों का निर्विवाद एकमात्र नेता…एकक्षत्र सम्राट्…
इसके रास्ते में इसके वास्ते तुम आखिर हो क्या ओ स्त्री…??
तुम्हें सुन्दर कह-कहकर…विभिन्न अलंकारों से विभुषित कर-कर…
तुम्हें तरह-तरह की देवियों के रूप प्रतिस्थापित करके,तुम्हारी बडाई करके
हर प्रकार के छल-कपट का सहारा लेकर तुम्हें अंकशयनी बना लेता है यह अपनी…
और अपनी छ्ल-कपट भरी प्रशंसा सुन-सुन तुम फूले नहीं समाती हो…
और त्रियाचरित्र कही जाने वाली तुम इस विचित्र-चरित्र जीव द्वारा ठगी जाती हो…
ओ स्त्री…!अपनी देह के भीतर तुम एक इन्सान हो यह तुमने खुद भी कब जाना…?
तुम तो खुद अपनी देह का प्रदर्शन करते हुए नहीं अघाती हो,क्योंकि वो तुम्हारी देह है…!
ऐसे में बताओ तुम इस चुंगल से बचकर जाओगी तो जाओगी कहां भला…?
तुमने तो खुद ही चुन लिया है जाने-अनजाने इक यही रास्ता…एक अंधी गली…!!
तुम्हारा सहारा कहा जाने वाला कोई भी…पिता-पति-बेटा या कोई और यदि मर जाये…
तो ये सारा पुरुष वर्ग प्रस्तुत है तुम्हारी रक्षा के लिए…गर इसकी कीमत तुम चुकाओ…!!
और वह कीमत क्या हो सकती है…यह तुम खूब जानती हो…!!
तुम्हें किसी भी प्रकार का कोई सहयोग…कोई लोन…कोई नौकरी…या कोई अन्य मदद…
सब कुछ प्रस्तुत है…हां बस उसकी कीमत है…और वह कीमत हर जगह एक ही है…!!
वह कीमत है तुम्हारे शरीर की कोई एक खास जगह…बस…!!
कहां जाओगी तुम ओ स्त्री…कानून के पास…??
तो उसके रखवाले सवाल पूछेंगे तुमसे ऐसे-ऐसे कि तुम सोचोगी कि
इससे तो अच्छा होता कि तुम एक बार और ब्लत्क्रित हो जाती…
कानून के रखवाले क्या आदमी नहीं हैं…??क्या उनकी कोई भूख नहीं है…??
तो तुम इतनी मासूम क्यूं हो ओ स्त्री…??
क्यूं नहीं देख पाती तुम सबके भीतर एक आदिम भूख…??
किसी भी उम्र का पुरुष हो…भाई-बेटे-पोते…किसी भी उम्र का व्यक्ति…जो पुरुष है…
किस नज़र से देखता है वो तुम्हें…आगे से…पीछे से…ऊपर से…नीचे से…उपर से नीचे तक…
तुम घबरा जाओगी इतना कि मर जाने को जी करे…!!
मगर तुम मर भी नहीं सकती ओ स्त्री…क्योंकि तुम स्त्री हो…
और बहुत सारे रिश्ते-नाते हैं तुम्हारे निभाने को…जिनकी पवित्रता निभानी है तुम्हें…
और हां…तुम तो मां भी हो ओ स्त्री…
और भले ही सिर्फ़ भोग्या समझे तुम्हें यह पुरुष…
मगर उसे भी दरकार है तुम्हारी…अपने पैदा होने के लिए…!!

19 दिसंबर 2010

एक साध्वी का एक वाक्य पढ़कर.......

एक साध्वी का एक वाक्य पढ़कर.......

साध्वी.....किसको कौन क्या सिखाये....!!
जब हर कोई करतब ही दिखलाए !!
यहाँ किसी ने अपना काम नहीं करना है...
और हर किसी को दूसरे का रोना रोना है...!!
हर कोई कानूनची है यहाँ , सुनता कौन है भला किसी की यहाँ !!
एक है पी. एम. हमारा.... देखो ना कितना धैर्य है उसमें...
सबकी बराबर सुनता है.... सबको बराबर देखता है....
मगर किसी को कुछ नहीं कहता है वो....
ऐसा लगता है कि किसी को देखता ही नहीं वो...
साध्वी.....किसको कौन क्या सिखाये....!!
जब हर कोई करतब ही दिखलाए !!
यहाँ किसी ने अपना काम नहीं करना है...
और हर किसी को दूसरे का रोना रोना है...!!
हर कोई कानूनची है यहाँ ,
सुनता कौन है भला किसी की यहाँ !!
एक है पी. एम. हमारा....
देखो ना कितना धैर्य है उसमें...
सबकी बराबर सुनता है....
सबको बराबर देखता है....
मगर किसी को कुछ नहीं कहता है वो....
ऐसा लगता है कि किसी को देखता ही नहीं वो...
ऐसा लगता है कि किसी को सुनता ही नहीं वो...
सबके सब अपने ही मन की किये जाते हैं
मगर उनका मुखिया होने के नाते भी
कभी किसी के कार्य की कोई जिम्मेवारी नहीं लेता वो कभी...
ऐसा लगता है जैसे बापू के तीनो बन्दर
इसी आदमी के घुस गए हैं अन्दर !!
बुरा मत सुनो,बुरा मत देखो,बुरा मत कहो....
सुनो साध्वी यह आदमी बड़ा ईमानदार है,
बेशक इसके परिवार के सारे सदस्य चोर हों,या डाकू...
कोई इसका संस्कार नहीं ले पाया तो इसकी क्या गलती...
कोई देश को सुरक्षा नहीं दे पाया तो इसकी क्या गलती
कोई कुछ भी करे ना मेरे बाप....!!
तो इसमें किसी दूसरे की क्या गलती है....भला....??
इसलिए हे मेरे तमाम बापों....
तुम कुछ भी किये जाओ...
तुम्हारे बापों का बाप जब तक ईमानदार है....
तब तक जाओ,तुम्हारा भी कुछ नहीं बिगड़ने वाला....!!
सबको अपना काम है साध्वी....
किसको कौन क्या सिखाये...!!
सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा ही जब सबसे बड़ा चोर बन जाए
तो दूसरा कोई क्या उसके गले में घंटी बाँधने जाए !!
क़ानून बनाने वाले ही चोर रास्ता निकाल रहे हैं
इन रास्तों से हर देश-द्रोही बाहर निकाल जाए !!
हम सब नेट पर बैठकर कविता के सिवा कुछ नहीं कर सकते अगर
तो कौन इन कौरवों को मार भगाए....!!
सोचता हूँ कि मैं ही फिर अब इक कृष्ण बन जाऊं....
और फिर एक और महाभारत मच जाए !!
--
http://baatpuraanihai.blogspot.com/

16 दिसंबर 2010

हैलो राडिया(नीरा)…!!…नमस्कार…!!कैसी हो ??

हैलो राडिया(नीरा)…!!…नमस्कार…!!कैसी हो ??
क्या गज़ब है ना नीरा कि मीडिया के द्वारा अक्सर ऐसे-ऐसे नाम प्रकाश में आ जाया करते हैं,जिन्हें आम जगत में कल तक कोई जानता तक नहीं होता…॥किन्तु बदनाम भी होंगे तो क्या नाम ना होगा कि तर्ज़ पर अक्सर बद्ननामी के रूप में ही ऐसे लोग अक्सर अचानक  राजनैतिक,सामाजिक या अन्य किसी क्षितिज पर प्रकाशमान दिखाई देते हैं और कुछ ही समय पश्चात किसी अज्ञात ब्लैक-होल में जाकर समा जाते हैं…और उस वक्त तक तारी सारी बदनामियों का तब क्या होता है,वे कहां बिसूर दी जाती हैं,सो कोई नहीं जानता…!!, जैसा कि नीरा इस समय तुम्हारे साथ भी घट रहा है…है ना नीरा…??
       देखने में तो ओ नीरा तुम अत्यन्त सुन्दर या कहूं कि बडी हुश्नो-फ़रोश दिखाई पड्ती हो,किन्तु क्या गज़ब कि ऐसे ही लोगों को तमाम शायरों ने बडा घातक…कातिल… जानलेवा और ना जाने क्या-क्या तो कहा है…और जब-जब ऐसी कहानियां सामने आया करती हैं,तब-तब ऐसा प्रतीत होता है,कि हमारे शायर कितनी पुख्ता और सच्ची सोच रखते हैं तुम जैसे लोगों के बारे में…!!हुश्न है और प्राणघातक ना हो…यह कैसे हो सकता है भला…??क्या अदाएं हैं उफ़ तुम्हारी ओ नीरा…कुछ ढेर सारी स्त्रियों में और हो जाए तो ये देश तर ही क्यों ना जाए भला…!!
        नीरा…!!एक बात तो बताओ यार…!!…ऐसी जालिमपने वाली अदाएं आती हैं तो आखिर आती कहां से हैं भला तुम जैसे लोगों में…अपनी इस अदा का उपयोग तुम जैसे लोग कभी देश के अच्छे के लिए भी करते हो क्या…??कभी करके तो देखो यार…तब सच्ची,बडा सच्चा मज़ा आएगा तुम्हें हां…और हां यह भी कि तब जो नाम होगा ना,वो नाम भी ऐसा होगा कि जिस पर तुम खुद्…तुम्हारे बच्चे…तुम्हारा परिवार…और यहां तक कि यह समुचा देश भी,जिसे बडे प्यार और फ़ख्र से हम वतन भी कहा करते हैं,उसे भी तुम पर बहुत-बहुत-बहुत नाज होगा…नीरा…!!यार मैं एकदम सच कह रहा हूं…!!
         दरअसल नीरा हम सब जितना समय देश की हानि करके धन कमाने का उपक्रम करते रहते हैं,और उसके एवज में हम जितना धन पैदा कर पाते हैं…उससे बहुत कम मेहनत और समय खर्च करके वो साख,वो नाम कमाया जा सकता है,जिसकी कि कोई मिसाल ही ना मिले…मगर ओ नीरा समझ नहीं आता मुझे धन के लिए कोई अपने भाई-बन्धु को बेच दे तो बेच दे…अपने देश को कैसे भला बेच सकता है…दरअसल नीरा, तुम जैसे कुछ हज़ार लोग अगर सुधर जाओ तो इस देश की तकदीर और तदबीर मिनटों में बदल सकती है,और मज़ा यह कि यह सब तुम नहीं जानते…दुर्भाग्य यह कि तुम जैसे लोग सिवाय अपने स्वार्थ और कतिपय हितों के कुछ जानते ही नहीं…और उससे बडा दुर्भाग्य यह कि यह सब किसी का बाप भी तुम्हें समझा नहीं सकता…!!
        मैं तो नीरा सदैव भगवान से यह प्रार्थना करता रहता हूं कि तुम जैसे तमाम इस तरह के स्वार्थी लोगों को जरा-सी,बस जरा-सी भर यह बुद्धि दे दे कि तुम बजाय अपने…अपने परिवार्…और कुछेक अपने लोगों से उपर उठकर देश के काम आ सके… देश-हित की बाबत सोच सके…अगर भगवान में इतना दम है…अगर सचमुच वो भगवान है…तो काश वो तुम जैसों को सदबुद्धि प्रदान कर दे…तो गांधी-सुभाष-भगत-चंद्रशेखर का यह देश…सचमुच अपनी सदगति को प्राप्त हो पाये…और नीरा पता नहीं क्यूं,मुझे ऐसा यकीन है कि वो ऐसा करेगा…ऐसा करके ही रहेगा…करेगा ना नीरा…??

15 दिसंबर 2010

देहावसान : वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव संजीव वर्मा 'सलिल'

देहावसान :
वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव

संजीव वर्मा 'सलिल'

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ २८.११.२०१०. स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में आज देर रात्रि विख्यात अर्थशास्त्री, छत्तीसगढ़ राज्य में महाविद्यालायीन शिक्षा के सुदृढ़ स्तम्भ रहे अर्थशास्त्र की ३ उच्चस्तरीय पुस्तकों के लेखक, प्रादेशिक कायस्थ महासभा मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष रोटेरियन, लायन प्रो. सत्य सहाय का लम्बी बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. खेद है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार आपने प्रदेश के इस गौरव पुरुष के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ तथा असावधान रही. वर्ष १९९४ से पक्षाघात (लकवे) से पीड़ित प्रो. सहाय शारीरिक पीड़ा को चुनौती देते हुए भी सतत सृजन कर्म में संलग्न रहे. शासन सजग रहकर उन्हें राजकीय अतिथि के नाते एम्स दिल्ली या अन्य उन्नत चिकित्सालय में भेजकर श्रेष्ठ विशेषज्ञों की सेवा उपलब्ध कराता तो वे रोग-मुक्त हो सकते थे.

१६ वर्षों से लगातार पक्षाघात (लकवा) ग्रस्त तथा शैयाशाई होने पर भी उनके मन-मष्तिष्क न केवल स्वस्थ्य-सक्रिय रहा अपितु उनमें सर्व-हितार्थ कुछ न कुछ करते रहने की अनुकरणीय वृत्ति भी बनी रही. वे लगातार न केवल अव्यवसायिक सामाजिक पत्रिका 'संपर्क' का संपादन-प्रकाशन करते रहे अपितु इसी वर्ष उन्होंने 'राम रामायण' शीर्षक लघु पुस्तक का लेखन-प्रकाशन किया था. इसमें रामायण का महत्त्व, रामायण सर्वप्रथम किसने लिखी, शंकर जी द्वारा तुलसी को रामकथा साधारण बोल-चाल की भाषा में लिखने की सलाह, जब तुलसी को हनुमानजी ने श्रीराम के दर्शन करवाये, रामकथा में हनुमानजी की उपस्थिति, सीताजी का पृथ्वी से पैदा होना, रामायण कविता नहीं मंत्र, दशरथ द्वारा कैकेयी को २ वरदान, श्री राम द्वारा श्रीभरत को अयोध्या की गद्दी सौपना, श्री भारत द्वारा कौशल्या को सती होने से रोकना, रामायण में सर्वाधिक उपेक्षित पात्र उर्मिला, सीता जी का दूसरा वनवास, रामायण में सुंदरकाण्ड, हनुमानजी द्वारा शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराना, परशुराम प्रसंग की सचाई, रावण के अंतिम क्षण, लव-कुश काण्ड, सीताजी का पृथ्वी की गोद में समाना, श्री राम द्वारा बाली-वध, शूर्पनखा-प्रसंग में श्री राम द्वारा लक्ष्मण को कुँवारा कहा जाना, श्री रामेश्वरम की स्थापना, सीताजी की स्वर्ण-प्रतिमा, रावण के वंशज, राम के बंदर, कैकेई का पूर्वजन्म, मंथरा को अयोध्या में रखेजाने का उद्देश्य, मनीराम की छावनी, पशुओं के प्रति शबरी की करुणा, सीताजी का राजयोग न होना, सीताजी का रावण की पुत्री होना, विभीषण-प्रसंग, श्री राम द्वारा भाइयों में राज्य-विभाजन आदि जनरूचि के रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है. गागर में सागर की तरह विविध प्रसंगों को समेटे यह कृति प्रो. सहाय की जिजीविषा का पुष्ट-प्रमाण है.

प्रो. सत्यसहाय जीवंत व्यक्तित्व, कर्मठ कृतित्व तथा मौलिक मतित्व की त्रिविभूति-संपन्न ऐसे व्यक्तित्व थे जिन पर कोई भी राज्य-सत्ता गर्व कर सकती है. ग्राम रनेह (राजा नल से समबन्धित ऐतिहासिक नलेह), तहसील हटा (राजा हट्टेशाह की नगरी), जिला दमोह (रानी दमयन्ती की नगरी) में जन्में, बांदकपुर स्थित उपज्योतिर्लिंग जागेश्वरनाथ पुण्य भूमि के निवासी संपन्न-प्रतिष्ठित समाजसेवी स्व. सी.एल. श्रीवास्तव तथा धर्मपरायण स्व. महारानी देवी के कनिष्ठ पुत्र सत्यसहाय की प्राथमिक शिक्षा रनेह, ग्राम, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा दमोह तथा महाविद्यालयीन शिक्षा इलाहाबाद में अग्रज स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव (आपने समय के प्रखर पत्रकार, दैनिक लीडर तथा अमृत बाज़ार पत्रिका के उपसंपादक, पत्रकारिता पर महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक) के सानिंध्य में पूर्ण हुई. अग्रज के पद-चिन्हों पर चलते हुए पत्रकारिता के प्रति लगाव स्वाभाविक था. उनके कई लेख, रिपोर्ताज, साक्षात्कार आदि प्रकाशित हुए. वे लीडर पत्रिका के फ़िल्मी स्तम्भ के संपादक रहे. उनके द्वारा फ़िल्मी गीत-गायक स्व. मुकेश व गीता राय का साक्षात्कार बहुचर्चित हुआ.

उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के निजी सचिव स्व. महेशदत्त मिश्र पन्नालाल जी के साथ रहकर राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे. तरुण सत्यसहाय को गाँधी जी की रेलयात्रा के समय बकरीका ताज़ा दूध पहुँचाने का दायित्व मिला. गाँधी जी की रेलगाड़ी इलाहाबाद पहुँची तो भरी भीड़ के बीच छोटे कद के सत्यसहाय जी नजर नहीं आये, रेलगाड़ी रवाना होने का समय हो गया तो मिश्रजी चिंतित हुए, उन्होंने आवाज़ लगाई 'सत्य सहाय कहाँ हो? दूध लाओ.' भीड़ में घिरे सत्यसहाय जी जोर से चिल्लाये 'यहाँ हूँ' और उन्होंने दूध का डिब्बा ऊपर उठाया, लोगों ने देखा मिश्र जी डब्बा पकड़ नहीं पा रहे और रेलगाड़ी रेंगने लगी तो कुछ लम्बे लोगों ने सहाय जी को ऊपर उठाया, मिश्र जी ने लपककर डब्बा पकड़ा. बापू ने खिड़की से यह दृश्य देखा तो खिड़कीसे हाथ निकालकर उन्हें आशीर्वाद दिया. मिश्रा जी के सानिंध्य में वे अनेक नेताओं से मिले. सन १९४८ में अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् नव स्वतंत्र देश का भविष्य गढ़ने और अनजाने क्षेत्रों को जानने-समझने की ललक उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ले आयी.

पन्नालाल जी अमृत बाज़ार पत्रिका और लीडर जैसे राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में संवाददाता और उपसंपादक रहे थे. वे मध्य प्रान्त और विदर्भ के नेताओं को राष्ट्री क्षितिज में उभारने में ही सक्रिय नहीं रहे अपितु मध्य अंचल के तरुणों को अध्ययन और आजीविका जुटने में भी मार्गदर्शक रहे. विख्यात पुरातत्वविद राजेश्वर गुरु उनके निकट थे, जबलपुर के प्रसिद्द पत्रकार रामेश्वर गुरु को अपना सहायक बनाकर पन्नालाल जी ने संवाददाता बनाया था. कम लोग जानते हैं मध्य-प्रदेश उच्च न्यायालय के विद्वान् अधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी भी प्रारंभ में प्रारंभ में पत्रकार ही थे. उन्होंने बताया कि वे स्थानीय पत्रों में लिखते थे. गुरु जी का जामाता होने के बाद वे पन्नालाल जी के संपर्क में आये तो पन्नालाल जी ने अपना टाइपराइटर उन्हें दिया तथा राष्ट्रीय अख़बारों से रिपोर्टर के रूप में जोड़ा. अपने अग्रज के घर में अंचल के युवकों को सदा आत्मीयता मिलते देख सत्य सहाय जी को भी यही विरासत मिली.

आदर्श शिक्षक तथा प्रशासनविद:

बुंदेलखंड में कहावत है 'जैसा पियो पानी, वैसी बोलो बनी, जैसा खाओ अन्न, वैसा होए मन'- सत्यसहाय जी के व्यक्तित्व में सुनार नदी के पानी साफगोई, नर्मदाजल की सी निर्मलता व गति तथा गंगाजल की पवित्रता तो थी ही बिलासपुर छत्तीसगढ़ में बसनेपर अरपा नदीकी देशजता और शिवनाथ नदीकी मिलनसारिता सोने में सुहागा की तरह मिल गई. वे स्थानीय एस.बी.आर. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये. उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, सरस-सटीक शिक्षण शैली, सामयिक उदाहरणों से विषय को समझाने तथा विद्यार्थी की कठिनाई को समझकर सुलझाने की प्रवृत्ति ने उन्हें सर्व-प्रिय बना दिया. जहाँ पहले छात्र अर्थशास्त्र विषय से दूर भागते थे, अब आकर्षित होने लगे. सन १९६४ तक उनका नाम स्थापित तथा प्रसिद्ध हो चुका था. इस मध्य १९५८ से १९६० तक उन्होंने नव-स्थापित 'ठाकुर छेदीलाल महाविद्यालय जांजगीर' के प्राचार्य का चुनौतीपूर्ण दायित्व सफलतापूर्वक निभाया और महाविद्यालय को सफलता की राह पर आगे बढ़ाया. उस समय शैक्षणिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की दीपशिखा प्रज्वलित करनेवालों में अग्रगण्य स्व. सत्य सहाय अपनी मिसाल आप थे.जांजगीर महाविद्यालय सफलतापूर्वक चलने पर वे वापिस बिलासपुर आये तथा योजना बनाकर एक अन्य ग्रामीण कसबे खरसिया के विख्यात राजनेता-व्यवसायी स्व. लखीराम अग्रवाल प्रेरित कर महाविद्यालय स्थापित करने में जुट गये. लम्बे २५ वर्षों तक प्रांतीय सरकार से अनुदान प्राप्तकर यह महाविद्यालय शासकीय महाविद्यालय बन गया. इस मध्य प्रदेश में विविध दलों की सरकारें बनीं... लखीराम जी तत्कालीन जनसंघ से जुड़े थे किन्तु सत्यसहाय जी की समर्पणवृत्ति, सरलता, स्पष्टता तथा कुशलता के कारण यह एकमात्र महाविद्यालय था जिसे हमेशा अनुदान मिलता रहा.

उन्होंने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में अधिष्ठाता छात्र-कल्याण परिषद्, अधिष्ठाता महाविद्यालयीन विकास परिषद् तथा निदेशक जनजाति प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण के रूप में भी अपनी कर्म-कुशलता की छाप छोड़ी.
आपके विद्यार्थियों में स्व. बी.आर. यादव, स्व. राजेंद्र शुक्ल. श्री अशोक राव, श्री सत्यनारायण शर्मा आदि अविभाजित मध्यप्रदेश / छतीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री, पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय मंत्री तथा स्व. श्रीकांत वर्मा सांसद और राष्ट्रीय राजनीति के निर्धारक रहे. अविभाजित म.प्र. के वरिष्ठ नेता स्वास्थ्य मंत्री स्व. डॉ. रामाचरण राय, शिक्षामंत्री स्व. चित्रकांत जायसवाल से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे. उनके अनेक विद्यार्थी उच्चतम प्रशासनिक पदों पर तथा कई कुलपति, प्राचार्य, निदेशक आदि भी हुए किन्तु सहाय जी ने कभी किसीसे नियम के विपरीत कोई कार्य नहीं कराया. अतः उन्होंने सभी से सद्भावना तथा सम्मान पाया.

सक्रिय समाज सेवी:

प्रो. सत्यसहाय समर्पित समाज सुधारक भी थे. उन्होंने छतीसगढ़ अंचल में लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की कुप्रथा से आगे बढ़कर संघर्ष किया. ग्रामीण अंचल में रहकर तथा सामाजिक विरोध सहकर भी उन्होंने न केवल अपनी ४ पुत्रियों को स्नातकोत्तर शिक्षा दिलाई अपितु २ पुत्रियों को महाविद्यालयीन प्राध्यापक बनने हेतु प्रोत्साहित तथा विवाहोपरांत शोधकार्य हेतु सतत प्रेरित किया. इतना ही नहीं उन्होंने अपने संपर्क के सैंकड़ों परिवारों को भी लड़कियों को पढ़ाने की प्रेरणा दी.

स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे सामाजिक ऋण-की अदायगी करने में जुट गये. प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जबलपुर, बरमान (नरसिंहपुर), उज्जैन, दमोह, बालाघाट, बिलासपुर आदि अनेक स्थानों पर युवक-युवती, परिचय सम्मलेन, मितव्ययी दहेज़रहित सामूहिक आदर्श विवाह सम्मलेन आदि आयोजित कराये. वैवाहिक जानकारियाँ एकत्रित कर चित्राशीष जबलपुर तथा संपर्क बिलासपुर पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अभिभावकों को उपलब्ध कराईं.
विविध काल खण्डों में सत्यसहाय जी ने लायन तथा रोटरी क्लबों के माध्यम से भी सामाजिक सेवा की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित कर अपूर्व सदस्यतावृद्धि हेतु श्रेष्ठ गवर्नर पदक प्राप्त किये. वे जो भी कार्य करते थे दत्तचित्त होकर लक्ष्य पाने तक करते थे.

छतीसगढ़ शासन जागे :

बिलासपुर तथा छत्तीसगढ़ के विविध अंचलों में प्रो. असत्य सहाय के निधन का समाचार पाते ही शोक व्याप्त हो गया. छतीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों ने उनकी स्मृति में शोक प्रस्ताव पारित किये. अभियान सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्था जबलपुर, रोटरी क्राउन जबलपुर, रोटरी क्लब बिलासपुर, रोटरी क्लब खरसिया, लायंस क्लब खरसिया, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सनातन कायस्थ महापरिवार मुम्बई, विक्रम महाविद्यालय उज्जैन, शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर, कायस्थ समाज बिलासपुर, कायस्थ कल्याण परिषद् बिलासपुर, कायस्थ सेना जबलपुर आदि ने प्रो. सत्यसहाय के निधन पर श्रैद्धांजलि व्यक्त करते हुए उन्हें युग निर्माता निरूपित किया है. छत्तीसगढ़ शासन से अपेक्षा है कि खरसिया महाविद्यालय में उनकी प्रतिमा स्थापित की जाये तथा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर में अर्थशास्त्र विषयक उच्च शोध कार्यों हेतु प्रो. सत्यसहाय शोधपीठ की स्थापना की जाए.

दिव्यनर्मदा परिवार प्रो. सत्यसहाय के ब्रम्हलीन होने को शोक का कारण न मानते हुए इसे देह-धर्म के रूप में विधि के विधान के रूप में नत शिर स्वीकारते हुए संकल्प लेता है कि दिवंगत के आदर्शों के क्रियान्वयन हेतु सतत सक्रिय रहेगा. हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने की प्रो. सत्यसहाय की मनोकामना को मूर्तरूप देने के लिये सतत प्रयास जारी रहेंगे. आप सब इस पुनी कार्य में सहयोगी हों, यही सच्ची कर्मांजलि होगी.

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