27 जुलाई 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की दो रचनाएँ - "स्पंदन" एवं "संस्कार"



(1) स्पंदन
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मेरे ह्रदय के स्पंदन से
एक तरंग उठी
भावनाओं में ढ़ल कर
शब्द-बद्ध हुई
इसे समझने को
न केवल मेरी दृष्टि ही
बल्कि चाहिए
मेरे ह्रदय का सा स्पंदन
और चाहिए
भावना ऐसी ही
किन्तु भावना-शून्य यह जग
क्या समझ पाये गा
इन शब्दों में छुपी
मेरे अन्तस की प्रताड़ना को
जो सह्स्त्रों सदियों में भी
अंगीकार न कर पाया हो
व्यथा
अपने से
परन्तु, मूक व बघिर प्राणी की
क्या समझ पायेगा वो जग !
ह्रदय में गुंथी भावना को
क्या समझ पायेगा वो जग
शब्दों में छुपी भावना को !!

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(2) संस्कार
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मैं आदतन
उन पर भरोसा कर बैठा
उन्होने आदतन
भरपूर की दगा
पर
कैसी शिकायत
किससे शिकायत
दोनों ने ही तो किया
अपने-अपने संस्कार का निर्वाह !
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डा0अनिल चड्डा
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13 जुलाई 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की कविता - "भिज्ञ-अनभिज्ञ"




कौन हूं? क्या हूं ??
कुछ ज्ञात नहीं
अज्ञात नाम ???
शायद अपना नहीं
जोड दिया गया है
मेरे साथ
कहीं से उठा कर
या फ़िर चुरा कर
अनजाना अस्तित्व,
वस्तुत:स्थापना नहीं
पर पाऊं कहां
स्वत्व अपना -
खोजता फिरता हूं
यहां,वहां,जहां,तहां!
लगता है
कहां - कहां से
बीत जायेगा जीवन
आजीवन खोजता ही रहूंगा
अस्तित्व अपना
बोध होगा
अपनत्व मेरी रिक्ति का
दुनिया को जब,
तब मैं न होऊंगा
होगा मेरा अस्तित्व -
पर मैं अनभिज्ञ ही रहूंगा!!

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डा0अनिल चड्डा
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डॉ० अनिल चड्डा का परिचय यहाँ देखें

सुधा भार्गव की दो लघुकथाएं - "ओल्ड एज होम" तथा "लक्ष्मी पुराण"


1 ओल्ड ऐज होम
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दो वृद्ध फुसफुसा रहे थे !लगा ऐसा मानो अपना ब्लड प्रेशर नाप रहे हों !"कल ओल्ड एज होम का उदघाटन हुआ था !वहां मैं गया !लेकिन उसके बाहर कुत्ते बिल्ले ही नजर आ रहे थे !तुम्हें तो मालूम है मुझे किस तरह कुत्तों से डर लगता है !सो उल्टे पैर भाग आया !"
"दुबारा जाओगे तो वे अन्दर आराम करते नजर आयेंगे और तुम चौखट से सिर टकराकर पुनः लोट आओगे !
"मगर क्यों ?"
"क्योंकि वह वृद्ध पशुओं की देखभाल के लिए है !"
"हमारे लिए तो कोई व्यवस्था है नहीं !यह नया चक्कर और शुरू हो गया !"
"भैया जमाना बदल रहा है ,मिजाज का मौसम बदल रहा है !अब चर्चा के विषय होंगे पशु प्रेम ,पशु सौन्दर्य ,पशु जीवन का मूल्यांकन !यही नहीं अपितु जानवर इंसान की मौत मरेंगे ,और इंसान कुत्ते -बिल्ली की !"
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2 लक्ष्मी पुराण
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डायेरेक्टर्स बोर्ड की आज मीटिंग है !उनका अगले वर्ष के लिए चुनाव होगा !तुम्हे भी मीटिंग में चलाना होगा !"
"मैं क्या करूंगी जाकर ?"
"तुम्हारा वोट बहत कीमती है !आपात कालीन स्थिति में उसका प्रयोग होगा !मेरे विपक्षी को हराने के काम आएगा !"
"आपका विपक्षी कौन है "!
"वही मेरा सौतेला ,जानी दुश्मन !"
"गोद देंने से क्या सौतेला हो गया !"
कुछ करने से पहले अच्छी तरह सोच लो वर्ना जान लेवा जख्म जीना मुश्किल कर देंगे !मुझे भाई -भाई के झगडे में क्यों घसीटते हो ,!मेरी चचेरी बहन उनको ब्याही है !हमने हमेशा अपनी को सगी बहनें समझा !मेरा यह रिश्ता हमशा को चटक जायेगा फिर क्या जुडानहो पायेगी !मैं कैसे आई दरार को पाट पाऊँगी!दुनिया क्या कहेगी !"
"तुमने मेरी बात नहीं मानी तो मैं नाराज हो जाऊँगा !मगर तुम ऐसा करोगी नहीं !तुम मेरी अर्धागिनी हो ,गृह लक्ष्मी हो !यदि मैं जीत गया तो फैक्ट्री का मालिक बन जाऊँगा !दुश्मन के बदले जिसे डायरेक्टर बनाऊंगा वह तो मेरी उँगलियों पर नाचे गा !"
"वह कौन गुलाम है ?"
"तुम्हारा भाई !दो साल की ही तो बात है तुम्हारा बेटा पढ़कर आ जायेगा !उसे तुम्हारे भाईजान के बदले डायरेक्टर बना दूंगा !पुरी फैक्ट्री पर मालिकाना हक़ मेरा होगा !बाहर वालों को एक एक करके आउट कर दूँगा "उनके शेयर्स ज्यादा दाम देकर खरीद लूँगा !"
"आपका इन बातों में बड़ा दिमाग चलता है !"
" एक सच्चा व्यापारी होने के नाते मुझे गणेश की तरह दूर दर्शी और समझदार होना चाहिए !"
'वह कैसे ?'
'हाथी की सूढ् की तरह सूंघकर व्यापारी को दूर से ही भांप लेना चाहिए कि आसपास कोई खतरा तो नहीं मंडरा रहा !उसकी निगाहों की तरह नजर में पैना पन हो जिससे सूक्ष्म से सूक्ष्म कोना छिपा न रहे !हाथी की तरह उसके कान बड़े और पेट मोटा होना चाहिए ताकि खुद तो जरा सी खुसर -पुसर सुन ले लकिन अपनेभेद पेट में छिपाए रहे !और बताऊँ ------दिमाग इतना तेज हो कि दूसरों के मन की बात उगलवाले !चालें ऐसी आड़ी-तिरछी चले कि बहुत से विभीषन ,जयचंद उससे आकर मिल जाएँ !भई ,मैं तो इन्ही राहों का मुसाफिरहूँ !"
"बंद कीजिये अपना यह गणेश पुराण !"
"हाँ ,वोट देने के साथ- साथ मेरे बैरी के खिलाप बोलोगी भी !"
"उसे अपमानित करके अपने मन की भंडास निकालूँगा !"
"यह मुझसे नहीं होगा !"
"एक बार ,मेरी रानी बात मान लो फिर जीवन भर तुम्हारे चरणों में पड़ा रहूँगा !विष्णु भगवान् के लक्ष्मी पैर दबाती हैं पर मैं आजन्म तूम्हारे पैर दबाऊंगा और लक्ष्मी पुराण पढ़ता रहूँगा !"
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सुधा भार्गव
जे -703 इस्प्रिंग फील्ड,
#17/20, अम्बालीपुरा विलेज,
बेलेंदुर गेट, सरजापुर रोड,
बंगलौर-560102

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - वर्तमान परिपेक्ष्य में बलात्कारों में वृद्धि के कारण एवम समाधान


सत्य अहिंसा परमोधर्मा की नीति पर चलने वाले देश में जहाँ वर्ग भेद के आधार पर हिंसा की जाये, इससे दुःखद एवं जघन्य अपराध कुछ नहीं हो सकता! जहाँ अर्द्ध नारीश्वर के रूप में पूजी जाने वाली महिलाओं पर जब अर्द्धमानव हिंसक व्यवहार करता है, तब अन्य समाजों से हम श्रेष्ठ होने का दावा एवं दम्भ भरने का नाटक क्यों करते हैं, डब्ल्यू यंग का मानना है कि बलात्कार एक ऐसा अनुभव है, जो पीड़िता के जीवन की बुनियाद को हिला देता है। बहुत सी स्त्रियों के लिए इसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक बना रहता है, व्यक्तिगत सम्बधों की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करता है, व्यवहार और मूल्यों को बदल आंतक पैदा करता है।आज सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं के विरूद्ध हिंसा (बलात्कार) की घटनाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। अध्ययन एवं सर्वेक्षण इस बात के प्रबल साक्षी हैं कि भारत में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संख्या में तेजी के साथ बढ़ रही हैं। हमारी सामाजिक संरचना की कमजोरी कहें या बाहरी डर जिसके कारण महिलाएं अपने ऊपर होने वाले हिंसक व्यवहार (बलात्कार) या अपराधों को पारिवारिक और सामाजिक मर्यादा के कारण चुपचाप सह लेती हैं और इसे सगे सम्बन्धि तक से छिपा जाती हैं इसके साथ ही झिझक, लाज-शर्म, भय के कारण, महिला-उत्पीड़न की कुछ घटनाऐं थाने में दर्ज नहीं की जातीं , कोर्ट में न्याय की देरी, संरक्षकों की बदनामी के वजह से आपस में समझा बुझाकर या ले-देकर मामला रफा-दफा कर दिया जाता है। धर्म युग 1 दिसम्बर 1992 में सुर्दशना द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि यदि सूरज पर राहु ग्रहण लगाता है तो कुछ देर बाद वे मुक्त हो जाते हैं पर बलात्कार का राहु यदि किसी नारी के जीवन पर ग्रहण लगा ले तो ऐसी लंबी काली अंधकार की त्रासद चादर उसे घेरती है जिससे ता उम्र वह निकल नहीं पाती । उसका तन लुटता है, उसका मन छटपटाता है, मगर समाज के किसी कोने से उसके लिए सहानुभूति, सम्मान और प्यार के दो बोल नहीं निकलते। बात फुसफुसाहटों और चेमेगोइयों का केन्द्र बन जाती है। कसूर किसी का और सजा कोई भुगते, ऐसा अन्याय बलात्कार के अलावा किसी अपराध में नहीं होता और सबसे अजीब बात यह है कि कालिख बलात्कारी के बजाय उस नारी के माथे पर लग जाती है। उसकी ही नहीं उसमें पूरे परिवार की प्रतिष्ठा इस जघन्य दुष्कृत्य के परिणाम स्वरूप धूलधूसरित हो जाती है, इतनी कि उसके अपने भी क्षुब्ध होकर बोल उठते है; कल मुँही तू मर क्यों नहीं गई ; मौत तो सिर्फ शरीर की होती है, बलात्कार तो अस्मिता को भी चूर-चूर कर देता है और आत्मसम्मान को भी!
बलात्कारों में वृद्धि के कारण-
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो बलात्कारों में वृद्धि की घटनाओं के पीछे हमारी उपभोक्तावादी संस्कृति, संस्कार के साथ-साथ पाशविक मनोवृत्ति और लगातार बढ़ रहे नगरीकरण, औद्योगीकरण तथा भूमण्डलीकरण प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। इसके साथ ही संचार माध्यमों में बढ़ते सेक्स और हिंसा का प्रदर्शन, अश्लील यौन साहित्य, फिल्म, वीडियो आदि का प्रदर्शन बलात्कार की घटनाओं को अंजाम देने में प्रमुख भूमिका एवं उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। जब हमारा समाज स्वदेशी-विदेशी फिल्मों में पुरूष-महिला के अंतरंग प्रेम सम्बधों को पर्दे पर देखता है तब उसी का अनुसरण करने में ऐसे लोग अपने जीवन में उतारने में जरा भी संकोच नहीं करते अर्थात् कुछ हद तक मीडिया ने बलात्कार को अर्थात् नारी देह को मुक्त रूप से भोगने को व्यापक सामाजिक स्वीकृति दे दी है। इसे एक मनोवैज्ञानिक एवं मानवोचित कमजोरी कहें तो जायज है कि जिसे फिल्मों में देखने में ऐतराज नहीं है, उसे यथार्थ में भी उतारने में झिझक नहीं रह जाती है। जहाँ एक ओर फिल्मों में उत्तेजक यौन हरकतें, विज्ञापनों में नारी केवल मौज-मस्ती का साधन, उत्तेजित करने वाली और कामुक अदाओं से लुभाने वाली नजर आती हैं वहीं दूसरी ओर अक्षत योनि की आदिम आकाँक्षा और विक्षिप्त यौन कुण्ठाएं भी बलात्कार को बढ़ावा देती हैं।
महिलाओं के विरूद्ध बलात्कार की प्रमुख मनोवैज्ञानिक प्रकृति एवं उद्देश्य निम्न हैं-कामवासना, आपराधिक मानसिकता, पुरूषों के झूठे अहम का वहम, हीनभावना का शिकार एवं अवसाद ग्रस्तता मानसिक रूप से कमजोर अथवा मनोरोगी, शंकालु स्वभाव के व्यक्ति ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। इन बलात्कार की घटनाओं को अंजाम देने वाले अक्सर पंडित, पुरोहित, पुजारी, नजदीकी रिश्तेदार, दोस्त या परिचित होते हैं। वकील, मालिक, अड़ोसी-पड़ोसी, सौतेले ,पिता, भाई, चाचा, मामा, नाना, ताऊ वगैरह के द्वारा भी बलात्कारों की संख्या में निंरतर वृद्धि हो रही है। खुले समाजों में भी ऐसे बलात्कार बढ़ रहें हैं, जो स्त्री पर तरह-तरह के अप्रत्यक्ष दबाव डालकर किए जाते हैं। पद, पैसे और कैरियर का प्रलोभन अक्सर स्त्रियों की सहमति पाना आसान कर देता है। अर्थात् अपना ही घर आज बहू- बेटियों के लिए हिंसा और वध स्थल बनता जा रहा है।
बलात्कार की इन घटनाओं के पीछे हमारे सामाजिक ढ़ांचे में कुछ मर्यादित कमजोरियों के साथ-साथ, पुलिस कार्यवाही में ढीला-ढाली एवं राजनीतिक दबाव, न्याय व्यवस्था का दोषी, विशेषकर न्यायालय में पीड़ित महिला से उल्टे सीधे सवाल-जबाव क्योंकि जिस अभागिन के साथ बलात्कार होता है, वह कौमार्य अथवा सतीत्व भंग की क्षति ही नहीं सहती, गहन भावनात्मक दंश, मानसिक वेदना, भय, असुरक्षा और अविश्वास प्रायः आजीवन उसका पिण्ड नहीं छोड़ते। ऐसी महिलाएं अपना दुःखड़ा अंतरंग-से-अंतरंग के समक्ष भी रो नहीं पातीं! वक्त के साथ उनका एकांकीपन भी बढ.ता जाता है और जीवन का बोझ भी, जबकि बलात्कारी पीड़ित महिला के साथ-साथ अक्सर न्याय व्यवस्था का भी शीलभंग करने में सफल हो जाता है। और दोनों में से कोई भी उसका बाल तक बांका नहीं कर पाता। शायद इसके पीछे मुख्य कारण यह रहता है कि बलात्कार के मुकदमों में अधिकाँश अभियुक्त पैसे के बल पर योग्य वकील ढूढ़ता है, जो उसे कानूनी शिकंजे से निकाल ले जाने का कोई-न-कोई रास्ता खोज ही निकालता है क्योंकि न्याय और कानून में बच निकलने के तमाम रास्ते वाकायदा मौजूद हैं। न्याय और कानून की इस प्रक्रिया में महिलाओं को अपने साथ हुए बलात्कार की इन घटनाओं को छुपा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ती । यही कारण है कि सरकारी आंकड़ों में वह तस्वीर (बलात्कार) ही नहीं आ पा रही है जो आनी चाहिए क्योंकि बलात्कार की शिकार हुई महिला चुप्पी साधने में ही अपना हित समझती है और शायद यही कारण है कि बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं की यही चुप्पी बलात्कारियों के दुस्साहस को दिन-प्रतिदिन बढ़ा रही है। अरविन्द्र जैन का मानना है इधर पिछले कुछ सालों में छोटी उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले लगातार बढ़े हैं जो निश्चित रूप से भयावह और चिंताजनक हैं। समाचार पत्रों में आये दिन ऐसे समाचार; समाज में बढ़ रही भयंकर मानसिक बीमारी का प्रमाण हैं। गुड़ियों के संग खेलने की उम्र में बच्चों के साथ बलात्कार जैसे घृणित और संगीन अपराध बढ़ रहे हैं। बच्चों से बलात्कार घृणित जघन्यतम अपराध है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हे कि वयस्क महिलाओं से बलात्कार कम घृणित है। बच्चों से बलात्कार में बढोत्तरी का एक कारण यह भी है कि युवा लड़कियाँ, बच्चियों की अपेक्षा अधिक विरोध कर सकती हैं, चीख सकती हैं और शिकायत कर सकती हैं। बलात्कारी पुरूष सोचता है बच्चे बेचारे क्या कर लेगें? विशेषकर जब बलात्कार घर में पिता, भाई, चाचा, ताऊ या अन्य रिश्तेदारों द्वारा किया गया हो। निर्धन परिवारों की कम उम्र की बच्चि के साथ बलात्कार की घटनाएं अधिक होती हैं लेकिन अब मध्यम और उच्चवर्ग में भी बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि नाबालिग बच्चों द्वारा कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले भी लगातार बढ रहे हैं। फिल्मों, टी0वी0 और पत्र-पत्रिकाओं में बढती नग्नता और सेक्स व हिंसा का अस्त्र किशोरों में तेजी से बढ़ रहा हैं। दूसरी तरफ एक सर्वेक्षण के अनुसार अधिकांश बलात्कारी कानून के किसी-न-किसी चोर-दरवाजे से भाग निकलते हैं। अक्सर देखा गया है कि अभियुक्त सारा अपराध पीड़िता के सिर मढ़ देता है और कहता है कि जो कुछ हुआ उसकी मर्जी अथवा सहमति से हुआ। अपने बचाव के लिए वह प्रत्यारोप तक लगा देता है कि पीड़ित संभोग की आदी थी या बदचलन थी। परिणाम यह होता है कि तर्क हर बार जीत जाता है और पीड़ा हार जाती है।
उबाऊ, थकाऊ और घर-बिकाऊ न्याय व्यवस्था में गरीब आदमी को महसूस होने लगा है कि इतनी इज्जत तो तब भी खराब नहीं हुई थी जब उसकी बहू-बेटी के साथ बलात्कार हुआ जितनी अब यहाँ इन कोर्ट-कचहरियों में उसकी हो जाती है। वास्तव में बलात्कार से अधिक बलात्कार होने का एहसास तब होता है जब मुकदमों के दौरान भरी कचहरी में विरोधी वकीलों के तर्कों का जबाब देना पड़ता है। ऐसी हालत में खुद बलात्कार की शिकार महिला हो या गवाह; दोनों टूट जाते हैं।बलात्कारी रिहा होने के बाद मूछों पर ताव देकर शान से घूमता है और आंतकित बूढ़े गरीब बाप को डूब मरने के लिए कुआं-बावड़ी तक नहीं, क्योंकि डर लगता है कि कहीं बच गया तो आत्महत्या करने के प्रयास के अपराध में उसे ही जेल भेज दिया जाएगा ।
वर्तमान की बात करें तो आज सामाजिक-आर्थिक विषमता के परिवेश में साधन सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा भी कमजोर वर्ग की महिलाओं पर बलात्कार के मामले निरन्तर बढ़ रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले अपराधों में पुलिस की भूमिका कम संदिग्ध नहीं होती क्योंकि उन पर हाथ डालने पर पुलिस पर राजनीतिक दबाव भी पड़ सकता है।
बलात्कार रोकने के समाधन-सुसन बाउन मिलर (अगेंस्ट आवर बिलः मैन, विमेन एण्ड रेप, 1975) का यह कहना सही है कि बलात्कार अपराध नहीं है; बल्कि पुरूषों द्वारा औरतों को इस खतरे का हौआ दिखाकर लगातार भयभीत रखना-भर प्रतीत होता है। कुछ व्यक्तियों ने बलात्कार करके समस्त स्त्री समाज को निरन्तर मुट्ठी में रखने का मानो षडयंत्र भर रचा हुआ है क्योंकि बलात्कार शारीरिक अथवा मानसिक रूप से नारी को लगातार एहसास कराता रहता है कि गलती उसी की है। जबकि बलात्कार उस पर जबरन लादा जाता है। जब तक बलात्कार के संदर्भ में कानून और समाज का दृष्टिकोण और परिपे्रक्ष्य नहीं बदलता, तब तक बलात्कार से पीड़ित नारी स्वयं समाज के कठघरे में अभियुक्त बनकर खड़ी रहेगी।
बलात्कार जैसे जघन्य एवं अमानवीय घटनाओं को रोकने के लिए भारतीय दंड सहिता में अनेक कानूनी प्रावधान हैं परन्तु भारतीय न्याय व्यवस्था में इसका अनुपालन अन्य विधियों की अपेक्षा मंद एवं शिथिल दिखता है। हालांकि आई0 पी0 सी0, न्याय व्यवस्था के तहत बलात्कार को संज्ञेय और गैर जमानती अपराध मानता है। सन् 1983 के अपराधिक कानून (संशोधन अधिनियम) के तहत महिलाओं को बलात्कार के शिकार होने से बचाने में संशोधन किया गया। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 में दोषी को कठिन दंड का प्रावधान किया गया। विशेषतया कर्मचारियों, जेल निरीक्षकों के लिए । वहीं धारा 286 बलात्कार के शिकार का नाम प्रकाशित करने पर रोक लगाती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 111(अ) दोषी पर आरोपों को सिद्ध करने की जिम्मेदारी को व्यक्त करती है। जहाँ एक ओर सर्वोच्च न्यायलय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में परिपुष्टि की आवश्यकता नहीं है, वहीं दूसरी ओर राजनेताओं द्वारा बलात्कारी को मृत्यु दण्ड दिए जाने की मांगे भी उठने लगी हैं और मलिमथ कमेटी भी गठित होने के बाद भी बलात्कारी को फाँसी तक पहुचाँने का प्रावधान अधर में लटक गया। आखिरकार कहाँ और किससे चूक हो जाती है? 1983 में एक मुकदमें का फैसला देते हुए न्यायमूर्ति ए0पी0 सेन और ए0पी0 ठक्कर ने कहा कि वर्तमान भारतीय परिवेश में जब भी कोई महिला या लड़की बलात्कार के मामलें को सामने लाती है तो वह निश्चित रूप से अपने परिवार, मित्रों, सम्बंधियों, पति, भावी पति आदि की नजरों में गिरने , घृणा की पात्र बनने जैसे खतरे उठाकर ही अदालत का दरवाजा खटखटाती है। ऐसे में संभावना अधिकतर इस बात की होती है कि यह मामला सच है, झूठा नहीं ।
ऐसे कानूनों के रहते हुए भी बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय पाना मुश्किल ही नहीं वरन् (जुम्मनखान 1991 को ही केवल फांसी के बदले आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई) असम्भव प्रतीत होता है। इस परिप्रेक्ष्य में अरविन्द जैन का मानना है कि वयस्क और विवाहित महिलाओं के मामले में अधिकतर अपराधी इस आधार पर छोड़ दिये जाते हैं कि संभोग सहमति से हुआ क्योंकि महिला के वक्ष, नितंब या योनि पर कोई चोट के निशान नहीं हैं और महिला संभोग की आदी है। पुलिस द्वारा खोजबीन और गवाहियों में दस घपले, अदालत में बहस के दौरान कानूनी नुक्ते और अनेक खामियों से भरे मौजूदा कानूनों की वजह से ज्यादातर अभियुक्त बरी कर दिए जाते हैं।वास्तव में देखा जाए तो अदालत की ओर ले जाया जाता हुआ बलात्कारी वह अभिशप्त आदमी है, जिसकी पीठ पर पूरी सभ्यता का कूबड़ है।
बलात्कार के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कुछ भी कारण हों परन्तु मूल कारण यही लगता है कि हमारा परम्परावादी समाज बलात्कार की शिकार महिला के साथ वास्तविक सहानुभूति नहीं रख पाता। इसमंे कोई दो राय नहीं कि हमारी परम्पराएं पितृसत्तात्मक होने के कारण स्त्री की अपेक्षा पुरूष को महत्व देती है।पत्रकार गणेश मंत्री का मानना है कि आर्थिक विषमताओं के साथ ही हमारी समूची सामाजिक सोच, प्रत्यक्ष जीवन में व्याप्त स्त्री सम्बन्धी धारणाएं, उनको पुरूष से हीन मानने की सदियों से चली आ रही परम्पराएं स्त्री पर अधिकार और कब्जे को अपनी शक्ति का घोतक मानने की प्रवृत्ति भी स्त्रियों पर अत्याचार के मूल में है। बलात्कार भी उसी की एक परिणति है। आज इसके लिए आवश्यक हैं कि पुरूष और महिला के दृष्टिकोण में बदलाव के साथ-साथ सामाजिक प्रतिष्ठा की नींव कौमार्य से हटाकर उसकी उपलब्धियों एवं सफलता को आगे रखने की परम्परा को आगे बढाया जाए। इससे मनौवैज्ञानिक रूप से बलात्कारियों को दंडित करने में अधिक सुविधा होगी।
महिलाओं के प्रति पुरूष सदस्यों के मनोभावों और सोच में बदलाव सर्वोपरि है, इसके साथ ही महिलाओं में जागरूकता के साथ अपने नैसर्गिक और कानूनी अधिकारों की जानकारी भी आवश्यक है। दूसरे स्तर पर आत्मरक्षार्थ हेतु महिलाओं को एन0सी0सी0 और ताइक्वाडों भी सीखने पर बल देना होगा। आत्मरक्षा की यह शिक्षा सरकारी, गैर सरकारी संगठनों के अलावा घर के सदस्यों के द्वारा भी दी जा सकती है। इसके अलावा स्कूल कालेज की लड़कियों, कामकाजी महिलाओं , स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों, डाक्टरो, वकीलों और महिला पुलिस को इस तरह के प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं।
सरकारी स्तर पर बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए पुलिस प्रशासन में महिलाओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि की आवश्यकता होनी चाहिए। अपराधों को रोकने के लिए क्राइम अगेंस्ट वुमेन सेल का गठन अनिवार्य होने चाहिए। साथ ही अधिकाधिक महिलाओं की पुलिस बल में बहाली के साथ-साथ महिलाओं पर होने वाले बलात्कार जैसे अपराधों को निपटाने हेतु महिला पुलिस की ही व्यवस्था होनी चाहिए। इन घटनाओं को रोकने के लिए जरूरी है न्याय व्यवस्था में सुधार ताकि मामलों का निपटारा शी्रघ हो सके। महिलाओं पर होने वाले न्यायिक प्रकरणों को विशेष अदालतों के माध्यम से तुरन्त न्याय हेतु महिला जांच ब्यूरो जैसे विभागों की स्थापना में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित कर आवश्यक कदम उठाए जाएं।
अश्लील साहित्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अश्लील विज्ञापनों, टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रम सीरियल फिल्मों के साथ-साथ महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाली ऐसी सामग्री जिससे मनोविकार पैदा होते हों, सरकारी स्तर पर उसे प्रतिबंधित किया जाए। बलात्कार से पीड़ित महिलाओं के प्रति गैर सरकारी स्तर पर भी स्वयं सेवी संस्थाए भी महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन कर सकती हैं जो व्यक्तिगत तौर पर पीड़ित परिवार एवं महिला के प्रति सहानुभूति दिखाकर पुलिस एवं अदालत में न्याय दिलवाने का सुरक्षा के साथ इन्तजाम कर सके। ऐसी संस्थाएं जो पीड़ित महिलाओं को निशुल्क कानूनी सहायता पहुचाएं उसका सरकारी स्तर एवं सामाजिक चिन्तक के द्वारा विस्तार एवं प्रचार अवश्य होना चाहिए। इन सबका प्रचार-प्रसार पत्र-पत्रिकाओं, पर्चां, संचार माध्यमों आदि के द्वारा भी किया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के विरूद्ध ही अपराध नहीं बल्कि समस्त समाज के विरूद्ध अपराध है। यह स्त्री की सम्पूर्ण मनोभावना को ध्वस्त कर देता है और उसे भयंकर भावनात्मक संकट में धकेलता है, इसलिए बलात्कार सबसे घृणित अपराध है। यह मूल मानवाधिकारों के विरूद्ध अपराध है और पीड़िता के सबसे अधिक प्रिय अधिकार का उल्लंघन हैः उदाहरण के लिए जीने का अधिकार जिसमें सम्मान से जीने का अधिकार शामिल है।वर्तमान का कानून भारतीय महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देता है, आंतकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करता है। कानून में संशोधन के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि समाज और न्यायधीशों का दृष्टिकोण भी बदले। स्वतंत्रता के बाद सत्ताधारी वर्ग ने संसद में बैठकर अपने वर्ग हित की रक्षा के लिए राजनीतिक और आर्थिक मुद्द् पर जितने नये कानून बनाए हैं उसकी तुलना में समाज, नारी, किसान, मजदूर और बाल कल्याण के मामलों पर बनाए गए कानून बहुत ही कम हैं और जो कानून बनाए भी गये हैं वे बेहद अधूरे और दोषपूर्ण हैं। न जाने सरकार, अदालत, कानूनविद्, महिला संगठन और स्वयंसेवी महिलाएं आखिर कब तक गूंगी, बहरी और अंधी बनी रहेंगी? सब चुप क्यों हैं? कोई भी कुछ बोलता क्यों नहीं? आज आवश्यकता इस बात की है कि कानून व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के साथ-साथ जरूरी है सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक सोच में बदलाव।बलात्कारियों को मृत्यु दंड की हवाई घोषणाओं से क्या होना है? बलात्कार के ये आंकड़े और आंकड़ों की तुलनात्मक जमा-घटा सिर्फ संकेत मात्र है। स्त्री के विरूद्ध पुरूष द्वारा की जा रही यौन हंसा की वास्तविक स्थिति सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक विस्फोटक, भयावह और खतरनाक है। आखिर बापू के तीनों बंदर कब तक मुँह, कान और आँखों पर हाथ धरे बैठे रहेगें ?
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सम्पर्क -
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज, उरई (जालौन) उ0प्र0-285001
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08 जुलाई 2009

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह "राग-संवेदन" की दो कवितायें - "सार-तत्त्व" और "निष्कर्ष"



(13) सार-तत्त्व
.........................
सकते में क्यों हो,
अरे!
नहीं आ सकते
जब काम
किसी के तुम —
कोई क्यों आये
पास तुम्हारे?
चुप रहो,
सब सहो!
पड़े रहो
मन मारे,
यहाँ-वहाँ!
.
कोई सुने
तुम्हारे अनुभव,
कोई सुने
तुम्हारी गाथा,
नहीं समय है
पास किसी के!
निष्फल —
ऐसा करना
आस किसी से!
.
अच्छा हो
सूने कमरे की दीवारों पर
शब्दांकित कर दो,
नाना रंगों से
चित्रांकित कर दो
अपना मन!
शायद, कोई कभी
पढ़े / गुने!
या
किसी रिकॉर्डिंग-डेक में
भर दो
अपनी करुण कहानी
बख़ुद ज़बानी!
शायद, कोई कभी
सुने!
.
लेकिन
निश्चिन्त रहो —
कहीं न फैले दुर्गन्ध
इसलिए तुरन्त
लोग तुम्हें
गड्ढ़े में गाड़ / दफ़न
या
कर सम्पन्न दहन
विधिवत्
कर देंगे ख़ाक / भस्म
ज़रूर!
विधिवत्
पूरी कर देंगे
आख़िरी रस्म
ज़रूर!

...........................
(14) निष्कर्ष
.........................
ऊहापोह
(जितना भी)
ज़रूरी है।
विचार-विमर्श
हो परिपक्व जितने भी समय में।
.
तत्त्व-निर्णय के लिए
अनिवार्य
मीमांसा-समीक्षा / तर्क / विशद विवेचना
प्रत्येक वांछित कोण से।
.
क्योंकि जीवन में
हुआ जो भी घटित —
वह स्थिर सदा को,
एक भी अवसर नहीं उपलब्ध
भूल-सुधार को।
.
सम्भव नहीं
किंचित बदलना
कृत-क्रिया को।
.
सत्य —
कर्ता और निर्णायक
तुम्हीं हो,
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से।
(विवशता)
.
सिद्ध है —
जीवन : परीक्षा है कठिन
पल-पल परीक्षा है कठिन।
.
वीक्षा करो
हर साँस गिन-गिन,
जो समक्ष
उसे करो स्वीकार
अंगीकार!
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डा. महेंद्रभटनागर,
सर्जना-भवन,
110 बलवन्तनगर, गांधी रोड,
ग्वालियर — 474002 [म. प्र.]
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डॉ0 अनिल चड्डा की दो कवितायें - "तेरा वजूद" और "तेरा इंतजार"





(1) तेरा वजूद
ऐ मौत
तेरा सामना करने से
डरता नहीं हूँ मैं
डर कर
होगा भी क्या
जब तू
आ ही जायेगी

तो
स्वयँ ही
दोस्ताना हो जायेगा
तू क्या मुझे ले जायेगी
मैं स्वत: ही
तेरे आगोश में
समाँ जाऊँगा
डरता तो मैं
जीवन से हूँ
जो हर मोड़ पर
तेरा एहसास कराता है
और पल-पल
याद दिलाता है
तेरा वजूद
तेरे अघोषित आगमन का
इसलिये
ऐ मौत
तू तो
मेरी शक्ति है
जो पग-पग पर
जीवन से जूझने को
प्रेरित करती है
अत:
तू तो
मेरी मित्र हुई
और
मैं अंत तक
यह मित्रता
निभाऊँगा
चाहे तू चाहे
चाहे न चाहे
तेरे साथ
अवश्य जाऊँगा !
---------------------------

(2) तेरा इंतजार

--------------------------------
तुझसे
मेरा
साक्षात्कार तो
नहीं हुआ मृत्यु
फिर भी
अपने चहुँ और
करता ही रहता हूँ
एहसास तेरा
पर मैं
तेरा स्वरूप
देखने की उत्सुकता से
बार-बार
विमुख हो जाता हूँ
एक निशिचत
मिलन को
टालने की
इच्छा लिये
करने लगता हूँ
फिर से
तेरा ही इंतजार !

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डा0अनिल चड्डा
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07 जुलाई 2009

सुधा भार्गव की दो लघुकथाएं - "देवी" --- "कलाकार"


१.देवी
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गाँव -शहर के लिए वह देवी थी मरते को जिलाती ,जिए को हंसाती ऐसी थी लेडी डाक्टरनी लड़कियाँ उसके सामने शीश झुकातीं ,महिलाएं उसके चरण स्पर्श करतीं लोग जी खोलकर उस पर धन लुटाते उसका काम ही कुछ ऐसा था जो कोई न करे वह कर दे
जिस अस्पताल में वह जनसेवा करती थी उसका निरीक्षण करने के लिए स्वास्थ्य मंत्री आने वाले थे सफाई अभियान जोरों से शुरू हो गया मरीजों की चादरें बदल दी गयी शौचालय झकझक करने लगे नर्सें जरुरत से ज्यादा ही विनम्र हो गयीं जमादार वार्ड नंबर ५ की तरफ झाड़ू लगाने को बढावहां एक युवती गहरी नींद में सो रही थी \उसके बिस्तर के समीप स्टूल पर एक आया उसकी देखरेख के लिए बैठी थी इतने में जमादार ने बिस्तर के पास कपड़े से ढकी एक डलिया की ओर इशारा करते हुए पूछा --"इसे ले जाऊँ "?आया ने पैर से नीचे कुछ टटोला और धीमे से बोली --"मूर्ख ,इसे मरने तो दे "
-------------------
२ कलाकार
------------------
"मैंने ५फ़ुट लम्बी ,५फ़ुट चौड़ी पेंटिंग बनाई है तुम देखकर बहुत खुश होगी "ज़रुर देखना चाहूँगी मीना ,बोलो कब आऊं "
"मैं फोन कर दूंगी "
"तुमने तो गणेश जी की पेंटिंग बनाई है क्यों न छोटी सी पूजा रख लें ,इससे तुम्हारे कलाकार होने का अच्छा प्रचार भी हो जायेगा "
"बात तो तुमने पते की बताई है नीना "
"मेरे चमचे भी तैयार हैं तालियाँ पीटने और भाषण बाजी के लिए फूलों की एक माला खरीदने की देरी है तुम्हें तो बस इतना बताना है वह माला गणेश जी के गले में डालनी है या तुम्हारे गले में "
"अपने गले में डाल लेना सफलता का श्रेय आजकल मीडिया को जाता है "
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सुधा भार्गव
जे -703 इस्प्रिंग फील्ड,
#17/20, अम्बालीपुरा विलेज,
बेलेंदुर गेट, सरजापुर रोड,
बंगलौर-560102

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह राग-संवेदन की दो कवितायें



(11) पूर्वाभास
-----------------
बहुत पीछे
छोड़ आये हैं
प्रेम-संबंधों
शत्रुताओं के
अधजले शव!
.
खामोश है
बरसों, बरसों से
तड़पता / चीखता
दम तोड़ता रव!
.
इस समय तक —
सूख कर अवशेष
खो चुके होंगे
हवा में!
बह चुके होंगे
अनगिनत
बारिशों में!
.
जब से छोड़ आया
लौटा नहीं;
फिर, आज यह क्यों
प्रेत छाया
सामने मेरे?
.
शायद,
हश्र अब होना
यही है —
मेरे समूचे
अस्तित्व का!
.
हर ज्वालामुखी को
एक दिन
सुप्त होना है!
सदा को
लुप्त होना है!

.............................
(12) अवधूत
.............................
लोग हैं —
ऐसी हताशा में
व्यग्र हो
कर बैठते हैं
आत्म-हत्या!
या
खो बैठते हैं संतुलन
तन का / मन का!
व हो विक्षिप्त
रोते हैं — अकारण!
हँसते हैं — अकारण!
.
किन्तु तुम हो
स्थिर / स्व-सीमित / मौन / जीवित / संतुलित
अभी तक!
.
वस्तुतः
जिसने जी लिया संन्यास
मरना और जीना
एक है उसके लिए!
विष हो या अमृत
पीना
एक है उसके लिए!
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04 जुलाई 2009

सुधा भार्गव की कवितायें - "माँ को समर्पित"



---------------------

1 पुल
---------
माँ तुम तो एक पुल थीं
जिसके नीचे से
क्रुद्ध नदी भी बहती थी
शांत भाव से .
अब तो हर बाँध
तरंगिनी की तरंगों में
हो जाता है धराशाही
पुल बनने का रहस्य माँ
मुझको ही दे जाती
विरासत में
--------------------
२.एक बार फिर
--------------
घर को व्यवस्थित करते हुए
मुझे मिला
पीतल का एक कटोरदान
न बन सकी उसकी कद्रदान
पुराने फैशन का समझकर
नाक भौं सकोड़कर
पीछे सरका दिया था
पता न था एक दिन
यही हो जाएगा
मेरे लिए वरदान .
बहुत देर तक
उसे थामे रहे हाथ
छोड़ने को न थे तैयार
उसका साथ
फिसलती उँगलियाँ
ढूंढने की कोशिश में थीं
शायद माँ के हाथों की छाप
जो तोड़ गयी थी रिश्ता
बिना कहे कोई बात
अचानक पैदा हुई एक थाप
मोह भरा संगीत भरा नाद
मोह से उपजी सिहरन
सिहरन से थी
अंग अंग में थिरकन
उसकी गूँज में
मैं खो गयी
आभास हुआ -
वह मेरे कंधे को छू रही है
बालों में उंगलियाँ घुमा रही है
आर्शीवाद की धूरी पर
मंत्र फुसफुसा रही है
उसने बड़े प्यार से
अपने हाथों को बढ़ाया
लड्डुओं का कटोरदान
मुझे धीरे से थमाया
अल्हड़ बालिका सी मुस्कुराकर
मैंने सीने से उसे लगाया
पल भर की छुअन में
मैं रम गयी
एक बार फिर
अनाथ से सनाथ हो गई
----------------------------
३ दूसरा गाँव
-------------
माँ, तू एक बार
फिर से याद आ गई
कमरे की ओर बढ़ चले
मेरे कदम.
सोचा -तू न सही तेरा कमरा सही
तुझे आवाज दूंगी
तुझसे टकराएगी
और लौटकर आयेगी मेरे पास
वात्सल्य के कतरों में डूबी सी .
देहली पर रखा ही था पैर
की उग आईं भ्रम की कोंपलें
भूगोल का भूगोल बदला लगा
जहाँ चप्पलें रखी रहती थीं
वहां थे जूते
जहाँ तेरी दवाएँ थीं
वहां थे मोबाईल
जहाँ तेरी साडियां टँगी थीं
वहां थीं पेंट -कमीज
छाती में एक घूंसा लगा
आंसुओं के रास्ते बह निकला
एक अनकहा दर्द .
तभी सुनाई दिया
अब यह बच्चों का कमरा है
एक -एक सामान हटा दिया है
कुछ बाँटा कुछ रख दिया है
निगाहों से बहुत दूर
उनको देखकर
ताजी हो जाती थीं यादें .
महसूस हुआ-
बड़े इत्मिनान से
दीवारों से खुरच दिया है
तेरा नाम ,
यहाँ अब न मेरी धरती है
और न ही आसमान
भूलकर आ पहुँची हूँ
दूसरे गाँव ..
----------------------------
सुधा भार्गव
जे -703 इस्प्रिंग फील्ड,
#17/20, अम्बालीपुरा विलेज,
बेलेंदुर गेट, सरजापुर रोड,
बंगलौर-560102

02 जुलाई 2009

सुधा भार्गव के मुक्तक


१.कन्धा
--------------
गम मेरी जिन्दगी का अहम हिस्स!
लो एक गम और जुड़ गया
जाने वालों यह बता दो
जिस कंधे पर आंसू बहाए
वह कन्धा क्यों छिन गया
--------------------------
२ इलाज
----------
कुछ कह लिया होता
कुछ सुन लिया होता
सदियों का फासला न होता
जुदाई में मिले घावों का
कुछ इलाज तो होता
-------------------
३जीवन संध्या
--------------
अपने लिए नहीं ,उनके लिए डरते हैं
अरमान कुचलने वालों के लिए दुआ करते हैं
अपनी बर्बादी का तमाशा जी भर कर देखा
जीवन संध्या में भी उन पर मरते हैं
---------------------------
४एक बार
---------------
तुम गये शिकवा नहीं
आने का वायदा मगर कर जाते
तुम बिन जी रहे हैं कैसे
एक बार तो देख जाते
--------------------------
५ दोस्त
----------
दोस्त का जिक्र जब भी भरी महफिल में होता है
तेरा नाम जवाँ पर और आँखों में बचपन होता है
दोस्ती से मुलाकात ही तेरे मिलन के बाद हुई
बिछुडे ,पर चेहरा तेरा ही दिखाई देता है
---------------------------
6 इम्तिहान
------------------
पता न था जुदा होना पड़ेगा
प्यार का इम्तिहान देना पड़ेगा
जीने का ढंग सीखा नहीं
बस प्यार करते रहे
अनजाने गरल पीते रहे
--------------------------
७ कफ़न
-----------
चोट खाई किसी से
किसी को चोट दे गए
चुटकी में मसलकर
कफ़न ओढा गए
-------------------------
८ आँख मिचौनी
-----------------
किस्मत की आँख मिचौनी में
कुछ इस तरह उलझ गये
न उनके हो सके
न अपनी ही बने रहे
--------------------------
सुधा भार्गव
जे -703 इस्प्रिंग फील्ड,
#17/20, अम्बालीपुरा विलेज,
बेलेंदुर गेट, सरजापुर रोड,
बंगलौर-५६०१०२
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डॉ0 अनिल चड्डा की ग़ज़ल - किसी को फुर्सत कहाँ है सोचने की



किसी को फुर्सत कहाँ है सोचने की,
अपने ज़मीर को कचोटने की !

हम भी शामिल हो गये नोचने में,
ज़रूरत क्या हमें है रोकने की !

बुराईयों से मुँह चुराना ठीक नहीं,
अच्छी आदत नहीं है टोकने की !

आने दे लक्ष्मी जिस राह भी आये,
पुरानी बातें हो गईं उसे मोड़ने की !

रिश्ते यूँ भी तो मतलब के ही हैं,
नौबत आती कहाँ है तोड़ने की !

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डा0अनिल चड्डा
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01 जुलाई 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की कविता - मेरी कविता का दर्द!



मन ने
कुछ शब्द
बुदबुदाये
कविता बन गये
भावों की
सरिता बन गये
शब्दों में
मन की व्यथा
उकेर कर
कहीं से कुछ
कहीं से कुछ
ले लेता हूँ
और सभी कुछ
शब्दों को
दे देता हूँ
मैं ही क्यों झेलुँ
सारी व्यथा
शब्दों के द्वारा
कुछ तुम्हें भी
दे देता हूँ
भार उठाते-उठाते
कमजोर पड़ चुके
अपने काँधों का
कुछ भार
तुम्हें भी दे देता हूँ
तुम भी तो
कुछ भार सहो
मेरे शब्दों की
मार सहो
फिर अगर
कह सको तो कहो
मैंने क्या पाया
क्या खोया है
तुमने क्या पाया
क्या खोया है
मेरी कविता ने
जो दर्द बोया है
उसे कम से कम
तुम्हारी आँखों ने
नमी में तो
पिरोया है !
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डा0अनिल चड्डा
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सुधा भार्गव की रचना - किशोर डायरी का एक पन्ना

मैंने अपने मन का द्वंद तुमसे कभी नहीं कहा ! मेरे हृदय का आलोड़न तुमने कभी नहीं सुना ! भावनाओं की भीड़ में मैं खो गया पर तुमने ढ़ूँढ़ने की कोशिश नहीं की ! मुझ मे होने वाला परिवर्तन यदि तुम चाहते तो मेरे नयन कटोरों में देख सकते थे ! मेरे चेहरे पर पढ़ सकते थे पर तुमने तो हमेशा मेरी अवहेलना की !उपेक्षा की दीवार में चिन दिया !बीच -बीच में व्यंग भरे तीरों से मुझे छेदते रहे !ऐसी उम्मीद न थी तुमसे कल बीत गया मगर मैं अपना कल नहीं भूलाकैसे भूल जाऊँ उमंगो पर छिड़का तेजाब ,कल्पना की टूटी सुनहरी कमान मैंने जब भी फूल से गीतों को गुनगुनाया तुमने उनकी कोमलता छीन ली ये खाई चोटें एक दिन में भरने वाली नहीं मैंने तो पैदा होते ही सुना तुम बड़े हो जब मैं बड़ा होने लगातो तुमसे यह सहा नहीं गया यह न समझना तुम हर हालत में मेरा प्यार पाने के अधिकारी हो यह कम भी हो सकता है लेकिन मैं ऐसा होने नहीं दूँगाएक न एक दिन ठीक हो जायेगा सब कुछ जन्मदाता मैं घर छोड़ रहा हूँ सुना तुमने !मैं जा रहा हूँ बस एक बार कह दो -आज का दिन शुभ हो मेरे पंख निकल आये हैं उड़करअपनी छिपी जीत खोजूंगा छोटी हो या बड़ी अपनी लड़ाई खुद लडूंगा मुझे न रोकना ,न आँसू बहाना मुझे अपना रास्ता ढ़ूँढ़ने दो मैं बहती हवाओं को देखना,छुना ,सुनना चाहता हूँ ऐसे समय में मुझे खौफ ,खतरा शंकाएँ घेर सकती हैं फिर भी अपनी हंसी के लिए हसूंगा ,अपनी खुशी के लिए नाचूँगा सोच रहे हो बहुत बोलता हूँ लेकिन बोलने दो
मैं अपना संसार खोजने जा रहा हूँ बिखरे सपनों को भी बटोरना है अपनी किश्ती को खेते समय तुम्हारी यादें हर पल साथ रहेंगीजिनका आलोक मेरे लिए काफी है विकास मंच की ओर कदम बढ़ रहे हैं भूले से भी आवाज न देना थोड़ासब्र करना होगा एक दिन मैं लौटूँगा अवश्य लेकिन कुछ बनकर
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सुधा भार्गव
जे -७०३ इस्प्रिंग फील्ड,
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बंगलौर-५६०१०२

अजीत श्रीवास्तव द्वारा जानकारी के लिए कुछ बुन्देली शब्द

खेल
-------
कुश्ती, छड़ी गतका, पटाबनैती, चांचर, झूला, गढ़ागेंद, गुल्लीडंडा, गड़का, कोड़ा दिमानसाई, नागन तापू, आती, पाती, कबड्डी, गुपना, मामुलिया अण्डा डाबरी, नौरता, आंख मिचैल, कंचा मलखंब अष्टाचंगा, पड़ाछिक उअल, सात गोटें, चपेटा हीकड़ी, दंगल, आइसपाइस, छुवा, सतखपड़ी।
-----------
व्यंजन
---------
ठेंठरा, फरा, रसखीर, महेरी, गुड़ला, लटा लड़ुआ, लप्सी, मिरचुन, डुबरी, ठलूला, चीला (बबरा) रसखीर, मसूसा, कोंई, लपटा, इंदरसे, गुलगुला, दईबड़ा, बरा, गुना, सिंघारपाग, बावर, खींचला, पापर, गुजियां, तुरबा, मुरका, कूचा, सतुआ, मालपुआ, पंजीरी पुआ, खुरमा, सेब, कुमड़खीर, फांके, गकईयां, निगौना, सन्नाटा, पपईयां, खजुलियां, मांड़े, पनफतू भूंजा लोल कुचईयां, घोरूआ, मठरी, कड़ी, अधरेनू, लुचई, हलवा, कसार, अदरैनी, मीड़ा, समूदी रोटी, गकईया, मीड़ा बतियां, बाटीं, कालोनी, खाजा, बतासफेनी , तिलावर, तसमई, रामरोट आदि।
---------------------
लोकदेवता
------------
कारसदेव, पठानबाबा, हरदौल, गौसाई बाबू, मेहतरबाबा, गौसाइन माता, सती चैरा , नट बाबा, वर्वरीक, गौड़, रावबाबा, कल्याण सिंह, बहुला माता, घटौरिया दरयाव सिंह बाबा, रक्कस बाबा, गेवड़े के देवता कचिया मसान, भैंसासुर, खैरापति, कुलदेवता, आसमाई, बीजा सेन, वरमदेव, घटौरिया, पीरबाबा, खातीबाबा।
-------------------
त्यौहार
-----------
जवारे, गनगौर, रामनवमी, पजूने पूनों, अख्ती, बराबरसात, खेर बहेर, भड़रियानमें, कनघूसों नमें, सावनतीज, तीजा गनेश चैथ, पुरखां, मामूलिया, दशदौ, शरद की पूनौ, करवा चैथ, दीवाई, गोदनबाबा, दोजें, इच्छानोमी, ग्यारस, विवाहपंचमी, सकरात, संकट चतुर्थी एकादशी, बसंतपांचे, होरी मां लक्ष्मी, नौरता कजलियां आदि।
--------------------------
लोकगीत
--------------
गारी, फागें, छंद, लमटेरा, बिलवाई ख्याल, मामुलिया, सैरे, आल्हा, नौरता, सावन, दिवारी राछरौ, कार्तिक गीत, राई, गोटे, कीर्तन, भजन, बनरा, दादरा सोहर, ख्याल, ढिमरयाई, ठुमरी, टप्पा, गजल, लावनी, कजरी, पंडवा, साउन, भक्ते, बधाब, कांडरा।
-----------------------------
वाद्ययंत्र
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ढोलक, मंजीरा, झांझे, पखावज, चैताल, हारमोनियम, इकतारा, झेला, रमतूला, तुतल्या शैनाई, ढांक, मटका, कांच, खड़क, चमीटा, रूं-रूं, बांसुरी, नगारो, खरताल, बैजो, वायलिन, नगड़िया, सारंगी, खंजरी, ढोला, केंकड़िया, ताली चंग, मंजीरा, सारंगी।
------------------------------
नृत्य
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मौनिया, दिवाली, कार्तिक बाबा के, राई ज्योनार, जवारे, ढिमरया, धोबी नृत्य, दिलदिल घोड़ी, रावला, स्वांग, गड़रियाई, घूरालोट, सड़क पछाड़, कांड़रा, टेसू।
------------------------------
गहना
---------
छीताफली पैजनिया, पैजना, हसंली, चम्पौं, बाजूबंद, करधनी, बिंदली, मछरियां, बिछिया, मोहनमाला, चनौटा, एंठी, छीता, इमरती, पायल, चूरा बोटा, पायजेब, तोड़ा, घुंसी, झांझे, लच्छा, ककना, बैंदा, बजुल्ला, बेल, चूड़ी, छैल चूड़ी, कंगना, चूड़ियां कचारा गच्छा, सुरक्का चूड़ी, गजरियां, छन्नी, पटेला, चूरा, गजरा, दौरी, डारें, बखौरा, बखौरियां, छला, बरा, नौगरई गुंजे, कंकन, हतपोशा, मुदरी, दस्तबंद, बाजूबंद, अंगूठी, पैंती, छापें, अनन्त, पोंचियां, मकरपेटी, पहा, डुलनियां, हा, बाला, झाला ऐरंग, हार, माला, गुलूबंद, जबारी, खंगौरिया सांकर, टकयावर, कठला, लल्लरी, तबिजिया, बिचैली, कंठा, चंद्रहार, पचलरा, गुंज, गोप, झुमकी मुरकी, नथनी, पुंगरिया, कीलें, झूमर, लाला, कुण्डल।
----------------------------
नदियाँ
---------
चम्बल, क्वारी, सिंध, महुआ, पहुज सहजाद, बेतवा, धसान, केन, नर्मदा, यमुना, टोंस, सोंन (टमसा) सजनाम पटना नदी, ब्यारमा, मिढ़ासन, उर्मिल, श्यामरी बन्ने बेरमा, जामनी, जमड़ार, सुनार, पयस्वनी, परासरी, बीना बीला (काठन) सुखनई, भांडेर नदी, केयना, दुगरई सोनार पतने, कालीसिंध।
-----------------------------
साहित्यकार
--------------
आचार्य केशवदास, मतिराम, भूषण, बिहारी पदमाकर, परमानंद प्रधान, सियारामशरण गुप्त, वियोगी हरि मुंशी अजमेरी, जगनिक, ईसुरी, मैथलीशरण गुप्त, वृन्दावन लाल वर्मा, अंबिका प्रसाद ’दिव्य’, डा0 रामकुमार वर्मा, डा0 आनन्द रसिक विहारी, रसिकेन्द्र, घासीराम व्यास, गंगाधार व्यास, घनश्याम दास पाण्डेय, बनारसी दास चतुर्वेदी, गंगाप्रसाद ’बरसैंया’ ख्यालीराम गुणसागर सत्यार्थी, दुर्गेश दीक्षित, विष्णुंखरे, पं0 गौरीशंकर द्विवेदी, नाथूराम ’माहौर’, गुमान त्रिपाठी, ’मान’, महबूब कवि, दीवान प्रतिपाल सिंह, ’मदनेश’ नर्मदा प्रसाद गुप्त।
---------------------------------
बुन्देली बोली के प्रकार
-----------------------------
मरैठी, डंगई, सगरयाऊ, चैरासी की बोली मालए की बोली, पंवारी, भदौरी, गढ़ा की बोली, लुदयाऊ (लुधांती) रठोंय (रठौरा) खटोला की बोली तवरघारी, लोधी, कुम्हारी गावली, चमारी, बनाफरी, कोष्ठी, तिरहारी, अन्तर्पठा गहोरापठा, कुड़री, जूरा, जाड़, पावकी, गौड़वानी हिडोला की बोली।
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अजीत श्रीवास्तव
’राजीव सदन’ नायकों का मुहल्ला
टीकमगढ़(म0प्र0) पिन-472001
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