26 फ़रवरी 2011

देवी नागरानी की २ ग़ज़ल

ग़ज़ल - १

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बेताबियों को हद से ज़िआदा बढ़ा गया

पिछ्ला पहर था रात को कोई जगा गया


मेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब में ये कौन आ गया

दीपक मुहब्बतों के हज़ारों जला गया


कुछ इस तरह से आया अचानक वो सामने

मुझको झलक जमाल की अपने दिखा गया


इक आसमां में और भी हैं आसमां कई

मुझको हक़ीक़तों से वो वाकिफ़ करा गया


पलकें उठी तो उट्ठी ही देवी रहीं मेरी

झोंका हवा का पर्दा क्या उसका उठा गया


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ग़ज़ल - २

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तन के मकान में भले ही रह रहे हैं हम

उसका उधार क्या कभी लौटा सके हैं हम

यूँ यकबयक बरस पड़ी हमपे मुसीबतें

कुछ ऐसे उजड़े हैं कि न फिर बस सकें हैं हम

दीवार उठ गयी है जो घर - घर के दरमियाँ

तन्हाईयों में जैसे बसर कर रहे हैं हम

बिछड़े जो दर - दरीचों से मिलकर गले कभी

देखा जो दूर से उन्हें तो रो पड़े हैं हम

दीवारों में दबी हुई ऐ देवी सिसकियाँ

पदचाप उनकी साँसों में सुनते रहे हैं हम


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देवी नागरानी

मुम्बई

23 फ़रवरी 2011

इंजीनियरस की परेशानी.......(सत्यम शिवम)

कहता हूँ मै इक ऐसी कहानी.
इंजीनियरस की परेशानी,
इक इंजीनियर की जुबानी।

कहने को तो कुछ दिन में अब,
मै भी इंजीनियर कहलाऊँगा,
टेक्नोलाजी और साफटवेयरस के ही,
गीत सबको सुनाऊँगा,

पर दर्द का ये किस्सा पुराना,
डिग्री के वास्ते खत्म हुई है मेरी जवानी।

पूरे कविता को पढ़ने हेतु इस लिंक पर जाये.....
*काव्य-कल्पना*:-इंजीनियरस की परेशानी

मेरी बेटी

है बड़ी मासूम उसकी मुस्कराहट क्या कहूँ !
वो सदा पहचान जाती मेरी आहट क्या कहूँ !
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एक पल भी दूर उससे रह नहीं सकती हूँ मैं ;
गोद में लेते ही उसको ;मिलती राहत क्या कहूँ !
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देखते ही स्नेह से चूम लेती उसको मैं ;
मखमली बाँहों से उसका घेर लेना क्या कहूँ !
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उसकी किलकारी मेरे कानों में अमृत घोलती ;
माँ मुझे कहकर के उसका खिलखिलाना क्या कहूँ !
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वो मेरी बेटी! मेरा सर्वस्व !मेरी जिन्दगी !
है मेरे वो दिल की धड़कन और ज्यादा क्या कहूँ !
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[कन्या-भ्रूण हत्या को रोकिये .यह मानवता के प्रति अक्षम्य पाप है ]

20 फ़रवरी 2011

कसम…..(सत्यम शिवम)

आज है तुझको कसम,
कि जग को तु सँवार दे।
हाथ में भविष्य तेरे,
मानवों के हित का।
मुख पे है जो दिव्य आभा,
जगती से तेरे जीत का,
बढ़ता ही चल उन राहों में,
जो राह स्वर्ग तक जाती है,
रोक ना तु अब पग इक पल यहाँ,
जो बंधन तुझे मिटना सिखाती है।

खो जा उसमें तब मिलेगा मँजिल,
अपने सुख दुख तु वार दे।

आज है तुझको कसम,
कि जग को तु सँवार दे।

जो झुक गया,जो रुक गया,
इंसान वो सच्चा नहीं।
जिस राह में बस फूल बिछा,
वो राह कभी अच्छा नहीं।

काँटों पे चल,अग्नि में जल,
होता है तो हो जाने दे अब,
अपने जीवन के अवसान का पल।

हार गया तन जीवन में तो क्या,
आत्मा को विजय का हार दे।

आज है तुझको कसम,
कि जग को तु सँवार दे।

प्रलोभन राहों में है मगर,
तेरी इच्छा तो अनंत की है।
थक कर ना सोना है तुझे,
तेरे तन ने आज ये कसम ली है।

भयमुक्त निडर सा चलना है,
तुझे आसमान की राहों पे,
अब ना किसी से डरना है,
दर्द से या अपनों के आहों से।

भूल जा बीती सारी असफलता,
अपनों को भी तु विसार दे।

आज है तुझको कसम,
कि जग को तु सँवार दे।

माँ की ममता की दुहाई,
पत्नी के सिंदूर का कसम।
बहना के निंदिया का वास्ता,
कभी ना ले तु दम में दम।

आक्रोश अपना संचित कर उर में,
क्रोध ज्वार को कर ले तु शांत,
प्रबल वेग चतुराई से अपने,
सब को दे दे तु क्षण में मात।

उपेक्षाओं,आलोचनाओं से ना घबराना,
पी जा जहर अपमान का,
जो तुझे संसार दे।

आज है तुझको कसम,
कि जग को तु सँवार दे।

दीप्त दीप्त जीत से संलीप्त,
मग्न मग्न कर्मों में संलग्न,
अवसर ना कोई गवाना,
हर पल तु बस चलते जाना।

सुदूर हो या पास हो,
मन में तेरे विश्वास हो,
इक लगन हो बस जीत की,
वैराग्य जगत से प्रीत की।

टल जाएँगे बाधाएँ पल में,
हर विघ्न बाधा को संहार दे।

आज है तुझको कसम,
कि जग को तु सँवार दे।


*काव्य-कल्पना*:-कसम 

18 फ़रवरी 2011

जीतेंगे हम शान से....

आई सी सी क्रिकेट वर्ल्ड का आज से शुभारम्भ हो रहा है.गली गली में लोगों का टी.वी.सेट के सामने महफ़िलों का जमावड़ा जमने लगा है.भारत जैसे देश में इस खेल के प्रति गजब का उत्साह दिखाई देता है.अब तो साल भर ही क्रिकेट के मुकाबले चलते रहते हैं किन्तु वर्ल्ड कप फिर भी वर्ल्ड कप ही है.हर भारतीय इस बार अपनी टीम के प्रदर्शन से उसके विजयी होने कीआशा रख रहा है.धोनी के धुरंधर ये कप जीत कर भारत की शान अवश्य बढ़ाएंगे और सन १९८३ के बाद फिर ये कप भारत लायेंगे.अंत में शुभकामनाओं के रूप में मैं उनसे "शकील ज़मील"के शब्दों में बस यही कहना चाहूंगी-
"जो बढ़के सीना-ए-तूफ़ान पे वार करता है,
खुदा उसी के सफीने को पार करता है."

बासंती दोहा ग़ज़ल: ----- संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा ग़ज़ल

संजीव 'सलिल'
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..

पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..

महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..

नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..

नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..

मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..

ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..

घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..

बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

17 फ़रवरी 2011

मेरी भावनाएँ,कितनी निरर्थक…….(सत्यम शिवम)

कैसी है मेरी भावनाएँ,तुमने जानने कि कोशिश कि है कभी।बस कह दिया इक पल में निरर्थक है तुम्हारी भावनाएँ।बड़ा वक्त लगता है ह्रदय की सरिता में इक भावना के कमल खिलाने में।इंसान अपनी भावनाएँ व्यक्त करता है,पर कैसे उसकी सार्थकता का दावा कर सकता है वो?वो खुद नहीं जानता कि उसकी भावनाएँ कौन सा रँग ले लेगी किस क्षण।

भावना मनुष्य के सद्विचारों का इक ऐसा उन्नत बीज होता है,जो इक सच्चे इंसान को जन्म देता है।भावों से भरा दिल हर किसी का नहीं होता।ये तो मिल जाता है,हजारो लाखों में किसी एक को।भावनाएँ ना सीखी जा सकती है,और ना दिखाई जा सकती है।ये तो उद्गार होता है,इक सच्चे इंसान के दिल का।छलकता है उसकी बातों से,महकता है उसके व्यक्तित्व में।

कहते है बिन भाव के आदमी शव होता है।बिन इंसानियत के एक उत्कृष्ट समाज,परिवार और राष्ट्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती।भावनाएँ ना तो हमें विरासत में मिलती है और ना सिखते है हम देख कर इसे।ये तो एक सच्चे इंसान में इंसानियत की पहली और आखिरी निशानी होती है।

जब भावनाओं का सागर उमरने लगता है और इंसान की आत्मा गोते  लगाने लगती है उसमें तो वही भावनाएँ दो बूँद बन कर हमारी आँखों से भी बह जाते है।खुशी के पल में प्रफुल्लित आँसू और दुख के क्षण में आह्लादित आँसू।आँसू एकमात्र वैसे संवेदना वाहक होते है,जो इंसान की भावनाओं का जीवंत रुप ले लेते है।ये एहसास सब ने किया होगा,आँखे जितना बरसती है मन हल्का होता जाता है।भावनाएँ पूर्ववत स्वरुप को धारण कर लेती है और मिलन विरह दोनों बस इक पल में दृष्टिगोचर होने लगता है।

आज के आधुनिक परिवेश में बस व्यवसायिक दृष्टि ही सफलता का आधार बन गया है,तो हमारी भावनाएँ कितनी निरर्थक है।भावनाओं की सार्थकता तो बस इक कलाकार जान सकता है,जो अपनी भावनाओं को ही संगीतबद्ध करता है,भावनाओं की ही लेखनी चलाता है,और उसे ही गुनगुना कर सफल होता है।

कैनवास पर जो आकृति इक चित्रकार बना देता है कल्पनाओं का आखिर वो क्या होता है,भावनाएँ ही तो होती है उस कलाकार की जो स्केच से कैनवास पर खुद खुद इक रुप में दिखने लगती है।भावनाएँ ही कला है,इक कलाकार का आजीवन मीत।

प्रेमी की भावनाएँ प्रेमिका के प्रतीक्षा की चँद घड़ियाँ ही बया कर देती है।कैसे इक युगल विरह वेदना को सहता है और कैसे दूर होकर भी बस भावनाओं के अनोखे तार से जुड़ा होता है।प्रेम भी इक भावना ही है,जो भावुक और हर्षित ह्रदय का परिचायक होता है।इक प्रकार का आकर्षण ही तो होता है प्रेम जिसमें सामने वाला हमें अतिसुंदर और प्यारा जान पड़ता है।अपना सर्वस्व न्योछावर कर के भी प्रेमी युगल क्यों समाज की कुंठित मानसिकता की बलि चढ़ जाते है।यह प्रेम के ही चरमोत्कर्ष की संवेदनात्मक भावनाओं को दर्शाता है।

निरर्थक नहीं है मेरी भावनाएँ जो तुमने समझा ही कहा कभी या यूँ कहे कोशिश ही ना कि समझने की।तुम्हारे इंतजार में पलक पावड़े बिछाएँ यूँ ही निहारता तेरी राह।आने पर तुम्हारे लिपट जाता तुमसे और फिर कुछ ना कहना और ना सुनना।जाने पर तुम्हारे फिर तुम्हारे आने का इंतजार करना और बस सोचना तेरे बारे में।क्यों लगता है इतना निरर्थक वो सब,जो कल तक तुम्हारे लिए मेरा प्यार था।वो मेरी भावनाएँ,क्यों लगती है तुम्हे निरर्थक अब?क्या मेरा प्रेम खत्म हो गया तुमसे आज,जो मेरी भावनाएँ इतनी निरर्थक लगती है अब तुम्हें............