गीतिका
संजीव 'सलिल'
भुज पाशों में कसता क्या है?
अंतर्मन में बसता क्या है?
जितना चाहा फेंक निकालूँ
उतना भीतर धँसता क्या है?
ऊपर से तो ठीक-ठाक है
भीतर-भीतर रिसता क्या है?
दिल ही दिल में रो लेता है.
फिर होठों से हँसता क्या है?
दाने हुए नसीब न जिनको
उनके घर में पिसता क्या है?
'सलिल' न पाई खलिश अगर तो
क्यों है मौन?, सिसकता क्या है?
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