08 मार्च 2010

गीतिका: भुज पाशों में कसता क्या है? --संजीव 'सलिल

गीतिका

संजीव 'सलिल'

भुज पाशों में कसता क्या है?
अंतर्मन में बसता क्या है?

जितना चाहा फेंक निकालूँ
उतना भीतर धँसता क्या है?

ऊपर से तो ठीक-ठाक है
भीतर-भीतर रिसता क्या है?

दिल ही दिल में रो लेता है.
फिर होठों से हँसता क्या है?

दाने हुए नसीब न जिनको
उनके घर में पिसता क्या है?

'सलिल' न पाई खलिश अगर तो
क्यों है मौन?, सिसकता क्या है?

*************************

कोई टिप्पणी नहीं: