ये रचनाएँ स्क्रेप के द्वारा प्राप्त हुईं हैं.
(१)
जीवन भर
सजाती हैं अपनों का संसार
''बेटियाँ!''
न जाने क्यों?
लगती हैं भार।
(२)
समय
असमय
रोप दी जाती हैं
अजानी माटी में,
धान की पौधकी तरह।
जलवायु
अनुकूल हो
याहो प्रतिकूल,
सम्भलना,
खिलना, और बिखरना
इनकी नियती होती है,
''बेटियाँ!''
न जाने क्यों?
'अभागी'होती हैं!
(३)
पीढ़ी दर पीढ़ी,
'माँ'
ने सिखाया
बेटियों को
सिर्फ़ सहना।
दु:ख में भी,
सुख में भी,
खुश रहना।
अभावों को भी
समझन लेना
अपना 'सौभाग्य'।
(४)
'माँ!
'तुमने क्यों नहीं सिखाया?
बेटी!
सच को सच,
झूठ को झूठ कहे।
दु:ख में भी,
सुख में भी,
तटस्थ रहे।
ससुराल और
मायके जैसे,
दो सशक्त
किनारों के
संरक्षण में,
'उन्मुक्त'
नदी की तरह बहे।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
2 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा... दिल को छू लेने वाली रचना...
ये बेटियां ही तो हैं,
जो अभी तक संभाले है धारा को,
अपने संस्कारों से
बना रही
संस्कारित हवा को.
माँ तो सब कुछ देती है,
ताकि जो मिले
उसको भी स्वीकारो
वरदान समझ कर सजा को.
अगर तुम अभागी हो,
तो माँ क्या हुई?
तुम सबसे भाग्य शाली हो
जो गरिमा मिली है तुम्हें.
इस सृष्टि की आधारशिला हो तुम.
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