19 सितंबर 2010

सामयिक कविता : मेघ का सन्देश : --------संजीव सलिल'

सामयिक कविता


मेघ का सन्देश :

संजीव सलिल'
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.

मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..

सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..

देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.

एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..

तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..

तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.

नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..

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3 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

आपने अपनी कविता में पर्यावरण पर हो रहे अत्याचार को लेकर कुछ जरूरी सवाल खड़े किए हैं। विगत कुछेक दशकों में हमारे पर्यावरण में जितने बदलाव आए हैं उसकी चिंता आपकी कविता में बहुत ही प्रमुख रूप में दिखाई देती है। हमने इस बदले वातावरण में जिस तरह से अपनी प्रकृति का दोहन और शोषण कर डाला है वह आपकी कविता में चिंता का विषय है। तभी तो आपका मेघ कहता है

गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

काव्य के हेतु (कारण अथवा साधन), परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

वाणी गीत ने कहा…

मानवों के अत्याचार से त्रस्त होकर भी मैं मंगल ही करूँगा ...
पर्यावरण के दोहन और उसके पुनर्निर्माण पर अच्छी कविता ..!

रंजना ने कहा…

पावन सन्देश देती कल्याणकारी अतिसुन्दर कविता...
आभार !!!