15 मई 2010

दीपक 'मशाल' के काव्य-संग्रह "अनुभूतियाँ" की समीक्षा --- संवेदनाओं का संताप -- डॉ0 सुरेन्द्र नायक

संवेदनाओं का संताप ----- समीक्षा --- डॉ0 सुरेन्द्र नायक

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‘क्योंकि जीवन कविता नहीं/एक पहेली है/और पहेली का शीर्षक नहीं होता’ सम्भवतः यही युवा कवि दीपक चौरसिया ‘मशाल’ के काव्य संग्रह ‘अनुभूतियाँ’ का सार तत्त्व है। विगत एक दशक में युवा कवि-गद्यकार दीपक चौरसिया ने अपनी रचनाधर्मिता से हिन्दी साहित्य-जगत में जिस प्रकार से महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है वह हिन्दी प्रेमियों को एक आश्वस्ति प्रदान करता है कि हिन्दी साहित्य भविष्य में उत्तरोत्तर नये उत्स प्राप्त करता रहेगा। कवि युवा है अतः उसकी कविताओं में अनुभूतियों की सघनता एवं संवेदनाओं का कोलाहल स्वाभाविक रूप से अधिक परिलक्षित होता है।

माँ की विराट सत्ता में करुणा, दया, ममता एवं संवेदनाओं की पुरबैया बयार सी भीनी खुशबू कुछ इस तरह से बिखरी हुयी है कि सृष्टि के आदिम काल से आज तक की मानव की अनवरत विकास यात्रा के क्रम में हजारों तरह के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक पड़ावों से गुजरने के बाद भी उसमें कोई कमी या बदलाव नहीं आया है। जीवन में मनुष्य सफलता के कितने भी सोपान बाँध ले लेकिन उसकी जिन्दगी में माँ सबसे खूबसूरत सपना और सबसे आत्मीयजन होती है। इसी मर्म को पिरोये हुए कवि के अन्तर्तम से प्रस्फुटित उद्गार पठनीय हैं यहाँ सब खूबसूरत है/पर माँ/ मुझे फिर भी तेरी जरूरत है। माँ एक नारी भी है अतः माँ की पीड़ा नारी की पीड़ा भी है। एक माँ को, एक स्त्री को अपने बच्चों पर ये ममता लुटाने के लिए कितना उत्सर्ग करना पड़ता है, ये कवि की पैनी निगाह से छिपा नहीं है माँ/आज भी तेरी बेबसी/मेरी आँखों में घूमती है/तेरे अपने अरमानों की/खुदकुशी/मेरी आँखों में घूमती है।

माँ की असीम सत्ता में नारी के अन्य पारम्परिक सम्बोधन दादी, नानी, बुआ, चाची आदि भी समाहित हैं जो बच्चों को प्रेम और संरक्षण देकर उसके नन्हे बालमन पर अमिट प्रभाव छोड़ देते हैं। ‘तुम छोटी बऊ...’ कविता में वात्सल्य की अनुगूँज की यही प्रतिध्वनि श्रव्य है अकल तो मिली पर तुम सिखा गयीं/मोल रिश्तों का छोटी बऊ।

युवामन में प्रेम की कोपलें न अंकुरायें तो वह युवा ही कैसा। कितने अहसान हैं तेरे मुझपे/तूने मुस्कुराना सिखाया है मुझे/होंठ तो थे मेरे पास/मगर उनका एहसास तूने कराया है मुझे। मोहब्बत में रुसबाइयाँ न हों, मजबूरियाँ न हो, ये कहाँ होता है। तुम मौजों से लड़ना चाहती/मैं साहिल पे चलना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।

उच्च शिक्षा और कैरियर के लिए विदेश प्रवास आजकल सामान्य बात हो चली है। संप्रति कवि भी प्रवासी भारतीय है। ऐसे में महत्वाकांक्षाओं और मानवीय संवेदनाओं के बीच सेतु बनाना काफी कठिन हो चला है। कवि इस विडम्बना से असंपृक्त कैसे हो सकता है? इस त्रासदी को कवि ने बड़े सहज और शालीन शब्दों में उकेरा है तुम अंबर में उड़ना चाहते/मैं जमीं से जुड़ना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।

प्रेमी हर बन्धन, हर जंजीर, हर दीवार को तोड़कर अपनी प्रियतमा का साहचर्य और सान्निध्य पाना चाहता है, मगर ऐसा संभव न हो सके तो मन में तल्खी और शिकवा तो पैदा होगा ही अब जब भी/इस धरती पर आओ/इतनी मजबूरियाँ लेके मत आना/कि हम/मिलकर भी/ना मिल सकें।

कविता का छंदमय होना या छंदमुक्त होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसमें व्यक्त भावों की प्रवणता, गंभीरता और सघनता। इस मानक पर ये काव्य संग्रह खरा उतरता है। छंदमुक्त कविता में भी शब्दों की एक लय, एक प्रवाह होता है जो हमें मनोभावों की गहराइयों से आप्लावित करने के साथ ही काव्य के सौन्दर्य और माधुर्य का आस्वाद देता है। निश्छंद कविता का मतलब शुष्क गद्यमय काव्य नहीं हो सकता है।

कविता को छंद की रूढ़ियों से उन्मुक्त करने वाले महाप्राण निराला की सारगर्भित पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं ‘भाव जो छलके पर्दों पर/न हो हल्के, न हो नश्वर।’ निराला की इन पंक्तियों की कौंध का संदेश स्पष्ट है कि हल्का लेखन नहीं करना चाहिए। इस संदेश का अनुशीलन करते हुए दीपक चौरसिया ‘मशाल’ ने अपने इस पहले ही काव्य संग्रह में विविध आयामों पर लेखनी चलाते हुए काव्य विद्या को नयी ऊँचाई प्रदान की है। स्वाभाविक रूप से हिन्दी जगत को इस कवि से भविष्य में और अधिक उत्कर्ष, वितान और गहनता की अपेक्षा रहेगी। इसके लिए कवि को नवीनतम बिम्ब विधान और रूपकों का संधान करते हुए अपने भारतीय और प्रवासी दोनों ही परिवेशों पर सतत सूक्ष्म दृष्टि रखनी होगी।

कवि एक सृष्टा भी होता है और एक दृष्टा भी। उसकी अंतश्चेतना समकालीन युगबोध का निर्वाह करते हुए भी अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों कालों में संचरण करती है इसीलिए युवा कवि ने अपने सतरंगी काव्य संसार में स्त्री मन, जीवन मूल्य, आतंकवाद, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार जैसे जीवन से जुड़े यक्ष प्रश्नों को भी बहुत मार्मिकता और बारीकी से उकेरा है। दुनिया है तो उसमे हर्ष-विषाद, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रेम-विरक्ति, आशा-निराशा, दुःख-सुख जैसे कारक तो रहेंगे ही। इन सबको स्वीकार करने में ही जीवन की मुक्ति है। कवि का ये मंत्र उनकी कविता ‘बुद्धा स्माइल’ में दृष्टव्य है-वो मुस्कुराये थे तब भी/जब हुआ था आत्मबोध/बुद्ध मुस्कुराते थे पीड़ा में भी/बुद्ध मुस्कुराते थे हर्ष में भी.../क्योंकि दोनों थे सम उनको...

आम आदमी के लिए दुःख और सुख में सम अनुभूति सहज नहीं है लेकिन इस तरह की प्रेरणा आम आदमी को पीड़ा सहन करने के लिए मानसिक रूप से सुदृढ़ तो करती ही है। यह उपलब्धि भी अपने आप में कम नहीं है ये काव्य संग्रह कम से कम एक पाठ की माँग तो करता ही है।

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समीक्ष्य कृति - अनुभूतियाँ (काव्य-संग्रह)
रचनाकार - दीपक चौरसियामशाल
प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, सीहोर 0प्र0
पृष्ठ - 104
मूल्य - रु0 250/
समीक्षक - डॉ0 सुरेन्द्र नायक, प्रतापनगर, कोंच (जालौन)

8 टिप्‍पणियां:

वीनस केसरी ने कहा…

धन्यवाद

सुन्दर समीक्षा

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

bahut hi sundar sameeksha...
pata nahi kab is pustak ko padh paaungi..
iski cover ki drawing bhi bahut sundar hai...
bahut bahut badhai..

बेनामी ने कहा…

बेहतरीन समीक्षा

vandana gupta ने कहा…

gazab ki samiksha ki hai.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

इसे कहते हैं आदर्श समीक्षा, इसी बहाने कृति की महत्ता भी पता चली। दीपक जी, इस शानदार पुस्तक के लिए बधाई स्वीकारें।

Anil Pusadkar ने कहा…

अच्छी समीक्षा,दीपक जी को भी बधाई।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

shanndar anubhutiyon kee khaas samiksha

Devi Nangrani ने कहा…

Deepak Mashaal ji
aapko meri hardik shubkamanyein is anmol" Anubhution ke liye" Shivna prakshan ko bhi meri badhayi. Dr> Surrendra Nayak ne aapki shabdavali ke Gunchon ke saath bakhoobi insaaf kiya hai..Padne ki lalak baqi hai