20 जुलाई 2010

लघुकथा

खुशी का अंकुर \सुधा भार्गव

बनवारी के रिटायर होते ही बेटे ने कार की बुकिंग करा दी |वह बड़ा खुश - - | कार में बैठकर घूमना उसका सपना ,सपना ही बन कर रह गया था लेकिन यह खुशी का अंकुर शीघ्र आश्चर्य के खोल में बंद हो गया |
कार जैसे हाथी को पालना सरल न था | बेटे की नौकरी नई -नई |तनख्वाह भी कम ,स्कूटर भत्ता भी नाम मात्र को |

दुविधा में फसे बनवारी ने पूछ ही लिया -
-बेटा कार के लिए पैसा कहाँ से लाओगे ?
-पापा कार के जिए मैंने बैंक से लोन ले लिया है |आपको जो प्रोविडेंट फंड मिलेगा उसके ब्याज से कर्जा चुका देंगे |
-प्रोविडेंट फंड वक्त -बेवक्त के लिए होता है |ब्याज से बुढ़ापा कटता है फिर कार की ऐसी जरूरत क्या आन पड़ी |
-आपके लिए खरीदी है - - खूब घूमो - फिरो |आराम से आओ -जाओ |

बेटे की भावना देख बनवारी निहाल हो गया | ओठों पर चुप्पी की मोहर लग गयी |
संयोग की बात ,अगले माह बनवारी की पत्नी को तेज बुखार ने आन दबोचा |इलाज पर इलाज बदले जाने लगे |पैसा पानी की तरह बह निकला पर बुखार ने उतरने का नाम नहीं लिया | बनवारी का माथा चिंता की रेखाओं से घनीभूत हो गया |
-पापा आप परेशान हैं !
-हाँ !इलाज के लिए पैसा कहाँ से आएगा |
-साधारण सी बात ! आपके प्रोविडेंट फंड के ब्याज से | वक्त -बेवक्त उसका बड़ा सहारा है |
उसकी ही बात को बेटा दोहरा रहा था |बनवारी चौंक गया |
-जरूरत के देखते हुए मैं कार की बुकिंग रद्द करने जा रहा हूं|

अपने ही कदमों पर बेटे को चलता देख बनवारी की दिमागी उलझन सुलझने लगी |उसकी खुशी का अंकुर धीरे - धीरे ऊपर उठने लगा और एक सुदर्शन वृक्ष में परिवर्तित हो गया |

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