दोहा सलिला :
संजीव 'सलिल'
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सूर्य कृष्ण दो गोपियाँ, ऊषा-संध्या नाम.
एक कराती काम औ', दूजी दे आराम.
छाया-पीछे दौड़ता, सूरज सके न थाम.
यह आया तो वह गयी, हुआ विधाता वाम.
मन सूरज का मोहता, है वसुधा का रूप.
याचक बनकर घूमता, नित त्रिभुवन का भूप..
आता खाली हाथ है, जाता खाली हाथ.
दिन भर बाँटे उजाला, पर न झुकाए माथ..
देख मनुज की हरकतें, सूरज करता क्रोध.
कब त्यागेगा स्वार्थ यह?, कब जागेगा बोध..
निलज मनुज को देखकर, करे धुंध की आड़.
बनी रहे मर्याद की, कभी न टूटे बाड़..
पाप मनुज के बढ़ाते, जब धरती का ताप.
रवि बरसाता अश्रु तब, वर्षा कहते आप..
सूर्य घूमता केंद्र पर, होता निकट न दूर.
चंचल धरती नाचती, ज्यों सुर-पुर में हूर..
दाह-ताप दे पाप औ', अकर्मण्यता शीत.
दुःख हरकर सुख दे 'सलिल', 'विधि-हरि-हर' से प्रीत..
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विधि-हरि-हर = ब्रम्हा-विष्णु-महेश. Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
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