30 जनवरी 2010

बंदर मामा

-आचार्य संजीव 'सलिल'


बंदर मामा देख आइना काढ़ रहे थे बाल,

मामी बोली, छीन आइना- 'काटो यह जंजाल'.

मामी परी समझकर ख़ुद को, करने लगीं सिंगार.

मामा बोले- 'ख़ुद को छलना है बेग़म बेकार.

हुईं साठ की अब सोलह का व्यर्थ न देखो सपना'.

मामी झुंझलायीं-' बाहर हो, मुंह न दिखाओ अपना.

छीन-झपट में गिरा आइना, गया हाथ से छूट,

दोनों पछताते, कर मलते, गया आइना टूट.

गर न लडाई करते तो दोनों होते तैयार,

सैर-सपाटा कर लेते, दोनों जाकर बाज़ार.

मेल-जोल से हो जाते हैं 'सलिल' काम सब पूरे,

अगर न होगा मेल, रहेंगे सारे काम अधूरे.

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