24 अक्टूबर 2010
19 अक्टूबर 2010
भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!
12 अक्टूबर 2010
हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!
-- http://baatpuraanihai.
10 अक्टूबर 2010
नवगीत: समय पर अहसान अपना... संजीव 'सलिल'
समय पर अहसान अपना...
संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
देवी नागरानी के ग़ज़ल संग्रह (लौ दर्दे दिल की) की समीक्षा
लौ, जो रौशनी बन गयी
ग़ज़ल ने हिंदी साहित्य मे अपना विशिस्ट स्थान बना लिया है यही कर्ण है की हिन्दी काव्य मे हर तीसरा कवि ग़ज़ल विधा मे अपनी अभिव्यक्ति कर रहा है | दुष्यन्त से लेकर आज तक हजारों गज़लकार ने राष्ट्र और समाज के ज्वलंत विषयों पर अपनी अपनी गज़लों मे चर्चा की है | आधुनिक गज़लकारो में देवी नागरानी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है जिन्होंने राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी गज़लों से विशेष स्थान बनाया है | उनका नवीनतम ग़ज़ल संग्रह लो दर्द-दिल की इस बात का पक्का सबूत है कि ग़ज़ल अपने कथ्य और शिक्षा से पूरे मानक -समाज मे प्रेम और सदभाव का सन्देश दे रही है यथा -
मुहब्बत के बहते हों धारे जहाँ
वतन ऐसा जन्नत -निशाँ चाहिए
ग़ज़ल कि सार्थकता पर उनकी पंक्तियाँ हाटव्य है -
अनबुझी प्यास रूह कि है ग़ज़ल
खुश्क होठों कि तिशनगी है ग़ज़ल
बचपन कि खुशियों को धर्म-जाति और आंतकवाद के नाग ने डस लिया है | देवी नागरानी के शब्दों मे -
अब तो बंदूके खिलौने बन गई
हों गया वीरान बचपन का चमन
कवयित्री ने गज़लों मे हिन्दी -उर्दू के शब्दों का सुंदर व सटीक प्रयोग किया है जो उनके गहन भाषा ज्ञान का प्रतीक है | एक मतला देखे -
कर गई लौ दर्दे-दिल कि इस तरह रौशन जहाँ
कौंधती है बादलों में जिस तरह बर्के-तपाँ
कवयित्री का समर्थन नारी और गरीब आदमी के लिए है -
चूल्हा ठंडा पड़ा है जिस घर का
समझो ग़ुरबत का है वहां पहरा
नारी होती है मान घर-घर का
वो मकाँ को बनाये घर जैसा
ये पंक्तियाँ भी पाठक और श्रोता को गज़ब का हौसला देती है -
किसी को हौसला देना -दिलाना अच्छा लगता है
ज़रुरत मे किसी के काम आना अच्छा लगता है
देश पर अपनी जान लुटाने वालों को याद करते हुए वे कहती है -
मिटटी को इस वतन कि ,देकर लहू कि खुशबू
ममता का, क़र्ज़ सारा, वीरों ने ही उतरा
कुल मिलाकर देवी नागरानी की गज़लों है जीवन के सभी रंगों का सलीको और संजीदगी से सजाया है जो ग़ज़ल के बेहतर भविष्य का पता देती है| आशा है उनकी ये गज़ले देश- विदेश मे लोकप्रिय होंगी और अपना विशिष्ट स्थान बनाएगी| उन्हें बधाई|
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समीक्षक --
डॉ.रामगोपाल भारतीय
६ ए ब्रिज कुंज, रोहटा रोड , मेरठ (उ० प्र०) भारत. मो. (०९३१९६१८१६९)
संग्रहः लौ दर्दे दिल की,
ळेखिकाः देवी नागरानी,
पन्नेः १२०, मूल्यः रु.१५०,
प्रकाशकः रचना प्रकाशन, मुंबई ५०
09 अक्टूबर 2010
देवी नांगरानी के ग़ज़ल संग्रह -- लौ दर्दे दिल की -- का लोकार्पण
“लौ दर्दे दिल की” ग़ज़ल संग्रह का लोकार्पण
१५ अगस्त २०१० को कुतुबनुमा एवं श्रुति सँवाद समिति द्वारा आयोजित समारिह के अंतरगत श्रीमती देवी नागरानी के ग़ज़ल संग्रह “लौ दर्दे दिल की” का लोकार्पण मुंबई में १५ अगस्त २०१०, शाम ५ बजे, आर. डी. नैशनल कालेज के कॉन्फ्रेन्स हाल श्री आर.पी.शर्मा महर्षि की अध्यक्षता में पूर्ण भव्यता के साथ संपन्न हुआ. कार्य दो सत्रों में हुआ पहला विमोचन, दूसरा काव्य गोष्टी.
समारोह की शुरूवात में मुख़्य महमानों ने दीप प्रज्वलित किया और श्री हरिशचंद्र ने सरस्वती वंदना की सुरमई प्रस्तुती की. अध्यक्षता का श्रेय श्री आर. पी शर्मा (पिंगलाचार्य) ने संभाला. मुख़्य महमान श्री नँदकिशोर नौटियाल (कार्याध्यक्ष-महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी एवं संपादक नूतन सवेरा), श्री इब्रहीम अशक (प्रसिद्ध गीतकार) जो किसी कारण न आ सके. श्री जलीस शेरवानी (लोकप्रिय साहित्यकार), “कुतुबनुमा” की संपादिका डा॰ राजम नटराजन पिलै रहे. देवी नागरानी जी ने सभी मुख़्य महमानों को पुष्प देकर सन्मान किया, जिसमें शामिल थे डा॰ गिरिजाशंकर त्रिवेदी, संतोश श्रीवास्तव, श्रीमती आशा व श्री गोपीचंद चुघ
आर पी शर्मा “महरिष” ने संग्रह का लोकार्पण किया और अपने वक्तव्य में यह ज़ाहिर किया कि साहित्यकार अपनी क़लम के माध्यम से लेखिनी द्वारा समाज को नई रोशनी देतने में सक्षम हैं. उसके पश्चात शास्त्रीय संगीतकार सुधीर मज़मूदार ने देवी जी की एक ग़ज़ल गाकर श्रोताओं को मुग्ध कर दिया…
“रहे जो ज़िंदगी भर साथ ऐसा हमसफ़र देना
मिले चाहत को चाहत वो दुआओं में असर देना”
कुतुबनुमा की संपादक डा॰ राजाम नटराजन पिल्लै ने अपने वक्तव्य में लेखन कला पर अपने विचार प्रकट करते हुए देवी जी के व्यक्तित्व व उनकी अनुभूतियों की शालीनता पर अपने विचार प्रस्तुत किये और उनके इस प्रयास को भी सराहते हुए रचनात्मक योगदान के लिये शुभकामनाएं पेश की. जलीस शेरवानी जनाब ने “लौ दर्दे दिल की” गज़लों के चंद पसंददीदा शेर सुनाकर ग़ज़ल की बारीकियों का विस्तार से उल्लेख भी किया और सिंधी समुदाय के योगदान का विवरण किया. नौटियाल जी ने आज़ादी के दिवस की शुभकामनायें देते हुए, देवी जी को इस संकलन के लिये बधाई व भकामनाएं दी.
देवी नागरानी ने अपनी बात रखते हुए सभी महमानों का धन्यवाद अता किया. आगे अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा “प्रवासी शब्द हमारी सोच में है. भारत के संस्कार, यहाँ की संस्क्रुति लेकर हम हिंदुस्तानी जहाँ भी जाते हैं वहीं एक मिनी भारत का निर्माण होता है जहाँ खड़े होकर हम अपने वतन की भाषा बोलते है, आज़ादी के दिवस पर वहां भी हिंदोस्तान का झँडा फहराते है, जन गन मन गाते है. हम भले ही वतन से दूर रहते हैं पर वतन हमसे दूर नहीं. हम हिंदोस्ताँ की संतान है, देश के वासी हैं, प्रवासी नहीं. ” और अपनी एक ग़ज़ल ला पाठ किया..
“पहचानता है यारो हमको जहान सारा
हिंदोस्ताँ के हम हैं, हिंदोस्ताँ हमारा.”
पहले सत्र में संचालान का भार श्री अनंत श्रीमाली ने अपने ढंग से खूब निभाया . देवी जी ने पुष्प गुच्छ से उनका स्वागत करते हुए उनका धन्यवाद अता किया.
द्वतीय सत्र में संचालान की बागडौर अंजुमन संस्था के अध्यक्ष एवं प्रमुख शायर खन्ना मुज़फ्फ़रपुरी जी ने बड़ी ही रोचकतपूर्ण अंदाज़ से संभाली। और इस कार्य के और समारोह में वरिष्ट साहित्यकार व महमान थेः श्री सागर त्रिपाठी, श्री अरविंद राही, (अध्यक्ष श्रुति संवाद साहित्य कला अकादमी), श्री गिरिजा शंजकर त्रिवेदी (नवनीत के पूर्व संपादक), श्री उमाकांत बाजपेयी, हारिराम चौधरी, राजश्री प्रोडक्शन के मालिक श्री राजकुमार बड़जातिया, संजीव निगम, श्री मुस्तकीम मक्की (हुदा टाइम्स के संपादक)व जाने माने उर्दू के शायर श्री उबेद आज़म जिन्होंने इस शेर को बधाई स्वरूप पेश किया. …
अँधेरे ज़माने में बेइंतिहा है
बहुत काम आएगी लौ दर्दे-दिल की “..उब्बेद आज़म
सभी कवियों, कवित्रियों ने अपनी अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों से समां बांधे रखा. कविता पाठ की सरिता में शामिल रहे श्री सागार त्रिपाठी जिन्होने अपने छंदो की सरिता की रौ में श्रोताओं को ख़ूब आनंद प्रदान किया. कड़ी से कड़ी जोड़ते रहे श्री अरविंद राही, लक्ष्मण दुबे, श्री मुरलीधर पांडेय, शढ़ीक अब्बासी, देवी नागरानी, श्री शिवदत्त अक्स, गीतकार कुमार शैलेंद्र, नंदकुमार व्यास, राजम पिल्लै, मरियम गज़ाला, रेखा किंगर, नीलिमा डुबे, काविता गुप्ता, श्री राम प्यारे रघुवंशी, संजीव निगम, संगीता सहजवाणी, शिवदत “अक्स”, कपिल कुमार, सुष्मा सेनगुप्ता, और शील निगम, ज्यिति गजभिये.
07 अक्टूबर 2010
देवी नागरानी की ग़ज़ल -- शब्दकार पर
ग़ज़ल -- देवी नागरानी
मालिक है कोई, मजदूर कोई
मसरूर कोई, मजबूर कोई
मासूम को सूली मिली कैसे
क़ुद्रत का भी है दस्तूर कोई
ये भूख नहीं इक ख़ंजर है
है पेट में इक नासूर कोई
मिट्टी में मिलेगा जब इक दिन
क्यों इतना है मग़रूर कोई
क्यों हुस्न पे यूँ इतराती है
जन्नत की है क्या तू हूर कोई
आसां जीवन कोई जीता इधर
मुश्किल से उधर है चूर कोई
बदनाम हुआ जितना ‘देवी’
उतना ही हुआ मशहूर कोई
देवी नागरानी
आदरणीय प्रधानमंत्री जी......................
06 अक्टूबर 2010
देवी नागरानी की लघुकथा -- अख़बरवाला मूर्ति
अख़बरवाला मूर्ति
हाँ यह वही तो है जो 35 साल पहले मेरे नये घर का दरवाजा खटखटाकर, सवाली आँखों से, शिष्टाचार के साथ खड़ा था. दरवाजा खोलते हुआ पूछा था मैंने भी सवाली आँखों से बिना कुछ कहे.
"मैं अख़बार लाता हूँ ,पूरी कॉलोनी के लिये. आप को भी चाहिए तो बता दीजिए"
"अरे बहुत अच्छा किया कल इतवार है और हर इतवार को हमारा सिंधी अख़बार 'हिंदवासी' आता है जो ज़रूर मुझे दीजिएगा"
"अच्छा" कहकर वह यह कहते हुए सीडियाँ उतरने लगा "पाँच रुपए का है वो" और अपनी तेज़ रफ़्तार से वह दो मज़िल उतर गया. 1973 की बात आयी आई गई हो गयी, हर दिन, हर घर को,कई साल बीतने के बाद भी बिना नागे वह अख़बार पहुंचाता है, और मैं पढ़ती रही हूँ, दूर दूर तक की ख़बरें. शायद अख़बार न होता तो हम कितने अनजान रह जाते समाचारों से, शायद इस ज़माने की भागती जिंदगी से उतना बेहतर न जुड़ पाते. अपने आस पास की हाल चाल से बखूबी वाकिफ़ करती है यह अख़बार.
पिछले दो साल में लगातार अपनी रसोई घर की खिड़की से सुबह सात बजे चाय बनाते हए देखती हूँ 'मूर्ति' को, यही नाम है उसका. बेटी C.A करके बिदा हो गयी है, बेटा बैंक में नौकरी करता है, और मूर्ति साइकल पर अख़बार के बंडल लादे, उसे चलता है, एक घर से दूसरे घर में पहुंचाता है, जाने, दिन में कितनी सीडि़या चढ़ता उतरता है. एक बात है अब उसकी रफ़्तार पहले सी नहीं. एक टाँग भी थोड़ी लड़खड़ाने लगी है. 35 साल कोई छोटा अरसा तो नहीं, मशीन के पुर्ज़े भी ढीले पढ़ जाते है, बदले जाते है,पर इंसानी मशीन उफ़! एक अनचाही पीड़ा की ल़हर सिहरन बन कर सीने से उतरती है और पूरे वेग से शरीर में फैल जाती है. वही 'मूर्ति' अब अख़बार के साथ, खुद को ढोने का आदी हो गया है, थोड़ा देर से ही, पर अख़बार पहुंचाता है, दरवाजे की कुण्डी में टाँग जाता है. जिस दौर से वह अख़बार वाला गुज़रा है, वह दौर हम पढ़ने वाले भी जीकर आए है उन अख़बारों को पढ़ते पढ़ते. पर पिछले दो साल से उस इंसान को, उसके चेहरे की जर्जराती लकीरों को, उसकी सुस्त चाल को पढ़ती हूँ यह तो आप बीती है, आईने के सामने रूबरू होते है पर कहा खुद को भी देख पाते हैं, पहचान पाते हैं. बस वक़्त मुस्कुराता रहता है हमारी जवानी को जाते हुए और बुढ़ापे को आते हुए देखकर.
और मैं वहीं चाय का कप हाथ में लेकर सोचती हूँ, क्या यही जिंदगी है्? हाँ अजब है यह जिंदगी, खुद तो जीती है, पर वो हुनर उस अख़बरवाले मूर्ति को न सिखा पाई. उससे आज भी बोझ उठवाती है, उसकी कंपकपाते हड्डयों पर ज़्यादा बोझ डलवाती है, घरों की मंज़िलों तक का सफर तय करवाती है और धीरे धीरे वह दिखाई देता है मेरी खिड़की के सामने वाली सीड़ी से उतरता हुआ अख़बार वाला मूर्ति, जिसकी जिंदगी को हम शायद पल दो पल रुककर अख़बार के पन्नों की तरह कभी पढ़ न पाए. मैने पीछे पलटते हुए देखा है, इन अख़बारों को रद्दी में जाते हुए, आदमी पुराना फिर भी रोज़ नया अख़बार ले आता है.
देवी नागरानी
03 अक्टूबर 2010
गाँधी जी का डंडा
जेब में हैं गाँधी जी .
02 अक्टूबर 2010
विभिन्न धर्मों के लोगों में से एक इंसान की आवाज़....!!
पिछले दो दिनों से सोच रहा हूँ कि इस विषय पर लिखूं कि ना लिखूं....ऐसा यह विषय,जो शोध का है,पुरातत्व का है,इतिहास का है,वर्तमान का है,भविष्य का है,आस्था का है,कर्तव्य का है,दायित्व का है,भाईचारे का है,बड़प्पन का है,सौहार्द का है,धर्म का है,देश की शान्ति का है,आपस में मिलकर रहने का है....और हम चाहें तो यह अब न भूतो ना भविष्यति वाली मिसाल का भी हो सकता है...मगर अहम भला ऐसा क्यूँ होने देंगे...!!पांच-सौ साल से लटके हुए एक मुद्दे पर किसी कोर्ट ने एक फैसला दे दिया है.....जिसके लिए उसने हज़ारों तरह के साक्ष्य,पुरातात्विक प्रमाण,गवाहियां और ना जाने क्या-क्या कुछ देखा है,समझा है...इस प्रकार एक किस्म का गहनतम शोध किया है हमारे न्यायाधीशों ने इस विषय पर...और तब ही उन्होंने आने वाले भविष्य को ध्यान में रखते हुए...भारतीय-जनमानस और उसकी हठ-धर्मिता की संभावना को भांपकर यह फैसला लिया है....कभी-कभी क़ानून भी परिस्थितियों के मद्देनज़र फैसला लिया करता है...बेशक आप उसे गलत ठहरा दें...मगर जो मामला आप उसके पास ले जाते हैं....जरूरी नहीं कि उसमें क़ानून की बारीकियां ठीक उसी तरह काम करें...जिस तरह वो अन्य भौतिक मामलों में काम करती हैं...और अगर ऐसा ही आसान मामला आप इस राम-जन्म-भूमि मामले को समझते हो तो आपको गरज ही क्या थी इसे कोर्ट ले जाने कि...और आपने अगरचे कहा था कि आप कोर्ट का कोई फैसला आये उसे मानने के लिए बाध्य होगे....तो अब क्या सुप्रीम-कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट की रट लगा रहे आप....??