22 नवंबर 2010
गीत: स्वीकार है..... संजीव 'सलिल'
स्वीकार है.....
संजीव 'सलिल'
*
दैव! जब जैसा करोगे
सब मुझे स्वीकार है.....
*
सृष्टिकर्ता!
तुम्हीं ने तन-मन सृजा,
शत-शत नमन.
शब्द, अक्षर, लिपि, कलमदाता
नमन शंकर-सुवन
वाग्देवी शारदा माँ! शक्ति दें
हो शुभ सृजन.
लगन-निष्ठा, परिश्रम पाथेय
प्रभु-उपहार है.....
*
जो अगम है, वह सुगम हो
यही अपनी चाहना.
जो रहा अज्ञेय, वह हो ज्ञेय
इतनी कामना.
मलिन ना हों रहें निर्मल
तन, वचन, मन, भावना.
शुभ-अशुभ, सुख-दुःख मिला जो
वही अंगीकार है.....
*
धूप हो या छाँव दोनों में
तुम्हारी छवि दिखी.
जो उदय हो-अस्त हो, यह
नियति भी तुमने लिखी.
नयन मूदें तो दिखी, खोले नयन
छवि अनदिखी.
अजब फितरत, मिला नफरत में
'सलिल' को प्यार है.....
*****
21 नवंबर 2010
जोगेन्द्र सिंह की कविता -- कुहुक
कुहुक
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गूँज उठी
चिर प्रतीक्षित कुहुक ...
घुल गया शहद -सा ..
हूँ ..! पहचाना स्वाद !
या कोई फंतासी मन की ?
याद है अपना बचपन मुझे ....
तब तुम कोलरिज की कुबलाई खान न थीं ....!
थीं एक जीती-जागती अमराई के
स्वादु आम की
पकी मिठास !
डाली-डाली
फुदक-फुदक
करतीं संगीत समारोह ...
न जाने कितनी रामलीलाएं भी फीकी थीं !
फिर पाना हमारी प्रशंसा ..
और गर्विता का
मंद होते नीलाभ आकाश से
धूप की नमी बीच
कहीं सांध्य के झुरमुट से
दीठना ..
और एक ठुमके के साथ
कुहू-कुहू की डोर में बंधी पतंग का
आकाश में उड़ना ....
मैं भी उड़ जाता संग तुम्हारे ...!
सुधियों के झरोखे से
कुछ कनखियाँ लगाते
देखता हूँ खुद को ...
दो फुटी ऊंची मेड
कंधे तक आती कनक बालियाँ ..
रहट की घर्र-घर्र ...
और अचानक सर्र से गुज़र जाना
तुम्हारे संगीत का ..!
पर अब ?
तुम फंतासी हो ..
और मैं कठोर ज़मीन से चिपका
यथार्थ !
सोचता हूँ -
किस शहर
किस गाँव मिलोगी ...
या बिन मिले कुहुक के
कैसे पकेंगे आम ...
बेस्वाद ...हैं ...
मुँह को
कसैलेपन की आदत हो गयी है ....!
जोगेंद्र सिंह
20 नवंबर 2010
जोगेन्द्र सिंह की कविता -- बूढ़ा हूँ , पर अकेला नहीं
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दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l
अपने ही दायरों में
दिनभर सिमटते वृक्ष ...
अब सांझ के आँचल तले
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं ...l
चहचहाते कलरव करते खग ..
गर्दभ ध्वनि से भयभीत शावक ...
आगोश नहीं , पर लगता आगोश -सा ..
खागी का स्नेह भरा आभास चूज़ों से ...l
एक ओर खड़ा सब देख रहा हूँ ...
मुझ पर भी चढ़ा था कभी यह रंग ...
प्रकृति संग .. किया था रमण मैंने भी ..
अब जान पड़ता सब आघात सा ..l
ज़रिये जो थे वायस मेरी खुशियों के ..
चुभते हैं ह्रदय में अब ..
उन्हीं के होने से तीखे शूल से l
नज़ारे पहले भी थे ... मेरे चरों ओर ...
कुछ नहीं बदला ...
आलम अब भी वही है ...
गर कुछ बदला है ..
तो वह है अहसासात मेरे ...
न था कभी ...पर अब अकेला हूँ ...
निस्सहाय अब मौन खड़ा हूँ ..
सूख गयी है काया ..
मुक्त बंधन हो रह गया अकेला ...l
जर्जर काया में रमती जान ..
हाँ, अब बूढ़ा हूँ मैं ...
एक कमरे वाली छत ..
अब चूने लगी है .. बारिश के मौसम में ..l
उमड़-घुमड़ रही हैं अतीत की यादें ..
किसी कोने में पड़े... जर्जर मेरे मन में ..
जितने भी कहते मेरे अपने हैं ..
हैं नहीं....थे हो गए अब वो ...
पड़ा हूँ पीछे मर-खप जाने को ...l
दृश्य वही हैं ..सौन्दर्य वही हैं ...
बदल चुका मन अब वो मोह नहीं है ...
फिर से ...
दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l
स्वयं को खोकर स्वयं में खोजता ...
निर्निमेष निहारता ... बदस्तूर इन दृश्यों को ...
कि अब मैं अकेला हूँ .... निपट अकेला ..l
जुड़ने लगा है नाता ... टपकती बूंदों से ..
खटकते नहीं अब फूटे भांडे ...
दीमक लगी लकड़ी की खूँटी ....
संभालती है जो फटे कुरते को ...
अपनी सी अब लगने लगी है ..l
सालती थी जो बात अब तक ...
अपनी बन , नया नाता गढ़ने लगी है ..
शायद कभी अकेला था ही नहीं ..
इन्हें जान भर लेने की देरी थी ...l
निर्जीव नए संसार के साथ ...
हाँ, बूढ़ा हूँ ; पर अकेला नहीं ..
हाँ, अब मैं अकेला नहीं हूँ ....
जोगेंद्र सिंह
18 नवंबर 2010
डॉ0 महेन्द्र भटनागर की कविता -- ज़िन्दगी की शाम
ज़िन्दगी की शाम
[महेंद्रभटनागर]
॰
यह उदासी से भरी मजबूर, बोझिल
ज़िन्दगी की शाम !
अपमानित, दुखी, बेचैन युग-उर की
तड़पती ज़िन्दगी की शाम !
॰
मटमैले, तिमिर-आच्छन्न, धूमिल
नीलवर्णी क्षितिज पर
आहत, करुण, घायल, शिथिल
टूटे हुए कुछ पक्षियों के पंख प्रतिपल फड़फड़ाते !
नापते सीमा गगन की दूर,
जिनका हो गया तन चूर !
धुँधला चाँद शोभाहीन
कुछ सकुचा हुआ-सा झाँकता है,
हो गया मुखड़ा धरा को देखकर फीका,
सफ़ेदी से गया बीता,
कि हो आलोक से रीता !
गया रुक एक क्षण को राह में
सिर धुन पवन !
सम्मुख धरा पर देख जर्जर फूस की कुटियाँ
पड़ीं जो तोड़ती-सी दम,
घिरा जिनमें युगों का सघन-तम !
और जिनमें
हाँफ़ती-सी, टूटती-सी साँस का साथी
पड़ा है हड्डियों का ढेर-सा मानव,
बना शव !
मौनता जिसकी अखंडित,
धड़कता दुर्बल हृदय
अन्याय-अत्याचार के अगणित प्रहारों से दमित !
अभिशाप-ज्वाला का जला,
निर्मम व्यथा से जो दला
जिसको सदा मृत-नाश का परिचय मिला !
जो दुर्दशा का पात्र,
भागी कटु हलाहल-घूँट जीवन का,
मरण-अभिसार का
निर्जन भयानक पंथ का राही
थका, प्यासा, बुभुक्षित !
॰
कह रहा है सृष्टि का कण-कण —
‘मनुजता का पतन’ !
असहाय हो निरुपाय मानवता गिरी,
अवसाद के काले घने
अवसान को देते निमंत्रण
बादलों में मनु-मनुजता आ घिरी !
उद्यत हुआ मानव
बिना संकोच, जोकों-सा बना,
मानव रुधिर का पान करने !
क्रूरतम तसवीर है,
है क्रूरतम जिसकी हँसी
विष की बुझी !
॰
पर, दब सकी क्या मुक्त मानवता ?
सजग जीवन सबल ?
यह दानवी-पंजा अभी पल में झुकेगा,
और मुड़ कर टूट जाएगा !
मनुजता क्रुद्ध हो जब उठ खड़ी होगी
दबा देगी गला
चाहे बना हो तेज़ छुरियों से !
सबल हुंकार से उसकी
सजग हो डोल जाएगी धरा,
जिस पर बना है
भव्य, वैभव-पूर्ण इकतरफ़ा महल
(पर, क्षीण, जर्जर और मरणोन्मुख !)
अभी लुंठित दिखेगा,
और हर पत्थर चटख कर
ध्वंस, बर्बरता, विषमता की कथा
युग को सुनाएगा !
जलियानवाला-बाग़-सम मृत-आत्माओं की
धरा पर लोटती है आबरू फिर;
क्योंकि गोली से भयंकर
फाड़ डाले हैं चरण
दृढ़ स्वाभिमानी शीश, उन्नत माथ !
जिन पर छा गयी
सर्वस्व के उत्सर्ग की अद्भुत शहीदी आग,
उसमें भस्म होगा, ध्वस्त होगा राज तेरा
ज़ुल्म का, अन्याय का पर्याय !
॰
पर, यह ज़िन्दगी की शाम —
अगणित अश्रु-मुक्ताओं भरी,
मानों कि जग-मुख पर गये छा ओस के कण !
चाहिए दिनकर कि जो आकर सुखा दे
पोंछ ले सारे अवनि के प्यार से आँसू सजल !
जिससे खिले भू त्रस्त
जीवन की चमक लेकर,
चमक ऐसी कि जिससे प्रज्वलित हों सब दिशाएँ,
जागरण हो,
जन-समुन्दर हर्ष-लहरों से सिहर कर गा उठे
अभिनव प्रभाती गान,
वेदों की ऋचाओं के सदृश !
बज उठे युग-मन मधुर वीणा
जिसे सुन, जग उठें सोयी हुईं जन-आत्माएँ !
और कवि का गीत
जीवन-कर्म की दृढ़ प्रेरणा दे,
प्राण को नव-शक्ति नूतन चेतना दे !
¤
17 नवंबर 2010
जब कुछ नहीं बोलती स्त्री......!!

तब सबसे ज्यादा बोलती हुई कैसे लगती है !
जब गुनगुनाती है वो अपने ही घर में
तब सारी दिशाएं गाती हुईं कैसे लगती हैं भला !
जब आईने में देखती है वो अपने-आपको
तो चिड़िया सी फुदकती है उसके सीने में !
बच्चों के साथ लाड करती हुई स्त्री
दुनिया की सबसे अनमोल सौगात है जैसे !
जब कभी वो तुम्हें देखती है अपनी गहरी आँखों से
तुम सकपका जाते हो ना कहीं अपने-आप से !!
स्त्री ब्रह्माण्ड की वो सबसे अजब जीव है
जिसकी जरुरत तुम्हें ही सबसे ज्यादा है !
और गज़ब तो यह कि -
तुम उसे वस्तु ही बनाए रखना चाहते हो
मगर यह तो सोचो ओ पागलों
कि कोई वस्तु कैसी भी सुन्दर क्यूँ ना हो
सजीव तो नहीं होती ना....!!
जगत की इस अद्भुत रचना को
इसकी अपनी तरह से सब कुछ रचने दो !
कि सजीव धरती ही बना सकती है
तुम्हारे जीवन को हरा-भरा !
और सच मानो -
स्त्री ही है वो अद्भुत वसुंधरा !!
14 नवंबर 2010
दिव्या गुप्ता जैन का बाल दिवस पर विशेष आलेख -- खो ना जाएँ ये तारे जमीन पे
दिव्या गुप्ता जैन
आज सभी बच्चे बहुत उत्साहित है की वे अपने स्कूल में बाल दिवस मनाएंगे औरअच्छे-अच्छे उपहार पाएंगे! नाचेंगे गायेंगे और ढेर सारी मस्ती करेंगे! कितनी प्यारी तस्वीर हैं ना! पर हमारें देश में बहुत सारे बच्चें हैं जो स्कूल नहीं जाते काम पर जाते है! हम सब हमेशा गपशप के दौरान अपने बचपन और स्कूल की ढेर सारी बातें करते है! पर नन्हे-मुन्नों का क्या जिन्हें या तो स्कूल नसीब नहीं होता और होता भी है तो ऐसा जहाँ उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती!
केंद्र सरकार ने मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू तो करवा दिया पर पर ये कानून हमारें सभी नन्हे-मुन्नों का भविष्य सवारने के लिए नाकाफी है! इस कानून में भी बहुत सारे बदलाव की जरूरत है! जैसे कि "पैरा शिक्षक" (जैसे संबिदा शिक्षक, अथिति शिक्षक,गुरूजी, शिक्षामित्र आदि) लगाने पर रोक नहीं है! इसी कारण सरकारी व सस्ते निजी स्कूल में पढाई आज भी रामभरोसे चलती है!
कानून में शिक्षकों का न्यूनतम वेतन इतना कम रक्खा गया है की सरकारी स्कूल में पैरा शिक्षक और निजी में अयोग्य शिक्षक जारी रहेंगे! सरकारी शिक्षकों की चुनाव और जनगणना के काम में रोक नहीं लगाई गई! यानि मास्टरसाहब घूमेंगे गावं और बच्चें उनकी बाट जोहेंगे! कानून में निजी विद्यालयों की फीस बढ़ाने पर कोई रोक नहीं लगाई है! तो गरीब बच्चे बड़े स्कूल को देख तो सकते पर उसके अन्दर जाने की हिम्मत नहीं कर सकते!
एक अध्ययन के दौरान यह पता चला कि मलिन बस्ती में रहने वाले प्राथमिक स्तर पर शिक्षित अभिभावकों के बीस प्रतिशत बच्चे निरक्षर हैं। ऐसे परिवारों में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने जाने वाले बच्चों की संख्या 30.58 फीसदी है। इनमें 14.32 प्रतिशत लड़के और 16.26 प्रतिशत लड़कियां हैं। जाहिर है कि यहां पर छात्रओं की संख्या छात्रें से अधिक है। जबकि पढ़ाई छोड़ने वाले कुल 15.53 प्रतिशत बच्चों में से बालकों का प्रतिशत 10.43 हैं। वहीं दूसरी तरफ बालिकाओं का प्रतिशत 5.09 है।
कितना मजेदार हो अगर चुनाव आयोग वोटिंग मशीन में चुनाव चिन्ह हटा केसिर्फ उमीदवार का नाम लिखने का नियम लागु कर दे! तो सारे नेता अपना काम छोड़ कर जनता तो पढ़ाने-लिखाने में जुट जाएँ! और वो सारे स्कूल की फीस माफ़ करा देंगे! और हमारे चंदू, छोटू, दीपू, गायत्री, बड़की, रज्जो सब कचरा बीनना और बर्तन साफ़ करना छोड़ कर कहेंगे "स्कूल चले हम"!
आईये हम सब मिलकर प्रयास करें की हमारें सभी नन्हे-मुन्ने पढ़े-लिखे और जीवन मैं बहुत आगे बढे!
- दिव्या गुप्ता जैन
09 नवंबर 2010
महाशक्ति की याचना
दिल्ली आकर उनका मिशन तारीफे इण्डिया थमा नहीं । भारत को इक्कीसवीं सदी की एक महाशक्ति बताया । भारत व अमेरिका के साझे मूल्यों व हितों का बखान कर उनके साथ -साथ कार्य करने को सामयिक जरूरत बताया। राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष एवं सोनिया जी से भेट की। पाकिस्तान को अमेरिका के सामरिक हितों के लिये अपरिहार्य बताते हुए आतंकवाद को ख़त्म करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बतायी ।संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कश्मीर समस्या को भारत व पाकिस्तान के बीच का मसला बताते हुए आपसी संवाद से हल करने पर जोर देते हुए कहा कि विकसित पाकिस्तान भारत के हित में है । प्रधनमंत्री ने दो टूक शब्दों में कहा कि भारत किसी भी मसले पर चर्चा से डरता नहीं ,पर वार्ता व आतंकवाद को प्रश्रय साथ साथ नहीं चल सकते। उन्होंने कहा भारत किसी देश कि नौकरियों को चुराने में यकीन नहीं करता ।उन्होंने कहा आउट्सोर्सिंग से अमेरिका की उत्पादकता बढ़ाने में भारतीयों ने योगदान दिया है।
संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए ओबामा ने अपने करिश्माई व्यक्तित्व ,कुशल वक्ता , सहजता व अमेरिकी हितों को साधने के अपने मिशन में भारत के सहयोग की पृष्ठभूमि बनाने में अपनी राजनयिक कुशलता का परिचय देते हुए न केवल सांसदों बल्कि देश की जनता का मन मोह लिया । उन्होंने गाँधी जी को याद किया ;भारत की स० राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का समर्थन किया ;आतंकवाद के प्रति संघर्ष में सहयोग का वचन दिया ; सीमापार आतंकवाद की भर्त्सना की ,मुंबई हमलों के आरोपियों को दण्डित करने का समर्थन किया और दोनों देशों के बीच बहुपक्षीय सहयोग की नयी संभावनाओं के द्वार खोले। अपने भाषण के प्रारंभ में हिंदी में स्वागत के लिये 'बहुत धन्यवाद' और अंत में 'जय हिंद 'कह कर सबका दिल खुश कर दिया ।
कुल मिला कर ओबामा की यात्रा सफल मानी जा रही है । मीडिया व विपक्षियों को कुछ भी आलोचना का मसाला नहीं मिला मनमोहन सिंह के नेतृत्त्व , उनकी साफगोई एवं राजनयिक कुशलता की सराहना ने भी की । अमेरिका को जहाँ अपने आर्थिक हितों को पूरा करने में सफलता मिली तो भारत के भी राजनीतिक व अन्य बहुपक्षीय हितों की पूर्ति होती दिखायी दे रही है । अमेरिका जैसे महाबली देश के राष्ट्रपति को भारत के समक्ष अपनी अर्थव्यस्था में सहयोग की याचक की भांति अपील करते देख यहाँ की जनता को निश्चित ही गर्व एवं प्रसन्नता का अनुभव हुआ होगा ।
पर ये वादे व्यावहारिक रूप में कितने सार्थक होगें ,इसका उत्तर आने वाला समय ही डे सकेगा । पर इस यात्रा से भारत और अमेरिकी दोनों सरकारों को अपने अपने देश में चुनोंतियों का सामना करने में राहत मिलेगी ।
04 नवंबर 2010
सुलगता क्यूं है कश्मीर ??,एक बिलकुल अलग-सा विचार...!!
03 नवंबर 2010
उम्र भर लिखते रहे............!!!
बस तुझे देखा किये,आँख-आँख तकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
कब किसे ने हमें कोई भी दिलासा दिया
खुद अपने-आप से हम यूँ ही लिपटते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.......
आस हमारे आस-पास आते-आते रह गयी..
हम चरागों की तरह जलते-बुझते रह गए.....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
हम रहे क्यूँ भला इतने ज्यादा पाक-साफ़
लोग हमें पागल और क्या-क्या समझते रहे...!!
उम्र भर लिखते रहे....
आज खुद से पूछते हैं,जिन्दगी-भर क्या किये
पागलों की तरह ताउम्र उल्टा-सीधा बकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे....!!!