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दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l
अपने ही दायरों में
दिनभर सिमटते वृक्ष ...
अब सांझ के आँचल तले
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं ...l
चहचहाते कलरव करते खग ..
गर्दभ ध्वनि से भयभीत शावक ...
आगोश नहीं , पर लगता आगोश -सा ..
खागी का स्नेह भरा आभास चूज़ों से ...l
एक ओर खड़ा सब देख रहा हूँ ...
मुझ पर भी चढ़ा था कभी यह रंग ...
प्रकृति संग .. किया था रमण मैंने भी ..
अब जान पड़ता सब आघात सा ..l
ज़रिये जो थे वायस मेरी खुशियों के ..
चुभते हैं ह्रदय में अब ..
उन्हीं के होने से तीखे शूल से l
नज़ारे पहले भी थे ... मेरे चरों ओर ...
कुछ नहीं बदला ...
आलम अब भी वही है ...
गर कुछ बदला है ..
तो वह है अहसासात मेरे ...
न था कभी ...पर अब अकेला हूँ ...
निस्सहाय अब मौन खड़ा हूँ ..
सूख गयी है काया ..
मुक्त बंधन हो रह गया अकेला ...l
जर्जर काया में रमती जान ..
हाँ, अब बूढ़ा हूँ मैं ...
एक कमरे वाली छत ..
अब चूने लगी है .. बारिश के मौसम में ..l
उमड़-घुमड़ रही हैं अतीत की यादें ..
किसी कोने में पड़े... जर्जर मेरे मन में ..
जितने भी कहते मेरे अपने हैं ..
हैं नहीं....थे हो गए अब वो ...
पड़ा हूँ पीछे मर-खप जाने को ...l
दृश्य वही हैं ..सौन्दर्य वही हैं ...
बदल चुका मन अब वो मोह नहीं है ...
फिर से ...
दिन का हौले चुपके से ढलते जाना ...
क्षितिज रेखा से झांकना सूरज का ...
छिटका रहा सूरज रक्ताभ बसंती आभा ...
रूई के फाहे सम आसमान पर ....l
तैरना वह बादलों का ...
क्षितिज के किसी कोने से ...
उड़ आते पंछी बन रेखा से ..l
स्वयं को खोकर स्वयं में खोजता ...
निर्निमेष निहारता ... बदस्तूर इन दृश्यों को ...
कि अब मैं अकेला हूँ .... निपट अकेला ..l
जुड़ने लगा है नाता ... टपकती बूंदों से ..
खटकते नहीं अब फूटे भांडे ...
दीमक लगी लकड़ी की खूँटी ....
संभालती है जो फटे कुरते को ...
अपनी सी अब लगने लगी है ..l
सालती थी जो बात अब तक ...
अपनी बन , नया नाता गढ़ने लगी है ..
शायद कभी अकेला था ही नहीं ..
इन्हें जान भर लेने की देरी थी ...l
निर्जीव नए संसार के साथ ...
हाँ, बूढ़ा हूँ ; पर अकेला नहीं ..
हाँ, अब मैं अकेला नहीं हूँ ....
जोगेंद्र सिंह
4 टिप्पणियां:
बहोत ही सुन्दर रचना ..............शुभकामनाए
अब सांझ के आँचल तले
सीमाओं के विस्तार में लगे हैं ...l
यह हुई ना बात। बहुत सुंदर प्रास्तुति।
बहुत ही सुन्दर रचना है ... लाजवाब ...
बहुत सुंदर चित्रण, उम्र की सांझ में जब हम क्षितिज के तरफ बढ़ चलते हैं तो दिन का प्रकाश और अपनों का साथ धीरे धीरे दूर होता जाता है, तब अपनी तनहाई के लिए सजीव और निर्जीव सभी से नाता जोड़ लेने में ही बुद्धिमानी है. कभी तो सभी साथी एक एक करके चल ही देंगे और हो सकता है कि हम अपने पीछे भी किसी को अकेला छोड़ कर चल दें.
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