ज़िन्दगी की शाम
[महेंद्रभटनागर]
॰
यह उदासी से भरी मजबूर, बोझिल
ज़िन्दगी की शाम !
अपमानित, दुखी, बेचैन युग-उर की
तड़पती ज़िन्दगी की शाम !
॰
मटमैले, तिमिर-आच्छन्न, धूमिल
नीलवर्णी क्षितिज पर
आहत, करुण, घायल, शिथिल
टूटे हुए कुछ पक्षियों के पंख प्रतिपल फड़फड़ाते !
नापते सीमा गगन की दूर,
जिनका हो गया तन चूर !
धुँधला चाँद शोभाहीन
कुछ सकुचा हुआ-सा झाँकता है,
हो गया मुखड़ा धरा को देखकर फीका,
सफ़ेदी से गया बीता,
कि हो आलोक से रीता !
गया रुक एक क्षण को राह में
सिर धुन पवन !
सम्मुख धरा पर देख जर्जर फूस की कुटियाँ
पड़ीं जो तोड़ती-सी दम,
घिरा जिनमें युगों का सघन-तम !
और जिनमें
हाँफ़ती-सी, टूटती-सी साँस का साथी
पड़ा है हड्डियों का ढेर-सा मानव,
बना शव !
मौनता जिसकी अखंडित,
धड़कता दुर्बल हृदय
अन्याय-अत्याचार के अगणित प्रहारों से दमित !
अभिशाप-ज्वाला का जला,
निर्मम व्यथा से जो दला
जिसको सदा मृत-नाश का परिचय मिला !
जो दुर्दशा का पात्र,
भागी कटु हलाहल-घूँट जीवन का,
मरण-अभिसार का
निर्जन भयानक पंथ का राही
थका, प्यासा, बुभुक्षित !
॰
कह रहा है सृष्टि का कण-कण —
‘मनुजता का पतन’ !
असहाय हो निरुपाय मानवता गिरी,
अवसाद के काले घने
अवसान को देते निमंत्रण
बादलों में मनु-मनुजता आ घिरी !
उद्यत हुआ मानव
बिना संकोच, जोकों-सा बना,
मानव रुधिर का पान करने !
क्रूरतम तसवीर है,
है क्रूरतम जिसकी हँसी
विष की बुझी !
॰
पर, दब सकी क्या मुक्त मानवता ?
सजग जीवन सबल ?
यह दानवी-पंजा अभी पल में झुकेगा,
और मुड़ कर टूट जाएगा !
मनुजता क्रुद्ध हो जब उठ खड़ी होगी
दबा देगी गला
चाहे बना हो तेज़ छुरियों से !
सबल हुंकार से उसकी
सजग हो डोल जाएगी धरा,
जिस पर बना है
भव्य, वैभव-पूर्ण इकतरफ़ा महल
(पर, क्षीण, जर्जर और मरणोन्मुख !)
अभी लुंठित दिखेगा,
और हर पत्थर चटख कर
ध्वंस, बर्बरता, विषमता की कथा
युग को सुनाएगा !
जलियानवाला-बाग़-सम मृत-आत्माओं की
धरा पर लोटती है आबरू फिर;
क्योंकि गोली से भयंकर
फाड़ डाले हैं चरण
दृढ़ स्वाभिमानी शीश, उन्नत माथ !
जिन पर छा गयी
सर्वस्व के उत्सर्ग की अद्भुत शहीदी आग,
उसमें भस्म होगा, ध्वस्त होगा राज तेरा
ज़ुल्म का, अन्याय का पर्याय !
॰
पर, यह ज़िन्दगी की शाम —
अगणित अश्रु-मुक्ताओं भरी,
मानों कि जग-मुख पर गये छा ओस के कण !
चाहिए दिनकर कि जो आकर सुखा दे
पोंछ ले सारे अवनि के प्यार से आँसू सजल !
जिससे खिले भू त्रस्त
जीवन की चमक लेकर,
चमक ऐसी कि जिससे प्रज्वलित हों सब दिशाएँ,
जागरण हो,
जन-समुन्दर हर्ष-लहरों से सिहर कर गा उठे
अभिनव प्रभाती गान,
वेदों की ऋचाओं के सदृश !
बज उठे युग-मन मधुर वीणा
जिसे सुन, जग उठें सोयी हुईं जन-आत्माएँ !
और कवि का गीत
जीवन-कर्म की दृढ़ प्रेरणा दे,
प्राण को नव-शक्ति नूतन चेतना दे !
¤
1 टिप्पणी:
adarneey!
sadar pranam.
sargarbhit rachna hetu sadhuvaad.
एक टिप्पणी भेजें