10 फ़रवरी 2010

मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी' की नज़्म --- वो शादी का घर है

वो शादी का घर है
वहां बहुत काम है
तुम्हें नहीं मालूम ?
क्या -क्या नहीं लगता
इक शादी का घर बनाने के लिए
कोने- कोने से टुकड़े जोड़ने होते हैं
तब जाके कहीं एक बड़ा सा-
नज़रे आलम में दिलनशीं टुकड़ा
शक्ल अख्तियार करता है
तुम्हें क्या मालूम।
नहीं कटा वक़्त
उठाई कलम लिखने बैठ गए
अच्छे खासे मौजू का बिगड़ने बैठ गए
नहीं कुछ मिला
तो किसी का सुनाने बैठ गए
हद तो तब हों गयी
जब किसी का गुस्सा
किसी और पर उतारने बैठ गए
तुम्हें क्या मालूम ?
बर्तन , जेवर , बेहिसाब पोशाकें
कहाँ -कहाँ से पसंद करनी होती हैं?
नहीं , फब नहीं रहा है
वो देना तो जरा
न जाने ऐसे कितने लफ्ज़
गूंजते ,बस गूंजते रहते हैं
तुम्हें क्या मालूम।
बस उठायी किताबें पढने लगे
कभी फिजिक्स , तो कभी मेथ्स
नहीं लगा मन
तो अदब उठा लिया
अरे तुम क्या जानो ज़िन्दगी जी के
कभी किताबों और माजी के पन्नों से
बहार निकलो
ज़िन्दगी रंगीन भी है।
तुम पन्ने ही रंगते रह जाओगे
और दूर कहीं आसमानों में
कोई एक अदद ज़िन्दगी बसा लेगा
तुम्हें क्या मालूम।
तुम्हें क्या मालूम?
होटल का ऑर्डर
खान्शामा का इंतजाम
बाजे वाले का एडवांस
और भी बहुत से
करने होते हैं इंतजाम
शादी का घर है न ?
तुम्हें क्या मालूम।
वहां तुम सिसकते रहते हों
कभी तड़पते रहते हों
सुना है आजकल बेचैन रहते हों
कुछ नहीं मिलता
तो पागलपन ही करते रहते हों
देखो, तुम खुद ही देखो
वही पुरानी जगह बैठकर
जहाँ सुनाया था हाले दिल
किसी का कभी
शिद्दत से लिखे जा रहे हों
जबकि जानते हों
कोई पढने वाला भी नहीं है तुम्हें
तुम्हें क्या मालूम?
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- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'

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