25 फ़रवरी 2010

नश्तर साहिब की ग़ज़ल - दास्ताँ


बाबू हरगोविंद दयाल श्रीवास्तव 'नश्तर' उर्दू अदब के एक नायाब फनकार थे । पेश है उनकी एक ग़ज़ल -

...................दास्ताँ ............................

बंधा
कल कुछ ऐसा ,समां कहते-कहते ;
कि मै रो दिया , दास्ताँ कहते -कहते

फ़साना
तो छेड़ा है ,डरता हूँ लेकिन ;
कहीं रुक जाये ,जुबाँ कहते -कहते

वो
सुनने पै आयें ,तो खूबिये किस्मत ;
जुबाँ रुक गयी , दास्ताँ कहते -कहते

कोई
चल दिया , दास्ताँ कहते-कहते ;
कोई रह गया, दास्ताँ कहते -कहते

जहाँ
दास्ताओं का, रुकना सितम था ,
वहीँ रूक गया , दास्ताँ कहते -कहते

उन्हें
डर है उनका, फ़साना कह दें ;
कहीं अपनी हम ,दास्ताँ कहते-कहते

जो
दुश्मन करता,किया वह इन्होंने ;
जिन्हें हम थके ,दास्ताँ कहते -कहते

जुबाँ
रोक ली है ,मुहब्बत में अक्सर ;
मुहब्बत की मजबूरियाँ कहते -कहते

कुछ
ऐसी माहौल में , बेदिली थी;
कि मै खुद रूक गया,दास्ताँ कहते-कहते

उकताये जब , सुनने वाले हमारे ;
हमीं रुक गये, दास्ताँ कहते -कहते

उम्मीदें
वफ़ा क्या करूँ ,उनसे 'नश्तर' ;
बदल दें जो अपनी जुबाँ कहते -कहते

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(सौजन्य से - डा० निर्मल सिन्हा )

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