27 मई 2010

ओ......बाबा कृष्ण....!!संभाल लेना यार मुझको....हम सबको.....!!

ओ......बाबा कृष्ण....!!संभाल लेना यार मुझको....हम सबको.....!!

इन दिनों कई बार यूँ लगता है कि हम लिखते क्यूँ हैं.....हजारों वर्षों से ना जाने क्या-क्या कुछ और कितना-कितना कुछ लिखा जा चूका है....लिखा जा रहा है...और लिखा जाएगा....मगर उनका कुछ अर्थ....क्या अर्थ है इन सबका....इन शब्दों का...इन प्यारे-प्यारे शब्दों का इन तरह-तरह के शब्दों का अगरचे शब्दों के बावजूद....अपनी समूची भाषाई संवेदनाओं के बावजूद...बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद...दुनिया संबंधों के स्तर पर एक तरह के नफ़रत के पायदान पर आ खड़ी हुई है....धर्म के स्तर पर बिलकुल छिछली....भावना के स्तर पर एकदम गलीच....संवेदना के स्तर पर एकदम दीन-हीन....बस एक ही ख़ास बात दिखाई है इसमें....वो यह कि यह भौतिक स्तर पर क्रमश: विकसित होती चली जाती है मगर यह विकास भी इतना ज्यादा अनियंत्रित है कि उससे वर्तमान बेशक ठीक-ठाक सुविधाओं से परिपूर्ण दीख पड़ता होओ...मगर कुल-मिलाकर यह भी मानव के लिए बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता...और आदमी है कि अपनी सफलताओं पर इतना इतराता है कि मानो उससे बड़ा जैसे भगवान् भी नहीं.....और उसकी सफलताओं का सुबह-शाम-दिन-रात उसकी ही बनायी हुई पत्र- पत्रिकाओं और इंटरनेट के संजाल पर छापी और बिखरी दिखाई पड़ती है.....अपनी सफलताओं का दिन-रात इतना भयानक गुणगान....और उसके चहुँ और चर्चे और तरह-तरह की सफलताओं पर तरह-तरह की पार्टियां... और उनका शोर-शराबा...और एक किस्म का भयानक नशा अपने कुछ होने का....उससे से बढ़कर सामने वाले के कुछ ना होने का....मुझे यह समझने ही नहीं देता कि मैं लिख रहा हूँ आखिर क्यूँ लिख रहा हूँ...मेरे लिखने का अर्थ क्या है....उसका सन्दर्भ क्या है....उससे क्या बदलने वाला है....और मैं नहीं भी लिखूंगा तो ऐसा क्या बिगड़ जाएगा....किसी किताब में छाप जाना....और उस पर टिप्पणियाँ पाना....कहीं ब्लॉग पर लिख लेना और प्रशंसा पा लेना....क्या किसी के लिखने का यही ध्येय होता है...??
तो फिर जिस पीड़ा याकि जिस चिंता से हम लिखते हैं...जो वेदना हमारे लेखन में झलकती है(जो अपने आस-पास विसंगतियों का विकराल पहाड़ देख-कर चिंतित होकर लिखते हैं)और उस वेदना की स्थितियों का कोई निराकरण नहीं हो पाता...और हमारे कुछ भी लिखने के बावजूद भी बदलता हुआ नहीं दिख पड़ता... और ना ही बदलने की कोई संभावना ही दूर-दूर तक दिखाई ही पड़ती है...तो फिर सच बताईये ना कि हम सब क्यों लिखते हैं....मैं चिल्ला-चिल्ला कर आप सबसे यह पूछना चाहता हूँ कि भाईयों और बहनों हम सब क्यूँ लिखते हैं ??अगर लिखने से हमारा तात्पर्य सचमुच स्थितियों का थोडा-बहुत ही सही बदल जाने को लेकर है तो फिर कुछ फर्क दिखलाई नहीं पड़ने के बावजूद हमारा लिखना आखिर किस कारण से जारी है....सिर्फ आपस के कतिपय संबंधों से थोड़ी-बहुत प्रशंसा पाने के लिए...??
दोस्तों बेशक हममे से कुछ लोग यूँ ही लिखते हैं मगर ज्यादातर लोग तो मेरी समझ से व्यथीत होकर ही लिखते हैं और उनकी वेदना उनके लेखन में दिखाई भी देती है...और अपने दैनिक जीवन में भी ऐसे बहुत से लोग अपने आस-पास को बदलने के लिए जूझते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं....भले उसमें उन्हें सफलता मिले या ना मिले...मगर सच तो यह भी है कि सफलता भी एक ऐसी चीज है जो अथक परिश्रम से मिल कर ही रहती है...और घोर परिश्रम से मिली सफलता का स्वाद भी बेहद मधुर होता है....इसलिए ओ मेरे दोस्तों कुछ भी करने का अगर उचित मकसद हो तो देर-अबेर उसके कुछ वाजिब अर्थ भी निकल ही आते हैं....!!
आज यह सब लिखना यह सोचकर शुरू किया था कि मैं आखिर क्यूँ हूँ....और लिखते-लिखते इसके उत्तर तक भी आन पहुंचा हूँ...वो यह कि हमारा काम होता है...अपना काम अपने पूरे समर्पण के साथ करना..... और जैसा कि कृष्ण-बाबा कह गए हैं कि फल की चिंता मत कर-मत कर-मत कर....सो अपन भी कृष्ण-बाबा के गीता-रुपी इस कथन को अपने जीवन में अपरिहार्य बना लिया है मगर क्या है कि इंसान हैं ना,सो कभी-कभी दिमाग बिगड़े हुए बैल की माफिक हो जाता है और अंत-शंट सोचने लगता है...और सोचते-सोचते सोचने लगता है कि उफ़ मैं क्या लिखता हूँ....मैं क्यूँ लिखता हूँ....उफ़-उफ़-उफ़....कुछ भी नहीं बदलता मेरे लिखने से...भाग नहीं लिखना अपुन को कुछ...मगर क्या है कि कर्म ही अगर जीवन है...तो हर कर्म जीवन का एक अभिन्न अंग और चूँकि जिन्दगी मेरी भी अभिन्न अंग है...इसीलिए कर्म करते ही जाना है अपन को....और उसका परिणाम अरे ओ अर्जुन के सखा बाबा कृष्ण....जा तुझ पर छोड़ता हूँ आज...अभी...इसी वक्त से....अब तू ही सम्भाल मेरे कर्मों को और मुझे....मेरे खुद को भी.....!!संभालेगा ना ओ मेरे यार......????

24 मई 2010

सुरेन्द्र अग्निहोत्री की कविता -- वे ललितपुर को नहीं जानते हैं

वे ललितपुर को नहीं जानते हैं
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जो कहते है कि ललितपुर को जानते है
दरअसल, वे ललितपुर को नहीं जानते हैं
वे इसे सिर्फ एक शहर मानते है
नदियों का, तालाबों का
अन्न उपजाने वालों का
भूख से आत्महत्या करने वालों का
उधार देने वालो का
वे जानते जरूर है
यह शहर है झुनारे रावत का
सदन कसाई का, मर्दन सिंह का
गणेश वर्णी का, लाल कवि का
हरि, जलज, तन्मय, विरही, परवेज का
राजीव लोचनाचार्य का, सुदामा गुसाई का
गन्नू चौधरी का, कल्लू कबाड़ी का
बल्लू उस्ताद का, लीला बेड़नी का
इसके वाबजूद मुझे यह कहने में
कोई हिचक नहीं होती है कि
वे ललितपुर को कतई नही जानते है
ललितपुर को जानते है वे
जो ललितपुर में शहजाद नदी की बाहों में बसते हैं
वे ललितपुर को कहते नही
ललितपुर का रचते है- रूचते है
ललितपुर की तंग गलियों में रहते है
पीढ़ी दर पीढ़ी से / सुम्मेरा तालाब के उजास घाटो पर जिन्होंने
जन्म से मृत्यु तक के कर्म किये है
जो सुख और दुःख में जिये है
जिन्होने वंशीपान वाले का खाया है पान
उन्होंने अर्ध चन्द्रकार को दिया है मान
जलूस के रसगुल्ले की मिठास
साई का दिया, और ठन्डाई को जिन्होंने नही पिया
वो क्यों जाने हरी मिठया के घवेर
और बिलके का नमकीन
जिन्होने नहीं सुना बीन
पढ़ लिखलें पार नही कर सकते कक्षा तीन।

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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन
120/132 बेलदारी लेन,
लालबाग, लखनऊ

21 मई 2010

आदमी साला बोर क्यूँ होता है यार.....??

आदमी साला बोर क्यूँ होता है यार.....??
ऐय क्या बोलती तू...क्या मैं बोलूं....सुन...सुना....आती क्या खंडाला...क्या करुं...आके मैं खंडाला...अरे घुमेंगे..फिरेंगे...नाचेंगे..गायेंगे...ऐश करेंगे...मौज करेंगे..बोरिंग को तोडेंगे...और क्या....ऐय क्या बोलती तू.......हां...!!चल ना अब तू.......ये आदमी धरती पर एक-मात्र ऐसा जीव है,जो हर कार्य से जल्दी ही बोर हो जाता है और उससे कोई अलग कार्य करने की सोचने लगता है या उस एकरसता से दूर भागने के प्रयास करने लगता है....और कभी-कभी तो उसकी बोरियत इतनी ज्यादा ही बढ जाती है कि वह "छुट्टी" पर चला जाता है,अकेला नहीं बल्कि अपने परिवार और दोस्तों के संग...और वह भी कहां....सुरम्य वादियों में...पहाडों... नदियों ..समंदर के पास...यानि किसी भी ऐसी जगह जो अपनी उस रोजमर्रा की जिंदगी से बिल्कुल अलहदा हो....जहां कि लगे कि कुछ दिन हम अलग सा जीये....इसीलिये यह गाना उसके दिमाग में बजता ही रहता है...चल कहीं दूर निकल जायें....कि कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है....ये कश्मीर है....और भी जाने क्या-क्या....और आदमी कुछ दिन घूम-फिरा कर वापस अपने घर लौट आता है....कुछ दिनों के लिए अपने दामन में या कि झोले में खुशियों के कुछ टुकडे लेकर....थोडे दिन तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चलता रहता है...मगर उसके बाद फिर वही...ऐय क्या बोलती तू.....!!
आदमी,मैं सोचता हूं,सच में ही है तो बडा ही विचित्र जीव....यदि ऐसा ना होता तो शायद उसे ये तो पता ही होता कि धरती को बने आज अरबों वर्ष हो चुके ....और यह इन अरबों वर्षों से बिना एक पल भी रूके...बिना एक पल को बोर हुए......अपनी धूरी पर चक्कर काटती हुई...सुर्य के चारों और परिक्रमा किये जा रही है....मौसमों और परिवर्तनों का एक-समान चक्र इतने ही वर्षों से चला ही जा रहा है....रोज-ब-रोज बादल बन रहे हैं और कहीं-ना-कहीं बरस रहे हैं....किसी भी पल को यह बोर नहीं होते...अगर एक पल को मान लो कि सिर्फ़ एक पल को ये बोर हो जायें तो.....???...यहां तक कि सूरज नाम का यह आग का भयावह गोला जो धरती से भी ज्यादा बरसों से धधक रहा है....धधकता ही जा रहा है....साला...कभी बोर ही नहीं होता....सेकेंड के एक अरबवें हिस्से के लिये एक दिन-एक बार बोर हो जाये ना... तो सिर्फ़ जिसके चारों और घूमने से धरती पर असंख्य प्रकार का जीवन चक्र चल रहा है....और निर्बाध रूप से चलता ही जा रहा है और यह भी तय है कि आदमी ही अपने कु-कर्मों से इस चक्र की गति को अपने खिलाफ़ भले कर ले.... आदमी के कारण भले कुछ भयावह किस्म की टूट-फूट या परिवर्तन धरती और वायुमंडल में कोई बवंडर भले ही हो जाये .....मगर अपनी और से प्रकृति ऐसा कुछ बदलाव नहीं करती....नहीं ही करती.... और साली कभी बोर ही नहीं होती....पागल है क्या ये साली....??
और आदमी....!!.....इसका बस चले ना.....तो यह घंटों-दिनों-सप्ताहों-महीनों तो क्या....हर पल ही बोर हो जाये....और हर पल ही किसी और ही दुनिया में चला जाये....शायद इसीलिये ही आदमी नाम का यह विचित्र जीव अपने ख्यालों की अपने से भी ज्यादा विचित्र दुनिया में विचरण करता रहता है....करता ही रहता है मगर मजा तो यह है कि यह साला वहां से भी बोर हो जाता है....अब जैसे कि यह कभी छुट्टी मनाने जो कभी बाहर भी जाता है तो वहां भी यह ज्यादा दिन आराम से टिक कर नहीं रह पाता क्योंकि उसे वहां फिर अपनी पुरानी दुनिया के काम याद आने लगते हैं....अपनी नौकरी...अपना बिजनेस...या फिर अपने अन्य दूसरे काम.....!!
तो बाहर-बाहर भले आदमी अपना काम करता हुआ-सा लगता है मगर साथ ही अन्दर-अन्दर वो अपनी किसी और ही दुनिया में गुम भी रहता है...और जब भी उसे अकस्मात चेत होता है....उसे लगता है....अरे मैं तो यहीं था...और अपने आप पर हंसता है आदमी....मैं अक्सर सोचा करता हूं......काश कि आदमी में धरती-सूरज-चांद-तारों-मौसम-जलवायू और प्रकृति के ठहराव का यह गुण आ जाये जिससे कि वह सदा अपने-आप में रह सके....एकरसता में भी सदा के लिये सदाबहार जी सके....मगर पता नहीं आदमी को तो क्या तो होना है....अपन तो उसकी ओर को सदा शुभ-ही-शुभ सोचा करते हैं....पता नहीं आदमी यह शुभ कब सोच पायेगा.....पता नहीं कब आदमी अपना भला कब सोच पायेगा....पता नहीं कब आदमी यह समझ भी पायेगा कि उससे जुडी हुई हैं असंख्य जिन्दगियां.....और जिनसे वो खुद भी उसी तरह जुडा हुआ है... सब एक-दूसरे के प्राणों से जटिलतम रूपों से जुडे हैं....इस नाते सबको अपने ख्याल के साथ-साथ अन्य सबों का भी ख्याल रखना है....जैसे उपर वाला हमारा ख्याल कर रहा है....करता ही चला आ रहा है....और करता ही रहेगा....मगर आदमी को यह होश शायद तब तक नहीं आयेगा....जब तक कि वह खुद अपनी मौत नहीं मर जाता......!

20 मई 2010

शब्दकार की 250 वीं पोस्ट -- आने दो बेटियों को धरती पर -- दिव्या गुप्ता जैन की कविता

ये शब्दकार की दो सौ पचासवीं (250) पोस्ट है। इस कविता को दिव्या गुप्ता जैन ने स्क्रेप के द्वारा भेजा है।
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आने दो बेटियों को धरती पर

मत बजाना थाली चाहे
वरना कौन बजाएगा
थालियाँ कांसे की
अपने भाई-भतीजों के जन्म पर
...

आने दो बेटियों को धरती पर
मत गाना मंगल गीत चाहे
वरना कौन गाएगा गीत
अपने वीरों की शादी में
...

आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना कोई विश्वास उन्हें
वरना कैसे होंगे दर्ज अदालत में
घरेलू हिंसा के मामले
...

आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना कोई आशीर्वाद उन्हें
वरना कौन देगा गालियाँ
माँ-बहन के नाम पर
...

आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना दान-दहेज़ उन्हें
वरना कैसे जलाई जाएँगी बेटियाँ
पराए लोगों के बीच
...

आने दो बेटियों को धरती पर
पनपने दो भ्रूण उनके
वरना कौन धारण करेगा
तुम्हारे बेटों के भ्रूण
अपनी कोख में
...

15 मई 2010

दीपक 'मशाल' के काव्य-संग्रह "अनुभूतियाँ" की समीक्षा --- संवेदनाओं का संताप -- डॉ0 सुरेन्द्र नायक

संवेदनाओं का संताप ----- समीक्षा --- डॉ0 सुरेन्द्र नायक

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‘क्योंकि जीवन कविता नहीं/एक पहेली है/और पहेली का शीर्षक नहीं होता’ सम्भवतः यही युवा कवि दीपक चौरसिया ‘मशाल’ के काव्य संग्रह ‘अनुभूतियाँ’ का सार तत्त्व है। विगत एक दशक में युवा कवि-गद्यकार दीपक चौरसिया ने अपनी रचनाधर्मिता से हिन्दी साहित्य-जगत में जिस प्रकार से महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है वह हिन्दी प्रेमियों को एक आश्वस्ति प्रदान करता है कि हिन्दी साहित्य भविष्य में उत्तरोत्तर नये उत्स प्राप्त करता रहेगा। कवि युवा है अतः उसकी कविताओं में अनुभूतियों की सघनता एवं संवेदनाओं का कोलाहल स्वाभाविक रूप से अधिक परिलक्षित होता है।

माँ की विराट सत्ता में करुणा, दया, ममता एवं संवेदनाओं की पुरबैया बयार सी भीनी खुशबू कुछ इस तरह से बिखरी हुयी है कि सृष्टि के आदिम काल से आज तक की मानव की अनवरत विकास यात्रा के क्रम में हजारों तरह के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक पड़ावों से गुजरने के बाद भी उसमें कोई कमी या बदलाव नहीं आया है। जीवन में मनुष्य सफलता के कितने भी सोपान बाँध ले लेकिन उसकी जिन्दगी में माँ सबसे खूबसूरत सपना और सबसे आत्मीयजन होती है। इसी मर्म को पिरोये हुए कवि के अन्तर्तम से प्रस्फुटित उद्गार पठनीय हैं यहाँ सब खूबसूरत है/पर माँ/ मुझे फिर भी तेरी जरूरत है। माँ एक नारी भी है अतः माँ की पीड़ा नारी की पीड़ा भी है। एक माँ को, एक स्त्री को अपने बच्चों पर ये ममता लुटाने के लिए कितना उत्सर्ग करना पड़ता है, ये कवि की पैनी निगाह से छिपा नहीं है माँ/आज भी तेरी बेबसी/मेरी आँखों में घूमती है/तेरे अपने अरमानों की/खुदकुशी/मेरी आँखों में घूमती है।

माँ की असीम सत्ता में नारी के अन्य पारम्परिक सम्बोधन दादी, नानी, बुआ, चाची आदि भी समाहित हैं जो बच्चों को प्रेम और संरक्षण देकर उसके नन्हे बालमन पर अमिट प्रभाव छोड़ देते हैं। ‘तुम छोटी बऊ...’ कविता में वात्सल्य की अनुगूँज की यही प्रतिध्वनि श्रव्य है अकल तो मिली पर तुम सिखा गयीं/मोल रिश्तों का छोटी बऊ।

युवामन में प्रेम की कोपलें न अंकुरायें तो वह युवा ही कैसा। कितने अहसान हैं तेरे मुझपे/तूने मुस्कुराना सिखाया है मुझे/होंठ तो थे मेरे पास/मगर उनका एहसास तूने कराया है मुझे। मोहब्बत में रुसबाइयाँ न हों, मजबूरियाँ न हो, ये कहाँ होता है। तुम मौजों से लड़ना चाहती/मैं साहिल पे चलना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।

उच्च शिक्षा और कैरियर के लिए विदेश प्रवास आजकल सामान्य बात हो चली है। संप्रति कवि भी प्रवासी भारतीय है। ऐसे में महत्वाकांक्षाओं और मानवीय संवेदनाओं के बीच सेतु बनाना काफी कठिन हो चला है। कवि इस विडम्बना से असंपृक्त कैसे हो सकता है? इस त्रासदी को कवि ने बड़े सहज और शालीन शब्दों में उकेरा है तुम अंबर में उड़ना चाहते/मैं जमीं से जुड़ना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।

प्रेमी हर बन्धन, हर जंजीर, हर दीवार को तोड़कर अपनी प्रियतमा का साहचर्य और सान्निध्य पाना चाहता है, मगर ऐसा संभव न हो सके तो मन में तल्खी और शिकवा तो पैदा होगा ही अब जब भी/इस धरती पर आओ/इतनी मजबूरियाँ लेके मत आना/कि हम/मिलकर भी/ना मिल सकें।

कविता का छंदमय होना या छंदमुक्त होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसमें व्यक्त भावों की प्रवणता, गंभीरता और सघनता। इस मानक पर ये काव्य संग्रह खरा उतरता है। छंदमुक्त कविता में भी शब्दों की एक लय, एक प्रवाह होता है जो हमें मनोभावों की गहराइयों से आप्लावित करने के साथ ही काव्य के सौन्दर्य और माधुर्य का आस्वाद देता है। निश्छंद कविता का मतलब शुष्क गद्यमय काव्य नहीं हो सकता है।

कविता को छंद की रूढ़ियों से उन्मुक्त करने वाले महाप्राण निराला की सारगर्भित पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं ‘भाव जो छलके पर्दों पर/न हो हल्के, न हो नश्वर।’ निराला की इन पंक्तियों की कौंध का संदेश स्पष्ट है कि हल्का लेखन नहीं करना चाहिए। इस संदेश का अनुशीलन करते हुए दीपक चौरसिया ‘मशाल’ ने अपने इस पहले ही काव्य संग्रह में विविध आयामों पर लेखनी चलाते हुए काव्य विद्या को नयी ऊँचाई प्रदान की है। स्वाभाविक रूप से हिन्दी जगत को इस कवि से भविष्य में और अधिक उत्कर्ष, वितान और गहनता की अपेक्षा रहेगी। इसके लिए कवि को नवीनतम बिम्ब विधान और रूपकों का संधान करते हुए अपने भारतीय और प्रवासी दोनों ही परिवेशों पर सतत सूक्ष्म दृष्टि रखनी होगी।

कवि एक सृष्टा भी होता है और एक दृष्टा भी। उसकी अंतश्चेतना समकालीन युगबोध का निर्वाह करते हुए भी अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों कालों में संचरण करती है इसीलिए युवा कवि ने अपने सतरंगी काव्य संसार में स्त्री मन, जीवन मूल्य, आतंकवाद, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार जैसे जीवन से जुड़े यक्ष प्रश्नों को भी बहुत मार्मिकता और बारीकी से उकेरा है। दुनिया है तो उसमे हर्ष-विषाद, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रेम-विरक्ति, आशा-निराशा, दुःख-सुख जैसे कारक तो रहेंगे ही। इन सबको स्वीकार करने में ही जीवन की मुक्ति है। कवि का ये मंत्र उनकी कविता ‘बुद्धा स्माइल’ में दृष्टव्य है-वो मुस्कुराये थे तब भी/जब हुआ था आत्मबोध/बुद्ध मुस्कुराते थे पीड़ा में भी/बुद्ध मुस्कुराते थे हर्ष में भी.../क्योंकि दोनों थे सम उनको...

आम आदमी के लिए दुःख और सुख में सम अनुभूति सहज नहीं है लेकिन इस तरह की प्रेरणा आम आदमी को पीड़ा सहन करने के लिए मानसिक रूप से सुदृढ़ तो करती ही है। यह उपलब्धि भी अपने आप में कम नहीं है ये काव्य संग्रह कम से कम एक पाठ की माँग तो करता ही है।

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समीक्ष्य कृति - अनुभूतियाँ (काव्य-संग्रह)
रचनाकार - दीपक चौरसियामशाल
प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, सीहोर 0प्र0
पृष्ठ - 104
मूल्य - रु0 250/
समीक्षक - डॉ0 सुरेन्द्र नायक, प्रतापनगर, कोंच (जालौन)

इस नग्नता का क्या करना है....??

इस अखबार में अक्सर कुछ गुणी लोगों लोगों यथा हरिवंश जी,दर्शक जी,निराला जी,ईशान जी, राजलक्ष्मी जी को पढ़ा है,लेखकों के नाम तो अवश्य बदलतें रहे हैं, मगर मूल स्वर वही होता है सबका,जो अखबार का घोषित उद्देश्य है।गलत शासन का विरोध,गलत लोगों की आलोचना… अखबार का एक पन्ना भी अब धर्म- अध्यात्म एवम सन्त-महात्माओं के सुवचनों से पटा हुआ होता है मगर कहीं कुछ नहीं बदलता……कहीं कुछ बदलता नहीं दीख पड़ता……आखिर कारण क्या है इसका…??

सौ-डेढ सौ साल पहले एक खास किस्म का वातावरण हुआ करता था इस देश में…वो बरस थे कठोर और यातनामयी गुलामी के बरस……मगर उस भीषण यातनादायक युग में भी चालीस करोड़ लोगों की लहरों के समन्दर में जो उफ़ान,जो उद्वेग,जो उबाल,जो जोश ठाठ मारता था और जो नेतृत्व उस वक्त उन्हें प्राप्त था उसमें जान पर खेलकर भी अपने देश की मुक्ति की भावना थी,इस भावना में एक निर्मल और मासूम प्रण था,गुलामी से मुक्ति का एक निश्चित उद्देश्य था,मुक्ति-पश्चात मिलने वाले देश को एक खास प्रकार से निर्मित करने की योजना थी……मगर वह संकल्प,वे योजनाएं आजादी के मिलते ही सत्ता-संघर्ष में अपहरण कर लिए गये……जबकि स्वाधीनता-सेनानियों ने मुक्ति-संग्राम में किये गये अपने संघर्षों के मुआवजे के रूप में सत्ता की कुर्सी चाही……और ना सिर्फ़ चाही…बल्कि उसके लिए भी जो घमासान लड़ा गया…उसने स्वार्थपरता की सब हदों को तोड़ दिया……और देश के मुक्ति-संग्राम में जान-न्योछावर करने को तत्पर रहने वाले ये वीर-बांकुरे मुक्ति-पश्चात अपने किए गये कार्यों का मोल प्राप्त करने के चक्कर में आपस में ही कैसी-कैसी कटुताएं पाल बैठे……यह एक किस्म का अपहरण कांड था,जिसमें किसी भी किस्म की शुचिता नहीं थी बस अपने शरीर और मन को आराम देने की कुतित्स चाह थी यकायक उभर आयी इस चाह ने विकृतियों के ऐसे बीज सदा के लिए बो दिये कि मुक्ति-पश्चात देश को बनाने के समस्त स्वप्न और समुचे प्रण तिरोहित हो गये और इसी के साथ देश चल पड़ा अपने कर्णधारों की स्वार्थ-सिद्धि के एक ऐसे विकट रास्ते में जिसका अंत वर्तमान के रूप में ही होना था……यानि कि स्वार्थपरता की घोर पराकाष्ठा…… नीचता के पाताल तक की भयावह यात्रा……अब आज यह जो विरूपता का विशाल विष-वृक्ष हमें हमारे चारों ओर फ़ैला दिखायी दे रहा है……यह भी अभी आखिरी नहीं है,इसे तो अभी और बड़ा होना है……!!

जब आप सेवा-समर्पण-क्रान्ति-त्याग करते हो तभी यह तय हो जाता है कि यह सब खुद के लिए नहीं कर रहे बल्कि अपने को समाज का एक विशिष्ठ हिस्सा समझ कर अपने हिस्से का विशिष्ठ पार्ट अदा कर रहे हो…कि आपने अगर यह नहीं किया तो आप अपनी ही नज़र से गिर जाओगे…बेशक आप खुद भी समाज की एक इकाई हो मगर इन कार्यों को किये जाते वक्त आपने एक सन्त की भांति ही निर्विकार होना होता है…देशीय-समुच्च्य के साथ एकाकार……!!जैसे ही आपने अपने कार्यों के प्रतिदान की मांग की…… बागडोर अपने हाथ में लेकर सत्ता का थोड़ा सुखपान/रसपान करने की इच्छा आपमें पैदा हुई नहीं कि फिर एक सिलसिला शुरू हो जाता है भोग का-आनन्द का-सुख के तिलिस्म का……और यह सब न सिर्फ़ आपको एक निम्नतम रास्ते की और अग्रसर कर देता है……बल्कि आपके चरित्र की उस विशिष्ठता को भी घुन की तरह खाना शुरू कर देता है जिसके कारण आप खुद को एक मिसाल बनाने के रास्ते की ओर अग्रसर हुए थे……जिसके कारण लोग आपको “विशेष” मानने लगे थे……जिसके कारण आपकी बोली का महत्व होने लगा था……जिसके कारण आप समाज के लीडर बनने लगे थे……!!

सुख दरअसल एक ऐसी कामना है जो सदा और-और-और की डिमांड करती है…यह त्याग के बिल्कुल विपरीत है……और चरित्र की उदारता के बिल्कुल विलोम……और दुर्भाग्यवश हमारे मुक्ति-सेनानियों के त्याग के बाद भोग का रास्ता चुना……और ना सिर्फ़ इतना अपितु अपनी संतानों के भविष्य को भी सुनिश्चित कर देना चाहा……परिणाम सामने है…!!??शासन चलाने की अयोग्यता…अदूरदर्शिता…काहिली और अन्तत:लम्पटता से भरे लोग इस देश के शासन के उपरी तलों पर छा चुके हैं और आम जनता को इस सबसे बचने का कोई रास्ता ही नहीं दिखायी देता…जैसे एक अनन्त अंधेरा चारों ओर छाया हुआ है और नेतृत्व बिल्कुल रोशनी-विहीन…एकदम श्रीहीन…कान्तिहीन……बल्कि किसी गये-गुजरे से भी गया-गुजरा हुआ……सत्ता की चाह ने आजादी की शुरुआत में ही कुछ लोगों को शीर्ष पर लाकर उनसे भी गुणी लोगों को हाशिये पर डाल दिया था……कितने ही विरोधियों को मसल दिया गया था…और कितनों को मार भी डाला गया……समय एक दिन सबसे इन सबका हिसाब मांगेगा कि नहीं सो तो नहीं पता मगर यह तो तय है कि देश तो उसी वक्त जंगल बनाया जा चुका था……और जंगल के कानून भी उसी वक्त न्याय के शासन की जगह प्रत्यारोपित किए जा चुके थे……सत्ताधारी का सत्ता प्रेम देशप्रेम और विरोधियों का तर्क/बहस देशद्रोही साबित किये जाने लगे……!!

झारखंड आज इस सबका एक अद्भुत-अतुलनीय-नायाब और खुबसुरत उदाहरण बनता जा रहा है, जहां सारे नियम,कानून,नैतिकता,शासन-कर्म सबके सब एकदम से ताक पर रखे जा चुके हैं और इन सबकी जगह व्यभिचार-लम्पटता……और संसार की सभी भाषाओं में जितने भी गंदगी के पर्याय-रूपी शब्द हैं,सब इस झारखंडी शासन व्यवस्था के विद्रूप के समक्ष एकदम बौने हैं(इसीलिये मैं इनके लिये इन तमाम शब्दों का प्रयोग नहीं कर पा रहा कि शब्द बिचारे क्या कहेंगे या कह पायेंगे जो इन झारखंडी नेताओं-अफ़सरों- ठेकेदारों और ना जाने किन-किन लोगों की चांडाल-चौकड़ियों ने कर दिखाया है……सच झारखंड आज “चुतियापे” की एक ऐसी भुतो-ना-भविष्यति वाली मिसाल बन चुका है कि इसकी आने वाली संताने इस बात पर भी कठिनता से विश्वास कर पायेंगी कि यहां अच्छे लोग भी कभी हुआ करते थे……कितना शर्मनाक है झारखंडी होना……इससे तो कहीं बहुत कम शर्मनाक था अपने घोरतम कुटिल-घटिया शासन वाले दिनों में बिहार……और जिस बिहार की तुच्छ राजनीति के कारण झारखंडी अस्मिता के लिए यह राज्य बुना गया……आज उसी तुच्छता की एकदम से घटिया से घटिया अनुकृति बन चुका है यह राज्य……!!

किसी भी संस्थान/राज्य/देश को चलाने के लिए शासन की योग्यता के अलावा एक और खास बात की आवश्यकता होती है वो है इस समुचे वातावरण से अपनी निर्लिप्तता……क्योंकि केवल तभी लोभ-स्वार्थ या इस तरह की अन्य बातों से बचा भी जा सकता है……समुची लीडर-शिप एक समुचा रुपांतरण होता है खुद को न्याय की आग में झोंक में देने के माद्दे के रूप में……कैसा भी मोह आपने एक बार पाला तो उसे नासूर बनते देर नहीं लगती……समय रहते समस्याओं की पहचान भी आपके आने वाले संकटों को दूर कर सकती है……मगर यह सब कुछ आपमें मोह की अनुपस्थिति में ही संभव है,अन्यथा कभी नहीं…!!

फिर एक बात और भी है कि जीवन में एक-एक डेग बढ़कर आप कुछ पाते हैं तो आप उस कुछ की कीमत भी जानते हैं मगर अचानक कुछ मिल जाने पर आदमी जैसे पागल हो जाता है ना वैसे झारखंडी नेता और उनकी चांडाल-चौकड़ी पगलाई हुई है……और वो किसी विक्षिप्त की भांति और-और-और इस तरह “सब कुछ” को अपनी अंटी में धर लेने को आतूर है……सब कुछ लूट लेने को हवशी है……उसे इस पागलपन के सिवा कुछ और नज़र ही नहीं आता…इसलिए बाहर से देखने पर इस तन्त्र में मल-मूत्र-विष्ठा-गंदगी और वीभत्सतता के अलावा कुछ दिखायी नहीं देता……इस चौकड़ी का प्रत्येक व्यवहार एक दंभ,एक सनक,एक अहंकार,एक क्रपणता,एक अहनमन्यता और यहां तक कि एक राक्षसी वृत्ति बन चुका है जो सबको हजम कर लेना चाहता है……!!

झारखंड को बनाने की लड़ाई में अपना सब-कुछ त्याग कर जंगल-जंगल घूम कर भूखे-प्यासे भी रहकर गुरुजी की उपाधि पाने वाले महापुरुष तक भी अपना समुचा “सत”इसी लोभी सत्ता की चाह में खोकर अपना समस्त “चरित्र” खोकर लुट-पिटा कर एक निस्तेज और बिल्कुल एक लम्पट आम और नौसुखिये नेता की तरह बर्ताव कर रहे हैं……कल को कोई पूछे अगर कि झारखंड में “गुरुजी” किनको कहा जाता था…तो हमारे बच्चे भला क्या जवाब देंगे……यह सोचकर भी कोफ़्त होती है……यह झारखंड का एक सबसे बड़ा का दर्द है……काश कि इसे “गुरुजी” खुद या उनकी कोई संताने पह्चानें……बेशक कोई व्यक्ति एक जान लड़ा देने वाला समर्पित सेनानी हो सकता है मगर यह कतई अनिवार्य नहीं कि वो एक बेहतर शासनकर्ता भी साबित हो……क्रान्ति की आग कोई और ही बात होती है साथ ही शासन चलाने की योग्यता एवम दूरदर्शिता एक बिल्कुल अलग और दूसरी ही बात……क्रान्तिधर्मिता का प्रबन्धन और शासन का प्रबन्ध भी इसी तरह दो अलग-अलग चीज़ें हैं। और जरूरी नहीं कि कोई एक इन्सान दोनों ही बातों में होशियार हो……हो भी सकता है और नहीं भी……!!

किन्तु यह हश्र भी तो कमोबेश सभी जगह दीख पड़ रहा है,कहीं कम तो कहीं ज्यादा……63 सालों में घोटालों में गयी कुल रकम शायद देश के विकास में खर्च की जाने वाली रकम से ज्यादा ही बैठेगी तिस पर गिरते चरित्र का मुल्यांकन करें तो देश को हुआ नुकसान अत्यन्त भयावह मालूम प्रतीत होगा…शायद चरित्र नाम की कोई वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बचा है अब…आने वाली पीढी को यह समझा पाना भी कठिन होगा कि शब्दकोष में इस नाम का भी एक शब्द हुआ करता था…जिसका अर्थ फलां-फलां था मैं सोच रहा हूं क्या उपमा से इसे चिन्हित किया जायेगा…!!अगर समाज का कोई भी सदस्य यह सोचना तक छोड़ दे कि मेरा चरित्र भी कायम रह जाये…और समाज का सिर भी गर्व से उन्नत हो जाये…तो फिर समाज का क्या होगा…??क्योंकि आखिरकार सारी चीज़ें तो पहले कल्पना में ही आती हैं साकार तो आदमी उन्हें बाद में करता है…और विवाद भी बाद की ही बात है…मगर कहीं कोई कल्पना-प्रश्न-विचार-कर्म ऐसा कुछ भी नहीं तो फिर क्या हो…किसी प्रकार की कोई गति हो तब ना आगा या पीछा हो…!!

और झारखंड की जनता……जिसने मल-मुत्र-विष्ठा और गन्दगी में रहने को ही अपनी नियति मान लिया है तो फिर उसे इस पतन से बाहर भी कौन निकाल सकता है,कोई उपर से थोड़ा ना आता है कोई सुरते-हाल बदलने के लिए……खुद समाज को ही उठ खड़ा होना होता है……मगर यहां तो बोलने वाले बोल रहे हैं,लिखने वाले लिख रहे हैं और मीडिया के विरोध के तमाम स्वरों के बावजूद भी नोचने वाले जी भर-भर कर राज्य का सब कुछ नोच रहे हैं,व्यवस्था का चीरहरण कर रहे हैं और लोकतंत्र के साथ अमानुषिक गैंगरेप……!!……देशद्रोही होने की हद तक कमीनापन तारी है जिनपर……और देशद्रोही कहे जाने पर आसमान सर पर उठा लेने वाले…कुत्तों से गये गुजरे हुए जा रहे हैं(सारी कुत्तों मैं आपकी वफ़ादारी की तुलना एक निहायत ही धोखेबाज जीव से कर रहा हूं)और कुत्तों की टेढी पूंछ से तुलना करने पर संसद तक भंग कर देते हैं…सड़कों पर तांडव मचा रहे हैं…चैनलों पर हो-हल्ला कर रहे हैं…निजी अहंकार का वीभत्स रूप हैं ये लोग……सत्ता…सुरा…सुन्दरी…सम्पत्ति…बस यही ध्येय है जिनका……जिसे वे अपने मातहतों…सम्बंधियों …दोस्तों की चांडाल-चौकड़ी की मदद से घृणिततम रूपों से पूरा कर रहे हैं……और इन शैतानों को…इन राक्षसों को…प्रकारांतर से हरामखोरों को…देशद्रोहियों को जनता ढो रही है…ढोए ही जा रही है…और यहां तक कि इन्हीं हरामखोरों को जीता-जीता कर फिर-फिर-फिर से संसद और विधानसभा भेजे जा रही है…मेलों-ठेलों और जुलुसों की शक्ल में…हर जगह कोई ढपोरशंख कोई ना कोई महत्वपूर्ण पद संभाले हुए है…गठबंधनों ने सबकी चांदी कर दी है……जिसकी कोई औकात नहीं है वह भी सबको ऐसा नचा रहा है कि भाग्य नामक चीज़ का अहसास होने लगा है…!!

अब तो गोया किसी स्ट्रींग आपरेशन का भी कोई अर्थ नहीं दिखता…क्योंकि सब कुछ तो अब ऐसे खुले खाते की तरह होता है जैसे मानो किसी को किसी का कोई भय ही नहीं हो…जनता की आंखे और दिमाग का कैमरा एकदम से बन्द है…देश का एक वर्ग हरामखोरी की फ़सल से सुख-ऐशो-भोग के नशे में खो रहा है तो दूसरी ओर देश का हर बच्चा,जवान,प्रौढ और बूढ़ा बड़े मज़े-मज़े में चैन की नींद सो रहा है…जो शायद तब जागेगा तब जब इसके प्रत्येक सदस्य का घर-बार लुट-पिट चुका होगा…।इसकी सारी मां-बहनों-पत्नियों का बदन नुच चुका होगा…नग्न और बेसहारा औरतें अपने बदन पर गन्दे-से-गन्दे घृणिततम वीर्य के कतरे देखती हुई उबकाई रहेंगी मगर अब कोई ऐसा शिशु नहीं जनेगी जो देश की सोचता हो…देश के लिये रोता हो…देश के लिये सब कुछ करता हो…कि देश पर ही मर जाता होओ…!!!!

डॉ0 महेंद्रभटनागर की कविता -- ग्रीष्म

डॉ0 महेंद्रभटनागर की कविता -- ग्रीष्म

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तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण !
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त्रस्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन !
.

जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन !
.

भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !
.

रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण !
.
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E-Mail : drmahendra02@gmail.com
Phone : 0751-4092908

14 मई 2010

दोहा का रंग भोजपुरी के संग: संजीव वर्मा 'सलिल'




दोहा का रंग भोजपुरी के संग:

संजीव वर्मा 'सलिल'

सोना दहल अगनि में, जैसे होल सुवर्ण.
भाव बिम्ब कल्पना छुअल, आखर भयल सुपर्ण..
*
सरस सरल जब-जब भयल, 'सलिल' भाव-अनुरक्ति.
तब-तब पाठक गणकहल, इहै काव्य अभिव्यक्ति..
*
पीर पिये अउ प्यार दे, इहै सृजन के रीत.
अंतर से अंतर भयल, दूर- कहल तब गीत..
*
निर्मल मन में रमत हे, सदा शारदा मात.
शब्द-शक्ति वरदान दे, वरदानी विख्यात..
*
मन ऐसन हहरल रहन, जइसन नदिया धार.
गले लगल दूरी मितल, तोडल लाज पहार..
*
कुल्हि कहानी काल्ह के, गइल जवानी साँच.
प्रेम-पत्रिका बिसरि के, क्षेम-पत्रिका बाँच..
*
जतने जाला ज़िन्दगी, ओतने ही अभिमान.
तन संइथाला जेतने, मन होइल बलवान..
*
चोटिल नागिन के 'सलिल', ज़हरीली फुंकार.
बूढ बाघ घायल भयल, बच- लुक-छिप दे मार..
*
नेह-छोह राखब 'सलिल', धन-बल केकर मीत.
राउर मन से मन मिलल, साँस-साँस संगीत..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

12 मई 2010

बहुत भूखा हुं मैं……!!

बहुत भूखा हूँ मैं/इस धरती का सारा अन्न/मेरे पेट में झोंक दो...
उफ़ मगर मेरी भूख मिटने को ही नहीं आती !
हर भूखे का हर निवाला भी मुझे खिला दो...
शायद तब कुछ चैन मिले इस पेट को....
मेरे जिस्म का बहुत सा हिस्सा अभी भी भूखा है
ये झरने-नदी-तालाब-पहाड़-जंगल-धरती-आसमान
ये सब के सब मुझे सौंप दो.....
हाँ,अब जिस्म की हरारत को कुछ सुकून मिला है !!
अब तनिक मेरे जिस्म को आराम करने दो...
उफ़!!यह क्या ??अब मेरे जिस्म में...
कोई और आग भी जाग उठी है....
उसे मिटाने का कोई उपाय करो...
खूब सारी स्त्रियाँ लाओ मेरे जिस्म की तृप्ति के लिए...
अरे इतनी-सी स्त्रियों से मेरा क्या होगा....
देखते नहीं कि अभी-अभी मैंने कितना कुछ खाया है !!
जवान-प्रौढ़-वृद्ध-बच्चियां-शिशु सब-की-सब....
दुनिया की सारी मादाएं लाकर मेरी गोद(जांघ)में डाल दो....
एय !!कोई एक पैसे को भी हाथ नहीं लगाएगा....
संसार का समूचा धन सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए है...
दुनिया के सब लोगों का सब कुछ लाकर मुझे दे दो....
असंख्य प्राणियों की समूची हंसी मेरे होठों को दे दो...
मुझे तुम सबसे कोई मतलब नहीं ओ धरती-वासियों !!
चाहो तो मर जाओ तुम सब अभी की अभी....
तुम नहीं जानते कि कितना-कितना-कितना भूखा हूँ मैं...
उफ़!!मेरी ये भूख मिट क्यों नहीं रही.....??
दो-दो-दो-दो.....मुझे अपना सब कुछ मुझे दे दो....
अंतहीन है यह मेरी पिपासा....अनंत है मेरी यह भूख...
उफ़!!मैं किस तरह अपनी भूख को थामूं....??
उफ़!!किस तरह से मुझ जैसे भूखों को....
इस पृथ्वी ने थामा हुआ है......???

बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो

बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो !!
पता नहीं कब से हमने अपने बच्चों को अपनी नाक का सवाल बना कर रखा हुआ है और अक्सर हमारी नाक हमारे बच्चों के कतिपय कार्यों से नीची हो जाया करती है यह हमारे मासूम बच्चों समझ भी नहीं पाते और मज़ा तो यह भी है कि हमारे लाख समझाने पर भी वो हमारी इस प्रकार की बातों के अर्थ नहीं समझ पाते और बार-बार वही-वही गलतियां करते हैं,जिन्हें हम पसंद नहीं करते…
हालांकि हमारे बच्चों यह बात भली-प्रकार जानते और समझते है,कि उनकी कि्सी बात का उनके मां-बाप को पसंद नहीं आने का मतलब क्या होता है,मगर भला हो इस बचपने का भी जो बच्चों से बार-बार इस प्रकार का बचपना करवा ही डालता है और तब हमारे क्रोध का पारावार नहीं रहता !!
पता नहीं क्यों अपने खुद के बचपने के दरम्यान की गयी हज़ारों नादानियों को हम याद क्यों नहीं रख पाते पता नहीं हम यह क्यों सोच नहीं पाते कि बचपना तो होता ही है नादानियों के लिये है और नादानी भरी मासूम सी बदमाशियों के कारण ही बच्चे हमें बेहद प्यारे लगा करते हैं,उनके छोटे-छोटे हाथ-पैरों ही नहीं अपितु भोले-भाले दिमाग के द्वारा की जाने वाली हरकतों वाले द्र्श्य ही तो हमारा मन मोह लेते हैं,मन मोह लेते हैं ना ??
मगर फ़िर भी हम हैं कि ज़रा से बडे हुए नहीं कि अपने ऊपर बड्प्पन का बोझिल-सा लबादा ऐसा लाद लेते हैं कि फ़िर धीरे-धीरे अपना असली चेहरा भी भूल जाते हैं,अपने बचपन का मासूम चेहरा !! और तब इस नये चेहरे में हमारा माधुर्य-हमारा सौंदर्य-हमारे सपने सब-के-सब खो जाते हैं,हमारे चेहरे पर एक खा जाने वाली मारक कठोरता तारी हो जाती है…हम पत्थर बन जाते हैं और विडंबना तो ये है कि हम खुद को यही मान लेते हैं जीवन भर के लिये….कभी भी लौट कर बच्चे नहीं हो पाते हमारे अंदर एक भयानक किस्म की रिक्तता भर जाती है !!
बेचारे हमारे बच्चे हमारे फ़िज़ूल के शगल के किस प्रकार शिकार होते हैं,जब कोई मेहमान हमारे घर पर आता है…तो दो-दो चार-चार बरस के छोटे-छोटे बcचे जिनसे हम फ़रमायिश करते हैं कभी ये सुनाने की तो कभी वो सुनाने की…बच्चे तो बडे मनचले होते हैं…जब तो उन्होंने सब ठीक-ठाक सुना दिया तब तो बच्चे से ज्यादा खुद हमारी बाछें खिल-खिल जाती हैं,मगर जहां उन्होंने कुछ आना-कानी की या फ़िर कुछ मूंह-जोरी की तो हमारे खुद के चेहरे बुझ जाते हैं…हमारे चेहरे तब वाकई देख्नने लायक होते हैं यहां तक तो फ़िर भी गनीमत होती है मगर हद तो तब होती है जब हमारा उतावलापन उनपर हमारी धौंस-डांट-फ़ट्कार या फ़िर मार-पीट तक के रूप में चढ बैठ्ता है…!!
अक्सर जीवन में हम अपना सोचा हुआ सपना पूरा नहीं कर पाते…और अपने मासूम बच्चों में वो सपने पैदा करने लगते हैं बcचे चुंकि हम पर अंधा विश्वास करते हैं इसलिये वो हमारी आंखों में हमारी अपूर्ण लालसाएं नहीं पढ पाते…उन्हें हमारा गुस्सा हैरान जरूर करता है मगर वो जानते हैं कि हम यह सब दर असल उनके भले के लिये ही कर रहे हैं और वो प्रत्येक बार हमारे गुस्से को अनदेखा किये चले जाते हैं…मज़ा यह कि हम अपने बcचे में छिपी समझदारी को कभी नहीं भांप पाते…!!
अपने बच्चों को हर बार हर बात पर सफ़ल होते हुए देख्नना या फ़िर हर जगह अव्वल ही पाना,यह हमारे दिमाग का एक रोमांटिक मगर दिवालिया फ़ितूर है…और अगर है भी तो रहा करे हमारी बला से…किसी और पर ,यहां तक कि खुद की संतान पर इसे लादना दोषपूर्ण ही नहीं बल्कि अन्याय पूर्ण भी है…हममें से कभी कोई यह भी समझने को तैयार नहीं होता कि हर जगह लिटिल चैंप तो एक ही एक होता है बाकि तो सब उसके इर्द-गिर्द ही होते हैं !!
हममे से हर कोई अपना बचपन अपनी तरह से गुजार कर आता है.…तो किसी अन्य को उसका बचपन खेलने देने में हमें एतराज़ क्यों होना चाहिये…अब रही आपकी इच्छा-पूर्तियों की बात तो भईया जो काम आप खुद ना कर सके तो अब उसे जाने भी दिजिए ना…अब जो जुगाड आपको मिला है उसी में खुश रहिये…!!
बच्चों पर अपने सपने लादना बहुत बुरा होता है बहुत बुरा…हर कोइ धरती पर अपनी एक भूमिका लेकर आता है…आप अपनी भूमिका जी रहे हो.…तो फ़िर बच्चों को भी उनकी भूमिका जीने दो ना अच्छा रहेगा……आखिर तुम्हारे ही तो बच्चों हैं…… हैं ना दोस्तों……!!शायर ने तो कहा भी है
बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे !!

09 मई 2010

ओ माँ....मेरी माँ....!!

ओ माँ....मेरी माँ....
तेरा छाँव देता आँचल,
मुझे आज बहुत याद आ रहा है,
खाने के लिए गली में मुझे आवाज़ देता हुआ
तेरा चेहरा मेरी आँखों में समा रहा है....
मैं जानता हूँ..... ओ माँ
कि तू मुझे बहुत याद करती होगी...
मगर मैं भी याद तुझे कुछ कम नहीं कर रहा...
तेरा मुझे डांटता-फटकारता और साथ ही
बेतरह प्यार करता हुआ मंज़र ही अब मेरा
साया है और प्यार भरी मेरी छत है !
दूर-दूर तक पुकारती हुई तू मुझे
आज भी मेरे आस-पास ही दिखाई देती है !
मुझे ऐसा लगता है अक्सर कि-
मैं आज भी तेरी गोद में तेरे हाथों से
छोटे-छोटे कौर से रोटियाँ खा रहा हूँ,
तेरे साथ कौन-कौन से खेल खेल रहा हूँ,
तेरी सुनाई हुई अनजानी-सी कहानियां
आज भी मेरे कानों से लेकर
मेरे दिल का पीछा करती हुई-सी लगती है !!
सच ओ माँ....मैं तुझे
बेहद याद करता हूँ....बेहद याद करता हूँ....!!
माँ मुझे पता है कि तेरा आँचल आज भी
मुझे छाँव देने के लिए छटपटाता है और मैं-
ना जाने किस-किस जगहों पर
किन-किन लोगों से घिरा हुआ हूँ....
मैं नहीं जानता हूँ ओ माँ-
कि तू किस तरह मेरा पीछा करती है??
मगर मैं जान जाता हूँ कि तू
किस समय किस तरह से याद कर रही है,
तेरी यादों का तो मैं कुछ नहीं कर सकता....
तेरे दिल के खालीपन को भरना भी तो
अब मेरे वश की बात नहीं है,
मगर सच कहता हूँ ओ माँ-
जब भी तू मुझे याद करती है,
मैं कहीं भी होऊं....अपने अंतस के
पोर-पोर तक तक भीग जाता हूँ
और इस तरह से ओ माँ
मैं आकर तुझमें ही समा जाता हूँ....!!

दिव्या गुप्ता जैन की कविता --- "माँ"

माँ को समर्पित दिव्या गुप्ता जैन की कविता --- "माँ"

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भगवान का दूसरा रूप है माँ,
उसके लीए दे देंगे जान,

हमको मिलता जीवन उससे,
क़दमों मैं है स्वर्ग बसा,

संस्कार वो हमें सिखलाती,
अच्छा बुरा हमें बतलाती,

हमारी गलतियों को सुधारती,
प्यार हम पर बरसाती,

तबियत अगर हो जाये ख़राब,
रात-रात भर जागते रहना,

माँ बिन जीवन है अधूरा,
खाली- खाली, सूना-सूना,

खाना पहले हमें खिलाती,
बाद मैं वह खुद है खाती,

हमारी ख़ुशी मैं खुश हो जाती,
दुःख मैं हमारे, आंसू बहाती,

कितने खुशनसीब है हम,
पास हमारे है माँ,

होते बदनसीब वे कितने,
जिनके पास ना होती माँ!!

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दिव्या गुप्ता जैन

07 मई 2010

जनगणना प्रक्रिया अधूरी क्यों?

देश में जनगणना का कार्य आरभ्य होने जा रहा है, हमारा गृह मंत्रालय इसके लिए प्रारूप तैयार कर चुका है. कल ये प्रश्न उठा कि इनमें जाति के उल्लेख के लिए कोई कॉलम नहीं है और गृह मंत्री इसके लिए तैयार भी नहीं है. लेकिन जाति के उल्लेख के बारे में सभी विपक्षी दल ही नहीं बल्कि सत्ता दल के  लोग भी एक मत हैं. हमारी व्यवस्था में इसको बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. 


क्योंकि प्रारूप तैयार हो चुका है और प्रिंट होकर तैयार भी हो चुके हैं. 

                              जनगणना कोई रोज होने वाली प्रक्रिया नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति के निर्णय से होने वाला काम है. गहन विचार के बाद ही प्रारूप तैयार होना चाहिए था और जब हमारे देश में जती के आधार पर कुछ क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं तो फिर इसका संज्ञान तो बहुत जरूरी हो जाता है. हमारे देश में कितनी पिछड़ी जातियाँ है और उनकी संख्या कितनी है? इसी तरह से जनजातियों , अनुसूचित जातियों और इससे भी बढ़कर अल्पसंख्यक वर्ग की गणना कि जानकारी भी बहुत जरूरी है. 
                            हमारे संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को विशिष्ट सुविधाएँ और आरक्षण प्रदान किया गया है और इतने वर्षों में ये अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्ग उस सीमा से आगे बढ़ चुके हैं लेकिन आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं क्यों कि उनको संविधान में  घोषित किया गया. इस अल्पसंख्यक वर्ग को भी पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्षों से चली आ रही परंपरा को अब ख़त्म करना भी आवश्यक हो चुका है. या फिर इस जाति व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाय और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं होना चाहिए . अगर इसको जारी रखना है तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हम कितने हैं ? हमारा पूरे देश में क्या  प्रतिशत है ? और क्या प्रतिनिधित्व है.
                             वैसे इस जनगणना के साथ यदि वाकई जाति के स्थान पर राष्ट्रीयता को महत्व दिया जाय तो देश का कल्याण हो सकता है.  जो गणना हो वह भारतियों की हो,  कोई जाति  नहीं ,कोई वर्ग नहीं. हाँ अगर उत्थान की दृष्टि से देखना है तो हमें ये स्तर और वर्ग आर्थिक विकास की दृष्टि से बनाने चाहिए ताकि जो पिछड़े हैं या आर्थिक तौर से कमजोर हैं , उनको आरक्षण का लाभ मिल सके.  सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण लेने वालों में समृद्ध और समृद्ध होता जा रहा है और जो पिछड़े हैं वे वहीं के वही हैं उन तक लाभ पहुँच ही नहीं पाता है.

03 मई 2010

दिव्या गुप्ता जैन की कविता -- "बिटिया"

दिव्या गुप्ता जैन द्वारा भेजी गई कविता --- "बिटिया"

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एक गुडिया के कच्चे रुई के फाहे सी है बिटिया

कभी उछ्लकर कभी बिदककर आटे की चिडिया है बिटिया
नन्हे पावों की धीमी थाप है बिटिया
सर्दी में गर्म रोटी की भाप है बिटिया
बिटिया संगम का गंगाजल है
बिटिया गरीब किसान का हल है
चूडियों की खनक , पायलों की झंकार है बिटिया
झरने की मद्दम फुहार है बिटिया
कभी धुप कभी छाव कभी बरसात है बिटिया
गर्मी में पहली बा...रिश की सौगात है बिटिया
चिडियों की चहचाहट कोयल की कूक है बिटिया
हो जिसमे सबका भला वो प्यारा सा झूठ है बिटिया
और किसी मुश्किल खेल में मिलने वाली जीत है बिटिया
दिल को छु जाए वो मधुर गीत है बिटिया
माँ की एक पुकार है बिटिया
मुस्काता एक त्यौहार है बिटिया
सच बोलूं तो बिटिया पीडा की गहरी घाटी है
क्या किसी ने उसकी पीडा रत्ती भर भी बांटी है
अरमानो के काले जंगल उसको रोज जागाते हैं
हम, बिटिया कैसी हो कह कर चुप चाप सो जाते हैं
हर दुःख को हंसते हंसते बिन बोले सह लेती है
पूरे घर में खुशी बिखेरे बिटिया दुःख में रह लेती है।

01 मई 2010

किसी से कुछ कहना ही क्या है !!

किसी से कुछ कहना ही क्या है !!
किसी ने किसी से कुछ कहा और झगडा शुरू,
तो फिर कहना ही क्यूं है,किस बात को कहना है-
कहने में जो अर्थ हैं,गर उनमें ऐसी ही अशांति है,
तो फिर कहना ही क्यूं है,किस बात को कहना है-
कहने में जो आसानी हुआ करती थी कि-
कुछ चीज़ों-लोगों-जीवों-स्थानों के नाम जाने जा सकते थे,
नाम उनकी शक्ल की पह्चान करा देते थे;
बता दिया जाता था अपना हाल-चाल और
दूसरे का हाल भी जाना जा सकता था कुछ कहकर;
कुछ कहने का अर्थ बस इतना-सा ही हुआ करता था कि-
एक-दूसरे को किसी भी प्रकार के खतरे से
आगाह किया जा सकता था और
एक-दूसरे से प्यार भी किया जा सकता था कभी-कभी !!
कुछ कहने से एक सामाजिकता झलकती थी और
एक प्रकार के कुटुम्ब-पने का अहसास हुआ करता था !!
किसी एक के कुछ कहने से यह भी पता चल जाता था कि-
तमाम आदमी दर-असल एक ही इकाई हैं और
देर-अबेर यह धरती की अन्य तमाम प्रजातियों को-
अपनी ही इकाई में समाहित कर लेगा;
अपने-आप में छिपे विवेकशीलता के गुण के कारण !!
मगर इस देर-अबेर के आने से पहले ही-
कु्छ कहना बुद्धि हो गयी और
बुद्धि का समुच्चय एक ज्ञान और संचित ज्ञान-
एक भारी-भरकम एवम एक ठोस अहंकार-
एक ठ्सक-एक तरेर-एक ठनक इस बात की कि-
मैं यह जानता हूं,जो तू नहीं जानता ;
….…कुछ कहने का मतलब तो तब होता था जब
हम यह कहते थे कि यह हम जानते हैं मगर
अकेले हम ही जान कर करेंगे भी क्या-
ये ले,इसे तू भी जान ले;और इस तरह
श्रुतियों के द्वारा ज्ञान बंटा करता था सबके बीच
और बंटता ही चला जाता था और जनों के बीच
सब लोगों के ही बीच्…
अब तो बडी मुश्किल-सी हुई जाती है
अब तो हम यह कह्ते हैं कि
यह मैं ही जानता हूं सिर्फ़ और मैं नहीं चाहता कि-
कहीं गलती से तू भी इसे जान ना ले;
कहीं तू ही मुझसे आगे नहीं बढ जाये
मुझसे कुछ ज्यादा जानकर
असल में मैंने तुझे गिराकर आगे बढ्ना है
……अगर जानना ऐसी ही घिनौनी चीज़ है,
तो फ़िर थू है ऐसे जानने पर
फ़िर झगड़ा होना ही ठहरा;क्योंकि
कहने में सादगी और सरलता ही कहां भला
दर्प है,अहंकार है,तनाव है और बेवजह का झगड़ा !!
अलबत्ता तो कोई किसी से कुछ कहता ही नहीं सीधी तरह
और जो किसी ने किसी से कुछ कहा तो झगड़ा शुरू
तो फ़िर कहना ही क्या है,
किस बात को कहना है आखिर…….…!!

डॉ0 महेन्द्रभटनागर की कविता --- मई दिवस : मानव समता का त्यौहार (मई दिवस पर विशेष प्रस्तुति)

मई दिवस मई पर विशेष
मई दिवस : मानव-समता का त्योहार
महेंद्रभटनागर

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जब तक जग के कोने-कोने में न थमेगा
सामाजिक घोर विषमता का बहता ज्वार,
हर श्रमजीवी तब तक
अविचल मुक्त मनाएगा ‘मई-दिवस’ का त्योहार !
मानव-समता का त्योहार !
.
वह मई-माह की पहली तारीख़ अठारह-सौ-छियासी सन् की,
जब अमरीका के शहरों में
मज़दूरों की टोली विद्रोही बनकर निकली !
देख जिसे
थर-थर काँपी थी पूँजीवादी सरकार,
पशु बनकर मज़दूरों पर जिसने किये दमन-प्रहार !
पर, बन्द न की जनता ने अपने अधिकारों की आवाज़,
भर लेता था उर में
उठती स्वर-लहरों को आकाश !
.
वह बल था
जो धरती से जन्मा था,
वह बल था
जो संघर्षों की ज्वाला से जन्मा था,
वह बल था
जो पीड़ित इंसानों के प्राणों से जन्मा था !
.
फिर सोचो, क्या दब सकता था ?
पिस्तौल, मशीनगनों से क्या मिट सकता था ?
बढ़ता रहा निरन्तर
श्रमिकों का जत्था सीना ताने,
होठों पर थे जिसके
आज़ादी के, जीवन के प्रेरक गाने !
.
जिन गानों में
दुनिया के मूक ग़रीबों की
आहें और कराहें थीं,
जिन गानों में
दुनिया के अनगिनती मासूमों के
जीवन की चाहें थीं !
आहें और कराहें कब दबती है ?
जीवन की चाहें कब मिटती हैं ?
टकराया है मानव जोंकों से
और भविष्यत् में भी टकराएगा !
.
वह निश्चय ही
सद्भावों को वसुधा पर लाएगा !
वह निश्चय ही
दुनिया में समता, शान्ति, न्याय का
झंडा ऊँचा रक्खेगा !
मानव की गरिमा को जीवित रक्खेगा !

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Dr. Mahendra Bhatnagar
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