डॉ0 महेंद्रभटनागर की कविता -- ग्रीष्म
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तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण !
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त्रस्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन !
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जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया न कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन !
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भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !
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रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण !
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E-Mail : drmahendra02@gmail.com
Phone : 0751-4092908
6 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रस्तुति
मुझको यह प्रस्तुति रुची
UTTAM
भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !
बहुत अच्छी रचना।
बहुत सुन्दर शब्दों में ग्रीष्म से परिचित कराया....आपकी कविता से गर्मी में भी ठंडक मिली....
अभिमत देख-पढ़ कर अच्छा लगा। संगीता जी की कथन-भंगिमा से आनन्दित हुआ!
*महेंद्रभटनागर
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