19 सितंबर 2009

डॉ0 महेन्द्र भटनागर के काव्य संग्रह "राग-संवेदन" की कविता 'आल्हाद' 'आसक्ति'

(1) आह्लाद
.
बदली छायी
बदली छायी!
.
दिशा-दिशा में
बिजली कौंधी,
मिट्टी महकी
सोंधी-सोंधी!
.
युग-युग
विरह-विरस में
डूबी,
एकाकी
घबरायी
ऊबी,
अपने
प्रिय जलधर से
मिल कर,
हाँ, हुई सुहागिन
धन्य धरा,
मेघों के रव से
शून्य भरा!
.
वर्षा आयी
वर्षा आयी!
उमड़ी
शुभ
घनघोर घटा,
छायी
श्यामल दीप्त छटा!
.
दुलहिन झूमी
घर-घर घूमी
मनहर स्वर में
कजली गायी!
.
बदली छायी
वर्षा आयी!

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(2) आसक्ति
.
भोर होते —
द्वार वातायन झरोखों से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल चिड़ियाँ
जगाती हैं,
उठाती हैं मुझे!
.
रात होते
निकट के पोखरों से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी दर्दुर
गा - गा
सुलाते हैं,
नव-नव स्वप्न-लोकों में
घुमाते हैं मुझे!
.
दिन भर —
रँग-बिरंगे दृश्य-चित्रों से
मोह रखता है
अनंग-अनंत नीलाकाश!
.
रात भर —
नभ-पर्यंक पर
रुपहले-स्वर्णिम सितारों की छपी
चादर बिछाए
सोती ज्योत्स्ना
कितना लुभाती है!
अंक में सोने बुलाती है!
.
ऐसे प्यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा — इतनी मनोहर
छोड़ दूँ कैसे?
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डा. महेंद्रभटनागर,
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