30 नवंबर 2009

कृष्ण दयाल सक्सेना 'निस्पृह ' का गीत

निभना ही सीखा जीवन में

जाने कितनी बाधाओं को , मैंने शशि- सम हृदय लगाया ;
कष्ट-भार से बोझिल मन को , विचलित होने पर समझाया ;
भाँति शलभ की, दुःख की लौ पर ,मिटना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा .......................................................... । १।
शूल-सुमन दोनों को एक सम ,इस जीवन में प्यार किया है ;
शूल -मूल्य लेकर मानव से ,पुष्पों का व्यापार किया है ;
बन चकोर शशि हित ,शोलों को, चुगना ही सिखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ...............................................................। 2।
मंद पवन की शीतल सिहरन, को मैंने स्वीकार किया है ;
जब कि चुभन से भी शूलों की ,हँस कर ही अभिसार किया है ;
आंधी और तूफानों में भी , बढ़ना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ३।
मृग-चितवन की मनहर छवि का,मंजुल स्वर में गान किया है;
जब कि शौर्य को भी मृगेंद्र के ,समुचित ही सम्मान दिया है ;
कोमल -सबल सभी से मिल कर, हँसना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा ........................................................ । ४ ।
जब भी जिसको वचन दिया जो ,उसको पूरी तौर निभाया ;
हँस कर ही टाला है मग में ,कंकड़ -पत्थर , जो भी आया ;
कष्ट पड़े कितने भी ,प्रण पर टिकना ही सीखा जीवन में ;
निभना ही सीखा........................................................ ।५ ।

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