सूरज नगर की छत पर
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सूरज नगर की छत पर ठिठका खड़ा है -
देख रहा है
गलियों को चलते
दम भरते
कुचलते
खोते
लड़ते
उलझते
शायद ये मिलेगी किसी सड़क से
जहाँ सभ्य-सुसंस्कृत
मौलश्री की कनातें
अमलतास की पीली गरिमा
से गुज़रते कोई मोड़ होगा
और मंजिलों का सब्र
खुला आकाश होगा !
ये गलियाँ ठिठकी देख रही सूरज को -
कैसे खड़े रह पाए इतनी देर
यहाँ चलने को कदम कहाँ ?
कंधें हैं
टकराने को.
एक गंध
बासी हवा की
एक सीलन बादलों के तहखाने की
एक चकत्ता धूप
अलाव जलाने भर की.
जिन्दगी ठंडा तवा है
सांस एक आस -धौंकनी
अंगीठी की .
यूं छत पर न टिके रहो
उतरो
चलो
नापो
पैर को होने दो जख्मी
खून ज़रा रिसने दो
तब तक
जब तक दर्द का अहसास
तुम्हारी छाती को न जला दे
और एक आह
भर सको
जिन्दा होने की .
हमें तो आदत है
मर कर भी
रोज़ पड़ी रहती हैं
मंदिर के किनारों
मस्जिद की मीनारों के गिर्द कहीं
तुम आज इस नगर को घूम आओ -
कहीं कोई आकाश मिले
हमारे लायक
तो पता देना
हम भी तो देखें भला
ऊंचाई होती है क्या?
या सिर्फ छत पर चढ़ने -भर का हौसला !
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अपर्णा
1 टिप्पणी:
अपर्णा दी आपकी कविता 'सूरज नगर की छत पर' शब्दकार मे देख कर अपार अपार हर्ष हुआ, शुभकामनाएं!
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