08 जुलाई 2010

अज्ञेय के साथ की अनुभूतियाँ -- डॉ0 महेन्द्रभटनागर का संस्मरण

डॉ0 महेंद्रभटनागर का संस्मरण ---
मेरी ज़िन्दगी में भी आये थे ‘अज्ञेय’
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अपने प्रारम्भिक साहित्यिक जीवन में ‘अज्ञेय’ जी से बड़ा प्रभावित था। उनका मेरा प्रथम साहित्यिक परिचय ‘गैंग्रीन’ (‘रोज़’) शीर्षक कहानी के माध्यम से हुआ। इस कहानी के कला-सौन्दर्य और मनोवैज्ञानिक चित्रण ने बड़ा आकर्षित किया था। तदुपरांत, ‘अज्ञेय’ जी की और भी कहानियाँ पढ़ीं — जो उपलब्ध हो सकीं। ‘कोठरी की बात ’ (जेल-जीवन की कहानियों का संग्रह) पढ़ी। ‘अज्ञेय’ जी के व्यक्ति के संबंध में, बहुत-कुछ उज्जैन-आवास के दौरान, प्रभाकर माचवे जी से सुना। तदुपरांत, डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी से। ‘तार-सप्तक’ (प्रकाशन- सन् 1943) प्रभाकर माचवे जी के यहाँ ही देखा; सन् 1945 के बाद कभी। ‘तार-सप्तक’ के मुख-पृष्ठ का चित्र देखकर ‘अज्ञेय’ जी की असाधारणता का बोध होता है। माचवे जी इस चित्र को समझ नहीं पाते थे; उन्हें वह कुछ उल्लू का-सा चित्र प्रतीत होता था ! ‘अज्ञेय’ जी के वैशिष्ट्य पर हम प्राय: बात करते थे। ‘तार-सप्तक’ की प्रकाशन-योजना भी माचवे जी से ही विदित हुई थी। ‘अज्ञेय’ जी से मेरा सीधा परिचय व पत्राचार सन् 1948 में हुआ। उन दिनों, उज्जैन से, ‘सन्ध्या’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहा था। ‘सन्ध्या’ की प्रति ‘अज्ञेय’ जी को भी प्रयाग भेजी। ‘अज्ञेय’ जी का उत्साहवर्द्धक पत्र मिला :

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प्रयाग / दि. 17-11-48


प्रिय महेंद्र जी,

‘सन्ध्या’ मिली। सुंदर है, और आशा करता हूँ कि आप उसे निकाल ले जायेंगे। मध्य-भारत में नयी पत्रिकाओं के लिए काफ़ी क्षेत्र है और आपको उसका लाभ उठा कर ‘सन्ध्या’ की उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए।

मैं दिसम्बर में कुछ भेज सकूंगा; आप क्या एक बार याद दिलाने का कष्ट करेंगे?


सस्नेह,

आपका


वात्स्यायन

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‘अज्ञेय’ जी, इन दिनों प्रयाग से ‘प्रतीक’ (द्वै-मासिक साहित्य-संकलन) निकाल रहे थे - श्रीपतराय जी के साथ। ‘प्रतीक’ के अंक क्र. 10 (हेमंत/ 1948) में उन्होंने मेरी भी एक कविता ‘संकल्प-विकल्प’ प्रकाशित की :

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आज यह कैसी थकावट?

कर रही प्रति अंग - रग-रग को शिथिल!

.

मन अचेतन भाव-जड़ता पर गया रुक!

ये उनीदें शान्त बोझिल नैन भी थक-से गये!

.

क्यों आज मेरे प्राण का

उच्छ्वास हलका हो रहा है,

गूँजते हैं क्यों नहीं स्वर व्योम में?

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पिघलता जा रहा विश्वास मन का

मोम-सा बन,

और भावी आस भी

क्यों दूर-तारा-सी

दृष्टि-पथ से हो रही ओझल?

.

व जीवन का धरातल

धूल में कंटक छिपाये

राह मेरी कर रहा दुर्गम!

.

गगन की घहरती इन आँधियों से

आज क्यों यह दीप प्राणों का

रहा उठ रह-रह सहम?

.

रे सत्य है,

इतना न हो सकता कभी भ्रम!

.

भूल जाऊँ?

या थकावट से शिथिल हो कर

नींद की निस्पन्द श्वासों की

अनेकों झाड़ियों में

स्वप्न की डोरी बना कर झूल लूँ?

.

इस सत्य के सम्मुख झुका कर शीश अपना

आत्म-गति को

(रुक रही जो)

रोक लूँ?

.

या सत्य की हर चाल से

संघर्ष कर लूँ आत्मबल से आज?

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इस अंक के अन्य लेखक थे — दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, जैनेन्द्र कुमार, भगवतशरण उपाध्याय, गिरिजाकुमार माथुर, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, नलिनविलोचन शर्मा, प्रभाकर माचवे आदि।
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‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से स्वाध्यायी परीक्षार्थी के रूप में, हिन्दी में एम. ए. कर चुका था। ‘महाराजवाड़ा शासकीय हाई स्कूल, उज्जैन’ में अध्यापक था — मात्र साठ रुपये प्रति माह पर ! भूगोल और हिन्दी की कक्षाएँ लेता था। स्वयं को बड़ा असंतुष्ट अनुभव करता था। किसी बेहतर कार्य व पद के लिए प्रयत्नशील था। पिता जी के वेतन-मात्र से घर का गुज़ारा कठिन होता जा रहा था। परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण ही, बी. ए. करने के बाद, नौकरी करनी पड़ी थी।

‘अज्ञेय’ जी से संबंध क्रमशः विकसित होते गये। सोचा; क्यों न उनके माध्यम से ‘ऑल इंडिया रेडियो’ की किसी नौकरी के लिए प्रयत्न करूँ। कारण, पूर्व में माचवे जी के साथ, ‘ऑल इंडिया रेडियो, बम्बई’ का इंटरव्यू दे चुका था। माचवे जी उन दिनों ‘माधव इण्टरमीडिएट शासकीय महाविद्यालय, उज्जैन’ में तर्क-शास्त्र; फिर अंग्रेज़ी के व्याख्याता थे। साहित्यिक ख्याति पर्याप्त अर्जित कर चुके थे। उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में जम कर लिख रहे थे। जम कर लिखना तो उनका जीवन-भर रहा। मैं अध्यापकी से असंतुष्ट था। समाचार पत्रों में रोज़गार संबंधी विज्ञापन नियमित देखता था। एक दिन, ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के प्रोग्राम असिस्टेंट का विज्ञापन देखने में आया। तुरन्त पत्र लिख कर फॉर्म मँगवाया। फॉर्म भरने में कोई त्रुटि न रह जाये; एतदर्थ माचवे जी को दिखाने गया। माचवे जी मुझसे हर प्रकार से वरिष्ठ थे। उन्होंने देखा-भाला और फिर मैंने उसे पंजीयत-डाक से निर्दिष्ट पते पर भेज दिया। उचित समय पर, इण्टरव्यू-कॉल आया। बम्बई का। बड़ी खुशी हुई। फौरन माचवे जी को बताने, उनके निवास पर पहुँचा। माचवे जी बोले, ‘‘मेरा भी इण्टरव्यू-कॉल आया है। बम्बई का। बम्बई साथ-साथ चलेंगे। वहाँ ठाणे में, मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं — लोकल-ट्रेन निरीक्षक। वहाँ ठहरेंगे।’’ और फिर, उन्होंने बताया कि जब मैं अपना भरा हुआ फॉर्म उन्हें दिखाने गया था; तब उन्होंने भी फॉर्म मँगवा लिया था और भर कर भेज दिया था। विज्ञापन तो उनकी नज़र में आया नहीं; मेरे से ही जानकारी उन्हें मिली थी। अपने आवेदन के संबंध में उन्होंने मुझे कुछ बता नहीं रखा था; जो स्वाभाविक था। इण्टरव्यू-कॉल के कारण सब प्रकट हो ही जाना था। वैसे माचवे जी भी अपने पद से संतुष्ट नहीं थे। वे भी कहीं बाहर निकल जाने के लिए, मेरे समान, छटपटा रहे थे। हम दोनों के इण्टरव्यू, बम्बई में, एक ही दिन हुए। हम दोनों ने एक ही प्रांत से, एक ही नगर से और एक ही मुहल्ले (माधवनगर) से आवेदन-पत्र प्रेषित किये थे। केन्द्रीय सरकार की नौकरी थी। एक बार में, एक ही स्थान से, दोनों का चयन किया जाना, शायद ठीक न समझा गया हो। ज़ाहिर है, माचवे जी की तुलना में, मेरा पहले चुना जाना सम्भव (न्यायोचित) न था। और माचवे जी का ही चयन हुआ। लेकिन, मुझे रिजेक्शन-कार्ड उस समय तक नहीं भेजा गया; जब-तक माचवे जी ने 'ऑल इंडिया रेडियो नागपुर’ में कार्य-भार ग्रहण नहीं कर लिया। इससे यही अनुमान लगाया; यदि किसी कारणवश माचवे जी रेडियो की नौकरी स्वीकार नहीं करते तो फिर नियुक्ति-पत्र मेरे पास आता ! प्रतीक्षा-सूची संबंधी सूचना देने की प्रथा तब, लगता है, नहीं थी। गरज़ यह है कि मैं अपने अध्यापक-पद पर यथावत् बना रह गया ! इस पृष्ठभूमि में, मैंने ‘अज्ञेय’ जी को लिखा। ‘अज्ञेय’ जी ने मुझे यथासमय उत्तर दिया :

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प्रतीक / 14 हेस्टिंग्स रोड, इलाहाबाद / दि. 17 जनवरी 1949

प्रिय महेंद्र जी,


आपका कार्ड मिला था। उसका उत्तर इसलिए नहीं दिया कि पड़ताल अभी बाक़ी थी।
रेडियो प्रोग्राम असिस्टेंट और ट्रांसमिशन असिस्टेंट तो अभी और लिए जाएंगे। इनकी नियुक्ति तो नयी दिल्ली द्वारा होती है ; लेकिन आप चाहें तो आवेदन लखनऊ के स्टेशन-डायेक्टर को भी भेज सकते हैं। इलाहाबाद के लिए, जहाँ तक मुझे मालूम है, प्रोग्राम असिस्टेंट नये नहीं लेकर, लखनऊ और दिल्ली से ही पूरे कर लिए जाएंगे। लेकिन स्टाफ़-आर्टिस्ट तो दो-तीन लिए जाएंगे और एनाउन्सर भी। इनके लिए अगर आप आवेदन देना चाहें तो मुझे भेज दें। आशा है कि मैं कुछ सहायता कर सकूंगा। आप एक बाज़ाब्ता आवेदन-पत्र स्टेशन-डायेक्टर, लखनऊ के नाम भी भेज दें कि आप इलाहाबाद में स्टाफ़-आर्टिस्ट या एनाउन्सर होना चाहते हैं। जो आवेदन-पत्र भेजें, उसकी एक अतिरिक्त कापी मेरे पास भेज दें मै यहाँ से कोशिश कर लूंगा। आपको ऑडीशन के लिए आना होगा। जनवरी के अंतिम और फ़रवरी के प्रथम सप्ताह में लोगों को उसके लिए बुलाया जाएगा। जिस तरह की योग्यताओं की ज़रूरत है, वह तो आप जानते ही हैं। मातृभाषा भी हिन्दी हो तो अच्छा है। इसके अलावा अगर आप बुंदेलखंडी या संयुक्त प्रांत की और कोई जन-बोली बोल सकते हों तो उसका उल्लेख अवश्य कर दीजिएगा। उत्तर शीघ्र दें और आवेदन तो फौ़रन भेज दें।

आशा है, आप प्रसन्न हैं।

स्नेही

वात्स्यायन

आवेदन के साथ ऐसी एक तालिका दे दें :


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(अंग्रेज़ी में प्रोफार्मा का प्रारूप ‘अज्ञेय’ जी ने स्वयं लिख कर भेजा।)
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‘अज्ञेय’ जी ने इतनी रुचि ली; देखकर मन उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया। इस समय तक, उनसे मिला तक न था। सूत्र मात्र रचनात्मक लेखन था; पत्राचार था। ‘अज्ञेय’ जी में, एक बहुत अच्छे मित्र के गुण थे। सहयोग करना; उपकार करना उनकी प्रकृति थी। खेद है, उनके और निकट न आ सका।

निर्धारित कार्यक्रमानुसार, उनसे मिलने इलाहाबाद तक न जा सका। कारण, मात्र यात्रा-भीरुता। ‘अज्ञेय’ जी को फिर लिखा और अपनी स्थिति बतायी। इस बीच यह ख़बर सुनने में आयी कि ‘नोबल-प्राइज़’ के लिए ‘अज्ञेय’ जी के नाम पर भी विचार हो रहा है ! अतः पत्र में इसका भी उल्लेख किया। प्रभाकर माचवे जी आकाशवाणी-केन्द्र, नागपुर से स्थानान्तरित होकर इलाहाबाद पहुँच चुके थे। इसकी सूचना भी ‘अज्ञेय’ जी ने दी और पत्रोत्तर में लिखा :

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‘अज्ञेय’/ 14 हेस्टिंग्स रोड इलाहाबाद / 16 फरवरी 1949

प्रिय महेन्द्र जी,

आपका 2 तारीख़ का पत्र मिला। यों तो आप इधर अभी आ गये होते तो अच्छा होता। जो कुछ निर्णय होना होता जल्द पता लग जाता। लेकिन अब अगर सुविधा नहीं है तो मई के प्रथम सप्ताह में ही सही। इस बीच मैं फिर बात कर लूंगा।
प्रभाकर जी आ गये हैं और मेरे साथ ही हैं। आपको अलग से पत्र लिख रहे हैं। मेरी जब-तब जहाँ-तहाँ एप्लाई करने की बात उड़ती रहती है। ऐसी अफ़वाहों से, और नहीं तो, मेरा मनोरंजन तो होता ही है !

स्नेहपूर्वक आपका,

स. ही. वात्स्यायन
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सन् 1950 लग गया। एल. टी. कर चुका था। मध्य-भारत के तत्कालीन शिक्षा-संचालक श्री भैरवनाथ झा ने, साक्षात्कार के पश्चात् मुझे पदोन्नत कर, व्याख्याता बना कर, इंटरमीडिएट कॉलेज, धार स्थानान्तरित कर दिया। इससे आर्थिक दृष्टि से भी कुछ राहत मिली। बाहर, अन्यत्र जा कर नौकरी करने का विचार त्याग दिया। लेकिन ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त करने का निश्चय किया। डा. विनयमोहन शर्मा जी के निर्देशन में। विषय रखा-‘प्रेमचंद के समस्यामूलक उपन्यास’। इस संबंध में, ‘अज्ञेय’ जी को बताया और उनकी राय ली। प्रेमचंद का उपन्यास-साहित्य ख़रीदना था। श्रीपतराय जी को लिखने के पूर्व ‘अज्ञेय’ जी को लिखा। उन्होंने, श्रीपतराय जी से कह कर, प्रेमचंद के उपन्यासों का सेट मुझे उपहार-स्वरूप तुरन्त भिजवा दिया। इस सबसे संबधित उनका पत्र इस प्रकार है:

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इलाहबाद / दि. 29 अगस्त 1950

प्रियवर,


आपका पत्र दिल्ली से लौट कर कल देखा। आप धार में नियुक्त हो गये जानकर आनन्द हुआ।
प्रेमचंद के ‘समस्यामूलक’ उपन्यास कौन से हैं ? मेरी समझ में तो सब या सामाजिक हैं या व्यक्ति चरित्र के उपन्यास हैं। यों उपन्यास कला आदि के विषय में पुस्तकों की सूची आप को कुछ दिनों बाद याद दिलाये जाने पर दिल्ली से भेज दूंगा। मैं अब इधर कम और दिल्ली अधिक रहता रहूंगा — प्रतिमास एक सप्ताह इलाहाबाद और तीन सप्ताह दिल्ली। दिल्ली का पता है द्वारा ‘ थॉट’, साप्ताहिक, 35 फे़ज़ बाज़ार रोड, दरियागंज, दिल्ली। आपका पत्र श्रीपतजी को देकर उन्हें कहे दे रहा हूँ; आप उन्हें या अमृत को सीधे पत्र लिख सकते हैं।

पता श्रीपतराय, 6 ड्रमंड रोड, इलहाबाद।


सस्नेह,


वात्स्यायन


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‘अज्ञेय’ जी के, उपर्युक्त पत्र में, व्यक्त विचार के आलोक में ही, मैंने ‘समस्यामूलक उपन्यास’ का विस्तृत सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया। शोध-प्रबन्ध के ‘प्रवेश’ में भी अपना मन्तव्य स्पष्ट किया। विवादास्पद पक्ष ही शोध को नवीनता व मौलिकता प्रदान करते हैं। वस्तुतः लेखक की अपनी थीसिस यही होती है। सर्व-मान्य पक्षों पर लिखना इतना धारदार नहीं होता। उसमें मात्र श्रम है — चाहे वह विवेचन-विश्लेषण का ही क्यों न हो। नवीन स्थापना सही अर्थों में शोध है।

‘अज्ञेय’ जी को मात्र एक बार प्रत्यक्ष देख-सुन सका ; जब वे ‘माधव माहविद्यालय’, उज्जैन किसी कार्यक्रम में आये थे। सन् ठीक-ठीक स्मरण नहीं। सम्भवतः सितम्बर 1955 के पूर्व। उन दिनों ‘सुमन’ जी भी उज्जैन में थे।
प्रगतिशील काव्य-धारा से जुड़े होने के कारण; ‘अज्ञेय’ जी की प्रकाशन-योजनाओं में सम्मिलत होना कभी नहीं चाहा। ‘सप्तकों’ में स्थान मिले; ऐसा कभी सोचा तक नहीं; यद्यपि श्री गिरिजाकुमार माथुर चाहते थे। ‘आलोचना’ (जुलाई 1954) में प्रकाशित उन्होंने अपने एक लेख (‘नई कविता का भविष्य’, पृ. 64 ) में ऐसा संकेत भी दिया। इसके पूर्व, श्री गजानन माधव मुक्तिबोध ने, आकाशवाणी-केन्द्र नागपुर से, मेरी काव्य-कृति ‘टूटती शृंखलाएँ (प्रकाशन सन् 1949) की समीक्षा, ‘तार-सप्तक’ के परिप्रेक्ष्य में, प्रसारित करते हुए, उसे ‘तार-सप्तक’ की परम्परा का काव्य स्थापित किया था।

‘अज्ञेय’ जी के काव्य पर, सन् 1946 में प्रकाशित ‘इत्यलम्’ संकलन के आधार पर मैंने अपने छात्रों को एक आलेख का डिक्टेशन दिया था; ‘आधुनिक साहित्य और कला' में और फिर 'समग्र' खंड-5 में समाविष्ट है। छात्रोपयोगी दृष्टि के कारण, इसमें नया स्वतंत्र स्व-चिन्तन नहीं; मात्र सामान्य विशेषताओं का उल्लेख है।

'अज्ञेय'-काव्य में बहुत-कुछ स्पष्ट, सम्प्रेषणीय, कलात्मक व आकर्षक है; तो पर्याप्त दुरूह, जटिल व अस्पष्ट भी। उनकी समग्र साहित्य-साधना, नि:संदेह महत्त्वपूर्ण है; जिस पर तटस्थ-निष्पक्ष दृष्टि से विचार होना शेष है।

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110, बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर 474 002 [म.प्र.]

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

महेन्द्र भटनागर जी का संस्मरण और अगेय जी के बारे मे विस्तृत जानकारी बहुत अच्छी लगी धन्यवाद।