14 जुलाई 2010

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
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दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह.
'सलिल' नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह..
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प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
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कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
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मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
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हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
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जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
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छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
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कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
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बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
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अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
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रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..

2 टिप्‍पणियां:

girish pankaj ने कहा…

dohe parh kar aapke,milaa nayaa utsah,
kuchh mai bhi aisa likhoon, log kar uthen vaah..
badhai

Divya Narmada ने कहा…

pankaj ke sng juda hai
jb se yaar gireesh.
'salil' door hee rah gaya,
naman kare nat sheesh..