कुहुक
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गूँज उठी
चिर प्रतीक्षित कुहुक ...
घुल गया शहद -सा ..
हूँ ..! पहचाना स्वाद !
या कोई फंतासी मन की ?
याद है अपना बचपन मुझे ....
तब तुम कोलरिज की कुबलाई खान न थीं ....!
थीं एक जीती-जागती अमराई के
स्वादु आम की
पकी मिठास !
डाली-डाली
फुदक-फुदक
करतीं संगीत समारोह ...
न जाने कितनी रामलीलाएं भी फीकी थीं !
फिर पाना हमारी प्रशंसा ..
और गर्विता का
मंद होते नीलाभ आकाश से
धूप की नमी बीच
कहीं सांध्य के झुरमुट से
दीठना ..
और एक ठुमके के साथ
कुहू-कुहू की डोर में बंधी पतंग का
आकाश में उड़ना ....
मैं भी उड़ जाता संग तुम्हारे ...!
सुधियों के झरोखे से
कुछ कनखियाँ लगाते
देखता हूँ खुद को ...
दो फुटी ऊंची मेड
कंधे तक आती कनक बालियाँ ..
रहट की घर्र-घर्र ...
और अचानक सर्र से गुज़र जाना
तुम्हारे संगीत का ..!
पर अब ?
तुम फंतासी हो ..
और मैं कठोर ज़मीन से चिपका
यथार्थ !
सोचता हूँ -
किस शहर
किस गाँव मिलोगी ...
या बिन मिले कुहुक के
कैसे पकेंगे आम ...
बेस्वाद ...हैं ...
मुँह को
कसैलेपन की आदत हो गयी है ....!
जोगेंद्र सिंह
1 टिप्पणी:
अच्छी कविता है
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