10 नवंबर 2009

नवगीत: बैठ मुंडेरे/कागा बोले --आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

बैठ मुंडेरे

कागा बोले

काँव, काँव का काँव.

लोकतंत्र की चौसर

शकुनी चलता

अपना दाँव.....
*
जनता

द्रुपद-सुता बेचारी.

कौरव-पांडव

खींचें साड़ी.

बिलख रही

कुररी की नाईं

कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल

हुई है

सूनी अमराई.

पनघट सिसके

कहीं न दिखतीं

ननदी-भौजाई.

राजनीति ने

रिश्ते निगले

सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो

भूख नहीं है.

नहीं भूख को दाना.

नादाँ स्वामी,

सेवक दाना

सबल करे मनमाना.

सूरज

अन्धकार का कैदी

आसमान पर छाँव...
*

1 टिप्पणी:

शब्दकार-डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

vaakai SOORAJ andhkar ke ADHEEN ho gayaa hai, achchha GEET.
aapke dwara lagaatar SAHYOG karne ka AABHAR.